राजपूत अवधि के दौरान भारत: राजपूत अवधि के दौरान प्रशासन, सामाजिक और आर्थिक जीवन. Read this article to learn about India during Rajput Period: Administration, Social and Economic Life During Rajput Period.
Contents:
- राजपूतकालीन सांस्कृति का शासन व्यवस्था (Administration during Rajput Period)
- राजपूतकालीन सांस्कृति का सामाजिक जीवन (Social Life during Rajput Period)
- राजपूतकालीन सांस्कृति का आर्थिक जीवन (Economic Life during Rajput Period)
- राजपूतकालीन सांस्कृति का धार्मिक जीवन (Religious Life during Rajput Period)
- राजपूतकालीन सांस्कृति की कला और साहित्य (Art and Literature during Rajput Period)
1. राजपूतकालीन सांस्कृति का शासन व्यवस्था (Administration During Rajput Period):
राजपूतकालीन भारत में राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से अनेक परिवर्तन दिखाई देते हैं । शासन के क्षेत्र में सामन्तवाद का पूर्ण विकास इसी युग में दिखाई देता हैं । राजपूतों का समवर्ण राज्य अनेक छोटी-छोटी जागीरों में विभक्त था ।
ADVERTISEMENTS:
प्रत्येक जागीर का प्रशासन एक सामन्त के हाथ में होता था जो प्रायः राजा के कुल से ही सम्बन्धित होता था सामन्त महाराज, महासामन्त, महासामन्ताधिपति, मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर, महामाण्डलिक आदि उपाधियों धारण करते थे ।
बारहवीं शती की रचना अपराजितपृच्छा में महामण्डलेश्वर, माण्डलिक, महासामन्त, सामन्त, लयुसामन्त, चतुरंशिक जैसे विविध सामन्तों का उल्लेख मिलता है जो क्रमशः एक लाख, पचास हजार, बीस हजार, दस हजार, पाँच हजार तथा एक हजार गाँवों के स्वामी थे ।
चाहमान शासक पृथ्वीराज, कलचुरि शासक कर्ण तथा चौलुक्य शासक कुमारपाल के शासन में क्रमशः 150, 136 तथा 72 सामन्तों के अस्तित्व का पता लगता है । इस प्रकार राजपूत शासक अपनी प्रजा पर शासन न करके सामन्तों पर ही शासन करते थे । सामन्तों के पास अपने न्यायालय तथा अपनी मन्त्रिपरिषद् होती थी ।
अपने लेखों में वे सम्राट का उल्लेख करते थे तथा समय-समय पर राजदरबार में उपस्थित होकर भेंट-उपहारादि दिया करते थे । राज्याभिषेक के अवसर पर उनकी उपस्थिति विशेष रूप से आवश्यक मानी जाती थी । सामन्तों के पास अपनी अलग-अलग सेना होती थी जो आवश्यकता पड़ने पर उनके नेतृत्व में राज्य की सेना में सम्मिलित होती थी ।
ADVERTISEMENTS:
कुछ शक्तिशाली सामन्त अपने अधीन कई उपसामन्त भी रखते थे । छोटे सामन्त राजा, ठाकुर, भोक्ता आदि उपाधियों ग्रहण करते थे । इस प्रकार राज्य की वास्तविक शक्ति और सुरक्षा की जिम्मेदारी सामन्तों पर ही होती थी । सामन्तों में राजभक्ति की भावना बड़ी प्रबल होती थी ।
वे अपने स्वामी के लिये सर्वस्व बलिदान करने के लिये सदैव तत्पर रहते थे । सामन्तों की संख्या में वृद्धि से सामान्य जनता का जीवन कष्टमय हो गया था । वे जनता का मनमाने ढंग से शोषण करते थे । इस युग के शासक निरंकुश होते थे । प्राचीन इतिहास के अन्य युगों की भाँति राजपूत युग में वंशानुगत राजतंत्र सर्वमान्य शासन पद्धति थी । राजा की स्थिति सर्वोपरि होती थी ।
न्याय तथा सेना का भी वह सर्वोच्च अधिकारी था । महाराजाधिराज, परमभट्टारक, परमेश्वर जैसी उच्च सम्मानपरक उपाधियां धारण कर वह अपनी महत्ता को ज्ञापित करता था । राजा देवता का प्रतीक समझा जाता था । मनु का अनुकरण करते हुए लक्ष्मीधर ने अपने ग्रंथ कृत्यकल्पतरु में राजा को लोकपालों- इन्द्र, वरुण, अग्नि, मित्र, वायु, सूर्य आदि के अंश से निर्मित बताया है ।
इस प्रकार सिद्धान्तत शासक की स्थिति निरंकुश थी किन्तु व्यवहार में धर्म तथा लोक-परम्पराओं द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करता था । मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि ने प्रजारक्षण तथा प्रजापालन को राजा का परम कर्त्तव्य निरुपित किया है । इस काल के व्यवस्थाकारों ने अन्यायी एवं अत्याचारी राजा को प्रजा द्वारा मार डालने का भी विधान किया है ।
ADVERTISEMENTS:
राजपूत युग में राजाओं द्वारा अपने कुल तथा परिवार के व्यक्तियों को ही उच्च पदों पर आसीन किया जाता था । साधारण जनता शासन के कार्यों में भाग नहीं ले सकती थी तथा राजनीतिक विषयों के प्रति उदासीन रहती थी । फलस्वरूप राजपूत युग में मन्त्रिपरिषद् का महत्व अत्यन्त घट गया था । तत्कालीन गुच्छों से पता चलता है कि सम्राट अपने मन्त्रियों के परामर्श की उपेक्षा कर देते थे ।
