भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना | Read this article in Hindi to learn about the formation of Indian national congress during British rule.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिसे आगे चलकर भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में एक केंद्रीय भूमिका निभानी थी बंबई में दिसंबर 1885 में डब्ल्यू.सी. बनर्जी की अध्यक्षता में आयोजित एक सम्मेलन में बनाई गई थी ।
सेवानिवृत्त अंग्रेज सिविल अधिकारी एलेन ऑक्टेवियन झूम की इस प्रक्रिया में केंद्रीय भूमिका थी । कारण कि वही थे जिन्होंने पूरे उपमहाद्वीप के दौरे किए बंबई, मद्रास और कलकत्ता के प्रमुख राजनीतिक नेताओं से बातें कीं और उनकी एक राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए तैयार किया जिसे आरंभ में पूना में आयोजित किया जानेवाला था ।
पर इस मराठी नगर को हैजा के प्रकोप ने इस सौभाग्य से वंचित कर दिया जो अब और अधिक विश्वमुखी उपनिवेशी नगर बंबई के हिस्से में आया । परंतु इस पहले सत्र का चाहे जो ऐतिहासिक महत्त्व रहा हो उसमें झूम की भागीदारी ने कांग्रेस की उत्पत्ति के बारे में अनेक विवादों को जन्म दिया ।
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इस मामूली से तथ्य ने सुरक्षा (सेफ्टी) वॉल्व का या षड्यंत्र का जो सिद्धांत स्थापित किया उसे दक्षिणपंथी वामपंथी और मध्यमार्गी हर तरह के इतिहासकार एक लंबे समय तक मानते रहे । इसे तो राष्ट्रीय आंदोलन के कुछ धुरंधरों तक ने स्वीकार किया । लेकिन हाल के अनुसंधानों से इसका बुरी तरह खंडन हो चुका है ।
इस सिद्धांत का जन्म धम के विलियम वेडरबर्न कृत जीवनचरित से हुआ जो 1913 में प्रकाशित हुआ । वेडरबर्न एक और भूतपूर्व सिविल अधिकारी थे जिन्होंने लिखा कि 1878 में झूम ने रिपोर्टो के सात संस्करण देखे और उनसे पता चला कि निचले वर्ण असंतोष से उबल रहे थे और ब्रिटिश सरकार को शक्ति के बल पर पलटने का षड्यंत्र चल रहा था ।
वे चिंतित हो उठे लॉर्ड डफरिन से मिले और मिलकर उन्होंने शिक्षित भारतवासियों का एक संगठन बनाने का निर्णय किया । यह शासकों और शासितों के बीच संवाद का एक माध्यम बनकर सेफ्टी बल्कि का काम करेगा और इस तरह एक जनक्रांति को रोकेगा ।
इस तरह कांग्रेस ब्रिटिश राज की उपज थी । सेफ्टी वाल्व के इस सिद्धांत में आरंभिक राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने विश्वास किया साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने इसका उपयोग कांग्रेस को बदनाम करने के लिए किया और इसी से मार्क्सवादी इतिहासकारों ने षड्यंत्र के सिद्धांत का विकास किया ।
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उदाहरण के लिए, रजनी पाम दत्त ने लिखा कि कांग्रेस भारत में एक जन-विद्रोह को रोकने के षड्यंत्र से पैदा हुई और इसमें भारत के पूँजीवादी नेता भी शामिल थे । सेफ्टी बार या षड्यंत्र के ये सिद्धांत 1950 के दशक में गलत सिद्ध हो गए ।
पहली बात यह कि भारत या लंदन के किसी भी अभिलेखागार में खुफिया रिपोर्टो के ये सात संस्करण नहीं मिले हैं । इतिहासकारों का तर्क है कि 1870 के दशक में ब्रिटिश सूचना व्यवस्था के ढाँचे को देखते हुए खुफ़िया रिपोर्टो के इतने सारे संस्करणों का अस्तित्व बिल्कुल असंभव रहा होगा ।
