ब्रिटिश शासन के दौरान हिंदू सुधार आंदोलन | Hindu Reform Movements During British Rule!
Read this article in Hindi to learn about the Hindu Revivalism in India and its impact on politics during British rule.
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध का राजनीतिक गरमपंथी नरमपंथियों की असफलताओं की प्रतिक्रिया ही नहीं था, उसे अपनी प्रेरणा और विचारधारा को प्राप्ति उस सांस्कृतिक और बौद्धिक आंदोलन से प्राप्त हुई,
जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नरमपंथी राजनीति के साथ-साथ और समानांतर विकसित हुई ।
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इस आंदोलन को अस्पष्ट ढंग से ”हिंदू पुनरुत्थानवाद” कहा जाता है । विभिन्न धाराओं और परस्परविरोधी प्रतिनिधियों के बावजूद आम तौर पर इसका अर्थ मुख्यत: हिंदू धार्मिक प्रतीकों, मिथकों और इतिहास के विश्वास से भारतीय राष्ट्र को परिभाषित करने का एक प्रयास था ।
भारत में धर्म कभी राजनीति में पूरी तरह अलग नहीं रहा न ही वह पूरी तरह निजी जीवन तक सीमित था । लेकिन जहाँ तक धर्म संबंधी सार्वजनिक संवादो का सवाल था हमें उसकी दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों, अर्थात् सुधार और पुनरूत्थान, के बीच अंतर करना होगा ।
सुधार आंदोलनों ने जिनमें अनेक नरमपंथी राजनीतिज्ञ संलग्न थे मूलत: हिंदू सामाजिक संगठन और आचार-विचार में अंदर से बदलाव लाने के प्रयास किए; इसका उद्देश्य उनको पश्चिम के नए बुद्धिवादी विचारों के अनुरूप ढालना था ।
1887 में राष्ट्रीय कांग्रेस के एक सहायक संगठन के रूप में राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन (नेशनल सोशल कॉन्फ्रेंस) की स्थापना इसी मानसिकता की सूचक थी । हालाँकि धर्म को सोचे-समझे ढंग से उसकी कार्यसूची से बाहर रखा गया पर उसने जिन मुद्दो पर चर्चा की और विभिन्न प्रांतीय संगठनों से जो सिफ़ारिशें कीं, उनके ज़बरदस्त राजनीतिक निहितार्थ थे ।
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ये आंदोलन पाश्चात्य ज्ञानोदय (Western Enlightenment) के बाद के बुद्धिवादी विचारों से भी प्रभावित थे तथा पश्चिमीकरण की शक्तियों की चुनौती और उनकी हिंदू सभ्यता संबंधी समालोचनाओं के प्रत्युत्तर भी थे । सुधारवाद के इसी दूसरे पक्ष ने अंतत: पुनरुत्थानवाद को जन्म दिया ।
कारण कि अनेक भारतीयों को सुधार, जिनका अकसर उपनिवेशी सरकार का समर्थन प्राप्त होता था पश्चिमी आलोचको और आयातित बुद्धिवादी विचारो का एक अपर्याप्त प्रत्युत्तर बल्कि उनके आगे समर्पण भी लगते थे ।
जैसा कि चार्ल्स हाइमसैथ (1964) ने तर्क दिया है, राष्टवाद और सुधारवाद परस्परविरोधी विचार लगते थे, और इसके कारण हर भारतीय विशेषता में गर्व की भावना पर आधारित सुधारवाद-विरोध का जन्म हुआ । इसे ही अकसर पुनरुत्थानवाद कहा जाता है, क्योंकि उसकी विशेषता ऐसे शानदार हिंदू अतीत की धारणा में आस्था थी जिसका पतन मुस्लिम शासन के दौरान हुआ और जिसे अंग्रेजों की ओर से खतरा था ।
इस्लामी या पश्चिमी सभ्यता पर हिंदू सभ्यता का यह महिमामंडन अकसर हिंदू संस्थाओं और आचार-विचारों के गुणगान और युक्तीकरण (rationalisation) का प्रयास बन जाता था; यहाँ तक कि कभी-कभी तो तात्कालिक महत्त्व के समाजसुधारों का भी विरोध किया जाता था ।
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उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में सुधारवादी प्रवृत्ति धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ी और ये पुनरूत्थानवादी शक्तियाँ मजबूत हुईं । लेकिन यह पुनरुत्थानवाद मात्र पोंगापंथ नहीं था; इसका एक जोरदार राजनीतिक स्वर था जो एक आधुनिक भारतीय राष्ट्र की रचना की ऐतिहासिक आवश्यकता से प्रेरित था ।
सुधारवादी संगठनों में बंगाल का ब्रह्मसमाज, जिसका दृष्टिकोण अधिक आधुनिक था, अंदरूनी कलह और फूट के कारण 1870 के दशक के बाद कमज़ोर पड़ गया । उसके बाद 1880 के दशक में रामकृष्ण और विवेकानंद के आंदोलन का उदय हुआ । जहाँ ब्रह्मसमाज बुद्धिजीवियों को आकर्षित करता था, वहीं कलकत्ता के पास दक्षिणेश्वर के ब्राह्मण संत रामकृष्ण परमहंस के आंदोलन ने मन और भावनाओं को स्पर्श किया ।
पश्चिम की बुद्धिवादी शिक्षा से एकदम अछूते इस संत ने हिंदू धर्म की सरल व्याख्याएँ पेश कीं जो उन पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त बंगालियों में बेहद लोकप्रिय हुई, जो विदेशी सौदागरों के या सरकार के कार्यालयों में क्लर्क की नीरसता से ऊब चुके थे ।
इन लोगों के लिए रामकृष्ण की शिक्षाओं ने विजातीय नौकरियों में अनुशासन के बंधन के बावजूद भक्ति के मानस-जगत में पलायन की संभावना प्रस्तुत की । इस तरह, हालांकि उनकी शिक्षाओं में उपनिवेशी शासन का सीधा उल्लेख शायद ही रहा हो उनमें पश्चिमी शिक्षा द्वारा आरोपित मूल्यों को और समयबद्ध चाकरी के दैनिक जीवन को खुले तौर पर अस्वीकार किया गया था ।
उन्नीसवीं सदी में शिक्षित मध्यवर्ग को बुद्धि जगत अकसर उत्पीड़क लगता था, क्योंकि उसका अर्थ ”सभ्यताकारी” उपनिवेशी शासन की ऐतिहासिक अपरिहार्यता था । इसलिए दक्षिणेश्वर के इस अशिक्षित संत की शिक्षाओं में इस नौकरीपेशा मध्यवर्ग को ऐसे एक नए धर्म को प्रस्तुति दिखाई पड़ी जिसने पार्थ चटर्जी के शब्दों का प्रयोग करें, तो लोक ”परंपराओं का अधिग्रहण”, ”परिष्कार” और ”क्लासिकीकरण” करके एक राष्ट्रीय धार्मिक संवाद का रूप दे दिया ।