प्रबन्धचन्द्रोदय में मन्त्रियों को स्वेच्छाचारी शासकों के सामने असहाय बताया गया है । प्रबन्धकोश से पता चलता है कि कन्नौज के राजा जयचन्द्र ने एक शूद्रा स्त्री के प्रभाव में पड़कर अपने मन्त्री की बात नहीं मानी थी । प्रबन्धचिन्तामणि के अनुसार परमार नरेश मुंज ने अपने प्रधानमन्त्री रुद्रादित्य की सलाह के विपरीत चालुक्य नरेश तैलप से युद्ध किया था ।
बी. एन. एस. यादव ने पूर्वमध्यकाल में शासकों तथा मन्त्रियों के बिगड़ते हुये सम्बन्धों तथा उनके कारणों पर विस्तृत प्रकाश डालते हुये प्रतिपादित किया है कि अपनी निरंकुश प्रवृत्ति, शौर्य-भावना तथा सामन्तों के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण इस युग के शासक अपने मन्त्रियों तथा उनके परामर्श की अवहेलना कर देते थे ।
इस युग के गुणों में राजाओं द्वारा मन्त्रियों को दण्डित किये जाने के भी उल्लेख प्राप्त होते है । प्रबन्धचिंतामणि तथा दशकुमारचरित से पता चलता है कि राजा अपने मन्त्रियों के नाक-कान काट लेते अथवा उन्हें अन्धा बना देते थे । इस प्रकार राजपूतकाल में शासकों तथा उनके मन्त्रियों के सम्बन्ध कटुतापूर्ण हो गये थे ।
मन्त्रियों का अयोग्य तथा आनुवंशिक होना भी इसके पीछे उत्तरदायी माना जा सकता है । मन्त्रियों का स्थान एक नियमित नौकरशाही ने ग्रहण कर लिया था। तत्कालीन अभिलेखों में ‘कायस्थ’ नामक अधिकारियों का उल्लेख मिलता है । ये अधिकारी अधिकतर ब्राह्मण जाति से लिये जाते थे ।
लेखों तथा तत्कालीन साहित्य में कुछ केंद्रीय पदाधिकारियों के नाम दिये गये है- सान्धिविग्रहिक, महाप्रतीहार, महादण्डनायक, धर्मस्थीय, सेनापति आदि । उल्लेखनीय है कि ये पद गुप्तकाल से ही शासन में चले आ रहे थे । प्रतिहार शासन में दुर्ग के अधिकारी को ‘कोट्टपाल’ कहा जाता था ।
नाडोल प्रस्तर लेख (1141-42 ई.) से पता चलता है कि चाहमान काल में नगर प्रशासन अत्यन्त विकसित एवं संगठित था । नगर विभिन्न वार्डों में विभाजित था । प्रत्येक वार्ड के निवासी अपने नेता के माध्यम से शासन संचालन में भाग लेते थे । राज्य की आय का प्रमुख सोत भूमिकर था ।
यह भूमि की स्थिति के अनुसार तीसरे से लेकर वारहवें भाग तक लिया जाता था । उद्योग तथा वाणिज्य कर राजस्व का तीसरा साधन था । वाणिज्य तथा उत्पादित वस्तुओं पर कर लगाये जाते थे । आपत्काल में राजा प्रजा से अतिरिक्त कर वसूलता था ।
कुलीनों तथा सामन्तों द्वारा प्रदत्त उपहार तथा युद्ध में लूट के धन से भी राजकोश में पर्याप्त वृद्धि होती थी । कर ग्राम पंचायतों द्वारा एकत्रित किया जाता था । ग्राम पंचायते केंद्रीय शासन से प्रायः स्वतन्त्र होकर अपना कार्य करती थीं । दीवानी तथा फौजदारी के मुकदमों के फैसले भी ग्राम पंचायत द्वारा ही किये जाते थे ।
2. राजपूतकालीन सांस्कृति का
सामाजिक जीवन (Social Life During Rajput Period):
राजपूतयुगीन समाज वर्णों एवं जातियों के जटिल नियमों द्वारा शासित था । इस समय जाति-प्रथा की कठोरता बढी तथा हिन्दू समाज की ग्रहणशीलता एवं सहिष्णुता कम हुई । परम्परागत चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र- के अतिरिक्त समाज में अनेक जातियाँ एवं उपजातियाँ पैदा हो गयी थी ।
राजतरंगिणी में 64 उपजातियों का उल्लेख मिलता है । अनेक जातियाँ अछूत समझी जाती थीं जिन्हें गाँवों और नगरों के बाहर निवास करना पड़ता था । ब्राह्मणों का सदा की तरह इस युग में भी प्रतिष्ठित स्थान था । वे राजपूत शासकों के मन्त्री एवं सलाहकार नियुक्त किये जाते थे ।
अधिकांश ब्राह्मण अध्ययन, यज्ञ, तप आदि में अपना जीवन व्यतीत करते थे । उनके पास ज्ञान का अथाह भण्डार होता था । उनका जीवन अत्यन्त पवित्र था। वे माँस-मदिरा का सेवन नहीं करते थे । क्षत्रिय जाति के लोग युद्ध तथा शासन का काम करते थे । इस काल के राजपूत उच्चकोटि के यौद्धा होते थे ।
उनमें साहस, आत्मसम्मान, वीरता एवं स्वदेशभक्ति की भावनायें कूट-कूट कर भरी थीं । वे अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक प्रतिज्ञा का पालन करते तथा शरणागत की रक्षा करना- भले ही यह जघन्य अपराधी ही हो- अपना परम कर्तव्य समझते थे । परन्तु इन गुणों के साथ-साथ उनमें मिथ्याभिमान, अहंकार, व्यक्तिगत द्वेष-भाव, संकीर्णता आदि दुर्गुण भी विद्यमान थे ।
वैश्य जाति के लोग व्यापार का काम करते तथा धन ब्याज पर उधार देते थे । शूद्र का कार्य कृषि, शिल्पकारी तथा अन्य वर्षों की सेवा करना था । वैश्य तथा शूद्र जाति के लोगों को वेदाध्ययन एव मन्त्रोच्चारण का अधिकार नहीं था । पूर्व मध्यकालीन समाज में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि वैश्य वर्ण की सामाजिक स्थिति पतनोन्मुख हुई तथा उन्हें शूद्रों के साथ समेट लिया गया ।
