मध्ययुगीन दक्षिणी भारत का इतिहास: समाज, अर्थव्यवस्था, शिल्प और वाणिज्य | History of Medieval Southern India: Society, Economy, Craft and Commerce in Hindi.
Contents:
- मध्ययुगीन दक्षिणी भारत के दौरान समाज (Society during Medieval Southern India)
- मध्ययुगीन दक्षिणी भारत के दौरान अर्थव्यवस्था (Economy during Medieval Southern India)
- मध्ययुगीन दक्षिणी भारत के दौरान कृषि (Agriculture during Medieval Southern India)
- मध्ययुगीन दक्षिणी भारत के दौरान शिल्प और उद्योग (Craft and Industry during Medieval Southern India)
- मध्ययुगीन दक्षिणी भारत के दौरान व्यापार और वाणिज्य (Trade and Commerce during Medieval Southern India)
1. मध्ययुगीन दक्षिणी भारत के दौरान समाज (Society during Medieval Southern India):
संगमकालीन समाज के विषय में विचार करते समय देख चुके हैं कि इस समय तक दक्षिण भारत का आर्याकरण हो चुका था तथा उत्तर भारतीय समाज की व्यवस्थाओं एवं परम्पराओं को दक्षिण के लोगों ने अपना लिया था । संगमोत्तर काल में भी उत्तर भारत की सामाजिक परम्परायें एवं आदर्श यथावत विद्यमान रहे ।
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हिन्दू समाज के संगठन का आधार स्तम्भ वर्ण-व्यवस्था है । उत्तर के समान दक्षिण भारतीय समाज में भी विभिन्न वर्णों एवं जातियों का अस्तित्व पाते हैं । वर्ण-व्यवस्था अपनी समस्त सामाजिक एवं आर्थिक पेचीदगियों के साथ लगभग सभी जगह स्वीकार कर ली गयी थी । शासकों का यह प्राथमिक कर्तव्य बताया गया कि वे इसके आधार पर गठित समाज व्यवस्था को बनाये रखें तथा वर्णसंकरता रोकें ।
वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों का सर्वोपरि एवं सम्मानित स्थान था । यद्यपि लिंगायत जैसे कुछ सम्प्रदायों ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती दी किन्तु इसका विशेष प्रभाव नहीं हुआ तथा सामान्यतः लोगों की आस्था उनमें बनी रही । राजा से लेकर निम्न श्रेणी के लोग ब्राह्मण पुरोहितों को दान देते थे ।
राज्य की ओर से उन्हें भूमि तथा ग्राम दान में दिये जाते थे जो सर्वप्रकार के करों एवं देयों से मुक्त होते थे । ऐसे अनुदानों को ‘अग्रहार’ अथवा ‘मंगलम्’ कहा जाता था । यहाँ रहते हुए वे धार्मिक एवं शैक्षणिक कार्य करते थे । कुछ ब्राह्मण अपनी योग्यता के बल पर प्रशासन में उच्च पद प्राप्त कर लेते थे ।
राजा उन्हें अपना पुरोहित नियुक्त करते तथा उनकी सलाह रो कार्य करते थे । कुछ को सेना में भी उच्च पद दिये जाते थे । उनकी बौद्धिक श्रेष्ठता एवं वर्ण उन्हें मान्यता दिलाने के लिये पर्याप्त थी । चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव, चोल आदि सभी राजवंशों के राजाओं को हम ब्राह्मणों को अग्रहार दान देते हुए पाते है जिनका उल्लेख विविध दान-पत्रों में हुआ है ।
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प्राचीन धर्मग्रन्थों में इसे अत्यन्त पुण्य का कार्य बताया गया है । समाज का दूसरा वर्ण क्षत्रिय था । दक्षिण के कई राजवंशों-चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव, अपनी क्षत्रिय उत्पत्ति का दावा करते है । हुएनसांग ने पुलकेशिन् द्वितीय को क्षत्रिय वर्ण का बताया है । अरब लेखक क्षत्रियों के एक वर्ग को ‘सत्क्षत्रिय’ कहते हैं जो ब्राह्मणों के समान ऊँचे समझे जाते थे । समाज में जाति प्रथा का व्यापक प्रचलन था ।
जाति जन्म से जानी जाती थी किन्तु जाति तथा व्यवसाय के संबंध परिवर्तनशील थे । व्यवसायियों के अनेक वर्ग एवं संगठन दक्षिण के समाज में सक्रिय थे जो क्रमशः कठोर होकर जाति का रूप लेने लगे थे । कृषि मजदूरों की स्थिति शूद्रों जैसी थी । अनेक प्रकार के शिल्पकार तथा पेशेवर जातियां उद्योग-द्यन्धों में लगी हुई थीं जिन्हें वाद में वर्णसंकर कोटि में रखा गया ।
मलयालम भाषाभाषी भाग को छोड़कर दक्षिण के अन्य द्रविड़ भाषाभाषी भागों में उबलने (दायें हाथ) तथा इदंगै (बायें हाथ) नामक सामाजिक वर्ग गठित थे । इनकी भी अनेक उपशाखायें थीं । लेखों में इनके 98-98 वर्ग बताये गये हैं । बताया गया है कि इन्होंने ब्राह्मणों, बेलालों, अधिकारियों, सामन्तों आदि के अत्याचारों के विरुद्ध लड़ने के निमित्त अपना संयुक्त मोर्चा बनाया था ।
वैश्यों की स्थिति में गिरावट आई तथा उन्हें शूद्रों के साथ समेट लिया गया । जहाँ तक स्त्री दशा का प्रश्न है दक्षिण के विभिन्न राजवंशों की महिलाओं को शिक्षित पाते हैं । कुछ रानियाँ अपने पतियों के साथ मिलकर शासन चलाती तथा दान (अग्रहार) देती थीं ।
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कुछ महिलायें युद्ध में भी भाग लेती थीं । समाज में वाल विवाह का प्रचलन हो गया तथा सामान्यतः कन्याओं का विवाह बारह वर्ष की आयु पूरी करते-करते कर दी जाती थी । दकन में सती प्रथा का प्रचलन नहीं था । पर्दा प्रथा प्रचलित नहीं थी । अरब लेखकों के विवरण से पता चलता है कि राष्ट्रकूट दरबार में विशेष अवसरों पर महिलायें भी आती थीं तथा पर्दा नहीं करती थी ।
