राष्ट्रकूट राजवंश: इतिहास, उत्पत्ति, प्रतिष्ठान और पतन | Rashtrakuta Dynasty: History, Origin, Establishment and Fall in Hindi. Read this article in Hindi to learn about:- 1. राष्ट्रकूट राजवंश का इतिहास (History of Rashtrakut Dynasty) 2. राष्ट्रकूट राजवंश का उत्पत्ति तथा मूलस्थान (Origin and Prime Location of Rashtrakut Dynasty) 3. स्थापना (Establishment) 4. विनाश (Decline).

राष्ट्रकूट राजवंश का इतिहास (History of Rashtrakut Dynasty):

राष्ट्रकूट राजवंश का इतिहास हम मुख्य रूप से उसके शासकों द्वारा खुदवाये गये बहुसंख्यक अभिलेखों तथा दानपत्रों से ज्ञात करते है जो उनके साम्राज्य के विभिन्न भागों से प्राप्त किये गये है ।

प्रमुख राष्ट्रकूट लेखों का विवरण इस प्रकार हैं:

(i) दन्तिदुर्ग के एलौरा तथा सामन्तगढ़ के ताम्रपत्राभिलेख ।

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(ii) गोविन्द तृतीय के राधनपुर, वनी दिन्दोरी तथा बड़ौदा के लेख ।

(iii) अमोघवर्ष प्रथम का संजन अभिलेख ।

(iv) इन्द्र तृतीय का कमलपुर अभिलेख ।

(v) गोविन्द चतुर्थ के काम्बे तथा संगली के लेख ।

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(vi) कृष्ण तृतीय के कोल्हापुर, देवली तथा कर्नाट के लेख ।

लेखों में से अधिकांश तिथियुक्त हैं । इनसे राष्ट्रकूट राजाओं की वंशावली, उनके सैनिक अभियानों, धार्मिक अभिरुचि, शासन-व्यवस्था आदि सभी बातों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है । लेख राष्ट्रकूट इतिहास के प्रामाणिक साधन हैं ।

राष्ट्रकूट काल में कन्नड़ तथा संस्कृत भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना हुयी थी । इनमें जिनसेन का आदिपुराण, महावीराचार्य का गणितसारसंग्रहण, अमोघवर्ष का कविराजमार्ग आदि उल्लेखनीय हैं । उनसे अमोघवर्ष के धार्मिक जीवन के विषय में सूचनायें मिलती है । साथ ही डनके अध्ययंत्र में तत्कालीन समाज और संस्कृति की दशा का भी बोध होता है ।

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राष्ट्रकूट राजवंश का उत्पत्ति तथा मूलस्थान (Origin and Prime Location of Rashtrakut Dynasty):

दक्षिणापथ में बादामी के चालुक्य वंश का विनाश राष्ट्रकूटों द्वारा हुआ । राष्ट्रकूटों की उत्पत्ति के विषय में अनेक मत दिये जाते हैं । इस वंश के कुछ लेखों में इन्हें ‘रट्ट’ कुल का बताया गया है । इन्द्र तृतीय के नौसारी लेख में कहा गया है कि ‘अमोघवर्ष ने रट्टकुलसक्मी का उद्धार किया था ।’

कृष्ण तृतीय के देवली और करहड लेखों से पता चलता है कि राष्ट्रकूट तुंग के वंशज थे तथा उनका आदि पुरुष रट्ट था । वर्धा ताम्रपत्र राष्ट्रकूटों को ‘रट्टा’ नामक राजकुमारी से सम्बन्धित करते हैं । इस आधार पर आर.जी. भापडारकर का निष्कर्ष है कि राष्ट्रकूट तुंग कुल के थे । तुंग का पुत्र रट्ट था । इसी का वंश राष्ट्रकूट कहा गया ।

किन्तु यह निष्कर्ष असंगत लगता है क्योंकि हमें किसी भी तुंग या रट्ट नाम के शासक की जानकारी नहीं है । एलीट ने राष्ट्रकूटों सम्बन्ध राजपूताना के राठौरों से स्थापित किया है । वी.एन. रेउ के अनुसार ये गहड़वालों से सम्बन्धित थे । किनु ये बात मान्य नहीं हैं क्योंकि दोनों ही वंशों का उदय राष्ट्रकूटों के बहुत बाद हुआ ।

इसी प्रकार बर्नेल नामक विद्वान् ने राष्ट्रकूटों को आन्ध्र के रेड़ियों से सम्बन्धित किया है । किन्तु यह मत भी उचित नहीं लगता क्योंकि राष्ट्रकूटों का मूलस्थान आन्स्ट नहीं था । सी.वी. वैद्य का अनुमान है कि राष्ट्रकूट मराठों के पूर्वज थे जिनकी मातृभाषा मराठी थी । किन्तु अल्तेकर इनकी भाषा मराठी न मानकर कन्नड़ मानते हैं ।

अल्तेकर, नीलकंठ शास्त्री, एच.सी. राय, ए.के. मजूमदार आदि विद्वानों का विचार है कि ‘राष्ट्रकूट’ शब्द किसी जाति का सूचक न होकर पद का सूचक है । वस्तुत: राष्ट्रकूट पहले प्रशासनिक अधिकारी थे । इस शब्द का अर्थ है- ‘राष्ट्र (प्रान्त) का कूट अर्थात् प्रधान ।’

प्राचीन काल में साम्राज्य का विभाजन कई राष्ट्रों में किया जाता था । जिस प्रकार ग्राम का अधिकारी ग्रामकूट होता था उसी प्रकार राष्ट्र का अधिकारी राष्ट्रकूट था । इन अधिकारियों की कालान्तर में एक विशिष्ट जाति बन गयी । इस प्रकार की कुछ अन्य जातियाँ प्रतिहार, पेशवा आदि है ।

प्राचीन काल के अभिलेखों में राष्ट्रकूट नामक पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है । अशोक के लेखों में ‘रठिक’ नामक पदाधिकारियों का उल्लेख है । सातवाहन युगीन नानाघाट के लेख में महारठी त्रनकीयरी का उल्लेख मिलता है ।

हाथीगुम्फा लेख से पता चलता है कि खारवेल ने रठिकों को पराजित किया था । इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रकूट एक प्रशासनिक पद था, किसी जाति या कबीले का वोधक नहीं । बाद के राष्ट्रकूट अभिलेखों में उन्हें यदुवंश से सम्बन्धित किया गया है ।

एक लेख में दन्तिदुर्ग को यदुवंश की सात्यकि शाखा से उत्पन्न बताया गया है । कुछ लेख इन्हें चन्द्रवशी क्षत्रिय बताते हैं । राधनपुर के लेख इस वश के गोविन्द तृतीय की तुलना यदुवंशी कृष्ण से की गई है । इस प्रकार राष्ट्रकूटों को क्षत्रिय मानना ही अधिक समीचीन लगता है ।

बादामी के चालुक्यों को अपदस्थ करने वाले राष्ट्रकूट मूलत: लट्टलूर (महाराष्ट्र के उस्मानावाद जिले में वर्तमान लादूर) के निवासी थे । लेखों में उन्हें जट्टकपुरवराधीश्वर कहा गया है । यह स्थान पहले कर्नाटक में था । इस कुल के लोग चालुक्यों के राज्य में जिलाधिकारी (राष्ट्रकूट) थे । उनकी मातृभाषा कन्नड़ थी । इस वंश के कुछ पूर्वज बरार में जाकर बस गए और 640 ई॰ में वहाँ उन्होंने सामन्त पद प्राप्त कर लिया ।

विभिन्न राष्ट्रकूट शाखायें:

लेखों से हमें राष्ट्रकूटों की कई शाखाओं के विषय में जानकारी होती है जो छठी-सातवीं शताब्दी में दक्षिणापथ के विभिन्न भागों में सामन्त रूप में निवास करती थीं । उदिण्डवाटिका लेख (सातवीं शताब्दी) में अभिमन्यु नामक एक राष्ट्रकूट सामन्त का उल्लेख है जो मानपुर का शासक था । उसके तीन पूर्वजों-मानाक, देवराज तथा भविष्य के नाम भी दिये गये है ।

ये महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश के वेतूल-मालवा क्षेत्र में शासन करते थे । राष्ट्रकूटों की दूसरी शाखा अचलपुर (एलिचपुर) में निवास करती थी । इस शाखा के चार शासकों के नाम मिलते हैं- दुर्गराज, गोविन्दराज, स्वामिकराज तथा नब्रराज । इनमें नत्रराज सबसे शक्तिशाली था ।