इसका मुख्य कारण इस काल के प्रथम चरण (650-1000 ईस्वी) में व्यापार-वाणिज्य का ह्रास था । इसके विपरीत शूद्रों का सम्बन्ध कृषि के साथ जुड़ जाने से उनकी सामाजिक स्थिति पहले से बेहतर हो गयी । शूद्रों ने कृषक के रूप में वैश्यों का स्थान ग्रहण कर लिया । यही कारण है कि पूर्व मध्ययुग के कुछ लेखक वैश्यों का उल्लेख केवल व्यापारी के रूप में करते है ।
कुछ निम्न श्रेणी के वैश्य शूद्रों के साथ संयुक्त हो गये । किन्तु ग्यारहवीं शती में व्यापार-वाणिज्य की प्रगति होने पर वैश्यों की स्थिति में पुन सुधार हुआ । कुछ वैश्य अत्यन्त समृद्ध हो गये तथा उनकी गणना सामन्तों और जमींदारों में की जाने लगी । इस सामाजिक परिवर्तन का प्रभाव वर्ण-व्यवस्था पर भी पड़ा ।
ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक आते-आते समाज में जाति प्रथा की रूढियों के विरुद्ध आवाज उठाई गयी । जैन आचार्यों, शाक्त-तान्त्रिक सम्प्रदाय के अनुयायियों तथा चार्वाक मत के पोषकों ने परम्परागत जाति प्रथा को चुनौती देते हुए कर्म की महत्ता का प्रतिपादन किया । बी. एन. एस. यादव के अनुसार जाति-प्रथा के विरोध के पीछे निम्न वर्गों की आर्थिक स्थिति में सुधार होना भी एक महत्वपूर्ण कारण था ।
राजपूतकालीन समाज में महिलाओं को सम्मानित स्थान प्राप्त था । राजपूत नरेश अपनी पत्नियों से प्रेम करते थे तथा उनकी मान-मर्यादा एवं सतीत्व की रक्षा के लिये सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार रहते थे । राजपूत कुलों में विवाह स्वयंवर प्रथा द्वारा होते थे जिसमें कन्यायें अपना वर स्वयं चुनती थीं ।
कभी-कभी अन्तर्जातीय विवाह (अनुलोम) होते थे । पश्चिमी भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय कन्या के साथ विवाह करते थे । विवाह की उम्र क्रमशः कम होती जा रही थी । राजपूत युग में प्रायः बाल-विवाह का ही प्रचलन हो चुका था । कुलीन वर्ग के लोग कई पत्नियाँ रखते थे । समाज में जौहर तथा सती की प्रथायें प्रचलित थीं ।
जौहर के अन्तर्गत अपने को विदेशियों के हाथ से बचाने के लिए राजपूत महिलायें सामूहिक रूप से प्राणोत्सर्ग करती थीं जबकि सती प्रथा के अन्तर्गत पति की मृत्यु के बाद वे चिता बनाकर जल जाती थी । समाज की उच्च वर्ग की महिलाओं में पर्दा प्रथा का प्रचार होता जा रहा था ।
विधवाओं को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था तथा उनका दर्शन अशुभ माना जाने लगा । उनके सिर के बाल कटा दिये जाते थे । बाल-विवाह के प्रचलन के कारण लड़कियों की शिक्षा का ह्रास होता जा रहा था । परन्तु शासक वर्ग की कन्याओं को कुछ प्रशासनिक एवं सैनिक शिक्षा दी जाती थी ।
चालुक्यवंशी विजयभट्टारिका ( 7वीं शताब्दी ईस्वी) तथा कश्मीर की दो महिलाओं- सुगन्धा तथा दिद्दा (10वीं शती) ने कुशलतापूर्वक प्रशासन का संचालन किया था । चालुक्यशासन में अनेक स्त्री गवर्नरों एवं पदाधिकारियों के नाम मिलते है । इस काल की कुछ महिलायें विदुषी भी होती थीं ।
राजशेखर की पत्नी अवन्तिसुन्दरी एक विदुषी थी । मण्डनमिश्र की पत्नी भारती ने शास्त्रार्थ में प्रख्यात दार्शनिक शकराचार्य को पराजित किया था । इस काल के व्यवस्थाकारों ने स्त्री के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकारों को मान्यता प्रदान कर दी थी ।
अल्बेरूनी के विवरण से पता चलता है कि स्त्रियों पर्याप्त शिक्षिता होती थीं तथा सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भाग लेती थीं । कन्यायें संस्कृत लिखना, पढना तथा समझना जानती थी और वे संगीत, नृत्य एवं वाद्य में निपुण थी । राजपूतों को घुड़सवारी तथा हाथियों की सवारी का विशेष शौक था । वे आखेट में भी रुचि रखते थे । मदिरापान, द्यूतक्रीड़ा, अफीम सेवन आदि के दुर्व्यसन भी उनमें अत्यधिक प्रचलित थे ।
3. राजपूतकालीन सांस्कृति का
आर्थिक जीवन (Economic Life During Rajput Period):
राजपूतकाल में कृषि जनता की जीविका का प्रमुख साधन थी । इस समय तक कृषि का पूर्ण विकास हो चुका था । विभिन्न प्रकार के अन्नों का उत्पादन होता था । हेमचन्द्र कृत प्रबन्धचिन्तामणि में सत्रह प्रकार के ‘धान्यों’ का उल्लेख मिलता है । शून्य पुराण से पता चलता है कि बंगाल में पचास से भी अधिक प्रकार के चावल का उत्पादन किया जाता था ।
मानसोल्लास में विविध रंगों एवं सुगंधों वाले आठ प्रकार के चावलों का उल्लेख किया गया है । इसके अतिरिक्त गेहूँ जी, मक्का, कोदो, मसूर, तिल, विविध प्रकार की दालें, गन्ना आदि के प्रचुर उत्पादन का उल्लेख भी साहित्य तथा लेखों में मिलता है । अरब लेखक भूमि की उर्वरता का उल्लेख करते है ।
