ब्रिटिश साम्राज्य पर शाहीवादी दृष्टिकोण | Read this article in Hindi to learn about imperialistic viewpoint on the British empire in India. 
सोलहवीं सदी में आयरलैंड की विजय के बाद अंग्रेज़ धीरे-धीरे आयरलैंड से अमेरिका तक और भारत से अफ्रीका तक दुनिया भर में “पिछड़े जनगाणों को सभ्य बनाने के लिए जिम्मेदार नए के रोमनों (Romans)” की भूमिका में उभरकर आए । ब्रिटेन के इस साम्राज्यिक इतिहास को दो चरणों में बाँटा जाता है ।

पहले चरण में “पहला साम्राज्य” बना जो अटलांटिक पार अमेरिका और वंस्ट इंडीज तक फैला हुआ था, और 1783 (पेरिस की शांति) के आसपास आरंभ होनेवाले दूसरे चरण मैं बने “दूसरे साम्राज्य” प्रसार पूरब अर्थात् एशिया और अफ्रीका की और हो रहा था ।

यहाँ इन दोनों साम्राज्यों के बीच के ढाँचागत या वैचारिक अलगावों और संपर्को की व्याख्या प्रासंगिक नहीं है । पर इतना कह देना पर्याप्त है कि अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ब्रिटेन में सैनिक निरंकुशना सोपानक्रम (hierarchy) और नस्ली असहिष्णुता जैसे रूढ़िवादी मूल्यों पर आधारित एक क्षेत्रीय साम्राज्य की स्वीकृति बढ़ी ।

अठारहवीं सदी में ब्रिटेन में देशभक्ति की भावना धीरे-धीरे बढ़ी, तो इसका उसके समुद्रपार स्थित क्षेत्रीय साम्राज्यों के स्वामी होने की शान और गरिमा से गहरा संबंध स्थापित हुआ । ब्रिटेन में ज्ञानोदय (Enlightenment) के बाद के बौद्धिक वातावरण में अंग्रेजों ने स्वयं पूरब वालों के मुकाबले आधुनिक और सभ्य भी जतलाना शुरू किया और उनकी इस धारणा ने उन्नीसवीं सदी में उनकी साम्राज्यवादी दृष्टि को एक औचित्य प्रदान किया जब तथाकथित ‘सुधार का युग’ आरंभ हुआ ।

दूसरे शब्दों में, अंग्रेजों की भारत संबंधी साम्राज्यिक विचारधारा उनके अपने यहाँ की ऐसी ही बौद्धिक और राजनीतिक धाराओं और जवाबी धाराओं का परिणाम थी । कभी-कभी मौके पर (विदेशी धरती पर) उपस्थित (अंग्रेज) लोगों के ‘उप-साम्राज्यवाद ने’ (जिनको कुछ लोग “ब्रिटिश साम्राज्य के वास्तविक संस्थापक” मानते हैं) और शासित लोगों के दबाव ने संक्षेप में साम्राज्य की परिधि पर पैदा हो रहे संकटों ने, उस साम्राज्यवादी विचारधारा के क्रियान्वयन में तालमेल और फेरबदल को भी जन्म दिया ।

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इससे कालांतर में साम्राज्यिक संबंध की प्रकृति भी बदली, पर उसकी बुनियादी बातों में कोई बदलाव नहीं हुआ । कहा जाता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार कई वर्षो तक एक ‘भारतीय शासक’ की तरह काम करती रही इस अर्थ में कि उसने मुगल बादशाह की सत्ता को स्वीकार किया उसके नाम से सिक्के ढालती रही, राजभाषा के रूप में फारसी का प्रयोग करती रही और अदालतों में हिंदू और मुस्लिम विधानों का व्यवहार करती रही ।

स्वयं लॉर्ड क्लाइव ने व्यावहारिकता के तौर पर ”दोहरी सरकार” की एक व्यवस्था की अनुशंसा की थी जिसके अंतर्गत फ़ौजदारी न्याय की व्यवस्था नवाबों के अधिकारियों के हाथों में छोड़ दी जाती अबकि दीवानी और वित्तीय विषयों पर कंपनी का नियंत्रण होता था ।

शासन में न्यूनतम हस्तक्षेप की कंपनी की यह नीति, जो नागरिक उथल-पुथल से बचने के लिए विशुद्ध रूप से एक व्यावहारिक कदम थी, तब भी तेजी से समाप्त नहीं हुई जबकि ऐसी स्थितियाँ नहीं रहीं, हालांकि तब कंपनी के अधिकारियों से प्रशासन में कहीं बहुत अधिक गहराई से भाग लेने की आशा की जाने लगी थी ।

तब इस प्रशासन के ढाँचे का आंग्लीकरण (Anglicisation) तो शुरू हुआ, पर लगता है यह प्रक्रिया धीरे-धीरे ही आगे बढ़ी । दूसरे शब्दों में यह अधिकारी स्वयं को क्रांतिकारी परिवर्तक के रूप में देख रहे थे ”जो कि प्रवर्तक नहीं बल्कि वारिस के, एक पतित हो चुकी व्यवस्था को दोबारा जीवित करनेवालों के रूप में थे ।”

