भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गड़बड़ी का दशक | Decade of Disturbances During India’s Freedom Struggle.
1942 के ऐतिहासिक मोड़ पर विरोध की अनेक धाराओं का एक शानदार मिलन हुआ और इसके कारण कांग्रेस को असीमित राजनीतिक वैधता प्राप्त हुई; इस तथ्य के बावजूद भी इस बात से इनकार करना कठिन होगा कि भारत के साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय संघर्ष में मुक्ति के परस्परविरोधी दृष्टिकोण और एजेंडे मौजूद थे ।
उपनिवेशी शासन की अंतिम विदाई की कहानी पर आने से पूर्व हम कुछ वैकल्पिक दृष्टिकोणों की ओर आना चाहेंगे । यूरोप में जब युद्ध का आरंभ हुआ और कांग्रेस की प्रतिक्रिया अभी भी ढुलमुल थी, तब विद्रोही नेता सुभाषचंद्र बोस यह तर्क दे रहे थे कि भारतवासी एक दुर्लभ अवसर गँवा रहे हैं और उन्हें चाहिए कि वे साम्राज्य की कमजोरी का लाभ उठाएं ।
1939 में उनके विरुद्ध जब अनुशासन की कार्रवाई की गई, तब उनको विश्वास था कि यह कार्रवाई ”दक्षिणपंथ की मजबूती” का परिणाम थी, और अब राज के विरुद्ध एक जन-आंदोलन शुरू करने की यह हिचक भी इन्हीं दक्षिणपंथी नेताओं के कारण थी, जो ”उन नई शक्तियों और नए तत्त्वों के संपर्क से बाहर हैं… जो पिछले कुछ वर्षा में पैदा हो चुके हैं ।” इस कारण उन्होंने एक आंदोलन खड़ा करने के लिए अकेले पूरे भारत का दौरा किया, पर उन्हें कुछ अति उत्साही प्रतिक्रिया नहीं मिली ।
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बंगाल वापस आने के बाद उन्होंने मुस्लिम लीग से संपर्क स्थापित किया और एक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का निर्णय किया । इसका उद्देश्य कलकत्ता के हॉलवेल स्मारक को नष्ट करना था, जो ”ब्लैकहोल” त्रासदी की याद दिलाता था; अधिकांश लोग यह मानते थे कि यह त्रासदी कभी घटित ही नहीं हुई और यह बंगाल के अंतिम स्वतंत्र शासक सिराजुद्दौला के नाम को कलंकित करने के लिए हुई थी ।
यह ऐसा आंदोलन था जिसका मुसलमानों के लिए स्पष्ट आकर्षण था और इसलिए बंगाल में हिंदू-मुस्लिम एकता को यह और मजबूत बना सकता था । लेकिन इसके आरंभ से पहले ही उनको 3 जुलाई, 1940 के दिन अंग्रेजों ने भारत रक्षा कानून (डिफेंस ऑफ इंडिया ऐक्ट) के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया ।
बाद में हॉलवेल स्मारक को हटा दिया गया, पर बोस दिसंबर में तब तक कैद रहे जब तक उन्होंने भूख हड़ताल शुरू करने की धमकी नहीं दी । तब उनको बिना शर्त रिहा कर दिया गया पर लगातार निगरानी में रखा जाता रहा । इस बीच यूरोप में युद्ध जारी था और बोस का विश्वास था कि जर्मनी की जीत होगी ।
हालाँकि उनको जर्मनों का सर्वाधिकारवाद या नस्लवाद पसंद नहीं था, फिर भी वे यह विचार पालने लगे कि धुरी शक्तियों की सहायता से भारतीय स्वाधीनता के लक्ष्य को आगे बढ़ाया जा सकता है और वे इसकी विभिन्न संभावनाओं को टटोलने लगे ।
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अंतत: वे 16-17 जनवरी, 1941 की आधी रात को एक सरहदी मुसलमान का भेष लेकर अपने एलिग्न रोड, कलकत्ता के निवास से चुपके-से फरार हो गए । वे काबुल गए और फिर इतालवी पासपोर्ट लेकर रूस पहुँचे; मार्च के अंत तक वे जर्मनी पहुँच चुके थे ।
बर्लिन में सुभाष बोस हिटलर और गोयबेल्स से मिले, पर उन्हें उनसे कुछ खास मदद नहीं मिली । उन्हें अपना आजाद हिंद रेडियो शुरू करने की अनुमति दी गई और एक भारतीय दस्ता शुरू करने के लिए उत्तरी अफ्रीका में गिरफ्तार भारतीय युद्धबंदी उन्हें सौंप दिए गए पर उससे आगे कुछ भी नहीं ।
खास बात यह है कि वे भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में धुरी शक्तियों से कोई घोषणा नहीं करा सके, और स्तालिनग्राद में जर्मनों की पराजय के बाद यह काम और भी कठिन नजर आने लगा । लेकिन इस बीच दक्षिण-पूर्व एशिया में उनके लिए कार्रवाई का एक और मोर्चा तैयार हो रहा था जहाँ जापानी भारतीय स्वतंत्रता के ध्येय में वास्तविक रुचि ले रहे थे ।
जापान की वृहत्तर पूर्वी एशिया सह-समृद्धि क्षेत्र की नीति में मूलत: भारत का कोई स्थान नहीं था; इस नीति के अंतर्गत जापानी पश्चिमी साम्राज्यवाद से एशियावासियों को स्वतंत्रता दिलाने के वादे कर रहे थे । लेकिन 1940 तक जापान एक भारत नीति तैयार कर चुका था और अगले साल उसने प्रवासी भारतीयों से संपर्क करने के लिए मेजर फूजीवारा को दक्षिण-पूर्व एशिया में भेजा; ये भारतीय तब प्रीतम सिंह जैसे व्यक्तियों के नेतृत्व में अपने आपको भारतीय स्वतंत्रता समितियों (इंडियन इंडिपेंडेंस लीग) में संगठित कर रहे थे ।
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उसके बाद दिसबंर 1941 में कप्तान मोहनसिंह ने, जो ब्रिटिश भारतीय सेना की पंजाब रेजिमेंट के एक युवा अधिकारी थे और जिन्होंने मलाया के जगंलों में जापानियों के समक्ष समर्पण कर दिया था, फूजीवारा से सहयोग करके युद्धबंदियों की एक भारतीय सेना तैयार करने की हामी भरी, जो भारत को मुक्त कराने के लिए जापानियों के साथ-साथ आगे बढ़ती ।
जून 1942 में एक असैनिक राजनीतिक संगठन के रूप में एकजुट इंडिया इंडिपेंडेंस लीग का गठन हुआ, जो दक्षिण-पूर्व एशिया के सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती थी और उसे सेना पर नियंत्रण प्राप्त था । इस सगंठन की अध्यक्षता के लिए वृद्ध बंगाली क्रांतिकारी रासबिहारी बोस को हवाई जहाज से लाया गया जो तब जापान में रह रहे थे ।
सितंबर तक आजाद हिंद फौज का औपचारिक गठन हो गया । लेकिन जापानियों से उसका संबंध अभी भी संतोषजनक नहीं था, क्योंकि ”जापानी दोगलापन” अब हद से अधिक स्पष्ट हो चुका था । जापानी प्रधानमंत्री जनरल तोजो ने भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में डायट (जापानी संसद) में घोषणा की ।
