भारत पर तुर्क आक्रमण के प्रभाव | Effects of Turk Invasion of India in Hindi.
मुस्लिम आक्रमण के समय भारत में एक बार पुन: विकेन्द्रीकरण तथा विभाजन की परिस्थितियाँ सक्रिय हो उठी थीं । इस समय देश की स्थिति वैसी ही थी जैसी कि किसी भी शक्तिशाली साम्राज्य के पतन के बाद हो जाती है ।
स्वदेशी शक्तियों के साथ ही साथ मुल्तान तथा सिन्ध के भागों में दो विदेशी राज्य भी स्थापित हो चुके थे । सम्पूर्ण देश अनेक छोटे-बड़े राज्यों में विभक्त था जो एक दूसरे के मूल्य पर अपनी शक्ति एवं साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे ।
आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुहम्मद-बिन-कासिम के नेतृत्व में सिन्ध पर जो अरब-आक्रमण हुआ था उसका कोई स्थायी परिणाम नहीं हुआ । अरबों का राज्य सिन्ध और मुल्तान के पूर्व में नहीं फैल सका तथा उनकी शक्ति शीघ्र ही क्षीण हो गई । उनके इस अधूरे कार्य को तुर्कों ने पूरा किया ।
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तुर्क, चीन की उत्तरी-पश्चिमी सीमाओं पर निवास करने वाली एक असभ्य एवं बर्बर जाति थी । जब अरब के उमय्यावंशी शासकों ने इस्लाम धर्म का प्रचार मध्य एशिया की ओर किया तो तुर्क भी इस्लाम धर्म के सम्पर्क में आये । वे अत्यन्त खूँखार एवं लड़ाकू होते थे । उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया तथा इसका प्रचार पूरे जोर-शोर के साथ करने में जुट गये । उनका उद्देश्य एक विशाल मुस्लिम-साम्राज्य स्थापित करना था ।
प्रारम्भिक आक्रमण:
भारत में सबसे पहले जो तुर्क आक्रमणकारी आये, वे गजनी के शासक-कुल से सम्बन्धित थे । 962 ईस्वी में अलप्तगीन नामक एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने गजनी में एक स्वतन्त्र तुर्की राज्य की स्थापना की उसके दामाद सुबुक्तगीन ने उसके वंश का अन्त कर 977 ईस्वी में राजगद्दी हथिया ली ।
वह एक शक्तिशाली शासक था जो भारत पर आक्रमण की योजनायें तैयार करने लगा । पंजाब के हिन्दू शासक जयपाल ने उसकी योजनाओं को प्रारम्भ में ही विफल कर देने के उद्देश्य से 986-87 ईस्वी में एक बड़ी सेना के साथ गजनवी पर आक्रमण कर दिया ।
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कई दिनों तक भीषण युद्ध चलता रहा तथा किसी भी पक्ष की विजय न हो सकी । परन्तु दुर्भाग्यवश भारी वर्षा तथा हिमपात से भारतीय सैनिकों का उत्साह भंग हो गया जिसके फलस्वरूप जयपाल को अत्यन्त अपमानजनक सन्धि करनी पड़ी ।
इतने के रूप में जयपाल ने सुबुक्तगीन को 50 हाथी तथा कुछ प्रदेश देने का वचन दिया परन्तु लाहौर पहुँचकर उसये सन्धि की अपमानपूर्ण शती को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया । सुबुक्तगीन ने उसके राज्य पर आक्रमण कर लूट-पाट की ।
जयपाल ने 991 ईस्वी में कुछ मित्र राजाओं की सहायता से गजनी पर पुन आक्रमण किया किन्तु युद्ध में सुबुक्तगीन की ही विजय हुई । इस विजय के फलस्वरूप सुबुक्तगीन ने पेशावर तक के भूभाग पर अपना अधिकार कर लिया । 997 ईस्वी में सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गयी ।
