सविनय अवज्ञा आंदोलन पर निबंध | Savinay Avagya Aandolan Par Nibandh | Essay on Civil Disobedience Movement!
असहयोग आंदोलन की वापसी के कुछ समय बाद तक कांग्रेस जन-आंदोलन का एक और दौर शुरू करने की स्थिति में नहीं रही । 1924 में जेल से रिहा होने के बाद गांधी सक्रिय राजनीति से अलग रहे और अपनी शक्ति रचनात्मक कार्यक्रमों में लगाते रहे, जैसे छुआछूत निवारण अभियान, स्वावलंबन के प्रतीक रूप में चरखे के उपयोग के प्रोत्साहन और साबरमती में एक आश्रम की स्थापना, जहाँ वे आदर्श सत्याग्रहियों के एक दल को प्रशिक्षित कर सकें ।
उपनिवेशी सरकार उनको राजनीति में चुका हुआ कारतूस मानती थी । इस लापरवाही का एक कारण यह भी था कि कुछ साल पहले उन्होंने जिस राष्ट्रीय सहमति का निर्माण किया था, वह तेजी से समाप्त हो चुकी थी और भारत ”एकता के संकट” से ग्रस्त था । स्वयं कांग्रेस ”परिवर्तन विरोधी” और ”परिवर्तन समर्थक” दलों में बँट चुकी थी; इनमें प्रथम तो गांधीवादी मार्ग पर चलना चाहते थे, जबकि दूसरे संवैधानिक राजनीति की ओर जाना चाहते थे ।
संविधानवादी धीरे-धीरे अधिक शक्तिशाली हो गए तथा चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में उन्होंने कांग्रेस के ही अंदर स्वराज पार्टी बना ली । उनकी आकांक्षा काउंसिलों की राजनीति में भाग लेने और संविधान को अंदर से तोड़ने की थी ।
ADVERTISEMENTS:
लेकिन स्वराजवादी किसी भी दृष्टि से एक स्थिर समूह नहीं थे, न किसी अखिल भारतीय एकता या अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए आवश्यक अनुशासन से बँधे थे । दूसरी ओर, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे युवा नेताओं के तहत कांग्रेस समाजवादियों का बढ़ता प्रभाव अंतत पार्टी के भीतर दक्षिण-वाम टकराव का कारण बन गया ।
खिलाफ़त आंदोलन के पतन के कारण कांग्रेस और मुस्लिम लीग का अल्पकालिक गठबंधन भी समाप्त हो गया । स्वयं मुस्लिम लीग संयुक्त निर्वाचकमंडलों और अलग निर्वाचकमंडलों के समर्थकों में बँट गई । कोहाट ( पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत) में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे ।
बंगाल में चितरंजन दास ने 1923 में जो हिंदू-मुस्लिम समझौता किया था, वह टूट गया, और फिर अप्रैल 1926 में कलकत्ता में एक भयानक दंगा हुआ । उसके बाद, 1926 और 1931 के बीच, पूर्वी बंगाल में दंगों का सिलसिला ही शुरू हो गया, जब गाँवों में ”मस्जिदों के सामने बाजा” बजाने का मुद्दा संप्रदायों की परस्पर विरोधी लामबंदी का एक भावनात्मक प्रश्न बन गया ।
संयुक्त प्रांत में 1923 और 1927 के बीच 88 दंगे हुए, जिनके कारण हिंदू-मुस्लिम संबंध लगभग पूरी तरह भंग हो गए । 1925-26 के चुनावों में मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में हिंदू रूढ़िवादी समूहों ने धार्मिक भावनाओं का जमकर शोषण किया, जिसके कारण धर्मनिरपेक्ष मोतीलाल नेहरू की हार हो गई ।
ADVERTISEMENTS:
एक परिणाम यह भी हुआ कि अखिल भारतीय हिंदू महासभा जैसे हिंदू राष्ट्रवादी संगठनो की शक्ति उत्तरी और मध्य भारत में बड़ी; कांग्रेस के साथ उसके घनिष्ठ और समस्याग्रस्त संबंध ने कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष छवि को धूमिल किया और राष्ट्रवाद की मुख्यधारा से मुसलमान और भी कट गए ।