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”पतित व्यवस्था” का यह विचार भारत के अतीत की एक प्रयोजनवादी (teleological) पुनर्रचना की उपज था । पश्चिम में आरंभ में भारत की छवि एक गरिमापूर्ण अतीत और साथ में उसके पतन की छवि थी । वहाँ भारतीय संस्कृति और परंपरा को जानने की इच्छा भी पाई जाती थी, जैसा कि सर विलियम जोंस जैसे विद्वानों के प्रयासों से स्पष्ट था जिन्होंने भारतीय भाषाओं का अध्ययन भारतीयों को उनकी अपनी विस्मृत संस्कृति और विधि-व्यवस्था को वापस दिलाने के लिए किया ।

ऐसे ज्ञानार्जन पर तब तक पंडितों और मौलवियों (हिंदू और मुस्लिम विद्वानों) का एकाधिकार था । जोंस ने संस्कृत यूनानी और लातीनी के बीच एक भाषायी संबंध स्थापित करके, क्योंकि माना जाता था कि ये सब एक ही हिंद-यूरोपीय भाषायी परिवार के अंग हैं, भारत को पश्चिम के क्लासिकी युग की समकक्ष प्राचीनता का गौरव दिया ।

यहीं से उस प्राच्यवादी (orientalist) परंपरा की शुरूआत होती है, जिसने कलकत्ता मदरसा (1781), एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल (1784) और संस्कृत कॉलेज, बनारस (1794) को जन्म दिया; इन सबका उद्देश्य भारतीय भाषाओं और ग्रंथों के अध्ययन को प्रोत्साहन देना था ।

लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि मुख्यत: प्राचीन ग्रंथों के विश्लेषण के द्वारा ही भारत की खोज करते हुए ये प्राच्यवादी विद्वान इस क्रम में भारतीय ”परंपरा” को एक खास ढंग से परिभाषित भी कर रहे थे, जिसे आगे चलकर भारत के बारे में सबसे प्रामाणिक विचार या सच्चा ज्ञान माना जाने लगा क्योंकि उसे उपनिवेशी राजसत्ता से वैधता प्राप्त हुई ।

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एडवर्ड सईद (1978) की मान्यता थी कि प्राच्यवाद यूरोपवालों की शक्ति द्वारा ऊपर से थोपा गया ज्ञान था, इसके विपरीत यूजीन इर्शिचक जैसे कुछ विद्वानों ने तर्क दिया है कि प्राच्यवाद का जन्म संवाद की एक प्रक्रिया से हुआ, जिसमें उपनिवेशी अधिकारी, भारतीय टीकाकार और देसी जानकार एक सहयोगमूलक बौद्धिक कार्य में भाग ले रहे थे ।

पर इस बौद्धिक कार्य में भाग ले रहे भारतीयों का इसके परिणामों पर कभी कोई नियंत्रण नहीं रहा । फिर भी भारतीयों की भागीदारी को महत्त्व देते समय इर्शिचक संज्ञान के इस उद्यम के सबसे अहम पक्ष को अस्वीकृत नहीं करते कि प्राच्यवाद ने अतीत का यह ज्ञान वर्तमान की आवश्यकताएँ, अर्थात् उपनिवेशी राज्य की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए पैदा किया ।

व्यवहार में प्राच्यवाद अपने आरंभिक चरण मैं वॉरन हेस्टिंग्ज़ के अंतर्गत कंपनी की सरकार की नीतियों में लागू होते हुए देखा जा सकता था । इस परंपरा का मूलभूत सिद्धांत यह था कि विजित जनता पर शासन उसके अपने क़ानूनों के आधार पर किया जाए । ब्रिटिश शासन को अपने को ”एक भारतीय मुहावरे में वैध ठहराना” था ।

इसलिए उसे भारतीय समाज संबंधी ज्ञान अर्जित करने की आवश्यकता थी; इसी प्रक्रिया को गौरी विश्वनाथन ने ”उलटा परसंस्कृतिग्रहण” (reverse acculturation) कहा है । इसने यूरोपीय शासकों को देश के रीति-रिवाजों से परिचित कराया, ताकि वे अधिक सक्षम प्रशासन के हित में प्रजा के समाज में स्वयं को सम्मिलित कर सकें ।

कलकत्ता में 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना इसी राजनीतिक सोच के साथ, सिविल कर्मचारियों को भारतीय भाषाओं और परंपरा का प्रशिक्षण देने के लिए की गई । लेकिन जैसे कि टॉमस ट्राउटमान (1997) का तर्क है, प्राच्यवादी संवाद का एक और राजनीतिक उद्देश्य था ।