रामकृष्ण अपने आप में पुनरुत्थानवादी नहीं थे, क्योंकि उन्होंने धार्मिक यदृच्छावाद (eclecticism) का ऐसा रूप तैयार किया, जो एक मुक्त और तरल समन्वयवाद (syncretism) के उपदेश पर आधारित नहीं था । उनका तर्क था कि ईश्वर को पाने के ढंग तो अनेक हैं, पर विविध विभाजनों की दुनिया में व्यक्ति को अपने ही मार्ग पर डटे रहना चाहिए ।
इसलिए रामकृष्ण के सार्वभौमवाद को शीघ्र ही हिंदू धर्म के सार के रूप में पेश किया जाने लगा और यही उनके शिष्य विवेकानंद के लिए दूसरे सभी धर्मों पर हिंदू धर्म की श्रेष्ठता का दावा करने का आधार था । इस संवाद में एक मिशनरी उत्साह विवेकानंद ने ही भरा ।
उन्होंने कुलीनवादी कहकर दूसरे सुधार आंदोलनों की निंदा की और समाज-सेवा के आदर्श का आह्वान किया । उन्होंने बल देकर कहा कि गरीबों की सेवा प्रभु की सेवा का सबसे अच्छा रास्ता है । इसलिए उन्होंने 1897 में एक परोपकारी संगठन के रूप में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की ।
उनको एक पुनरुत्थानवादी कहना उनकी शिक्षा के ”सार्वभौम” पक्षों को अनदेखा करना है । फिर भी, पुनरुत्थानवादियों के लिए उनको हथियाना इस तथ्य के कारण संभव हुआ कि वे वेदांत की परपरा से प्रेरणा ग्रहण करते थे कुछ रूढ़िवादी हिंदू कर्मकांडों को मानते थे, हिंदू सभ्यता की महिमा में गहरी आस्था का प्रदर्शन करते थे और यह विश्वास करते थे कि इस सभ्यता का पतन हाल कें काल में ही हुआ है ।
उनके हिंदुओं की गरिमा के आह्वान ने और साथ में उनके देशप्रेम ने, जो भारतीय राष्ट्र में वह पौरुष लाने के लिए प्रयासरत था जिससे उसे उपनिवेशी स्वामियों ने वंचित कर रखा था, लोकमानस पर अमोमित प्रभाव डाला ।
इसलिए बंगाल में राष्ट्रवाद में एक पुनरूत्थानवादी झुकाव पैदा करने कं लिए उनके संदेश का दुरुपयोग और कुभाष्य किया गया । एक हिंदू अतीत की गरिमा के आह्वान को तो लोकप्रिय बनाया गया, जबकि हिंदू धर्म की बुराइयों के बारे में उनकी सख्त आलोचना को सरलता से भुला दिया गया ।
उनकी परोपकार-वृत्ति का शायद ही कभी अनुकरण किया गया हो, ब्राह्मणवादी उत्पीड़न और स्त्री के उत्पीड़न पर उनकी आलोचना को शायद ही कभी गंभीरता से लिया गया । लेकिन एक गरिमामय हिंदू भारत के पुनर्जन्म के सपने देख रहे गरमपंथी नेताओ और उग्र क्रांतिकारियों को एक पूरी पीढ़ी के लिए वे एक ”संरक्षक ” बन गए ।
बंगाल में धीरे-धीरे ऐसी एक बौद्धिक प्रवृत्ति विकसित हुई, जिसने सभ्यता के बारे में पश्चिम की समालोचना की चुनौती के एक सम्मानजनक और स्वीकार्य प्रत्युत्तर के रूप में हिंदू परंपराओं के किसी भी समर्थन को वैध ठहराने के प्रयास किए ।
एक कहीं अधिक पुराणपंथी स्तर पर शशिधर तर्कचूड़ामणि पश्चिम की हरेक आधुनिक वैज्ञानिक खोज के पूर्वोदाहरण प्राचीन भारत में ढूँढने लगे । ऐसा नहीं कि वे आधुनिक विज्ञान को अस्वीकार या बदनाम करना चाहते थे । उन्होंने बल्कि यह दिखाने की कोशिश की कि आधुनिक पश्चिम जिस किसी आविष्कार का दावेदार है वह भारतीयों को बहुत पहले से ज्ञात थी ।
वे समझते थे कि बुद्धि की देवी के भक्त एक पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त मध्यवर्ग में हिंदू धर्म के प्रति सम्मान जगाने का यही अकेला रास्ता है । इस पूरे अभियान ने अनेक क्षेत्रीय पत्रिकाओं और भारतवर्षीय आर्य धर्म प्रचारिणी सभा जैसे संगठनों के कारण एक ”आक्रामक प्रचार” का रूप ले लिया यह सभा उस आर्य धर्म के पुनरूत्थान के लिए समर्पित थी जिसका प्रतिपादन वेदों तत्रों और पुराणों में हुआ है ।
दूसरी ओर बंकिमचंद्र चटर्जी की अधिक परिष्कृत बौद्धिक परंपरा थी जिसने पौराणिक पात्र कृष्ण को एक आधुनिक राजनीतिज्ञ और राष्ट्र निर्माता के रूप में चित्रित किया । अपने 1882 में प्रकाशित उपन्याम आनंदमठ में उन्होंने देवी माता का एक बिंब गढ़ा जो मातृभूमि से एकाकार था ।
उनका गीत वंदे मातरम्, जिसे उन्होंने एक समय इस सुंदर रह चुकी माता के गुणगान के लिए रचा था, भारत में राष्ट्रवादी आंदोलन का गीत बन गया । लेकिन इस बिंब की परिकल्पना उन्होंने जिस प्रकार से की उससे पता चलता है कि हिंदू धर्म के विचार-कोष से लिए जाने के बावजूद यह बहुत अधिक अरूढू था ।
उनकी समझ में राष्ट्र के धर्म का पुनरूत्थान किए बिना भारत का भला होनेवाला नहीं था । लेकिन वे किसी रूढ़िवादी और कर्मकांडी हिंदू धर्म की नहीं बल्कि एक ”पुनर्रचित हिंदू धर्म” की अधिक बुद्धिवादी धर्म की बातें कर रहे थे जो पोंगापंथी नहीं, जीवनदायी था ।
इसलिए हम उनके यहाँ ”हिंदू धर्म का असैद्धांतिक उपयोग” उसके लोच का और उसकी उस असीमित आंतरिक विविधता का स्वीकार पाते हैं, जिसके कारण उसके संसाधनों का सीमा से अधिक उपयोग करके ऐसा कार्य किया गया जिसे करने की आशा उससे कभी नहीं की गई थी अर्थात् एक ऐसे इतिहास की परिकल्पना करने की आशा जो राष्ट्र को विदेशी वर्चस्व के मुकाबले एकजुट कर सके ।
