वैदिककालीन सभ्यता एवं संस्कृति । “Civilization and Culture of Vedic Period” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. वैदिककालीन सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक जीवन ।
3. वैदिककालीन कलाएं एवं उनकी विशेषता ।
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4. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
भारतीय आयो के युग को ही वैदिककाल की संज्ञा दी जाती है । वेदों की रचना अनुमानत: ईसा पूर्व 2500 से लेकर ईसा पूर्व 500 तक के समय में हुई । इसे मोटे तौर पर दो भाग-वैदिककाल तथा उत्तर वैदिककाल में बांटा गया है । इस युग की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सभ्यता एवं संस्कृति अत्यन्त विलक्षण एवं वैज्ञानिक थी ।
2. वैदिककालीन सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक जीवन:
वैदिककालीन सामाजिक जीवन-वैदिककाल में एक सुन्दर एवं सुगठित समाज था । सामाजिक व्यवस्था की महत्त्वपूर्ण इकाई परिवार थी । परिवार में गहपति का सम्मानीय स्थान वयोवृद्ध व्यक्ति को ही दिया जाता था ।
वह अपनी स्त्री के साथ सभी प्रकार के धार्मिक कृत्यों, यज्ञों, अनुष्ठानों और हवन इत्यादि को सम्पन्न किया करता था । पिता की मृत्यु के पश्चात ज्येष्ठ पुत्र ही सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनता था । स्त्रियों का पैतृक सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं था । स्त्रियां धार्मिक अनुष्ठानों में पुरुषों के साथ सम्मिलित होती थीं ।
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विधवाओं के पुनर्विवाह का कोई संकेत नहीं मिलता । अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, गार्गी, मैत्रेयी आदि विदुषी महिलाएं तत्कालीन सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती थीं । आर्यों की वेशभूषा में धोती-ओढ़नी के प्रयोग के साथ पगड़ी बांधना सम्मान का प्रतीक था । केशों को घुमावदार ढंग से बांधने की परम्परा का प्रचलन था । स्त्रियां कुण्डल, शोभन, गजरे, अंगद, कंकण, भुजबंध आदि का प्रयोग करती थीं ।
लोग अन्न उबालकर व भूनकर खाते थे । भोजन में दही, दूध, घी, फलों तथा हरी सब्जियों का प्रयोग होता था । गोहत्या पाप कर्म था । भेड़ तथा बकरी के मांस का प्रयोग होता था । आर्यों द्वारा नमक का प्रयोग नहीं किया जाता था । सोमरस पान की परम्परा थी । आमोद-प्रमोद के लिए घोड़े दौड़ाना, मल्लयुद्ध, लक्ष्यवेध, संगीत, नृत्य, वाद्य क्रियाएं मनोरंजन के साधन थे ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चार वर्ण थे । ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास के रूप में जीवन को 100 वर्षो के कल्पित भागों में बांटा गया था । इस काल में अथर्ववेद, सामवेद, यजुर्वेद संहिता तथा ब्राह्मण गन्धों की रचना की गयी ।
इस युग की सामाजिक व्यवस्था में शूद्रों को निम्न दृष्टि से देखा जाता था । कृषिकार्य, पशुपालन, उद्योग-व्यापार प्रचलित थे । सिक्कों का प्रचलन नहीं था, तथापि निष्क, शतमान तथा कंणला जैसी मुद्रा इकाइयों का प्रयोग होता था । इस युग में आखेटक, मछुए, व्याध, नौकर, बढ़ई, चर्मकार, नाई, कुम्हार, नट, गायक आदि के धन्धे प्रचलित थे ।
वैदिककालीन धार्मिक स्थिति:
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वैदिककाल में देवताओं तथा प्रकृति की उपासना का उल्लेख मिलता है । इसमें पृथ्वी, अग्नि, सोम, बृहस्पति, सरस्वती, सूर्य, सविता, मित्र, वरुण, अदिति, उषा, इन्द्र, रूद्र, मरूत, पर्जन्य तथा पवन की पूजा होती थी । सूर्य को वृषभ व अश्व के रूप में पूजा जाता था । शिव तथा विष्णु की उपासना के साथ-साथ यज्ञ, बलि और धार्मिक कर्मकाण्डों का विशेष महत्त्व था । बलि की क्रिया ! महीनों तथा वर्षो तक चलती थीं ।