अछूत भी, जिन्हें गांधी हरिजन (हरि के जन) कहते थे, कुंठित हो गए, क्योंकि उनकी हालत में सुधार करने के अभियान को पूरे भारत में बस मामूली समर्थन मिला । उन्हें पहले तो राव बहादुर एम. सी. राजा ने 1926 में एक अलग संगठन में संगठित किया, लेकिन 1930 में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने उन्हें ऑल इंडिया डिप्रेस्ट क्लासेज कांग्रेस में संगठित किया, जिसका एक सुस्पष्ट कांग्रेस विरोधी एजेंडा था ।
सगंठित राजनीतिक जीवन की ऐसी दरारों के बावजूद, दूसरी ओर, कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन भी हुए, जिन्होंने अंग्रेजी राज के विरुद्ध जन-आंदोलन के एक और दौर का आधार तैयार किया । सबसे पहले तो निर्यातमुखी उपनिवेशी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा संकट 1920 के दशक के अंत की भयानक मंदी में परिणत हुआ । निर्यात योग्य नकदी फसलों के दाम तेज़ी, आम तौर पर लगभग 50 प्रतिशत तक से गिरे, जिससे धनी किसान प्रभावित हुए । कुछ नकदी फसलों के दामों में दूसरों से अधिक भयानक गिरावट आई ।
पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र में कपास पैदा की जाती थी; उसके दाम 1920 के दशक के मध्य के 0.70 रुपए प्रति पाउंड से गिरकर 1930 में 0.22 रुपए प्रति पाउंड रह गए । 1929 और 1930 के बीच, अर्थात् साल भर के भीतर, गेहूँ का दाम गिरकर 5 से 3 रुपए प्रतिशत रह गया ।
ADVERTISEMENTS:
चावल का दाम कुछ आगे चलकर गिरा, 1931 के आरंभ से, जबकि बंगाल में जूट का बाज़ार भी गिर गया । किसानों की आमदनी जब गिर रही थी तब भी मालगुजारी की दरें, जो ऊँचे दामों के समय में तय की गई थीं, बनी रहीं, क्योंकि दामों में गिरावट को अभी भी व्यापक रूप से अस्थायी संवृत्ति माना जा रहा था और सरकार उस गिरावट में सहारा देने के लिए कोई छूट देने को तैयार नहीं थी ।
मालगुज़ारी की अदायगी का दबाव जमींदारों पर बना रहा, तो काश्तकारों (tenants) पर लगान के दबाव में भी कोई ढील नहीं आई । ऐसी विवश में कर्जों की अदायगी एक समस्या बन गई, क्योंकि सूदखोर अपनी पूँजी वापस पाने पर अधिक उत्सुक नजर आने लगे ।
अनेक क्षेत्रों में ग्रामीण ऋणों का प्रवाह बंद हो गया और खेती जारी रखने के लिए किसानों को विवश होकर अपनी जमीनों के कुछ टुकड़े बेचने पड़े । लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में हालत अलग-अलग थी और, जैसा कि सुगत बोस ने दिखाया है, बंगाल जैसे एक ही क्षेत्र के अंदर भी खेतिहर समाज के ढाँचे और उत्पादन के संगठन के आधार पर प्रभावों में व्यापक अंतर रहे ।
इस स्थिति से कांग्रेस को देश के विभिन्न भागों में, जैसे बंगाल, तटीय आंध्र और संयुक्त प्रांत में धनी किसानों और छोटे भूस्वामियों को लामबंद करने में मदद मिली । संयुक्त प्रांत में बार-बार मुश्किल की तबाही और खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट ने भी गरीब किसानों की मुश्किलों को बढ़ाया ।