अमोघवर्ष की पुत्री चन्दवल्ल भी को कुछ समय के लिये रायचूर दोआब का प्रशासक बनाया गया था । अनुलोम विवाह प्रायः नहीं होते थे । सजातीय विवाह अधिक अच्छा माना जाता था । बहु-विवाह प्रचलित था । राजा, कुलीन तथा सामन्त वर्ग के लोग कई पत्नियाँ रखते थे । मार्को पोलो पाण्ड राजा की पाँच सौ पत्नियों का उल्लेख करता है ।
स्त्रियों को धन संबंधी अधिकार की मान्यता दे दी गयी । पति की मृत्यु के बाद विधवा को उसकी सम्पत्ति में अधिकार होता था । यद्यपि दक्षिण में सामन्तवाद उतना प्रबल नहीं रहा जितना कि उत्तर भारत में तथा विकसित स्थानीय संस्थायें इसकी प्रगति में बाधक थीं तथापि इस बात के संकेत मिलते हैं कि क्रमशः दक्षिण का समाज भी सामन्ती ढाँचे में जकड़ता जा रहा था । कुछ भागों का शासन सामन्तों द्वारा ही चलाया जाता था ।
सामन्तों ने स्थानीय आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित किया । भूमि के साथ-साथ किसान, शिल्पी, कारीगर आदि भी दिये जाने लगे जो अपना स्थान नहीं बदल सकते थे । एक लेख से पता चलता है कि ग्रामीण समुदाय की गतिशीलता पर प्रतिवन्ध लगाया गया था ।
बताया गया है कि ग्राम छोड़कर जाने वाले महासभा के विरुद्ध अपराध करेंगे तथा गाँवों को नष्ट करने वाले समझे जायेंगे । ग्रामाचार, ग्रामधर्म, स्थानाचार आदि के पालन पर बहुत बल दिया जाने लगा । इन सबके परिणामस्वरूप सामाजिक गतिशीलता अवरुद्ध हो गयी तथा बन्द अर्थव्यवस्था का उदय हुआ ।
ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में व्यापार-वाणिज्य के उत्कर्ष, सिक्कों के प्रचलन आदि के फलस्वरूप अर्थव्यवस्था विकसित होने पर सामाजिक गतिशीलता के प्रतिबन्ध शिथिल पड़ गये तथा कृषकों एवं कारीगरों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमनागमन संभव हो सका ।
2. मध्ययुगीन दक्षिणी भारत के दौरान अर्थव्यवस्था (Economy during Medieval Southern India):
अतिप्राचीन काल से भारत के आर्थिक जीवन का आधार ‘वार्ता’ को स्वीकार किया गया है । ‘वार्ता’ के अन्तर्गत कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य की गणना की गयी है । अर्थशास्त्र में इसका महत्व इस प्रकार स्वीकार किया गया है- वार्ता से तात्पर्य कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य से है ।
धान्य, पशु, स्वर्ण कुप्य (स्वर्ण तथा रजत के अतिरिक्त अन्य कोई धातु) तथा विष्टि (बेगार) जैसे वार्ता के साधन से राजा अपने कोष तथा दण्ड को बढ़ाकर शत्रु पर विजय प्राप्त करता है । महाभारत में ‘वार्ता’ को लोक का मूल बताते हुए कहा गया है कि ‘इससे संसार का पोषण होता है, अतः इसका सदा अनुसरण करना चाहिए ।
अमरकोश में ‘वार्ता’ को जीविका का पर्यायवाची माना गया है । मनु ने राजा को सलाह दी है कि वह लोक व्यवहार में वार्ता विद्या को सीखे । विष्णुपुराण में भी वार्ता के अन्तर्गत कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य की गणना की गयी है और इसे एक विद्या माना गाया है । अतः प्राचीन भारत के विभिन्न युगों में राज्य की ओर से कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य के विकास को प्रोत्साहन प्रदान किया गया । दक्षिण के महान् शक्तिशाली शासकों ने कृषि तथा वाणिज्य के विकास में योगदान दिया ।
संगमकालीन संस्कृति के अन्तर्गत देख चुके हैं कि किस प्रकार उस समय कृषि तथा व्यापार-वाणिज्य का विकास हुआ । किन्तु दक्षिण की आर्थिक समृद्धि वस्तुतः संगमोत्तर काल में ही प्रारम्भ हुई, जबकि यहाँ राष्ट्रकूट, पल्लव, चालुक्य, चोल आदि राजवशों ने अपने साम्राज्य स्थापित किये ।
3. मध्ययुगीन दक्षिणी भारत के दौरान कृषि (Agriculture during Medieval Southern India):
संगमोत्तर काल में दक्षिण में कृषि का खूब विकास हुआ । इस समय जंगलों की कटाई कर अधिकाधिक भूमि को कृषि योग्य बनाया गया । भूमि का स्वामी होना सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक था । अतः समाज के सभी वर्णों के लोग कृषि-कर्म में रुचि लेने लगे । समाज के वे लोग, जिनके पास काफी भूमि होती थी, मजदूरों की सहायता से खेती करवाते थे ।
छोटे किसान स्वतः खेती करते थे । शूद्रवर्ण के स्त्री-पुरुष खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करते थे जिन्हें बदले में अनाज दिया जाता था । भूमि की उर्वरता के आधार पर उसे कई श्रेणियों में बांटा गया था-उर्वरा, बजर, परती, रेतीली, काली, पीली आदि ।
अभिधानरत्नमाला नामक ग्रन्थ में घास के मैदान वाली (शाद्वल), सरकन्डेवाली (नड्डवल), वर्षा के जल से सींची जाने वाली, नदियों एवं तालाबों के जल से सींची जाने वाली आदि भूमियों का भी उल्लेख मिलता है । चोल लेखों से पता चलता है कि भूमि की श्रेणी को ध्यान में रखकर ही करो का निर्धारण किया जाता था । कई श्रेणियों की भूमि का उल्लेख भी मिलता है ।