लेकिन उससे आगे जापानी आजाद हिंद फौज को एक सहयोगी सेना मानने की बजाय एक अनुचर शक्ति ही मानने को तैयार थे । मोहनसिंह ने जब स्वतंत्रता और सहयोगी की स्थिति दिए जाने पर बल दिया तो उनसे कमान छीनकर उनको गिरफ्तार कर लिया गया ।
रासबिहारी बोस ने कुछ समय तक यह झंडा उठाए रखा पर वे इस काम के लिए काफी वृद्ध हो चुके थे । 1943 के आरंभ तक आजाद हिंद फौज का पहला प्रयोग लगभग पूरी तरह असफल हो चुका था । जैसा कि मोहनसिंह ने आकर जापानियों से कहा था, आजाद हिंद फौज के आंदोलन को एक नए नेता की आवश्यकता थी और भारत से बाहर केवल एक व्यक्ति नेतृत्व दे सकता था और वे थे सुभाषचंद्र बोस । जापानियों ने अब इस प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार किया और उनको एशिया में लाने के लिए जर्मनी से बातचीत की ।
आखिरकार पनडुब्बी में एक लंबी और कठिन यात्रा के बाद बोस 1943 के मई में दक्षिण-पूर्व एशिया पहुंचे तथा सहायता और बराबरी के व्यवहार के जापानी आश्वासन के बाद उन्होंने तुरंत नेतृत्व संभाल लिया । अक्तुबर में उन्होंने अस्थायी आजाद हिंद सरकार का गठन किया, जिसे जापान ने तुरंत तथा बाद में जर्मनी और फासीवादी इटली समेत आठ अन्य सरकारों ने मान्यता दे दी ।
वे ही उसकी आज़ाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति बनाए गए, जिसने 1945 तक कोई 40,000 व्यक्ति भरती किऐ और जिसमें 1857 की मशहूर वीरांगना लक्ष्मीबाई के नाम पर स्त्रियों की एक रेजिमेंट भी थी । इस अस्थायी सरकार ने ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की ।
और उसकी मुख्य इच्छा-जापानियों की एक सहयोगी सेना के रूप में-बर्मा से गुजरते हुए इंफाल (मणिपुर) और फिर असम में प्रवेश करने की थी, जहाँ आशा थी कि भारतीय जनता अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए खुला विद्रोह करके इस सेना से आ मिलेगी ।
लेकिन यह दुर्भाग्य से इंफाल अभियान, जिसे आजाद हिंद फौज की दो रेजिमेंटों के साथ जापान की दक्षिणी सेना ने 8 मार्च, 1944 को शुरू किया था एक विनाश के साथ समाप्त हुआ । जैसा कि जॉयस लेब्रा ने बताया हैं, इसके अनेक कारण थे: वायुसेना का अभाव, कमान की शृंखला का भंग होना, आपूर्ति के सिलसिले का बंद होना, मित्रराष्ट्रों के हमले का जोर और अंतिम बात यह कि आजाद हिंद फौज के साथ जापानियों के सहयोग का अभाव ।
पीछे की ओर वापसी और भी विनाशकारी थी और सैन्य मुहिम के द्वारा भारत को मुक्त कराने का सपना आखिरकार चूर हो गया । पर बोस फिर भी आशा लगाए रहे, फिर से कतारबंदी की बातें सोचते रहे, और जापानियों के समर्पण के बाद उन्होंने सोवियत संघ से मदद पाने की बात भी सोची । जापानियों ने उनका मंचूरिया तक ले जाने की हामी भरी, जिसके बाद वे रूस में जा सकते थे ।
लेकिन रास्ते में ही, 18 अगस्त, 1945 को, ताइवान के ताइहोकू हवाई अड्डे पर एक हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई । वैसे आज भी अनेक भारतीय नहीं मानते हैं कि उनकी मृत्यु हुई । अगर बर्मा की पोपा पहाड़ी में आखिरी साहसिक टकराव के बाद आजाद हिंद फौज का सैन्य अभियान समाप्त हो गया तो भारत में उसका राजनीतिक प्रभाव अभी तो सामने आने वाला था ।
समर्पण के बाद 20,000 आजाद हिंद फौजियो से पूछताछ हुई और उनको वापस भारत लाया गया । जिनके बारे में ऐसा लगा कि उनको जापानी या आजाद हिंद फौज के प्रचार ने भटकाया है-जिनको ”सफेद” और ”भूरे” में वर्गीकृत किया गया-उनको या तो रिहा कर दिया गया या सेना में बहाल कर लिया गया ।
लेकिन उनमें कुछ तो ऐसे थे ही-जिनको सबसे प्रतिबद्ध माना गया और ”काले” की श्रेणी में रखा गया-उनका कोर्ट मार्शल किया जाना था । उनपर मुकदमा न चलाना कमजोरी का सूचक होता और ”विश्वासघात” बरदाश्त करने पर भारतीय सेना की वफ़ादारी खतरे में पड़ जाती । इसलिए कुल मिलाकर दस मुकदमे चलाए गए ।
इनमें सबसे पहला और सबसे प्रसिद्ध मुकदमा दिल्ली के लाल किले में चलाया गया, जिसमें तीन अफसरों: प्रेमकुमार सहगल, गुरदयाल सिंह ढिल्लों और शाहनवाज खाँ-पर विश्वासघात, हत्या और हत्या के उकसावों के आरोप लगाए गए ।
यह मुकदमा सार्वजनिक रूप से चलाया गया, क्योंकि आशा थी कि इससे आजाद हिंद फौज के इन लोगों ने जो भयानक कांड किए थे वे सामने आते और सरकार आशा कर रही थी कि इस तरह जनमत उनके विरुद्ध हो जाएगा । लेकिन घटनाओं का चक्र जिस तरह आगे बढ़ा, उससे लगा कि आजाद हिंद फौज के मुकदमों के बारे में सरकार की आशा बुरी तरह निराधार थी ।
चूँकि युद्ध के बाद प्रेस सेंसरशिप को हटा दिया गया था, इसलिए आजाद हिंद फौज के अभियान के ब्यौरे प्रतिदिन भारतीय जनता के सामने आते रहे और ये अफसर किसी भी तरह गद्दार न लगकर उच्च कोटि के देशभक्त नजर आने लगे । इसलिए मुकदमे बंद करने की माँग दिन-ब-दिन जोर पकड़ती गई ।
कांग्रेसी नेता जिनमें से अनेक तो भारत छोड़ो आंदोलन में लंबी कैद काटकर अभी-अभी बाहर आए थे, इस मुद्दे को शायद ही अनदेखा कर सकते थे जो जनता की भावनाओं को गहराई तक छू रहा था । चुनाव पास थे और आज्ञाद हिंद फौज के मुकदमे एक शानदार मुद्दा बन सकते थे ।
सुभाषचंद्र बोस रहे होंगे विद्रोही नेता जिन्होंने कांग्रेस नेतृत्व की सत्ता को और उसके सिद्धांतों को ललकारा था । लेकिन मरकर वे एक शहीद देशभक्त हो चुके थे, जिनकी यादें राजनीतिक लामबंदी के लिए एक आदर्श साधन हो सकती थीं ।