इसके कारण कांग्रेस से बाहर भी किसान आंदोलन उठ खड़े हुए, क्योंकि उग्र हो सकने वाले निचले किसान समूहों को लामबंद करने में स्पष्ट तौर पर कांग्रेस की रुचि नहीं थी । बंगाल में भी गरीब मुसलमान, अछूत नामशूद्र और आदिवासी संथाल किसान 1928-29 में अतिवादी खेतिहर माँगों के आधार पर लामबंद हुए, जिसे तनिका सरकार ने ”प्रतिरोध की एक समानांतर धारा” कहा है । अगर स्वराज के व्यापकतर राष्ट्रीय एजेंडे से स्थानीय कांग्रेसी नेता किसानों के इन विशेष कष्टों को जोड़ पाते, तो एक जन-आंदोलन के लिए वातावरण निश्चित ही अनुकूल था ।
लेकिन उनके लिए विशेष चुनौती मेहनतकश खेत मजदूरों और काश्तकारों की चिंता से अधिक धनी भूस्वामी किसानों के हितों का तालमेल बिठाने की थी । दूसरा महत्त्वपूर्ण विकासक्रम पहले विश्वयुद्ध के दौरान और तुरंत बाद के वर्षों में एक पूँजीपति वर्ग का उदय था । वित्तीय आवश्यकताओं ने भारत सरकार को संरक्षणमूलक शुल्क लगाने पर विवश किया, जिससे आयातित वस्तुओं के दाम बढ़ गए और इस तरह अनिच्छित ही भारत के उद्योगीकरण में सहायता मिली ।
फलस्वरूप 1920 के दशक में एक ऐसा शक्तिशाली और जागरूक भारतीय पूँजीपति वर्ग था, जिसने स्वयं को 1927 में फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ़ कामर्स एंड इंडस्ट्रीज (FICCI) के झंडे तले संगठित किया । यही वह समय भी था जब भारतीय पूँजीपति वर्ग अनेक मुद्दों पर साम्राज्यिक सरकार के साथ टकराया ।
स्थिति से निबटने का उनका आम तरीका एक दबाव समूह की तरह काम करना था, लेकिन घनश्यामदास बिड़ला और पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास जैसे नेता, बल्कि नरमपंथी लालजी नारायण जी भी, इस निष्कर्ष पर पहुँचने लगे थे कि अपनी लड़ाई लड़ने के लिए वे यदि कांग्रेस के साथ खड़े हों, तो उनके लिए बेहतर होगा ।
भारतीय उद्योगों के अनेक कप्तान पश्चिमी भारत के सूती कपड़ा मिल-मालिक थे, जिनकी सहनशक्ति मंदी और सस्ते जापानी कपड़ों की प्रतियोगिता के कारण जवाब देने लगी थी । 1930 की गर्मियों तक बंबई के मिल-मालिकों के पास अनबिका माल रिकॉर्ड मात्रा में मौजूद था-1,20,000 गट्ठर कपड़े और 19,000 गट्ठर (bales) धागे ।
अपनी किस्मत को कांग्रेस के साथ जोड़ देना अब आजमाने योग्य विकल्प नजर आने लगा । कांग्रेस भी अब उनकी अनेक माँगों का समर्थन करने लगी, उन्हें उसने राष्ट्रीय मुद्दे बना दिया, और इस तरह वह पूँजीपति वर्ग को अपनी ओर खींचने लगी । पर समस्या यह थी कि साथ ही साथ औद्योगिक मजदूर वर्ग का प्रसार हो रहा था और उसकी राजनीतिक चेतना बढ़ रही थी ।
वर्ष 1928-29 भारत में श्रमिक असंतोष का चरमकाल था, जब देश के सभी भागों में 203 हड़तालें हुईं । हालांकि मजदूरों ने कार्रवाई की स्वायत्तता का परिचय दिया पर श्रमिकों की कार्रवाई में इस वृद्धि का एक प्रमुख कारण साम्यवादियों (Communist) का प्रभाव था-पूर्वी भारत में मजदूर किसान पार्टी और बंबई में गिरनी कामगार यूनियन के माध्यम से ।
लेकिन सरकार ने दमन के उपायों के सहारे उन पर भारी हमला किया, तो 1930 तक यह कम्युनिस्ट प्रभाव घटने लगा था; कोमिनटर्न ने भी उनको कांग्रेस के नेतृत्ववाले राष्ट्रवादी आंदोलन से दूरी रखने का निर्देश दिया था ।
इससे कांग्रेस को एक व्यापक संयुक्त मोर्चा बनाने का अवसर मिला, हालांकि उसके लिए मजदूर वर्ग का समर्थन आम तौर पर कमजोर था, सिवाय बंगाल के जहाँ उसकी लड़ाई अंग्रेज पूंजीपतियों के विरुद्ध थी । लेकिन कांग्रेस ने फिर भी स्वयं को एक ”परावर्गीय इकाई” (supra-class entity) और ”हितों से ऊपर” के रूप में पेश करने की कोशिश की और इस तरह उसने, हालांकि बहुत ही फूहड़ तरीके से, पूँजीपतियों और मजदूरों को एक ही झंडे तले लाने की कोशिश की ।