चालुक्य लेखों में सींची जाने वाली, वागवानी वाली और बंजर भूमि के अतिरिक्त काली मिट्टी तथा लाल मिट्टी वाली भूमि की विशेष रूप से चर्चा की गयी है । सिंचाई वाली भूमि को भी उर्वरता के आधार पर कई किस्मों में बांटा जाता था । ब्राह्मणों को दान (अग्रहार) में दी जाने वाली भूमि को ‘ब्रह्यदेय, मन्दिरों को दी गयी भूमि को ‘देवदान’ तथा भोजनालयों को दी गयी भूमि को ‘शालभोग’ कहा गया है ।
चोल शासक सुन्दरचोलकालीन अनबिल अनुदान पत्र ‘अनिरुद्ध ब्रह्माधिराज’ नामक ब्राह्मण को दी गयी भूमि का विवरण इस् प्रकार प्रस्तुत करता है- ‘इस प्रकार वर्णित भूमि की सीमा को मिट्टी के टीले बनाकर तथा नागफनी के पौधे रोपकर निश्चित कर दिया । इस भूमि में कई वस्तुयें जैसे-फलदार वृक्ष, पानी, भूमि, कटिकायें, सभी उगने वाले पेड़, गहरे कुएं, खुले मैदान, घास के मैदान, ग्राम-स्थान, बल्मीक, वृक्षों के चारों ओर बने चबूतरे, नहरे, खाइयां, नदियाँ तथा उनसे मिलने वाली वस्तुएं, तालाब, अनाजों के गोदाम, मछालयों के कुण्ड, मधुमक्खियों के छत्ते सहित दरारें, गहरे कुण्ड भी शामिल हैं, न्याय से प्राप्त आय पान के पत्ते, हथकरघे के वस्त्रों पर लगने वाला कर………….. वह प्रत्येक वस्तु जिसे राजा प्राप्त कर सकता और उपयोग कर सकता है, ये सभी वस्तुयें इस व्यक्ति को दी जायेंगी । उसे उस भूमि में पक्की ईंटों के विशाल भवन बनवाने, छोटे-बड़े कुएँ खुदवाने, दक्षिणी लकड़ी तथा थूहर उगाने, सिंचाई की आवश्यकतानुसार नहरें खुदवाने, फालतू पानी को सिंचाई के लिये तालाबों में एकत्र कराने का अधिकार होगा । उसकी भूमि से कोई अन्य पानी नहीं ले सकेगा । एतद्वारा पहले का आदेश बदल दिया गया तथा पुराना नाम और कर समाप्त कर ‘करुणामंगलम्’ नाम से ‘एकभोगव्रह्मदेय’ अर्थात् एक ही ब्राह्मण के भोग के निमित्त दिया गया भूमि अनुदान का प्रबन्ध कर दिया गया ।’
इसी प्रकार राष्ट्रकूट सामन्त शिलाहार वशी रट्टराज के खारेपाटन ताम्रपत्रों में तीन गाँवों के दान का विवरण है जहाँ उनसे प्राप्त होने वाली समस्त आय के दान की भी बात कही गयी है (सर्व राजकीया याम्यन्तर सिद्धम्) । गाँव में चाट-भाट का प्रवेश वर्जित था । मीराज ताम्रपत्रों (1024 ई॰) के अनुसार गाँव का दान, उसकी धान्य और समस्त आय, उसकी निधियों और निक्षेपों के साथ दिया गया था ।
राजकीय अधिकारी इसकी ओर किसी प्रकार की उंगली नहीं उठा सकते थे, गाँव पर कोई कर अथवा वाधा नहीं लगाई जा सकती थी तथा सभी को इसका पालन करना पड़ता था । इस विवरण से स्पष्ट है कि अनुदान में दी जाने वाली भूमि करमुक्त होती थी तथा उसमें स्थित समस्त चारागाहों, खानों, वनस्पतियों, निधियों सहित आय के सभी स्रोतों पर दानग्राही का अधिकार हो जाता था ।
भारतीय इतिहास के प्रत्येक युग में कृषि के लिये सिंचाई की आवश्यकता को समझा गया है । सिंचाई अधिकांश वर्षा के जल से होती थी । किन्तु चूँकि वर्षा प्रत्येक समय तथा आवश्यकता के अनुरूप नहीं होती थी, अतः शासकों द्वारा सिंचाई के कृत्रिम साधनों का प्रबन्ध करवाया गया ।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में सिंचाई की सुविधा के लिये इतिहास प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था । शक महाक्षत्रप रुद्रदामन् एवं गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के काल में उस झील के बाँध का निर्माण तथा पुनर्निर्माण करवाया गया था ।
इस परम्परा का अनुकरण करते हुए दक्षिण के शासकों ने भी कृषि को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिये सिचाई के साधनों की उत्तम व्यवस्था करवाई थी । सिंचाई अधिकतर नदियों द्वारा होती थी । नहरों की सहायता से नदियों का जल खेतों में पहुँचाया जाता था । किन्तु ऐसी नदियों की संख्या कम थी जिनमें सदा जल भरा रहे । अतः स्थान-स्थान पर तालाब खुदवाकर उनमें जल एकत्रित कर लिया जाता था ।
इनके रख-रखाव की समुचित व्यवस्था की जाती थी । प्राचीन साहित्य तथा लेखों में जलाशयों के लिये ‘वापी’ और ‘तटाक्’ शब्द मिलते हैं । वापी से तात्पर्य सम्भवतः छोटे जलकुण्ड से है जवकि तटाक् बड़े जलाशय का द्योतक है । कुएँ खुदवाने की भी प्रथा थी । चोल शासकों ने कृषकों को पानी उपलब्ध कराने के लिये कावेरी नदी के तट पर कई बाँधों का निर्माण करवाया था ।
लेखों में कई तालाबों का उल्लेख प्राप्त होता है-कलिनंगे, बाहूर, कुलय, चोलवारिधि आदि । चोलों द्वारा श्रीरंगम् टापू के नीचे बनवाया गया बाँध सबसे महत्वपूर्ण था जिसकी लम्बाई 1240 मीटर तथा चौड़ाई लगभग 20 मीटर थी । चोल लेखों से पता चलता है कि ग्राम सभा का एक मुख्य कार्य तालाबों का निर्माण तथा उनकी व्यवस्था देखना था ।
इसके लिये ग्राम सभाओं के अन्तर्गत सिंचाई समितियों बनी हुई थीं । पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन् ने महेन्द्रवाडि में एक विशाल तालाब का निर्माण करवाया था । राजेन्द्र चोल के समय में गंगैकोण्डचोलपुरम् में एक तालाब खुदवाया गया था । कल्याणी के चालुक्यों के समय में चेवोलु (गुण्टुर जिला) में एक बड़े तालाब का निर्माण करवाया गया था ।