किन्तु इस समय अतिरिक्त उत्पादन को कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता था क्योंकि किसान जितना अधिक उत्पादन करते थे उतना ही अधिक सामन्तों की मांग बढ़ जाती थी । अतः वे कम से कम अनाज पैदा करना ही लाभकारी समझते थे । कृषकों को नाना प्रकार के कर देने पड़ते थे ।
पूर्वमध्यकाल के लेखों में भाग, भोग, बलि, धान्य, हिरण्य, उपरिकर, उद्रड्ग, उदकभाग आदि करों का उल्लेख प्राप्त होता है । इनमें भाग, कृषकों से उपज के अंश के रूप में लिया जाता था । भोग, राजा के उपभोग के लिये समय-समय पर प्रजा द्वारा दिया जाता था । बलि, राजा को उपहार के रूप में मिलता था ।
‘धान्य’ कुछ विशेष प्रकार के अनाजों पर लगाया जाता था । हिरण्य, नकद वसूल किया जाने वाला कर था । उपरिकर तथा उद्रड्ग, भूमि पर अस्थाई तथा स्थायी रूप से रहने वाले किसानों से लिया जाता था । लल्लन जी गोपाल का विचार है कि उपरिकर तथा उद्र्ङ्ग का उल्लेख ही अर्थशास्त्र में उपक्तिप्त (अनिश्चित अथवा अतिरिक्त कर) तथा क्लिप्त (निश्चित कर) के रूप में किया गया है ।
उनके अनुसार कृषक राज्य की भूमि की सिचाई के लिये जल के भाग के रूप में कर देते थे । इसे ही ‘उदकभाग’ कहा गया है । उन्होंने सिंचाई के लिये लगने वाले करों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है । भूमि के स्वामित्व के सम्बन्ध में उनकी धारणा है कि वस्तुतः यह राजा तथा कृषक दोनों का ही होता था ।
राजा भूमि का स्वामी होने के कारण उसकी उपज का अपना भाग नियमित रूप से प्राप्त करता था जब कि कृषक उसका स्वामी होने के कारण अपनी इच्छा तथा सुविधा के अनुसार उसका उपयोग करता था ।
गाहड़वाल तथा कलचुरि लेखों में विभिन्न करों की एक लम्बी सूची मिलती है जिनमें से कुछ का अर्थ अस्पष्ट है । इन्हीं में से एक ‘तुरुषकदण्ड’ नामक कर था जो मुस्लिम जनता से लिया जाता था । फुटकर सामानों की बिक्री करने वाले व्यापारी ‘प्रवणिकर’ देते थे ।
राजपूत शासकों ने कृषि के लिये सिचाई की उत्तम व्यवस्था करवाई थी । इस उद्देश्य से उन्होंने कई कुएँ तालाब, झीलें, नहरों आदि का निर्माण करवाया था । चाहमान नरेश अर्णोंराज तथा उसके पुत्र वीसलदेव ने क्रमशः ‘आनासागर’ नामक झील तथा ‘बीसलसर’ नामक तालाब खुदवाया था ।
चन्देल तथा परमार शासकों के काल में महोवा और धारा नगरी में अनेक झीलों का निर्माण करवाया गया । धारा नगरी के विद्वान् शासक भोज ने भोपाल के दक्षिण-पूर्व में 250 वर्गमील लम्बा भोजसर का निर्माण करवाया था ।
आठवीं शती के बाद से साहित्य तथा लेखों में ‘अरघट्ट अथवा अरहट्ट’ का उल्लेख प्रमुखता से मिलने लगता है । इससे सूचित होता है कि अधिकतर रहँट द्वारा कुँओं से पानी निकालकर खेतों तक पहुंचाया जाता था । अब सिंचाई में तकनीकी निपुणता प्राप्त कर ली गयी थी ।
कृषि के साथ-साथ व्यापार-व्यवसाय भी उन्नति पर थे । यातायात की सुविधा के लिए देश के प्रमुख नगरों को सड़कों द्वारा जोड़ दिया गया था तत्कालीन साहित्य तथा लेखों में विभिन्न प्रकार के उद्यमियों जैसे- तैलिक, रथकार, बढ़ई, ताम्बूलिक, मालाकार, कलाल (सुरा बेचने वाले) आदि का उल्लेख मिलता है । इस युग के अधिकांश नगरों के निर्माण में विशाल पाषाणखण्डों का प्रयोग हुआ है ।
इससे ऐसा लगता है कि पत्थर तराशने का उद्योग भी काफी विकसित दशा में रहा होगा । लोहे के अस्त्र-शस्त्र एवं धातुओं के वर्तन तथा आभूषण बनाने का व्यवसाय भी प्रगति पर था । अल्बेरूनी जूते बनाने, टोकरी बनाने, ढाल तैयार करने, मत्स्य-पालन, कताई-बुनाई, आदि का उल्लेख करता है ।
राजस्थान की सांभर झील से नमक तैयार किया जाता था । व्यवसायियों की अलग-अलग श्रेणियाँ भी होती थीं । अधिकांश श्रेणियों के पास अपने सभा-भवन होते थे जहां बैठकर उसके सदस्य विचार-विमर्श किया करते थे । राज्य उनके नियमों का आदर करता था । श्रेणियों का मुख्य काम व्यावसायिक उत्पादन में वृद्धि करना तथा वितरण एवं उपभोग की वस्तुओं की उचित व्यवस्था करना होता था ।
वे अपने क्षेत्र में कार्य करने के लिये स्वतन्त्र थी तथा राजा को उनका निर्णय मानना पड़ता था । किन्तु इस काल में श्रेणियों उतनी शक्तिशाली नहीं थीं जितनी कि पूर्ववर्ती काल में । इसका कारण अर्थतन्त्र पर सामन्तों का बढता हुआ प्रभाव माना जा सकता है । सामन्तगण श्रेणी संगठनों को सन्देह की दृष्टि से देखते थे । इस काल में हमें दक्षिणी भारत में ही वास्तविक अधिकार-सम्पन्न श्रेणियों के दर्शन होते हैं ।
