समुद्रगुप्त: इतिहास, साम्राज्य और उत्थान | Samudragupta: History, Empire and Accession. Read this article in Hindi to learn about:- 1. समुद्रगुप्त का परिचय (Introduction to Samudragupta) 2. समुद्रगुप्त का व्यक्तित्व एवं चरित्र (Personality and Character of Samudragupta) 3. साम्राज्य तथा शासन (Empire and Rule) and Other Details.
Contents:
- समुद्रगुप्त का परिचय (Introduction to Samudragupta)
- समुद्रगुप्त का व्यक्तित्व एवं चरित्र (Personality and Character of Samudragupta)
- समुद्रगुप्त की साम्राज्य तथा शासन (Empire and Rule of Samudragupta)
- समुद्रगुप्त की मुद्रायें (Coins of Samudragupta)
- समुद्रगुप्त की विदेशी शक्तियाँ (Foreign Powers of Samudragupta)
- समुद्रगुप्त का राज्यारोहण (Accession of Samudragupta)
1. समुद्रगुप्त का परिचय (Introduction to Samudragupta):
चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् उसका सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त साम्राज्य की गद्दी पर बैठा । वह लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से उत्पन्न हुआ था । समुद्रगुप्त न केवल गुप्त वंश के बल्कि सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में गिना जाता है । नि:सन्देह उसका काल राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जा सकता है ।
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समुद्रगुप्त के इतिहास का सर्वप्रमुख स्रोत उसी का अभिलेख है जिसे ‘इलाहाबाद स्तम्भलेख’ अथवा प्रयाग प्रशस्ति कहा जाता है । इसकी रचना उसके सन्धिविग्रहिक सचिव हरिषेण ने की थी । कनिंघम के मतानुसार यह लेख मूलतः कौशाम्बी में खुदवाया गया था ।
इस मत के समर्थन में दो प्रमाण दिये गये हैं:
(I) अभिलेख के ऊपरी भाग में मौर्य शासक अशोक का एक लेख अंकित है जिसे उसने कौशाम्बी में खुदवाया था ।
(II) चीनी यात्री हुएनसांग अपने प्रयाग विवरण में इसका उल्लेख नहीं करता ।
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मध्यकाल में मुगल शासक अकबर ने इसे कौशाम्बी से मँगाकर इलाहाबाद के किले में सुरक्षित करा दिया । प्रयाग स्तम्भ पर समुद्रगुप्त के लेख के अतिरिक्त अशोक के छ: मुख्य लेखों का एक संस्करण, रानी का अभिलेख, कौशाम्बी के महापात्रों को संघ भेद रोकने संबंधी आदेश, जहांगीर का एक लेख तथा परवर्ती काल का एक देवनागरी लेख भी उत्कीर्ण मिलता है ।
प्रयाग प्रशस्ति के प्रारम्भ में अशोक का लेख मिलता है । इसमें बौद्ध संघ के विभेद को रोकने के लिये कौशाम्बी के महामात्रों को दिया गया आदेश है । तत्पश्चात् समुद्रगुप्त का लेख अंकित है । यह ब्राह्मी लिपि में तथा विशुद्ध संस्कृत भाषा में लिखा हुआ है ।
प्रशस्ति की प्रारम्भिक पंक्तियाँ पद्यात्मक तथा बाद की गद्यात्मक हैं । इस प्रकार यह संस्कृत की चम्पू शैली का एक सुन्दर उदाहरण है । इसे काव्य कहा गया है (काव्यमेषामेव) । प्रशस्ति की भाषा प्राञ्जल एवं शैली मनोरम है ।
