राजपुतकालीन सभ्यता एवं संस्कृति | Rajput Period: Society and Culture in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. राजपूतकालीन शासन व्यवस्था ।

3. राजपूतकालीन सामाजिक दशा ।

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4. राजहाकालीन आर्थिक दशा ।

5. राजपूतकालीन धार्मिक दशा ।

6. राजपूतकालीन शिक्षा, साहित्य व संस्कृति ।

7. उपसंहार ।

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1. प्रस्तावना:

भारत की प्राचीनकालीन शासन व्यवस्था में राजपूतकाल का अपना विशेष महत्त्व है । हर्ष की मृत्यु के उपरान्त भारत जब छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया तब इन राज्यों के शासक राजपूत वंश के थे । इन राजपूतों में गुर्जर, प्रतिहार, चौहान, परमार, चंदेल, चालुक्य, राष्ट्रकूट, पाण्डय, सेन आदि थे ।

सातवीं से बारहवीं सदी तक के 550 वर्षों तक के इस प्रभुता वाले युग को राजपूतकाल कहा जाता है । राजपूतों को युद्ध से अपार प्रेम था । उनमें अनेक गुण थे, किन्तु उनकी जातिगत भावना, ईर्ष्या, द्वेष, कलह के कारण राष्ट्रीयता की भावना बुरी तरह प्रभावित रही । भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास एवं परिवर्तन की दशा में राजपूतकाल का अध्ययन विशेष महत्त्वपूर्ण है ।

2. राजपूतकालीन शासन व्यवस्था:

राजपूतकालीन शासन प्रणाली सामंती थी । जागीरदारी प्रथा के तहत राज्य कई जागीरों में बंटा था । राज्य की शक्ति और सुरक्षा का भार इन जागीरदारों के वंशों पर निर्भर था । आपातकाल में ये राजा की मदद करते थे । राजा को परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर कहा जाता था । राजा के आधीन कई सामंत हुआ करते थे ।

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अभिलेख तथा आदेश राजा के नाम से हुआ करते थे । राजा का कर्म वर्णाश्रम धर्म का पालन, देश की रक्षा, ब्राह्मणों को दान, विद्यालय, मन्दिर, बांध, तालाबों, सड़कों का निर्माण था । ज्येष्ठ पुत्र को ‘युवराज’ का पद मिलता था । राजा के मन्त्रिमण्डल में योग्य और कूटनीतिक मन्त्री होते थे ।

इनके कार्यकलाप पर राजा का भविष्य निर्भर था । मन्त्रियों की संख्या निश्चित नहीं थी । अर्थ मन्त्री को अमात्य कहा जाता था । पुरोहितों में धर्म पुरोहित को महापुरोहित कहा जाता था । शासन व्यवस्था के संचालन के लिए अन्य अधिक में कोट्टपाल, सीमारक्षक, भण्डागारिक, अक्षपट्टलिक दूतक, सेना का संचालक सेनापति, दण्डपाशिक आदि पुलिस विभाग के अधिकारी होते थे ।

न्याय विभाग के अध्यक्ष को महाधर्माध्यक्ष कहते थे । अधिकतर अपराधों के लिए दण्ड होता था । कारावास की कोई व्यवस्था नहीं थी । आय-व्यय हेतु कर व्यवस्था प्रचलित थी । लूले, लंगड़े, अपाहिज तथा दानग्राही ब्राह्मण करों से मुक्त थे । शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए शासन का विकेन्द्रीकरण किया गया था । राज्य, पुर और नगर एवं गांव सबसे छोटी इकाई थी । पंचायत का भी प्रचलन था ।

3. राजपूतकालीन सामाजिक दशा:

राजपूत युग में समाज वर्णों, उपवर्गों में बंटा था । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के समाज में ब्राह्मणों का विशेष महत्व था । लुहार, सुनार, चर्मकार आदि के कुटीर उद्योग-धन्धे प्रचलित थे । इस युग में नवीन जाति का उदय हुआ, जिसे कायस्थ कहा जाता था, जो स्वभावत: लिपिक थे । राजपूतकाल में गोत्र में किये जाने वाले अनुलोम विवाह का प्रचलन था ।

कुलीन लोग बहुविवाह भी किया करते थे । बालविवाह, पर्दाप्रथा, सतीप्रथा, जौहर प्रथा प्रचलित थी । उच्चवर्गीय स्त्रियां चित्रकला, संगीत व नृत्य सीखती थीं । स्त्रियों को शूद्रों के समान समझा जाता था । स्त्री का पद इतना निम्न स्तर का था कि उन्हें दुश्चरित्र पति की सेवा करनी पड़ती थी । दास प्रथा प्रचलित थी ।

