भारतीय राष्ट्रवाद की ऐतिहासिकता | Historiography of Indian Nationalism!

Read this article in Hindi to learn about the historiography of Indian nationalism during British rule.

भारतीय राष्ट्रवाद के अधिकांश इतिहासकारों का यह तर्क रहा है कि आधुनिक अर्थ में भारतीय राजनीतिक राष्ट्र ब्रिटिश राज की स्थापना से पहले मौजूद नहीं था । ऐसा कोई राष्ट्र आत्मचेतनारहित रूप में भारतीय सभ्यता में सन्निहित रहा है या नहीं और फिर धीरे-धीरे इतिहास में उसका विकास हुआ है या नहीं यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर राष्ट्रवादी नेता और इतिहासकार लगातार बहस करते रहे हैं ।

अभी एकदम हाल में प्रसेनजित दुआरा ने ऐसे विचारों को ”ज्ञानोदय (Enlightenment) के इतिहास का प्रयोजनवादी (Teleogical) मॉडल” कहकर उसकी समालोचना की है, और कहा है कि यह मॉडल ”विवादित और सांयोगिक (Contingent) राष्ट्र” को एकता की एक मिथ्या भावना से लैस करता है ।

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फिर भी इस बात पर अभी तक असहमति कम ही है कि उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सामना जिस भारतीय राष्ट्रवाद ने किया और जिसने 1947 में भारतीय राष्ट्र-राज्य के जन्म के रूप में अपनी जीत का जश्न मनाया वह उपनिवेशी आधुनिकता की उपज था ।

चूंकि उपनिवेशकों का स्वघोषित उद्देश्य उपनिवेशितों को उनके पतन की तत्कालीन अवस्था से ऊपर उठाकर आधुनिकता की दिशा में प्रगति की एक वांछित अवस्था तक लाना था इसलिए उपनिवेशितों के लिए अपने ऊपर लगे पिछड़ेपन के ठप्पे को चुनौती देना और यह दावा करना आवश्यक हो गया कि एक आधुनिक राज्य के ढाँचे में वे भी एकजुट होने और अपना शासन स्वयं चलाने में समर्थ हैं ।

इसलिए उपनिवेशी भारत में राष्ट्रवाद के सामने दोहरी चुनौती थी राष्ट्रीय एकता स्थापित करना और आत्मनिर्णय के अधिकार का दावा करना । हर कोई इस बात पर सहमत है कि भारत एक बहुलवादी समाज है जिसमें क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति, उपजातीयता (Ethnicity) आदि अनेक प्रकार की विविधताएँ हैं ।

यदि सुरेंद्रनाथ बनर्जी के शब्दों का प्रयोग करें जो आधुनिक भारतीय राष्ट्र के आरंभिक निर्माताओं में से एक थे तो इसी विविधता से ”एक राष्ट्र का निर्माण” हो रहा था । लेकिन इतिहासकारों के बीच सहमति बस यहीं तक है । भारतवासी अपने राष्ट्र की ”कल्पना” वास्तव में किस तरह करते थे यह गहरे विवाद और बहस का विषय है ।

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इस विवाद के एक सिरे पर पार्थ चटर्जी का तर्क है कि भारत में राष्ट्रवाद जिसे उसके पश्चिम में शिक्षा-प्राप्त राजनीतिक नेताओं ने एक विशिष्ट स्थान दिया था, पश्चिम से एक ”भिन्न” मगर उससे ”व्यूत्पन्न संवाद (Derivative Discourse)” था । आशीष नंदी की सोच भी यही है कि पश्चिमी साम्राज्यवाद के एक प्रत्युत्तर के रूप में भारतीय राष्ट्रवाद ”ऐसे सभी प्रत्युत्तरों की तरह उसी चीज से निर्धारित हुआ जिसका वह प्रत्युत्तर था ।”

पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त मध्यवर्गीय भारत ने सार्वभौमवाद के उस वैकल्पिक विचार को रह कर दिया जिसकी जड़ें भारतीय सभ्यता में थीं और जिसे साम्राज्यिक पश्चिम के प्रति: आधुनिकतावादी (Counter-Modernist) समालोचक” रवींद्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी जैसे व्यक्तियों ने प्रतिपादित किया ।