न केवल इतिहास अपितु साहित्य की दृष्टि से भी यह अभिलेख अत्यन्त महत्वपूर्ण है । प्रारम्भ में फ्लीट ने यह मत व्यक्त किया था कि इस लेख की रचना समुद्रगुप्त की के पश्चात् उसके किसी उत्तराधिकारी द्वारा करवायी गयी थी और इस प्रकार यह मरणोत्तर अभिलेख है । परन्तु आज इस मत से सहमत होना कठिन है ।
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इसके तीन कारण हैं:
(1) इस लेख में समुद्रगुप्त की मृत्यु की तिथि नहीं दी गई है ।
(2) इसमें अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं मिलता जबकि समुद्रगुप्त के सिक्कों में पता चलता है कि उसने अश्वमेध यह किया था ।
(3) अभिलेख के अन्त में यह उल्लिखित मिलता है कि- ‘इस काव्य की रचना उस व्यक्ति ने की है जो परमभट्टारक के चरणों का दास था तथा जिसकी बुद्धि स्वामी के समीप कार्यरत रहने के कारण खुल गयी थी ।’
अत: उपर्युक्त प्रमाणों के प्रकाश में हम इस अभिलेख को मरणोत्तर नहीं मान सकते । वस्तुतः इसकी रचना समुद्रगुप्त के जीवन-काल में ही की गयी थी । अभिलेख में समुद्रगुप्त के जीवन तथा कृतियों का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है । कहा जा सकता है कि यदि यह लेख अप्राप्त होता तो समुद्रगुप्त जैसे महान् शासक के विषय में हमारी जानकारी अधूरी रह जाती ।
एरण का लेख:
प्रयाग प्रशस्ति के अतिरिक्त मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित एरण नामक स्थान से भी समुद्रगुप्त का एक लेख मिलता है जो खण्डित अवस्था में है । इसमें समुद्रगुप्त को पृथु, राघव आदि राजाओं से बढ़कर दानी कहा गया है जो प्रसन्न होने पर कुबेर तथा रुष्ट होने पर यमराज के समान था ।
अभिलेख में उसकी पत्नी का नाम दत्तदेवी मिलता है तथा उसे अनेक पुत्र-पौत्रों से युक्त बताया गया है । इस लेख से यह भी पता चलता है कि ऐरिकिण प्रदेश (एरण) उसका ‘भोगनगर’ था । उपर्युक्त लेखों के अतिरिक्त गया तथा नालन्दा से दो ताम्रलेख प्राप्त हुए हैं जिनमें क्रमशः गुप्त संवत 9 तथा 5 की तिथियाँ अंकित हैं ।
इनमें समुद्रगुप्त का नाम तथा उसकी कुछ उपलब्धियाँ उल्लिखित हैं । इनमें समुद्रगुप्त को ‘परमभागवत’ कहा गया है । किन्तु इन लेखों में भाषा तथा व्याकरण सम्बन्धी अनेक अशुद्धियाँ हैं और तिथि भी भ्रामक है । अत: फ्लीट, डी. सी. सरकार आदि विद्वानों ने इन दोनों ही ताम्रपत्रों को जाली घोषित किया है ।
2. समुद्रगुप्त का
व्यक्तित्व एवं चरित्र (Personality and Character of Samudragupta):
समुद्रगुप्त की उपलब्धियों का जो विवरण हमें उपलब्ध है उससे स्पष्ट हो जाता है कि वह एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला सम्राट था । आर्यावर्त्त के राजाओं का उन्मूलन तथा सुदूर दक्षिण के राज्यों की विजय उसकी उत्कृष्ट सैनिक प्रतिभा के परिचायक हैं ।
प्रयाग प्रशस्ति उसकी सैनिक कुशलता का वर्णन इन शब्दों में करती है- “वह विभिन्न प्रकार के सैकड़ों युद्धों में भाग लेने में कुशल था, दोनों भुजाओं के बल से अर्जित विक्रम ही जिसका एकमात्र बन्धु था, प्रताप ही जिसका प्रतीक था, परशु, बाण, भाला, शंकु, नाराच आदि अनेक शस्त्रों के प्रहार से उत्पन्न शोभा द्वारा जिसके शरीर की कान्ति द्विगुणित हो जाती थी… ।”
