भारतीय पाषाण काल | Stone Age in India in Hindi Language.
इतिहास का विभाजन प्रागितिहास (Pre-History), आद्य इतिहास (Proto-History) तथा इतिहास (History) तीन भागों में किया गया है । ‘प्रागैतिहास’ से तात्पर्य उस काल से है जब मनुष्य ने लिपि अथवा लेखन कला का विकास नहीं किया था । मानव सभ्यता के आदि काल को पाषाण काल कहते हैं क्योंकि इसमें मनुष्य का जीवन पाषाण निर्मित उपकरणों पर निर्भर करता था ।
प्रागैतिहासिक काल की परिधि में सभी पाषाणयुगीन सभ्यताएँ आती है । लिपि के स्पष्ट प्रमाण सिन्धु सभ्यता में मिल जाते है किन्तु उसका वाचन अभी तक सम्भव नहीं हो पाया है। वैदिक काल में शिक्षा पद्धति मौखिक थी । अत: सिन्धु तथा वैदिक सभ्यता को सूचित करने के लिए प्रागैतिहास के स्थान पर ‘आद्य इतिहास’ (Proto History) शब्द का प्रयोग किया जाता है ।
इसके अन्तर्गत वे धातुकालीन सभ्यतायें आती हैं जिनके विषय में लिखित प्रमाणों से प्रकाश नहीं पड़ता । जिस काल का इतिहास लिखित साक्ष्यों से विदित होता है उसे ऐतिहासिक काल की संज्ञा दी जाती है । भारतीय सन्दर्भ में यह काल ईसा पूर्व छठी शताब्दी से प्रारम्भ होता है ।
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इस प्रकार कालक्रम की दृष्टि से मानव सभ्यता का .001 प्रतिशत काल ही ऐतिहासिक है । यह मानवमात्र के विकास से सम्बन्धित है । इस काल का इतिहास हम एकमात्र उन पुरावस्तुओं तथा उपकरणों से ज्ञात करते है जिनका उपयोग आदि मानव ने किया था ।
पाषाणकालीन संस्कृति:
भारत में पाषाणकालीन सभ्यता का अनुसंधान सर्वप्रथम 1863 ई॰ में प्रारम्भ हुआ जबकि भारतीय भूतत्व सर्वेक्षण विभाग के विद्वान् राबर्ट ब्रूस फुट ने मद्रास के पास स्थित पल्लवरम् नामक स्थान से पूर्व पाषाण काल का एक पाषाणोपकरण प्राप्त किया । तत्पश्चात् विलियम किंग, ब्राउन, काकबर्न, सी॰ एल॰ कार्लाइल आदि विद्वानों ने अपनी खोजों के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों से कई पूर्व पाषाण काल के उपकरण प्राप्त किये ।
सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान 1935 ई॰ में डी॰ टेरा तथा पीटरसन द्वारा किया गया । इन दोनों विद्वानों के निर्देशन में येल कैम्ब्रीज अभियान दल ने शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसे हुए पोतवार के पठारी भाग का व्यापक सर्वेक्षण किया था । इन अनुसंधानों से भारत की पूर्वपाषाणकालीन सभ्यता के विषय में हमारी जानकारी बढी ।
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विद्वानों का विचार है कि पृथ्वी पर आदि मानव के अवशेष सर्वप्रथम प्रातिनूतन काल (Pleistocene) में मिलने है जिसकी सम्भावित तिथि आज से लगभग पाँच लाख वर्ष पूर्व मानी जाती है । यही मानव विकास का युग भी कहा जाता है।
आदि भारत में जीवाश्म (Fossils) भारत में अभी तक नहीं मिले थे, किन्तु हाल ही में गुजरात के काम्बे खाड़ी में साढ़े नौ हजार वर्ष पूर्व की अब तक की सबसे प्राचीन सभ्यता को खोज निकालने का दावा राष्ट्रीय महासागर प्राद्यौगिकी विभाग लगाता के अनुसंधानकर्त्ताओं ने किया है ।
वर्तमान समुद्र के जलस्तर से बीस से चालीस फीट की गहराई में मिली सामग्रियाँ हड़प्पा के पहले की सभ्यता का सकेत देती हैं । सचिव डॉ॰ हर्षगुप्त के अनुसार यहाँ नूतन काल (Holocene Period) में मनुष्य निवास करता था जिसकी प्राचीनता ईसा पूर्व दस हजार तक जाती है । यहाँ के निवासी मिट्टी तथा भूसे से निर्मित ईंटों की सहायता से अपना घर बनाते थे । जीवन शैली विकसित थी ।
मनुष्य समूह बनाकर रहने लगा था । गृह निर्माण में प्रयुक्त सामग्रियों तथा कई कलाकृतियां खोज निकाली गयी है । धारदार तथा छेद बाले पत्थर तथा मणियों जैसी प्रस्तर कलाकृतियां मिली हैं जो तकनीकी कौशल को प्रदर्शित करती है । साथ-साथ मर्तबान के टुकड़े, जानवरों की हड्डियां, मनुष्यों के दाँत आदि भी समुद्र तल पर गड़े हुए मिले हैं । इससे स्पष्ट है कि भारत में भी प्राचीनतम मानव सभ्यता के अवशेष विद्यमान थे ।
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किसी भी व्यवस्थित अध्ययन के लिये एक सुनिश्चित शब्दावली अनिवार्य आवश्यकता होती है अतः पुराविदों ने प्रागैतिहासिक काल के विभाजन के लिये अनेक शब्दावलियों को प्रस्तुत किया ।
1776 ई॰ में पी॰ एफ॰ शुम (Suhm) ने डेनमार्क के प्रागैतिहास के सांस्कृतिक चरणों को तीन कालों में विभाजित किया:
1. पाषण काल
2. कास्य काल
3. लौह काल
1836 ई॰ में टामसेन (Tomsen) ने इसी का अनुकरण किया । फ्रांसीसी विद्वान सर जान लुब्बक जो वाद में लार्ड एवेवरी नाम से जाने गये, ने पाषाण काल का विभाजन पूर्व पाषाण तथा नव पाषाण में किया जो पाषाण उपकरणों के प्रारूप एवं तकनीक के आधार पर किया गया था ।
कुछ समय बाद यह अनुभव किया गया कि नवपाषाण मनुष्य के सांस्कृतिक इतिहास के अपेक्षाकृत नूतन भूतकाल का प्रातनिधित्व करता है । इस कारण पूर्वपाषाण काल के विस्तृत अवधि के पुनर्विभाजन की आवश्यकता प्रतीत हुई । अत: लार्तेत (Lartet) ने 1870 ई॰ के दशक में इसका विभाजन प्रारम्भिक पूर्व पाषाण, मध्य पूर्व पाषाण एवं उच्च पूर्व पाषाण, इन तीन कालों में किया ।
यह विभाजन मुख्यत: विभिन्न पाषाण उद्योगों के अनुसार चलने वाले प्राणिसमूह में परिवर्तन को दृष्टि में रखकर किया गया था । लार्तेत द्वारा प्रस्तावित विभाजन ही सामान्यत: विश्व प्रागितिहास के संदर्भ में स्वीकृत है ।
1961 ई॰ में प्रथम एशियाटिक पुरातत्व सम्मेलन दिल्ली में आयोजित किया गया जिसमें यह मत दिया गया कि चूंकि भारत तथा अफ्रीका के पाषाणकाल में अधिक निकटता है, अतः वहीं की शब्दावली मानते हुए भारत के लिये भी पूर्व, मध्य एवं उत्तर पाषाण काल शब्दावली प्रयोग किये जाने का सुझाव सामने आया । इसके पीछे मुख्य तर्क यह था कि भारत में उच्च पुरापाषाणकालीन सामग्री नहीं मिलती ।