सार्वभौमवाद की यह वैकल्पिक दृष्टि भेदों को स्वीकार कर और उनका रचनात्मक उपयोग करके भारत को राजनीतिक स्तर पर तो नहीं परंतु सामाजिक सतह पर एक कर सकती थी लेकिन भारतीय राष्ट्रवादियों ने अपने राष्ट्रवाद के निरूपक तत्त्व के रूप में राष्ट्र-राज्य के पश्चिमी मॉडल को स्वीकार कर लिया ।

दूसरी ओर अभी हाल में ही सी.ए. बेइली (1998) ने ”राष्ट्रवाद के प्रागैतिहास” की खोज की है । वे समझते हैं कि भारतीय राष्ट्रवाद ने क्षेत्रीयता की एक पहले से मौजूद भावना पर स्वयं को आधारित किया पारंपरिक देशभक्ति जिसे लौक-नैतिकता और सदाचारी शासन के देसी विचारों ने बुद्धिवादी रूप दिया उसके आधार पर स्वयं को खड़ा किया ।

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लेकिन उपनिवेशी शासन से और आपस में दो-चार होने के बाद इन क्षेत्रीय एकजुटताओं का किस तरह भारत की एक वृहत्तर सांस्कृतिक धारणा में समन्वय हुआ यह जोरदार बहस का विषय है । इस प्रक्रिया में अनेक प्रभाव और अनेक अंतर्विरोध थे चेतना के अनेक स्तर और रूप थे । इस लगभग पूर्ण अराजकता के बीच से किसी एक-आयामी चित्र की रचना करना कठिन है । फिर भी चूंकि एक राष्ट्र-राज्य जन्म ले चुका था उसका जीवनचरित तैयार करने के प्रयास किए गए हैं ।

इसका यह अर्थ निश्चित ही नहीं कि जिस भारतीय राष्ट्र-राज्य के निर्माण के रूप में राष्ट्रवादी मुख्यधारा ने अपना वर्चस्व स्थापित किया उसके विकास की इस महागाथा के अलावा राष्ट्र को समझने के लिए कुछ वैकल्पिक वृत्तात थे ही नहीं ।

आरंभिक राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने और उनके कुछ परवर्ती अनुयायियों ने भी राष्ट्र-निर्माण की इस प्रक्रिया का अध्ययन करते समय मुख्यत एक राष्ट्रवादी विचारधारा और एक राष्ट्रवादी चेतना की श्रेष्ठता पर ध्यान केंद्रित किया चेतना के दूसरे सभी रूपों को जिसके अधीन माना गया । राष्ट्र की यह चेतना उपनिवेशी शासन के साझे विरोध पर देशभक्ति की भावना पर और भारत की प्राचीन परंपराओं में गर्व की भावना पर आधारित विचारधारा पर आधारित थी ।

दूसरे शब्दों में इस इतिहासकार संप्रदाय ने भारतीय समाज के अंदरूनी टकरावों को अनदेखा किया जिन्होंने अन्य बातों के अलावा दो राष्ट्र-राज्यों में उसके विभाजन को जन्म दिया तथा वह (संप्रदाय) राष्ट्र के अस्तित्व को साझे हितों वाली एक समरस इकाई मानकर चलता था । इसके विरोध में आंग्ल-अमेरिकी विद्वानों ने एक नई व्याख्या पेश की है और रजत रे ने अपेक्षाकृत ढीले-ढाले ढंग से उन विद्वानों को ”नव-परंपरावादी” संप्रदाय कहा है ।

यह नई व्याख्या वैलेंटाइन शिरोल जैसे लेखकों के उस पुराने साम्राज्यिक दावे को दुहराती थी कि भारतीय समाज का राजनीतिकरण वर्ग या राष्ट्र जैसी आधुनिक धारणाओं की बजाय भाषायी क्षेत्रों जातियों या धार्मिक समुदायों जैसी परंपरागत सामाजिक संरचनाओं की तर्ज पर हुआ । इस संदर्भ में परिवर्तन के सबसे महत्त्वपूर्ण उक्तेरक-उपनिवेशी राजसत्ता के संस्थागत प्रवर्तन (Innovations) खास कर पश्चिमी शिक्षा और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के ओरंभ थे ।