इस युग में गेहूं ज्वार, त्रिफला, गुड़, शक्कर, महुआ, खीर, पुआ, लड्‌डू, मोदक, मूंग, चावल, मसालों के साथ-साथ क्षत्रियों में मांस का प्रचलन था । सूती, ऊनी, रेशमी वस्त्रों का प्रयोग होता था । स्त्रियां साड़ी, अधोवस्त्र, रूानपट्ट, अंगी पहनती थीं । घर से बाहर उतरीय का प्रयोग भी होता था । आभूषणों का प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों ही करते थे । कर्णफूल, बाजूबंद, नुपूर, रलहार, हाथी दांत, शंख चूड़ियों का प्रयोग प्रचलित था ।

नृत्य, संगीत, नाटक, रथ, घुड़दौड़, शतरंज, काव्य चर्चा, रथयात्रा आदि मनोरंजक उत्सव प्रचलित थे । राजपूत भलमनसाहत तथा न्यायप्रियता के प्रशंसक थे । वे अभिमानी, वचन के सच्चे पालक थे । कालान्तर में झूठे अभिमान, रूढ़िवादिता, विलासिता ने उनकी छवि को धूमिल कर दिया ।

4. राजपूतकालीन आर्थिक दशा:

राजपूतकाल में देश की आर्थिक स्थिति समृद्ध थी । ग्राम के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था । गेहूं चना, जौ, सन, गन्ना, लवण वस्त्र, खाद्य पदार्थ प्रमुख थे । सोने, चांदी के बर्तन बनाना, अस्त्र-शस्त्र निर्माण, कताई-बुनाई आदि व्यवसाय थे । क्रय-विक्रय के लिए सिक्कों का प्रयोग होता था । सड़कों पर बैलगाड़ी, ऊंटगाड़ी, रथ का प्रयोग होता था । जहाज भी चलाये जाते थे ।

5. राजपूतकालीन धार्मिक दशा:

राजपूतकाल में शैव तथा वैष्णव मत का विकास हुआ । बौद्ध धर्म की स्थिति जैन धर्म से अच्छी नहीं थी । प्रतिहार शासक वत्सराज ने कन्नौज के निकट महावीर स्वामी की विशाल मूर्ति बनवायी । बौद्ध धर्म अन्धविश्वास, भ्रष्टाचार, गुक यौगिक क्रियाएं, भोग विलासमय जीवन आदि बुराइयों के कारण कमजोर पड़ गया था ।

हिन्दू धर्म अनेक सम्प्रदायों में बंटा था । मूर्ति पूजा के रूप में विष्णु, शिव, गणेश, सूर्य तथा गंगा, जमुना आदि की अनेक मूर्तियों की पूजा होती थी । तान्त्रिक क्रियाओं के साथ-साथ जादू-टोने का प्रचलन था ।

इस युग में विष्णु के 24 अवतारों की पूजा भी होती थी । इस युग में मीमांसा अद्वैतवाद, वैष्णव भक्ति का जोर था । हठयोग, नरबलि, जटिल पूजापद्धति ने यहां की धार्मिक दशा को प्रभावित किया ।

6. शिक्षा, साहित्य व संस्कृति:

इस युग की शिक्षा व्यवस्था राजघराने तक सीमित थी । इस काल की प्रमुख रचनाओं में विशाखदत्त का मुद्राराक्षस राजकवि शेखर का कर्पूरमंजरी, सोमदेव का कथासरित्सागर, नारायण पण्डित का हितोपदेश, जयदेव की गीतगोन्विद, बाणभट्ट की कादम्बरी, विल्हण की चोर पंचाशिका, सुबंधु की वासवदत्ता, शंकराचार्य का ब्रह्मसूत्र, कल्हण की राजतंरगिनी, आनन्दवर्धन का ध्वन्यालोक, कुंतक का वक्रोक्तिजीवितम, भास्कराचार्य की सिद्धान्तशिरोमणि व लीलावती प्रसिद्ध रहे ।

इस युग में स्थापत्यकला, चित्रकला, नृत्यकला उन्नत कोटि की थी । चित्तौड़ के महल किले, दुर्ग, माउण्टआबू दिलवाड़ा का जैनमन्दिर, मैसूर, तंजौर व बेसर शैली के मन्दिर, काशी का विश्वेश्वर मन्दिर, एलीफेण्टा की गुफाएं, गोमतेश्वर की मूर्ति प्रसिद्ध है । संगीतकला की दृष्टि से भी यह एक श्रेष्ठ काल था ।

7. उपसंहार:

यह सत्य है कि सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में राजपूतकाल का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से विशेष योगदान था ।

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