इसके अतिरिक्त चैत्यतटाक, भीमसमुद्रतटाक आदि का उल्लेख भी मिलता है । कदम्बवंश के राजा काकुत्सवर्मा के समय में एक तालाब का निर्माण करवाया गया था । होट्टूर के पास लाल तालाब स्थित था । बीजापुर जिले के मेन्टूर में रट्ट सरोवर था । इसी प्रकार चिलमकारू (कुडप्पा) में खोदे गये एक तालाब का विवरण भी मिलता है ।
चालुक्य राजाओं द्वारा बनवाये गये अनेक तालाबों का विवरण भी मिलता है । प्राचीन साहित्य तथा लेखों में इसे अत्यन्त पुनीत कर्तव्य बताया गया है । शासकों के अतिरिक्त सामन्त, व्यापारी तथा अन्य धर्मप्राण व्यक्ति भी पुण्यार्जन हेतु तालाबों एवं कूँओं का निर्माण करवाते थे ।
दक्षिण के विभिन्न भागों में कई प्रकार के अन्नों का उत्पादन होता था । तत्कालीन साहित्य से इस समय पैदा होने वाली विभिन्न फसलों जैसे चावल, सरसों, निवार, मसूर, ईख, गेहूँ, जौ, मटर, मूंग, उड़द, तिल, जर्तिल, नारियल, अलसी आदि के विषय में सूचना मिलती है ।
खाद्यान तथा दलहन की खेती के साथ-साथ शाक-सब्जियों तथा व्यापारिक फसलों (कपास, गन्ना आदि) का उत्पादन भी प्रचुर मात्रा में होता था । कुछ विशेष क्षेत्र अपने विशिष्ट उत्पादनों के लिये प्रसिद्ध थे । गुजरात तथा बरार में कपास, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में बाजरा, कोंकण प्रदेश में चावल की मुख्य रूप से पैदावार होती थी ।
मैसूर में चन्दन, सागौन तथा आबनूस की लकड़ियाँ पैदा होती थीं । नारियल दक्षिण भारत का प्रमुख उत्पादन था । मार्कोपोलो नामक यात्री पाण्ड्य देश में अदरख तथा दालचीनी की पैदावार का उल्लेख करता है । याकूत के विवरण से पता चलता है कि यहाँ की पहाड़ियों पर कपूर भी पैदा होता था ।
इदरिसी लिखता है कि मालवार की पहाड़ियों में इलाइची की खेती की जाती थी । इसी प्रकार इब्नसईद मालवार पहाड़ी पर गोलमिर्च के उत्पादन का उल्लेख करता है । मलय पर्वत पर चन्दन तथा कोईलोन में नील का उत्पादन होता था । इस प्रकार दक्षिण भारत अपने विविध उत्पादनों के लिये प्रसिद्ध था ।
तत्कालीन साहित्य से विदित होता है कि कई बार दक्षिण के निवासियों को दुर्भिक्ष का भी सामना करना पड़ा जिनसे उनका जीवन अत्यन्त कष्टमय हो गया । प्रबन्धचिन्तामणि में चालुक्य नरेश भीम के समय में पड़ने वाले बड़े अकाल का उल्लेख किया गया है ।
पेरियपुराण से पता चलता है कि सातवीं शती में पाण्ड्य राज्य महान दुर्भिक्ष का शिकार बना । चोल नरेश विक्रम चोल के समय में भीषण बाढ़ के कारण जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया । कुलोतुंग तृतीय के समय में पड़ने वाले एक बड़े अकाल की सूचना तंजोर लेख ले मिलती है । ऐसे विकट अवसरों पर शासकों द्वारा कर माफ कर दिये जाते थे तथा अन्य राहत कार्य किये जाते थे ।
दक्षिण भारतीय भूमि-अर्थव्यवस्था में सामन्तों का महत्वपूर्ण स्थान होता था । उनके पास विशाल भूखण्ड होते थे । सामन्तों को अपने अधीन प्रजा से कर वसूलने तथा बेगार लेने का अधिकार था । उन्हें सेना रखने तथा प्रशासन-सम्बन्धी विशेष अधिकार भी दिये गये थे । वे मनमाने ढंग से जनत का शोषण किया करते थे ।
फलस्वरूप इस काल में खेतिहर मजदूरों की दशा अत्यन्त दयनीय हो गयी थी । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि पल्लव आदि राज्यों में ‘सामन्त’ शब्द का प्रयोग अधिकांशतः राजनीतिक दासता के लिये हुआ है । यहाँ सामन्ती अवधि तथा दायित्वों का आर्थिक अनुबन्ध देखने को नहीं मिलता है ।
सामन्त शब्द का जो अर्थ प्रचलित है, उस अर्थ में सामन्ती प्रथा का विकास बाद में हुआ । जहाँ तक भूस्वामित्व का प्रश्न है, प्राचीन तथा पूर्व मध्यकालीन ग्रन्थों से ऐसे संकेत मिलते है जिनसे भूमि पर राजा तथा व्यक्ति दोनों का स्वामित्व प्रमाणित होता है ।
कौटिल्य तथा मनु दोनों ही भूमि पर राजा के अधिकार का समर्थन करते है । अर्थशास्त्र से पता चलता हैं कि राज्य की ओर से कृषकों को कृषि करने के लिये भूमि प्रदान की जाती थी । यदि वह व्यक्ति ठीक से कृषि नहीं कर पता था तो भूमि उससे लेकर दूसरे को दे दी जाती थी । अर्थशास्त्र के टीकाकार भट्टस्वामी ने भी लिखा है कि राजा का भूमि तथा जल दोनों पर अधिकार होता है ।
मनुस्मृति में कहा गया है कि राजा भूमि में गड़े हुए धन का आधा भाग प्राप्त करे क्योंकि वह भूमि का स्वामी है । मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि ने भी भूमि पर राजा का स्वामित्व माना है । सोमेश्वर, कात्यायन, मित्रमिश्र, लक्ष्मीधर जैसे पूर्वमध्यकालीन लेखक भी भूमि पर राजा के स्वामित्व का समर्थन करते हैं ।
प्राचीन इतिहास के विभिन्न कालों में राजाओं ने ब्राह्मणों, राजकर्मचारियों तथा अन्य लोगों को भूमि अनुदान में दिये । इससे भी भूमि के ऊपर राजा के अधिकार की पुष्टि होती है । साथ ही साथ कई ऐसे उल्लेख भी मिलते है जिनसे भूमि पर निजी स्वामित्व प्रमाणित होता है ।