भारतीय समाज के परंपरागत विभाजनों से घात-प्रतिघात करके इन नए अवसरों ने एक नए प्रस्थिति समूह (Status Group) को-पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त कुलीन समूह को-जन्म दिया जिसके सदस्य पहले से मौजूद विशेषाधिकार संपन्न देसी समूहों से आते थे जैसे बंगाल के भद्रलोक बंबई के चितपावन ब्राह्मण या मद्रास के तमिल ब्राह्मणों से ।

इस सीमित राजनीतिक राष्ट्र के दायरे से जो पिछड़े क्षेत्र या साधनहीन समूह बाहर रहे उनकी उपनिवेशी भारत के उस आधुनिक संस्थागत जीवन में कोई पैठ भी नहीं थी जिसके दायरों के अंदर आरंभिक भारतीय राष्ट्रवादियों के संदेश गूँजते थे ।

यह सब पहले विश्वयुद्ध के अंत तक चला जब महात्मा गांधी ने पहली बार संवैधानिक राजनीति के दरवाजों को पूरी तरह खोलकर लोक राष्ट्रवाद के नए युग का सूत्रपात किया । अगर ‘नव-परंपरावादी’ इतिहासकारों ने भारतीय राजनीति का अध्ययन प्रांत के ढाँचे में किया तो कुछ दूसरों ने और भी नीचे जाकर इलाकों के स्तर तक इन विभाजनों की खोज की ।

इन इतिहासकारों की रचनाओं ने जिनकी पहचान ‘कैंब्रिज संप्रदाय’ के रूप में की गई है । किसी एकजुट राष्ट्रवादी आंदोलन की सत्ता में संदेह व्यक्त किए हैं और उसकी बजाय उपनिवेशी भारत में स्थानीय आंदोलनों की एक पूरी शृंखला दर्शायी है ।

चूंकि साम्राज्यवाद कमजोर था और भारतीय सहयोगियों की सहायता के बिना कुछ नहीं कर सकता था इसलिए उससे टकराते हुए जो राष्ट्रवाद विकसित हुआ वह भी कमजोर था; वह दो कागजी शेरों की लड़ाई से अधिक कुछ भी नहीं था ।

चूंकि साम्राज्यिक शासन भारतीय सहयोगियों पर निर्भर था इसलिए साम्राज्यिक शासकों की कृपा पाने के लिए उनके बीच भी प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी । इसके कारण विभिन्न हितबद्ध समूह उत्पन्न हुए जिन्होंने तब अपने प्रभाव क्षेत्रों को विस्तार देना आरंभ कर दिया जब अंग्रेजों ने और अधिक सहयोगी बटोरने के लिए स्थानीय स्वशासन और चुनाव की व्यवस्था का आरंभ किया ।

राष्ट्रवादी आंदोलन का नेतृत्व इन्हीं स्वार्थी नेताओं ने पूरी तरह अपने संकीर्ण वैयक्तिक या पारिवारिक हितों को पूरा करने के लिए किया । विभिन्न स्तरों पर नेतागण संरक्षक-संरक्षित संबंधों में बँधे हुए थे और निष्ठा के इन्हीं ऊर्ध्वाकार नेटवर्को के माध्यम से उन्होंने अंग्रेजों के साथ शक्ति और संरक्षण के लिए सौदेबाजियाँ कीं ।

दूसरे शब्दों में यह इतिहासकार समूह एक राष्ट्रवादी विचारधारा की भूमिका से एक सिरे से इनकार करता है और राष्ट्रवादी राजनीति की व्याख्या प्रतियोगिता और सहयोग के आधार पर करने के प्रयास करता है । इसके अनुसार भारत कोई राष्ट्र न होकर असंबद्ध हितबद्ध समूहों का एक जमावड़ा था और वे इसलिए एकजुट थे क्योंकि उनको अंग्रेजों के बनाए हुए एक केंद्रीकृत राष्ट्रीय प्रशासन के ढाँचे में काम करना पड़ रहा था ।