महमूद गजनवी का आक्रमण:
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सुबुक्तगीन की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र महमूद 998 ईस्वी में गजनी का राजा बना । राज्यारोहण के समय उसकी अवस्था 27 वर्ष की थी । वह अत्यन्त महत्वाकांक्षी युवक था । कहा जाता है कि बगदाद के खलीफा से ‘यमिनुद्दौला’ तथा ‘अमीन-उल-मिल्लाह’ का सम्मानित विरुद प्राप्त करते समय उसने यह प्रतिज्ञा की थी कि वह प्रतिवर्ष भारत पर एक आक्रमण करेगा ।
मध्य एशिया में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिये उसे धन की भी आवश्यकता थी जो भारत में आसानी से प्राप्त हो सकता था । अतः इस्लाम धर्म के प्रचार तथा धन प्राप्त करने की लालसा से उसने भारत पर अनेक आक्रमण किये ।
हेनरी इल्यिट ने भारत पर महमूद के आक्रमणों की संख्या सत्रह बताई है । महमूद का प्रथम भारतीय आक्रमण पश्चिमोत्तर भारत के शाही राजा जयपाल पर 1001 ईस्वी में हुआ । पेशावर में दोनों के बीच एक घमासान युद्ध हुआ जिसमें जयपाल की पराजय हुई ।
उसने महमूद को भारी हर्जाने कीं रकम तथा 50 हाथी देने का वचन दिया । महमूद उसकी राजधानी उदभाण्डपुर को लूटने के बाद अतुल सम्पत्ति लेकर गजनी वापस लौट गया । जयपाल इस पराभव को सहन नहीं कर सका तथा उसने आत्महत्या कर ली ।
पश्चिमी पंजाब तथा लाहौर पर महमूद का अधिकार हो गया । जयपाल के बाद आनन्दपाल तथा फिर त्रिलोचनपाल शाहियावंश के शासक हुये । आनन्दपाल तथा महमूद की सेनाओं के बीच दो बार युद्ध हुये और दोनों ही बार महमूद की विजय हुई । सर्वप्रथम 1009 ई. के लगभग महमूद ने आनन्दपाल की सेनाओं को वैहन्द के मैदान में पराजित किया ।
आनन्दपाल ने भागकर नगरकोट के दुर्ग में शरण ली । महमूद ने दुर्ग की घेरावन्दी की तथा तीन दिन के भयंकर युद्ध के पश्चात् वहीं अपना अधिकार कर लिया । इस प्रकार सिन्ध से लेकर नगरकोट तक का समस्त प्रदेश उसके अधिकार में आ गया ।
उतबी के विवरण से पता चलता है कि नगरकोट की लूट में महमूद को इतना धन मिला कि जितने भी ऊँट मिले उन सब पर, उसे लाद दिया गया, फिर भी धन शेष रहा । इसे अधिकारियों में बाँट दिया गया । इसमें स्वर्ण सिक्के, सोना-चाँदी की बहुमूल्य वस्तुयें, मोती और सुन्दर वस्त्र आदि शामिल थे ।
आनन्दपाल ने नमक की पहाड़ियों के कोने में स्थित नन्दन को अपनी राजधानी बनायी । वहीं उसकी मृत्यु हो गयी । उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी त्रिलोचनपाल ने महमूद के विरुद्ध भारतीय राजाओं का एक संघ बनाया किन्तु 1018 ईस्वी में महमूद ने पुन इस संघ को परास्त कर दिया ।
1021 ईस्वी में त्रिलोचनपाल की मृत्यु हो गयी तथा इसके बाद शाहियावंश का राज्य महमूद के कब्जे में चला गया । महमूद के आक्रमण का दूसरा शिकार मुल्तान का राज्य हुआ । यहाँ का राजा फतेह दाऊद शिया मतावलम्बी था और इस कारण सुन्नी महमूद उससे चिढ़ता था ।
1006 ईस्वी में उसने मुल्तान पर आक्रमण कर दाऊद को पराजित किया तथा अपनी ओर से सुखपाल को वहाँ का राजा बनाया । यह सुखपाल जयपाल की पुत्री का पुत्र था जो महमूद द्वारा बन्दी बनाकर गजनी ले जाया गया जहाँ उसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था ।