इसलिए सितंबर 1945 में ए. आई. सी. सी. की बैठक ने मुकदमे के अभियुक्तों के- ”गुमराह देशभक्तों” के बचाव का निर्णय किया और एक बचाव कमिटी के गठन की घोषणा की जिसमें अपने समय के कुछ दिग्गज कानूनविद् शामिल थे, जैसे तेजबहादुर सप्रू, भूलाभाई देसाई, आसफ अली और जवाहरलाल नेहरू भी, जिन्होंने लगभग चौथाई सदी के बाद वकीलों वाला चोगा दोबारा पहना ।
बाद के दिनों में जब चुनाव अभियान आरंभ हुआ, तो नेहरू और दूसरे कांग्रेसी नेताओं ने भारी भीड़ वाली अनेक जन-सभाओं को संबोधित किया । इनमें दो मुद्दे प्रमुखता से उभरकर सामने आए एक तो सरकार की ज्यादतियों और 1942 के शहीदों का था और दूसरा आजाद हिंद फौज के मुकदमों का इसके बावजूद सरकार अपने रवैये पर अड़ी रही ।
पहला मुकदमा 5 नवंबर को शुरू हुआ और दो माह तक चला और इस अवधि में, जैसे कि बाद में नेहरू के शब्द थे भारत में एक ”जन-उभार” फूट पड़ा । उन्होंने स्वीकार किया, “जनता के अनेक अलग-अलग हिस्सों द्वारा ऐसी एकजुट भावनाएँ भारतीय इतिहास में पहले कभी व्यक्त नहीं की गई थीं ।” इस जन-उभार के अनेक कारण थे ।
यह मुकदमा लाल किले में चला, जिसे अंग्रेजों के साम्राज्यिक प्रभुत्व का सबसे प्रामाणिक प्रतीक समझा जाता था, क्योंकि आखिरी मुगल बादशाह और 1857 के विद्रोह के सर्व-स्वीकृत नेता बहादुरशाह ”जफर” पर 1858 में यहीं मुकदमा चलाया गया था ।
इसके अलावा, मुकदमा आगे बढ़ा तो प्रेस में उसकी रिपोर्टे छपने लगीं, जिससे आजाद हिंद फौजियों के बलिदानों के बारे में जागरूकता और बड़ी और कुछ हद तक भावनाएँ भी और भड़की । कांग्रेस समाजवादी पार्टी, अकाली दल, यूनियनिस्ट पार्टी, जस्टिस पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा आदि सभी राजनीतिक पार्टियों ने यहाँ तक कि मुस्लिम लीग ने भी मुकदमे बंद किए जाने की माँग की ।
प्रदर्शनी में स्वतंत्र रूप से कुछ साम्यवादियों ने भी उत्साह से भाग लिया जबकि उनकी पार्टी की प्रतिक्रिया ढुलमुल थी । फिर अजीब संयोग यह हुआ कि तीनों अभियुक्त तीन अलग-अलग धर्मों के थे: एक हिंदू एक सिख और एक मुसलमान ! इसलिए प्रदर्शनी में उल्लेखनीय सांप्रदायिक सद्भाव के चिह्न देखे गए ।
5 से 11 नवंबर तक आजाद हिंद फौज सप्ताह मनाया गया और देशभर के नगरों में 12 नवंबर को आजाद हिंद फौज दिवस मनाया गया । जीवन के सभी क्षेत्रों के व्यक्तियों ने इस अभियान में भाग लिया विरोध-सभाओं में शामिल हुए आजाद हिंद फौज राहत कोष में दान दिए दुकानों और दूसरे व्यापारिक प्रतिष्ठानों को बंद रखा और कुछ जगहों पर तो दीवाली भी नहीं मनाई ।
आंदोलन की लहर ने दूर-दराज स्थित स्थानों को भी छुआ, जैसे कुर्ग, बलूचिस्तान और असम को । 7 नवंबर को हिंसा भड़की जब मदुरै के एक विरोध-प्रदर्शन में शामिल भीड़ पर पुलिस ने गोलियाँ चलाई । फिर 21 और 24 नवंबर के बीच देश के विभिन्न भागों में हंगामे हुए; इनकी शुरूआत बोस के अपने नगर कलकत्ता से हुई ।
यहाँ सबसे पहले तो अमेरिकी और अंग्रेज सैनिक प्रतिष्ठानों पर हमले हुए, लेकिन फिर इन हंगामों ने एक आम अंग्रेज-विरोधी रंग पकड़ लिया, जब छात्र पुलिस से टकराए और बाद में उसमें हड़ताली टैक्सी चालक और ट्राम मजदूर भी शामिल हो गए । उन्होंने अभूतपूर्व सांप्रदायिक सद्भाव का प्रदर्शन किया और प्रदर्शनकारियों ने कांग्रेस लीग और कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे एक साथ लहराए ।
व्यवस्था तीन दिन बाद ही बहाल हो सकी: 33 के मरने और 200 लोगों के घायल होने के बाद । कलकत्ता के उपद्रव के बाद जल्द ही बंबई, कराची, पटना, इलाहाबाद, बनारस, रावलपिंडी में और दूसरी जगहों पर, या दूसरे शब्दों में पूरे देश में, ऐसे ही प्रदर्शन हुए । सरकार का दृढ़ निश्चय अब हिल गया ।
मुकदमे में बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि अपने देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले लोगों पर गद्दारी का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता । लेकिन उसके बाद भी उनके आरोपों के अनुसार उन्हें दोषी पाया गया लेकिन कमांडर-इन-चीफ ने उनकी सजाएँ रह करके उनको 3 जनवरी, 1946 को मुक्त कर दिया ।
ये तीनों अफसर लाल किले से बाहर निकले तो दिल्ली और लाहौर की जनसभाओं में उनका स्वागत शूरवीरों की तरह किया गया, और यह सब अंग्रेजों पर नैतिक विजय का जश्न था । लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं हुई । 4 फ़रवरी को एक और मुकदमे में कप्तान अब्दुर्रशीद को, जिन्होंने कांग्रेस की बजाय मुस्लिम लीग की एक बचाव कमिटी को प्राथमिकता दी थी, सात साल की कैद बा-मुशक्कत की सज़ा सुनाई गई ।
इसके कारण कलकत्ता में 11 और 13 फरवरी के बीच एक और तूफान उठा; इस बार आह्वान तो मुस्लिम लीग की छात्र शाखा ने किया था, पर बाद में उसमें साम्यवादी नेतृत्व वाले स्टूडेंट फेडरेशन के सदस्य और औद्योगिक मजदूर भी शामिल हो गए ।
प्रदर्शनों का सिलसिला एक बार फिर चला; कांग्रेस और लीग और कम्युनिस्टों के लाल झंडे एक बार फिर साथ-साथ लहराए और बड़ी-बड़ी सभाएँ हुई जिनको लीग साम्यवादी और कांग्रेसी नेताओं ने संबोधित किया । नगर में एक आम अंग्रेज विरोधी भावना व्याप्त थी और जनजीवन को परिवहन की हड़तालों औद्योगिक कार्रवाइयों और अंग्रेज फौजी दस्तों के साथ सड़कों पर जमकर हो रही मुठभेड़ों ने ठप कर रखा था । इस बार भी तीन दिन के निर्मम दमन के बाद व्यवस्था बहाल हुई, जिसमें 84 मारे गए और 300 घायल हुए ।
एक इतिहासकार के अनुसार जिसने एक छात्र नेता के रूप में इन प्रदर्शनों में भाग लिया था स्थिति ”क्रांति समान” लग रही थी । यह आग शीघ्र ही पूर्वी बंगाल में भी फैली और विद्रोह की भावना ने देश के दूसरे हिस्सों को भी प्रभावित किया जब देश के लगभग सभी बड़े नगरों में सहानुभूतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन और हड़तालों के आयोजन हुए ।