इतिहास के प्रति इस सनकी दृष्टिकोण ने जिसने अपने विश्लेषण से मन और भावना को निकालकर एक संकीर्ण नेमियरवादी मॉडल का अनुसरण किया राष्ट्रवादी आंदोलन का दर्जा गिराकर तपन रायचौधुरी के शब्दों में उसे ”पाशविक राजनीति” के स्तर तक पहुँचा दिया है ।

लेकिन व्याख्या की उस तर्ज को वे लोग भी अब स्वीकार नहीं करते जो कभी इसके उत्साही प्रतिपादक थे । सी.ए. बेइली की पुस्तक ओरिजिस ऑफ नेशनेलिटी इन साउथ एशिया (Origins of Nationality in South Asia (1998)) जिसका उल्लेख किया जा चुका है, इतिहास-लेखन में इस महत्त्वपूर्ण परिवर्तन की याद दिलाता है।

राष्ट्रवाद की इस अपेक्षाकृत संकीर्ण राजनीतिक व्याख्या के विपरीत परंपरागत (Orthodox) मार्क्सवादी संप्रदाय ने राष्ट्रवादी आदोलन के वर्गीय चरित्र का विश्लेषण करने और उसकी व्याख्या उपनिवेश काल के आर्थिक विकासक्रमों के आधार पर करने की कोशिश की मुख्यत: भारत में औद्योगिक पूँजीवाद के उदय और एक बाजारमुखी समाज के विकास के आधार पर ।

उसने पूँजीवादी नेतृत्व की पहचान की जिसने अपने वर्गीय हितों के अनुसार इस आंदोलन को संचालित किया और जनता के हितों को अनदेखा किया बल्कि एक सीमा तक उसे धोखा भी दिया । रजनी पाम दत्त और सोवियत इतिहासकार वी.आई. पाव्लोव जैसे आरंभिक मार्क्सवादियों के इस संकीर्ण वर्गीय दृष्टिकोण और आर्थिक निर्धारणवाद (Economic Determinism) को एस.एन. मुखर्जी सुमित सरकार और विपिनचंद्र की परवर्ती मार्क्सवादी रचनाओं में संशोधित किया गया ।

मुखर्जी ने राष्ट्रवाद की जटिलताओं उसके अनेक स्तरों और अर्थों वर्ग के साथ-साथ जाति के महत्त्व तथा राजनीति की एक परंपरागत और साथ-साथ एक आधुनिक भाषा के उपयोग की ओर संकेत किया । सुमित सरकार ने भारतीय शिक्षित वर्गों की गैर-पूँजीवादी पृष्ठभूमि को दर्शाया और तर्क दिया कि उनका कर्म उत्पादन की प्रक्रियाओं से असंबद्ध ”पारंपरिक बुद्धिजीवियों” जैसा था जो विश्व की उदारवाद या राष्ट्रवाद जैसी वैचारिक धाराओं का प्रत्युत्तर दे रहे थे और जिन्होंने अभी तक निष्क्रिय पड़े भारतीय जनसमूहों की ”जगह ली ।”

अपनी परवर्ती पुस्तक मॉडर्न इंडिया (1983) में सुमित सरकार ने हमें चेताया है कि ”वर्ग और वर्गचेतना विश्लेषण के उपकरण हैं जिनका पहले से अधिक कौशल और लोच के साथ उपयोग करना होगा” वे राष्ट्रवाद की वैधता को स्वीकार करते हैं पर उसके ”अंदरूनी तनावों” की उपेक्षा नहीं करते ।

उनका कहना है कि भारत में भी साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के दो स्तर थे: एक कुलीनों का और दूसरा जनता का । दोनों में से किसी को भी अनदेखा करने की जरूरत नहीं है बल्कि ”इन (दोनों) स्तरों के जटिल घात-प्रतिघात” को देखा जाना चाहिए जिसके माध्यम से ”परिवर्तन के द्वारा निरंतरता का जटिल पैटर्न” पैदा हुआ, वही पैटर्न जो उस काल का प्रमुख विषय था ।