यह कुल पहले वादामी के चालुक्यों के अधीन था किन्तु वाद में स्वतन्त्र हो गया । इसी वंश की एक शाखा उत्तरी दक्षिणापथ में सातवीं शती के मध्य विद्यमान थी जिसका पहला शासक दन्तिवर्मा था । वह भी बादामी के चालुक्यों का सामन्त था ।

760 ई॰ में चालुक्य शासक कीर्त्तिवर्मा द्वितीय को पराजित कर उसने कर्नाटक पर अधिकार कर लिया तथा मान्यखेट (मालखेड़, गुलबर्गा, कर्नाटक) को अपनी राजधानी बनायी । राष्ट्रकूटों की इसी शाखा ने इतिहास में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त किया ।

राष्ट्रकूटों की एक अन्य शाखा लाट प्रदेश (दक्षिणी गुजरात) में निवास करती थी । एक लेख में इसके चार राजाओं के नाम दिये गये है- कर्कराज प्रथम, ध्रुव, गोविन्द तथा कर्कराज द्वितीय । इनमें अन्तिम कुछ शक्तिशाली था । किन्तु इन राजाओं की उपलब्धियों के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है ।

मान्यखेट का राष्ट्रकूट वंश:

मान्यखेट के राष्ट्रकूट वंश का पहला शासक दन्तिवर्मा (लगभग 650-665-70 ई॰) हुआ । उसकी उपलब्धियों अज्ञात है । उसके बाद इन्द्रपृच्छकराज (670-690 ई॰) तथा गोविन्दराज (690-700 ई॰) राजा बने । इनके कार्यों के विषय में भी कोई जानकारी नहीं है ।

गोविन्दराज के वाद उसका पुत्र कर्कराज शासक बना । कर्कराज के तीन पुत्रों के नाम मिलते हैं- इन्द्र, कृष्ण तथा नन्न । इनमें इन्द्र कुछ शक्तिशाली था । वही अपने पिता के वाद राजा बना । वह चालुक्य नरेश विजयादित्य का सामन्त था ।

इसी रूप में उसने मध्य भारत के मराठी भाषा-भाषी भागों की विजय की थी । संजन ताम्रपत्रों से पता चलता है कि इन्द्र ने चालुक्य राजा को खेटक (गुजरात स्थित कैरा) में पराजित किया तथा उसकी कन्या भवनागा के साथ राक्षस विवाह कर लिया था । इन्द्र प्रारम्भिक राष्ट्रकूट शासकों में सबसे योग्य तथा शक्तिशाली था । उसने संभवत: 715 ई॰ से लेकर 735 ई॰ तक राज्य किया ।

राष्ट्रकूट साम्राज्य की स्थापना (Establishment of Rashtrakut Empire):

राष्ट्रकूट वश की स्वतन्त्रता का जन्मदाता प्रथम शासक दन्तिदुर्ग था । वह इन्द्र की भवनागा नामक चालुक्य राजकन्या से उत्पन्न पुत्र था । उसकी उपलब्धियों के विषय में हम उसके समय के दो लेखों- दशावतार (742 ई॰) तथा समनगड का लेख (753 ई॰) से जानकारी प्राप्त करते हैं । वाद के कुछ अन्य लेख भी उसकी उपलब्धियों की चर्चा करते हैं ।

दन्तिदुर्ग ने बादामी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय के सामन्त के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया । इसी रूप में उसने कुछ विजयें कर अपनी शक्ति एवं प्रतिष्ठा को बढ़ाया । अल्लेकर का विचार है कि दन्तिदुर्ग ने अपने स्वामी की आशा से गुजरात के चालुक्य राजा जनाश्रय पुलकेशिन् की ओर से अरवी से युद्ध किया तथा उन्हें पराजित किला था ।

उसकी इस सफलता से प्रसन्न होकर विक्रमादित्य ने उसे ‘पृथ्वीवल्लभ’ तथा ‘खड्‌वालोक’ की उपाधियों से सम्मानित किया था । इसके बाद उसने युवराज कीर्त्तिवर्मा द्वितीय के साथ कांची के पल्लवों के विरुद्ध अभियान में भाग लिया तथा उनको पराजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । वापसी में उसने कर्नूल में श्रीशैल के शासक को भी जीता ।

इन युद्धों में प्राप्त सफलताओं से उसकी महत्वाकांक्षा स्वाभाविक रूप से बहुत बढ़ गयी होगी । अत: 744 ई॰ में कांची की विजय से वापस लौटने के पश्चात् दन्तिदुर्ग ने स्वतन्त्र साम्राज्य स्थापित करने के उद्देश्य से अपना अभियान प्रारम्भ कर दिया । सौभाग्य से चालुक्य वश में विक्रमादित्य की मृत्यु हो गयी तथा उसका उत्तराधिकारी कीर्त्तिवर्मा द्वितीय उतना योग्य तथा अनुभवी नहीं था ।

इस परिस्थिति में दन्तिदुर्ग का कार्य सरल हो गया । उसने अपना विजय अभियान पूर्व तथा पश्चिम दिशा से प्रारम्भ किया ताकि चालुक्य सम्राट का कम से कम प्रतिरोध सहना पड़े सर्वप्रथम नन्दिपुरी के गुर्जरों तथा नौसारी के चालुक्यों को पराजित कर उसने उनके राज्यों पर अधिकार कर लिया ।

तत्पश्चात उसने मालवा के प्रतिहार राज्य पर आक्रमण किया । उज्जैन के ऊपर उसका अधिकार हो गया । यहाँ उसने फहरान-वदान नामक यज्ञ किया जिसमें प्रतिहार राजा ने द्वारपाल का काम किया था । यह आक्रमण एक धावा मात्र था । दन्तिदुर्ग ने प्रतिहार राज्य पर अपना अधिकार नहीं किया तथा उसे अपने प्रभाव में लाकर ही सतुष्ट हो गया ।

इस अभियान के बाद उसने कोशल तथा कलिंग के राजाओं को पराजित किया। इस प्रकार उसने अपना राज्य या प्रभाव मध्य एवं दक्षिणी गुजरात तथा सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में विस्तृत कर लिया । दन्तिदुर्ग का बढ़ता हुआ प्रभाव कीर्त्तिवर्मा के लिये खुली चुनौती था जिसकी वह कदापि उपेक्षा नहीं कर सकता था । अत: दोनों के बीच युद्ध अनिवार्य हो गया । कीर्त्तिवर्मा ने नौसारी के सामन्त को पुन उसके पद पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया ।

दन्तिदुर्ग की ओर से इसका विरोध किये जाने पर दोनों के बीच युद्ध हुआ जिसमें दन्तिदुर्ग ने कीर्त्तिवर्मा को पराजित कर दिया । समनगड लेख के अनुसार उसने बिना शस्त्र उठाये ही अपनी भूभंगिमा मात्र से कीर्त्तिवर्मा की कर्नाट सेना को पराजित कर दिया ।

अल्टेकर के अनुसार यह युद्ध मध्य महाराष्ट्र में कहीं लड़ा गया था । इस विजय के फलस्वरूप दन्तिदुर्ग महाराष्ट्र का स्वामी बन गया तथा उसने यहां राजाधिराज परमेश्वर परभट्टारक जैसी स्वतन्त्र सम्राट सूचक उपाधि धारण की । किन्तु कीर्त्तिवर्मा की इस पराजय से चालुक्यों के कर्नाटक राज्य में कोई कमी नहीं आई ।

कीर्त्तिवर्मा 757 ई॰ तक सम्पूर्ण कर्नाटक का शासक बना रहा । 754 ई॰ में सतारा में उसने एक ग्राम दान दिया तथा 757 ई॰ में अपनी सेना के साथ वह धीमा नदी के तट पर स्कंधावार में पड़ा हुआ था । इस प्रकार दन्तिदुर्ग चालुक्यों की शक्ति को विनष्ट नहीं कर पाया । 756 ई॰ के लगभग उसकी मृत्यु हो गयी ।

इस प्रकार दन्तिदुर्ग एक महान् विजेता तथा कूटनीतिज्ञ शासक था । वह राष्ट्रकूट साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था । दन्तिदुर्ग बाह्मण धर्मावलम्बी था । उसने शास्त्रों के आर्दशानुसार शासन किया तथा कई गाँव दान में दिये थे । उज्जयिनी में उसने बड़ी मात्रा में स्वर्ण तथा रत्नों का दान किया था ।

i.  कृष्ण प्रथम:

दन्तिदुर्ग ने 756 ई॰ के लगभग तक शासन किया । वह नि:सन्तान मरा, अत: उसके बाद उसका चाचा कृष्ण प्रथम शासक बना था । कृष्ण प्रथम भी दन्तिदुर्ग के समान एक साम्राज्यवादी शासक था । राज्यारोहण के पश्चात् सभी दिशाओं में उसने अपने साम्राज्य का विस्तार प्रारम्भ किया ।

उसके राजा बनते ही लाट प्रदेश के शासक के द्वितीय, जो उसका भतीजा था, ने विद्रोह कर अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दिया । कृष्ण ने वही आक्रमण कर उसे पराजित किया तथा लाट प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत बना ली ।

वेग्रमा तथा सूरत के दानपत्रों से पता चलता है कि उसने ‘राहप्प’ नामक किसी शासक को पराजित कर उसकी पालिध्वज पताका को छीन लिया तथा ‘राजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि ग्रहण की । दुर्भाग्यवश इस शासक के समीकरण के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी पता नहीं चल पाता ।

गंगवंश के विरुद्ध सफलता:

चालुक्य राज्य पर अधिकार करने के पश्चात् कृष्ण ने मैसूर के गंगों पर आक्रमण कर उसने उनको अपनी अधीनता में किया । इस समय गंग वंश का शासक श्रीपुरुष था । उसने राष्ट्रकूटों का डटकर मुकाबला किया । उसके छोटे पुत्र सियगल्ल ने कृष्ण के विरुद्ध प्रारम्भ में कुछ सफलता प्राप्त की लेकिन अन्तत कृष्ण विजयी रहा ।

उसने गंगों की राजधानी मान्यपुर (बंगलौर स्थित मन्नपुर) के ऊपर अधिकार कर लिया । गंग नरेश श्रीपुरुष को एक छोटे भाग पर सामन्त रूप में शासन करने की अनुमति प्रदान कर 769 ई॰ में कृष्ण अपनी राजधारी वापस लौट आय वहाँ आकर उसने कृष्ण के सामन्त के रूप शासन करना स्वीकार किया ।

वेंगी के चालुक्य राज्य पर अधिकार:

कृष्ण ने अपने वड़े पुत्र गोविन्द को युवराज बनाया तथा उसे वेंगी के पूर्वी चालुक्यों पर आक्रमण करने के लिये भेजा । गोविन्द को सफलता मिली और उसने अपनी सेना के साथ कृष्णा और मुसी नदियों के संगम पर शिविर डाल दिया । यहां से वेंगी की दूरी मात्र सौ मील थी ।

वेंगी के चालुक्य नरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ ने बिना लड़े ही उसकी अधीनता मान लिया । उसने राष्ट्रकूट युवराज को न केवल अपने राज्य का एक बड़ा भाग तथा हर्जाना दिया अपितु अपनी कन्या शीलभट्टारिका का विवाह भी गोविन्द के छोटे भाई ध्रुव से कर दिया । इस विजय के फलस्वरूप वेंगी-राज्य का अधिकांश भाग राष्ट्रकूट साम्राज्य में मिला लिया गया ।

इस प्रकार कृष्ण प्रथम एक योग्य शासक तथा कुशल योद्धा सिद्ध हुआ । अपनी विजयी के द्वारा उसने अपनी स्थिति दक्षिण में सर्वोच्च बना ली विमयपर्वत के दक्षिण की कोई भी शक्ति अब उसका सामना कर सकने में समर्थ नहीं रही । उसने राष्ट्रकूट साम्राज्य को अत्यन्त विस्तृत कर दिया । उसके साम्राज्य में सम्पर्ण-महाराष्ट्र एवं कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश का एक बड़ा भाग शामिल था । इस प्रकार ‘उसने अपने उत्तराधिकारियों के लिये वह मार्ग प्रशस्त किया जिससे वे उत्तर भारत की राजनीति में भाग ले सके ।’

विजेता होने के साथ-साथ कृपा प्रथम एक संहार निर्माता भी था । उसने एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मन्दिर का निर्माण करवाया था । वह एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति भी था जिसने ब्राह्मणों को प्रभूत धन दान में दिया था । उसने 773 ई॰ तक शासन किया ।

ii. गोविन्द द्वितीय:

कृष्ण प्रथम के दो पुत्र थे- गोविन्द द्वितीय तथा ध्रुव । गोविन्द अपने पिता के समय में ही अनेक युद्धों में ख्याति प्राप्त कर चुका था, अत: वही कृष्ण प्रथम के वाद राजा बना । उसने अपने छोटे भाई ध्रुव को नासिक का राज्यपाल नियुक्त किया ।

ऐसा प्रतीत होता है कि राजा होने के बाद गोविन्द विलासी खे, गया तथा प्रशासनिक कार्यों के प्रति उदासीन हो गया । अत: उसकी अकर्मण्यता का लाभ उठाते हुए उसके छोटे भाई ध्रुव ने गोविन्द के विरुद्ध विद्रोह कर दिया ।

फलस्वरूप दोनों भाइयों के बीच एक युद्ध हुआ । गोविन्द द्वितीय ने काञ्चि, गश्न्वाडि, वेंगी तथा मालवा के राजाओं से सहायता प्राप्त की । परन्तु ध्रुव विजयी हुआ और गोविन्द संभवत: मार डाला गया । ध्रुव ने राजगद्दी पर अधिकार कर लिया । गोविन्द द्वितीय ने 773 ई॰ से लेकर 780 ई॰ तक शासन किया ।

ध्रुव ‘धारावर्ष’:

गोविन्द द्वितीय के पश्चात् राष्ट्रकूट शासन की बागडोर उसके सुयोग्य तथा यशस्वी भाई ध्रुव के हाथों में आई । राजा होने पर ध्रुव ने निरूपम कालिवल्लभ, श्रीवल्लभ तथा धारावर्ष की उपाधियों ग्रहण कीं । उसकी गणना प्राचीन इतिहास के महानतम विजेता एवं साम्राज्य निर्माता शासकों में की जाती है । उसके काल में राष्ट्रकूटों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा का चतुर्दिक् विस्तार हुआ ।

गोविन्द के सहायकों पर आक्रमण तथा अधिकार:

राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के बाद ध्रुव अपने भाई के सहायकों को दण्ड देने के लिये चला । सबसे पहले उसने गंगवाडि पर आक्रमण किया । इस समय यहाँ पर गंगवंश का राजा शिवमार द्वितीय शासन कर रहा था । वह पराजित हुआ तथा ध्रुव ने उसके अमृर्ण राज्य को राष्ट्रकूट साम्राज्य में मिला लिया तथा अपने पुत्र स्तम्भ को वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया ।

इससे राष्ट्रकूट राज्य की दक्षिणी सीमा कावेरी तक जा पहुँची । इसके बाद उसने काञ्चि के पल्लव राज्य पर आक्रमण किया । पल्लव वंश का शासन दन्तिवर्मा के हाथों में था । ध्रुव ने उसे पराजित किया । पल्लव नरेश ने उसे हाथियों का उपहार दिया ।

राधनपुर लेख में ध्रुव की इस सफलता का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार ‘एक ओर वास्तविक समुद्र तथा दूसरी ओर सेनाओं के समुद्र के बीच घिर कर पल्लव नरेश भयभीत हो गया तथा उसने अपनी सेना के बहुत से हाथियों को समर्पित कर दिया ।’

ध्रुव का वेंगी के चालुक्य वंश के साथ भी संघर्ष हुआ । चालुक्य नरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ ने उसके भाई गोविन्द की सहायता की थी । अत: ध्रुव ने उसके राज्य पर भी आक्रमण कर उसे पराजित किया । इस युद्ध में वेमुलवाड के चालुक्य सामन्त अरिकेसरि प्रथम ने ध्रुव की सहायता की थी ।

ध्रुव ने त्रिकलिंग पर अधिकार कर लिया तथा चालुक्य राजा ने उसकी अधीनता में शासन करज स्वीकार कर लिया । इन विजयों के परिणामस्वरूप ध्रुव अम्पूर्ण दक्षिणापथ का एकछत्र शासक बन बैठा । उत्तरी अभियान-दक्षिणी भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के पश्चात् ध्रुव ने उत्तरी भारत की ओर ध्यान दिया । इस समय कन्नौज पर अधिकार करने के लिये प्रतिहार तथा पाल राजवंशों में संघर्ष चल रहा था । प्रतिहार शासक वत्सराज मालवा तथा राजपूताना पर शासन कर रहा था ।