मनुस्मृति में एक स्थान पर लिखा गया है कि ‘पुराविद् लोग पृथ्वी को पृथु की पत्नी मानते हैं, ठूठ, पेड़ खत्म काटकर भूमि को समतल करके खेत बनाने वाले का खेत मानते है तथा पहले बाण मारने वाले का मृग मानते हैं ।’
बृहस्पति, याज्ञवल्क्य जैसे स्मृति लेखकों ने भी भूमि पर निजी स्वामित्व को मान्यता दी है । एक अन्य स्थान पर मेधातिथि ने भी भूमि पर व्यक्ति के अधिकार को मान्यता दी है । प्राचीनकाल में राजा के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति भी भूमि अनुदान में देते थे ।
स्थानीय समुदाय अपनी भूमि मन्दिरों को दान में देते थे और इस तरह भूमि निजी सम्पत्ति बन जाती थी । राष्टकूट अमोघवर्ष के समय के चालीस महाजनों ने एक पण्डित को 85 मत्तर भूमि दान में दिया था । सौनदत्ति में प्राप्त एक लेख से पता चलता है कि जैन मन्दिर को 50 कृषकों की सहमति से भूमि अनुदान में दी गयी थी ।
अतः इस सम्बन्ध में वास्तविकता यह प्रतीत होती है कि भूमि के ऊपर एक ही समय में राजा तथा व्यक्ति दोनों का स्वामित्व होता था । सिद्धान्ततः यह राजा के पास होता था किन्तु उपयोग के लिये उसे व्यक्ति विशेष को साँप दिया जाता था ।
4. मध्ययुगीन दक्षिणी भारत के दौरान शिल्प और उद्योग (Craft and Industry during Medieval Southern India):
कृषि कर्म के साथ-साथ इस काल में दक्षिण भारत में विविध प्रकार के शिल्पों तथा उद्योग धन्धों का प्रचलन था । दक्षिण की आर्थिक समृद्धि में इनका भी महत्वपूर्ण योगदान रहा । सबसे प्रमुख वस्त्रोद्योग था । देश के विभिन्न भागों में उत्तम प्रकार के सूती तथा रेशमी वस्त्रों का निर्माण किया जाता था ।
गुजरात, बरार, तेलंगाना, नागपट्टम, मूलस्थान, कलिंग, मलाबार तट, वारंगल आदि में बढ़िया किस्म के सूती और रेशमी वस्त्रों का निर्माण किया जाता था । वारंगल में अच्छी-अच्छी दरियां बनाई जाती थीं । वस्त्रों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की धातुओं-सोना, चाँदी, तांबा, लोहा, शीशा, पीतल, टिन आदि की सहायता से अस्त-शस्त्र, बर्तन, आभूषण आदि तेयार किये जाते थे ।
अस्त्र-शस्त्र प्रमुखतः लोहे के बनते थे । पालनाड इनके निर्माण का मुख्य केन्द्र था । चोलों के समय में कांसे की सुन्दर मूर्तियों का निर्माण किया गया । सोने-चाँदी आदि के सुन्दर आभूषण बनाये जाते थे । मणियों के हार तथा आभूषण बनते थे । गोलकुन्डा तथा कीडेड (बेल्लरी, अनन्तपुर तथा कडप्पा) में हीरे की जाने थीं ।
मार्कोपोलों के विवरण से पता चलता है कि वारंगल में हीरा अधिक मात्रा में उपलब्ध था । चोलों के समय में हीरा, मणिक तथा मोतियों से विविध प्रकार के आभूषणों को बनाने का उद्योग अत्यन्त विकसित था । समुद्री इलाकों में नमक बनाने का उद्योग प्रचलित था ।
इसके अतिरिक्त विभिन्न स्थानों में अन्य कई प्रकार के छोटे-मोटे उद्योग-धन्धे, जैसे-बढ़ईगीरी, टोकरी बनाना, तेल पेरना, पत्थर काटना, चमड़े का काम, बर्तन बनाना आदि भी प्रचलित थे । विभिन्न शिल्पियों के संगठन को ‘श्रेणी’ कहा खाता था । ‘श्रेणी’ एक ही प्रकार के व्यवसाय अथवा उद्योग करने वाले व्यक्तियों की संस्था होती थी ।
प्राचीन भारत के आर्थिक जीवन में श्रेणियों की भूमिका अत्यन्त रही है । व्यापार का नियंत्रण वस्तुतः इन्हीं के हाथों में था । ये उत्पादन वाले स्थानों से वस्तुओं को खरीदकर बड़े पर उनकी बिक्री की व्यवस्था करती थी । उनके द्वारा आन्तरिक तथा वाह्य दोनों व्यापार किये जाते थे । दक्षिण भारत के कई लेखों में श्रेणियों का उल्लेख मिलता है ।
चालुक्य विक्रमादित्य के लक्ष्मणेश्वर लेख (725 ई॰) में तांबे तथा कांसे का काम करने वाली एक श्रेणी का उल्लेख मिलता है । बताया गया है कि कार्त्तिक महीने में सभी वर्गों के लोग इसमें कर जमा करते थे । राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय के मूलगुण्डि लेख में 360 नगरों की श्रेणियों का उल्लेख मिलता है ।
चोल शासक राजाधिराज के एक लेख से ज्ञात होता है कि कांची तथा उसके आस-पास के 24 नगरों के तेलीसंघ ने मन्दिर में एकत्र होकर यह प्रस्ताव पारित किया कि कांची मन्दिर में दीप तथा बलि का प्रबन्ध तिरुक्कयूर के तेलीसंघ द्वारा किया जाना चाहिए । चालुक्य विक्रमादित्य छठें के एक लेख से पता चलता है कि विभिन्न श्रेणियों के 120 सदस्यों द्वारा एहूर के कम्पटेश्वर मन्दिर को दान दिया गया था ।
बारहवीं-तेरहवीं शती के कई लेख जुलाहों, कुम्हारों, तेलियों आदि की श्रेणियों तथा उनके कार्यों का उल्लेख करते हैं । इनसे सूचित होता है कि दक्षिण में ये संगठन निर्विघ्न रूप से अपना कार्य कर रहे थे । श्रेणियों के अपने अलग नियम होते थे जिन्हें ‘श्रेणीधर्म’ कहा जाता था । राज्य की ओर से इन्हें मान्यता प्राप्त थी ।