अपने विभिन्न युद्धों में समुद्रगुप्त ने जिन भिन्न-भिन्न नीतियों का अनुसरण किया उससे उसकी कूटनीतिज्ञता एवं राजनैतिक सूझ-बूझ का परिचय मिलता है । दक्षिणापथ के राज्यों के साथ अपनाई गयी नीति तत्कालीन परिस्थितियों में सर्वथा उपयुक्त थी ।
इतिहासकार स्मिथ ने समुद्रगुप्त की वीरता पर मुग्ध होकर उसे ‘भारतीय नेपोलियन’ कहना पसन्द किया । समुद्रगुप्त युद्ध-क्षेत्र में जितना स्कूर्तिवान् था, शान्ति के समय में उससे कहीं अधिक कर्मठ था । वह स्वयं उच्चकोटि का विद्वान् तथा विद्या का उदार संरक्षक था । प्रशस्ति के शब्दों में- ‘विद्वानों की जीविका की स्रोत अनेक काव्यों की रचना द्वारा जिसने ‘कविराज’ की उपाधि प्राप्त की थी’ ।
दुर्भाग्यवश हमें उसकी किसी भी रचना के विषय में ज्ञात नहीं है । वह महान् संगीतज्ञ था जिसे वीणावादन का बड़ा शौक था । अपने कुछ सिक्कों पर वह वीणा बजाते हुये दिखाया गया है । प्रशस्ति में कहा गया है कि- ‘गान्धर्व विद्या में प्रवीणता के कारण उसने देवताओं के स्वामी (इन्द्र) के आचार्य: (कश्यप), तुम्बुरु, नारद आदि को भी लज्जित कर दिया था’ ।
बौद्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि कोई गुप्त सम्राट विद्या का उदार संरक्षक था और उसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु को अपना मंत्री नियुक्त किया था । वामन के ‘काव्यालंकारसूत्र’ से भी इसकी पुष्टि होती है जिसमें समुद्रगुप्त का एक नाम चन्द्रप्रकाश मिलता है ।
वसुबन्धु का काल चतुर्थ शती ईस्वी माना जाता है । अत: उसका संरक्षक समुद्रगुप्त ही था । इससे उसका विद्यानुराग सूचित होता है । समुद्रगुप्त एक उदार तथा दानशील शासक था । उसे विद्वानों को पुरस्कृत करने वाला तथा गौओं एवं सुवर्ण मुद्राओं का दान करने वाला कहा गया है । वह सज्जनों के लिये उदय तथा दुर्जनों के लिये प्रलय के तुल्य था । असहायों एवं अनाथों को उसने आश्रय दिया था ।
प्रशस्ति में कहा गया है कि उसकी उदारता के फलस्वरूप ‘श्रेष्ठकाव्य (सरस्वती) तथा लक्ष्मी का शाश्वत् विरोध सदा के लिये समाप्त हो गया था’ । वह विविध शास्त्रों का ज्ञाता भी था । इस प्रकार उसके व्यक्तित्व में ‘सर्वराजोच्छेता’ एवं ‘शास्त्रतत्वार्थभर्त्ता’ के गुणों का अनूठा समन्वय था ।
समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ सम्राट था जिसने वैदिक धर्म के अनुसार शासन किया । उसे ‘धर्म की प्राचीर’ (धर्मप्राचीरबन्ध:) कहा गया है । उसने ब्राह्मणों को सहस्त्रों गौंवों का दान दिया था । उसके शासन काल में ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान हुआ । वह सर्वगुण सम्मान्न सम्राट था जिसके विषय में प्रयाग प्रशस्ति का कथन है कि वह केवल लौकिक क्रियाओं के कर्त्ता के रूप में ही मनुष्य था अपितु ‘पृथ्वी पर निवास करने वाला देवता था’ ।
एरण के लेख में उसकी तुलना पृथु, रघु आदि महान् शासकों के साथ की गयी है तथा उसे पराक्रम एवं विनय का स्रोत कहा गया है । वह प्रसन्न होने पर साक्षात् कुबेर था किन्तु रुष्ट होने पर यमराज के समान था । गया ताम्रपत्र में उसकी उपाधि ‘परमभागवत’ मिलती है । इस प्रकार समुद्रगुप्त की प्रतिभा बहुमुखी थी । चाहे जिस दृष्टि से देखा जाये, वह महान् था । प्रयाग प्रशस्ति का कथन है कि ‘विश्व में कौन-सा ऐसा गुण है जो उसमें नहीं है’ वस्तुतः विषय में अत्युक्ति नहीं है ।