झूम के वेडरबर्न कृत जीवनचरित के अलावा ऐसी रिपोर्टो की उपस्थिति का कोई उल्लेख कहीं और नहीं पाया गया है और वे भी इस बात का उल्लेख करते हैं कि झूम को ये रिपोर्टे धर्मगुरुओं ने दी थीं और ये किसी आधिकारिक स्रोत से प्राप्त नहीं की गई थीं ।
उसके बाद 1950 के दशक के अंतिम वर्षों में लॉर्ड डफ्रारिन के निजी कागजात के सामने आने के बाद यह भ्रांति दूर हो गई क्योंकि इनसे यह कथा झूठी साबित होती है कि डफरिन ने कांग्रेस या सूम को प्रायोजित किया था ।
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वह मई 1885 में शिमला में झूम से अवश्य मिला था पर उनको गंभीरता से स्वीकार नहीं किया था और फिर उसने बंबई के गवर्नर को सुनिश्चित आदेश दिए थे कि उस नगर में जो प्रातेनिधि उनसे मिलने वाले थे उनके बारे में सचेत रहें ।
प्रस्तावित बैठक के बारे में वह और बंबई का गवर्नर लॉर्ड री दोनों ही सशंकित थे और उसके विरुद्ध थे क्योंकि वे समझते थे कि ये लोग भारत में आयरलैंड के होमरूल लीग आंदोलन जैसी कोई चीज आरंभ करना चाहते हैं ।
कांग्रेस की स्थापना के कुछ ही समय बाद डफरिन कांग्रेस की खुलकर भर्त्सना उसके सदिग्ध उद्देश्यों के आधार पर कर रहा था । 1888 में उसने उसकी आलोचना एक ”अतिलघु अल्पमत” का प्रतिनिधि होने के आधार पर की और अगर कुछ और नहीं तो केवल यही वक्तव्य सेफ्टी बल्कि या षड्यंत्र के सिद्धांत की धज्जी उड़ा देता है ।
आज इतिहासकार कमोबेश इस बात पर सहमत हैं कि खुफिया रिपोर्टो की सात संस्करणों की कहानी मनगढ़ंत है और एक मित्र जीवनीलेखक वेडरबर्न ने इसे ह्यूम को ऐसे देशभक्त अंग्रेज के रूप में चित्रित करने के लिए गढ़ा जो एक आसन्न संकट से ब्रिटिश राज को बचाना चाहता था ।
इस तरह जैसा कि विपिनचंद्र ने कहा है, ”समय आ गया है कि सेफ्टी वॉल्व के सिद्धांत को… उन्हीं महात्माओं को सौंप दिया जाए, जिनसे संभवत: उसका आरंभ हुआ था । यह तथ्य लेकिन अपनी जगह बना रहता है कि कांग्रेस की स्थापना में झूम की एक केंद्रीय भूमिका थी हालांकि हो सकता है कि सेफ्टो बच्च या षड्यंत्र के सिद्धांतों में उनकी भूमिका की बहुत अधिक अतिशयोक्ति की गई हो ।
वास्तव में झूम राजनीतिक उदारवादी थे जिनके मन में भारतीयों में बढ़ते असंतोष के बारे में स्पष्ट विचार थं । इसलिए उन्होंने एक अखिल भारतीय संगठन की कल्पना की जो भारतीय हितों का प्रतिनिधित्व करे और महारानी की (सरकार के) विपक्ष की भूमिका निभाए ।
उन्होंने वायसरॉय लॉर्ड रिपन से संपर्क किया और उनके उदारवादी सुधार कार्यक्रम को पूरा समर्थन देने का वादा किया खासकर उनकी स्थानीय स्वशासन आरंभ करने की योजना को जिसे वे जानते थे कि उनके रूढ़िवादी सहकर्मी बेकार करने के प्रयास करेंगे और इस तरह स्वयं खतरे में पड़ेंगे ।
रिपन के जाने के बाद उन्होंने शिक्षित भारतीयों के बीच अपने व्यापक संपर्को को जोड़ने का काम शुरू किया ताकि वे (भारतीय) अपनी शिकायतें पेश करने के लिंए एक वैध मच के रूप में एक राष्ट्रीय संगठन में आएँ । लंकिन अगर झूम ने कोई पहल न की होती तो भी भारत में 10 और 1880 के दशकों मे एक राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की बात स्पष्ट नजर आ रही थी ।
जैसा कि हम देख चुके हैं तीनों प्रेसिडेंसियों में शिक्षित भारतीयों के समूह राजनीति में सक्रिय थे और उन्होंने ऐसे नए संगठन बना लिए थे जो विभिन्न राष्ट्रीय प्रश्नों पर नागरिक स्वतंत्रताओं और संगठित देशव्यापी आंदोलनों के लिए सक्रिय होने लगे थे ।