1960 ई॰ के पहले पूर्व पाषाण काल को प्रस्तर युग (Stone Age) कहा जाता था क्योंकि यह माना गया कि भारत में कोई उत्तर पाषाण युग ही नहीं था । अत: समस्त अत्यन्त नूतन कालीन संस्कृति का विभाजन पूर्व प्रस्तर एवं मध्य प्रस्तर काल में कर दिया गया । किन्तु देश के विभिन्न भागों में उत्तर पाषाणकाल के साक्ष्य मिल जाने से पाषाण काल का विभाजन तीन कालों में कर दिया गया ।
पूर्व अथवा पुरा पाषाणकाल के विषय में सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध अनुसंधान विशेषकर फ्रांस में प्रारम्भ हुआ था । अत: वहीं की शब्दावली को मानक रूप में स्वीकार किया जाता है । अफ्रीका में पुरापाषाणकाल के लिये प्रारम्भिक (Early), मध्य (Middle) तथा उत्तर (Late) पाषाणकाल नाम दिया गया ।
यूरोप में इसका नामकरण निम्न (Lower), मध्य (Middle) तथा उच्च (Upper) पूर्व या पुरापाषाणकाल के रूप में हुआ । उच्च पुरा पाषाणकाल का विशिष्ट उपकरण ब्लेड ब्यूरिन (Blade Burin) है । चूंकि भारत के विभिन्न भागों से अब उच्च पुरा पाषाण संस्कृति के साक्ष्य प्रकाश में आ चुके हैं, अतः भारतीय पाषाणकालीन संस्कृति का नामकरण भी यूरोप के अनुसार ही किया जा सकता है ।
जो निम्नवत् है:
1. पूर्व या पुरा पाषाणकाल
2. मध्य पाषाणकाल
3. नव पाषाणकाल
1. पूर्व या पुरा पाषाणकाल:
पूर्वपाषाण काल को उपकरणों में भिन्नता के आधार पर तीन कालों में विभाजित किया जाता है:
I. निम्न पूर्व पाषाणकाल ।
II. मध्य पूर्व पाषाणकाल ।
III. उच्च पूर्व पाषाणकाल ।
I. निम्न पूर्व पाषाणकाल:
भारत के विभिन्न भागों से निम्न पूर्व पाषाणकाल से संबन्धित उपकरण प्राप्त होते है ।
इन्हें दो प्रमुख भागों में विभाजित किया जाता है:
(i) चापर- चापिंग पेबुल संस्कृत्ति:
इसके उपकरण सर्वप्रथम पंजाब की सोहन नदी घाटी (पाकिस्तान) में प्राप्त हुए । इसी कारण इसे सोहन-संस्कृति भी कहा गया है । पत्थर के वे टुकड़े, जिनके किनारे पानी के बहाव में रगड़ खाकर चिकने और सपाट हो जाते हैं, पेबुल कहे जाते हैं । इनका आकार-प्रकार गोल-मटोल होता है ।
‘चापर’ बड़े आकार लाला वह उपकरण है जो पैबुल से बनाया जाता है । इसके उपर एक ही ओर फलक निकालकर धार बनाई गयी है । चपिंग उपकरण द्विधारा (Bifacial) होते हैं, अर्थात पेबुल के ऊपर दोनों किनारों को छीलकर उनमें धार बनाई गयी है ।
(ii) हैण्डऐक्य संस्कृति:
इसके उपकरण सर्वप्रथम मद्रास के समीप बहकर तथा अतिरपक्कम से प्राप्त किये गये, ये साधारण पत्थरों से कोर तथा फ्लेक प्रणाली द्वारा निर्मित किये गये है । इस संस्कृति के अन्य उपकरण क्लीवर, स्क्रेपर आदि हैं । भारत के विभिन्न क्षेत्रों से इन दोनों संस्कृतियों के उपकरण प्राप्त किये गये है ।
इनका विवरण इस प्रकार है:
a. सोहन संस्कृति:
सोहन, सिन्धु नदी की एक छोटी सहायक नदी है । प्रागैतिहासिक अध्ययन के लिये इस नदी घाटी का विशेष महत्व है । 1928 ई॰ में के॰ एन॰ वाडिया ने इस क्षेत्र से पूर्व पाषाणकाल का उपकरण प्राप्त किया । 1930 ई॰ में के॰ आर॰ यू॰ टाड ने सोहन घाटी में स्थित पिन्डी घेब नामक स्थल से कई उपकरण प्राप्त किये । सोहन घाटी में सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान 1935 ई॰ में डी॰ टेरा के नेतृत्व में एल कैम्ब्रीज अभियान दल ने किया । इस दल ने कश्मीर घाटी से लेकर साल रेंज तक के विस्तृत क्षेत्र का सर्वेक्षण किया ।
उन्होंने हिम तथा अन्तर्हिम (Glacial and Interglacial) काली के कम के आधार पर पाषाणकालीन सभ्यता का विश्लेषण किया । सोहन नदी घाटी की पाँच वेदिकाओं (Terraces) से भिन्न-भिन्न प्रकार के पाषाणोपकरण प्राप्त किये गये है । इन्हें सोहन उद्योग (Sohan Industry) के अन्तर्गत रखा जाता है ।
द्वितीय हिम युग में भारी वर्षा के कारण पुष्वल-शिवालिक क्षेत्र में बोल्डर कांग्लोमरेट (Boulder Conglomerate) का निर्माण हुआ । बोल्डर, वे पाषाण खण्ड है जिन्हें नदी की धाराओं द्वारा पर्वतों या शिलाओं से तोड़कर वहा लिया जाता है । ऐसे पाषाण खण्डों द्वारा निर्मित सतह को ही ‘बोल्डर कांग्लोमरेट’ की संज्ञा दी जाती है ।
डी॰ टेरा तथा पीटरसन ने बोल्डर कांग्लोमरेट के स्थलों से ही घड़े-बड़े पेबुल तथा फलक उपकरण प्राप्त किये । इन सभी का निर्माण क्वार्टजाइट नामक पत्थर द्वारा किया गया है । फलक अत्यन्त घिसे हुए है । इनका आकार प्राय कोन (Cone) जैसा है ।
ये उपकरण सोहन घाटी में मिलने वाले उपकरणों से भिन्न है । इसी कारण विद्वानों ने इन्हें प्राक-सोहन (Pre-Sohan) नाम दिया है । ये उपकरण सोहन घाटी में मलकपुर, चौन्तप कलार, चौमुख आदि स्थानों से मिले है । मोहन घाटी के उपकरणों को आरम्भिक सोहन, उत्तरकालीन सोहन, चौतरा तथा विकसित सोहन नाम दिया गया है ।
जलवायु शुष्क होने के कारण सोहन घाटी में अनेक कगार या वेदिकायें वन गयी । द्वितीय अनाम काल में पहली वेदिका का निर्माण हुआ । इससे मिले हुए पाषाणोपकरणों को ‘आरम्भिक मोहन’ कहा गया है । ये निम्न पूर्व पाषाणकाल से संबन्धित है तथा इनमें चार और हैन्डऐक्स दोनों ही परम्पराओं के उपकरण सम्मिलित है । चापर उपकरण पेबुल तथा फ्लेक पर बने हैं ।
इनके लिये चिपटे तथा गोल दोनों ही आकार के पेबुल प्रयोग में लाये गये हैं । इन प्रारम्भिक उपकरणों को अ, ब तथा स तीन कोटियों में विभाजित किया गया है । ‘अ’ कोटि के उपकरण अत्यधिक टूटे-फूटे तथा घिसे हुए हैं । इनके ऊपर काई तथा मिट्टी जमी हुई है ।
‘च’ कोटि के उपकरणों के ऊपर भी काई तथा मिट्टी जमी हुई है तथापि ये कम घिसे हुए है तथा टूटे-फूटे नहीं हैं । इनमें कुछ फलक उपकरण भी है । ‘स’ कोटि के अन्तर्गत अपेक्षाकृत नये उपकरण है जिनके ऊपर काई तथा मिट्टी बहुत कम लगी है । इनमें फलक अधिक संख्या में है ।