प्राचीन काल में अंग्रेजों और भारतीयों के संबंध होने के विचार को प्रचारित करने के बाद यह बात ”प्रेम” के एक गढ़े गए शब्दजाल के द्वारा भारतीयों को उपनिवेशी शासन से भी जोड़ देती थी । 1785 में वॉरेन हेस्टिंग्ज़ ने लिखा ”ज्ञान का हर संचय राज्य के लिए उपयोगी है … वह दूर (यानी अतीत) के प्रेम को आकर्षित करता और अपना बनाता है; यह उस बेड़ी को ढीला बनाता है जिसके द्वारा मूल जनता (नेटिव्स) को अधीनता में रखा जाता है, और यह हमारे अपने देशवासियों (ब्रिटेनवासियों) के दिलों पर परोपकार के भाव और दायित्व की छाप छोड़ता है ।”

लेकिन अगर प्राच्यवादी संवाद आरंभ में प्राचीन भारतीय परंपराओं के सम्मान की भावना पर आधारित था, तो वहीं उसने अधीनस्थ समाज के बारे में ऐसा ज्ञान भी पैदा किया जिसने आखिरकार शासन की नीति के रूप में प्राच्यवाद के अस्वीकार का आधार भी तैयार किया ।

इन विद्वानों ने यूरोप के दूर (यानी अतीत) के रिश्तेदार आर्यो द्वारा भारत को दी गई महिमा को उजागर ही नहीं किया, बल्कि एक समय की शानदार आर्य सभ्यता के बाद के पतन पर भी बल दिया । इसने कठोर शासन को इस तरह वैधता प्रदान की कि भारत को उसकी अपनी ही पैदा की हुई हालत से बाहर निकालना और यूरोप वाले प्रगति की जिस अवस्था को पा चुके थे वहाँ तक भारत को उठाना आवश्यक था ।

ईसलिए हेस्टिंग्ज़ की नीति को लॉर्ड कॉर्नवॉर्लिस ने त्याग दिया और उसकी जगह उसने प्रशासन का और अधिक आंग्लीकरण करने का तथा ब्रिटिश सरकार के व्हिग (Whig) सिद्धांतों को भारत पर लादने का प्रयास किया ।

लॉर्ड वेलेज़ली ने इन कदमों का समर्थन किया, जिनका उद्देश्य भारतीय राजनीतिक परंपरा के तथाकथित निरंकुश पक्षों को त्यागकर और इसके लिए न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों का पृथक्करण सुनिश्चित करके सरकार के हस्तक्षेप को सीमित करना था ।

राज्य की भूमिका केवल व्यक्तियों के अधिकारों और उनकी निजी संपत्ति की रक्षा करने तक सीमित थी । यह नीति उस ”प्राच्य निरंकुशता” (Oriental despotism) के प्रति, जिससे भारतीयों को मुक्त कराना आवश्यक था एक सुसंगत घृणा से पैदा हुई ।

यह निरंकुशता प्राच्य राज्यों को यूरोपीय राज्यों से अलग (और हीन) बताती थी । लेकिन विडंबना यह है कि इसी तर्क ने ”(अंग्रेजी) राज की पैतृक सत्ता (paternalism)” को एक ”निहित औचित्य” प्रदान किया ।

अपने विजय-अभियानों के बहुत आरंभिक चरणों से ही कंपनी के शासन ने मुक्त व्यापार और राजस्व का अबाध संग्रह सुनिश्चित करने के लिए उन राजाओं और ज़मींदारों के स्थानीय प्रभाव को कम करने की कोशिश की जो मुगल साम्राज्य के स्थानीय अवशेष थे ।

प्रत्यक्ष रूप से तो इसी उद्देश्य के कारण उसने पूरे इलाके के सर्वेक्षण और उसकी निगरानी का पूरा ध्यान रखा और शासन के चिह्नों, जैसे झंडा, वर्दी, बिल्लों और मुहरों पर पूर्ण नियंत्रण पर बल दिया । यह एक मजबूत राज्य के उदय के संकेत देती थी, जो इस मान्यता पर आधारित था कि यहाँ के मूल निवासी स्वतंत्रता के उपभोग के आदी नहीं थे और उनको उनके भ्रष्ट और दुर्व्यवहार करनेवाले सामंत स्वामियों से मुक्त कराना आवश्यक था ।

उस समय अनेक ब्रिटिश अफसरों द्वारा मूल जनता के प्रति दिखाए जा रहे पिता-समान रुझान के प्रतीक विलियम जोंस जैसे व्यक्ति थे । अपने देश में अतिवादी (radical) समझे जानेवाले तथा भारत के शानदार अतीत और उसकी सीधी-सादी जनता के प्रति आकर्षित ये लोग फिर भी भारत में कठोर शासन के समर्थकों में से थे ।

फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना का एक उद्देश्य स्वतंत्रता के उन विचारों को फैलने से रोकना भी था जिनकी प्रेरणा फ्रांसीसी क्राति ने दी थी । इसीलिए विलियम जोंस के भारत-आगमन के बाद उनके विचारों में जावेद मजीद (1992) को कोई स्पष्ट अंतर्विरोध नहीं दिखता, बल्कि रूढ़िवादी विचारधारा का क्रमिक विकास ही दिखाई देता है ।