इस काल में पुनर्जन्म, कर्म तथा मोक्ष व तप का विशेष महत्त्व था । राजनीतिक जीवन-वैदिककालीन राजनीतिक व्यवस्था में राजा अथवा सम्राट को विस्तृत अधिकार था । कई परिवार का एकत्रित स्वरूप ग्राम कहलाता था । ग्राम का प्रधान ग्रामीणी होता था, जिसे दण्ड विधान न्याय विधान के निश्चित अधिकार प्राप्त थे ।
इससे ऊपर की संस्था का प्रधान विशपति कहलाता था । कुछ विशों को मिलाकर जनपद बनता था । जनपति को ही गोप अथवा राजा कहते थे । ग्राम की सम्पूर्ण व्यवस्था ग्रामीणी की होती थी । राजतन्त्रात्मक व्यवरथा के साथ-साथ गणराज्य तथा गणपति का उल्लेख मिलता है । वैदिककाल में राजा का कार्य प्रजा की रक्षा करना, शत्रुओं से राज्य को सुरक्षित रखना, प्रजा को दान तथा उपहार देना था ।
राजा के तीन पदाधिकारी थे, यथा-सेनानी/ग्रामीणी/पुरोहित तथा धर्मगुरु । इसका पद राजा की सहायता के लिए होता था । युद्धों के अवसर पर युद्ध में भाग लेना पड़ता था । धनुषबाण, तलवार, भाले एवं फरसों का प्रयोग होता था । युद्ध में विषधर बाणों का प्रयोग होता था । युद्ध में पताका, दुंदभी, ध्वज आदि प्रयुक्त होते थे ।
उत्तर वैदिककाल में सर्वोपरि राज्यसत्ता होती थी । एक व्यक्ति राजाधिराज बनता था, जिसे अधिराज भी कहते थे । अपराध करने पर राजा की इच्छानुसार दण्ड दिया जाता था । राजा किसी को निर्वासित कर सकता था । कुछ विशेष परिस्थितियों में उसका निर्वाचन सर्वसाधारण द्वारा होता था । इस काल में राजतन्त्र के साथ गणतन्त्र का विकास भी था । राजा अपनी गद्दी से उतरकर ब्राह्मण के पैर छूता था ।
वह धार्मिक कानूनों का अक्षरश: पालन करता था । राजद्रोह को भीषण अपराध माना जाता था, जिसके लिए प्राणदण्ड निश्चित था । ब्राह्मण हत्या को पापकर्म माना जाता था । अपराधी की अग्निपरीक्षा ली जाती थी । अग्नि तथा जल को साक्षी करके निर्दोष सिद्ध करने का अवसर दिया जाता था ।
3. वैदिककालीन कलाएं एवं उनकी विशेषता:
वैदिककाल में विभिन्न प्रकार की कलाएं और शैलियां विकसित थीं । ग्वेद के अधिकांश काव्य धार्मिक गीतिकाव्य हैं । इसमें केवल दशम मण्डल के अन्तर्गत कुछ लौकिक कविताएं मिलती हैं । इस युग में ब्रह्मचारी छात्र कण्ठाग्र वचनों को यथावसर उच्चारित किया करते थे ।
वेद मन्त्रादि गुरुओं को पहले कण्ठाग्र होते थे । वैदिक ऋचाओं का अध्ययन, मनन, चिन्तन गुरू-शिष्य परम्परा के अधीन स्मृति के रूप में चलता था । इस काल में लेखन कला का आविष्कार नहीं हो पाया था । गृह निर्माण कला में आयो को पर्याप्त निपुणता प्राप्त थी ।
इस काल के ग्रन्धों में कुछ ऐसे भवनों का उल्लेख मिलता है, जिसमें 200 दीवारी स्तम्भ एवं सहस्त्र द्वार थे । आर्य किले बनाना भी जानते थे । मूर्तिकला में कुशल आर्य तांबे और लोहे की अनेक प्रकार की वस्तुएं बनाने में कुशल थे । अत्यन्त निपुण थे । रचय कवच तथा अन्यान्य शस्त्रास्त्र बनाने की कला उन्हें आती थी । वे युद्धप्रिय होने के साथ-साथ संगीत, वादन, नृत्यकला एवं खगोलीय ज्ञान में विशेष रुचि रखते थे ।
4. उपसंहार:
वैदिककालीन सभ्यता और संस्कृति विश्व में अनुपम थी । वैदिक संस्कृति ने भारत को सत्य एवं आध्यात्म के आदर्श के साथ-साथ पुनर्जन्म एवं कर्मवाद के महान् सिद्धान्त प्रदान किये । वर्णाश्रम व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, याज्ञिक कर्मकाण्ड वैदिककाल की ही देन है । सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक दृष्टि से यह काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण काल था ।