बहरहाल अंग्रेज 1945 के मध्य से ही भारत में एक उथल-पुथल की आशा करते आ रहे थे । लेकिन जिस बात ने उनको परेशान किया वह सेना की वफादारी पर आजाद हिंद फौज के मुकदमों का प्रभाव थी, और भारत छोड़ो आंदोलन के बाद तो यह सेना ही उनके शासन का एकमात्र विश्वसनीय सहारा थी ।
कमांडर-इन-चीफ जनरल आउचिनलेक ने आजाद हिंद फौज के तीन अफसरों की सजा रद्द कीं तो इसलिए कि, जैसा कि स्वयं उसने वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों के सामने स्पष्ट किया था, ”इन सजाओं को लागू करने की कोई भी कोशिश पूरे देश में अराजकता और संभवत: विद्रोह को भी जन्म देती, और सेना में असंतोष को भी जिसके कारण उसका विघटन हो जाता ।”
युद्ध के दौरान और बाद में सैन्यकर्मियों में बढ़ती राजनीतिक चेतना अधिकारियों के लिए पहले ही चिंता का विषय बनी हुई थी । उसमें और योगदान किया तो आजाद हिंद फौज के मुकदमों ने और उसके सैनिकों के प्रति बढ़ती सहानुभूति ने, जिनको लगभग पूरे देश में ”गद्दारों” की बजाय देशभक्त माना जा रहा था ।
विभिन्न केंद्रों में शाही भारतीय वायुसेना के मदस्यों और दूसरे सैन्यकर्मियों ने आजाद हिंद फौज राहत कोष में खुलेआम दान दिए और कुछ अवसरों पर तो पूरी वर्दी पहनकर विरोध सभाओं में शामिल हुए । जनवरी 1946 में वायुसेना के लोग अपने विभिन्न कष्टों को लेकर हड़ताल में उतरे ।
लेकिन अंग्रेजी राज के लिए सचमुच गंभीर खतरा पैदा किया फरवरी 1946 में शाही भारतीय नौसेना में हुए खुले विद्रोह ने । इन सबका आरंभ बंबई में 18 फरवरी को हुआ, जब एच. एम. आई. एस. तलवार के नौसैनिकों ने खराब भोजन और नस्ली भेदभाव के विरुद्ध भूख हड़ताल शुरू कर दी ।
यह विद्रोह शीघ्र ही पूरे भारत के नौसैनिक अड्डों तक फैल गया और समुद्र में खड़े कुछ जहाजों तक भी; हमदर्दी में इन जगहों पर हड़तालें हुई । हड़ताल जब अपने चरम अवस्था में पहुँची उसमें 78 जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20,000 नौसैनिक शामिल थे ।
सचमुच उल्लेखनीय बात थी नौसैनिकों और आम जनता के बीच भाईचारे की भावना जो उन थोड़े-से दिनों में भारत के विभिन्न नगरों में देखी गई; यह एक ऐसी घटना थी, जिसमें असीमित क्रांतिकारी क्षमता थी । सहानुभूति में 22 फरवरी को बंबई में हड़ताल हुई और वहाँ सार्वजनिक यातायात व्यवस्था चरमरा गई, सड़कों पर अवरोध खड़े किए गए, रेलगाड़ियाँ जलाई गई, दुकानें और बैंक बंद किए गए और औद्योगिक मजदूरों ने हड़ताल की ।
यहाँ भी नौसेना के विद्रोही जब तोड़फोड़ करते हुए शहर में घूम रहे थे, तो उन्होंने तीनों झंडे साथ-साथ लहराए । बंबई में शांति की स्थापना के लिए एक मराठा बटालियन बुलानी पड़ी । 25 फरवरी तक नगर फिर से शांत हो चुका था पर तब तक 228 नागरिक मारे जा चुके थे और 1,046 घायल हो चुके थे ।
ऐसी ही हड़तालें 23 फरवरी को कराची और 25 को मद्रास में हुई; इन दोनों शहरों में पुलिस की गोलाबारी में नौसैनिक और असैनिक, दोनों मरे । सहानुभूतिपूर्ण मगर कम हिंसक एकदिवसीय हड़तालों की खबरें तिरुचिरापल्ली और मदुरै से भी मिलीं; अहमदाबाद और कानपुर में मजदूरों की हड़तालें हुई ।
विभिन्न केंद्रों में शाही भारतीय वायुसेना और थलसेना के भी कुछ सैनिकों ने हड़तालें कीं । दूसरे शब्दों में, सरकार के पास चिंतित होने के लिए पर्याप्त कारण मौजूद थे । हालांकि नौसेना का विद्रोह अल्पकालिक ही रहा पर उसके नाटकीय मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़े ।
उससे भारतीय सेना में हालांकि तुरंत कोई खुला विद्रोह तो नहीं हुआ पर अब इसकी संभावना से कभी इनकार नहीं किया जा सकता था । बाद में एक सरकारी जाँच आयोग ने यह बात उजागर की कि ”अधिकांश नौसैनिक राजनीतिक चेतना से संपन्न” थे और आजाद हिंद फौज के प्रचार और आदर्शो से गहराई तक प्रभावित थे ।
वायुसेना और थलसेना में सहानुभूतिपूर्ण हड़तालों ने भी बहुत स्पष्ट संकेत दिए कि भारतीय सेना अब पहले जैसी ”दमन की धारदार तलवार” न थी, जिसका अंग्रेज 1942 जैसा जन-आंदोलन फिर से भड़कने पर पहले की तरह इस्तेमाल कर सकें ।
इस जानकारी ने अंग्रेजों को सत्ता के हस्तांतरण के पक्ष में अपनी नीति बदलने पर कहाँ तक विवश किया यह बात विवादास्पद है । कारण कि कांग्रेस, जो ऐसे किमी उभार को नेतृत्व दे सकने में समर्थ अकेला संगठन था, 1945-46 की घटनाओं की उग्र और हिंसक संभावना में कोई रुचि नहीं रखती थी ।
उनके नेतृत्व की दृष्टि में आजाद हिंद फौज के अफसर देशभक्त तो थे पर ”गुमराह” थे; जैसा कि कलकत्ता की एक सभा में सरदार पटेल ने घोषणा की कि, वे कांग्रेस में वापस तभी लिए जा सकते थे जब वे ”अपनी तलवारों को वापस म्यान” में रख दें ।
जब नौसेना में विद्रोह हुआ तो विद्रोहियों से अरुणा आसफ अली जैसे समाजवादियों को सहानुभूति थी, पर गांधी ने हिंसा की निंदा की और पटेल ने नौसैनिकों को समर्पण के लिए तैयार कर लिया । पटेल के लिए प्राथमिकताएँ स्पष्ट थीं: ”सेना के अनुशासन से छेडछाड नहीं की जा सकती… हमें स्वतंत्र भारत तक में सेना की आवश्यकता होगी ।
दूसरे शब्दों में, कांग्रेस के लिए संघर्ष के दिन अब समाप्त हो चुके थे; अब वह एक शासक दल के रूप में अपनी नई जीवनवृत्ति की ओर देख रही थी । कारण कि युद्ध के बाद हरेक के लिए यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि अंग्रेज देर-सवेर ही भारतवासियों को सत्ता सौंपना पसंद करेंगे ।
1945 के अंत में नेहरू जैसे नेता यह अनुमान लगा रहे थे कि ”अंग्रेज दो से पाँच साल के अंदर भारत छोड़ देंगे ।” इसलिए सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण की वार्ता चलाने का समय आ चुका था । लेकिन 1945-46 में कांग्रेस अगर एक और लड़ाई मोल लेने के लिए तैयार न थी, तो साम्यवादी अवश्य तैयार थे ।