महाराष्ट्र में सुधारवादी रानाडे-तैलंग संप्रदाय और उनके प्रार्थना समाज ने ”न्यूनतम प्रतिरोध” के समान समाजसुधार की सावधानी भरी नीति अपनाई । लेकिन 1890 के दशक तक उन लोगों पर अतिवादी और रूढ़िवादी तत्त्व दोनों हमले करने लगे थे ।
जबरी वैधव्य का कारण बनने वाले बाल-विवाह पर बहरामजी मलाबारी के 1884 के ”नोट” ने बाल-विवाह पर प्रतिबंध के सवाल पर एक देशव्यापी बहस शुरू कर दी । 1884- 88 के एक अदालती मुकदमे के फलस्वरूप यह सामाजिक संस्था तब तक सार्वजनिक बहस का विषय बन चुकी थी; इस मुकद्दमे में बढ़ई जाति की बाइस वर्षीय हिंदू महिला रुक्माबाई को उसके पति दादाजी ने बंबई हाई कोर्ट में घसीट लिया, क्योंकि उसने अपने पति के सहवास के अधिकारों को मानने से इनकार कर दिया था ।
उसका विवाह बचपन में हो चुका था और उसका तर्क था कि 11 वर्ष तक अलग-थलग रहने के बाद वयस्कावस्था में उस अपरिणत (unconsummated) विवाह को मानना उसके लिए अनिवार्य नहीं था । चार साल तक चले इस मुकदमे में वह हार गई और उसे कैद की धमकी दी गई जिससे वह एक समझौता करके ही बच सकी ।
लेकिन इस मामले में दादाजी बस एक मुहरा था, जिसके माध्यम से हिंदू रूढ़िवाद ने पुरुष प्रधानता संबंधी अधिकारों का दावा करने और उसकी पसंद की जीवन शैली को बचाए रखने के प्रयास किए । दूसरी ओर महत्त्वपूर्ण सुधारकों ने एक रुक्माबाई बचाव समिति बना ली जिसके बहरामजी मलाबारी एक महत्वपूर्ण सदस्य थे ।
बुद्धिजीवियों के सुधारवादी जनमत ने अब अंग्रेजों पर नैतिक दबाव डाला जिसके बाद कम आयु में गर्भाधान (विवाह की परिणति) रोकने के लिए 1891 में विवाह-आयु संबंधी कानून बनाया गया । बाल-विवाह विरोधी पहला कानून 1860 में बनाया गया था और उसने 10 वर्ष से कम आयु में एक हिंदू लड़की के लिए विवाह की परिणति पर रोक लगा दी थी नए कानून में केवल उस आयु को 10 वर्ष से बढ़ाकर 12 वर्ष किया गया
था ।
पहले वाला कानून बिना किसी खास विरोध के पारित हो गया था लेकिन नए कानून पर हिंदू रूढ़िवादियों की जबरदस्त प्रतिक्रिया रही, जिनके पास सुधार आंदोलन से कहीं बहुत अधिक व्यापक जनाधार था । अब रूढ़िवादी और पुराणपंथी भावनाएँ इस राष्ट्रवादी तर्क से जुड़ गई कि विदेशी शासकों को भारतवासियों की सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है । लेकिन मुद्दा केवल सरकारी हस्तक्षेप का नहीं था क्योंकि उसी काल में हिंदू रूढ़िवादी जनमत गोवध पर सरकार के (गोवध-विरोधी) कानून को स्वीकार करने से शायद ही झिझका हो ।
उसी समय की बात है, जब रुक्माबाई के मामले में अपने अधिकारों का दावा करने के लिए हिंदू रूढ़िवाद ने ब्रिटिश विधि व्यवस्था का उपयोग किया । तर्क दिया गया कि यह प्रस्तावित हस्तक्षेप हिंदुओं के पवित्र आंतरिक जगत में घर और परिवार में सरकार का अतिक्रमण था, जिनका हिंदू समाज ने हमेशा अभेद्य और अनुल्लंघनीय माना था; ऐसा सर्वोच्च क्षेत्र जिसका उपनिवेशीकरण नहीं किया जा सकता ।
लेकिन अब हिंदू पुरुष अपने इस अंतिम ”स्वतंत्रता के एकाकी क्षेत्र” को भी खाने की कगार पर था और इसलिए ”प्रतिरोध का एक नया काल” अब यहीं से आरंभ होना चाहिए था । इस सुधार पर तीखी और हिंसक प्रतिक्रिया हुई ।
महाराष्ट्र में इस आंदोलन का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक और उनकी पूना सार्वजनिक सभा ने पूना के उन पुनरूत्थानवादियों के सहयोग से किया, जो अकसर हिंदुओं, ब्राह्मणों और मराठों की गरिमा की दुहाई देते रहते थे ।
बहुत पहले, जनवरी 1885 में ही, विवाह प्रथाओं मैं सरकार के हस्तक्षेप के विरुद्ध तिलक ने सभाओं के आयोजन किए थे और अब उनका कथन था कि इस बुराई के निराकरण का सबसे वैध ढंग कानून् नहीं, शिक्षा
है । लेकिन 1890 के अंत तक इस बहस में तब गर्मी पैदा हो गई, जब ग्यारह साल की लड़की फूलमणि अपने से उनतीस साल बड़े पति के द्वारा अति-संभोग के कारण चल बसी ।
एक कानून बनाने के लिए जब सुधारवादियों का दबाव बढ़ा, तो रूढ़िवादी मराठी पत्रिकाओं के सरी और मराठा ने गर्भाधान की रस्म के बारे में रूढ़िवादियों के विचारों का जोरदार समर्थन किया जिनके अनुसार हिंदू लड़कियों का विवाह तो उनके रजस्वला होने के पहले हो जाना चाहिए पर गर्भाधान उनके रजस्वला होने के बाद होना चाहिए ।
इस प्रथा में किसी भी हस्तक्षेप से हिंदू धर्म खतरे में पड़ेगा; यही विरोध पक्ष के सभी तर्को का सारतत्त्व था । यह प्रचार फिर दूर बंगाल तक फैला जहाँ बंकिमचंद्र और विवेकानंद जैसे व्यक्तियों की सहमति के बावजूद शशिधर तर्कचूड़ामणि और दूसरे रूढ़िवादी तत्त्वों ने बगंवासी अखबार के पन्नों में हंगामा खड़ा कर दिया ।
पुराणपंथी प्रचार की यह कर्णकटुता दकन कॉलेज पूना के प्रोफेसर आर. जी. भंडारकर जैसे सुधारवादियों की आवाजों को दबाती रही । भारतीय संस्कृति को ग्रंथबद्ध करने की प्राच्यवादी संज्ञान परंपरा के अनुरूप उन्होंने धर्मशास्त्रों का गहन अनुसंधान करके दिखाया कि रजस्वला की अवस्था के बाद विवाहों की अनुमति थी और ये विवाह हिन्दू धार्मिक विधानों के विरुद्ध नहीं थे ।
फिर भी यह बात याद रखनी चाहिए कि अपने निजी जीवन में तिलक जैसे व्यक्ति शायद ही कभी रूढ़िवादी रहे हों और उनकी अपनी सबसे बड़ी बेटी तेरह साल की आयु तक कुँवारी रही । लेकिन इस बहस में ऐसे लोगों को विदेशी शासन के विरुद्ध एक जबरदस्त, आत्मविश्वास भरी आवाज मिली । जैसा कि तनिका सरकार का तर्क है, ”हिंदू स्त्री का शरीर ऐसे संघर्ष का केंद्रबिंदु” बन गया, जिसने ”पहली बार शक्ति और ज्ञान की एक विजातीय व्यवस्था की जड़ों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की ।”