भारतीय राजनीति वैमनस्य और अव्यवस्था के ऐसे घालमेल वाले संदर्भ में 1927 के उत्तरार्द्ध में फिर से गरमाई, जब लंदन की टोरी सरकार ने सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में शुद्ध रूप से गोरों का एक संविधान आयोग भारत में संवैधानिक व्यवस्था के कामकाज की समीक्षा के लिए बना दिया । आयोग में भारतीयों की अनुपस्थिति का भारत के सभी राजनीतिक समूहों ने प्रतिरोध किया और उसका पूरे देश में सफलतापूर्वक बहिष्कार हुआ-इसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने भाग लिया ।
साइमन आयोग जब 1928 के आरंभ में देश में पहुँचा, तब ”साइमन वापस जाओ” के नारों ने उसका स्वागत किया । इस संदर्भ में मोतीलाल नेहरू एक उपयुक्त उत्तर के रूप में एक संयुक्त हिंदू-मुस्लिम संविधान योजना की वार्ता चलाने लगे और अगस्त 1928 में लखनऊ के सर्वदलीय सम्मेलन में नेहरू रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया गया ।
यह रिपोर्ट विवशता के समझौतों का एक संकलन थी और इसलिए कमजोर नींव पर खड़ी थी । उसके भाग्य का अंतिम निर्णय आगामी दिसंबर 1928 की कलकत्ता कांग्रेस में होनेवाला था और मोतीलाल चाहते थे कि गांधी उनकी योजना के पीछे अपनी पूरी ताकत झोंक दें, ताकि उसे कांग्रेस सरलता से स्वीकार कर ले ।
लेकिन गांधी के लिए स्वराज कोई संवैधानिक प्रश्न नहीं था, जो अंग्रेज दे सकते थे; सच्चे स्वराज के लिए वे तो कांग्रेस से बाहर ही जनता को लामबंद करते आ रहे थे । अगर नेहरू रिपोर्ट गांधी के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी राजनीति में फिर से आने का एक प्रवेशद्वार थी, तो दूसरा प्रवेशद्वार 1928 का बारदोली सत्याग्रह था ।
गुजरात के सूरत जिले के बारदोली तालुका को असहयोग आंदोलन के दौरान कर रोको अभियान का केंद्र बनाया जाना था । ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि आंदोलन ही वापस ले लिया गया और किसानों ने बिना प्रतिरोध किए कर देने के बारे में कांग्रेसी नेताओं की आज्ञा का पालन किया ।
लेकिन स्थानीय नेतागण कुँवरजी और उनके भाई कल्याणजी मेहता ने अपना रचनात्मक कार्यक्रम इस क्षेत्र में जारी रखा, जो गांधीवादी राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण गढ़ बनने के लिए हर तरह से उपयुक्त था । वहाँ के पाटीदार किसान उस क्षेत्र में हाल ही में आकर बसे थे ।
सामाजिक संस्तरण (stratification) कम होने के कारण वे एक समरस समुदाय थे, जिनकी मेहता बंधु 1908 से ही पाटीदार युवक मंडल के झंडे तले संगठित करते आ रहे थे । कर्ज़-बेगार के माध्यम से उनसे बँधे कालीपराज आदिवासी पूरी तरह उनके नियंत्रण में थे ।
यहाँ कांग्रेस की एक तालुका इकाई बारदोली स्वराज संघ के साथ-साथ बनाई गई, जिसके माध्यम से न केवल मेहता बंधुओं ने पाटीदार किसानों को संगठित किया, बल्कि कालीपराज आदिवासियों ने भी उनके रचनात्मक कार्यक्रम का और आदिवासी धार्मिक प्रतीकों के कुशल उपयोग का उत्तर दिया ।