कलकत्ता और बंबई की शहरी उथल-पुथल में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया; यहाँ वे औद्यौगिक मजदूरों के बीच अपना एक ठोस आधार बना चुके थे । इतना ही नहीं उन्होंने गरीब किसानों और बटाईदारों को साथ लेकर भारत के विभिन्न भागों में अब कुछ जुझारू किसान आंदोलन खड़े किए ।
मास्को में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की सातवीं कांग्रेस ने जब 1935 में भारत में संयुक्त मोर्चा की रणनीति के पक्ष में अपना मत दिया था, तभी से भारतीय कम्युनिस्ट कांग्रेस के माध्यम से काम करते आ रहे थे । बंगाल में ”भूतपूर्व नजरबंदों” ने जो कभी हिंसात्मक गतिविधियों के लिए गिरफ्तार किए गए थे, साम्यवादी प्रचार शुरू किया और बंगाल प्रांतीय किसान सभा पर कब्जा करने की कोशिश की ।
उस सगंठन के माध्यम से उन्होंने उत्तरी पूर्वी और मध्य बंगाल में किसानों को उग्र खेतिहर मुद्दों पर लामबंद करने की कोशिश की, जो यूनियन बोर्डो द्वारा गाँवों की हाटों पर वसूल किए जाने वाले करों के सवाल पर, जमींदारों द्वारा लगाए गए गैर-कानूनी महसूलों (अबवाब) के सवाल पर, जमींदारी व्यवस्था के उन्मूलन और अंत में उपज के दो-तिहाई हिस्से की बटाईदारों की माँग पर विरोध कर रहे थे ।
1940 तक बंगाल प्रांतीय किसान सभा लगभग पूरी तरह साम्यवादियों के कब्जे में आ चुकी थी और इसकी सदस्यता तीन साल पहले के मात्र 11,000 से बढ़कर 34,000 हो चुकी थी । 1942 में कम्युनिस्ट पार्टी पर से प्रतिबंध हटा तो साम्यवादी गतिविधियों और किसानों की लामबंदी में और भी तेजी आई ।
हालाँकि भारत छोड़ो आंदोलन ने अस्थायी रूप से उनकी हवा निकाल दी थी, पर लगता नहीं कि बंगाल प्रांतीय किसान सभा की लोकप्रियता प्रभावित हुई हो; मई 1943 तक उसमें 1,24,872 सदस्य हो गए । 1943 के मध्य तक और उसके बाद भी साम्यवादियों की लोकप्रियता का एक कारण संभवत: उस साल बंगाल के विनाशकारी अकाल का प्रभाव था ।
अमर्त्य सेन ”बंगाल के अकाल में मौतों की संख्या को लगभग 30 लाख बतलाने की ओर प्रवृत्त” दिखाई देते हैं । पॉल ग्रीनफ ने इसे ”35 और 38 लाख के बीच” बताया है, जबकि टिम डाइसन और अरूप महारत्न के और भी हाल के अनुमान के अनुसार बंगाल के अकाल से मरने वालों की संख्या 21 लाख थी ।
अगर हम सबसे अनुदार अनुमान को लें तो भी यह अकाल इतना विनाशकारी था कि इस उपमहाद्वीप के इतिहास ने ऐसा विनाश पहले कभी नहीं देखा था । बंगाली जनमत इस बात पर सहमत था कि यह अकाल ”मानव-निर्मित” है ।
कुछेक प्राकृतिक कारण अवश्य थे, जैसे मेदिनीपुर का विनाशकारी चक्रवात पर अकाल केवल उन्हीं की पैदावार नहीं था । जैसा कि ग्रीनफ ने दिखाया है, बंगाल में चावल की प्रति व्यक्ति पात्रता (entitlement) एक लंबे अरसे से धीरे-धीरे गिरती आ रही थी ।
1943 में अनेक कारणों के चलते यह एक संकट की सीमा तक पहुंच चुकी थी, जैसे चावल की पहले से ही कमजोर विपणन व्यवस्था का चरमरा जाना, जो लंबे समय तक पूरी तरह निगरानी और नियंत्रण से मुक्त रही और इस तरह जमाखोरी और कालाबाजारी का बोलबाला हुआ ।
इसे बढ़ावा दिया सरकार की खरीद नीति ने जो जीवन-निर्वाह की स्थानीय आवश्यकताओं पर सरकारी और सैन्य जरूरतों को प्राथमिकता देती थी और बढ़ावा दिया ”वंचित करो” की नीति जैसे युद्धकालीन दबावों ने, चटगाँव में बर्मा से आ रहे शरणार्थियों की भीड़ ने और बर्मा से आयातित चावल के अलोप ने ।
राहतकार्य बुरी तरह असफल रहे; जहाँ सरकार गाँवों की कीमत पर कलकत्ता को बचाने की कोशिश कर रही थी वहीं मारवाड़ी राहत समिति और हिंदू महासभा की राहत समितियों ने केवल मध्यवर्गो तक अपने को सीमित रखा । किसानों के पास जो अकाल से सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए कहीं कोई आसरा नहीं था ।
यह सच है, कि चावल के आसमान छूते दामों ने जो साधारण जनता की पहुँच से बाहर हो चुका था खाद्यान्न की जो असाधारण दुर्लभता पैदा की उसके कारण बंगाल में कोई अनाज दंगा नहीं हुआ । उसकी बजाय जैसा कि ग्रीनफ़ का तर्क है, हिंसा ”अंदर” और ”नीचे” की ओर मुड़ गई तथा संरक्षण और निर्भरता के समान परंपरागत संबंधों को नष्ट करने लगी ।
खाद्य की स्थिति पर साम्यवादियों की प्रतिक्रिया उचित थी । बंगाल के विभिन्न भागों में सभाएँ करके उन्होंने सरकार की खाद्य नीति की आलोचना की तथा बंगाल प्रांतीय किसान सभा और महिला समितियों के माध्यम से प्रेसीडेंसी और राजशाही डिवीजन के अर्थात् उत्तरी और मध्य बंगाल के गाँवों में व्यापक राहतकार्य चलाए, जहाँ गरीब किसानों और: बटाईदारो में वे तुरंत लोकप्रिय हो गए ।
1943 में बंगाल प्रांतीय किसान सभा की सदस्यता 83,160 तक जा पहुँची, जो देश की सभी प्रांतीय किसान सभाओं में सबसे अधिक थी । हालाँकि वे इस चरण में जनयुद्ध की रणनीति के अंतर्गत एक नरम नीति को प्राथमिकता दे रहे थे पर फिर भी गरीब किसानों की भागीदारी ने प्राय: किसान सभा का टकराव जमींदारों अनाज के थोक विक्रेताओं और दूसरे निहित स्वार्थो से कराया ।
इसके कारण उपज में परंपरागत आधे की जगह दो-तिहाई भाग के लिए बटाईदारों की पुरानी माँग के आधार पर तेभागा आंदोलन के लिए धीरे-धीरे परिस्थिति तैयार हुई । युद्ध के अंत के बाद बढ़ते जन-असंतोष के बीच कम्युनिस्ट पार्टी भी अपना रुख बदलने लगी और उसने एक अधिक जुझारू रूप अपना लिया ।
5 अगस्त, 1946 को पारित एक प्रस्ताव में उसने घोषणा की कि ”भारत का स्वतंत्रता आंदोलन अंतिम चरण में प्रवेश कर चुका है ।” इसलिए आवश्यकता है तो ”जनता के लिए समस्त सत्ता” सुनिश्चित करने वाली एक ”राष्ट्रीय जनवादी क्रांति” को संपन्न करने के लिए ”सभी देशभक्त दलों के एक संयुक्त मोर्चे” की ।