विपिनचंद्र और उनके कुछ सहयोगियों ने अपने सामूहिक लेखन-उद्यम इडियाज स्ट्रगल फॉर इंडीपेंडेंस (1989) में मार्क्सवादी व्याख्या को एक सुस्पष्ट राष्ट्रवादी रुझान प्रदान किया है । उनका तर्क है कि भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन विभिन्न वर्गों का एक जन-आंदोलन था जो पूरी तरह पूँजीपतियों द्वारा नियंत्रित नहीं था । उन्होंने उपनिवेशी भारत में दो प्रकार के अंतर्विरोध दिखाए हैं ।

प्रमुख अंतर्विरोध भारतीय जनता के और ब्रिटिश राज के हितों के बीच था पर उससे अलग हटकर भारतीय समाज के अंदर वर्गो जातियों और धार्मिक समुदायों के बीच अनेक गौण अंतविरोध पर समझौते कर लिए गए और इस तरह एक राष्ट्रवादी विचारधारा का वर्चस्व स्थापित हुआ ।

लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन किसी एक वर्ग जाति या धार्मिक समुदाय का आंदोलन नहीं था और गांधी या जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने माना कि भारत कोई ढाँचाबद्ध राष्ट्र न होकर एक निर्माणाधीन राष्ट्र था । परस्परविरोधी हितोंवाले अनेक समूह यहाँ थे और इसलिए वर्ग या जातिगत या सांप्रदायिक टकरावों से बचने और इन सभी असंबद्ध समूहों को एकछत्र नेतृत्व के अंतर्गत लाने के लिए हमेशा समझौते करने पड़ते      थे । फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन एक आंदोलन बन गया हालाकिं सभी गौण टकराव संतोषजनक ढंग से हल नहीं किए जा सके ।

इस बहस में एक नया साहसिक हस्तक्षेप 1982 में हुआ जब रणजीत गुहा द्वारा संपादित सबआल्ट्रन स्टडीज का पहला खंड प्रकाशित हुआ; इसका प्रारंभिक वक्तव्य उत्तेजक था: ”भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास-लेखन पर लंबे समय से कुलीनवाद का वर्चस्व रहा है ।”

गुहा ने आगे कहा कि यह ”आँखों पर पट्टी बांधकर किया गया इतिहास-लेखन” भारतीय राष्ट्रवाद की व्याख्या नहीं कर सकता क्योकि यह इस राष्ट्रवाद के निर्माण और विकास में जनता द्वारा अपने बल पर अर्थात् कुलीनों से स्वतंत्र रूप से किए गए नए योगदान की उपेक्षा करता है ।

यह अतिवादी मार्क्सवादी संप्रदाय, जो अपनी सैद्धांतिक विचार-सामग्री इतालवी मार्क्सवादी एंतोनियो ग्रामची की रचनाओं से ग्रहण करता है यह समझता है कि वह संगठित राष्ट्रीय आंदोलन जो अंतत: भारतीय राष्ट्र-राज्य के निर्माण का कारण बना कुलीनों का खोखला राष्ट्रवाद था जबकि वास्तविक राष्ट्रवाद जनता का राष्ट्रवाद था जिसे यह संप्रदाय ‘अधोस्तरीय’ (Subaltern) कहता है ।

कुलीन राजनीति और अधोस्तरीय जनता की राजनीति के इन दो क्षेत्रों के बीच ”ढांचागत द्विभाजन” (Dichotomy) है क्योंकि भारतीय समाज के ये दोनों खंड दो पूरी तरह अलग-अलग और स्वतंत्र मानसिक संसारों में रहते हैं जिनकी विशेषताएँ चेतना के दो अलग-अलग रूप हैं हालांकि इन दोनों संसारों के बीच कोई चीन की दीवार नहीं है ।

हालांकि यह जनता समय-समय पर पूंजीपति वर्ग द्वारा आरंभ किए गए आंदोलनो में भाग लेती थी पर पूंजीपति वर्ग पूरे राष्ट्र की बात कहने में असफल रहा । बाद के एक लेख में रणजीत गुहा ने तर्क दिया है कि पूँजीपति वर्ग समझावे-बुझावे के द्वारा बलपूर्वक अपना वर्चस्व स्थापित करने में असफल रहा तथा किसान और मजदूर वर्ग लगातार उसका सामना करते रहे जिनकी लामबंदी और कार्रवाई के मुहावरे भिन्न थे और राष्ट्रीय आंदोलन इन मुहावरों को हथियाने में असफल रहा ।