इसलिए 1927 में जब बंबई सरकार ने मालगुजारी में 22 प्रतिशत की वृद्धि की जिससे ”एक छोटा-सा परंतु प्रभुत्वशाली भूस्वामी वर्ग” प्रभावित हुआ, और इस वर्ग में मुख्यत: पाटीदार, अनाविल ब्राह्मण और बनिये शामिल थे ।
मालगुजारी रोको आंदोलन के आरंभ के लिए अच्छी-खासी सामाजिक लामबंदी पहले ही हो चुकी थी । बारदोली सत्याग्रह गुजरात कांग्रेस समिति के अध्यक्ष वल्लभभाई पटेल द्वारा, गांधी के आशीर्वाद के साथ, 4 फरवरी 1928 को शुरू किया गया ।
हालांकि स्थानीय मध्यस्थों की सहायता से मौके पर आंदोलन का संगठन पटेल ने किया, पर यह वास्तव में गांधी का आंदोलन था, क्योंकि पाटीदार किसानों और कालीपराज आदिवासियों, दोनों की राजनीतिक लामबंदी के लिए उनकी छवि का लगातार उपयोग किया गया ।
राष्ट्रीय प्रेस ने इस आंदोलन की रिपोर्टे व्यापक रूप से छापीं और उसे नाटकीय सफलता मिली । एक न्यायिक जाँच बिठाई गई, जिसके आधार पर मालगुजारी की दरों में वृद्धि कम कर दी गई, ज़ब्त जमीनें लौटा दी गई और अंतत:, कम से कम थोड़े समय के लिए, मालगुजारी में संशोधन रोक दिया गया ।
बारदोली सत्याग्रह की सफलता ने गांधी को एक बार फिर केंद्र में ला खड़ा किया । इससे उनकी यह बात सही सिद्ध हुई कि सत्याग्रह संवैधानिक विधियों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली है । जैसा कि ज्यूडिथ ब्राउन ने कहा है, ”बारदोली ने गांधी को मानसिक अवसाद से बाहर निकाला” और दिसंबर 1928 की कलकत्ता कांग्रेस में वे एक राष्ट्रीय नेता के रूप में फिर से उभरे ।
तब तक नेहरू रिपोर्ट का विरोध और बढ़ चुका था । उसमें एक संवैधानिक योजना थी, जिसमें भारत के लिए डोमीनियन स्टेटस या औपनिवेशिक दर्जा का प्रस्ताव किया गया था । जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में एक उग्र युवा दल इसका विरोधी था । नेहरू और बोस, दोनों ही पूर्ण स्वाधीनता के पक्ष में थे ।
रिपोर्ट से मुसलमानों का विरोध भी बढ़ रहा था, क्योंकि जिन्ना और आगा खाँ के समर्थकों ने उसका निषेध किया । इसलिए गांधी ने एक समझौता प्रस्ताव सामने रखा, जिसमें नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार किया गया था, पर यह भी कहा गया था कि अगर सरकार 31 दिसंबर 1930 तक उसे स्वीकार नहीं करती, तो कांग्रेस पूर्ण स्वाधीनता पाने के लिए एक असहयोग आंदोलन चलाएगी ।
जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस अभी भी रुष्ट थे, पर गांधी ने जब और भी रियायत देते हुए समय-सीमा को घटाकर 1929 तक कर दिया, तो प्रस्ताव पारित हो गया । खुले सत्र में भी गांधी का समझौता प्रस्ताव पारित हुआ, जबकि पूर्ण स्वाधीनता की माँग करता हुआ बोस का संशोधन अस्वीकार हो गया ।
इस तरह कांग्रेस पर एक बार फिर गांधी का प्रभुत्व स्थापित हुआ लेकिन, जैसा कि ब्राउन ( 1977) का कथन है, वे केवल अपनी शर्तो पर नेतृत्व स्वीकार करना चाहते थे । इसलिए उन्होंने एक और प्रस्ताव पारित कराया, जिसमें एक विस्तृत रचनात्मक कार्यक्रम मौजूद था ।
इसमें संगठन कार्य का दोबारा आरंभ, छुआछूत का अंत, विदेशी कपड़ों का बहिष्कार, खादी का प्रचार-प्रसार, निग्रह, ग्राम पुनर्निर्माण और स्त्रियों की निर्योग्यताओं की समाप्ति शामिल थे । गांधी को इसी रचनात्मक कार्यक्रम के माध्यम से सच्चा स्वराज पाने की आशा थी ।