परन्तु सुखपाल ने इस्लाम का धर्म त्याग कर महमूद के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । फलस्वरूप 1008 ईस्वी में महमूद ने पुन मुल्तान पर आक्रमण कर उसे बन्दी बना लिया तथा उस पर अपना अधिकार कर लिया । महमूद ने भटिण्डा के राजा विजयराय पर 1005 ईस्वी में आक्रमण किया ।
भटिण्डा में एक सुदृढ़ दुर्ग था जो पश्चिमोत्तर भारत से गंगा की उपजाऊ घाटी तक पहुंचने के मार्ग में पड़ता था । महमूद ने दुर्ग का घेरा डाला । विजयराय ने बड़ी वीरतापूर्वक दुर्ग की रक्षा की परन्तु असफल रहा तथा भाग खड़ा हुआ । महमूद ने उस पर अधिकार कर लिया तथा नगर के निवासियों की या तो हत्या कर दी या उन्हें इस्लाम धर्म मानने को विवश किया । उसे अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई ।
1009 ईस्वी में महमूद ने अलवर स्थित नारायणपुर पर आक्रमण किया तथा उस पर अधिकार कर लिया । यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था । 1014 ईस्वी में थानेश्वर के चक्रस्वामी के मन्दिर को तोड़ने के लिये उसने गजनी से प्रस्थान किया ।
का शासक डरकर भाग गया तथा महमूद ने मनमाने ढंग से अगर की लूट-पाट की और चक्रस्वामी की मूर्ति को गजनी भेज दिया । तत्पश्चात उसने गंगा-यमुना के दोआब पर आक्रमण करने का निश्चय किया । 1018 ईस्वी में उसने मथुरा नगर पर धावा बोला ।
यहाँ अनेक भव्य एवं प्रसिद्ध मन्दिर थे । महमूद ने अनेक भव्य मन्दिरों को ध्वस्त किया तथा लूट में अतुल सम्पत्ति प्राप्त की । यहाँ से उसने कन्नौज को प्रस्थान किया । प्रतिहार शासक राज्यपाल भाग खड़ा हुआ तथा महमूद ने बड़ी आसानी से नगर पर अधिकार कर लिया । उसकी सेना ने नगर में भार लूट-पाट एवं कत्लेयाम किया ।
यहाँ से भी उसे बहुत बड़ी सम्पत्ति प्राप्त हुई । मथुरा तथा कन्नौज से अतुल सम्पत्ति लेकर वह गजनी लौट गया । कन्नौज नरेश राज्यपाल के व्यवहार ने हिन्दू राजाओं को क्रुद्ध कर दिया तथा उन्होंने चन्देल नरेश विद्याधर की अध्यक्षता में एक संघ बनाया ।
सर्वप्रथम इस संघ ने राज्यपाल पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी तथा फिर महमूद के विरुद्ध शक्ति जुटाने में लग गया । इस संघ को भंग करने के उद्देश्य से 1019 ईस्वी के अन्त में महमूद ने पुन गजनी से भारत को प्रस्थान किया । चन्देल नरेश एक बड़ी तथा शक्तिशाली सेना के साथ कालिंजर के पास उसका सामना करने को प्रस्तुत हुआ ।
महमूद विशाल सेना देखकर घबड़ा गया तथा हतोत्साहित हो उठा किन्तु विद्याधर रातोंरात रहस्यमय ढंग से भाग निकला । महमूद ने नगर को खूब लूटा तथा भारी रकम लेकर स्वदेश लौट गया । इस प्रकार जिस कायरता के लिये विद्याधर ने पूर्व में प्रतिहार नरेश राज्यपाल को दण्डित किया था उसी का प्रदर्शन स्वयं उसी ने किया ।
1022 ईस्वी में चन्देलों की शक्ति को पूरी तरह कुचलने के उद्देश्य से महमूद ने पुन: कालिंजर पर आक्रमण किया । उसने दुर्ग का घेरा डाला । दीर्घकालीन घेरे के बाद भी जब उसे सफलता नहीं मिली तब उसने चन्देल नरेश से सन्धि कर ली ।