कुछ फलक उपकरण बड़े तथा कुछ छोटे हैं । पेबुल तथा फलक उपकरणों के साथ ही साथ सोहन घाटी की प्रथम वेदिका से ही कुछ हैन्ड ऐक्ट परम्परा के उपकरण भी मिले है । ये दक्षिण की मद्रास परम्परा के समकालीन है । विद्वानों ने इनकी तुलना योरोप के पाषाणकालीन उपकरणों से की है जिनका निर्माण अल्वेवीलियन- अचूलियन प्रणाली के अन्तर्गत किया गया था । सोहन की पहली वेदिका से कोई जीवाश्म (Fossil) नहीं प्राप्त हुआ है ।
सोहन घाटी की दूसरी वेदिका का निर्माण तीसरे हिमकाल में हुआ । इस वेदिका के उपकरणों को उत्तरकालीन सोहन कहा गया है । इन्हें ‘अ’ तथा ‘ब’ दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है । ‘अ’ श्रेणी के पेबुल उपकरण आरम्भिक सोहन पेबुल उपकरणों की अपेक्षा अधिक सुन्दर तथा विकसित है । इनमें फलकों की संख्या ही अधिक है । उपकरणों में पुनर्गठन बहुत कम मिलता है ।
फलकीकरण (Flaking) लेवलायजियन प्रकार की है । ‘ब’ श्रेणी के उपकरण नये तथा अच्छी अवस्था में है । इनमें फलक तथा ब्लेड अधिक संख्या में मिलते हैं । कुछ अत्यन्त पतले फलक भी मिलते हैं । इस स्तर से कोई हैन्डऐक्से नहीं प्राप्त होता । समय की दृष्टि से उत्तर कालीन सोहन उपकरण मध्य पूर्व पाषाणकालिक हैं ।
सोहन घाटी की तीसरी वेदिका का निर्माण तृतीय अन्तर्हिम काल में हुआ । इससे कोई भी उपकरण नहीं मिलता है । उत्तरकालीन सोहन के अन्तर्गत चौन्तरा से प्राप्त उपकरणों का विशेष महत्व है । इन उपकरणों में प्राक्सोहन के कुछ फलक, सोहन परम्परा के पेबुल तथा फलक और मद्रास परम्परा के हैन्डऐक्स आदि सभी मिलते है ।
इससे ऐसा लगता है कि चौन्तरा उत्तर तथा दक्षिण की परम्पराओं का मिलन-स्थल था । डी॰ टेरा की धारणा है कि आदि मानव पंजाब में दक्षिण से ही आया तथा उसी के साथ हैन्डऐक्स परम्परा भी यहाँ पहुंची थी । चौन्तरा उद्योग का समय तीसरा अन्तर्हिम काल माना गया है ।
सोहन की चौथी वेदिका का निर्माण चौथे हिमकाल में हुआ । इससे मिले हुए उपकरणों को ‘विकसित सोहन’ (Evolved Sohan) की संज्ञा दी गयी है । 1932 ई॰ में टाड ने पिन्डी घेब के समीप ढोक पठार से इन उपकरणों की खोज की थी ।
इनमें ब्लेड पर निर्मित उपकरण ही अधिक है । आकार-प्रकार में ये पूर्ववर्ती उपकरणों से छोटे है । सोहन की पाँचवीं तथा अन्तिम वेदिका से मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े मिलते है । सोहन संस्कृति के उपकरण भारत के कुछ अन्य भागों से भी प्राप्त होते हैं । सिरसा, व्यास, वानगंगा, नर्मदा आदि नदी घाटियों की वेदिकाओं से ये उपकरण प्रकाश में आये हैं ।
आरम्भिक सोहन प्रकार के पेबुल उपकरण चित्तौड़ (राजस्थान) सिंगरौली तथा बेलन नदी घाटी (क्रमश: उ॰ प्र॰ के मिर्जापुर एवं इलाहाबाद जिलों में स्थित) मयूरभंज (उड़ीसा), साबरमती तथा माही नदी घाटियों (गुजरात) एवं गिद्दलूर तथा नेल्लोर (आंध्र प्रदेश) से प्राप्त किये गये हैं ।
डी॰ टेरा तथा पीटरसन के नेतृत्व में एल कैम्ब्रीज अभियान दल ने कश्मीर घाटी में भी अनुसंधान किया । उन्होंने यहाँ प्रातिनूतन काल के जमावों का अध्ययन किया किन्तु इस क्षेत्र से उन्हें मानव-आवास का कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका ।
1969 ई॰ में एच॰ डी॰ संकालिया ने श्रीनगर से कुछ दूरी पर स्थित लिद्दर नदी के तट पर बसे हुए पहलगाम से एक बड़ा फलक उपकरण तथा बिना गढा हुआ हैन्डऐक्स प्राप्त किया । 1970 ई॰ में संकालिया तथा आर॰ वी॰ जोशी ने कश्मीर घाटी में पुन अनुसंधान के फलस्वरूप नौ पाषाणोपकरणों की खोज किया । इनमें स्क्रेपर, बेधक (Borer) आयताकार कोर तथा हैन्डऐक्स वाला चापर आदि हैं । इसी प्रकार पंजाब तथा हिमाचल प्रदेश में स्थित शिवालिक क्षेत्र से भी पूर्व पाषाणकाल के कई स्थलों का पता चला है ।
1951 ई॰ में ओलफ रुफर नामक विद्वान् ने सतलज की सहायक नदी सिरसा की घाटी में खोज करके निम्न पूर्व पाषाण काल के उपकरण प्राप्त किया था । तत्पश्चात डी॰ सेन को इसी नदी घाटी की वेदिकाओं से क्वार्टजाइट पत्थर के बने पेबुल तथा फलक उपकरण प्राप्त हुए ।
1955 ई॰ में बी॰ बी॰ लाल ने हिमाचल के कांगडा जिले में स्थित व्यास-बानगंगा की घाटी में अनुसन्धान किया । उन्हें यहाँ के विभिन्न पुरास्थलों से चापर-चापिंग, पेबुल, हैन्डऐक्स आदि पूर्व-पाषाणकालिक उपकरण प्राप्त हुए । राजस्थान तथा गुजरात के पुरास्थलों से भी कई पाषाणोपकरण मिलते है । बेलनघाटी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जी॰ आर॰ शर्मा के निर्देशन में अनुसन्धान किया गया ।
बेलन, टोंस की एक सहायक नदी है जो मिर्जापुर के मध्यवर्ती पठारी क्षेत्र में बहती है । इस नदी घाटी के विभिन्न पुरास्थलों से पाषाणकाल के सभी युगों से सबन्धित उपकरण तथा पशुओं के जीवाश्म मिले है । निम्न पूर्व पाषाणकाल से सबन्धित यहाँ 44 पुरास्थल मिलते हैं ।
बेलन घाटी के प्रथम जमाव से निम्न पूर्व पाषाणकाल के उपकरण प्राप्त हुए है । इनमें सभी प्रकार के हैन्डऐक्स, क्लीवर, स्कैपर, पेबुल पर बने हुए चापर उपकरण आदि सम्मिलित है । हैन्डऐक्स 9 सेमी॰ से लेकर 38.5 सेमी॰ तक के हैं । कुछ उपकरणों में मुठिया (Butt) लगाने का स्थान भी मिलता है ।
ये उपकरण क्वार्टजाइट पत्थरों से निर्मित हैं । बेलन घाटी से मध्य तथा उच्च पूर्व पाषाणकाल के उपकरण भी मिले है । मध्यकाल के उपकरण फ्लेक पर बने है । इनमें बेधक, स्क्रेपर, ब्लेड आदि हैं । इनका निर्माण महीन कण वाले बढिया क्वार्टजाइट पत्थर से किया गया है ।
यहाँ के उच्च पूर्व पाषाणकालिक उपकरण ब्लेड, बेधक, ब्यूरिन, स्क्रेपर आदि प्रमुख हैं । ब्लेड बेलनाकार कोर के बने हैं । कुछ 15 सेमी॰ तक लम्बे है । उपकरणों के अतिरिक्त बेला के लोंहदा नाला क्षेत्र से इस काल की अस्थि निर्मित मातृदेवी की एक प्रातिमा मिली है जो सम्प्रति कौशाम्बी संग्रहालय में सुरक्षित है ।