लेकिन एक अहम मुद्दा, जिसका इस रचनात्मक कार्यक्रम में उल्लेख नहीं था, हिंदू-मुस्लिम एकता का था । कलकत्ता कांग्रेस के बाद भी नेहरू-बोस दल से बाहर के कुछ कांग्रेसी नेता, जैसे उदारवादी नेता, अंग्रेजों से सहयोग को प्राथमिकता देते रहे ।
उस समय का वायसरॉय लॉर्ड इर्विन भी एक ऐसी संवैधानिक योजना लागू कराने के लिए समझौता चाहता था, जिसका अंतिम लक्ष्य डोमीनियन स्टेटस था । उसे सत्ताधारी लेबर सरकार का समर्थन मिला और इस तरह 31 अक्तूबर 1929 का ”इर्विन प्रस्ताव” सामने आया, जिसमें मुद्दे को तय करने के लिए एक गोलमेज़े सम्मेलन का प्रस्ताव किया गया था ।
दिमंबर में जनता का ध्यान लाहौर की ओर खिंच गया जहाँ जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का अगला सत्र होनेवाला था । पूर्ण स्वाधीनता का आंदोलन आरंभ करने के बारे में अनेक नेताओं को शंकाएँ थीं, विशेषकर भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी नेताओं के हाथों हिंसा की बढ़ती लहर को देखते हुए ।
इसलिए गांधी जब लाहौर पहुंचे, तो उनके सामने एक विराट कार्यभार था और उन्हें घोर विरोध का सामना करना पड़ा । लेकिन इन सबके बावजूद उनका प्रिय प्रस्ताव पारित हो गया । उसने ”पूर्ण स्वराज” को कांग्रेस का लक्ष्य घोषित किया और प्रस्ताव रखा कि उसकी प्राप्ति के लिए एक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने के लिए तुरंत शुरूआत विधायिकाओं के बहिष्कार से की जाए ।
अखिल भारतीय कांग्रेस समिति को सही समय पर एक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का अधिकार दिया गया । पर लगता है कि गांधी अपने सभी आलोचकों को मनाने में सफल नहीं हुए । विधायिकाओं के बहिष्कार के आह्वान का सीमित प्रत्युत्तर ही मिला ।
कांग्रेस के डॉ. अंसारी जैसे मुस्लिम नेता इसलिए दुखी थे कि उनकी राय में सांप्रदायिक एकता सविनय अवज्ञा आंदोलन की सफलता के लिए एक आवश्यक शर्त थी । कांग्रेस से बाहर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस और मुस्लिम लीग ने आंदोलन की निंदा उसे हिंदू राज की स्थापना की चाल बतलाकर की ।
गैर-कांग्रेसी हिंदुओं ने, जैसे हिंदू महासभा और मद्रास की जस्टिस पार्टी ने, सविनय अवज्ञा के विरोध की घोषणा । व्यापारी समूह लाहौर प्रस्ताव की अनिश्चित संभावनाओं के प्रति आशंकित थे, जब कि युवा कांग्रेसी और भी उग्र कार्रवाई के लिए जोर डाल रहे थे ।
इस स्थिति में 26 जनवरी 1930 के ”स्वतंत्रता दिवस” समारोहों को पंजाब, संयुक्त प्रांत, दिल्ली और बंबई के बाहर कुछ खास प्रत्युत्तर नहीं मिला । बिहार में इन समारोहों के कारण पुलिस और कांग्रेस स्वयंसेवकों के बीच हिंसक टकराव हुए ।
गांधी को इस गतिरोध से बाहर निकलने के लिए एक रणनीति तैयार करनी पड़ी और ‘स्वतंत्रता’ शब्द को एक अधिक व्यापक अर्थ देना पड़ा, जो काफ़ी फूट पैदा करने वाले संकीर्णतर राजनीतिक भाव से अलग
था ।
इसलिए 31 जनवरी 1930 को गांधी ने लॉर्ड इर्विन के समक्ष एक 11-सूत्री चेतावनी की घोषणा की । उनकी घोषणा थी कि अगर 11 मार्च तक ये माँगे मानी गईं, तो कोई सविनय अवज्ञा आंदोलन नहीं होगा और कांग्रेस किसी भी सम्मेलन में भाग लेगी ।