इसी पृष्ठभूमि में सितंबर 1946 में बंगाल प्रांतीय किसान सभा ने तेभागा आंदोलन शुरू करने का निर्णय किया, जो जल्द ही एक बड़े क्षेत्र में फैल गया । किसान धान काटकर अपने खमार (खलिहान) तक ले जाने लगे और फिर जमींदारों को बुलाने लगे कि आकर अपना एक-तिहाई हिस्सा ले जाएँ ।
बटाईदारों के इस आंदोलन से हालाँकि उत्तरी बंगाल के जिले सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए पर, जैसा कि एड्रीन कूपर ने दिखाया है, आम धारणा के विपरीत तेभागा आंदोलन ने एक अधिक व्यापक क्षेत्र को भी प्रभावित किया तथा पूर्वी मध्य और पश्चिमी बंगाल के लगभग हर जिले को समेटा ।
यहाँ किसानों ने अपने तेभागा इलाके, (मुक्त अंचल) बना लिए, जहाँ उन्होंने वैकल्पिक प्रशासन और मध्यस्थता के न्यायालय स्थापित किए । तब बंगाल में सत्ताधारी मुस्लिम लीग सरकार ने प्रतिक्रियास्वरूप जनवरी 1947 में एक बरगादार विधेयक लाने का प्रस्ताव किया जिसमें लगता था कि बरगादारों (बटाईदारों) की माँग मान ली जाएगी, पर मुस्लिम लीग के अंदरूनी विरोध और कांग्रेस के विरोध के कारण इसका इरादा जल्द ही छोड़ दिया गया ।
फ़रवरी के बाद आंदोलन तेजी से फैलने लगा और सरकार की उसपर उग्र प्रतिक्रिया रही । किसानों ने पुलिस दमन का बहादुरी से सामना और जमींदारों के लठैतों का मुकाबला किया, पर जल्द ही यह लड़ाई इतनी असमान हो गई कि बंगाल प्रांतीय किसान सभा ने पीछे हटने का फैसला किया हालाँकि कुछ इलाकों में किसानों ने अपने नेताओं के बिना भी लड़ाई जारी रखने का फैसला किया ।
इस किसान आंदोलन में पहले के किसान आंदोलन की कुछ विशेषताएँ देखी जा सकती हैं जैसे सामुदायिक संबंधों की शक्ति । ये बटाईदार मुख्यत: आदिवासी और दलित समुदायों के थे जैसे राजबंसी और नामशूद्र समुदायों के और किसान सभा ने अपना संगठन ऐसे ही सामुदायिक ढाँचों पर खड़ा किया था ।
लेकिन सुगत बोस ने उपनिवेश के अंत-काल के इस आंदोलन को आर्थिक वर्गीय चेतना से, वैयक्तिक अधिकारों संबंधी सरोकारों से और आर्थिक मुद्दों की प्रभुता से लैस पाया है, जो अकसर पुरानी सामुदायिक वफादारियों को पलीता लगा देते थे; उदाहरण के लिए, राजबंसी और मुसलमान बटाईदार अकसर राजबंसी और मुस्लिम जोतदारों पर भी हमले करने से झिझकते नहीं थे ।
लेकिन यह कोई क्रांतिकारी आंदोलन भी नहीं था, जो जोतनेवालों के लिए जमीन के दावे करता, जो किसानों के विभिन्न वर्गों के एक नाजुक गठबंधन को कायम रखनेवाला एक दूर का लक्ष्य ही बना रहा । यह एक आंशिक आंदोलन था, जो बटाईदारों की माँग को प्रमुखता देता था ।
इसलिए इसमें बड़ी संख्या में बटाईदारों और गरीब किसानों ने ही भाग लिया; मंझोले किसान इसे समर्थन दे रहे थे और उन्होंने कभी-कभी इसका नेतृत्व भी किया । बंगाल कृषि संबंधों पर इसका दूरगामी प्रभाव पड़ा । लेकिन सबसे बड़ी बात यह थी कि उसने यह दिखा दिया कि सांप्रदायिक दंगों के कारण पहले से ही दूषित एक राजनीतिक वातावरण में भी किसान धर्म की खाई को फाँदकर हाथ मिलाने में समर्थ थे ।
मगर यह बात भी सही है कि दूसरे अवसरों पर इन्हीं किसानों ने सांप्रदायिक दंगों में भाग लिए । इस तरह वर्ग और समुदाय किसानों की चेतना और पहचान में इतने अधिक गुँथे हुए थे कि विश्लेषण के स्तर पर एक को दूसरे से अलग करना कठिन है ।
निरंतरता के ऐसे तत्त्व इस बात का संकेत देते हैं कि किसानों के ये प्रत्युत्तर उपनिवेशकालीन कृषक इतिहास में किसी गंभीर मोड़ के सूचक होने से अधिक सामयिक थे और उनकी त्वरित शिकायतों, वैचारिक मध्यस्थता और ऐतिहासिक वातावरण से अधिक प्रेरित थे ।
यह एक ऐसा प्रकार है जिसे हम साम्यवादी नेतृत्व वाले दूसरे किसान आंदोलनों में भी देखेंगे । पश्चिमी भारत में महाराष्ट्र किसान सभा ने ठाणे जिले के अंबरगाँव और दहानू तालुकों के वर्ली आदिवासी खेत मजदूरों के मुद्दे को उठाया ।
उनकी मुख्य शिकायत जिन दिनों युद्ध के कारण रोजमर्रा की जरूरतों की वस्तुओं के दाम बढ़ रहे थे व उन दिनों भी भूस्वामियों और सूदखोरों के लिए किए जाने वाले बेगार (वेट्ट) के विरुद्ध थी । 1944 में अंबरगाँव के वर्ली आदिवासियों ने घास काटने और पेड़ गिराने जैसे खेतिहर कामों के लिए प्रतिदिन 12 आने ( 1 रुपया=16 आने) की न्यूनतम मजदूरी की माँग को लेकर एक असफल हड़ताल की थी ।
हड़ताल तो असफल रही, पर उसके बाद किसान सभा ने वर्लियों को संगठित करना शुरू कर दिया और मई 1945 में एक सम्मेलन में उसने बेगार के खात्मे और 12 आने की दैनिक मजदूरी के सवाल पर एक अधिक लंबा आंदोलन चलाने का फैसला किया ।
यह आंदोलन अंबरगाँव तालुका में तेजी से फैला, जहाँ बेगार बंद हो गया और बंधुआ मजदूर स्वतंत्र करा दिए गए, और उसके बाद यह पास के दहानू तालुका में फैला, जहाँ ऐसे ही परिणाम निकले । अक्तूबर में जब घास-कटाई का मौसम आया तो आंदोलन का दूसरा चरण शुरू हुआ, जब किसान सभा ने पाँच सौ पाउंड घास की कटाई के लिए न्यूनतम दो से आठ रुपए की मजदूरी की माँग पर एक हड़ताल का आह्वान किया । भूस्वामियों ने धमकियों अदालती मुकदमों और जिला प्रशमन से मदद की अपीलों के रूप में जवाब दिया ।
11 अक्तूबर की एक घटना में जब पुलिस ने एक शांतिपूर्ण सभा पर गोली चलाई, तो उस लाल झंडे को ऊँचा रखते हुए पाँच वर्ली जान से हाथ धो बैठे, जो अब उनकी एकता का प्रतीक और उनकी मुक्ति का चिह्न बन चुका था । हड़ताल लगभग सफल रही और सभी तो नहीं परंतु अधिकांश जमींदारों को हड़ताल ने उनकी माँगे मानने के लिए मजबूर कर दिया ।
अक्तूबर 1946 में आंदोलन फिर शुरू हुआ इस बार जंगलाती कामों के लिए प्रतिदिन सवा रुपए की न्यूनतम मजदूरी की एक अतिरिक्त माँग की गई थी, जिसे देने के लिए इमारती लकड़ी का कंपनियाँ तैयार न