उसने महमूद को 300 हाथी उपहार में दिये जिन्हें लेकर वह गजनी लौट गया । विद्याधर ने महमूद की प्रशंसा में एक कविता लिखकर भेजी थी । इसे सुनकर वह इतना प्रसन्न हुआ कि उसने विद्याधर को पन्द्रह किलों का शासन साँप दिया । महमूद गजनवी का सर्वप्रसिद्ध आक्रमण 1025-26 ईस्वी में सोमनाथ के प्रसिद्ध मन्दिर पर हुआ ।
यह मन्दिर काठियावाड़ में स्थित था तथा समूचे भारत में अपनी पवित्रता, गौरव एवं समृद्धि के लिए विख्यात था । कहा जाता है कि यहाँ के हिन्दुओं में यह विश्वास था कि महमूद उत्तर भारत के बहुसंख्यक मन्दिर एवं मूर्तियों को तोड़ने में इस कारण सफल रहा कि भगवान सोमेश्वर उनसे अप्रसन्न थे । महमूद को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने इस मन्दिर को नष्ट करने तथा मूर्ति को तोड़ने का निश्चय किया ।
वह मुल्तान से तीस हजार अश्वारोहियों तथा अन्य सैनिकों के साथ सोमनाथ के लिये कूच किया । रेगिस्तानी मार्ग में अत्यन्त सावधानी बरतते हुए जनवरी 1025 ई. में वह अन्हिलवाड़ पहुंच गया । चौलुक्य शासक भीम प्रथम अपने सहायकों के साथ राजधानी छोड़कर भाग गया । नगर को लूटते हुए महमूद ने सोमनाथ के गढ़ का घेरा डाल दिया ।
यहां के स्थानीय सेनानायक ने भाग कर समुद्र में एक नाव पर शरण ली तथा प्रतिरोध मुख्यतः ब्राह्मणों और पुजारियों द्वारा ही किया गया । महमूद बिना किसी कठिनाई के उसमें प्रवेश पाने में सफल रहा । उसने मन्दिर के 50 हजार पुजारियों तथा ब्राह्मणों के वध का आदेश दे दिया ।
भगवान सोमनाथ की मूर्ति टुकड़े-टुकड़े कर दी गयी तथा उसे गजनी, मक्का और मदीना की मस्जिदों की सीढ़ियों में चिनाई के निमित्त भेज दिया गया । महमूद को बहुत अधिक हीरे, जवाहरात तथा स्वर्णराशि लूट में प्राप्त हुई । यह धनराशि लगभग 20 लाख दीनार की थी । इसे लेकर वह गजनी लौटा ।
मार्ग में जाटों ने उसकी सेना पर आक्रमण किया तथा कुछ सम्पत्ति लूट लिया किन्तु महमूद सकुशल गजनी पहुँच गया । जाटों से बदला लेने के लिये उसने 1027 ईस्वी में पुन: सिन्ध पर आक्रमण किया । वे पराजित हुए तथा उनके नगर जला दिये गये । बहुतों को मौत के घाट उतार दिया गया । यह महमूद का अन्तिम भारतीय आक्रमण था । 1030 ईस्वी में उसकी मृत्यु हो गयी ।
निस्संदेह वह एक महान् विजेता तथा उच्च कोटि का सेनानायक था जिसने गजनी के छोटे से राज्य को विशाल साम्राज्य में बदल दिया । उसका उद्देश्य भारत में तुर्की राज्य स्थापित करना नहीं था, बल्कि वह तो मूर्तियों को नष्ट करने तथा सम्पत्ति प्राप्त करने की इच्छा से यहाँ आया था । उसे अपने दोनों उद्देश्यों में सफलता मिली ।
मुहम्मद हबीब का विचार है कि महमूद धर्मान्ध नहीं था तथा भारत पर उसके आक्रमणों का उद्देश्य इस्लाम का प्रचार न होकर अधिकाधिक धन प्राप्त करने की लालसा थी । उसने सम्पत्ति लूटने के लिये ही बड़े-बडे आक्रमण किये ।
हबीब के अनुसार इस्लामी कानून में कोई ऐसा सिद्धान्त नहीं है जो विध्वंस के कार्य को न्यायसंगत माने अथवा उसे प्रोत्साहित करें । अतः महमूद ने भारत में बर्बरतापूर्ण कार्य करके इस्लाम का अपकार ही किया था ।