यह रूढ़िवाद, जिसके प्रमुख प्रतिपादक एडमंड बर्क थे, जैकोबिनवाद के खतरे का सामना कर रहे इंग्लैंड की घरेलू राजनीति से संबंधित था । जार्जियाई शासन के लिए आवश्यक था कि वह सरकारी समारोहों से अपने हित में लाभ उठाकर और राजतंत्र की लोकप्रिय-छवि को अच्छी बनाकर अपने देश में जनता का समर्थन बटोरे ।

उसके लिए (संस्कृतियों के संदर्भ में) परिवर्तन आवश्यक हो या न हो, संस्कृतियों के अनोखेपन के मुद्दे का असंदिग्ध संबंध उसके अपने देश में और भारत में सुधारों के प्रश्नों से था । कॉर्नवॉलिस और वेलेज़ली के काल में आंग्लीकरण की प्रक्रिया और नियंत्रणवादी प्रशासन उन दिनों के इसी रूढ़िवाद को प्रतिबिंबित करते थे ।

जैसा कि एरिक स्टोक्स (1959) ने दिखाया है, ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय प्रशासन में दो सुस्पष्ट प्रवृत्तियाँ धीरे-धीरे उभर रही थीं हालांकि वे पूरी तरह असंबद्ध न थीं । एक ओर तो कॉर्नवॉलिस की व्यवस्था थी, जो बंगाल-केंद्रित थी और मुख्यत: ‘इस्तमरारी या स्थायी बंदोबस्त’ (Permanent Settlement) पर आधारित थी ।

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने इस्तमरारी (स्थायी) बंदोबस्त का आरंभ इस आशा से किया था कि कानून का शासन और निजी संपत्ति के अधिकार वैयक्तिक उद्यमशीलता को रीति-रिवाजों की जकड़न से मुक्त करेंगे और समाज व अर्थव्यवस्था को आधुनिक बनाएँगे ।

लेकिन मद्रास में टॉमस मुनरो तथा पश्चिमी और उत्तरी भारत में उसके माउंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन, जॉन मैल्कम और चार्ल्स मेटकॉफ जैसे शिष्य यह सोच रहे थे कि कॉर्नवॉलिस की व्यवस्था ने भारतीय परंपरा और अनुभवों पर ध्यान नहीं दिया था ।

ऐसा नहीं है कि वे लोग कानून के शासन या शक्तियों के पृथक्करण के विरोधी थे, पर उनकी सोच यह थी कि ऐसे सुधारों में भारतीय संदर्भ के अनुसार बदलाव आवश्यक थे । उनका विश्वास था कि वैयक्तिक शासन की भारतीय परंपरा के कुछ तत्त्वों को बचाकर रखना आवश्यक था; कि कंपनी की भूमिका अतिक्रामक, नियंत्रक या प्रवर्तक की न होकर संरक्षक की होनी चाहिए ।

इसीलिए भारत के ग्राम समुदायों को सुरक्षित रखने के लिए मुनरो ने अपना रैयतवारी बंदोबस्त लागू किया । लेकिन अंतत: उसका उद्देश्य दक्षिण में राजस्व के आधार को व्यापक बनाकर कंपनी के शासन को मजबूत बनाना ही था; वहाँ ब्रिटिश अफसरों की एक बड़ी संख्या किसानों से सीधे भूमि संबंधी कर वसूल करती थी ।

कर-वसूली का यह विचार मुनरो ने टीपू सुलान के मैसूर के ”सैन्य वित्तवाद” (military fiscalism) की व्यवस्था से उधार लिया था । इस तरह लगता है कि ये दोनों व्यवस्थाएँ केंद्रीकृत प्रभुसत्ता और निजी संपत्ति के उन्हीं बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित थीं जिनको ब्रिटिश कानूनों के सहारे सुरक्षित रखना आवश्यक था ।

जैसा कि बर्टन स्टाइन का तर्क है, मुनरो यह मानता था कि भारत के कुछ भागों पर अप्रत्यक्ष शासन होना चाहिए, हालांकि उसका आग्रह था कि शासन के परंपरागत भारतीय रूप तभी अच्छी तरह काम करेंगे जबकि ”उसके (मुनरो के) जैसे ज्ञानवान और सहानुभूति रखने वाले लोग भारी और केंद्रीकृत सत्ता के साथ उनको निर्देशित करें ।”

यह अधिकारवादी पैतृक-वृत्ति भारतीयों की प्रत्यक्ष राजनीतिक भागीदारी के विचार को अस्वीकार करती थी । इसलिए सम्मान-वृत्ति और पैतृक-वृत्ति भारत में आरंभिक ब्रिटिश साम्राज्य की दो पूरक विचारधाराएँ रहीं ।

अहम बात यह है कि शीघ्र ही यह पता चल गया कि साम्राज्यिक अधिकारवृत्ति भारत के ग्रामीण समाज के उन स्थानीय कुलीनों के साथ-बंगाल में ज़मींदारों और मद्रास में मीरासीदारों के साथ-मिलकर ही बखूबी काम कर सकती थी ।