नि:सन्देह वह शारीरिक तथा बौद्धिक शक्तियों की प्रतिमूर्ति ही था । मजूमदार के शब्दों में ‘लगभग पाँच शताब्दियों के राजनीतिक विकेन्द्रीकरण तथा विदेशी आधिपत्य के बाद आर्यावर्त्त (समुद्रगुप्त के काल में) पुन: नैतिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्नति की चोटी पर जा पहुँचा ।’
3. समुद्रगुप्त की
साम्राज्य तथा शासन (Empire and Rule of Samudragupta):
अपनी विजयों के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था ।
कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित था । दक्षिणापथ के शासक तथा पश्चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्तियों उसकी अधीनता स्वीकार करती थीं ।
इस प्रकार समुद्रगुप्त ने अपने पिता से जो राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, उसे एक विशाल साम्राज्य में परिणत कर दिया । प्रयाग प्रशस्ति के शब्दों में उसने अपने ‘बाहुबल के प्रसार द्वारा भूमण्डल को बाँध लिया’ । पाटलीपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी । समुद्रगुप्त ने अत्यन्त नीति-निपुणता के साथ शासन का संचालन किया । केन्द्रीय भाग का शासन उसके प्रत्यक्ष नियंत्रण में था । प्रशस्ति में उसके कुछ प्रशासनिक पदाधिकारियों के नाम मिलते है ।
जो इस प्रकार है:
i. सान्धिविग्रहिक- यह सन्धि तथा युद्ध का मन्त्री होता था । इसके अधीन वैदेशिक विभाग होता था । समुद्रगुप्त का सान्धिविग्रहिक हरिषेण था जिसने प्रयाग प्रशस्ति की रचना की ।
ii. खाद्यटपाकिक- यह राजकीय भोजनालय का अध्यक्ष था । इस पद पर ध्रुवभूति नामक पदाधिकारी कार्य करता था ।
iii. कुमारामात्य- अल्टेकर महोदय के अनुसार आधुनिक भारतीय प्रशासनिक सेवा के पदाधिकारियों की भाँति ही कुमारामात्य उच्च श्रेणी के पदाधिकारी होते थे । वे अपनी योग्यता के बल पर उच्च से उच्च पद पर पहुँच सकते थे । यही कारण है कि गुप्त लेखों में विषयपति, राज्यपाल, सेनापति, मंत्री आदि सभी को ‘कुमारामात्य’ कहा गया है । गुप्त प्रशासन में यह पद अत्यन्त महत्वपूर्ण था ।
iv. महादण्डनायक- दिनेश चन्द सरकार की राय में यह पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी तथा फौजदारी का न्यायाधीश था । अल्तेकर के अनुसार वह सेना का उच्च पदाधिकारी होता था । संभवतः प्रयाग प्रशस्ति में इस पदाधिकारी का उल्लेख ‘महासेनापति’ के अर्थ में किया गया है । यह पद भी हरिषेण के अधिकार में था ।
v. समुद्रगुप्त की शामन- व्यवस्था के विषय में हमें बहुत कम ज्ञात है । ऐसा प्रतीत होता है कि निरन्तर युद्ध में व्यस्त होने के कारण उसे शासन व्यवस्था का स्वरूप निर्धारित करने का अवकाश नहीं मिला था ।
प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित ‘भुक्ति’ तथा ‘विषय’ शब्दों से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि उसने अपने साम्राज्य का विभाजन प्रान्तों तथा जिलो में किया होगा । किन्तु उनकी संख्या अथवा पदाधिकारियों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है ।