राजपूत युग में आन्तरिक तथा वाह्य दोनों ही व्यापार प्रगति पर थे । अल्बेरूनी भारत के प्रमुख नगरों को जोड़ने वाले मार्गों का विस्तारपूर्वक उल्लेख करता है । स्थल मार्ग के अतिरिक्त जलमार्ग भी थे । बड़े-बड़े नगर नदियों से जुडे हुए थे । वाह्य देशों के साथ समुद्र के माध्यम से व्यापार होता था । भारतीय मालवाहक जहाज अरब, फारस, मिस्र, चीन, पूर्वी द्वीपसमूह आदि को जाया करते थे ।
पश्चिमी एशिया तथा मिस से अरब व्यापारी तथा सौदागर भारत पहुँचते थे । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इस युग में अतिरिक्त उत्पादन के अभाव ने दूरवर्ती देशों के साथ व्यापार को प्रभावित किया तथा यह सीमित हो गया । निरन्तर युद्धों के कारण भी व्यापार की प्रगति में बाधा पहुँची थी ।
आर्थिक क्षेत्र में हम इस समय साहूकारों का महत्व बढ़ा हुआ पाते है । कारण कि अब ऋण पर ब्याज की दर पच्चीस से तीस प्रतिशत तक हो गयी और इससे सूदखोर लोग अत्यधिक समृद्ध हो गये । विद्वानों ने आर्थिक विकास की दृष्टि रो पूर्व मध्यकाल को दो चरणों में विभाजित किया है । प्रथम चरण (650-1000 ई.) में सिक्कों तथा मुहरों का घोर अभाव है ।
इस कारण इसे आर्थिक दृष्टि से पतन का काल निरूपित किया गया है अनवरत युद्धों तक सामन्तों के अत्यधिक प्रभाव के कारण व्यापार-वाणिज्य की प्रगति को ठेस पहुँची । क्षेत्रीयता की भावना प्रबल हुई तथा सामाजिक गतिशीलता अवरूद्ध हो गयी ।
सामन्तों ने आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को ही प्रोत्साहन प्रदान किया । सामन्त शासक अपने-अपने राज्यों में व्यापारियों से चुंगी वसूल करते थे जिससे उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल ले जाने में काफी कठिनाई होती थी ।
आवागमन के मार्ग भी सुरक्षित नहीं थे । कुछ सामन्त भी चोर-डाकुओं के साथ मिलकर व्यापारियों को लूटते थे । चन्देल वंश के कुछ दान पत्रों रो पता चलता है कि भूमि के साथ-साथ व्यापारियों को भी धार्मिक अनुदान भोगियों को हस्तान्तरित किया जाता था ।
व्यापारियों की हीन स्थिति का संकेत स्कन्द पुराण के इस कथन में भी मिलता है कि ‘कलियुग में व्यापारियों की संख्या राजपुत्रों पर आश्रित हो जाने के कारण कम हो जायेगी’ । इन सभी कारणों से व्यापार-वाणिज्य का मार्ग अवरुद्ध हो गया । राष्ट्रकूट अथवा पाल राजाओं के सुदीर्घ शासन के बावजूद उनके कोई सिक्के हमें नहीं मिलते ।
किन्तु ग्यारहवी-बारहवीं शती (1000-1200 ई.) में जब कुछ बड़े राजपूत राज्यों-चौहान, परमार, चन्देल आदि-की स्थापना हुई और राजनेतिक विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति पर अंकुश लगा तो व्यापार-वाणिज्य का पुनरुत्थान हुआ । इन वंशों के शासकों ने इसे प्रोत्साहन प्रदान किया । परमार शासक भोज की व्यापार-वाणिज्य में गहरी अभिरुचि का प्रमाण उसकी रचना युक्तिकल्पतरु से मिलता है जिसमें विभिन्न प्रकार के व्यापारिक जहाज का विवरण दिया गया है ।
दो प्रकार के जहाजों-नदी मार्ग से होकर जाने वाले तथा समुद्री मार्ग से होकर जाने वाले, का उल्लेख मिलता है । जहाजों के निर्माण का विवरण देते हुए इसमें बताया गया है कि तख्तों को लोहे की कीली के बजाय रस्सी से जोड़ना चाहिए क्योंकि कील लगी होने से जहाज को चुम्बकीय चट्टानें अपनी ओर खींच सकती हैं । इस विवरण से जहाजरानी उद्योग के समुन्नत होने का भी प्रमाण मिलता है ।
प्रबन्धकोश से पता चलता है कि राज्य व्यापारियों एवं व्यवसायियों की सुरक्षा के निमित्त सैनिक सहायता भी प्रदान करता था । व्यापारी बहुत अधिक कर प्रदान करते थे । यही कारण है कि बारहवीं शती की कुछ रचनाओं में वणिक वर्ग को राजा का कोष’ कहा गया है ।
चौलुक्य नरेश कुमारपाल ने संभवतः वणिजों से मधुर संबंध बनाये रखने के उद्देश्य से ही जैन धर्म को शासकीय संरक्षण प्रदान किया था क्योंकि अधिकांश व्यापारी एवं व्यवसायी उसी के अनुयायी थे । ग्यारहवीं-बारहवीं शती में व्यापार-वाणिज्य का जो पुनरुत्तान हुआ उसका एक कारण उत्पादन अधिशेष को भी माना जा सकता है ।
मध्य तथा पश्चिमी भारत में गन्ना, कपास तथा सन नकदी फसलों की खेती प्रभूत मात्रा में होने लगी । इनसे तैयार वस्तुओं को देहाती सौदागर खरीदकर बन्दरगाहों में भेजते थे जहाँ से उनका निर्यात किया जाता था । मार्कोपोलो के विवरण से पता चलता है कि गुजरात में कपास के पौधों से काफी रुई निकलती थी ।