बेलन घाटी की उच्च पूर्व पाषाणकालीन संस्कृति का समय ईसा पूर्व तीस हजार से दस हजार के बीच निर्धारित किया गया है । गोदावरी, नर्मदा, बेलन आदि नदी घाटियों से विभिन्न पशुओं के जीवाश्मों के साक्ष्य भी मिलते है जो निम्न पूर्व पाषाणकाल के हैं । इनके आधार पर विद्वानों ने इस काल का समय प्रातिनूतन काल में निर्धारित किया है ।
b. दक्षिण भारत की हैन्डऐक्स परम्परा:
इस संस्कृति के उपकरण सर्वप्रथम मद्रास के समीपवर्ती क्षेत्र से प्राप्त हुये । इसी कारण इसे ‘मद्रासीय संस्कृति’ भी कहा जाता है । सर्वप्रथम 1863 ई॰ में राबर्ट ब्रूसफुट ने मद्रास के पास पल्लवरम नामक स्थान से पहला हैन्डऐक्स प्राप्त किया था ।
उनके मित्र किंग ने अतिरमपक्कम् से पूर्व पाषाणकाल के उपकरण खोजे निकाले । इसके बाद डी॰ टेरा तथा पीटरसन के नेतृत्व में एल कैम्ब्रीज अभियान दल ने इस क्षेत्र में अनुसंधान प्रारम्भ किया । वी॰ डी॰ कृष्णास्वामी, आ॰ वी॰ जोशी तथा के॰ डी॰ बनर्जी जैसे विद्वानों ने भी इस क्षेत्र में अनुसन्धान कार्य किये ।
दक्षिणी भारत की कोर्तलयार नदी घाटी पूर्व पाषाणिक सामग्रियों के लिये महत्वपूर्ण है । इसकी घाटी में स्थित वदमदुरै (Vadamadurai) नामक स्थान से निम्न पूर्व पाषाणकाल के बहुत से उपकरण मिले है जिनका निर्माण क्वार्टजाइट पत्थर से किया गया है ।
वदमदुरै के पास कोर्तलयार नदी की तीन वेदिकायें मिली है । इन्हीं से उपकरण एकत्र किये गये है । इन्हें तीन भागों में बाँटा गया है । सबसे नीचे की वेदिका को बोल्डर काग्लोमीरंट कहा जाता है । इससे कई औजार-हथियार मिलते है । इन्हें भी विद्वानों ने दो श्रेणियों में रखा है । प्रथम श्रेणी में भारी तथा लम्बे हैन्डऐक्स और कोर उपकरण है । इन पर सफेद रंग की काई जमी हुई है । इन उपकरणों के निर्माण के लिये काफी मोटे फलक निकाले गये है ।
हैन्डऐक्सों की मुठियों के सिरे (Butt Ends) काफी मोटे हैं । कोर उपकरणों के किनारे टेढ़े-मेढ़े है तथा उन पर गहरी फ्लेकिंग के चिह्न दिखाई देते हैं । हैन्डऐक्सों फ्रान्स के अबेवीलियन परम्परा के हैन्डऐक्सों के समान है । द्वितीय श्रेणी में भी हैन्डऐक्सों तथा कोर उपकरण ही आते है किन्तु वे कलात्मक दृष्टि से अच्छे है । इन पर सुव्यवस्थित ढंग से फलकीकरण किया गया है ।
कहीं-कहीं सोपान पर फलकीकरण के प्रमाण भी प्राप्त होते है । इस श्रेणी के हैन्डऐक्सों अश्यूलियन कोटि के हैं । दूसरे वर्ग के उपकरण कलात्मक दृष्टि से विकसित तथा सुन्दर हैं । चूँकि बीच की वेदिका लाल रंग के पाषाणों से निर्मित है, इस कारण इनके सम्पर्क से उपकरणों का रंग भी लाल हो गया है ।
इस कोटि के हैन्डऐक्सों चौड़े तथा सुडौल हैं । इन पर सोपान पर फलकीकरण अधिक है तथा के भी प्रमाण मिलते हैं । इन्हें मध्य अश्यूलियन कोटि में रखा गया है । तीसरे वर्ग के उपकरणों का रंग न तो लाल और न उनके ऊपर काई लगी हुई है ।
तकनीकी दृष्टि से ये अत्यन्त विकसित है । अत्यन्त पतले फलक निकालकर इनको सावधानी पूर्वक गढ़ा गया है । हैन्डऐक्सों अण्डाकार तथा नकीले दोनों प्रकार के है । वदमदुरै से कुछ क्लीवर तथा कोर उपकरण भी प्राप्त हुए है ।
कोर्तलयार-घाटी का दूसरा महत्वपूर्ण पूर्व पाषाणिक स्थल अत्तिरम्पक्कम् है । यहाँ से भी बड़ी संख्या में हैन्डऐक्स, क्लीवर तथा फलक उपकरण प्राप्त हुए है जो पूर्व पाषाणकाल से संबन्धित है । हैन्डऐक्स पतले, लम्बे, चौड़े तथा फलक निकालकर तैयार किये गये है । यहाँ के हैन्डऐक्स अश्यूलियन प्रकार के है । भारत के अन्य भागों से भी मद्रासीय परम्परा के उपकरणों की खोज की गयी है ।
नर्मदा घाटी, मध्यप्रदेश की सोन घाटी, महाराष्ट्र की गोदावरी तथा उसकी सहायक प्रवरा घाटी, कर्नाटक की कृष्णा-तुंगभद्रा घाटी, गुजरात की साबरमती तथा माही नदी घाटी, राजस्थान की चम्बल घाटी, उ॰ प्र॰ की सिंगरौली बेसिन, बेलनघाटी आदि से ये उपकरण मिलते हैं । ये सभी पूर्व पाषाणकाल की प्रारम्भिक अवस्था के है ।
II. मध्य पूर्व पाषाणकाल:
भारत के विभिन्न भागों से जो फलक प्रधान पूर्व पाषाणकाल के उपकरण मिलते है उन्हें इस काल के मध्य में रखा जाता है । इनका निर्माणफलक या फलक तथा ब्लेड पर किया गया है । इनमें विभिन्न आकार-प्रकार के स्क्रेपर, ब्यूरिन, बेधक आदि है । किसी-किसी स्थान से लघुकाय सुन्दर हैन्डएक्स तथा क्लीवर उपकरण भी मिलते है ।
बहुसंख्यक कोर, फ्लेक तथा ब्लेड भी प्राप्त हुए हैं । फलकों की अधिकता के कारण मध्य पूर्व पाषाणकाल को फलक की संज्ञा दी जाती है । इन उपकरणों का निर्माण अच्छे प्रकार के क्वार्टजाइट पत्थर से किया गया है । इसमें चर्ट, जेस्पर, फ्लिन्ट जैसे मूल्यवान पत्थरों को लगाया गया है ।
मध्य पूर्वपाषाणकाल के उपकरण महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, जम्मू-कश्मीर आदि सभी प्रान्तों के विभिन्न पुरास्थलों से खोज निकाले गये है ।
महाराष्ट्र में नेवासा, बिहार में सिंहभूमि तथा पलामू जिले, उत्तर प्रदेश में चकिया (वाराणसी) सिंगरौली बेसिन (मिर्जापुर) बेलन घाटी (इलाहाबाद), मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका गुफाओं तथा सोन घाटी, राजस्थान में बागन, बेराच, कादमली घाटियों, गुजरात में सौराष्ट्र क्षेत्र, हिमाचल में व्यास-बानगंगा तथा सिरसा घाटियों आदि विविध पुरास्थलों में ये उपकरण उपलब्ध होते हैं । इस प्रकार मध्य पूर्वपाषाणिक संस्कृति का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है ।
III. उच्च पूर्व पाषाणकाल:
यूरोप तथा पश्चिमी एशिया के भागों में मध्य पूर्व पाषाणकाल के पश्चात् उच्चपूर्व पाषाणकालीन संस्कृति का समय आया । इसका प्रधान पाषाणोपकरण ब्लेड (Blade) है । ब्लेड पतले तथा संकरे आकार वाला वह पाषाण फलक है जिसके दोनों किनारे समानान्तर होते है तथा जो लम्बाई में अपनी चौड़ाई से दूना होता है ।
प्रारम्भ में पुराविद् भारतीय प्रागैतिहास में ब्लेड प्रधान काल मानने को तैयार नहीं थे किन्तु बाद में विभिन्न स्थानों से ब्लेड उपकरणों के प्रकाश में आने के परिणाम स्वरूप यह स्वीकार किया गया कि यूरोप तथा पश्चिमी एशिया की भाँति भारत में भी ब्लेड प्रधान उच्च पूर्व पाषाणकाल का अस्तित्व था ।
भारत के जिन स्थानों से उच्च पूर्व पाषाणकाल का उपकरण मिला है उनमें बेलन तथा सोन घाटी (उ॰ प्र॰) सिंहभूमि (बिहार) जोगदहा भीमबेटका, बबुरी, रामपुर, बाघोर (म॰ प्र॰) पटणे , भदणे तथा इनामगाँव (महाराष्ट्र) रेणिगुन्ता, वेमुला, कर्नूल गुफायें (आन्ध्र प्रदेश), शोरापुर दोआब (कर्नाटक) विसदी (गुजरात) तथा बूढ़ा पुष्कर (राजस्थान) का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है ।
इन स्थानों से प्राप्त इस काल के उपकरण मुख्य रूप से ब्लेड पर बने है । इसके साथ-साथ कुछ स्क्रेपर, वेधक, छिद्रक भी मिले है । ब्लेड उपकरण एक विशेष प्रकार के बेलनाकार कोरों से निकाले जाते थे । इनके निर्माण में चर्ट, जेस्पर, फ्लिन्ट आदि बहुमूल्य पत्थरों का उपयोग किया गया है । पाषाण के अतिरिक्त इस काल में हड्डियों के बने हुए कुछ उपकरण भी मिलते है ।
इनमें स्क्रेपर, छिद्रक, बेधक तथा धारदार उपकरण हैं । इलाहावाद के बेलन घाटी में स्थित लोंहदा नाले से मिली हुई अस्थि-निर्मित मातृदेवी की मूर्ति इसी काल की है । भीमबेटका से नीले रंग के कुछ पाषाण खण्ड मिलते है । वाकणकर महोदय के अनुसार इनके द्वारा चित्रकारी के लिये रग तैयार किया जाता होगा ।
सम्भव है विन्ध्य क्षेत्र की शिलाश्रयों में बने हुए कुछ गुहाचित्र उच्चपूर्व पाषणकाल के ही हों । इनसे तत्कालीन मनुष्यों की कलात्मक अभिरुचि भी सूचित होती ही । इस प्रकार भारत में उच्च पूर्व पाषाण काल की अवधि ई.पू. तीस हजार से दस हजार के मध्य निर्धारित की गयी है ।
पूर्व पाषाणकालीन मनुष्य का जीवन पूर्णतया प्राकृतिक था । वे प्रधानत आखेट पर निर्भर करते थे । उनका भोजन मास अथवा कन्दमूल हुआ करता था । अग्नि के प्रयोग से अपरिचित रहने के कारण वे मास कच्चा खाते थे । उनके पास कोई निश्चित निवास-स्थान भी नहीं था तथा उनका जीवन खानावदीश अथवा घुमक्कड था ।
सभ्यता के इस आदिमयुग में मनुष्य कृषि कर्म अथवा पशुपालन से परिचित नहीं था और न ही वह बर्तनों का निर्माण करना जानता था । इस काल का मानव केवल खाद्य-पदार्थों का उपभोक्ता ही था । वह अभी तक उत्पादक नहीं वन सका था । मनुष्य तथा जड़ग्ली जीवों के रहन-सहन में कोई विशेष अन्तर नहीं था ।
2. मध्य पाषाणकाल:
भारत में मध्य पाषाणकाल के विषय में जानकारी सर्वप्रथम 1867 ई॰ में हुई जबकि सी॰ एल॰ कार्लाइल ने विन्ध्यक्षेत्र से लघु पाषाणोपकरण (Microliths) खोज निकाले । इसके पश्चात् देश के विभिन्न भागों से इस प्रकार के पाषाणोपकरण खोज निकाले गये ।
इन उपकरणों के विस्तार को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि इस काल का मनुष्य अपेक्षाकृत एक बड़े भूभाग में निवास करता था । मध्य पाषाणकाल के उपकरण आकार में अत्यन्त छोटे है । वे लगभग आधे इंच से लेकर पौन इंच के बराबर हैं । इनमें कुण्ठित तथा टेढे ब्लेड, छिद्रक, स्क्रेपर, ब्यूरिन, बेधक, चान्द्रिक आदि प्रमुख है ।
कुछ स्थानों से हड्डी तथा सींग के बने हुए उपकरण भी मिलते है । पाषाण उपकरण चर्ट, चाल्सेडनी, जैस्पर, एगट, क्वार्टजाइट, फ्लिन्ट जैसे कीमती पत्थरों के है । कुछ उपकरण त्रिभुज तथा समलम्ब चतुर्भुज के आकार के है । मध्य पाषाणकाल के जिन स्थानों की खुदाइयों हुई है उनमें कब्रिस्तानों की संख्या ही अधिक है । यह एक उल्लेखनीय बात है कि भारत में मानव अस्थिपंजर, मध्य पाषाणकाल से ही सर्वप्रथम प्राप्त होने लगता है ।
भारत में मध्य पाषाणकाल के पुरास्थल राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में स्थित है जहाँ में पुरातत्ववेत्ताओं ने उत्खनन के बाद लघुपाषाणोपकरण प्राप्त किये है ।
राजस्थान का सबसे प्रमुख स्थल भीलवाड़ा जिले में स्थित बागोर है । यहाँ 1968 से 1970 तक वी॰ एन॰ मिश्र ने उत्खनन कार्य करवाया था । यहाँ से मध्य पाषाणकालीन उपकरणों के अतिरिक्त लौहकाल के उपकरण भी प्रकाश में आये । पाषाणोपकरणों के साथ-साथ बागोर से मानव कंकाल भी मिला है ।
गुजरात प्रान्त में स्थित लंघनाज सवमे महत्वपूर्ण पुरास्थल है जहाँ एच. डी. संकालिया, बी. सुब्बाराव, ए. आर. कनेडी आदि पुराविदों द्वारा व्यापक उत्खनन करवाया गण था । यहाँ से लघुपाषाणोपकरणों के अतिरिक्त पशुओं की हड्डियों, कब्रिस्तान तथा कुछ मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुए है ।
पाषाणोपकरणों में फ्लेक ही अधिक है । यहां से 14 मानव कंकाल भी मिलते है । आन्ध्र प्रदेश में नागार्जुनकोड, गिद्दलूर तथा रेनिगुन्टा प्रमुख स्थल है जहां से मध्य पाषाणिक उपकरण प्रकाश में लाये गये हैं । कर्नाटक में बेल्लारी जिले में स्थित संगनकल्लू नामक स्थान पर सुब्बाराव तथा संकालिया द्वारा क्रमशः 1946 तथा 1969 में खुदाइयाँ करवायी गयीं जिसके फलस्वरूप अनेक उपकरण प्राप्त हुए । तमिलनाडु के तिरुनेल्वेलि जिले में स्थित टेरी पुरास्थलों से भी वहुसंख्यक लघुपाषाणोपकरण मिलते हैं ।
भारत के मध्य प्रदेश, विहार, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के क्षेत्र मध्य पाषाणिक अवशेषों की से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । 1964 ई॰ में आर॰ वी॰ जोशी ने होसंगाबाद जिले में स्थित आदमगढ शिलाश्रय से लगभग 25 हजार लघुपाषाणोपकरण प्राप्त किया था ।