नए राष्ट्र-राज्य ने इसी पूँजीपति वर्ग और उसकी विचारधारा का प्रभुत्व स्थापित किया पर यह ”वर्चस्व से रहित प्रभुत्व” था । इतिहास-लेखन की यह विशेष धारा हाल के वर्षा में व्यापक बदलावों से गुजरी है तथा इसका केंद्रबिंदु वर्ग से हटकर समुदाय हो चुका है भौतिक विश्लेषण के बदले अब संस्कृति मन और अस्मिता की विशेष महत्ता हो चुकी है ।

इसके कभी यशस्वी लेखक रह चुके सुमित सरकार ने ”अधोस्तरीय अध्ययन (Subaltern Studies) में अधोस्तरीय वर्ग के गौण होते जाने” की शिकायतें की हैं । इसका कारण यह कि धीरे-धीरे उसका ध्यान-केंद्र बढ़ता गया और अधोस्तरीय प्रतिरोधों के रूपों और उदाहरणों के साथ उसका जो एकमात्र सरोकार था उसकी जगह उसमें उपनिवेशकालीन शिक्षित वर्ग की राजनीति को भी खींच लिया गया ।

ध्यान-केंद्र के इस विस्तार को उचित ठहराते हुए दीपेश चक्रवर्ती तर्क देते हैं कि ”कुलीन और प्रभुत्वशाली वर्गो का भी एक अधोस्तरीय अतीत हो सकता है ।” एडवर्ड सईद (1978) का अनुकरण करते हुए यह तर्क दिया गया है कि उनका (उपनिवेशकालीन शिक्षित वर्ग का) अधोस्तरीय चरित्र उनके मन के उस उपनिवेशीकरण की उपज था, जिसने उनकी मनोनिष्ठा का निर्धारण किया ।

रहा सवाल इन अधीनस्थ उपनिवेशकालीन कुलीनों के राष्ट्रवाद को समझने का, तो इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान पार्थ चटर्जी का रहा है । पहले उनका कथन था कि भारत में राष्ट्रवाद मूलत: पश्चिम से एक ”भिन्न” मगर उसमें ”व्युत्पन्न संवाद” था जिसका विकास तीन सुस्पष्ट चरणों में हुआ ”प्रस्थान का क्षण” जब राष्ट्रवादी चेतना का निर्माण ”ज्ञानोदय-पश्चात बुद्धिवादी चिंतन” के वर्चस्वकारी प्रभाव के द्वारा हुआ; ”जोड़तोड़ का क्षण” जब इसके समर्थन में जनता को लामबंद किया गया और ”आगमन का क्षण” जब यह ”व्यवस्था का संवाद” और ”शक्ति का बुद्धिसंगत गठन” बन गया ।

इस सिद्धांत को उनकी बाद की पुस्तक द नेशन एंड इट्‌स फ्रेगमेंटस (The Nation and Its Fragments) (1993) में और आगे विकसित किया गया है जहाँ उन्होंनें इस शिक्षित वर्ग के कार्यकलाप के दो क्षेत्रों भौतिक और आध्यात्मिक की बात कही है ।

आंतरिक आध्यात्मिक क्षेत्र में इन लोगों ने ”एक ‘आधुनिक’ राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण के प्रयास किए जो फिर भी पश्चिमी नहीं थी” और यहाँ उन्होंने उपनिवेशी हस्तक्षेप को स्वीकार करने से इनकार कर दिया; राष्ट्रवाद पहले से ही अगर प्रभुतासपन्न था तो यहीं था ।

लेकिन बाह्य भौतिक जगत मैं जो उपनिवेशी राज्य की संस्थाओं से परिभाषित था उनके पास पश्चिमी मॉडलों के प्रभावों से बचने की संभावना कम ही थी । बाहरी जगत में भारतीय कुलीनों ने भेद के उपनिवेशी नियम को चुनौती दी जबकि आंतरिक जगत में उन्होंने सहमति पैदा करके तथा अधोस्तरीय असहमति के क्षेत्र पर प्रभुत्व स्थापित करके भारतीय समाज को समरस बनाने के प्रयास किए ।