मुस्लिम-साम्राज्य की स्थापना:
महमूद गजनवी के पश्चात् भारत पर एक दूसरे महत्वपूर्ण तुर्क विजेता का आक्रमण हुआ जो इतिहास में मुहम्मद गोरी के नाम से प्रसिद्ध है । गोर, महमूद गजनवी के अधीन एक छोटा-सा पहाड़ी राज्य था । महमूद के निर्बल उत्तराधिकारियों के समय में यहाँ के सरदारों ने अपनी शक्ति का विस्तार प्रारम्भ किया । गोर के शंसबानी राजवंश के शासकों ने गजनी पर अधिकार कर लिया ।
गजनी नगर को ध्वस्त कर दिया गया । 1173 ईस्वी में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी, जिसका एक नाम मुइजुद्यीन मुहम्मद बिन साम भी था, वहाँ का राजा बना तथा इसके बाद तीन वर्षों एक गोर साम्राज्य का उत्कर्ष होता रहा । मुहम्मद गोरी वीर एवं महत्वाकांक्षी था ।
गजनी का शासक होने के नाते वह अपने को पंजाब का वैध शासक समझता था क्योंकि पहले यह गजनी साम्राज्य का अंग था । पंजाब का शासन गजनी वंश के खुसरव मलिक के अधीन था तथा गोरी का गजनवियों से संघर्ष चल रहा था । इस कारण भी पंजाब पर आक्रमण करना उसके लिये आवश्यक हो गया ।
इसके अतिरिक्त मध्य एशिया मैं गोरियों की शक्ति को ख्वारिज्म के शाह से भी चुनौती मिल रही थी जिसने खुरासान पर अधिकार कर लिया था । अतः भारत की ओर आक्रमण करने के सिवाय गोरी के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था । उसने भारत पर आक्रमण कर एक साम्राज्य की भी स्थापना कर ली ।
1175 तथा 1205 ईस्वी के मध्य मुहम्मद गोरी ने भारत पर कई आक्रमण किये । सबसे पहले उसने मुल्तान तथा सिन्ध पर आक्रमण किया । यहाँ के शासक शिया थे, अतः मुहम्मद गोरी उनके राज्य को जीतना अपना धर्म समझता था । 1182 ईस्वी तक उसने मुल्तान, उच्छ तथा दक्षिणी सिन्ध को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया ।
मुहम्मद गोरी का दूसरा आक्रमण (1178 ईस्वी) पाटन (गुजरात) पर हुआ । राजपूताना के रेगिस्तान मार्ग से उसने गुजरात में घुसने का प्रयास किया । यहाँ का राजा बघेल भीम द्वितीय था । उसने गोरी को बुरी तरह परास्त किया तथा उसे देश से बाहर खदेड़ दिया । अब मुहम्मद गोरी को यह विश्वास हो गया कि भारत को जीतने के लिये सिन्ध तथा मुल्तान पर नहीं अपितु पंजाब पर अधिकार करना आवश्यक है ।
अतः उसने तदनुसार अपनी योजना क्रियान्वित करते हुए पंजाब पर आक्रमण किया । सर्वप्रथम पेशावर तथा फिर लाहौर के ऊपर उसने अपना अधिकार कर लिया । यहाँ के शासक गजनी वंशी खुसरव मलिक ने उसकी अधीनता मान ली तथा बहुमूल्य उपहार दिये ।
1185 ईस्वी में उसका स्यालकोट के दुर्ग पर कब्जा हो गया । इस प्रकार मुल्तान, सिन्ध तथा लाहौर गोरी के साम्राज्य में शामिल हो गये और पंजाब से गजनवियों के शासन की समाप्ति हुई । यहाँ से गोरी के लिये भारत की विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया ।
पंजाब पर अधिकार कर लेने के पश्चात् गोरी के साम्राज्य की सीमायें दिल्ली तथा अजमेर के चाहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय के साम्राज्य सीमा का स्पर्श करने लगी । परिणामस्वरूप दो महत्वाकांक्षी राजाओं के बीच संघर्ष अनिवार्य हो गया । संघर्ष का प्रारम्भ भटिण्डा पर अधिकार को लेकर हुआ ।