राजा का यह कर्तव्य था कि वह श्रेणीधर्म का सम्मान करे । वृहस्पति का कथन है कि श्रेणी के प्रधान, धर्म के अनुसार अपने सदस्यों के साथ कड़ा या मृदु जैसा भी व्यवहार करे, उसे राजा को अनुमोदित करना चाहिए । मनु ने व्यवस्था दी है कि राजा को जाति धर्म, कुल धर्म, जनपद धर्म, श्रेणी धर्म की भली-भांति छान-बीन करने के पश्चात् ही उनके अनुकूल अपने राजकीय नियमों की स्थापना करनी चाहिए ।
अर्थशास्त्र में विहित है कि ”राजा को श्रेणी धर्म का आदर करना चाहिये ।” नारद, विष्णु, यावल आदि स्मृतिकारों ने राजा को उपदेश दिया है कि वह संघों में प्रचलित रीति-रिवाजों का पालन करवाये । बृहस्पति ने चेतावनी दी है कि यदि ”देशाचार, जात्याचार और का पालन नहीं होता तो प्रजा में असंतोष फैलेगा और उससे सम्पत्ति कम होगी ।”
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि श्रेणियां अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए स्वतन्त्र थी और राजा को उनका निर्णय स्वीकार करना पड़ता था । केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही राजा श्रेणियों के कार्य में हस्तक्षेप कर सकता था । इस प्रकार की परिस्थितियों संघ के सदस्यों में पारस्परिक विवाद होने अथवा किसी सदस्य द्वारा संघ को हानि पहुँचाने का प्रयास करने पर उत्पन्न होती थी ।
ऐसा लगता है कि श्रेणी के प्रधान द्वारा दण्डित कोई भी राजा के पास अपील कर सकता था तथा यह प्रमाणित हो जाने पर कि अध्यक्ष का व्यवहार नियम विरुद्ध है, राजा उसे रोकता अथवा आवश्यकता पड़ने पर दण्ड तक दे सकता था । किन्तु इस प्रकार की परिस्थिति बहुत कम उत्पन्न होती थी ।
सामान्य परिस्थिति में श्रेणियाँ पर्याप्त स्वायत्तता का उपभोग करती थीं । श्रेणियों के पास अपने न्यायालय तथा अपनी सेना होती थी । वे बैंकों का भी कार्य करती थीं । दक्षिण भारत के व्यापारी अपने सामूहिक संगठनों के लिये भी विख्यात थे । विक्रमादित्य षष्ठ तथा तैल द्वितीय कालीन निदगुण्डि लेख में 505 व्यापारियों के एक संगठन द्वारा धार्मिक उद्देश्य से विभिन्न वस्तुयें दान में दिये जाने का उल्लेख मिलता है ।
जटावर्मन् वीर पाण्ड्य के एक लेख से पता चलता है कि 79 मण्डलों के उपविभागों के व्यापारियों ने एक सभा में एकत्र होकर पण्य से होने वाली आय का एक भाग मन्दिर जीर्णोद्धार के लिये अलग रखने का फैसला किया था । येवुर लेख (1077 ई॰) से पता चलता है कि शिवपुर के व्यापारियों के संगठन में पचीस प्रतिशत व्याज पर धन जमा किया गया था ।
विक्रमचोल कालीन तिरुमुरुगनपुण्डि के एक मन्दिर में खुदे हुए लेख में एक व्यापारी संघ का स्पष्ट उल्लेख मिलता है जो समस्त दक्षिण भारत में फैला हुआ था और उसमें पाँच सौ सदस्य थे । पश्चिमी चालुक्य नरेश जगदेकमल्ल द्वितीय कालीन एक लेख (1178 ई॰) से पता चलता है कि दक्षिणी अय्यवोले अथवा वर्तमान ऐहोल में पाँच सौ वणिक् निवास करते थे । बहुत से व्यापारिक केन्द्र ‘दक्षिण के अय्यवोले’ कहे जाते थे ।
इनसे श्रेणी की शाखाओं का बोध होता था । दक्षिण भारत के विभिन्न लेखों में व्यापारियों के इस सामूहिक संगठन का अनेकशः उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त ‘बणन्ज समाज’ का उल्लेख पाते हैं जो व्यापारियों के एक व्यापक संगठन का सूचक लगता है । इस संगठन को वलन्जियम्, वलन्जियर, बलन्जि, बणन्जि आदि नाम से जाना जाता था । राजेन्द्र चोल कालीन एक लेख में इस संगठन की प्रशंसा की गयी है ।
5. मध्ययुगीन दक्षिणी भारत के दौरान व्यापार और वाणिज्य (Trade and Commerce during Medieval Southern India):
कृषि तथा शिल्प उद्योगों के साथ-साथ दक्षिण भारत में व्यापार-वाणिज्य की भी प्रगति हुई । इस काल की व्यापारिक गतिविधियों के विषय में अभिलेखों तथा गुणों के अतिरिक्त विदेशी लेखकों के विवरण से भी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं ।
विभिन्न स्रोतों से विदित होता है कि दक्षिण में आन्तरिक तथा बाह्य दोनों ही व्यापार प्रगति पर था । देश के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान को माल ले जाया जाता था । उस समय यातायात के साधनों की कमी थी । सड़कों की हालत अच्छी नहीं थी । अतः भार ढोने के लिये बैलगाड़ियों, टट्टुओं तथा मनुष्यों का उपयोग किया जाता था ।
तमिल देश में दकन की अपेक्षा सड़कों की दशा अच्छी थी । नदियों के किनारे स्थित स्थानों में नावों में भरकर माल ले जाया जाता था । नगरों में व्यापारियों के निगम होते थे । व्यापारियों के स्थानीय संगठनों की संज्ञा ‘नगरम्’ थी । इस प्रकार के संगठन कांची तथा मामल्लपुरम् में विद्यमान थे ।
व्यापारिक संगठन, राजनीतिक गतिविधियों से उदासीन होकर अपना सारा समय व्यापार में ही लगाते थे । लेखों से मणिग्रामम्, नानादेशिस, बलंजियर, वलैंग, इदंगै, तेलिन् आदि व्यापारी संघों के विषय में सूचनायें प्राप्त होती है । इनमें सबसे महत्वपूर्ण ‘नानादेशिस्’ नामक संगठन था जिसे ‘अय्यवोलेपुर (एहोल) के पाँच सौ स्वामियों’ के नाम से जाना जाता था ।