इसी कारण उनकी शक्ति को कॉर्नवॉलिस और मुनरो, दोनों की व्यवस्थाओं ने शक्तिशाली बनाया और ये दोनों व्यवस्थाएँ निजी संपत्ति का निरूपण और संरक्षण करना चाहती थीं । जब अवध के ताल्लुकदार नष्ट हुए तो उनके आक्रोश ने 1857 के विद्रोह को जन्म दिया, और विद्रोह के बाद उनकी पिछली शानो-शौकत और शक्ति उन्हें वापस दिलाए गए ।”

अगर कॉर्नवॉलिस थोड़ा संयमशील और रूढ़िवादी था तो अंशत: एक नवविजित क्षेत्र के प्रशासन की जरूरतों के कारण था, और साथ ही साथ इसलिए भी था कि कंपनी के वार्षिक निवेश का खचं उठाने के लिए पर्याप्त राजस्व उगाहना जरूरी था ।

आगे विजय के बाद और जनता को शांत किए जाने के बाद यह स्थिति बदलने लगी । 1800 के आसपास ब्रिटेन में हुई औद्योगिक क्रांति ने तैयार मालों के लिए भारतीय बाजारों के विकास और समन्वय की तथा कच्चे मालों की निरंतर आपूर्ति के सुनिश्चय की आवश्यकता पैदा की ।

इसके लिए एक अधिक चुस्त प्रशासन की तथा उपनिवेश को स्वामी देश की अर्थव्यवस्था से जोड़ना आवश्यक था । ब्रिटेन में ऐसी कई नई बौद्धिक धाराएँ थीं जो सुधार की बातें करती थीं और इसलिए उन्होंने वहाँ और भारत में सुधार के मुद्दे को उजागर किया ।

ब्रिटेन में मुक्त व्यापार की लॉबी का दबाव भारतीय व्यापार पर कंपनी के एकाधिकार के उन्मूलन का पक्षधर था, लेकिन फिर भी भारत में कंपनी के प्रशासन की प्रकृति में बदलाव ‘इंजीलवाद’ (Evangelicalism) और ‘उपयोगितावाद’ (Utilitarianism) ने पैदा किया ।

इन दोनों विचार-संप्रदायों का दावा था कि भारत को पापों या अपराधों के सहारे जीता गया है । लेकिन इस पापी या अपराधी शासन के उन्मूलन का समर्थन करने की बजाय वे उसमें सुधार के लिए शोर मचा रहे थे, ताकि भारतवासी ”अपने युग के बेहतरीन विचारों” के अनुसार सुशासन के लाभ पा सकें ।

यही दो बौद्धिक परंपराएँ थीं जिनसे ”अंतत: यह आस्था पैदा हुई कि इंग्लैंड को भारत में हमेशा बने रहना चाहिए ।” इंजीलवाद ने अपना अभियान भारतीय बर्बरता के विरुद्ध शुरू किया और ”हिंदोस्तान की प्रकृति” को ही बदलने के लिए ब्रिटिश राज के स्थायित्व का समर्थन किया ।

भारत में इस विचार के प्रवक्ता कलकत्ता के पास श्रीरामपुर के मिशनरी थे, पर ब्रिटेन में इसका मुख्य प्रतिपादक चार्ल्स ग्रांट था । उसने 1792 में ही कहा था कि भारत की प्रमुख समस्या वे धार्मिक विचार हैं, जो भारतीय जनता को अज्ञान में जकड़े हुए हैं ।

ईसाइयत की रोशनी फैलाकर इन्हें बखूबी बदला जा सकता है और भारत में ब्रिटिश राज का श्रेयस ध्येय यही होना चाहिए । अपने आलोचकों को शांत करने के लिए ग्रांट ने विरोध की आशंका के बिना या अंग्रेजों की स्वाधीनता की किसी इच्छा के बिना सभ्यताकारी प्रक्रिया और भौतिक समृद्धि के बीच की संपूरकता को भी दिखाया ।

संसद में उसके विचार को और अधिक प्रचार विलियम विल्बरफोर्स ने 1813 के चार्टर ऐक्ट के पारित होने से पहले दिया, जिसमें ईसाई मिशनरियों को बिना किसी प्रतिबंध के भारत में आने की छूट दी गई थी । मुक्त व्यापार के समर्थक सौदागर भी सुधार और परिवर्तन के विचार का समर्थन कर रहे थे जो यह समझते थे कि अगर कंपनी व्यापारिक कार्यो से हटकर शासक के कार्यो पर ध्यान देने लगे, तो भारत ब्रिटिश मालों का एक अच्छा बाजार और कच्चे मालों का एक स्रोत सिद्ध होगा ।

एक सुशासन के अधीन भारतीय किसान सुधार का अनुभव करके फिर से ब्रिटिश मालों के उपभोक्ता बन जाएँगे । इंजीलवादियों और मुक्त व्यापारवादियों के गुटों में तालमेल और आंग्लीकरण की नीति को लेकर मूलत: कोई मतभेद नहीं था ।

वास्तव में इंजीलवादी चार्ल्स ग्रांट ही 1883 के उस चार्टर ऐक्ट के निर्माण में आगे रहा, जिसने भारतीय व्यापार पर कंपनी के एकाधिकार को समाप्त किया । यह ब्रिटिश उदारवाद का युग भी था । ब्रिटिश प्रशासकों का कार्य विजय प्राप्ति की अपेक्षा सभ्यता का प्रसार था ।