इसलिए कुलीन और अधोस्तरीय राजनीति के दो क्षेत्रों का अध्ययन अलग-अलग नहीं किया जाना चाहिए; चटर्जी हमें समझाते हैं कि इनका अध्ययन उनकी ”परस्पर निर्धारित ऐतिहासिकताओं” में किया जाना      चाहिए । राष्ट्रवाद के इस अधोस्तरीय दृष्टिकोण का या जिसे आज ”उपनिवेश-पश्चात (Postcolonial)” सिद्धांत की एक प्रमुख धारा कहा जा रहा है, उसका और आगे विकास ज्ञानप्रकाश की नवीनतम पुस्तक एनअदर रीजन (Another Reason) (1999) में हुआ है ।

इसमें ज्ञानप्रकाश ने पार्थ चटर्जी को अंशत: संशोधित करते हुए तर्क दिया है कि ”राष्ट्र के आंतरिक क्षेत्र और एक राष्ट्र के रूप में उसके बाहरी जीवन के बीच कोई बुनियादी विरोध नहीं था; राष्ट्र-राज्य एक अन्य अमूर्त स्तर पर राष्ट्र का ही अस्तित्व था ।”

भारत में राष्ट्र-राज्य का निर्माण मात्र पश्चिमी मॉडल की नकल नहीं था जैसा कि पार्थ चटर्जी सोचते हैं बल्कि भारत की आध्यात्मिक-सांस्कृतिक धरोहर के दृष्टिकोण से और साथ ही एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पश्चिमी आधुनिकता पर एक पुनर्विचार और उसकी समालोचना था ।

जैसा कि जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने परिकल्पना की थी यह राज्य सदाचरण के उन भारतीय सिद्धांतों से संचालित होगा जो समष्टिगत कल्याण को महत्त्व देते हैं और इस अर्थ में यह ”पश्चिम से आयातित” नहीं होगा ।

फिर भी राज्य पर उनकी यह निर्भरता राष्ट्रीय एकता की स्थापना में उनकी असफलता की उपज थी; उन्होंने इस एकता की कल्पना केवल विमर्श के स्तर पर की थी । जैसा कि ज्ञानप्रकाश का तर्क है इस तरह ”राष्ट्र-रस्य एक राष्ट्रीय समुदाय की परिकल्पना करने और उसे सामान्य बनाने की वर्चस्ववादी परियोजना में ही व्याप्त था ।” और भारतीय राष्ट्रवाद का अंतर्विरोध इसी बात में निहित था ।

ऊपर लिखित और कमोबेश स्पष्ट रूप से निरूपित किए जा सकनेवाले इन विशेष इतिहासकार संप्रदायों के इतिहास-लेखन के अलावा ऐसी अन्य रचनाओं का एक पूरा दायरा उपलब्ध है जिनमें भारतीय राष्ट्रवाद को विभिन्न वैचारिक कोणों से और विभिन्न ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों में देखा गया है । दूसरे शब्दों में, भारतीय राष्ट्रवाद तीखे विवादों से ग्रस्त एक क्षेत्र है जहाँ से किसी द्वंद्ववादी मध्यमार्ग तक पहुंचना या ऐसा कोई यदृच्छवादी दृष्टिकोण विकसित कर सकना कठिन है जो सबको स्वीकार्य हो ।

अगर ब्रिटिश राज भारतीय मानस का उपनिवेशीकरण करना चाहता था तो उपनिवेशी वर्चस्व का प्रतिरोध करने के लिए भारतवासियों ने भी उस उपनिवेशी ज्ञान को चुनिंदा ढंग से ग्रहण किया उसे आत्मसात किया और उसमें फेरबदल किया ।

लेकिन अगर मुख्यधारा के राष्ट्रवाद ने एक ऐसे समरस राष्ट्र के अस्तित्व की मान्यता रखी जो एक ही वाणी में बोलता था तो असहमति के स्वरों के जैसे स्त्रियों या दलितों के बहिराव (Exclusion) के दावे उनको खामोश किए जाने और कुचले जाने के दावे भी लगातार किए जाते रहे हैं ।