उसने ध्रुव के विरुद्ध उसके भाई गोविन्द की सहायता की थी जिसके कारण ध्रुव उससे अत्यन्त स्पष्ट था । बंगाल का पाल शासन इस समय धर्मपाल के अधीन था तथा कन्नौज में इन्द्रायुद्ध नामक एक अत्यन्त निर्वल राजा राज्य कर रहा था । वत्सराज तथा धर्मराज दोनों ही कन्नौज पर अधिकार करना चाहते थे ।

वत्सराज ने कन्नौज पर आक्रमण कर वहीं के राजा को पराजित किया तथा उसे अपनी अधीनता में रहने का अधिकार दे दिया । धर्मपाल इसे सहन न कर सका तथा उसने कन्नौज की गद्दी इन्द्रायुद्ध के भाई या सम्बन्धी चक्रायुद्ध को दिलाने के उद्देश्य से वत्सराज के विरुद्ध प्रस्थान किया ।

दोनों के बीच एक युद्ध हुआ जिसमें धर्मपाल की पराजय हुई । धर्मपाल युद्ध क्षेत्र में अपने दो श्वेत छत्रों को छोड़कर भाग गया तथा वत्सराज ने उन पर अपना अधिकार कर लिया । धर्मपाल ने पुन शक्ति जुटाकर वत्सराज से युद्ध करने का निश्चय किया । इसी बीच 786 ई॰ में धुल ने उत्तर भारत की राजनीति में हस्तक्षेप किया ।

ध्रुव ने नर्मदा नदी तट पर अपनी सेनाओं को एकत्रित किया तथा उन्हें अपने पुत्रों गोविन्द तथा इन्द्र के नेतृत्व में कर दिया । इस समय वत्सराज अपनी सेना के साथ दोआब में था । विन्ध्यपर्वत पार कर ध्रुव ने मालवा के प्रतिहार नरेश वत्सराज को बुरी तरह पराजित किया और वह राजपुताना के रेगिस्तान की ओर भाग गया । राधनपुर लेख से इस विजय की सूचना मिलती है ।

इसके अनुसार ध्रुव ने ‘वत्सराज के यश के साथ-साथ उन दोनों राजछत्रों को भी छीन लिया जिन्हें उसने गौड़ नरेश से लिया था ।’ इसके बाद ‘गंगा-यमुना के दोआव में ही उसने चंगाल के पालशासक धर्मपाल को भी हराया । इस विजय की पुष्टि संजन के लेख से होती है जिसके अनुसार ध्रुव ने पाक-यमुना के बीच भागते हुए गौडराज की लक्ष्मी के लीलरविन्दों तथा श्वेत छत्रों को छीन लिया था ।’

ध्रुव का उद्देश्य कन्नौज पर अधिकार करना अथवा उत्तर भारत में अपनी शक्ति का विस्तार करना नहीं था । अत: उत्तर के राजाओं को अपनी शक्ति की अनुभूति कराकर तथा उत्तरी भारत के मैदानों में अपनी विजय वैजयन्ती फहराकर ध्रुव अतुल सम्पत्ति के साथ अपनी राजधानी वापस लौट आया । अब वह सम्पूर्ण भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली सम्राट था ।

इस प्रकार ध्रुव राष्ट्रकूट वश के महानतम राजाओं में से एक था । उसके पूर्वगामी शासक गोविन्द द्वितीय के काल में राष्ट्रकूट वंश की प्रतिष्ठा को जो आघात पहुँचा था उसे उसने न केवल पुन:स्थापित किया, अपितु उसमें वृद्धि भी की ।

उसने अपनी शक्ति का विस्तार सम्पूर्ण भारत में कर दिया । सातवाहन वंश के पतन के बाद प्रथम वार ध्रुव के नेतृत्व में ही किसी दक्षिणी शक्ति ने मध्य भारत में अपनी शक्ति का विस्तार किया था । ध्रुव ने कुल 13 वर्षों तक राज्य किया । उसकी मृत्यु 793 ई॰ में हुई ।

iii. गोविन्द तृतीय:

ध्रुव के चार पत्र थे-कर्क, स्तम्भ, गोविन्द तथा इन्द्र । इनमें से कर्क अपने पिता के जीवन-काल में ही मर गया । सबसे बड़ा होने के कारण स्तम्भ ही राज्य का वैधानिक उत्तराधिकारी था, किन्तु युव अपने पुत्र गोविन्द की योग्यता एवं कर्मठता पर मुग्ध था ।

अत: उसने उसी को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया तथा स्तम्भ को गंगवाडी तथा इन्द्र को गुजरात और मालवा का राज्यपाल नियुक्त कर दिया । इस प्रकार गोविन्द तृतीय अपने पिता का उत्तराधिकारी बना । सूरत लेख से पता चलता है कि स्वयं ध्रुव ने ही अपने सुयोग्य पुत्र गोविन्द को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था ।

स्तम्भ का विद्रोह तथा उसका दमन:

स्तम्भ एक वर्ष तक शान्त रहा किन्तु उसे सिंहासन का मोह बराबर सताता रहा । उसने गोविन्द से शासन छीनने के उद्देश्य से उसके विरुद्ध दक्षिण के बारह राजाओं का एक संघ तैयार किया । इसमें पल्लवराज दन्तिवर्मा, नोलम्बवाडी का चारुपीब्रेर, बनवासी का कत्तिमिर तथा धारवाड़ का सामन्त माराशर्व प्रमुख रूप से सम्मिलित हुए ।

इसके अतिरिक्त राज्य के कुछ उच्चाधिकारी भी स्तम्भ का समर्थन कर रहे थे । गोविन्द को उसकी इस योजना का पता लग गया । अत: वह इसे विफल करने को तत्पर हुआ । उसने गंगवाडी के राजकुमार शिवमार को कारागार से इस आशा के साथ मुक्त किया कि वह उसकी सहायता करेगा किन्तु गंगवाडी पहुँच कर वह भी स्तम्भ से मिल गया ।

अब गोविन्द के सामने स्तम्भ पर सीधा आक्रमण करने के सिवाय दूसरा रास्ता नहीं था । अत: उसने स्तम्भ तथा उसके संघ पर आक्रमण कर दिया । स्तम्भ पराजित हुआ तथा बन्दी बना लिया गया । परन्तु गोविन्द ने उसके साथ उदारता का व्यवहार किया और उसे गंग-प्रदेश का वायसराय बना दिया । उसने अपने सहयोगी भाई इन्द्र को लाट प्रदेश का वायसराय बनाया ।

इसके बाद उसने स्तम्भ के अन्य सहायकों के विरुद्ध अभियान किया । गंगवाडी के राजकुमार शिवमार को पुन बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया गया तथा उसका पुत्र विजयादित्य भी पराजित हुआ । गंग विजय के उपरान्त उसने नोलम्बवाडी तथा फिर कांची के पल्लव राज्य को जीता । पल्लव राज्य पर आक्रमण कर उसने दन्तिवर्मा को पराजित कर दिया । इस प्रकार गोविन्द सम्पूर्ण दक्षिण का सार्वभौम सम्राट बन गया ।

उत्तरी अभियान-दक्षिण भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के पश्चात् अपने पिता के समान वह भी उत्तर भारत के अभियान पर निकल पड़ा । इस समय प्रतिहार नरेश नागभट्ट तथा पाल धर्मपाल के बीच संघर्ष चल रहा था । नागभट्ट ने धर्मपाल तथा उसके संरक्षित कनौज नरेश चक्रायुद्ध को युद्ध में बुरी तरह परास्त कर दिया ।

कुछ विद्वानों का विचार है कि अपनी पराजय का बदला लेने के लिये धर्मपाल ने गोविन्द तृतीय से सहायता मांगी जिसके फलस्वरूप वह उत्तर की ओर उन्मुख हुआ । उसने बड़ी सावधानी से अपनी उत्तर विजय की योजना को क्रियान्वित किया । अपने छोटे भाई इन्द्र को उसने गृहराज्य की रक्षा के लिये नियुक्त किया उलथा स्वयं नागभट्ट के ऊपर आक्रमण करने के लिये भोपाल-झाँसी मार्ग से होते हुए उसने कव्रौज की ओर प्रस्थान किया ।

दोनों सेनाओं के बीच संभवत: बुन्देलखण्ड के किसी भाग में संघर्ष हुआ । इसमें नागभट्ट बुरी तरह पराजित किया गया तथा उसने युद्ध भूमि से भाग कर राजपूताने में आश्रय ग्रहण किया । संजन तथा राधनपुर ताम्रपत्र गोविन्द की इरा सफलता का उल्लेख करते हैं जिनके अनुसार जिस प्रकार शरद ऋतु के आते ही आकाश से बादल गायब हो जाते हैं उसी प्रकार गोविन्द के आते ही गुर्जर सम्राट न जाने कही गायब हो गया । वह इतना अधिक भयाक्रान्त था कि स्वप्न में भी यदि किसी युद्ध का दृश्य देखता था तो डर के मारे काँपने लगता था ।