टॉमस मैकॉले की इस उदारवादी दृष्टि ने ही सक्रिय प्रशासन के माध्यम से भारत की मुक्ति का उदारवादी एजेंडा तय किया । एक और उदारवादी सी. ई. ट्रेवल्यान ने 1838 में कल्पना की थी कि ”सुख और स्वतंत्रता के लिए हमसे प्रशिक्षण पाकर और हमारे ज्ञान-विज्ञान और राजनीतिक संस्थाओं से लैस होकर भारत ब्रिटिश परोपकार का सबसे गौरवान्वित स्मारक बना रहेगा ।”

ब्रिटिश उदारवाद के इसी वातावरण में उसकी सभी विशिष्ट अधिकारवादी प्रवृत्तियों के साथ उपयोगितावाद का जन्म हुआ । जेरेमी बेंथम का उपदेश था कि मानव-सभ्यता का आदर्श अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख है । उसका तर्क था कि अच्छे कानून, चुस्त और प्रबुद्ध प्रशासन परिवर्तन के सबसे कारगर साधन हैं और कानून के शासन का विचार सुधार की जरूरी शर्त है ।

उपयोगितावादी जेम्स मिल जब ईस्ट इंडिया कंपनी के लंदन कार्यालय में आया, तो भारत संबंधी नीतियाँ ऐसे ही सिद्धांतों से निर्धारित होने लगीं । जैसा कि कहा गया है, उपयोगितावाद को एक ”जुझारू विश्वास” बनानेवाला व्यक्ति मिल ही था ।

1817 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया (The History of British India) में उसने पहले तो भारत की आर्थिक और सांस्कृतिक समृद्धि के मिथ को तोड़ा, जिसे सर विलियम जोंस जैसे व्यक्ति की ”भावुक कल्पनाशक्ति” ने फैला रखा था ।

बेंथम के समान उसका तर्क था कि भारत को सुधार के लिए एक अच्छे स्कूल मास्टर की आवश्यकता है अर्थात् अच्छे कानून बनानेवाली एक बुद्धिमान सरकार की है । अधिकतर उसी के प्रयासों के कारण 1833 में लॉर्ड मैकॉले की अध्यक्षता में एक विधि आयोग बनाया गया, जिसने 1835 में एक भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) तैयार की ।

यह संहिता ”नि:स्वार्थ दार्शनिकबुद्धि” से पैदा एक केंद्रीय स्तर पर, तार्किक और सुसंगत ढंग से तैयार की गई संहिता के बेंथमवादी मॉडल पर आधारित थी । उपयोगितावादी महत्त्वपूर्ण अर्थो में उदारवादियों से अलग थे, विशेषकर आंग्लीकरण के प्रश्न पर ।

यह वह समय था जब भारत में प्रारंभ की जानेवाली शिक्षा की प्रकृति को लेकर प्राच्यवाद और आंग्लवाद के बीच बहस चल रही थी । अपने 1835 के सुप्रसिद्ध एजुकेशन मिनट में उदारवादी लॉर्ड मैकॉले ने अंग्रेजी शिक्षा के आरंभ का ज़ोरदार समर्थन किया ।

लेकिन वहीं मिल जैसे उदारवादी अभी भी भारत की आवश्यकताओं के लिए अधिक उपयुक्त कहकर देसी शिक्षा का समर्थन कर रहे थे । दूसरे शब्दों में, भारत के प्रति साम्राज्य के दृष्टिकोणों की दुविधा उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भी जारी रही ।

हालांकि आंग्लवादियों और उपयोगितावादियों ने धीरे-धीरे अपना सिक्का जमा लिया, पर पुरानी दुविधाएं पूरी तरह समाप्त नहीं हुई और इस दुविधा का साकार रूप तो स्वयं लॉर्ड बेंटिंक था । मिल के इस पक्के अनुयायी ने कानून बनाकर सती-प्रथा और बाल-हत्या का उन्मूलन किया ।

वह इस उपयोगितावादी दर्शन को मानता था कि कानून परिवर्तन का एक कारगर साधन है और कानून के शासन की धारणा सुधार के लिए परमावश्यक है । पर साथ ही भारतीय परंपराओं में उसकी आस्था बनी रही और उसकी यह इच्छा भी पलती रही कि भारतीयों को उनका सच्चा धर्म वापस दिलाया जाए ।

इसलिए सती संबंधी सुधार पर आधिकारिक संवाद इस तर्क पर आधारित रहा कि प्राचीन हिंदू धर्म ही उसके उन्मूलन की आवश्यकता बतलाते हैं । 1835 में तैयार भारतीय दंड संहिता 1860 तक कानून नहीं बन

सकी । भारत में ब्रिटेन के ध्येय को आक्रामक ढगं से आगे बढ़ाने के विषय में मिल के विचार को लागू करने के प्रति लॉर्ड डलहौजी के निश्चय के बावजूद उन्नीसवीं सदी के मध्य में ये सुविधाएं निश्चित ही बनी रहीं ।