थीं । यह लगभग पूरी तरह शांतिपूर्ण हड़ताल एक माह से अधिक जारी रही और आखिरकार 10 नवंबर को किसान सभा से एक समझौता करके टिंबर मर्चेट्स एसोसिएशन न्यूनतम मजदूरी देने पर तैयार हो गया ।
इस तरह आंदोलन का समापन वर्ली आदिवासियों की भारी जीत के साथ हुआ जिनको विशेष आर्थिक कष्टों के आधार पर किसान सभा ने लामबंद कर रखा था । पर इसका अर्थ यह नहीं था कि उनकी सामुदायिक पहचान की कुछ कम भूमिका रही ।
वैसे लाल झंडा अब एक जादुई महत्त्व प्राप्त करके उनकी कबीलाई एकजुटता का एक नया चिह्न बन चुका था । दक्षिण में 1940 के दशक के आरंभ में ही साम्यवादी उत्तरी मलाबार के गाँवों में उन दिनों अपने पैर जमा चुके थे और किसान संगठनों पर अपना निर्विवाद प्रभुत्व स्थापित कर चुके थे जब यह इलाका खाद्यान्नों की भारी कमी और लगभग अकाल जैसी दशाओं से त्रस्त था ।
जनयुद्ध के दौर में उन्होंने एक नरम रवैया अपनाया, खेतिहर संबंधों को नए सिरे से तय करने की कोशिश की और वह चीज तैयार करने की कोशिश की, जिसे दिलीप मेनन ने ”जमींदारों और खेतिहरों का एक हवाई समुदाय” कहा है ।
लेकिन युद्ध के बाद के तनाव और दुर्लभता के संदर्भ में यह नाजुक समझौता 1946 में भंग हो गया, जब जमींदारों ने अनाज रूप में लगान की वसूली लगान न दे सकने वाले किसानों की बेदखली और परती जमीनों और जंगलों पर अपने अधिकारों कें दावे के लिए एक अधिक हमलावर रुख अपनाया । इस चरण में केरल की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी किसानों के पक्ष में एक अधिक जुझारू लाइन अपनाने की अनुमति दे दी ।
यह आंदोलन बंगाल जितना हिंसक कभी नहीं रहा लेकिन 1946-47 के पूरे काल में किसान स्वयंसेवकों ने जमींदारों और मलाबार स्पेशल पुलिस का मुकाबला दुर्लभता के काल में लगानों की वसूली रुकवाने के, अधिक मुनाफे के लिए खुले बाजार में चावल की बिक्री रुकवाने के, और परती जमीनों को खेती के अंतर्गत लाने के उद्देश्य से किया ।
साम्यवादियों के नेतृत्व में सबसे हिंसक जनविद्रोह और भी दक्षिण में स्थित रजवाड़ा त्रावणकोर में, औद्योगिक नगर अलेप्पी के पास पुन्नप्रा-वायलर में, अक्तूबर 1946 में फूटा । यहाँ पहले विश्वयुद्ध के बाद नारियल रेशा उद्योग के विकास के कारण एक बड़ा मजदूर वर्ग अस्तित्व में आया और 1940 के दशक के मध्य तक साम्यवादी नेतृत्व में वह यूनियन में संगठित हो चुका था ।
रजवाड़े की सरकार ने अंग्रेजों की आसन्न वापसी को देखते हुए 1946 में एक अलोकतांत्रिक संविधान थोपकर त्रावणकोर को स्वाधीन जताने की कोशिशें शुरू कर दीं; यह संविधान कथित रूप से ”अमेरिकी मॉडल” पर आधारित था ।
जहाँ स्थानीय कांग्रेस दीवान के प्रति नर्म दिखाई देती थी, वहीं कम्यूनिस्ट पार्टी ने इसे एक मुद्दा बनाने का फैसला किया । चूँकि इस स्थिति के साथ ही अनाजों की दुर्लभता भी सामने आई और नारियल रेशा उद्योग में तालाबंदी हो गई, इसलिए मजदूर हताश थे, और खेत मजदूरों, मल्लाहों, मछुआरों और दूसरे विभिन्न निम्न व्यावसायिक समूहों ने उनका साथ दिया ।
24 अक्तूबर को उन्होंने पुन्नप्रा में एक पुलिस चौकी पर हमला किया जब तीन पुलिसवाले मारे गए और उसके बाद हिंसा तेजी के साथ दूसरे क्षेत्रों में फैल गई । सरकार ने अगले दिन जवाबी कार्रवाई की और सेना ने हमले करके वायलार के एक शिविर में 150 और मेनेसरी में 120 साम्यवादी स्वयंसेवकों को मार डाला ।
फिर आंदोलन तेजी से समाप्त हो गया क्योंकि साम्यवादी नेतृत्व भूमिगत हो गया और दमन शुरू हो गया । रॉबिन जेफ्री का तर्क है कि ”इस विद्रोह का सामुदायिक या जातिगत मुद्दों से कुछ भी लेना-देना नहीं था” और यह एक ”संगठित और अनुशासित मजदूर वर्ग की पैदावार” था ।
लेकिन यह सच्चाई अपनी जगह कायम रहती है कि लगभग 80 प्रतिशत प्रशिक्षित भागीदार निम्न स्तर की, मगर सामाजिक स्तर पर संगठित, एझवा जाति के थे और इस बात ने विद्रोहियों में निश्चित ही एकजुटता पैदा की । साम्यवादी नेतृत्व में सबसे लंबा और सबसे अतिवादी किसान आंदोलन 1946 के मध्य के बाद दक्षिण के एक और रजवाड़े हैदराबाद में शुरू हुआ ।
यहाँ निजाम के निरंकुश शासन के तहत खेतिहर संबंध डी. एन. धनगरे के शब्दों में, ”मध्यकालीन सामंती इतिहास के एक पन्ने” से मेल रखता है जिसमें ग्रामीण समाज पर जागीरदारों पट्टेदारों (भूस्वामियों), देशमुखों और देशपांडेयों (मालगुजारी के अमीनों) का पूरा-पूरा वर्चस्व था ।
इसके अलावा, कृषि के व्यवसायीकरण और नकदी फसलों के प्रचलन के कारण साहूकारों (सूदखोरों) का दौर आया, जमीनों का स्वत्वहरण बढ़ा और खेत मजदूरों की संख्या बड़ी । खासकर 1940 के दशक के दौरान मंदी के दौर से ही गिरते दामों की गिरावट जारी रहने के कारण छोटे भूस्वामी पट्टेदार और धनी किसान भी प्रभावित हुए, जबकि गरीब किसान बेगार (वेट्टी) की दमनकारी प्रथा और युद्ध-पश्चात काल की अनाजों की दुर्लभता से त्रस्त थे ।
इससे एक हथियारबंद किसान विद्रोह का आधार तैयार हुआ; यह विद्रोह तेलंगाना में, अर्थात् हैदराबाद के आठ तेलुगूभाषी जिलों में चला और पास में ब्रिटिश अधिकार-क्षेत्र की मद्रास प्रेसीडेंसी का आंध्र डेल्टा इसके लिए एक सुरक्षित आधार का काम कर रहा था ।
यहाँ साम्यवादियों ने 1930 के दशक के मध्य से ही, तेलंगाना आंध्र कॉन्फ़्रेंस और डेल्टा क्षेत्र आंध्र महासभा जैसे मोर्चा संगठनों के माध्यम से किसानों को लामबंद करना शुरू कर दिया था । आंदोलन का आरंभ जुलाई 1946 में नालगोंडा जिले में, एक बदनाम जमींदार पर हमले के साथ शुरू हुआ और महीने भर के अंदर नालगोंडा, वारंगल और खम्मम जिलों के एक व्यापक क्षेत्र मैं फैल गया ।