4. समुद्रगुप्त की
मुद्रायें (Coins of Samudragupta):
समुद्रगुप्त की विविध प्रकार की मुद्रायें उसके जीवन एवं कार्यों पर सुन्दर प्रकाश डालती हैं ।
उसकी कुल छ: प्रकार की स्वर्ण मुद्रायें हमें प्राप्त होती हैं:
(i) गरुड़ प्रकार:
इसके मुख भाग पर अलंकृत वेष-भूषा में राजा की आकृति, गरुड़ध्वज, उसका नाम तथा मुद्रालेख ‘सैकड़ों युद्धों को जीतने तथा रिपुओं का मर्दन करने वाला अजेय राजा स्वर्ग को जीतता है, उत्कीर्ण मिलता है । पृष्ठ भाग पर सिंहासनासीन देवी के साथ-साथ ‘पराक्रम:’ अंकित है । इस प्रकार के सिक्के नागवंशी राजाओं के ऊपर उसकी विजय के संकेत देते हैं ।
(ii) धनुर्धारी प्रकार:
इनके मुख भाग पर सम्राट् धनुष-बाण लिये हुये खड़ा है तथा मुद्रालेख ‘अजेय राजा पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मी द्वारा स्वर्ग को जीतता है’ उत्कीर्ण है । पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी के साथ उसकी उपाधि ‘अप्रतिरथ:’ अंकित है ।
(iii) परशु प्रकार:
मुख भाग पर बायें हाथ में परशु धारण किये हुये राजा का चित्र तथा मुद्रालेख ‘कृतान्त परशु राजा राजाओं का विजेता तथा अजेय है’ उत्कीर्ण है । पृष्ठ भाग पर देवी की आकृति तथा उसकी उपाधि ‘कृतान्त परशु’ अंकित है ।
(iv) अश्वमेध प्रकार:
ये सिक्के समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाने के प्रमाण हैं । इनके मुख भाग पर यज्ञ यूप में बँधे हुये घोड़े का चित्र तथा मुद्रालेख ‘राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर तथा अश्वमध यज्ञ का अनुष्ठान कर स्वर्गलोग की विजय करता है’ उत्कीर्ण है । पृष्ठ भाग पर राजमहिषी (दत्तदेवी) की आकृति के साथ-साथ ‘अश्वमेध पराक्रम’ अंकित है ।
(v) व्याघ्रहनन प्रकार:
मुख भाग पर धनुष बाण से व्याघ्र का आखेट करते हुये राजा की आकृति तथा उसकी उपाधि ‘व्याघ्रपराक्रम;’ अंकित है । पृष्ठ भाग पर मकरवाहिनी गंगा की आकृति के साथ-साथ ‘राजा समुद्रगुप्त:’ उत्कीर्ण है । इस प्रकार के सिक्कों से जहाँ एक ओर उसका आखेट-प्रेम सूचित होता है, वहीं दूसरी ओर गंगा-घाटी की विजय भी इंगित होती है ।
(vi) वीणावादन प्रकार:
मुख भाग पर वीणा बजाते हुये राजा की आकृति तथा मुद्रालेख ‘महाराजाधिराजश्री समुद्रगुप्त:’ उत्कीर्ण है । पृष्ठ भाग पर हाथ में कार्नकीपिया लिये हुये लक्ष्मी की आकृति अंकित है । इस प्रकार के सिक्कों से उसका संगीत-प्रेम सूचित होता है । अग्रलिखित पंक्तियों में हम उपर्युक्त साधनों के आधार पर समुद्रगुप्त के व्यक्तित्व और कृतित्व का विवरण प्रस्तुत करेंगे ।
5. समुद्रगुप्त की विदेशी शक्तियाँ (Foreign Powers of Samudragupta):
प्रशस्ति की तेईसवीं-चौबीसवीं पंक्तियों में कुछ विदेशी शक्तियों के नाम दिये गये हैं जिनके विषय में यह बताया गया है कि वे- ‘स्वयं को सम्राट की सेवा में उपस्थित करना, कन्याओं के उपहार एवं अपने-अपने राज्यों में शासन करने के निमित्त गरुड़ मुद्रा से अंकित राजाज्ञा के लिये प्रार्थना करना आदि विविध उपायों द्वारा उसकी सेवा’ किया करती थीं ।
ये शक्तियों इस प्रकार हैं:
i. दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि:
इससे तात्पर्य कुषाणों से है । कुषाण गुप्तों के समय पश्चिमी पंजाब में निवास करते थे तथा उनका शासक देवपुत्र, षाहि एवं षाहानुषाहि की उपाधियों ग्रहण करता था । समुद्रगुप्त का समकालीन कुषाण नरेश किदार कुषाण था जो पेशावर क्षेत्र का राजा था ।
पहले वह ससानी नरेश शापुर द्वितीय की अधीनता में था किन्तु बाद में समुद्रगुप्त की सहायता पाकर उसने अपने को स्वतन्त्र कर दिया । कुछ विद्वानों का विचार है कि देवपुत्र, षाहि तथा षाहानुषाहि से तात्पर्य तीन कुषाण राजाओं से है ।
प्रत्येक शासक एक-एक उपाधि ग्रहण करता था । किन्तु जैसा कि डी. आर. भण्डारकर ने बताया है, मूल शब्द देवपुत्र न होकर ‘देवपुत्र’ है । यह एक तद्धित शब्द है । इससे स्पष्ट है कि यह अपने आप में स्वतन्त्र न होकर बाद के दोनों पदों-षाहि तथा षाहानुषाहि से सम्बन्धित है । इस प्रकार तीनों को एक समस्त पद मानना ही उचित प्रतीत होता है ।
इससे तात्पर्य कुषाण शासकों की प्रसिद्ध राजकीय उपाधि ‘देवपुत्रमहाराजाधिराज’ प्रतीत होता है । आर. सी. मजूमदार के अनुसार उत्तर-पश्चिम भारत में गडहरनरेश भी समुद्रगुप्त की अधीनता मानता था । उसकी एक मुद्रा पर ‘समुद्र’ उत्कीर्ण है ।
ii. शक:
शक लोग गुप्तों के समय में पश्चिमी मालवा, गुजरात तथा काठियावाड़ के शासक थे । समुद्रगुप्त का समकालीन शासक रुद्रसिंह तृतीय (348-378 ईस्वी) था ।
iii. मुरुण्ड:
स्टेनकोनों के मतानुसार मुरुण्ड शब्द चीनी ‘वंश’ का पर्यायवाची है जिसका अर्थ ‘स्वामी’ होता है । इस प्रकार ‘शकमुरुण्ड’ का तात्पर्य शक-शासक से है । परन्तु यह मत असंगत है क्योंकि गुप्तों के पूर्व मुरुण्ड जाति का स्वतन्त्र अस्तित्व था ।
टालमी के भूगोल से पता चलता है कि पूर्वी भारत में मुरुण्डों का शक्तिशाली राज्य था । चीनी स्रोतों में उन्हें ‘मेउलुन’ कहा गया है । उनके अनुसार मुरुण्ड राज्य विशाल नदी (गंगा) के मुहाने से सात हजार ली (लगभग 1200 मील) की दूरी पर स्थित था ।
इस स्थान से तात्पर्य कन्नोज से हो सकता है । जैन साहित्य में भी मुरुण्डों का उल्लेख मिलता है । हेमचन्द्र कृत अभिधानचिन्तामणि से पता चलता है कि मुरुण्डों का एक राज्य आधुनिक लघमान में स्थित था ।
सुधाकर चट्टोपाध्याय का विचार है कि इसी क्षेत्र के मुरुण्डों ने समुद्रगुप्त के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित किया होगा । एलन का विचार है कि वे पाटलीपुत्र के शासक थे तथा प्रारम्भिक नरेश उन्हीं के सामन्त थे । परन्तु यह संदिग्ध है ।
iv. सिंहल:
इससे तात्पर्य लंकाद्वीप से है । समुद्रगुप्त का समकालीन लंका-नरेश मेघवर्ण था । चीनी स्रोतों से पता चलता है कि उसने समुद्रगुप्त के पास उपहारों सहित एक दूत-मण्डल भेजा था । गुप्तनरेश की आज्ञा से उसने बोधिवृक्ष के उत्तर में लंका के बौद्ध भिक्षुओं के लिये एक भव्य विहार बनवाया था ।
सिंहल के अतिरिक्त कुछ और भी द्वीपों ने की अधीनता स्वीकार कर ला था क्योंकि प्रशास्त में सिंहल के बाद ‘आदि सर्वद्वीपवासिभि:’ उल्लिखित मिलता है । इसका संकेत दक्षिण-पूर्वी एशिया के द्वीपों से है । यहां से हिन्दू उपनिवेशों के शासक इस समय अपनी मातृभूमि से सम्बन्ध बनाये हुये थे । जावा से प्राप्त तन्त्रीकामन्दक नामक ग्रन्थ में ऐश्वर्यपाल नामक राजा का उल्लेख हुआ जो अपने को समुद्रगुप्त का वंशज कहता है ।