लेकिन पश्चिमी सुधारवाद और बुद्धिवाद के इस प्रतिरोध में बालिका वधुओं के दुखों और आँसुओं को पूरी तरह भुला दिया गया । यहाँ एक दिलचस्प बात ध्यान देने योग्य है: समाजसुधार पर उन्नीसवीं सदी के आरंभ की बहसों की तरह विवाह-आयु संबंधी बहस में भी सभी परंपराविरोधी पक्ष एक जगह आकर मिल जाते थे ।
सुधारक उनके निंदक और उपनिवेशी शासन सब इस बात पर सहमत थे कि बाल-विवाह और उसकी परिणति का प्रश्न धर्म के जगत का प्रश्न है जिसे जैसा कि मृणालिनी सिन्हा ने कहा है, लंबे समय से ”देसी पुरुषत्व” के लिए एक स्वायत्त क्षेत्र माना जाता रहा है ।
वास्तव में इंग्लैंड के पुरुषों की चिंताओं ने भी सुधार-विरोधियों के लिए समर्थन जुटाया लेकिन भारत की सरकार ने फिर भी अपने समय की खास राजनीतिक मजबूरियों के कारण एक सुधार-समर्थक हस्तक्षेपवादी रुख अपनाने का निर्णय किया ।
इसलिए विवाह-आयु संबंधी कानून सभी विरोधों के बावजूद 19 मार्च, 1891 को पारित हो गया हालांकि, जैसा कि सुधारकों ने और उनके विरोधियों ने भी जल्द ही अनुभव किया इसका प्रभाव ”शैक्षिक प्रभाव” से शायद ही कुछ अधिक रहा हो ।
पर इस बहस ने एक दिलचस्प प्रवृत्ति को जन्म दिया । एक ओर जहाँ सुधारवाद राष्ट्रवादी सवाद का अंग बन गया वहीं दूसरी ओर सुधार-विरोधी रूढ़िवादी तत्त्वों को भी असीमित प्रचार मिला । इससे भी अहम बात यह है कि अब हिंदू धर्म विदेशी राज के विरुद्ध एक अधिक मुखर और कभी-कभी जुझारू विद्रोह के संगठन के लिए एक उपयोगी शब्दजाल बन गया ।
राजनीतिक लामबंदी के लिए रूढ़िवादी हिंदू धार्मिक प्रतीकों के उपयोग ने उत्तर भारत में आर्यसमाज और गोरक्षा आंदोलन के कारण और भी उग्र रूप ले लिया, जिसके कारण 1893 में व्यापक सांप्रदायिक हिंसा
फूटी । आर्यसमाज की स्थापना 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने की थी । धीरे-धीरे पंजाब और पश्चिमोत्तर प्रांत में उसे उपजाऊ जमीन मिली । उसने मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, बाल-विवाह, वैधव्य, विदेश यात्रा पर प्रतिबंध, ब्राह्मणों के वर्चस्व और जातिप्रथा जैसी हिंदू प्रथाओं की तीखी आलोचना की ।
वास्तव में उसने वेदों के आधार पर दूसरे सभी धर्मो पर प्राचीन भारतीय धर्म की श्रेष्ठता की एक आक्रामक वकालत की । इसी तत्त्व के कारण यह आंदोलन आगे चलकर प्रमुखता-प्राप्त अखिल हिंदू पुनरूत्थानवादी परंपरा में समा गया । जैसा कि पीटर वॉन डेर वीर ने कहा है सुधारवादी आर्यसमाज और उसके आलोचकों के बीच ”हिंदू जाति की रक्षा” का एक साझा आधार रहा ।
यह हुआ 1883 में दयानंद की मृत्यु के बाद, उनके शिष्यों के काल में । केनेथ जोंस (1976) ने दिखाया है कि ईसाई मिशनरी कार्यकलापों के कारण इनकी आक्रामकता में वृद्धि हुई, जिन्होंने पंजाब के सामाजिक वातावरण में धार्मिक प्रतिस्पर्द्धा का समावेश किया । उन्होंने आर्यधर्म, आर्यभाषा और आर्यावर्त की श्रेष्ठता का प्रचार आरंभ किया और उनका प्रचार मुख्यत मुसलमानों और ईसाईयों के विरुद्ध था ।
ईसाई धर्मातरण के कार्यो की सीधी प्रतिक्रिया में आर्यसमाज ने शुद्धि की धारणा विकसित की, जिसका उद्देश्य ईसाईयत, इस्लाम या सिक्स धर्म अपनानेवालों को वापस हिंदू बनाना था । आर्यसमाज का नरमपंथी गुट धीरे-धीरे 1893 तक हाशिये पर जा पड़ा और जुझारू गुट हावी हो गया ।
वे लोग दूसरे रूढ़िवादी समूहों के और निकट आ गए तथा मुसलमानों के विरुद्ध हिंसक टकरावों में शामिल होने लगे । गोरक्षा के प्रश्न पर यह तनाव अपने चरम पर जा पहुँचा । भारतीय समाज में अर्थव्यवस्था जब पशुपालन से कृषि की अवस्था में पहुँची, तब से गो (गाय) का महत्त्व हमेशा स्वीकार किया गया है ।
लेकिन प्राचीन काल में गो को पवित्र या अवध्य नहीं माना जाता था; गाय का सम्मान मध्यकाल में बढ़ा जब गोहत्या की दर में अभूतपूर्व वृद्धि हुई । बकरीद के त्योहार पर गाय की कुरबानी की मुस्लिम प्रथा ने एक पवित्र प्रतीक के रूप में गाय के प्रति हिंदुओं की भावनाओं को और प्रखर बना दिया ।
लेकिन पहले के कालों में बल्कि उपनिवेशकाल के आरंभ में भी यह कभी सांप्रदायिक टकराव का कारण नहीं रहा । पहले के धार्मिक टकराव स्थानीय मुद्दों पर होते थे और जल्द ही दब जाते थे । उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में ही ऐसा हुआ कि समुदाय और बारीकी से अपनी सीमारेखाएँ खींचने लगे और सांप्रदायिक आक्रामकता का अधिक प्रदर्शन करने लगे ।
हिंदुओं में सांगठनिक एकता का स्पष्ट तौर पर अभाव था और इसलिए हिंदुओं की लामबंदी गाय के प्रतीक के सहारे हुई जो अनेक प्रकार की तथा ब्राह्मणवादी और भक्तिमार्गी दोनों परंपराओं के लिए प्रासंगिक ब्रह्मांड संबंधी धारणाओं को व्यक्त करता था ।
दूसरे शब्दों में, गाय क्षेत्र, भाषा और पंथ की सीमाओं से परे एक आम तौर पर स्वीकार्य प्रतीक बन गई । गोरक्षा का मुद्दा सबसे पहले, 1871 में सिखों के सुधारवादी कूका पंथ ने अपने आंदोलन में गति लाने और अपना समर्थन बढ़ाने के लिए उठाया ।