इस आंदोलन की अनेक माँगे थीं, क्योंकि उनका उद्देश्य कम्युनिस्ट नेतृत्व के छोटे कम्मा और रेड्डी पट्टेदार और धनी किसान नेतृत्व तथा गरीब, अछूत माला, माडिगा और आदिवासी किसानों व भूमिहीन मजदूरों के बीच एकवर्गीय गठबंधन तैयार करना था जो आंदोलन में धीरे-धीरे खिंचते आ रहे थे ।
इन माँगों में मजदूरी में वृद्धि, वेट्टी के उन्मूलन, गैर-कानूनी वसूलियों पर प्रतिबंध, बेदखलियों पर प्रतिबंध, और हाल में आरोपित अनाज लेवी का खात्मा जैसी माँगे शामिल थीं । लेकिन इस आरंभिक चरण में आंदोलन कम संगठित और अधिक ”ऐंठनदार” प्रकृति का था ।
जुलाई 1947 में निजाम ने घोषणा की कि अंग्रेजों के जाने के बाद हैदराबाद स्वतंत्र रहेगा और भारतीय संघ में शामिल नहीं होगा । इसका अर्थ सड़े-गले मध्यकालीन शासन का जारी रहना था । इसलिए स्थानीय कांग्रेस ने एक सत्याग्रह के आरंभ का निर्णय किया और मतभेदों के बावजूद साम्यवादी उसमें शामिल होकर रजवाड़े के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय ध्वज लहराते रहे ।
लेकिन यह गठबंधन जल्द ही भंग हो गया, क्योंकि आंदोलन किसी दिशा में बढ़ नहीं रहा था, जबकि अल्पसंख्यक मुस्लिम कुलीनों के संगठन मजलिस इत्तेहादुल-मुसलमीन ने अब रजाकारों के अपने हथियारबंद दस्ते बना लिए और उन्होंने निजाम के समर्थन से तेलंगाना के गाँवों में आतंक-राज कायम कर दिया ।
दमन का सामना करने के लिए अब साम्यवादी नेतृत्व में किसान अपने स्वयंसेवक छापामार दस्ते (दलम्) बनाने लगे, बड़े जमींदारों की परती और फालतू जमीनों पर कब्जा करके उनका पुनर्वितरण करने लगे, और उन्होंने मुक्त समझे जा रहे अंचलों में ग्राम पंचायतें या ”सोवियतें” बना लीं ।
13 दिसंबर, 1948 को भारतीय सेना जब हैदराबाद में घुसी, तो उसका उद्देश्य निजाम के स्वतंत्रता के सपने को चूर करना था और उसकी सेना पुलिस तथा रजाकार दस्तों ने तुरंत समर्पण कर दिया । पर यह तेलंगाना के विद्रोह का अंत नहीं था जो अब अपने दूसरे चरण में प्रवेश कर गया था ।
कारण कि कुछ अंदरूनी विरोध के बावजूद कम्युनिस्ट पार्टी ने संघर्ष को जारी रखने का फैसला किया और उसे भारत में जनता की जनवादी क्रांति का आरंभ कहा जाने लगा । भारतीय सेना ने कम्युनिस्ट छापामारों के विरुद्ध भी अपनी ”पुलिस कार्रवाई” शुरू की और यह असमान संघर्ष अक्तूबर 1951 में आंदोलन की औपचारिक वापसी तक चला ।
उपनिवेशी भारत के इतिहास में तेलंगाना आंदोलन संभवत: सबसे व्यापक सबसे तीव्र और सबसे संगठित किसान आंदोलन था । एक अनुमान के अनुसार इस आंदोलन में ”लगभग 16,000 वर्गमील क्षेत्रफल में मोटे तौर पर 30 लाख आबादी वाले लगभग 3000 गाँवों” के किसान शामिल थे ।
उसने ग्रामीण दलों के लगभग 10,000 सदस्यों को लामबंद किया लगभग 2,000 छापामार दस्ते बनाए और लगभग दस लाख एकड़ जमीन का पुनर्वितरण किया । लगभग 4,000 कम्युनिस्ट कार्यकर्ता या किसान स्वयंसेवक मारे गए, जबकि लगभग 10,000 कैद किए गए तथा और भी कई हजार लोगों को परेशान किया गया या यातनाएँ दी गई ।
उसका पैमाना ही यह बात स्पष्ट कर देता है कि इन आँकडों से जितने का संकेत मिलता है, आंदोलन में उससे अधिक जटिलताएँ थीं । धनगरे ने दिखाया है कि यह आंदोलन बहुत व्यापक वर्गीय और सामुदायिक संगठनों पर आधारित था जो अकसर कमजोर साबित होते थे ।
जमीनों पर कब्जे के आरंभ के बाद वर्गीय गठबंधन चरमराने लगा और जमीनों की हदबंदी का सवाल धनी किसानों के पक्ष में तय किया गया । जमीनों पर कब्जे के बारे में भी अमीनों को फालतू जमीनों से अधिक उत्साह शामिलाती जमीनों, परती जमीनों और जंगलों पर कब्जे को लेकर था ।
हालाँकि भागीदारों में एक अच्छा-खासा भाग दलित समुदायों का था, पर जैसा कि गल ओंवेट का दावा है, उनकी मुख्यत: ”एक गौण भूमिका” रही, क्योंकि कम्यूनिस्ट नतृत्व लगभग जानबूझकर जातिगत दमन और छुआछूत के मुद्दों को अनदेखा करता रहा ।
साम्यवादियों और किसान सभाओं द्वारा संगठित इन सभी किसान आंदोलनों में किसानों की स्वतंत्र पहल के साक्ष्य मिलते हैं; या तो मध्यवर्गीय नेताओं के आने से पहले कार्रवाइयाँ करने में या इन नेताओं के सावधानी संबंधी निर्देशों का उल्लंघन करने में ।
इसलिए इन टकरावों से संकेत मिलता है कि युद्ध के बाद भारत में किसानों के लगभग सभी वर्गों में व्यापक जन-असंतोष था जिसे कुछ विशेष क्षेत्रों में ही सही, कम्युनिस्ट पार्टी ने दिशा देने का निर्णय किया । और अगर किसान बेचैन थे, तो मजदूर वर्ग भी मुद्रास्फीति और युद्ध के बाद की छँटनी के कारण असंतुष्ट हो चुका था ।
भारतीय उद्योगों में हड़तालों की लहर 1946 में अपने चरम पर पहुँची, जब एक करोड़ बीस लाख से अधिक कार्य-दिवसों की हानि हुई और यह आँकड़ा पिछले साल के आँकड़े के तीन गुने से अधिक था । उद्योगों के अलावा मजदूरों ने डाक-तार विभाग, दक्षिण भारतीय रेलवे और पश्चिमोत्तर रेलवे में भी हड़ताल कीं ।
लेकिन बेचैनी के इस आम माहौल ने किसी राष्ट्रव्यापी जन-आंदोलन को जन्म नहीं दिया । पर इसका यह अर्थ नहीं कि विद्रोह के ये सभी उदाहरण निरर्थक थे या कि हजारों लोगों की कुरबानी बेकार गई । युद्ध के बाद यह बात स्पष्ट हो गई कि अंग्रेज भारत से अब जाने ही वाले हैं । लेकिन कोई यह तर्क भी दे सकता है कि वह फैसला एक बड़ी हद तक इस विक्षोभ के वातावरण से प्रेरित था ।
यह बात अब अधिकाधिक महसूस की जा रही थी कि अंग्रेजों के लिए एक जन-विद्रोह से निबटना या ताकत के बल पर साम्राज्य से चिपके रहना अब अधिक कठिन होगा, क्योंकि असंतोष अब सेनाओं में भी पनपने लगा था । इसलिए सत्ता के सुव्यवस्थित हस्तांतरण की बात चलाने की इच्छा अब बढ़ी, ताकि भारत कम से कम राष्ट्रमंडल में बना रहे तथा ब्रिटेन के आर्थिक और राजनीतिक हित सुरक्षित रहें ।