मुहम्मद गोरी ने अचानक भटिण्डा के दुर्ग पर धावा बोला तथा वहाँ अपना अधिकार कर लिया । उसने इसकी सुरक्षा का भार सेनापति मलिक जियाउद्दीन को सौंप दिया तथा उसकी सहायता के लिये 12000 सैनिक रख दिये गये । मुहम्मद गोरी वापसी की तैयारी में ही था कि पृथ्वीराज एक बड़ी सेना के साथ उसका सामना करने के लिये बढ़ा ।
1191 ईस्वी में तराइन के मैदान में दोनों सेनाओं के मध्य भीषण युद्ध हुआ । इसमें मुहम्मद गोरी की पराजय हुई तथा घायलावस्था में उसे एक विश्वासपात्र खलजी अधिकारी घोड़े पर बिठाकर भाग निकलने में सफल हुआ । पृथ्वीराज ने लौटकर भटिण्डा के दुर्ग को घेराबन्दी की तथा लगभग 13 महीने पश्चात् वह जियाउद्दीन से छीन सकने में सफल हुआ ।
यह गोरी की दूसरी पराजय थी । परन्तु अपनी असफलताओं से गोरी निराशा नहीं हुआ । गजनी पहुँचकर उसने पूरी सैनिक तैयारियों की तथा दूसरे वर्ष पृथ्वीराज से बदला लेने के लिये एक बड़ी सेना के साथ भारत के लिये प्रस्थान कर दिया । उसकी सेना में एक लाख वीस हजार चुने हुए अश्वारोही थे ।
लाहौर पहुँच कर उसने पृथ्वीराज के पास किवाम-उल-मुल्क नामक अपना एक दूत भेजकर समर्पण करने तथा उसे अपना सम्राट मान लेने के लिये भेजा । किन्तु पृथ्वीराज तत्काल युद्ध के लिये प्रस्तुत हुआ । उसे कुछ अन्य राजपूत राजाओं का भी समर्थन मिला था तथा उसकी सेना में पाँच लाख अश्वारोही तथा तीन हजार हाथी थे ।
1192 ईस्वी में तराइन के मैदान में दोनों सेनाओं के बीच एक दूसरा युद्ध हुआ । इस बार तुर्कों का पलड़ा भारी रहा तथा पृथ्वीराज की पराजय हुयी । वह घोड़े पर चढ़कर भागा किन्तु सिरसा के निकट पकड़ा गया तथा बाद में उसकी हत्या कर दी गयी । पृथ्वीराज की मृत्यु के समय के विषय में मतभेद है ।
मिनहाज-उस-सिराज के अनुसार उसकी तुरन्त हत्या कर दी गयी । इसके विपरीत हसन निजामी की मान्यता है कि उसे बन्दी बनाकर अजमेर लाया गया जहाँ उसने गोरी की अधीनता में शासन करना स्वीकार कर लिया । इसका प्रमाण पृथ्वीराज के कुछ सिर्फों से मिलता है जिनके ऊपर संस्कृत में ‘हम्मीर’ उत्कीर्ण है ।
बताया गया है कि बाद में उसे गोरी के विरुद्ध षडयन्त्र करते हुए पकड़ लिया गया तथा उसकी हत्या कर दी गयी । यही मत सही प्रतीत होता है । तराइन का दूसरा युद्ध इतिहास के निर्णायक युद्धों में से एक है । इसके फलस्वरूप तुर्कों के भारत-भूमि में साम्राज्य स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हो उठा ।
इसने न केवल चाहमानों की साम्राज्यिक शक्ति को नष्ट कर दिया अपितु सम्पूर्ण हिंदुस्तान पर भारी विपत्ति ढ़हा दिया । शासकों तथा जनता का मनोबल पूरी तरह टूट गया तथा देश भयाक्रान्त हो गया । चौहान शक्ति के टूट जाने के बाद उसने हाँसी, सिरसा, कुहराम, समन, आदि पर बड़ी आसानी से अपना अधिकार जमा लिया ।
मुहम्मद गोरी ने कूटनीति से काम लिया तथा पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज को अजमेर के ऊपर अपनी अधीनता में राज्य करने का अधिकार दे दिया । दिल्ली का राज्य इसी प्रकार तोमरवंश को सौंप दिया गया । इन्द्रप्रस्थ में उसने अपने विश्वासपात्र सहायक कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में एक सेना रख दी जिसका काम हिन्दू शासकों से सन्धि की शर्तों को मनवाना था । गोरी, गजनी वापस लौट गया ।