इसी प्रकार रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका के शिलाश्रयों तथा गुफाओं से मध्य पाषाणकाल के उपकरण प्राप्त होते है । यहाँ से मानव अन्त्येष्ठि के भी प्रमाण मिलते है । इस गुफाओं की खाज 1958 ई॰ में वी॰ एस॰ वाकणकर ने की थी ।
बिहार प्रान्त के रांची, पलामू, भागलपुर, राजगीर आदि जिलों से अनेक लघु पाषाणोपकरण मिलते हैं । पश्चिमी बंगाल के बर्दवान जिले में स्थित बीरभानपुर एक महत्वपूर्ण मध्यपाषाणिक पुरास्थल है जहां 1954 से 1957 ई॰ तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से बी॰ बी॰ लाल ने उत्खनन कार्य करवाया था ।
यहाँ से लगभग 282 लघु उपकरण मिलते है जिनमें ब्लेड, बेधक, ब्यूरिन, चाद्रिक, स्क्रेपर, छिद्रक आदि हैं । डॉ॰ लाल ने इनका समय ई॰ पू॰ 4000 निर्धारित किया है । उत्तर प्रदेश का विन्ध्य तथा ऊपरी एवं मध्य गंगा घाटी वाला क्षेत्र मध्य पाषाणकालीन उपकरणों के लिये अत्यन्त समृद्ध है ।
विन्ध्य क्षेत्र के अन्तर्गत वाराणसी जिले की चकिया तहसील, मिर्जापुर जिला, इलाहाबाद की मेजा, करछना, तथा बारा तहसीलों के साथ-साथ बुन्देलखण्ड क्षेत्र को शामिल किया जाता है । इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग की ओर से मिर्जापुर जिले में स्थित मोरहना पहाड़, बघहीखोर, लेहखहिया तथा इलाहाबाद जिले के मेजा तहसील में स्थित चोपानीमाण्डो नामक मध्य पाषाणकाल के पुरास्थलों की खुदाइयाँ 1962 से 1980 ई॰ के बीच करवाई गयीं ।
इन स्थानों से बहुसंख्यक लघुपाषाणोपकरणों के साथ ही साथ नर-कंकाल भी मिलते है । लेखहिया से ही सत्रह नर-कंकाल प्राप्त किये गये है । अधिकांश के सिर पश्चिम दिशा में है । मिर्जापुर जिले से प्राप्त लघुपाषाणोपकरणों में एक विकास-क्रम देखने को मिलता है । उपकरण क्रमश लघुतर होते गये हैं ।
इलाहावाद का चोपानीमाण्डो पुरास्थल पन्द्रह हजार वर्गमीटर क्षेत्र में फैला हुआ एक विस्तृत क्षेत्र है । इस पुरे क्षेत्र से बहुसंख्यक पाषाण उपकरण पेबुल आदि मिलते हैं । उपकरणों का निर्माण चर्ट, चल्सिडनी आदि पत्थरों से किया गया है । उपकरणों के अतिरिक्त यह की खुदाई से झोपडियों के भी प्रमाण मिलते हैं । कुछ हाथ के बने हुए मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुए है ।
चोपानीमाण्डो के मध्य पाषाणिक उपकरणों का काल 17000-7000 ई.पू. के मध्य निर्धारित किया गया है । चोपानीमाण्डो के अतिरिक्त इलाहाबाद जिले के अन्य प्रसिद्ध पुरास्थल जमुनीपुर (फूलपुर तहसील) कुढा, बिछिया, भीखपुर तथा महरुडीह (कोरांव तहसील) है जहाँ से मध्य पाषाणयुग के उपकरण प्रकाश में आये है ।
प्रतापगढ़ जिले में स्थित सरायनाहर राय, महदहा तथा दमदमा नामक मध्य पाषाणिक पुरास्थलों का उत्खनन भी इलाहावाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष जीतू आर. शर्मा तथा उनके सहयोगियों आर. के. वर्मा एवं वी. डी. मिश्र के द्वारा करवाया गया ।
सरायनाहर राय के लघुपाषाणोपकरण कुण्ठित ब्लेड, स्क्रेपर, चान्द्रिक, बेधक, समवाहु एवं विषमबाहु त्रिभुज आदि है जिनके निर्माण में चर्ट, चाल्सिडनी, रगेट, जैस्पर आदि पत्थरों का प्रयोग किया गया है । कुछ अस्थि तथा सींग निर्मित उपकरण भी मिलते हैं ।
उपकरणों के अतिरिक्त यहां की खुदाई में 14 शवाधान तथा 8 गर्त-चूल्हे लिए भी प्राप्त हुए है । शवाधानों से तत्कालीन मृतक संस्कार विधि पर प्रकाश पड़ता है । समाधिस्थ शवों का सिर पश्चिम तथा पैर पूर्व की ओर है । उनके साथ लघु उपकरण भी रखे गये हैं ।
चूल्हों से पशुओं की अधजली हड्डियां भी मिलती है । इससे लगता है कि इनका उपयोग मास पुनने के लिये किया जाता था । महदहा की खुदाई 1978-80 के बीच की गयी । यहाँ से धो लघु उपकरण के अतिरिक्त आवास एवं शवाधान तथा गर्त चूल्हे होते है ।
किसी-किसी समाधि में स्त्री पुरुष को साथ-साथ दफनाया गया है । समाधियों से पत्थर रख हड्डी के उपकरण भी मिलते हैं । महदहा से सिल-लोहे हथौडे के टुकड़े आदि भी प्राप्त होते हैं । इससे लगता है कि लोग घास के दानों को पीसकर जाने के काम में लाते थे ।
महदहा से पाँच किलोमीटर उत्तर पश्चिम की ओर दमदमा (पट्टी तहसील) का पुरास्थल बसा हुआ है । 1982 से 1987 तक यहाँ उत्खनन कार्य किया गया । यहीं से ब्लेड, फलक, ब्यूरिन, छिद्रक, चान्द्रिक आदि बहुत से लघु पाषाणोपकरण मिले हैं जिनका निर्माण क्वार्टजाइट, चर्ट, चाल्सिडनी, एगेट, कार्नेलियन आदि बहुमूल्य पत्थरों से हुआ है ।
हड्डी तथा सींग के उपकरण एवं आभूषण भी मिले हैं । इनके साथ-साथ 41 मानव शवाधान तथा कुछ गर्त्त-चूल्हे प्रकाश में आये है । विभिन्न पशुओं जैसे- भेड़, बकरी, गाय-बैल, भैंस, हाथी, गैंडा, चीतल, वारहसिंहा, सूअर आदि की हड्डिया भी प्राप्त होती है ।
कुछ पक्षियों, मछलियों, कछुए आदि की हड्डियाँ भी मिली है । इनसे स्पष्ट है कि इस काल का मनुष्य इन पशुओं का मांसाहार करता था जिसे चूल्हे पर पकाया जाता होगा । सिल-लोढे हथौडे आदि के टुकड़े भी मिलते है । दमदमा के अवशेषों का काल दस हजार से चार हजार ईसा पूर्व के बीच बताया गया है ।
सरायनाहर राय, महदहा एवं दमदमा के मध्य पाषाणिक स्थल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग की महत्वपूर्ण खोजें हैं । मध्य पाषाण-काल मानवों का जीवन पूर्ण पाषाण-काल के मनुष्यों की अपेक्षा भिन्न था ।
यद्यपि अब भी वे अधिकांशतः शिकार पर ही निर्भर करते थे तथापि इस काल के लोग गाय, बैल, भेड़, बकरी, जंड्गली घोड़े तथा भैंसे आदि का शिकार करने लगे थे । उन्होंने थोड़ी बहुत कृषि करना भी सीख लिया था । अपने अस्तित्व के अन्तिम चरण तक वे बर्तनों का निर्माण करना भी सीख गये थे ।