व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के कारण ही हमें पूर्व मध्यकाल के द्वितीय चरण में सिक्के तथा मुहरें बड़ी संख्या में मिलने लगती हैं । सिक्का प्रचलित करने का कार्य सर्वप्रथम गहड़वाल वंश के शासकों ने किया । मदनपाल (1102-11 ई.) के ‘द्रम्म’ नामक सिक्के मिलते हैं ।
गुप्त साम्राज्य के पतन के लगभग चार शताब्दियों बाद डाहल (त्रिपुरी) के कलचुरि नरेश गांगेयदेव (1019-1040 ई.) ने स्वर्ण सिक्कों का निर्माण प्रारम्भ किया । उसके उत्तराधिकारियों के भी सिक्के मिलते हैं । कुछ ताम्र सिक्कों पर ‘हनुमान’ की आकृति मिलती है ।
तत्पश्चात् चन्देल शासकों-कीर्तिवर्मा, मदनवर्मा, परमर्दि एवं त्रैलोक्यवर्मा, गाहड़वाल गोविन्दचन्द्र, चौलुक्य जयसिंह सिद्धराज, परमार उदयादित्य आदि ने भी स्वर्ण सिक्के निर्मित करवाये । स्वर्ण के साथ-साथ रजत, कांस्य तथा ताम्र सिक्के भी ढलवाये गये ।
कलचुरी तथा चन्देल सिक्कों पर लक्ष्मी की भी आकृति मिलती है । मुहम्मद ने भी लक्ष्मी प्रकार के सिक्के ढलवाये थे । चाहमानों को भी बहुत से सिक्के जारी करने का श्रेय दिया जाता है । इस समय हजारों की संख्या में प्राप्त गधैया सिक्कों में अधिकांश गुहिलों और चाहमानों के है ।
अक्षरांकित गधैया सिक्कों को ग्यारहवीं शती से पहले का नहीं माना जा सकता । पूर्व मध्यकालीन साहित्य तथा लेखों में सिक्कों के लिये विविध नाम-दीनार, द्रम्म, रूपक, कार्षापण विंशोपक, विंशतिका आदि दिये गये हैं । विंशोपक या विशोयक, रूपक (सिक्का) का बीसवां भाग था जो संभवतः ताँबे का होता था ।
मध्य भारत उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मालवा तथा गुजरात में जो सिक्कों का प्रचलन पुन प्रारम्भ हुआ उसका संबंध व्यापार-वाणिज्य की प्रगति से जोड़ा जा सकता है । अब दुकानदारों तथा व्यापारियों से कर नकद लिया जाने लगा ।
ग्यारहवीं शती से भारत का विदेशों के साथ व्यापार पुन तेज हो गया । कोंकण क्षेत्र के व्यापारी सुदूर विदेशों को जाते थे तथा वहाँ के शासकों को व्यापारियों से काफी कर मिलता था । चीन के साथ भी भारत का व्यापार प्रारम्भ हो गया ।
मार्कोपोलो कई भारतीय जहाजों का उल्लेख करता है जो माल लेकर चीन के फूचो बन्दरगाह पर उतरते थे । पश्चिमी तट पर कई बन्दरगाहों का उल्लेख मिलता है जहां अरब तथा चीन के व्यापारी आते थे । भारत से मोटे कपड़े, शकर, अदरख आदि भी चीन भेजे जाते थे ।
भारतीय सामानों के लिये चीन को ढेर सारी स्वर्ण मुद्राएं भारत को देनी पड़ती थी । चाऊ-जू-कुआ के विवरण से पता चलता है कि अपनी आर्थिक दशा सुधारने के लिये चीन को बारहवीं शती में मालवार तथा बिलोन के साथ अपना व्यापार प्रतिबन्धित करना पड़ा था ।
राजपूत युग में देश की अधिकांश सम्पत्ति मन्दिरों में जमा थी । इसी कारण मुस्लिम विजेताओं ने मन्दिरों को लूटा तथा अपने साथ बहुत अधिक सम्पत्ति एवं बहुमूल्य सामग्रियों ले गये । कहा जाता है कि महमूद गजनवी अकेले सोमनाथ मन्दिर से ही बीस लाख दीनार मूल्य का माल ले गया था । इसी प्रकार मथुरा की लूट में भी उसे अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई थी । नगरकोट की लूट में प्राप्त सिक्कों का मूल्य सत्तर हजार दिरहम (दीनार) था ।
4. राजपूतकालीन सांस्कृति का
धार्मिक जीवन (Religious Life During Rajput Period):
राजपूत काल में हिन्दू (ब्राह्मण) तथा जैन धर्म देश में अत्यधिक लोकप्रिय थे । बौद्ध धर्म का अपेक्षाकृत कम प्रचलन था और वह अपने पतन की अन्तिम अवस्था में पहुँच गया था । हिन्दू धर्म के अन्तर्गत भक्तिमार्ग एवं अवतारवाद का व्यापक प्रचलन था । विष्णु, शिव, सूर्य, दुर्गा आदि देवी-देवताओं की उपासना होती थी । इनकी पूजा में मन्दिर तथा मूर्तियों बनाई जाती थीं ।
भक्ति सम्प्रदाय के आचार्यों में रामानुजाचार्य एवं माधवाचार्य के नाम उल्लेखनीय है । शंकराचार्य ने अद्वैतवाद का प्रचार किया जिसके अनुसार बंह्य ही एकमात्र सत्ता है, संसार मिथ्या है तथा आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है । इसके विपरीत रामानुज ने विशिष्टाद्वैत का प्रचार किया जिसके अनुसार ब्रह्म एकमात्र सत्ता होते हुए भी सगुण है और वह चित्त और अचित्त (जीव और प्रकृति) शक्तियों से युक्त है ।
उन्होंने ईश्वर की प्राप्ति के लिए भक्ति को आवश्यक बताया । हिन्दू धर्म में बहुदेववाद की प्रतिष्ठा थी तथा अनेक देवी-देवताओं की उपासना की जाती थी । वैदिक यज्ञ क्रमशः महत्वहीन हो रहे थे तथा पौराणिक धर्म का ही बोल-बाला था ।