मुसलमानों को गोवध से रोकने के प्रयास में उन्होंने कुछ हिंसक वारदातें भी कीं और इस प्रक्रिया में सरकार का निर्मम दमन मोल लिया । लेकिन 1870 के दशक में पंजाब पश्चिमोत्तर प्रांत, अवध और रुहेलखंड में गोरक्षावादी भावनाएँ तेजी से फैलीं ।
आर्यसमाज ने इसी भावना को एक संगठित अखिल भारतीय आंदोलन का रूप दे दिया । यह लामबंदी गोरक्षिणी सभाओं की स्थापना करके की गई जो बिहार, बनारस कमिश्नरी, अवध, पूर्वी इलाहाबाद, और आगे चलकर बंगाल, बंबई, मद्रास, सिंध, राजपूताना और मध्य प्रांत जैसे हिंदू-बहुल क्षेत्रों में सबसे मज़बूत हुई ।
दयानंद के समय में गोरक्षा आंदोलन खुले तौर पर मुस्लिम विरोधी नहीं था तथा आर्थिक और राष्ट्रवादी तर्क देकर उन्होंने इस आंदोलन का युक्तीकरण करने का प्रयास किया और इसे एक हद तक सम्मानित बना दिया । लेकिन धीरे-धीरे जब गोवध पर कानूनी प्रतिबंध की बहस चली, तो यह सांप्रदायिक शत्रुता का सवाल बन गया ।
मुसलमानों के लिए कुरबानी के लिए गाय एक बकरी या भेड़ से सस्ती पड़ती थी । उनके लिए गोवध का एक राजनीतिक अर्थ भी था यह हिंदुओं के वर्चस्व से मुक्ति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति था । इस मुद्दे पर नगरपालिकाओं विधायिकाओं प्रेस और राजनीतिक सभाओं जैसी आधुनिक संस्थाओं के स्तर पर लड़ा गया ।
1893 के मध्य तक उत्तेजनाएँ और जवाबी उत्तेजनाएँ चरम पर पहुँच गईं और गोवध पर लगे कानूनी प्रतिबंध की विरोधी व्याख्याओं के कारण मऊ, जिला आजमगढ़ में पहला दंगा हुआ । ये दंगे तेजी से एक लंबे-चौड़े क्षेत्र में फैल गए; बिहार और पश्चिमोत्तर प्रांत में 6 माह में 31 दंगे हुए ।
इनका नेतृत्व-जमींदारों और धर्मप्रचारकों ने किया और इनमें किसानों ने भाग लिया । जनता की भागीदारी कभी-कभी सामाजिक बलप्रयोग का परिणाम होती थी, पर कभी-कभी स्वत स्फूर्त भी होती थी । भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए बाजारतंत्रों का प्रयोग किया गया ।
इन हिंसक घटनाओं का चरम बिंदु बंबई का दंगा था, जिसमें मज़दूर वर्ग शामिल था । लेकिन स्पष्ट रूप से मुसलमानों के विरुद्ध होते हुए भी असंतोष की भावना जैसी कि सरकार को शंका थी निश्चित रूप से अंग्रेज विरोधी थी गाय का सवाल सुस्त हिंदुओं को उभारने के लिए मात्र एक युद्धघोष था ।
जान मैक्लेन का मानना है कि इन दंगों ने वर्गीय और भौगोलिक सीमाओं को तोड़कर ”सामुदायिक सदस्यता की एक विस्तारित भावना” का प्रदर्शन किया । 1893 के तुरंत वाद सांप्रदायिक तनाव दब गया । गोरक्षा आंदोलन का जोर भी जाता रहा हालांकि कुछ क्षेत्रों में यह आगे भी कुछ समय तक जारी रहा ।
इससे स्पष्ट है कि स्वयं में गाय शायद महत्वपूर्ण नहीं थी उसका प्रयोग सामुदायिक लामबंदी के लिए किया जा रहा था । सामुदायिक आधारों पर ऐसी लामबंदी की ज़रूरत बढ़ रही थी क्योंकि अब संवैधानिक प्रश्नो पर बहसें होने लगी थीं और नई प्रतियोगितामूलक संस्थाएँ जन्म ले रही थी ।
प्रतियोगिता के ऐसे वातावरण में नए सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में अपनी-अपनी सामूहिक उपस्थिति दर्ज कराने के उद्देश्य से दोनों समुदायों के लिए सांप्रदायिक आधार पर लामबंदी की जरूरत थी और गाय इसके लिए आसान सी प्रतीक बन गई ।
ज्ञानेंद्र पांडे (1983) ने दिखाया है की गोरक्षा आंदोलन तब तक भी भारतीय समाज के पूरे-पूरे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सूचक नहीं था । सांप्रदायिक प्रवर्ग (category) की रचना और अभिव्यक्ति पूरी तरह कुलीनों के हित में थी, जबकि दूसरे अनेक समूहों ने इसमें दूसरे अनेक उद्देश्यों से भाग लिया ।
गोरक्षिणी सभाओं का नेतृत्व करके जमींदारों ने अपनी उस सामाजिक शक्ति को फिर से जतलाने की कोशिश की जो उपनिवेशी शासन के कारण आए विभिन्न परिवर्तनों के कारण उनके हाथों से निकलती जा रही थी ।
भाग लेने वाले किसान मुख्यत: अहीर जाति के थे, जो सामाजिक स्तर पर गतिशील थे और इसलिए अपने हिंदुत्व को सामने लाकर उन्होंने अपनी नई स्थिति को वैध बनाने की कोशिश की । इसका अर्थ यह नहीं था कि वर्ग की बाधाएं समाप्त की जा चुकी या स्थायी रूप से मिट चुकी थीं । दूसरे अवसरों पर उन्होंने मुस्लिम किसानों के साथ मिलकर हिन्दू जमींदारों के विरुद्ध भी लड़ाई की ।
लेकिन इनसे अलग दूसरे बहुत सारे क्षेत्र ऐसे भी थे जो गोरक्षा की भावना से एकदम प्रभावित नहीं थे । लेकिन इस आंदोलन ने राष्ट्रवादी आंदोलन पर एक असंदिग्ध हिंदू छाप छोड़ी । कांग्रेस इसमें सीधे-सीधे शामिल तौ नहीं थी पर वह चुप रही बल्कि इसे संरक्षण भी देती रही ।
1891 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के बाद गोरक्षिणी सभा ने कांग्रेस के पंडाल में ही एक बड़ी सभा की जिसमें कांग्रेस के प्रतिनिधियों और दर्शकों ने भाग लिया । श्रीमन स्वामी जैसे प्रमुख गोरक्षावादी नेताओं ने 1893 में इलाहाबाद कांग्रेस में भाग लिया, जब कि तिलक जैसे दूसरे विख्यात कांग्रेसी नेता स्थानीय गोरक्षिणी सभाओं से गहरे जुड़े हुए थे ।
इससे मुस्लिम कांग्रेस की राजनीति से कट गए और 1893 के बाद कांग्रेस के सत्रों में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में भारी कमी आई । अगर गोरक्षा आंदोलन ने उत्तर भारत के दोनों धार्मिक समुदायों के बीच विभाजक रेखाएँ खींची, नो भाषा जैसे दूसरे उपलब्ध सांस्कृतिक प्रतीकों के साथ कुशलता से की गई हेराफेरी ने इन रेखाओं को और भी गहरा बनाया ।