पशुओं से धीरे-धीरे उनका परिचय बढ़ रहा था । सरायनाहर राय तथा महदहा की समाधियों से इस काल के लोगों की अन्त्येष्टि संस्कार विधि के विषय में कुछ जानकारी मिलती है । ज्ञात होता है कि ये अपने मृतकों को समाधियों में गाड़ते थे तथा उनके साथ खाद्य-सामग्रियाँ, औजार-हथियार भी रख देते थे । सम्भवत यह किसी प्रकार के लोकोत्तर जीवन में विश्वास का सूचक था ।
3. उत्तर अथवा नवपाषाणकाल:
विश्व के अन्य भागों में नवपाषाणकाल का प्रारम्भ ई॰ पू॰ 9000 में हुआ किन्तु भारत में नव पाषाणकालीन सभ्यता का प्रारम्भ ईसा पूर्व चार हजार के लगभग हुआ । भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीनतम नवपाषाणिक बस्ती मेहरगढ़ (पाकिस्तान के क्षचिस्तान प्रान्त में स्थित) है जिसकी तिथि ईसा पूर्व 7000 मानी जाती है ।
ई॰ पू॰ 5000 के पूर्व यहाँ के लोग मृद्भाण्ड का प्रयोग करना नहीं जानते थे । उत्खनन में यहाँ से कच्चे मकान, पत्थर के कटोरे, सान-पत्थर (Grinding Stone) तथा पालतू जानवरों की अस्थियों मिलती है । मेहरगढ़ का दूसरा स्तर ताम्र पाषाणकाल से सम्बन्धित है ।
इस काल के लोग ताँबे के प्रयोग से परिचित थे । वे मिट्टी के बर्तन बनाते थे । मध्य भारत के साथ-साथ ईरान तथा अफगानिस्तान से उनका सम्पर्क था । वे गेहूँ जौ तथा कपास की खेती करते थे तथा अपने मकान कच्ची ईंटों एवं घास-फूस की सहायता से बनाते थे । उनका जीवन अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक उन्नत था ।
भारत में नव पाषाणकालीन संस्कृति के जो अवशेष मिले हैं उनके आधार पर इसे छ: भागों में विभाजित किया गया है- उत्तरी भारत, विन्ध्य क्षेत्र, दक्षिणी भारत, मध्य गंगा घाटी, मध्य-पूर्वी क्षेत्र तथा पूर्वोत्तर भारत । इन क्षेत्रों से अनेक नव पाषाणिक पुरास्थल प्रकाश में आये है । इस काल की प्रमुख विशेषता कृषि तथा पशुपालन का प्रारम्भ एवं पालिशदार पाषाण उपकरणों (विशेषकर कुल्हाड़ियों) का निर्माण है । मानव सभ्यता के इतिहास में कृषि के प्रारम्भ को एक ‘क्रांति’ के रूप में देखा गया है ।
विल डुरेन्ट के शब्दों में समस्त मानव इतिहास एक प्रकार से दो क्रान्तियों पर आधारित है- नवपाषाणकालीन आखेट से कृषि में संचरण तथा आधुनिक कृषि से उद्योग में संचरण । उत्तर भारत की नव पाषाणिक संस्कृति के अन्तर्गत कश्मीर प्रान्त के पुरास्थलों का उल्लेख किया जा सकता है । इनमें बुर्जहोंम तथा गुफकराल विशेष महत्व के है । बुर्जहोम नामक पुरास्थल की खोज 1935 ई॰ में डी॰ टेरा तथा पीटरसन ने की थी । 1960-64 ई॰ के बीच भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से इस स्थान की खुदाई करवायी गयी ।
गुफकराल नामक स्थान की खुदाई 1981 ई॰ में ए॰ के॰ शर्मा ने करवायी थी । यहाँ के उपकरणों में ट्रैप पत्थर पर बनी हुई कुल्हाड़ी, वसली, खुरपी, छेनी, कुदाल, गदाशीर्ष, बेधक आदि हैं । पत्थर के अतिरिक्त हड्डी के बने हुए उपकरण भी यहाँ से मिलते हैं । इनमें पालिशदार बेधकों की संख्या अधिक है ।
भेड़-बकरी आदि जानवरों की हड्डियां तथा मिट्टी के बर्तन भी खुदाई में प्राप्त होते है । जौ, गेहूँ, मटर, मसूर आदि अनाजों के दाने मिलते है । बुर्जहोम की खुदाई से गड्ढे वाले घरों के अवशेष मिले है । शवाधान के जो उदाहरण मिलते है उनसे पता चलता है कि मनुष्य के साथ-साथ पालतू कुत्ते को भी दफनाने की प्रथा प्रचलित थी ।
इस प्रकार की प्रथा नव पाषाणकाल में भारत में कहीं और प्रचलित नहीं थी । गुफकराल से अन्य उपकरणों के साथ-साथ सिलबट्टे तथा हड्डी की बनी सुइया भी मिलती है । इनसे सूचित होता है कि अनाज पीसने तथा वस्त्र-सीने की विधि -से भी उस काल के लोग परिचित थे । यहाँ से प्राप्त बर्तनों में बड़े, कटोरे, थाली, तश्तरी आदि का उल्लेख किया जा सकता है । इनका निर्माण चाक तथा हाथ दोनों से किया गया है ।
विन्ध्य क्षेत्र के प्रमुख नव पाषाणकालीन पुरास्थल इलाहाबाद जिले में वेलन सरिता के तट पर स्थित कोलडिहवा, महगड़ा तथा पंचोह है । यहाँ विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा खुदाइयां करवायी गयी है । कोलीडहवा स नव पाषाणकाल के साथ-साथ ताम्र तथा लौह कालीन संस्कृति के अवशेष भी मिलते है ।
महगड़ा तथा पंचोह से केवल नव पषाणकालीन अवशेष ही प्राप्त हुए हैं । यहाँ के उपकरणों में गोल समन्तान्त वाली पत्थर की कुल्हाड़ियों की संख्या ही अधिक है । अन्य उपकरण हथौड़ा, छेनी, बसुली आदि हैं । स्तम्भ गाड़ने के गड्ढे मिले हैं जिनसे लगता है कि इस काल के लोग लकड़ी के खम्भों को जमीन में गाड़कर अपने रहने के लिये गोलाकार झोपड़िया बनाते थे ।
हाथ से बनाये गये विभिन्न आकार-प्रकार के मिट्टी के बर्तन मिलते है । यहाँ का एक विशिष्ट बर्तन रस्सी छाप है । इसकी बाहरी सतह पर रस्सी की छाप लगाई गयी है । इसके अलावे खुरदुरे तथा चमकीले बर्तन भी मिले है । बर्तनों में कटोरे, तश्तरी, घड़े आदि है । कुछ बर्तनों के ऊपर अलंकरण भी मिलता है ।
पशुओं में भेड़-बकरी, सुअर, हिरण की हड्डियाँ मिलती है । इससे स्पष्ट है कि इन जानवरों को पाला जाता अथवा शिकार किया जाता था । कोलडिहवा के उत्खनन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि यहाँ से धान की खेती किये जाने का प्राचीनतम प्रमाण (ई॰ पू॰ 7000-6000) प्राप्त होता है ।
मिट्टी के बर्तनों के ठीकरों पर धान के दाने तथा भूसी एवं पुआल के अवशेष चिपके हुए मिलते है । इनसे सूचित होता है कि व्यापक रूप से धान की खेती की जाती थी । अनाज रखने के लिये उपयोगी पड़े तथा भटके भी कोलडिहवा एवं महगड़ा से मिलते है ।
मध्य गंगा घाटी का सबसे महत्वपूर्ण नव पाषाणकालीन पुरास्थल चिरान्ड (बिहार के छपरा जिले में स्थित) है । यहाँ उत्खनन के फलस्वरूप ताम्र-पाषाण युग के साथ-साथ नव पाषाण युगीन संस्कृति के अवशेष भी मिलते है ।