मिशनरियों के हस्तक्षेपों और 1850 के लेक्स लोकी ऐक्ट के विरुद्ध भारत के विभिन्न भागों में एक साथ प्रतिरोध हुए थे । 1867 में प्रस्तावित आयकर के विरुद्ध और एक संतुलित बजट की माँग के समर्थन में एक राष्ट्रवादी आंदोलन हो चुका था ।
फिर 1877-80 में सिविल सेवाओं के भारतीयकरण की माँग पर एक विशाल अभियान चल चुका था और लॉर्ड लिटन के खर्चीले और दुस्साहसिक अफगान अभियानों के विरुद्ध भी जिनका खर्च भारतीय राजस्व से उठाया जा रहा था ।
1878 के कुख्यात वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट के विरुद्ध भी भारतीय प्रेस और संगठनों ने जमकर एक अभियान चलाया था । उन्होंने 1881-82 में बागान मजदूरों और अंतर्देशीय प्रवास संबंधी उस कानून (इंग्लैंड एमिग्रेशन ऐक्ट) के विरुद्ध प्रतिरोध संगठित किए थे जो बागान मजदूरों को भू-दास बनाकर रख देता ।
अंतिम बात यह कि 1883 में इल्वर्ट बिल के समर्थन में एक बड़ा राष्ट्रव्यापी आंदोलन आरंभ किया गया था जब अंग्रेजी राज के न्याय में शिक्षित भारतवासियों का विश्वास हिल गया था । 1885 में एक राष्ट्रीय कोष बनाने के लिए देशव्यापी प्रयास किया गया था जिसका उपयोग भारत और इंगलैंड में राजनीतिक आंदोलन चलाने के लिए किया जाता ।
उसी साल भारतवासियों ने उस स्वैच्छिक कोर में शामिल होने के अधिकार की लड़ाई लड़ी जो तब तक केवल यूरोपवालों के लिए आरक्षित था और फिर ब्रिटिश मतदाताओं से उन उम्मीदवारों को मत देने की अपील की जो भारत के मित्र थे ।
ऐसे आंदोलनों के संगठन की विशेष, पहल प्रेसिडेंसियों के संगठनों ने की और उनमें सबसे मुखर इंडियन एसोसिएशन था । लेकिन ये संगठन प्रेसिडेंसी नगरों तक ही सीमित नहीं थे । लाहौर अमृतसर मेरठ कानपुर अलीगढ़ पूना अहमदाबाद पटना या कटक जैसे दूसरे प्रांतीय नगरों में भी जो मुद्दे स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय लगते थे उन पर शुरू किए गए आंदोलनों से ये संगठन उसी तरह प्रभावित हुए ।
पश्चिमी शिक्षा और अंग्रेजी भाषा ने इन क्षेत्रीय कुलीनों के बीच एक संबंध स्थापित कर दिया था जबकि कष्टों का साझापन क्षेत्रीय बाधाओं के आर-पार एक नई राजनीतिक चेतना के जन्म के लिए अनुकूल सिद्ध हुआ ।
इन संगठनों द्वारा उठाई गई ये माँगे अधूरी रहीं और उस बात ने क्षेत्रीय नेताओं को एक अखिल भारतीय संगठन की आवश्यकता का और भी विश्वास दिलाया । यूँ तो किसी भी काल में विभिन्न नगरों के नेताओं के बीच औपचारिक संबंधों का अभाव नहीं रहा फिर भी एक औपचारिक मंच की स्थापना के प्रयास भी कई बार किए जा चुके थे ।
अखिल भारतीय संबंध बनाने के ऐसे प्रयास सबसे पहले 1851 में किए गए थे जब कंपनी के चार्टर के नवीनीकरण से पहले ब्रिटिश संसद को एक संयुक्त ज्ञापन भेजने के उद्देश्य से कलकत्ता के ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन ने बाकी दो प्रेसिडेंसियों में भी शाखाएँ स्थापित करने के प्रयास किए थे ।
फिर 1877 मैं दिल्ली दरबार के अवसर पर भी जिन भारतीय पत्रकारों को इस शानदार समारोह के लिए आमंत्रित किया गया था उन्होंने एक देशी प्रेस एसोसिएशन स्थापित करने के लिए इस अवसर का उपयोग किया । उन्होंने इंडियन एसोसिएशन के नेता और बंगाली के संपादक एस.एन. बनर्जी को अपना पहला सचिव चुना तथा प्रेस और देश से संबंधित मुद्दों पर चर्चा के लिए हर साल एक या दो बैठकें करने का संकल्प किया ।