1857 के बाद के भारत के विक्टोरियाई उदारवाद ने ही निस्संदेह पैतृक-वृत्ति को अंग्रेजी राज की प्रमुख विचारधारा का रूप दिया । सिपाही विद्रोह के दु:स्वप्न जैसे अनुभव ने इंग्लैंड और भारत में बहुत लोगों को विश्वास दिला दिया कि सुधार “निरर्थक भी है और खतरनाक भी” और भारतीयों को कभी प्रशिक्षित करके अंग्रेज नहीं बनाया जा सकता ।

ऐसा नहीं था कि सुधार का जोश पूरी तरह ठंडा हो गया हो; 1858 की ब्रिटिश साम्राज्ञी की घोषणा से, शिक्षा को दिए जा रहे संरक्षण से, 1861 के इंडियन काउंसिल ऐक्ट से और 1882 के लोकल सेल्फ़ गवर्नमेंट ऐक्ट से यह जोश पूरी तरह स्पष्ट था जो हिंदुस्तानियों के साथ सत्ता की सीमित भागीदारी की दिशा में एक कदम था ।

लेकिन दूसरी ओर विजेता जाति की श्रेष्ठता की घोषणा ने भारतीय संस्कृति के सम्मान की भावना को निश्चित रूप से पीछे धकेल दिया । बेंटिंक के टालमटोल के रवैयों की जगह अब जेम्स फ़िट्‌ज़जेम्स स्टीफ़ेन के अधिकारवादी उदारवाद ने ले ली जिसने वायसरॉय की काउंसिल में नए विधि सदस्य के रूप में मैकॉले की जगह ली ।

उसने न केवल भारत की भिन्नता पर जोर दिया, बल्कि भारत की हीनता का दावा भी किया । उन्नीसवीं सदी में ऐसे विचारों को विक्टोरियाई इंग्लैंड में उन जातीय (racial) विज्ञानों के उदय से और बल मिला, जो जातीय पहचान के प्रमुख निर्धारकों के रूप में भाषाओं पर शारीरिक विशेषताओं को प्रधानता देते थे ।

यह जातीय मानवशास्त्र सभ्य, गोरी चमड़ी वाले यूरोपवासियों और काली चमड़ी वाले जंगलियों के विभाजन के सिद्धांत में एक प्राचीन भारतीय सभ्यता के विचार को समाहित नहीं कर सकती थी । इसी कारण यह सिद्धांत दिया गया कि काली चमड़ी वाले मूल भारतवासियों से टकराकर आक्रामक गोरे आर्यो ने भारतीय सभ्यता की नींव रखी; यह सिद्धांत साक्ष्यों के एक ”सुसंगत अतिरंजित वाचन” पर और ”बहुत हद तक शास्त्रों की पाठ-विकृति” पर आधारित था ।”

और भी स्पष्ट कहें, तो इस नए प्राच्यवादी संवाद ने-जिसमें केवल संस्कृतवादियों का ही नहीं बल्कि प्रेक्षकों, नृजातिशास्त्रियों और नागरिक अधिकारियों की एक पूरी श्रेणी का योगदान था-अंतत: एक पिछड़े हुए, जातिबद्ध भारतीय समाज का एक सारवादी ज्ञान पैदा किया; भारतीय ”सारतत्त्वों” का यही ज्ञान था जिसने कठोर उपनिवेशी शासन का औचित्य स्थापित किया ।

भारत की स्वशासन संबंधी योग्यता की सभी बहसों को भावुकता कहकर रद्द कर दिया गया तथा समानता और मेलमिलाप के पहले वाले उदारवादी विचारों पर जातीय अलगाववाद और शासकों के विशेषाधिकारों की घोषणा की विजय हुई ।” सुधार अगर लागू किए गए तो भारतवासियों की मुखर राजनीतिक माँगों की प्रतिक्रिया के तौर पर अधिक लागू किए गए ।

यहाँ यह बात भी कह देना उचित होगा कि शासकों की जातीय श्रेष्ठता की घोषणा उन्नीसवीं सदी के मध्य में कोई पहली बार नहीं की गई । अगर हम साम्राज्य के वास्तविक कार्यकलाप को देखें, तो ये घोषणा अठारहवीं सदी के अंत से ही अपेक्षाकृत जोरों से की जाने लगी थी, जब कॉर्नवॉलिस ने कंपनी की नौकरशाही को एक ”तटस्थ कुलीनवर्ग” में बदल दिया जो शासित जनता से अपना भौतिक अलगाव बनाए हुए था ।

ब्रिटिश सैनिक के भारतीय स्त्रियों से शारीरिक संबंध बनाने पर रोक थी और उन्हें सैनिक छावनियों तक सीमित रखा जाता था, जहाँ छूत के रोगों और पूरब की बुराइयों से उन्हें बचाकर रखा जाता था । इसके अलावा कंपनी के नागरिक अधिकारियों को भारतीय स्त्रियों से विवाह करने से हतोत्साहित किया जाता था, उन्हें अंग्रेज बीवियों लाने को कहा जाता था और इस तरह-जैसा कि एक अधिकारी ने 1830 में संसद की एक प्रवर समिति के सामने कहा था: ”अंग्रेजों के प्रति भारतीय जनता के मन में जो आदर और सम्मान” का भाव है, उसे बचाकर रखने का आग्रह किया जाता था ।