इसके बाद धर्मपाल तथा कन्नौज के राजा चक्रायुध ने स्वतः उसके सन्मुख हथियार डाल दिये । इस प्रकार दूसरी बार भी राष्ट्रकूट सेना को उत्तरी भारत के मैदानों में सफलता प्राप्त हुई । राष्ट्रकूट राजकवियों ने भी गोविन्द की इस सफलता का गुणगान करते हुए लिखा कि रकन की रणभेरियों ने हिमालय की गुफाओं को गुंजायमान कर दिया ।

‘संजन ताम्रपत्रों में कहा गया है कि गोविन्द के चाहनों ने गंगा-यमुना के पवित्र जल में स्मान किया ।’ किन्तु गोविन्द के हिमालय तक जाने का विवरण अतिरंजित है । वस्तुत: चक्रायुद्ध द्वारा आत्मसमर्पण कर दिये जाने के वाद उसे और आगे बढ़ने की आवश्यकता ही नहीं थी ।

नागभट्ट को परजित करने तथा चक्रायुद्ध और धर्मपाल से आत्मसमर्पण करवा लेने के पश्चात् गोविन्द अपने गृहराज्य को लौट गया । उसके उत्तर भारतीय अभियान का उद्देश्य अपना साम्राज्य-विस्तार करना नहीं अपितु मात्र यश-विस्तार करना था ।

इस प्रकार उसके उत्तरी अभियान से प्रतिहारों तथा पालों को कोई क्षेत्रीय हानि नहीं हुई । लौटते समय वह नर्मदा नदी के समीप श्रीभवन (भडौंच) नामक स्थान पर रुका । श्रीभवन के राजा सर्व ने उसे बहुमूल्य उपहार दिये ।

दक्षिण की विजय:

गोविन्द की गृहराज्य से अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए सुदूर दक्षिण के द्रविड़ शासकों ने उसके विरुद्ध एक संघ तैयार कर लिया । इसमें पल्लव, पाण्ड्य, चोल, केरल तथा पश्चिमी शासक सम्मिलित थे । इस संघ ने गोविन्द के राज्य पर आक्रमण कर दिया ।

तुंगभद्रा नदी के तट पर गोविन्द ने इन सभी राजाओं को पराजित कर दिया । गंग का राजा इस युद्ध में मार डाला गया तथा पल्लवों तथा पाण्ड्यों की पताका को गोविन्द ने छीन लिया । इस प्रकार इन सभी शासकों ने पुन उसकी अधीनता स्वीकार कर लिया । सजनलेख में गोविन्द की इन सफलताओं का उल्लेख हुआ है ।

उसकी शक्ति से भयभीत होकर लंका के शासक ने उसकी अधीनता स्वीकार करते हुए उसके दरवार में अपना एक दूत-मण्डल भेजा । गोविन्द ने देंगी की राजनीति में भी हस्तक्षेप कर वहाँ अपना प्रभुत्व पुन स्थापित किया । विष्णुवर्धन बो समय तक वेंगी के चालुक्यों तथा राष्ट्रकूटों के सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण रहे ।

किन्तु विष्णुवर्धन के वाद 799 ई॰ में विजयादित्य जब राजा बना तो उसने गोविन्द की प्रभुसत्ता को चुनौती दी । विजयादित्य के भाई भीम ने उसका विरोध किया तथा उसने गोविन्द से सहायता माँगी । फलस्वरूप गोविन्द ने देंगी पर आक्रमण कर विजयादित्य को पराजित किया तथा भीम उसका अत्यन्त विनम्र सामन्त बन गया ।

इस प्रकार गोविन्द ने उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक तथा पश्चिम में अरब सागर से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक के विस्तृत भूभाग में अपनी विजय वैजयन्ती फहरा दिया । वह निश्चयत न केवल राष्ट्रकूटों का अपितु प्राचीन भारत के योग्यतम सम्राटों तथा सेनापतियों में से एक था । उसके समय में राष्ट्रकूट साम्राज्य अपनी उप्रति के शिखर पर था ।

वनि डिन्डोरी लेख का यह कथन कि उसके राजा बनने के वाद राष्ट्रकूट अजेय हो गये वस्तुत: गोविन्द तृतीय के विषय में सत्य है । गोविन्द तृतीय ने 793 ई॰ से 814 ई॰ तक शासन किया । उसने अपने जीवन के अन्तिम कुछ वर्षों को शान्तिपूर्वक व्यतीत किया । अपनी मृत्यु के पूर्व उसने अपने एकमात्र पुत्र अमोघवर्ष को गुजरात के अपने राज्यपाल कर्क के संरक्षण में डाल दिया ।

iv. अमोघवर्ष:

गोविन्द तृतीय के बाद उसका पुत्र अमोघवर्ष 814 ई॰ में गद्दी पर बैठा । उस समय वह अवयस्क था, अत: गुजरात के वायसराय कर्क ने उसके संरक्षक के रूप में कार्य करना प्रारम्भ किया । 817 ई॰ के लगभग उसके विरुद्ध एक भीषण विद्रोह हुआ । इस विद्रोह का नेतृत्व वेंगी के चालुक्य शासक विजयादित्य द्वितीय ने किया तथा इसमें कुछ अन्य सामन्तों एवं अधिकारियों ने भाग लिया ।

अमोघवर्ष घबड़ा गया और वह भागने वाला था, लेकिन कर्क ने स्थिति सम्हाल लिया । 821 ई॰ तक उसने विद्रोहियों को दवा दिया तथा अमोघवर्ष की स्थिति पुन सुदृढ़ हो गयी । धीरे-धीरे अमोघवर्ष ने राज्य में शान्ति और व्यवस्था स्थापित कर लिया तथा 830 ई॰ में पूरी शक्ति के साथ उसने वेंगी के चालुक्य शासक विजयादित्य पर आक्रमण किया ।

वेंगी पर राष्ट्रकूटों का अधिकार हो गया जो 12 वर्षों तक बना रहा । इसके वाद विजयादित्य के सेनापति पाण्डुरंग ने पुन: देंगी पर अधिकार कर लिया । अमोघवर्ष के शासन के अन्तिम वर्षों में भी अनेक विद्रोह हुये । मैसूर के गंगों ने भी अपनी स्वाधीनता घोषित कर दिया ।

अमोघवर्ष के सेनापति वकेय ने विद्रोही गंग शासक ईणय को पराजित किया परन्तु उसे अमोघवर्ष ने वापस बुला लिया । लगता है कि वाद में उसने गंग नरेश से सन्धि कर ली तथा अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया । राजधानी के समीप उसके पुत्र राजकुमार कृष्ण ने भी विद्रोह खड़ा किया लेकिन वकेश ने उसे दवा दिया ।

अमोघवर्ष को गुजरात के राष्ट्रकूटों के विद्रोह का भी सामना करना पड़ा । लाट (द. गुजरात) का वायसराय कर्क अमोघवर्ष का संरक्षक था । उसके समय तक लाट प्रदेश के राष्ट्रकूट अमोघवर्ष के प्रति निष्ठावान बने रहे परन्तु उसके पुत्र ध्रुव प्रथम के समय (830 ई॰) से उन्होंने अमोघवर्ष की प्रभुसत्ता को चुनौती दी ।

दोनों परिवारो का संघर्ष लगभग 25 वर्षों तक चलता रहा । ध्रुव प्रथम पराजित हुआ तथा मार डाला गया । उसका उत्तराधिकारी अकालवर्ष (845 ई॰) हुआ । उसे पहले सफलता मिली परन्तु वाद में अमोघवर्ष के सेनापति बकेय ने उसे भी पराजित कर दिया । अकालवर्ष के वाद ध्रुव द्वितीय लाट प्रदेश का राजा बना ।

उसके राज्य पर उत्तर की ओर से प्रतिहार नरेश मिहिरभोज ने आक्रमण करने की योजना बनाई । अतः ध्रुव ने अमोघवर्ष से सन्धि करना उपयुक्त समझा । इस प्रकार दोनों परिवारों की शत्रुता का अन्त हुआ । इस सन्धि के कारण उसका राज्य प्रतिहारी के आक्रमण से बच गया ।