इंडियन एसोसिएशन ने 1883 में कलकत्ता में एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया तथा एक और सम्मेलन दिसंबर 1885 में होनेवाला था । फिर थियोसोफ़िकल सोसायटी के एक सदस्य की निजी पहल पर मद्रास में 1884 में भारत के विभिन्न भागों से आए प्रतिनिधि सोसायटी के वार्षिक सम्मेलन के अवसर पर एक राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता पर चर्चा करने के लिए अलग से मिले ।
इस तरह एक राष्ट्रीय संगठन का उदय स्पष्ट रूप से आस्थ्य था हालांकि जिनसे आपसी ईर्ष्या ने 1851 में ऐसी कोशिशों को असफल बनाया था वे अभी भी पूरी तरह दूर नहीं हुई थीं । अभी भी एक ऐसे मध्यस्थ की आवश्यकता थी जो इन सभी क्षेत्रीय नेताओं को एक ही सांगठनिक छतरी के नीचे ला सके । झूम इस भूमिका के लिए एकदम उपयुक्त थे क्योंकि उनकी परा-क्षेत्रीय (Supra-regional) पहचान ने उन्हें सभी क्षेत्रीय नेताओं के लिए स्वीकार्य बना दिया । वे अपने सुज्ञात उदार राजनीतिक विचारों के कारण भी स्वीकार्य थे ।
इस तरह दिसंबर 1885 में जन्म लेनेवाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने आरंभ से ही ऐसे क्षेत्रीय मतभेदों को दूर करने के प्रयास किए । पहले कांग्रेस सत्र ने घोषणा की कि ”राष्ट्रीय एकता की भावनाओं को विकसित और मजबूत करना” उसके प्रमुख उद्देश्यों में से एक होगा ।
देश के विभिन्न भागों में कांग्रेस का वार्षिक सत्र आयौजित करने और जिस क्षेत्र में कोई सत्र हो रहा हो उसका अध्यक्ष उससे भिन्न किसी क्षेत्र से चुनने के निर्णय का उद्देश्य क्षेत्रीय बाधाओं और भ्रांतियों को दूर करना था ।
1888 में तय किया गया कि हिंदू या मुस्लिम प्रतिनिधियों के भारी बहुमत के आपत्ति करने पर कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया जाएगा; 1889 में पारित एक प्रस्ताव में विधायिकाओं के सुधार रखी माँग की गई तो उसमें एक अल्पमत की धारा (Clause) को प्रमुख स्थान दिया गया ।
इन सभी प्रयासों का घोषित उद्देश्य एक ऐसा मंच तैयार करना था जिस पर भारत के विभिन्न भागों के राजनीतिक चेतना संपन्न लोग एकजुट हो सकें । इसका आयोजन संसद की तर्ज पर होता था और सत्रों का संचालन लोकतांत्रिक तरीके से किया जाता था ओं यह सब सच्चे अर्थ में भारत में आधुनिक राजनीति का प्रतिनिधित्व करता था और इसलिए स्पष्ट है कि यह भारत के सार्वजनिक जीवन में एक नई प्रवृत्ति के जन्म का सूचक था ।
साथ ही साथ कांग्रेस आरंभ से ही कुछ अहम कमजोरियों की शिकार रही; इन, मबसे महत्त्वपूर्ण कमजोरी असमान प्रतिनिधित्व और भारतीय समाज के गैर-कुलीन ममूहों के पूरे अलगाव की थी । कांग्रेस के प्रथम वार्षिक सत्र में प्रतिनिधियों की संख्या भारत के संगठित राजनीतिक जीवन के बदलते ढर्रा को लगभग सटीक रूप से प्रतिबिंबित करती थी और पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त लोग धीरे-धीरे भूस्वामी कुलीनों पर बढ़त हासिल कर रहे थे ।
भौगोलिक दृष्टि से कुल मिलाकर प्रेसिडेंसियों की प्रमुखता थी पर उनमें बंगाल धीरे-धीरे की स्थिति खोता जा रहा था और ने सभी क्षेत्रों से आगे बढ़ते हुए बंबई उसकी जगह ले रही थी । 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले वार्षिक सत्र में 72 गैर-सरकारी भारतीय प्रतिनिधि शामिल हुए और कांग्रेस की आधिकारिक रिपोर्ट का दावा था कि उनमें समाज के सभी क्षेत्रों के लोग शामिल थे और वे ”अधिकांश वर्गो” का प्रतिनिधित्व करते थे ।