इस समय शाक्त सम्प्रदाय भी अधिक लोकप्रिय हो गया था । हिन्दू धर्म की उन्नति के साथ ही साथ राजपूताना तथा पश्चिमी और दक्षिणी भारत में जैन धर्म भी उन्नति कर रहा था । राजपूताना के गुर्जर-प्रतिहार तथा दक्षिणी-पश्चिमी भारत के चौलुक्य नरेशों ने इस धर्म की उन्नति में योगदान दिया । प्रतिहार नरेश भोज के समय में एक जैन मन्दिर का निर्माण करवाया गया था ।
आबूपर्वत पर भी जैन मन्दिर का निर्माण हुआ । चन्देल शासकों के समय में खजुराहो में जैन तीर्थड्करों के पाँच मन्दिरों का निर्माण कराया गया । गुजरात के चौलुक्य (सोलंकी) शासकों ने तो इसे राजधर्म बनाया । इस वंश के शासक कुमारपाल के समय में जैन धर्म की महती उन्नति हुई । उसने प्रसिद्ध जैन विद्वान् हेमचन्द्र को राजकीय संरक्षण प्रदान किया था ।
राजपूत युग में बौद्ध धर्म अवनति पर था । इस काल तक आते- आते इस धर्म का नैतिक स्वरूप लगभग समाप्त हो चुका था तथा उसका स्वरूप तान्त्रिक बन गया । इसके उपासक अनेक प्रकार के मन्त्र-तन्त्र, जादू-टोने आदि में विश्वास करने लगे ।
वज़्रयान का उदय हुआ जिसके उपासक नैतिक दृष्टि से भ्रष्ट होते थे । इस समय बौद्ध संघों में अनेक स्त्रियों का भी प्रवेश हो गया जिससे भिक्षुओं का चारित्रिक पतन प्रारम्भ हुआ । इन सब कारणों के अतिरिक्त प्रसिद्ध हिंदू दार्शनिकों-शंकराचार्य, कुमारिलभट्ट आदि ने बौद्ध धर्म पर कड़ा प्रहार किया जिसके परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म अत्यधिक अलोकप्रिय हो गया । परन्तु इस समय महात्मा बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मान कर हिन्दू धर्म में उन्हें प्रमुख स्थान दे दिया गया ।
5. राजपूतकालीन सांस्कृति की
कला और साहित्य (Art and Literature During Rajput Period):
गुप्तकाल के पश्चात् समूचे भारत में मन्दिर निर्माण की परम्परा प्रारम्भ हो गयी। वास्तुशास्त्रों में मन्दिर की उपमा मानव शरीर में देते हुए उसके अट अंगों का विधान किया गया ।
ये इस प्रकार मिलते हैं:
i. अधार या चौकी (इसका एक अन्य नाम जगतीपीठ भी है) ।
ii. वेदिबन्ध (आधार के ऊपर का गोल अथवा चौकोर अंग) ।
iii. अन्तर पत्र (वेदिबन्ध के ऊपर की कल्पवल्ली या पत्रावली पट्टिका) ।
iv. जंघा (मन्दिर का मध्यवर्ती धारण स्थल) ।
v. वरंडिका (ऊपर का बरामदा) ।
vi. शुकनासिका (मन्दिर के ऊपर का बाहर निकला हुआ भाग) ।
vii. कण्ठ या ग्रीवा (शिखर के ठीक नीचे का भाग) ।
viii. शिखर (शीर्ष भाग जिस पर खरबुजिया अकार का आमलक होता था) ।
मन्दिर निर्माण के उपर्युक्त आठ अंग सम्पूर्ण देश में प्रचलित हो गये । प्रवेश-द्वार (तोरण) को कई शाखाओं में विभाजित करने तथा उसे विविध प्रकार के अलंकरणों से सजाने की प्रथा भी प्रचलित हुई ।
सातवीं शती से सम्मूर्ण भारत में स्थापत्य कला में एक नया मोड़ आया तथा उत्तर, मध्य एवं दक्षिण की कलाकृतियाँ अपनी निजी विशेषताओं के साथ प्रस्तुत की गयीं । अनेक शास्त्रीय ग्रन्थों-मानसोल्लास मानसार, समरांगणसूत्रधार, अपराजितपृच्छा, शिल्पप्रकाश, सुप्रभेदागम् कामिनिकागम् आदि की रचना हुई तथा इनमे मन्दिर वास्तु के मानक निर्धारित किये गये । इनके अनुपालन में कलाकारों ने अपनी कृतियां प्रस्तुत कीं ।
शिल्पग्रन्थों में स्थापत्य कला के क्षेत्र में तीन प्रकार के शिखरों का उल्लेख मिलता है जिनके अधार पर मन्दिर निर्माण की तीन शैलियों का विकास हुआ:
1. नागर शैली
2. द्रविड़ शैली
3. वेसर शैली
उपर्युक्त सभी नाम भौगोलिक आधार पर दिये गये प्रतीत होते हैं । नागर शैली उत्तर भारत की शैली थी जिसका विस्तार हिमालय से विन्ध्य पर्वत तक दिखाई पड़ता है । द्रविड़ शैली का प्रयोग कृष्णा नहीं से कन्याकुमारी तक मिलता है । विन्ध्य तथा कृष्णा नदी के बीच के क्षेत्र में वेसर शैली प्रचलित हुई ।
चूंकि इस क्षेत्र में चालुक्य वंश का आधिपत्य रहा, अतः इस शैली को चालुक्य शैली भी कहा जाता है । ‘वेसर’ का शाब्दिक अर्थ ‘खच्चर’ होता है जिसमें घोड़े तथा गधे दोनों का मिला-जुला रूप है । इसी प्रकार वेसर शैली के तत्व नागर तथा द्रविड़ दोनों से लिये गये थे ।
पी. के आचार्य ‘वेसर’ का अर्थ नाक में पहना जाने वाला आभूषण मानते हुए यह प्रतिपादित करते है कि चूकि इसका आकार आधार से शिखर तक वृत्त के आकार का गोल होता था, अतः इसकी संज्ञा ‘वेसर’ हुई । इसी प्रकार वास्तुशास्त्र के अनुसार नागर मन्दिर आधार से सर्वोच्च अंश तक चतुरस्र (चतुष्कोण या चौकोर) तथा द्रविड़ अष्ठकोण (अष्टास्र) होने चाहिए ।
किन्तु छ स्थानों पर उपर्युक्त मानक का उल्लंघन भी मिलता है । ऐसी स्थिति में मन्दिर का प्रत्यक्ष आकार देखकर ही उसकी शैलीगत विशेषतायें निर्धारित की जा सकती है । नागर तथा द्रविड़ शैलियों का मुख्य अन्तर शिखर संबंधी है जिसे ‘विमान’ कहा जाता है ।