ये अपने उद्यम के पूरे विश्व में विख्यात थे । ये स्थल तथा जल मार्गों से यात्रायें करते थे तथा चोल, चेर, पाण्ड्य, मूलेय, मगध, कोशल, सौराष्ट्र, धानुष्ट, कुरुम्ब, कम्बोज, गोल्ल, लाल, बर्व्वर, फारस, नेपाल, एकपाब, लम्बकर्ण, स्त्रीराज्य तथा गोलामुख की यात्रायें करते थे ।
यह विवरण शिकारपुर ‘तालुक’ (शिमोगा जिले में स्थित) की एक प्रशस्ति, जो 1054 ई॰ की है, में प्राप्त होता है । नीलकण्ठ शास्त्री इसमें दिये गये अन्तिम चार नामों को काल्पनिक मानते हैं । प्रशस्ति में यह बताया गया है कि इस के व्यापारी छहों महद्विपों के देशों में जाते थे ।
वे सुन्दर हाथियों, घोड़ों, नीलम, चन्दमणि, मोतियों, रूपियों, हारों, (missing word), पुष्पराग, मरकत जैसी बहुमूल्य वस्तुओं के साथ-साथ इलायची, लवंग, गुभ्गुल, चन्दन, केसर, कपूर, कस्तुरी तथा अन्य मसालों एवं इत्रों का व्यापार करते थे ।
इन व्यापारियों के पास अपनी सेना होती थी जिसकी सहायता से वे स्वयं अपनी रक्षा कर सकने में समर्थ थे । सिंहल तथा बर्मा से प्राप्त कुछ प्रस्तर लेखों में इन व्यापारियों द्वारा दिये गये दान का उल्लेख मिलता है । बर्मा के पगान स्थित बैष्णव मन्दिर का निर्माण नानादेशियों द्वारा ही करवाया गया था । बहुत से व्यापारिक केन्द्र ‘दक्षिण के अय्योले’ कहे जाते थे ।
ऐसा प्रतीत होता है कि सेट्टियों (व्यापारियों) की सभा के लिये 500 की संख्या रुढ़ हो गयी थी । पाँच सौ स्वामियों में कई तरह के व्यापारी तथा सैनिक शामिल थे । संभवतः सैनिकों को ‘बीर’ या ‘बीर वणिज्’ कहा जाता था । तमिल लेखों में इन्हें ‘नाना देशिश्’ था ‘तिशौयायिरतु एन्नूर्रवर (सहस्त्र दिशाओं के 500) कहा गया है, जो वीर वणन्नु धर्म (उत्तम वणिकों के धर्म) के संरक्षक थे ।
हीरहडगल्ली लेख (1057 ई॰) में अय्योलेपुर के 500 स्वामियों को ‘पाँच सौ वीरवलेजिय’ कहा गया है । कहीं-कहीं ‘बणन्न’ शब्द भी मिलता हैं । इनके आज्ञापत्रों को ‘500 वीर शासन’ तथा निवास स्थान को ‘वीरपट्टन’ या ‘वीरपत्तन’ कहा जाता था । इस प्रकार के गाँव समस्त साम्प्रदायिक दानों से मुक्त होते थे तथा यहाँ के निवासियों को कुछ विशेष अधिकार और सुविधायें प्राप्त थीं ।
इस प्रकार विभिन्न वर्गों के व्यापारियों का यह एक व्यापक संगठन था जो अत्यन्त प्राचीन काल से तमिल देश में सक्रिय था । बलंगै तथा इदंगै संगठनों के विषय में कुछ सूचना लेखों से मिलती है । त्रिचनापल्ली से प्राप्त एक लेख में कहा गया है कि वलंगै तथा इडंगै के 98-98 वर्गों ने आपस में मिलकर राजकीय अधिकारियों, ब्राह्मणों तथा सामन्तों के अत्याचारों के विरुद्ध लड़ने के लिये एक समझौता किया था ।
संभवतः ये दोनों पहल छोटी-छोटी शाखाओं में गठित थे तथा अब इन्होंने एक बड़ा सामूहिक संगठन बनाने के विषय में निर्णय कर लिया था जिसमें सभी एक माता-पिता के पुत्रों जैसा आचरण करने को वचनबद्ध हो गये । कुछ लेखों में ‘अन्जुवण्णाम्’ तथा ‘मणिग्रामम्’ जैसे अर्ध-स्वतंत्र व्यापारिक निगमों का उल्लेख मिलता है । इन्हें कर-मुक्त भूमि प्राप्त थी ।
निगम के साथ-साथ सार्थ तथा सार्थवाह का भी उल्लेख पाते हैं । सार्थ व्यापारियों का चलता-फिरता संगठन था । जब एक स्थान के व्यापारी दूसरे स्थान में सामान बेचने के लिये जाते थे तो वे समूह बनाकर चलते थे । इस समूह को ‘सार्थ’ तथा इसके नेता को ‘सार्थवाह’ कहा गया है । सार्थ का गठन व्यापार के निमित्त जाने वाले व्यापारी सामूहिक के लिये करते थे ।
अमरकोश में यात्रा करने वाले पान्थों के समूह को ‘सार्थ’ कहा गया है । टीकाकार क्षीरस्वामी ने पूंजी द्वारा व्यापार करने वाले पान्थों के नेता को ‘सार्थवाह’ की संज्ञा दी है । इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राचीन काल में दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में व्यापारिक निगम एवं संस्थायें सक्रिय थीं ।
इस समय दक्षिण का व्यापार अधिकांशतः विनिमय के माध्यम से होता था तथा सिक्कों का बड़ा अभाव था । यह आश्चर्य की बात है कि राष्ट्रकूट शासकों ने अपने विशाल साम्राज्य के लिये कोई सिक्का प्रचलित नहीं करवाया था । यह इस बात का प्रमाण है कि कर्मचारियों का वेतन नकद नहीं दिया जाता था तथा करों की वसूली भी अनाज के रूप में ही होती थी ।
अतः व्यापार या तो विनिमय के माध्यम से होता था अथवा सोने या चांदी के माध्यम से । कुछ लेखों में सोने के सिक्कों का ‘द्रम्म’ नाम से उल्लेख किया गया है जो शासकों द्वारा दान में दिये जाते थे । द्रम्म के अतिरिक्त सुवर्ण, धरण, बेल, दीनार, कलंजु, काणि, काशु, पोन, कार्षापण आदि सिंकों अथवा भार-माप की इकाइयों का उल्लेख भी लेखों में मिलता है ।
पल्लव तथा चोल शासकों ने भी अपने साम्राज्य के लिये सिक्कों का प्रचलन किया था । दसवीं शताब्दी से दक्षिण में विभिन्न सिक्के मिलने लगते हैं । इससे इस बात की सूचना मिलती है कि इस समय व्यापार-वाणिज्य की प्रगति प्रारम्भ हो गयी थी ।