यद्यपि हमें यह ज्ञात नहीं है कि उपर्युक्त शक्तियों के साथ समुद्रगुप्त का कोई युद्ध हुआ अथवा उसका सम्बन्ध मात्र कूटनीतिक ही था तथापि यह स्पष्ट है कि शकों तथा कुषाणों ने उसकी अधीनता मानी थी ।
कुछ कुषाण मुद्राओं पर ‘समुद्र’ तथा ‘चंद्र’ नाम अंकित है तथा शकों के कुछ सिक्के भी गुप्त प्रकार के हैं । इनसे शकों तथा कुषाणों पर गुप्त शासकों का प्रभाव स्पष्टतः सिद्ध होता है ।
6. समुद्रगुप्त का
राज्यारोहण (Accession of Samudragupta):
प्रयाग प्रशस्ति के प्रारम्भ में आठ श्लोक प्राप्त होते हैं जिनमें से कुछ खंडित अवस्था में हैं । चतुर्थ श्लोक में चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी चुने जाने का विवरण सुरक्षित है । ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिये अपने सभासदों की एक सभा बुलाई ।
वह समुद्रगुप्त के गुणों पर इतना अधिक मुग्ध था कि भरी सभा में उसने उसे गले से लगाते हुये यह घोषणा की ‘आर्य ! तुम योग्य हो, पृथ्वी का पालन करो ।’ प्रशस्तिकार ने आगे लिखा है कि जहां इस घोषणा से चन्द्रगुप्त के दरबारी प्रसन्न हुए वहीं अन्य राजकुमार (तुल्यकुलज) दु:खी (म्लानमुख) हो गये ।
इस विवरण के आधार पर कुछ विद्वानों ने ऐसा विचार व्यक्त किया है कि समुद्रगुप्त के अन्य भाइयों ने उसके निर्वाचन का विरोध किया तथा समुद्रगुप्त को उनके साथ उत्तराधिकार का एक युद्ध लड़ना पड़ा । इस विद्रोह का नेतृत्व ‘काच’ नामक उसके भाई ने किया था । काच नामधारी कुछ सिक्के प्राप्त होते हैं ।
इनके मुख भाग पर राजा की तथा मुद्रालेख ‘काच पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है’, उत्कीर्ण है तथा पृष्ठ भाग पर ‘सर्वराजोच्छेता’ (समस्त राजाओं का उन्मूलन करने वाला) विरुद अंकित है । इस ‘काच’ नामक राजा के समीकरण के विषय में मतभेद है ।
डी. आर. भण्डारकर इसे रामगुप्त के साथ समीकृत करते हैं किन्तु हमें ज्ञात है कि रामगुप्त एक निर्बल शासक था जो ‘सर्वराजोच्छेता’ विरुद का अधिकारी कदापि नहीं हो सकता । रैप्सन तथा हेरास ने बताया है कि काच चन्द्रगुप्त का बड़ा पुत्र था जिसने उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन प्राप्त किया ।
समुद्रगुप्त ने अपने बड़े भाई की हत्या कर राजगद्दी हथिया ली । परन्तु उत्तराधिकार के युद्ध का समर्थन किसी भी प्रमाण से नहीं होता । अत: सहसा इस प्रकार का निष्कर्ष निकाल देना तर्कसंगत नहीं लगता । हमें ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने स्वयं समुद्रगुप्त के पक्ष में अपना राजसिंहासन त्याग दिया था ।
पुनश्च काच तथा समुद्रगुप्त की मुद्राओं में इतनी अधिक समानता है कि एलन महोदय ने यह मत रखा है कि ‘काच’ वस्तुतः समुद्रगुप्त का मौलिक नाम था किन्तु बाद में अपना अधिकार क्षेत्र समुद्रतट तक विस्तृत कर लेने के बाद उसने अपना नाम समुद्रगुप्त रख लिया । संपूर्ण गुप्तवंश में केवल के लिये ही समुद्रगुप्त ‘सर्वराजोच्छेता’ विरुद का प्रयोग मिलता है ।