उसके जाने के बाद अजमेर तथा दिल्ली में छिट-फुट विद्रोह हुये किन्तु ऐबक ने उन्हें दवा दिया । 1194 ईस्वी में गोरी ने पुन भारत पर आक्रमण किया । इस आक्रमण का उद्देश्य गाहड़वाल नरेश जयचन्द्र को पराजित करना था जो कन्नौज तथा बनारस का शासक था ।
मुस्लिम लेखक उसे महानतम शासक बताते है । पृथ्वीराज के मुहम्मद गोरी के साथ युद्ध में जयचन्द्र तटस्थ रहा तथा उसने चाहमान नरेश की कोई मदद नहीं की इस उदासीनता का परिणाम उसे शीघ्र ही भुगतना पड़ा । चन्दवार (कन्नौज के पास) नामक स्थान पर जयचन्द्र के साथ उसका युद्ध हुआ जिसमें हिन्दू शासक की पराजय हुयी ।
बताया जाता है कि जयचन्द्र अपनी सेना के साथ अत्यन्त वीरतापूर्वक लड़ा तथा उसकी विजय लगभग निश्चित थी । किन्तु दुर्भाग्यवश उसकी आँख में एक घातक तीर लग गया तथा वह गिर पड़ा । हिन्दू सेना में भगदड़ मच गयी तथा तुर्कों की विजय हुई ।
विजेता गोरी ने बनारस पर अधिकार कर लिया जहाँ उसे एक भारी खजाना मिला । तत्पश्चात् कुछ अन्य प्रमुख नगरों पर भी उसका अधिकार हो गया । इस विजय के परिणामस्वरूप तुर्क साम्राज्य बिहार की सीमा तक जा पहुँचा ।
1195-96 ईस्वी में मुहम्मद गोरी ने भारत पर पुन आक्रमण किया तथा बयना का घेरा डाला । यहाँ जादोंभट्टी राजपूत शासक कुमारपाल की राजधानी थी । वह पराजित हुआ तथा तुर्कों ने थंगीर तथा विजयमन्दिरगढ़ के किले पर अधिकार कर लिया । यहाँ की रक्षा का भार बहाउद्दीन तुगरिल को सौंपा गया । उसी ने एक लम्बे घेरे के बाद ग्वालियर के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया ।
मुहम्मद गोरी के लौटने के बाद उसके सहायक कुतुबुद्दीन ऐबक तथा एक सेनानायक बख्तियार खिलजी ने बुन्देलखण्ड, बिहार, बंगाल आदि की विजय की । ऐबक ने चन्देल राजा परंमर्दि को पराजित कर कालिंजर, महोवा तथा खजुराहो के महत्वपूर्ण सामरिक दुर्गों पर अधिकार कर लिया ।
बख्तियार खिलजी ने पूर्वी भारत की ओर अभियान करते हुए ओदन्तपुरी, विक्रमशिला तथा नालन्दा के विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया तथा मात्र 18 घुडसवारो के साथ सौदागरों के छद्म वेष में सेनों की राजधानी नदिया पर धावा बोल दिया । राजा लक्ष्मणसेन भाग खडा हुआ तधा आक्रान्ताओं ने वहाँ अधिकार करने के बाद भारी लूट-पाट की ।
इस प्रकार तुर्क साम्राज्य प्रायः सम्पूर्ण उत्तरी भारत में छा गया । 1206 ईस्वी में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी भारत से गजनी वापस जाते हुए सिन्ध नदी के तट पर खोकर नामक लड़ाकू जातियों द्वारा मार डाला गया । नि:संदेह वह एक महान् योद्धा तथा उच्चकोटि का सेनानायक था ।
उसने अपनी योग्यता के बल पर भारत में तुर्की साम्राज्य की स्थापना की । उसकी मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक नामक व्यक्ति उसके भारतीय साम्राज्य का स्वामी बना जिसने यहाँ गुलाम वंश की स्थापना की ।