पश्चिमोत्तर प्रात और अवध में 1860 के दशक के दौरान किसी समय हिंदी-उर्दू का विवाद आरंभ हुआ लेकिन भारी उत्साह के साथ इसे दोबारा 1882 में जीवित किया गया और यह उत्तर भारत के दूसरे हिंदीभाषी क्षेत्रों जैसे पंजाब और मध्यप्राँत तक फैल गया ।
1890 के दशक में यह आंदोलन और तेज हुआ जब तीर्थनगरी बनारस में 1893 में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई । सच पूछें तो उत्तर भारत की जनता के एक भारी बहुमत द्वारा बोली जानेवाली उर्दू और हिंदी दरअसल दो लिपियों में लिखी जानेवाली एक ही भाषा थी ।
हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती थी और इसलिए उसमें संस्कृत शब्दों की संख्या अधिक थी जबकि उर्दू फारसी में लिखी जाती थी और इसलिए इसमें फ़ारसी-अरबी शब्द अधिक थे । लेकिन और अधिक बोलचाल वाले स्तर पर लें तो दोनों भाषाओं को आसानी से लोग समझ सकते थे ।
लेकिन चूंकि उर्दू को सरकारी मान्यता प्राप्त थी इसलिए सभी सरकारी कार्यों के लिए नागरी को भी मान्यता दिलाने हेतु एक जबरदस्त अभियान चला और यह आंदोलन एक साहित्य-आंदोलन के द्वारा आगे बढ़ा जिसमें सरकार को ज्ञापन दिए जाते थे और स्थानीय भाषायी प्रेस में संपादकीय लिखे जाते थे ।
भारतेंदु हरिश्चद्र जैसी प्रमुख साहित्यिक विभूतियों ने हिंदी भाषा की शास्त्रीय धरोहर संस्कृत को उभारकर उसकी उच्च स्थिति और प्राचीनता पर बल दिया, लेकिन इस प्रक्रिया में उसे उसकी स्थानीय और लोक परंपराओं से वंचित भी कर दिया ।
लेकिन इससे भी अर्थपूर्ण बात यह है कि इस सांस्कृतिक अभियान के दौरान हिंदी हिंदुओं से और उर्दू मुसलमानों से जुड़ गई, हालांकि जमे-जमाए कायस्थों जैसे अनेक हिंदू अभी भी राजभाषा के रूप में उर्दू के प्रयोग के पक्ष में थे ।
इस अभियान के साथ मदनमोहन मालवीय जैसे नेताओं के जुड़ाव ने इसे एक स्पष्ट राजनीतिक रंग दे दिया । अप्रैल 1900 में पश्चिमोत्तर प्रांत और अवध की सरकार के एक प्रस्ताव ने नागरी को उर्दू के बराबर का आधिकारिक दर्जा दे दिया और इस बात ने, जैसा कि क्रिस्टोफ़र किंग का कथन है, के समर्थकों को अपनी भाषा के भावात्मक बचाव के लिए प्रेरित किया ।
अब उन्होंने अंजुमन तरक्की-ए-उर्दू की स्थापना की, क्योंकि उनमें से कुछ लोगों का मानना था कि यह सरकारी कदम अंतत: उनकी भाषा के पूर्ण विनाश का कारण बनेगा । हालांकि यह विवाद संबंधी जोश तो कुछ समय बाद ठंडा पड़ गया पर उसके बाद भाषा भारत में राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक परियोजना का एक महत्त्वपूर्ण घटक बन गई ।
गौरक्षा संबंधी दंगों के दौरान राजनीतिक लामबंदी के लिए हिंदू धार्मिक और ऐतिहासिक प्रतीकों के उपयोग की दूसरी और भी खुली कोशिशें की गईं । महाराष्ट्र में तो किसी के शब्दों में तिलक का अगला कदम ”भगवान गणेश को राजनीति में भरती करना” था ।
पेशवाओं के दिनों से ही हिंदू देवता गणपति या गणेश को इस क्षेत्र में राजकीय संरक्षण प्राप्त था । यह वह देवता थे जिनकी भक्ति चितपावन ब्राह्मण और निचली जातियों के गैर-ब्राह्मण दोनों करते थे लेकिन गणपति की पूजा एक घरेलू समारोह हुआ करती थी ।
लेकिन 1893 में गोरक्षा आंदोलन के कारण बंबई में हुए दंगों के बाद तिलक और पूना के दूसरे चितपावन ब्राह्मणों ने उसे वार्षिक सार्वजनिक त्योहार के रूप में मनाने और उसमें राजनीति का समावेश करने का निर्णय किया कि वह ब्राह्मण-प्रधान कांग्रेस और गैर-ब्राह्मण जनता के बीच की खाई पाटने का साधन बन सके ।
मुसलमानों के प्रति सरकार के समर्थन का आरोप लगाकर तिलक ने उनके मुहर्रम के त्योहार का बहिष्कार करने और भगवान गणपति की पूजा के सार्वजनिक त्योहार में भाग लेने के लिए पूना के हिंदुओं का आह्वान किया ।
इस त्योहार के सामूहिक पक्ष को और बल पहुँचाने के लिए 1894 में उन्होंने कुछ नई बातों का समावेश किया जैसे भगवान की बड़ी-बड़ी मूर्तियों की प्रतिष्ठा और मेला आंदोलन का आरंभ जिसमें कभी-कभी तो बीस से लेकर कई सौ गायकों पर आधारित गायक मंडलियाँ व्यापक जनता तक राष्ट्रवाद का संदेश पहुँचाने के लिए राजनीतिक गीत गाया करती थीं ।
फलस्वरूप हिंदुओं ने, जो पहले मुहर्रम के त्योहार में भाग लेते थे अधिकतर उसका बहिष्कार किया और गणपति पूजा के लिए उमड़ पड़े । फिर 1895 के बाद से तो यह त्योहार पूना से दकन के दूसरे भागों तक फैलने लगा; 1905 तक पूना के अलावा बहत्तर नगर गणपति त्योहार मनाने लगे थे ।
हिंदू पौराणिक और ऐतिहासिक प्रतीकों का उपयोग और सुधारवाद का विरोध अब पूना की राजनीति का एक सुस्वीकृत कर्म बन गया । रानाडे की नेशनल सोशल कॉन्फ्रेंस, जो हर साल कांग्रेस के अधिवेशन के समय अपना सत्र आयोजित करती थी, आखिरकार 1895 में तिलक के नेतृत्व वाले विरोधी गुट द्वारा कांग्रेस के पूना अधिवेशन से बाहर खदेड़ दी गई ।
1896 में तिलक ने एक और त्योहार शिवाजी त्योहार का आरंभ किया; इसका उद्देश्य शिवाजी महाराज के राज्यारोहण का उत्सव मनाना था जिन्होंने ”हिंदू रूप में हमारे आत्मसम्मान को बल पहुँचाया और हमारे धर्म को विशेष दिशा में मोड़ा ।” हालाकिं उन दिनों बंबई की सरकार ने इन त्योहारों को सीधे-सीधे ब्रिटिश राज के लिए खतरा नहीं माना पर इन्होंने अनेक क्रांतिकारियों को प्रेरणा दी ।