शिल्पशास्त्र के ग्रन्थों में विमान को सात तलों वाला बताया गया है । नागर शैली में आयताकार गर्भगृह के ऊपर ऊँची मीनार के समान गोल या चौकोर शिखर बनाये जाते थे जो त्रिकोण की भांति ऊपर पतले होने थे । द्रविड़ शैली के शिखर वर्गाकार तथा अलंकृत गर्भगह के ऊपर बनते थे । ये कई मंजिलों से युक्त पिरामिडाकार है ।
बाद में द्रविड़ मन्दिरों को घेरने वाली प्राचीर में चार दिशाओं में विशाल तोरण द्वार बनाये गये । इनके ऊपर बहुमंजिले भवन बनने लगे जिन्हें देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत किया गया । ये कभी-कभी विमान से भी ऊँचे होते थे । तोरण द्वार पर बनी इन अलंकृत एवं बहुमंजिली रचनाओं को ‘गोपुरम’ नाम दिया गया है ।
पूर्व-मध्यकालीन उत्तर भारत में सर्वत्र नागर शैली के मन्दिर बनाये गये । इनमें दो प्रमुख लक्षण है- अनुप्रस्थिका (योजना) तथा उत्थापन (ऊपर की दिशा में उत्कर्ष या ऊँचाई) । छठीं शताब्दी के मन्दिरों में स्वस्तिकाकार योजना सर्वत्र दिखाई देती है । अपनी ऊंचाई के क्रम में शिखर उत्तरोत्तर ऊपर की ओर पतला होता गया है ।
दोनों पापों में क्रमिक रूप से निकला हुआ बाहरी भाग होता है जिसे ‘अस्र’ कहते है । इनकी ऊँचाई भी शिखर तक जाती है । आयताकार मन्दिर के प्रत्येक ओर रथिका (प्रक्षेपण) तथा अस्रों का नियोजन होता है । शिखर पर आमलक स्थापित किया जाता है जो सम्पूर्ण रचना को अत्यन्त आकर्षक बनाता है ।
साहित्य:
राजपूत राजाओं का शासन-काल साहित्य की उन्नति के लिये विख्यात है । राजपूत नरेश स्वयं उच्चकोटि के विद्वान् थे । इनमें परमारवंशी मुज्ज तथा भोज का विशेष उल्लेख किया जा सकता है । मुल्क एक उच्चकोटि का कवि था जिसकी राजसभा में ‘नवसाहसांकचरित’ के रचयिता पद्मगुप्त तथा ‘दशरूपक’ के रचयिता धनन्जय निवास करते थे ।
भोज की विद्वता तथा काव्य-प्रतिभा तो लोक विख्यात ही है । उसने स्वयं ही चिकित्सा, ज्योतिष, व्याकरण, वास्तुकला आदि विविध विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखे थे । इनमें शृंगारप्रकाश, प्राकृत व्याकरण, सरस्वतीकण्ठाभरण, पातंजलयोगसूत्रवृत्ति, कूर्मशतक, चंपूरामायण, श्रुंगारमंजरी, समरांगणसूत्रधार, युक्तिकल्पतरु, तत्व-प्रकाश, भुजबलनिबन्ध, राजमृगांक, नाममालिका तथा शब्दानुशासन उल्लेखनीय है ।
उसकी राजसभा विद्वानों एवं पण्डितों से परिपूर्ण थी । भोज के समय में धारा नगरी शिक्षा एवं साहित्य का प्रमुख केन्द्र थी । चौलुक्य नरेश कुमारपाल विद्वानों का महान् संरक्षक था । उसने हजारों ग्रन्थों की प्रतिलिपियां तैयार करवायी तथा पुस्तकालयों की स्थापना करवायी ।
गुजरात तथा राजस्थान के समृद्ध वैश्यों ने भी विद्या को उदार संरक्षण दिया । पाटन, खम्भात, जैसलमेर आदि में प्रसिद्ध पुस्तकालयों की स्थापना करवायी गयी । राजपूत युग में संस्कृत तथा लोकसभा के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन हुआ ।
इनमें राजशेखर की कर्पूरमन्जरी, काव्यमीमांसा, बालरामायण, विद्धशालभन्जिका, श्रीहर्ष का नैषधचरित, जयदेव का गीतगोविन्द, विल्हण का विक्रमाड्कदेवचरित, सोमदेव का कथासरित्सागर तथा कल्हण की राजतरंगिणी आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है । लोकभाषा के कवियों में चन्दबरदाई का नाम प्रसिद्ध है जो चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय का राजकवि था ।
उसने प्रसिद्ध काव्य ‘पृथ्वीराजरासो’ लिखा जिसे हिन्दी भाषा का प्रथम महाकाव्य कहा जा सकता है । चन्देल नरेश परमर्दि के मंत्री वत्सराज ने छ: नाटकों की रचना की थी । पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर कृत मानसोल्लास राजधर्म संबंधी विविध विषयों का सार-संग्रह है ।
लक्ष्मीधर (गाहड़वाल मंत्री) का कृत्यकल्पतरु धर्मशास्त्र प्रकृति का ग्रंथ है । विधिशास्त्र के ग्रन्थों में विज्ञानेश्वर द्वारा याज्ञवल्क्य स्मृति पर लिखी गयी टीका मिताक्षरा तथा बंगाल के जीमूतवाहन द्वारा रचित दायभाग का उल्लेख किया जा सकता है जो बारहवीं शती की ही रचनायें हैं ।
हिन्द विधि विषयक इनकी व्याख्याये शताब्दियों तक समाज को व्यवस्थित करती रही । शिल्पशास्त्र का सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘मानसार’ पूर्व मध्यकाल की ही कृति है । वास्तुशास्त्र पर ‘अपराजितपृच्छा’ नामक साथ की रचना गुजरात में 12शताब्दी में की गयी थी । इस काल में अनेक प्रसिद्ध दर्शनिकों का आविर्भाव हुआ, जैसे-कुमारिलभट्ट, मण्डल मिश्र, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि । इन्होंने अनेक दार्शनिक गुणों का प्रणयन किया ।