उनमें थे वकील सौदागर और बैंकर भूस्वामी चिकित्सक पत्रकार शिक्षाशास्त्री धर्मगुरु और सुधारक । हम अगर उनके क्षेत्रीय वितरण को देखें तो 38 प्रतिनिधि बंबई प्रेसिडेंसी और 21 मद्रास से थे, पर बंगाल से केवल 4 थे, क्योंकि लगभग उन्हीं दिनों इंडियन एसोसिएशन ने कलकत्ता में अपना राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया था और बंगाल के नेताओं को बंबई सम्मेलन की बात आखिरी क्षणों में ही बताई गई थी ।
प्रेसिडेंसियों के अलावा 7 प्रतिनिधि पश्चिमोत्तर प्रांत और अवध के चार प्रमुख नगरों से और एक-एक प्रतिनिधि पंजाब के तीन नगरों से आए थे, दूसरे शब्दों में ऊँचे दावों के बावजूद यह पेशेवर लोगों कुछेक जमींदारों और उद्योगपतियो का ही जमघट था जो ब्रिटिश भारत की मुख्यत तीन प्रेसिडेंसियों का प्रतिनिधित्व करते थे ।
सामाजिक संरचना को लें तो आरंभ में कांग्रेस के सदस्य अधिकांशत सवर्ण हिंदू समुदायों के थे और यही स्थिति उसके अस्तित्व के दो दशकों से अधिक समय तक बनी रही । भागीदारी की यह सीमा कांग्रेस के सदस्यों में कोई बेचैनी पैदा नहीं करती थी क्योंकि वे आत्मतुष्ट ढंग से पूरे राष्ट्र के प्रतिनिधित्व के दावे करते रहे ।
अपने आरंभिक कार्यकाल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने राजनीतिक व्यवहार में कोई अतिवादी संगठन कभी नहीं रही जो एकदम प्रत्याशित था और सरकार के खुले विरोध की संस्कृति अभी तक जड़ें नहीं जमा सकी थी ।
ये (कांग्रेसी) सतर्क सुधारवादी थे जो सुरेंद्रनाथ बनर्जी के शब्दों में भारत में ”गैर-ब्रिटिश राज” के कुछ अप्रिय पक्षों को दूर करने के लिए प्रयासरत थे और प्रार्थनापत्र और ज्ञापन भेजना उनकी कार्यपद्धति था । कांग्रेस के पहले सत्र के अध्यक्ष डन्ल्यू सी. बनर्जी ने आरंभ में ही स्पष्ट कर दिया था कि यह कोई ”षड्यंत्रकारियों और निष्ठाहीनों का अड्डा” नहीं था ये लोग ”पूरी तरह ब्रिटिश सरकार के वफादार और सुसंगत शुभचिंतक” थे ।
इससे स्पष्ट है कि कांग्रेस के संस्थापकों को अपनी परियोजना में ए.ओ. हयूम को क्यों शामिल करना पड़ा । उनके जुड़ने से सरकार का शक दूर हो गया और यह बात अहम थी क्योंकि जैसा कि आरंभिक कांग्रेस के एक और पुरोधा गोखले ने 1913 में लिखा था भारतीयों द्वारा एक अखिल भारतीय संगठन बनाने का कोई भी प्रयास तुरंत ही अधिकारियों की अमैत्रीपूर्ण निगाहें अपनी ओर खींचता ।
उन्होंने लिखा ”अगर एक महान अंग्रेज कांग्रेस का संस्थापक न होता तो अधिकारीगण तुरत ही आंदोलन को कुचलने के लिए कोई न कोई तरीका निकाल लेते ।” इस तरह यदि विपिनचंद्र की उपमा का उपयोग करें तो, “अगर हयूम और दूसरे अंग्रेज उदारवादी कांग्रेस का उपयोग सुरक्षा बल्कि की तरह करने की आशा कर रहे थे तो कांग्रेस के नेता हयूम का उपयोग एक तड़ित चालक के रूप में करने के प्रति आशावान थे ।”
इस तरह भारत में कांग्रेस का आंदोलन सीमित सुधारों की एक सीमित कुलीनवादी राजनीति के रूप में शुरू हुआ । उसने अपनी सीमाओं के बावजूद एक सर्वसमावेशी राष्ट्रीय एकता स्थापित करने के प्रयास किए और एक बहुत ही अहम राजनीतिक माँग उठाई: ”सरकार का आधार व्यापक बनाया जाना चाहिए और उसमें जनता को उसका समुचित और वैध हिस्सा मिलना चाहिए ।” भारतीय राष्ट्रवादी राजनीति की मुख्य-धारा का प्रवाह यहीं से आरंभ हुआ । उसकी सीमाओं और अंतनिर्हित अंतर्विरोधों को देखते हुए उसका विरोध होना स्वाभाविक था ।