उदाहरण के लिए, प्लेग कमीशन के बदनाम सुपरिंटेंडेंट रैंड की हत्या करनेवाले चापेकर बंधु पूना के गणपति त्योहार और तिलक से संबंधित थे । गणेश सावरकर और विनायक सावरकर नामक दो अन्य क्रांतिकारियों ने भी नासिक में गणपति त्योहार के लिए भड़काऊ गीत लिखे ।
हालांकि क्रांतिकारी आंदोलन से गणपति त्योहारों का सीधा संबंध नहीं था पर उन्होंने ऐसे विचारों के प्रसार और ऐसे समूहों के लिए कार्यकर्त्ताओं के प्रशिक्षण के लिए महत्त्वपूर्ण साधनों का काम किया । 1900 के बाद ये त्योहार खुले तौर पर राजनीतिक हो गए और इसी उग्र स्वर का परिणाम था कि सरकार ने 1910 तक उनको लगभग कुचल दिया ।
लेकिन यह बहस का मुद्दा है कि ये त्योहार राजनीतिक संदेश के प्रसार में कहाँ तक सफल रहे । गणपति त्योहार के राजनीतिक अंतर्तत्त्व का गैर-ब्राह्मणों पर बहुत मामूली प्रभाव पड़ा जबकि मुसलमान सीधे-सीधे इसके कारण कटते गए ।
शिवाजी त्योहार का एक बिलकुल भिन्न राजनीतिक उपयोग ज्योतिराव फूले जैसे गैर-ब्राह्मण नेताओं ने अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए किया । हिंदू पुनरुत्थानवाद अपनी सीमाओं के बावजूद अब तक एक राजनीतिक शक्ति बन चुका था और सुधारवादी, नरमपंथी कांग्रेसी राजनीतिज्ञों के विरुद्ध गरमपंथी प्रतिक्रिया से उसका अधिक गहरा संबंध था ।
मद्रास भी कोई अपवाद नहीं था; वहाँ भी मिशनरी गतिविधियों और धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध हिंदुओं की प्रतिक्रिया 1820 के दशक में विभूति संगम (सेक्रेड ऐशेज सोसायटी) के रूप में सामने आई जो अतिवादी शनार ईसाइयों को फिर से हिंदू बनाए जाने के उपदेश देता था ।
फिर 1840 के दशक में धर्मसभा बनी जिसके संरक्षक मुख्यत ब्राह्मण और सवर्ण हिंदू थे । ये दोनों संगठन परिवर्तन के रूढ़िवादी विरोध कठोरता से वर्णाश्रम धर्म के पालन और जातिगत बहिराव (exclusiveness) का समर्थन करते थे ।
1882 में थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना के बाद मद्रास में हिंदू पुनरुत्थानवाद को बल मिला क्योंकि उसने अपने देश के इतिहास और संस्कृति में शिक्षित भारतवासियों की रुचि जगाई । उसे और बल मिला ऐनी बेसेंट के आगमन के बाद जो राष्ट्रवाद और कांग्रेस की राजनीति के बीच की कड़ी भी थीं ।
इस तरह उन्नीसवीं सदी के अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में राष्ट्रवाद हिंदू धार्मिक पुनरुत्थानवाद के विचारों से जुड़ा । पर उसके इतिहास से कुछ समस्याएँ भी जुड़ी हैं क्योंकि ”सिंडिकेटबद्ध हिंदू धर्म” का यह आधुनिक विचार एक बड़ी हद तक उन्नीसवीं सदी के पश्चिमी भाष्यकारों की उपज था ।
इतिहास में Hinduism शब्द का उपयोग अनेक अर्थ जतलाने के लिए किया गया है सामान्यत इसका अर्थ हर ”देसी” या ”भारतीय” वस्तु था; एक अधिक संकीर्ण अर्थ में यह भारत की प्रमुख संस्कृति या धर्म का खासकर आर्य ब्राह्मणवादी या वैदिक मूल वाली संस्कृति और धर्म का सूचक था ।”
उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में जब भारतीयों से जनगणना के प्रपत्रों में अपनी धार्मिक स्थिति दर्ज कराने को कहा गया तब तक भी लोक-चेतना में हिंदू धर्म सुनिश्चित सीमाओं वाले एक धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता था ।
1881 में ‘धर्म’ वाले खाने में अनेक लोगों ने ‘हिंदू’ की बजाय अपने पथ या अपनी जाति का उल्लेख किया था; परिभाषा की ऐसी समस्याएँ 1901 तक जनगणना के अधिकारियों को परेशान करती रहीं । इस तरह यह हिंदू धर्म उपनिवेशवाद की एक उपज लगता है जो किसी विशिष्ट सैद्धांतिक परिभाषा से बँधा हुआ नहीं था, न ऐतिहासिक दृष्टि से किसी सामुदायिक पहचान से जुड़ा हुआ था ।
जैसा कि आशीष नदी का कथन है एक समरस हिंदू धर्म का विचार गढ़ा ”ज्ञानोदयकाल के बाद वाले यूरोप के सांस्कृतिक दंभ ने जिसने” ‘सच्चे’ पश्चिम ही नहीं, ‘सच्चे’ पूर्व को भी निरूपित करने के प्रयास किए । उपनिवेशवादी नृजातीय (ethnographic) अध्ययनों और जनगणनाओं की रिपोर्टो ने समुदाय के रूप में धर्म की इस धारणा को एक सुनिश्चित और ठोस रूप दिया और पश्चिमी रंग में रँगे भारतवासियों के एक भाग ने उसे अपनी सामूहिक चेतना में आत्मसात करके उसे एक आत्मपरिभाषा के रूप में विकसित किया ।
अपने शूरवीर राजाओं और उनके धर्म की नकल करते हुए उन्होंने एक क्षीणकाय हिंदू धर्म को उस विजातीय सांस्कृतिक हस्तक्षेप का कारगर तोड़ बनाने के प्रयास किए जो उपनिवेशित समाज को बराबर स्त्रैण के रूप में चित्रित करता था ।
‘पुनरूत्थानवाद’ शब्द स्वयं भी एक पहेली बना रहा क्योंकि उसका उद्देश्य एक विस्मृत और सड़े-गले अतीत को नवजीवन देना नहीं था, बल्कि वर्तमान के उद्देश्यों के लिए अतीत को पुनर्गठित करना था । ”पुनर्जीवित” या मंडिंत किए जा रहे अनेक सामाजिक आचार-विचार और प्रतीक पहले से जारी थे या सामूहिक स्मृति में मौजूद थे ।
यह भी नहीं कि अतीत की सारी सामाजिक प्रथाओं को पुनर्जीवित किया जा रहा था अतीत के कुछ विशेष पक्षों को ही चयनित ढंग से स्वीकार और वर्तमान काल में राष्ट्र-निर्माण की आवश्यकताओं के अनुसार ढाला गया ।