अत: काच और समुद्रगुप्त दोनों ही एक व्यक्ति प्रतीत होते हैं । यहाँ उल्लेखनीय है कि काच नामधारी सिक्कों के मुद्रालेख ‘काच पृथ्वी को विजित कर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग की विजय करता है’ की समुद्रगुप्त के अश्वमेध सिक्कों पर उत्कीर्ण मुद्रालेख तथा प्रयाग प्रशस्ति के उन्नीसवीं-बीसवीं पंक्तियों के विवरण में गहरी समानता दृष्टिगोचर होती है ।
अश्वमेध सिक्कों पर ‘वह सम्राट भूमण्डल की विजय करके स्वर्ग लोक की विजय करता है अंकित है । इसी प्रकार प्रयाग प्रशस्ति में कहा गया है कि- “समस्त पृथ्वी को जीत लेने के कारण उसकी कीर्ति भूमंडल में विचरण करती हुई इन्द्र लोक में पहुँच गई थी । इन विवरणों के प्रकाश में हमें काच नामधारी सिक्कों को स्वयं समुद्रगुप्त का स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।
उत्तराधिकार-युद्ध के विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कर सकते । वास्तविकता जो भी हो, इतना तो स्पष्ट ही है कि यदि कोई युद्ध हुआ भी हो तो समुद्रगुप्त उसमें पूर्णतया सफल रहा और उसने अपने पराक्रम के बल पर सभी विद्रोहियों को शान्त कर अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली ।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के आर. पी. त्रिपाठी ने यह सुझाव रखा है कि चतुर्थ श्लोक में उल्लिखित ‘तुल्यकुलज’ शब्द से समुद्रगुप्त के भाइयों अथवा गुप्तकुल के राजकुमारों का बोध नहीं होता, अपितु यहाँ समान वंश के राजकुमारों से तात्पर्य है । संस्कृत साहित्य में तुल्य शब्द ‘सम’ तथा ‘सदृश’ का समानार्थी है । तुल्य तथा सम शब्दों का प्रयोग प्रायः समानता के अर्थ में किया गया है । अतः यहाँ किसी उत्तराधिकार युद्ध से तात्पर्य नहीं है ।
वस्तुतः समुद्रगुप्त जैसे शक्तिशाली सम्राट के राज्यारोहण से अन्य समान राजवंशों के शासक दु:खी हुये थे क्योंकि उनके मन में समुद्रगुप्त द्वारा जीते जाने का भय उत्पन्न हो गया । ऐसे शासकों में कोतकुलज, अच्युत, नागसेन आदि को माना जा सकता है ।
अश्वमेध यज्ञ:
अपनी विजयों से निवृत्त होने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया । लगता है कि इस यज्ञ का अनुष्ठान प्रशस्ति लिखे जाने के बाद हुआ और इसी कारण उसमें इसका उल्लेख नहीं मिलता । स्कन्दगुप्त के भितरी लेख में ‘समुद्रगुप्त को चिर काल से छोड़े गये अश्वमेध को करने वाला’ (चिरोत्सन्नाश्व- मेधहर्त्तु:) कहा गया है । परन्तु यह उल्लेख अतिरंजित है । गुप्तों के पूर्व पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञ किये थे ।
समुद्रगुप्त के ‘अश्वमेध’ प्रकार के सिक्के उसके द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाने के प्रमाण हैं । इनके मुख भाग पर यज्ञ-यूप में वाँधे हुये अश्व की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर मुद्रालेख ‘अश्वमेध-पराक्रम:’ (अश्वमेध ही जिसका पराक्रम है) उत्कीर्ण मिलता है । प्रभावती गुप्ता के पूना ताम्रलेख में समुद्रगुप्त को ‘अनेक अश्वमेध यज्ञों को करने वाला’ (अनेकाश्वमेधयाजिन) कहा गया है ।