बहुत पहले, 1793 में ही बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष हेनरी डंडस ने तर्क दिया था कि इस सम्मान के भाव को नष्ट करनेवाला कोई भी कार्य निश्चित ही ”हमारे भारतीय साम्राज्य को नष्ट” करेगा ।”  साम्राज्य की विचारधारा के रूप में शासक और शासित के बीच के भौतिक अलगाव की ऐसी खुली घोषणा अठारहवीं सदी में साम्राज्य की राजधानी कलकत्ता नगर में सामाजिक परिवेश के विकास के ढंग से काफी स्पष्ट हो जाती है ।

”यह प्रक्रिया गोरे और काले नगर के उस द्वैत्व के समग्र परिवेश में चली, जो बुनियादी रूप से ऐसे उपनिवेशी नगरों की विशेषता थी ।” प्रमुख द्वैत्व की यह प्रवृत्ति एक ओर तो सुरक्षा के प्रति विजेताओं (अंग्रेजों) की चिंता में व्यक्त होती थी, मगर दूसरी ओर उनके जातीय अहंकार और अलगाववाद में भी व्यक्त होती थी ।

अठारहवीं सदी के आरंभिक वर्षो में जातीय आधार पर यह दैशिक (spatial) अलगाव कम स्पष्ट था, क्योंकि एक तो गोरा नगर होता, एक काला नगर होता था और बीच में एक भूरा नगर भी होता था, जिसमें यूरेशियाई या ईस्ट इंडियन लोगों की प्रधानता होती थी मगर जिसमें भारतीय (काले) लोग भी रह सकते थे ।

मिश्रित विवाहों से पैदा इन यूरेशियाई लोगों की स्थिति 1791 के मारक साम्राज्यिक आदेश के बाद लगातार गिरी, जब उनको कमीशनयाफ्ता-सिविल या उच्च श्रेणी की सैनिक या नौसैनिक सेवाओं से वंचित कर दिया गया ।

उपनिवेशी समाज का जातीय ध्रुवीकरण अब पूरा हो गया । उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक कलकत्ता के शहरी जीवन में जनता और शासक जाति के आपस की ”सामाजिक दूरी” सरलता से नज़र आनेवाली वास्तविकता बन चुकी थी ।”

फिर भी, उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जातीय दंभ के साथ-साथ एक उदारवादी आशा भी पाई जाती थी जो कि लॉर्ड मैकॉले की इस महत्त्वाकांक्षा में व्यक्त होती थी कि अकर्मण्य भारतीय को एक काला साहब बनाया जा सकता है, जो सुरुचि और बुद्धि में तो यूरोपीय हो, पर एकदम यूरोपीय भी न हो; जो आशीष नंदी की सूक्ति का प्रयोग करें तो ”साहब से अधिक काला” हो ।

1857 कं गंभीर झटके ने इसी आशावाद को चूर-चूर किया । उपनिवेशी संवादों में आरंभ से ही भारत की प्रजा की स्थिति की तुलना बचपन और स्त्रैणता से की जाती थी, जिसके लिए प्रशिक्षण और संरक्षण की आवश्यकता होती है पर अब उसे आदिमपन के बराबर भी ठहराया जाने लगा जो (अंग्रेजों की) संस्कृति की श्रेष्ठता की दंभ भरी मान्यता के आधार पर भारत में साम्राज्यवाद की स्थापना को उचित ठहराता था ।”

1877 के शाही दरबार ने, जिसने महारानी विक्टोरिया को भारत की महारानी घोषित करके प्रभुसत्ता संबंधी अस्पष्टता को दूर किया असंदिग्ध रूप से उस चीज को सामने रखा जिसे बरनार्ड कोहन ने ”भारत में अपनी सत्ता का ब्रिटिश निरूपण” कहा है ।

उसने एक नई समाज व्यवस्था स्थापित की, जिसमें जनता से लेकर राजा-महाराजाओं तक हर कोई एक सोपान का अंग था और वायसरॉय सत्ता का शीर्ष (केंद्र) था । 1883 के इल्बर्ट बिल संबंधी विवाद अधिकारवादी प्रवृत्तियों और उपनिवेशकों के जातीय दंभ की परम विजय का सूचक था ।

भारतीय न्यायाधीशों को यूरोपवालों के मुकदमे सुनने का अधिकार देने के उद्देश्य से उदारवादी वायसरॉय लॉर्ड रिपन द्वारा प्रस्तावित इस विधेयक को गैर-अफ़सर अंग्रेजों के और नौकरशाहों के भी दबाव के कारण हल्का बनाना पड़ा । बीसवीं सदी के आरंभ में भारतीय राष्ट्रवाद को इसी अधिकारवादी साम्राज्यिक व्यवस्था का मुकाबला करना पड़ा ।

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