दूसरे शब्दों में इतिहासकारों का एक विकासमान समूह आज यह तर्क दे रहा है कि उपनिवेशवाद विरोधी प्रतिरोध के रूपों और उनके पीछे मौजूद विचारधाराओं को अनेकानेक ढंगों से समझा या निरूपित किया    गया । अनिया लुंबा की इस टिप्पणी की सच्चाई को अस्वीकार कर पाना कठिन है कि ”यहाँ स्वयं ‘राष्ट्र’ ही विवाद और बहस का एक मैदान है विभिन्न वैचारिक और राजनीतिक हितों की परस्पर-विरोधी परिकल्पनाओं का अखाड़ा है ।’

भारत एक बहुलवादी समाज था और इसलिए निश्चित था कि भारतीय राष्ट्रवाद के अनेक स्वर होते क्योंकि विभिन्न वर्गों समूहों समुदायों और क्षेत्रों ने अपने ‘राष्ट्र’ की व्याख्या विभिन्न और कभी-कभी परस्परविरोधी ढंगों से की ।

भारतवासियों की अनेक पहचानें थीं जैसे वर्गीय पहचान जातिगत पहचान धार्मिक पहचान आदि; विभिन्न ऐतिहासिक मोड़ों पर भिन्न-भिन्न पहचानों को अभिव्यक्ति मिलती थी और वे एक-दूसरे से घात-प्रतिघात करती थीं । जब उपनिवेशी राजसत्ता ने इन टकरावों को तीखा बनाने और बढ़ाने की कोशिशें की तो भारतीय राष्ट्रवादियों ने एकता के एक वैकल्पिक संवाद का प्रचार करने के प्रयास किए ।

जवाहरलाल नेहरू ने ”भिन्न-भिन्न तत्त्वों के संश्लेषण और एक साझी राष्ट्रीयता में उनके विलय के प्राचीन भारतीय आदर्श” की बातें कीं । लेकिन विलय की इस रूमानी मान्यता का उद्देश्य टकराव और अंतर्विरोध की कड़वी सच्चाइयों से बचना था ।

एक राष्ट्रीय संस्कृति की परिकल्पना में भेदों को खपाने से संबंधित इस लापरवाही और असफलता ने कुछ समूहों को राष्ट्रवाद की परियोजना से बाहर कर दिया और जो एकता स्थापित हुई वह कमजोर सिद्ध हुई और एक केंद्रीकृत राष्ट्र-राज्य पर इतनी अधिक निर्भरता का कारण यही था ।

फिर भी इस समालोचना के कारण हमें उस चीज की ओर नहीं बढ़ जाना चाहिए जिसके विरुद्ध सुगत बोस और आयशा जलाल ने चेतावनी दी है अर्थात् ”खंडों में विभाजन पर फूले समाने” और ”अंधे राज्य-विरोध का शिकार बनने” के विरुद्ध ।

एक भावात्मक स्तर पर राष्ट्र के अस्तित्व से इनकार करने की बजाय हम उसे राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का एक अखाड़ा मानेंगे । मुख्यधारा के राष्ट्रवाद की सामान्यता लानेवाली प्रवृत्ति के बावजूद राष्ट्र के इस प्रमुख विचार को बार-बार अंदर से ही ललकारा गया ।

पर यहाँ एक सवाल रह जाता है: क्या इस टकराव का समाधान असंभव था या जैसा कि होमी भाभा का दावा है; ”सामाजिक शत्रुता या अंतर्विरोध की ऐसी शक्तियों से परे नहीं जाया जा सकता या द्वंद्ववादी हल से इसे नियंत्रित किया नहीं जा सकता” ?

या हमें यह सवाल कहीं करना ही नहीं चाहिए! कारण कि एक अंतिम समाधान की आशा करना, कि उसके बाद हर कोई सुख से रहेगा इतिहास के अंत की बात सोचना होगा । इसके विपरीत राष्ट्र-निर्माण हमेशा निरंतर तालमेल समायोजन (Accommodation) का-और टकराव का-सिलसिला होता है ।

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