इन तथाकथित पुनरूत्थानवादी नेताओं और बुद्धिजीवियों में से कुछ तो एक पौराणिक अतीत और बुद्धिवादी वर्तमान के बीच सचमुच फँसे हुए थें और उनकी ”दुखद चेतना” ने एक ”काल्पनिक इतिहास” में आश्रय लेकर इस दुविधा से पार पाने की कोशिश की ।
इस संवृत्ति को पार्थ चटर्जी ने आरंभिक भारतीय राष्ट्रवाद की केंद्रीय समस्या कहा है । राष्ट्रवाद की परिकल्पना करते हुए भारतीय राष्ट्रवादी स्पष्ट रूप से यूरोप के पूँजीवाद के अनुभव से प्राप्त विचारों से प्रभावित थे लेकिन भारतीय राष्ट्रवाद का विकास केवल पश्चिमी मॉडल के प्रभावों के कारण ही नहीं हुआ ।
जैसा कि हम देख चुके हैं भारतीय राष्ट्रवादी एक विरोध के स्वर में बातें करने के लिए विवश थे; उन्होंने अतीत का आह्वान उपनिवेशी शासन के विकल्प के रूप में किया । इसके कारण ”राष्ट्रत्व (nationhood) को एक व्यावहारिक सांस्कृतिक आधार” प्राप्त हुआ ।
लेकिन हमें यह भी कहना होगा कि अवधारणा की यह विशेष पद्धति कुछ अंतर्जात अंतर्विरोधों और उनसे जुड़े खतरों से ग्रस्त थी । पहली बात जैसा कि कहा जा चुका है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का यही रूप उस प्राच्चवादी सज्ञान से प्रेरित था जो हिंदू धर्म को एक ग्रंथ-केंद्रित परंपरा में स्थापित करता था ।
यहाँ प्रवृत्ति थी ”हिंदू धर्म को एक संगठित धर्म का रूप देने की” जो ईसाइयत की तरह एक मान्यताप्राप्त ग्रंथ पर-दयानंद के लिए वेदों और विवेकानंद के लिए भागवद्गीता पर-आधारित हो; इसके कारण अधिक उदार और खुले हाथों वाली लोक-परंपराएँ हाशिये पर पड़ती गईं ।
यह पुनर्गठित हिंदू धर्म जब एक राष्ट्र की परिकल्पना का आधारभूत विचार बन गया तब जैसा कि क्रिस्तोफ जेफ्रीलॉ ने विश्वासोत्पादक ढंग से दिखाया है ”हिंदू राष्ट्रवाद अधिकतर सवर्ण सुधारकों के ब्राह्मणवादी विचार को प्रतिबिबित करने लगा ।”
इसलिए राष्ट्रवाद का यह विशेष सांस्कृतिक संवाद भारत की गैर-ब्राह्मण और निचली जातियों की जनता को आकर्षित करने में असफल रहा । उसने अतीत का बहुत चयनित उपयोग भी किया और ”प्राचीन हिंदू गरिमा” के मुकाबले ”मध्यकालीन मुस्लिम निरंकुशता और पतन” के प्राच्यवादी रूढ़ विचार को बहुत तेजी से अकसर अनालोचनात्मक ढंग से स्वीकार कर लिया ।
स्पष्ट रूप से इसका दुखद परिणाम यह रहा कि मुस्लिम बहुसंख्यक हिंदू शासन के प्रति शंकित होकर विमुख होते गए । उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में जोर पकड़ने वाला यह राष्ट्रवाद इस तरह आरंभ से ही अंतर्विरोधों से ग्रस्त था ।
हिंदू धर्म के इस जुझारू रूप से न केवल मुसलमान दूर हटे बल्कि रिचर्ड झक ने यह तर्क भी दिया है कि उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में एक संगठित सिंहसभा आंदोलन के जरिये एक सुस्पष्ट सिख पहचान की अभिव्यक्ति भी पंजाब में आर्यसमाज के अभियान का और खास तौर पर गुरु नानक पर उसके हमलों का सीधा परिणाम थी ।
यह तर्क देना संभवत: सरलीकरण होगा कि सिंहसभाओं का जन्म केवल आर्यसमाज को चुनौती देने के लिए हुआ पर इस आंदोलन की एक संक्षिप्त विवेचना यहाँ आवश्यक है क्योंकि यह उन्नीसवीं सदी के अंत के भारत में पहचानों के निर्माण की उसी सांस्कृतिक राजनीति का हिस्सा था ।
वास्तव में इस आंदोलन के उदय के अनेक कारण थे: उन्नीसवीं सदी में एक छोटे-से सिख कुलीनवर्ग का उदय तथा पंजाब में शिक्षा और रोजगार से सिखों का सापेक्ष बहिराव, ब्रह्मसमाज और अंजुमने-पंजाब का प्रभाव ईसाई मिशनरियों की धर्मातरण की गतिविधियाँ, सिख पहचान के बारे में उपनिवेशवाद की पैदा की हुई रूढ़ छवि उनके ”पतन” पर तथा सिख तीर्थो पर सरकार के नियंत्रण पर इस वर्ग का क्षोभ आदि ।
पहली सिंहसभा का जन्म अमृतसर में 1873 में तथा दूसरी का जन्म लाहौर में छह साल बाद हुआ । 1880 और 1900 के बीच 115 सिंहसभाओं की स्थापना हुई-अधिकतर पंजाब में, पर कुछ की देश के दूसरे भागों में या विदेशों में भी ।
हिंदू पुनरुत्थानवाद की तरह इस आंदोलन का भी प्रमुख तत्त्व सिखों के पतन की समझ था और उस तत खालसा अर्थात् शुद्ध सिख की छवि को फिर से उभारना था जो अठारहवीं सदी में सिख धर्म के चरम काल में पाई जाती थी ।
इस सांस्कृतिक आंदोलन का उद्देश्य सिख धर्म को लोकतत्त्वों से और अशुद्धताओं से पवित्र करके उसे शुद्ध बनाना था जैसे बहुदेववाद और मूर्ति-पूजा के प्रभाव से जिनको सिख गुरुद्वारों में अकसर खुले आम देखा जा सकता था ।
इस आंदोलन ने पाँच ”क” अर्थात् सिख पहचान के बाहरी प्रतीकों के व्यवहार पर, सिखों की आचार-संहिता राहतनामा के अनुसार प्रामाणिक सिख सस्कारों के व्यवहार पर, सभी लोक धार्मिक त्योहारों और तीर्थयात्राओं में भागीदारी से परहेज पर, गुरुद्वारों पर नियंत्रण स्थापित करके और उन्हें मूर्ति-पूजा के सभी चिह्नों से पाक करके पवित्रता की पुनर्स्थापना पर और अंत में गुरुमुखी लिपि और पंजाबी भाषा को सिख पहचान के सबसे प्रामाणिक प्रतीक बनाए जाने पर बल दिया ।
सिख पहचान के इस सार्वभौमिक रूप से सभी सिख सहमत नहीं थे, लेकिन बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में भारतीय राष्ट्र की परिकल्पना के लिए इस दावे के ही महत्त्वपूर्ण निहितार्थ थे कि सिख हिंदू-मुसलमान दोनों से अलग, एक सुस्पष्ट और समरस समुदाय थे ।