सिरुर के लेख (856 ई॰) में अमोघवर्ष को अंग, वंग, मगध, मालवा तथा वेंगी के राजाओं को नतमस्तक करने का उल्लेख मिलता है । इस दावे का समर्थन किसी अन्य प्रमाण से नहीं होता । ऐसी दशा में यह कह सकना बड़ा संदिग्ध है कि अमोघवर्ष ने कभी भी उत्तर भारत में सैनिक अभियान किया था । वह जीवन भर दक्षिण के आन्तरिक झगडों में ही उलझा रहा ।

उसके पास इतनी सैनिक योग्यता नहीं थी कि वह अपने पिता और पितामह की भांति सुदूर विहार अथवा बंगाल के ऊपर आक्रमण कर सकता । संभव है कोशल अथवा उड़ीसा में उसका पालों के साथ छिट-फट संघर्ष हुआ हो जिसमें दोनों पक्षों ने बारी-बारी से सफलता प्राप्त की हो । किन्तु मात्र इसी आधार पर अमोघवर्ष की सैनिक योग्यता प्रमाणित नहीं होती ।

अमोघवर्ष ने 64 वर्षों (878 ई॰) तक राज्य किया । अमोघवर्ष में अपने पिता जैसी सैनिक क्षमता नहीं थी । वह शान्त प्रकृति का मनुष्य था जिसकी युद्ध की अपेक्षा धर्म और कला में अधिक अभिरुचि थी । उसने मान्यखेट हैदरावाद के समीप माल्खेद) नामक एक नया नगर बसाया तथा अपनी राजधानी वहीं ले गया ।

वह विद्या और कला का उदार संरक्षक था । उसने ‘कविराजमार्ग’ नामक कप्रड् भाषा में एक काव्यग्रन्ध की रचना की थी । उसने अपनी राजसभा में अनेक विद्वानों को आश्रय प्रदान किया था । इनमें जिनसेन का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है जिसने ‘आदिपुराण’ की रचना की थी ।

संजन ताम्रलेख विद्या तथा साहित्य के संरक्षक के रूप में अमोघवर्ष को गुप्त सम्राट ‘साहसांक’ (चन्द्रगुप्त द्वितीय) से भी महान बताता है । इसके अनुसार ‘विद्या, दान तथा पुरस्कार देने में वह चन्द्रगुप्त से भी बढ़कर था तथा चन्द्रगुप्त के चारित्रिक दोष भी उसमें नहीं थे ।’

अमोघवर्ष जैनमत का पोषक था और यही उसकी शान्तिवादी प्रकृति का कारण था । किन्तु जैनमतानुयायी होते हुए भी वह हिन्दू देवी-देवताओं का भी सम्मान करता था । वह महालक्ष्मी का अनन्य भक्त था तथा संजन ताम्रपत्र से पता लगता है कि उसने एक अवसर पर देवी को अपने बायें हाथ की अंगुली चढ़ा दी थी ।

उसकी तुलना शिवि दधीचि जैसे पौराणिक व्यक्तियों से की गयी है । इस प्रकार हम कह सकते है कि सेनानायक के रूप में अमोघवर्ष भले ही असफल रहा हो किन्तु राजा के रूप में वह महान् था । उसने अपने राज्य में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखी तथा वाह्य आक्रमणों सेस्त्र अपनी प्रजा की सदैव रक्षा किया । कला और संस्कृति का वह महान् उन्नायक था । उसकी मृत्यु 878 ई॰ के लगभग हुई ।

v. कृष्ण द्वितीय:

अमोघवर्ष प्रथम की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय शासक बना । उसका मालवा के प्रतिहार शासक भोज प्रथम तथा देंगी के चालुक्य नरेश विजयादित्य तृतीय के साथ संघर्ष हुआ । मालवा के प्रतिहारों तथा राष्ट्रकूटों के बीच पुरानी शत्रुता थी ।

कृष्ण द्वितीय के राजा बनने के वाद प्रतिहार शासक मिहिरभोज ने उसके राज्य पर आतामण किया । संभवतः नर्मदा नदी के किनारे दोनों की सेनायें टकराई जिसमें विजयश्री प्रतिहारों के हाथ लगी । तत्पश्चात् मिहिरभोज ने सेना के साथ गुजरात की ओर प्रस्थान किया ।

इस बार कृष्ण ने अधिक शक्ति के साथ उसका सामना किया । इस युद्ध में लाट प्रदेश के राष्ट्रकूट सामन्त तथा चेदि के राजा ने उसकी सहायता की । विजय कृष्ण को मिली । उत्साहित होकर उसने प्रतिहारों की राजधानी उज्जयिनी पर आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार कर लिया ।

बेंगुआ अभिलेख से इस सफलता की सुचना मिलती है । इस विजय के द्वारा कृष्ण ने अपने साम्राज्य को प्रतिहारों के आक्रमण से सुरक्षित बना लिया । प्रतिहारों को भी इससे कोई विशेष हानि नहीं हुई । इस युद्ध के पश्चात् दोनों एक दूसरे के प्रति उदासीन हो गये । इसके वाद उसने लाट प्रदेश को अपने सीधे नियन्त्रण में कर लिया तथा वहाँ से वायसराय पद समाप्त कर दिया ।

कृष्ण द्वितीय का वेंगी के चालुक्यों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष हुआ जिसमें कुछ समय के लिये उसकी स्थिति दयनीय हो गयी । उसके समकालीन चालुक्य शासक विजयादित्य तृतीय तथा भीम प्रथम थे । विजयादित्य तृतीय ने उसे परास्त कर दिया और कृष्ण द्वितीय ने भागकर मध्य भारत के चेदि शासक शंकरगण के राज्य में स्थित किरणपुर दुर्ग मेख शरण ली ।

वहाँ भी चालुक्य सेनापति ने उसका पीछा किया । चालुक्य सेना ने किरणपुर पर अधिकार कर उसे जला दिया । कृष्ण द्वितीय को झुकना पड़ा उसने चालुक्य नरेश की अधीनता मान लिया । उसे उसका राज्य पुन वापस मिल गया । विजयादित्य तृतीय के उत्तराधिकारी चालुक्य भीम प्रथम के समय में कृष्ण द्वितीय ने वेंगी पर पुन आक्रमण किया ।

इस वार भीम पराजित हुआ तथा कृष्ण ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया । परन्तु भीम ने शीघ्र ही अपनी स्थिति सुधार लिया तथा राष्ट्रकूट सेनाओं को बाहर भगाकर अपने को राजा बनाया । किन्तु कृष्ण द्वितीय ने अपनी आक्रामक नीति जारी रखी । उसने वेंगी के ऊपर पुन आक्रमण किया ।

राष्ट्रकूटों तथा चालुक्यों में निरवधपुर निनाडवोसु तथा पेरुवन्मुरु पेडवगुरु) में भीषण युद्ध हुए जिनमें संभवतः किसी भी पक्ष को निर्णायक सफलता नहीं मिली । इसके वाद दोनों पक्ष अपनी-अपनी सीमाओं में लौट गये ।

कृष्ण द्वितीय का सुदूर दक्षिण के चोलों के साथ भी संघर्ष हुआ । पहले चोलों के साथ उसके सम्बन्ध मधुर थे । उसकी एक पुत्री का विवाह चोल-नरेश आदित्य प्रथम के साथ हुआ था तथा इससे कमर नाम का एक पुत्र था । आदित्य प्रथम की मृत्यु के बाद 907 ई॰ में परानक चोलवंश का राजा हुआ ।

कृष्ण द्वितीय ने अपने पौत्र को राजगद्दी दिलाने के लिए परान्तक पर आक्रमण किया । इस अभियान में उसकी सहायता वाणों तथा वैदुम्बों ने की जबकि गंगनरेश ने परान्तक का साथ दिया । बल्लाल के युद्ध में परान्तक ने कृष्ण द्वितीय और उसके सहायकों को पराजित कर दिया तथा उसका अभियान असफल रहा ।

बाद के कुछ राष्ट्रकूट लेखों में कहा गया है कि कृष्ण द्वितीय ने गौड़ नरेश को विनय की शिक्षा दी तथा उसक्रा प्रागण अंग, वंग, वेगी, कलिंग और मगध के राजाओं से भरा रहता था जो उसके प्रति सम्मान प्रकट करने के लिये आते थे । किन्तु इस प्रकार के विवरण काल्पनिक है तथा इनके आधार पर कृष्ण की इन स्थानों की विजय का निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत नहीं होगा ।

कृष्ण द्वितीय ने 878 ई॰ से लेकर 914 ई॰ तक शासन किया । यद्यपि उसमें गोविन्द तृतीय तथा ध्रुव के समान सैनिक कुशलता नहीं थी तथापि उसने राष्ट्रकूट साम्राज्य को सुरक्षित वनाये रखा । अपने पिता के समान वह भी जैन मत का पोषक था । प्रसिद्ध जैन आचार्य गुणचन्द्र उसके गुरु थे । किन्तु राजा के रूप में वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था ।

vi. इन्द्र तृतीय:

कृष्ण द्वितीय के पश्चात् उसका पौत्र इन्द्र तृतीय (914-922 ई॰) राजा बना क्योंकि उसके पुत्र जगतुंग की मृत्यु पहले ही हो गयी थी । वह एक सैनिक योग्यता वाला शासक था । अल्टेकर का विचार है कि इन्द्र के राज्यारोहण के ठीक पहले या ठीक बाद प्रतिहारों के सामन्त मालवा के परमार शासक उपेन्द्र ने नासिक के ऊपर आक्रमण कर गोवर्धन को घेर लिया था ।

संभवत यह प्रतिहार शासक के इशारे पर हुआ था । अत: इन्द्र ने सर्वप्रथम उपेन्द्र को पराजित कर गोवर्धन का उद्धार किया । उसने परमारों की राजधानी उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया तथा उपेन्द्र उसका सामन्त बन गया । यहीं से उसने उत्तरी भारत में सैनिक अभियान किया ।

उत्तरी अभियान-इन्द्र तृतीय के उत्तरी अभियान का उद्देश्य भी अपने पूर्ववर्ती राजाओं की भाँति कब्रौंज पर अधिकार करना था । यह उस समय उत्तरी भारत का सर्वप्रधान नगर था । यहाँ प्रतिहार शासकों का अधिकार था । इन्द्र उस पर अधिकार करने को लालायित था । सौभाग्यवश उसे अवसर प्राप्त हो गया ।

महेन्द्रपाल की मृत्यु के बाद कब्रौज की गद्दी के लिये उसके दो पुत्रों- भोज द्वितीय तथा महीपाल-के बीच संघर्ष छिड़ गया । पहले चेदि शासक केडल की सहायता से भोज ने गद्दी प्राप्त कर ली किन्तु वाद में महीपाल चन्देल हर्ष की सहायता से उसे गद्दी से उतार कर स्वयं राजा बन गया ।

इन्द्र ने महीपाल को दण्डित करने के उद्देश्य से 916 ई॰ की हेमन्त ऋतु में कब्रौज पर आक्रमण किया । उसकी सेनायें संभवत भोपाल-झासी-कालपी के मार्ग से गयीं । कालपी में यमुना नदी पार कर इन्द्र ने कन्नौज पर आक्रमण कर प्रतिहार नरेश महीपाल को पराजित किया तथा वहाँ अपना अधिकार कर लिया ।

इस पर अधिकार हो जाने से राष्ट्रकूटों की प्रतिष्ठा काफी बढ़ गयी । कन्नौज पर अधिकार करना इन्द्र की महानतम सैनिक उपलब्धि थी । यद्यपि उसके पहले ध्रुव तथा गोविन्द ने भी प्रतिहार शासकों को पराजित किया था, किन्तु फिर भी ने कन्नौज पर अपना झंडा नहीं फहरा सके थे ।

इस प्रकार, जैसा कि अल्टेकर ने लिखा है एकन के इतिहास में यह बड़े महत्व की और अद्वितीय घटना थी क्योंकि ऐसे अवसर कम ही आये है जब दकन के किसी राजा ने उत्तर भारत की राजधानी पर कब्जा किया हो ।

इन्द्र तृतीय का यह अभियान एक धावा मात्र था । वह संभवतः प्रयाग तथा काशी तक गया और इसके बाद 916 ई॰ की ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ में स्वदेश लौट गया । 917 ई॰ तक महीपाल ने कत्नौज पर पुन अधिकार कर लिया ।

देंगी पर अधिकार-कृष्ण तृतीय के समय में देंगी के चालुक्य शासक भीम ने राष्ट्रकूट सेनाओं को अपने राज्य से बाहर भगा दिया था । इन्द्र वह पुन: अपना अधिकार करना चाहता था । इस समय तक भीम की मृत्यु हो चुकी थी तथा उसका उत्तराधिकारी विजयादित्य चतुर्थ बना । उसके समय में इन्द्र ने वेंगी पर आक्रमण किया ।

वीरजापुर के पुन्द्व में विजयादित्य मारा गया तथा वेंगी के एक भाग पर राष्ट्रकूटों का अधिकार हो गया । बाद में इन्द्र ने अपने आश्रित युधामल्ल को देंगी की गद्दी पर आसीन करवाया । लगभग सात वर्षों तक -देंगी उसका अधीन राज्य बना रहा। इस प्रकार इन्द्र तृतीय ने एक बार पुन राष्ट्रकूट वश के गौरव को प्रतिष्ठित कर दिया तथा अपनी शक्ति से उत्तरी भारत के राजाओं को आतंकित कर दिया । 929 ई॰ में वह अकाल मृत्यु का शिकार हुआ ।

vii. अमोघवर्ष द्वितीय:

इन्द्र तृतीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी अमोघवर्ष द्वितीय हुआ । उसके शासन-काल की किसी भी घटना के विषय में हमें शांत नहीं है । राजा बनने के एक वर्ष के भीतर ही वह मृत्यु का शिकार हुआ । उसकी मृत्यु की परिस्थितियां अज्ञात है । उसके बाद उसका छोटा भाई गोविन्द चतुर्थ 930 ई॰ में राजा बना ।

viii. गोविन्दचतुर्थ:

वह अयोग्य तथा दुराचारी शासक था । उसकी विलासप्रियता के कारण शासन शिथिल पड़ गया । कन्नोज के ऊपर प्रतिहारों का अधिकार हो गया । उसे चालुक्य शासक भीम द्वितीय के हाथों पराजित भी होना पड़ा । अत: उसके सामन्तों, अधिकारियों तथा मत्रियों ने उसे पदम्मुत करने का षड़यन्त्र रचा । उन्होंने इन्द्र तृतीय के सौतेले भाई तथा गोविन्द के चाचा अमोघवर्ष तृतीय को सिंहासन देने का निश्चय किया ।

फलस्वरूप 936 ई॰ में एक राजक्रान्ति हुई जिसमें प्रमुख भूमिका वेमुलवाड के चालुक्य सामन्त ओरकेसरिन ने निभाई । गोविन्द तथा अरिकेसरिन के वीच युद्ध हुआ जिसमें गोविन्द मार डाल गया तथा राजमुकुट अमोघवर्ष को मिला ।

ix. अमोघवर्ष तृतीय:

उसका वास्तविक नाम पड्डेग था तथा पहले वह त्रिपुरी में निवास करता था । यहीं से उसने मान्यखेट को प्रस्थान किया तथा मंत्रियों और सामन्तों के सहयोग से 936 ई॰ में राष्ट्रकूट सिंहासन पर अधिकार कर लिया । उसने केवल तीन वर्षों तक शासन किया । अमोघवर्ष तृतीय धार्मिक प्रवृति का शासक था और वह शासन में बहुत कम रुचि रखता था ।

अत: उसके योग्य पुत्र कृष्ण तृतीय ने शासन-कार्य सम्भाला । उसने गंगवाडि के शासक राजमल्ल पर आक्रमण कर उसे पदच्युत किया तथा अपने साले अंग को राजा बनाया । युवराज के रूप में ही उसने बुन्देलखण्ड क्षेत्र में भी सैनिक अभियान किया तथा कालंजर और चित्रकूट के दुर्गों को जीता । 939 ई॰ में अपने पिता की मृत्यु के बाद कृष्ण तृतीय शासक बना ।

x. कृष्ण तृतीय:

राज्यारोहण के समय उसने ‘अकालवर्ष’ की उपाधि ग्रहण की । ‘चल्लभनरेन्द्र’ ‘पृथ्वीबल्लभ’ जैसी कुछ अन्य उपाधियाँ भी उसकी मिलती हैं । कांची और तंजोर को जीतने के बाद उसने ‘कांचीयुम तंजेयमकोंड’ (कांची तथा तंजोर का विजेता) की भी उपाधि ग्रहण की थी ।

कृष्ण तृतीय एक कुशल सैनिक तथा साम्राज्यवादी शासक था । राजा बनने के वाद कुछ वर्षों तक उसने अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ किया । तत्पश्चात् उसने दिग्विजय की एक व्यापक योजना तैयार की । इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम उसने चोलों के विरुद्ध सैनिक अभियान किया । 943 ई॰ में उसने अपने साले गंगनरेश अंग के साथ चोल शासक परान्तक के ऊपर आक्रमण कर दिया ।