यहाँ के उपकरणों में पालिशदार पत्थर की कुल्हाड़ी, सिलबट्टे, हथौड़े तथा हड्डी और सींग के बने हुए छेनी, बरमा, बाण, कुदाल, सूई, चूड़ी आदि का उल्लेख किया जा सकता है । घड़े, कटोरे, रोटी वाले बर्तन तसले आदि मृदभाण्ड यहाँ से प्राप्त हुए है ।
ज्ञात होता है कि यहाँ के लोग अपने निवास के लिये बांस-बल्ली की झोपड़ियाँ बनाते थे । तथा धान, मसूर, मूँग, गेहूँ जो आदि की खेती करना जानते थे । गाय-बैल, हाथी, बारहसिंहा, हिरण, गैंडा आदि पशुओं से उनका परिचय था । कुछ हड्डियां प्राप्त होती है ।
बिहार के सिंहभूमि जिले में स्थित बरुडीह तथा उड़ीसा के मयूरभंज जिले में स्थित कुचाई भी नव पाषाण युगीन पुरास्थल है जहाँ से पालिशदार प्रस्तर कुल्हाड़िया प्राप्त की गयी है । कुदाल, छेनी, बसुली, लोढ़ा आदि भी पाये गये है । बरुडीह से सलेटी तथा काले रंग के मृदभाण्ड भी प्रकाश में आये हैं ।
असम की पहाड़ियों तथा मेघालय की गारों पहाड़ियों से भी नव पाषाणयुगीन प्रस्तर उपकरण प्राप्त किये गये है । इनमें कुन्हाड़ी, हथौड़े, सिल-लोहे, मूसल आदि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं । हाथ तथा चाक पर तैयार किये गये मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े भी मिलते है ।
विन्ध्य तथा गंगाघाटी की नवपाषाणिक संस्कृतियों में कुछ विषमतायें दिखाई देती हैं जो भौगोलिक परिस्थितियों का परिणाम हैं । विन्ध्य क्षेत्र में शैलाश्रय, पहाड़ आदि थे जबकि गंगा घाटी में समतल मैदान थे । ये दलदल झीलों में परिवर्तित हो रहे थे । अतः गंगा घाटी में मानव ने घास-फूस के घर बनाये, कृषि करना प्रारम्भ किया तथा पत्थर के साथ-साध हड्डी तथा सींग के उपकरण, मिट्टी के बर्तन आदि बनाये । गंगा घाटी में पाषाणोपकरण छोटे-छोटे हैं ।
विद्वानों का विचार है कि बर्षात के बाद लोग गंगाघाटी में आते थे तथा बर्षात के दिनों में विन्ध्य के शैलाश्रयों में लौट जाते थे । इसे ऋतुजन्य प्रवजन की संज्ञा दी गयी है । विनय क्षेत्र के शैलाश्रयों में चित्रकारियां मिलती है जो गंगाघाटी में नहीं है । गंगाघाट के जीवन में एक अनुक्रम दिखाई देता है ।
यहाँ पाषाणकाल के पश्चात् ताम्र पाषाण, फिर लौह काल विकसित होता दिखाई देता है । द्वितीय नगरीय क्रान्ति यहीं मिलती है । निश्चित आवास, चिकने मिट्टी के बर्तन, पाषाण के साथ-साथ हड्डी तथा हाथीदाँत के उपकरण भी मिलते हैं जिनका विन्ध्य क्षेत्र में अभाव अथवा अत्यल्पता है ।
विस्तृत पैमाने में खेती तथा पशुपालन के साक्ष्य यहां मिलते है । विन्ध्य क्षेत्र की मिट्टी बलुई तथा गंगा घाटी की जलोढ़ है जिसमें खेती अच्छी होती थी । विन्ध्य क्षेत्र में विशालकाय पशु मिलते है । इसके विपरीत गंगाघाटी में लघुकाय पालतू पशुओं की संख्या अधिक है । विन्ध्य क्षेत्र से गंगा घाटी में आवागमन मुख्यतः सहसाराम की पहाड़ियों से होता था ।
उत्तरी भारत के ही समान दक्षिणी भारत के कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु से भी नव पाषाणकाल के कई पुरास्थल प्रकाश में आये हैं जहाँ की खुदाइयों से इस काल के अनेक उपकरण, मृदभाण्ड आदि प्राप्त किये गये है । कर्नाटक में स्थित प्रमुख पुरास्थल मास्की, ब्रह्मगिरि, संगनकल्लू, हल्लुर कोडेकल, टी॰ नरसीपुर, पिकलीहल, तेक्कलकोट हैं ।
आन्ध्र प्रदेश के पुरास्थल नागार्जुनीकोंड, उतनूर, फलवाय एवं सिंगनपल्ली है । पैय्यमपल्ली तमिलनाडु का प्रमुख पुरास्थल है । ये सभी कृष्णा तथा कावेरी नदियों की घाटियों में वसे हुए है । इन स्थानों से पालिशदार प्रस्तर कुल्हाड़िया, सलेटी या काले रंग के मिट्टी के बर्तन तथा हड्डी के बने हुए कुछ उपकरण प्राप्त होते है । इस काल के निवासी कृषि तथा पशुपालन से पूर्णतया परिचित थे ।
मिट्टी तथा सरकन्डे की सहायता से वे अपने निवास के लिये गोलाकार अथवा चौकोर घर बनाते थे । हाथ तथा चाक दोनों से वे बर्तन तैयार करते थे । कुछ बर्तनों पर चित्रकारी भी की जाती थी । खुदाई में घड़े, तश्तरी, कटोरे आदि मिले हैं । कुथली, रांगी, चना, मूंग आदि अनाजों का उत्पादन किया जाता था ।
गाय, बैल, भेड़, बकरी, भैंस, सूअर उनके प्रमुख पालतू पशु थे । दक्षिणी भारत के नव पाषाणयुगीन सभ्यता की संभावित तिथि ईसा पूर्व 2500 से 1000 के लगभग निर्धारित की जाती है । नवपाषाणकालीन संस्कृति अपनी पूर्वगामी संस्कृतियों की अपेक्षा अधिक विकसित थी ।
इस काल का मानव न केवल खाद्य-पदार्थों का उपभोक्ता ही था वरन् वह उनका उत्पादक भी बना । वह कृषि-कर्म से पूर्णतया परिचित हो चुका था । कृषिकर्म के साथ-साथ पशुओं को मनुष्य ने पालना भी प्रारम्भ कर दिया । गाय, बैल, भैंस, कुता, घोड़ा, भेड़, बकरी आदि जानवरों से उनका परिचय बढ़ गया । मनुष्य ने अपने औजारों तथा हथियारों पर पालिश करना प्रारम्भ कर दिया ।
पालिशदार पत्थर की कुल्हाड़िया देश के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में मिलती हैं । इस काल के मनुष्यों का जीवन खानाबदोश अथवा घुमक्कड़ न रहा । उसने एक निश्चित स्थान पर अपने घर बनाये तथा रहना प्रारम्भ कर दिया । कर्नाटक प्रान्त के ब्रह्मगिरि तथा संगलकल्लु (बेलारी) से प्राप्त नव-पाषाणयुगीन अवशेषों से पता चलता है कि वर्षों तक मनुष्य एक ही स्थान पर निवास करता था ।
इस काल के मनुष्य मिट्टी के बर्तन बनाते थे तथा अपने मृतकों को समाधियों में गाड़ते थे। अग्नि के प्रयोग से परिचित होने के कारण मनुष्य का जीवन अधिक सुरक्षित हो गया था । कुछ विद्वानों का अनुमान है कि इस युग के मनुष्य जानवरों की खाली को सीकर वस्त्र बनाना भी जानते थे।
उत्तर पाषाणकालीन मानव ने चित्रकला के क्षेत्र में भी रुचि लेनी प्रारम्भ कर दी थी । मध्य भारत की पर्वत कन्दराओं से कुछ चित्रकारियों प्राप्त हुई हैं जो सम्भवत: इसी काल की हैं । ये चित्र शिकार से सम्बन्धित है। इस काल के मनुष्य अपने बर्तनों को भी रगते थे तथा उन पर चित्र बनाते थे ।