आन्तरिक व्यापार के साथ-साथ दक्षिण भारत का वाह्य व्यापार भी काफी विकसित हुआ । इस समय दक्षिण में कई प्रसिद्ध बन्दरगाह थे जिनसे होकर व्यापारी विदेशों को जाते थे । तमिल देश के पश्चिमों तट पर किलों (कोलम्) नामक प्रसिद्ध बन्दरगाह था जहाँ से व्यापारी पश्चिमी देशों को जाते थे । पूर्वी तट पर पुरी, कलिंगपट्टम, कावेरीपट्टनम्, रामेश्वरम् आदि प्रसिद्ध बन्दरगाह स्थित थे ।
यहाँ से जहाज चीन तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के अन्य द्वीपों को आते-जाते थे । दक्षिण के प्रसिद्ध राजवंशों राष्ट्रकूट, चालुक्य, पल्लव तथा चोल, के समय में भारत का व्यापार चीन, दक्षिणी-पूर्वी एशिया तथा फारस के साथ विकसित हुआ । राष्ट्रकूट शासकों ने अरब व्यापारियों दो साथ मधुर सम्बन्ध बनाये रखा क्योंकि उनसे माल खरीदने में उन्हें लाभ होता था ।
पल्लव काल में महावलीपुरम् प्रसिद्ध बन्दरगाह के रूप में विकसित हुआ जहाँ से श्रीलंका तथा सुदूर-पूर्व के देशों को व्यापारिक जहाज आते-जाते थे । चोल काल में चीन, दक्षिणी-पूर्वी एशिया तथा फारस के साथ व्यापार अत्यन्त विकसित हो गया । राजराज, राजेन्द्र प्रथन तथा कुलोतुंग प्रथम ने चीन में अपने व्यापारिक दूतमण्डल भेजे थे ।
फलस्वरूप चोल साम्राज्य तथा चीन के बीच व्यापारिक संबंधों का विस्तार हुआ । तंजोर में बहुत से चीनी सिक्के मिले हैं जो दक्षिण भारत के साथ चीन के व्यापारिक सम्बन्धों की साक्षी देते हैं । चाऊ-जू-कूआ के विवरण से पता चलता है कि ईसा की दसवीं-बारहबीं शताब्दी में भारतीय गरम मसालों तथा विलासिता की सामग्रियों की चीन में माँग काफी बढ़ गयी । इन्हें आयात करने के बदले चीन का काफी सोना-चाँदी भारत आने लगा अतः रोम के समान चीन को भी बारहवीं शती में मलाबार तथा क्विलोन के साथ अपने व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा था ।
राजराज प्रथम तथा उसके उत्तराधिकारी राजेन्द्र चोल ने विजय, कडारम् तथा मालदीव को जीतकर अपने साम्राज्य का अंग बना लिया था । इन विजयी से दक्षिणी-पूर्वी एशिया के द्वीपों के साथ व्यापार-वाणिज्य अत्यन्त विकसित हो गया । नीलकण्ठ शास्त्री की धारण है कि चोल नरेशों की इन विजयों का उद्देश्य चीन तथा भारत के व्यापारिक सम्बन्धों को और अधिक पुष्ट करना था ।
इस समय भारत के व्यापारी इन्डोनेशिया, बर्मा तथा स्याम को जाते थे । सुमात्रा के लोबुतुआ नामक स्थान में प्राप्त ग्यारहवीं शती के एक लेख में तमिल देश के एक व्यापारी-संघ का नाम दिया गया है । पूर्वी चालुक्य नरेश शक्तिवर्मा के कुछ सिद्ध बर्मा तथा स्याम से मिलते हैं । ‘सिरफ’ जो फारस की खड़ी के पूर्वी किनारे पर स्थित था, इस काल का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था जहाँ चीन, जावा, भारत, मलाया आदि देशों के व्यापारियों का जमघट लगा रहता था ।
यह समस्त एशिया की सबसे बड़ी व्यापारिक मण्डी थी । यहाँ लायी जाने वाली वस्तुओं में दक्षिण भारतीय माल ही सबसे अधिक होते थे । आबूजैद के विवरण से पता चलता है कि भारत के व्यापारी बड़ी संख्या में वहाँ जाते थे तथा मुसलमान व्यापारियों से मिलते थे । यहाँ से व्यापारी जहाज लाल सागर होकर चीन जाने के बजाय जेद्दा से भारत लौट आते थे क्योंकि यहाँ मोती, अम्बर, रत्न तथा सोने की प्राप्ति होती थी ।
अरब लेखकों के विवरण से पता चलता है कि भारत से चन्दन, कपूर, चीनी, नारियल, कपास, हाथीदाँत की वस्तुयें, मोती, विल्लौर, गोलमिर्च, शीशा आदि वस्तुयें अरब देशों को व्यापारियों द्वारा ले जाई जाती थी । मार्कोपोलो दक्षिण भारत के उन व्यापारियों का उल्लेख करता है जो अरब व्यापारियों के साथ मिलकर घोड़ों के आयात पर एकाधिकार जमा रखे थे ।
उसके अनुसार भारत के लोग घोड़े पालना नहीं जानते थे तथा उन्होंने इसका आयात सदा विदेशों से किया । ग्यारहवीं शती के मध्य से ‘सिरफ’ का महत्व घट गया तथा इसका स्थान ‘किश’ ने ले लिया । इस विवरण से स्पष्ट है कि ईसा की छठीं से बारहवीं शताब्दी के बीच दक्षिण भारत में कृषि तथा व्यापार-वाणिज्य की प्रगति हुई ।
वास्तव में यदि देखा जाये तो तमिल राज्यों की समृद्धि का एक बड़ा कारण उनका विदेशी व्यापार था । भारत से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में गरम मसालों की अधिकता थी । इनमें भी गोल मिर्च की यूनान, रोम आदि पश्चिमी देशों में काफी खपत थी । संभवतः इसी कारण संस्कृत साहित्य में इसके लिये ‘यवनप्रिय’ नाम प्रचलित हो गया ।
इसके अतिरिक्त चन्दन, कपूर, मोती, जायफल, कस्तुरी, मलमल, हाथीदाँत आदि भी बाहर जाते थे । इनके बदले में भारत को घोड़े, ताँबा, शीशा, लोहा, सोना, चाँदी, रेशम, चीनी मिट्टी के बर्तन आदि वस्तुयें प्राप्त होती थीं । विदेशी व्यापार अधिकतर भारत के लिये ही लाभकारी होता था । कहा जा सकता है कि देश को आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बनाने में विदेशी व्यापार का महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।