उसका अभियान सफल रहा तथा कांची और तंजोर के ऊपर उसने अधिकार कर लिया । कुछ समय बाद परान्तक ने सेना एकत्रित कर राष्ट्रकूटों को चुनौती दी । इस सेना का नेतृत्व युवराज राजादित्य ने किया । 949 ई॰ में चोल तथा राष्ट्रकूट सेनाओं के बीच उत्तरी अर्काट जिले के तछोलम् नामक स्थान पर निर्णायक युद्ध हुआ । राष्ट्रकूट लेखों से पता चलता है कि यह युद्ध बड़ा भयानक था ।

इसमें पहले तो चालुक्य सैनिक प्रबल रहे किन्तु बाद में अपने सेनापति मणलेर तथा गंगराज लग की सहायता से राष्ट्रकूटों को विजय मिली और चोल युवराज राजादित्य इस युद्ध में मारा गया । चोल राज्य को जीतता हुआ कृष्ण रामेश्वरम् तक जा पहुँचा जहाँ उसने एक विजय-स्तम्भ स्थापित किया । इस विजय के परिणामस्वरूप उसका चोल राज्य के उत्तरी भागों पर अधिकार हो गया ।

कर्हाद के लेख से पता लगता है कि उसने चोलों के अतिरिक्त पाण्ड्य, केरल तथा लंका के शासकों को भी पराजित किया था । दक्षिण के युद्धों से निवृत्त होने के बाद कृष्ण ने उत्तर भारत की ओर ध्यान दिया । दसवीं शती के मध्य बुन्देलखण्ड के चन्देल प्रबल हो उठे तथा उन्होंने कालजर तथा चित्रकूट के दुर्गों के ऊपर (जो अमोघवर्ष के समय में राष्ट्रकूटों के अधिकार में थे) अपना अधिकार कर लिया ।

इन दुर्गों को पुन अपने नियन्त्रण में करने के लिये कृष्ण ने उत्तर भारत में सैन्य अभियान किया । इस बार उसका साथ चेदि नरेश मारसिंह ने दिया जो युग का उत्तराधिकारी था । कृष्ण का इन दुर्गों पर पुन: अधिकार हो गया । इसके बाद 963 ई॰ में उसने मालवा के परमार शासक सीयक को परास्त कर उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया ।

कृष्ण को वेंगी की राजनीति में भी हस्तक्षेप करने का अवसर मिला । वेंगी के चालुक्य शासक अम्म द्वितीय के विरुद्ध उसने बादप की सहायता की और उसे गद्दी दिला दिया । इस प्रकार बादप उसका एक स्वामीभक्त सामन्त वन गया । बादप के वाद ताल द्वितीय राजा बना ।

अम्म ने उसे मारकर पुन गद्दी पर अधिकार कर लिया । कृष्ण ने उसके सौतेले भाई दानार्णव का समर्थन किया तथा उसकी सहायता में एक सेना देंगी भेजी । 956 ई॰ में इस सेना ने अम्म को पुन परास्त किया तथा उसने भागकर कलिंग के राजा के यहाँ शरण ली । दानार्णव को कृष्ण ने वेंगी की गद्दी पर आसीन करवाया किन्तु राष्ट्रकूट सेना के हटते ही अम्म ने पुन वेंगी पर अधिकार कर लिया तथा राष्ट्रकूटों की अधीनता से अपने को मुक्त कर दिया ।

इस प्रकार कृष्ण अपने वश के योग्यतम शासकों में से अन्तिम शासक था । वह सही अर्थों में सम्पूर्ण दक्षिणापथ का सार्वभौम सम्राट था और यह श्रेय उसके किसी भी पूर्ववर्ती राजा ने नहीं प्राप्त किया था । गोविन्द तृतीय ने यद्यपि काञ्चि को जीता था लेकिन वह रामेश्वरम् तक नहीं पहुँच पाया था तथा द्रविड राजाओं की शक्ति का विनाश भी उसने नहीं किया था ।

वेंगी पर उसका पूर्णतया अधिकार नहीं था । किन्तु कृष्ण ने पल्लव तथा चोल राज्य पर अपना नियन्त्रण रखने में सफलता पाई थी । चोल राज्य के बड़े भाग पर तो वह स्वयं शासन करता था । रामेश्वरम् में उसने कृष्णेश्वर तथा गण्डमार्तण्डादित्य के मन्दिर बनवाये जो सुदूर दक्षिण में उसकी विजय के प्रमाण है ।

वह विद्वानों का आश्रयदाता भी था जिसकी राजसभा में कन्नड भाषा का कवि पोत निवास करता था । उसने शान्तिपुराण की रचना की थी । उसकी सभा का दूसरा विद्वान् पुप्पदन्त था जिसकी रचना लामालिनीकल्प है । उसने 967 ई॰ तक शासन किया ।

खोट्टिग:

कृष्ण तृतीय नि:सन्तान मरा । अत: उसका भाई खोट्टिग उसके वाद राष्ट्रकूट वंश का राजा बना । वह अत्यन्त निर्बल शासक था । उसके काल में मालवा के परमार नरेश सीयक ने राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण किया ।

परमार सेना राजधानी मान्यखेट तक आ गयी । 972 ई॰ में उन्होंने मान्यखेट पर अधिकार कर उसे खूब लूटा । सीयक अपने साथ अतुल सम्पत्ति लेकर लौटा । इस पराभव के फलस्वरूप खोट्टिंग की मृत्यु (972 ई॰ के लगभग) हो गयी ।

xi. कर्क द्वितीय:

खोट्टिग का उत्तराधिकारी उसका भतीजा कर्क द्वितीय हुआ । वह भी एक अयोग्य तथा निर्बल शासक था । वह केवल दो वर्षों (972-974 ई॰) तक शासन कर सका । इस काल में सामन्तों के विद्रोह हुए जिसे वह दवाने में असमर्थ रहा ।

तर्दवाडि (बीजापुर जिला) के सामन्त तेल द्वितीय ने उसके ऊपर आक्रमण कर उसे पदच्युत कर दिया तथा सिंहासन पर अधिकार जमा लिया । 975 ई॰ तक तैल उसके अन्य सामन्तों तथा सहयोगियों को पूरी तरह समाप्त कर दक्षिणापथ का एकछत्र शासक बन गया ।

तैल ने जिस वंश की स्थापना की उसे कल्याणी का पश्चिमी चालुक्यवंश कहा जाता है । कर्क द्वितीय राष्ट्रकूट वंश क अन्तिम शासक था । उसके साथ ही दक्षिणापथ से राष्ट्रकूटों का लगभग दो शदियों का राज्य तथा शासन समाप्त हुआ ।

बादामी के चालुक्य वंश का विनाश (Decline of the Chalukya Dynasty):

अपनी आंतरिक स्थिति मजबूत कर लेने के पश्चात् कृष्ण ने बादामी के चालुक्यों की ओर ध्यान दिया । ऐसा प्रतीत होता है कि यद्यपि दन्तिदुर्ग ने चालुक्य नरेश को परास्त अवश्य किया था परन्तु वह उसका उन्मूलन नहीं कर सका था । कीर्तिवर्मन् ने कर्नाटक में शरण ली तथा वहीं से सेना तैयार कर उसने पुन: कृष्ण प्रथम के समय में अपना राज्य वापस लेने का प्रयास किया ।

कृष्ण प्रथम ने 760 ई॰ के लगभग उसकी शक्ति का पूरी तरह से विनाश कर दिया । वनिदिन्दोरी तथा राधनपुर के लेखों में वर्णन मिलता है कि ‘कृष्ण ने चालुक्य सेना के समुद्र को विमथित कर उसकी राजलक्ष्मी को प्राप्त कर लिया था ।’

परवर्ती चालुक्य लेखों से भी इस बात का समर्थन हो जाता है जिनके विवरण के अनुसार ‘चालुक्यों की ख्याति का अन्त कीर्त्तिवर्मा के साथ ही हो गया ।’ कृष्ण प्रथम के साथ युद्ध में कीर्त्तिवर्मा तथा उसके सभी पुत्र मार डाले गये तथा समस्त कर्नाटक के ऊपर राष्ट्रकूटों का अधिकार हो गया ।

इसकी पुष्टि परवर्ती चालुक्य लेखों के इस कथन में भी हो जाती है कि चालुक्यों की कीर्त्ति, कीत्तिवर्मा के साथ ही समाप्त हो गयी । इसके बाद दक्षिणी कोंकण को जीतकर महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में उसने अपनी स्थिति मजबूत की तथा वहाँ सणफुल्ल नामक व्यक्ति को अपना सामन्त बनाया, जो शिलाहार वंश का संस्थापक था ।

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