यह एक समझौता सूत्र था जिसमें, सुमित सरकार के वर्गीकरण के अनुसार: छह ”आम हित के मुद्दे” शामिल थे जैसे सैन्य खर्च और सिविल सेवाओं के वेतनमानों में कमी, पूर्ण नशाबंदी, उन राजनीतिक कैदियों की रिहाई जिनको हत्या का दंड नहीं मिला है, सी. आई. डी. में सुधार और उस पर जन-नियंत्रण तथा हथियार कानून में परिवर्तन; तीन ”विशिष्ट पूँजीवादी माँगे” जैसे रुपया और स्टर्लिग की विनिमय दर को घटाकर 1 शिलिंग 4 पेस तक लाना, विदेशी कपड़ों पर संरक्षणमूलक शुल्क और तटीय जहाजरानी का भारतीय जहाजरानी कंपनियों के लिए आरक्षण; और दो ”बुनियादी तौर पर किसानों के विषय” जैसे मालगुजारी में 50 प्रतिशत की कमी और उस पर विधायिका का नियंत्रण तथा नमक कर का और नमक पर सरकार के एकाधिकार का उन्मूलन ।
यह राजनीतिक जनमत की एक व्यापक श्रेणी को आकर्षित करने और भारतवासियों को फिर से एक राजनीतिक नेतृत्व की छत्रछाया में एकजुट करने के लिए एक मिला-जुला पैकेज था । इस तरह गांधी ने स्वतंत्रता की अमूर्त धारणा को कुछ विशेष शिकायतों से जोड़ा ।
लेकिन इन सभी शिकायतों में नमक कर वाली शिकायत अनेक कारणों से सबसे महत्त्वपूर्ण लगती थी । वह जनता के सभी वर्गों को प्रभावित करती थी और इसका कोई विभाजक निहितार्थ न था । वह सरकार के खजाने या किसी निहित स्वार्थ के लिए कोई खतरा नहीं थी और इसलिए गैर-कांग्रेसी राजनीतिक तत्त्वों को नाराज नहीं करती, न ही सरकारी दमन को न्यौता देती ।
आखिरी बात यह कि उसे बेहद भावनात्मक बनाया जा सकता था और उसका भारी प्रचार मूल्य था । इर्विन कोई समझौता करने के पक्ष में नहीं था और इसलिए 12 मार्च को गुजरात के समुद्रतट के लिए गांधी का ऐतिहासिक दांडी मार्च (यात्रा) शुरू हुआ, जहाँ उन्होंने 6 अप्रैल को सार्वजनिक रूप से नमक कानून तोड़ा ।
इस दाँडी यात्रा को भारत और विदेश, दोनों में भारी प्रचार मिला; उसके बाद व्यापक रूप से नमक का गैर-कानूनी उत्पादन और विक्रय हुआ तथा साथ में विदेशी कपड़ों और शराब का बहिष्कार किया गया । अगले चरण में रैयतवारी क्षेत्रों में मालगुजारी की और जमींदारी क्षेत्रों में चौकीदारी करों की अदायगी रोक दी गई और मध्य प्रांत में जंगल कानून तोड़े गए ।
कांग्रेस कार्यकारी समिति ने इस तरह एक ऐसा कार्यक्रम तैयार किया था कि भारतीय समाज पर उसका विभाजक प्रभाव कम ही पड़े । लेकिन अप्रैल के अंतिम दिनों में स्थिति अचानक एक मोड़ लेने लगी, जब भारत के विभिन्न भागों में हिंसक कार्रवाईयों और कम अनुशासित जन-उभार का दौर शुरू हुआ ।
इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण था चटगाँव (बंगाल) में हथियारखाने पर हमला और फिर पूरे प्रांत में हिंसात्मक कार्रवाइयों का सिलसिला । पेशावर में स्थानीय करिश्माई नेता बादशाह खाँ की गिरफ्तारी के बाद जनता भड़क उठी । मई के मध्य में स्वयं गांधी गिरफ्तार कर लिए गए ।
उसके बाद शोलापुर के कपड़ा कारखानों में एक स्वत: स्फूर्त हड़ताल हुई, जब मजदूरों ने घूम-घूमकर शहर की सरकारी इमारतों और दूसरे सरकारी ठिकानों में तोड़फोड़ की । इन सबने भारत के लगभग सभी भागों में ऐसे जन-आंदोलन को बढ़ावा दिया, जो एक विदेशी सरकार से असहयोग मात्र न होकर पूर्ण स्वाधीनता पाने के लिए उसके कानूनों का सचमुच का उल्लंघन था ।
इन तीनों क्षेत्रों में हिंसा फूटने के बाद भी आंदोलन को तुरंत वापस नहीं लिया गया । जैसा कि सुमित सरकार (1983) का तर्क है, इस अर्थ में सविनय अवज्ञा आंदोलन में 1920 के आंदोलन के मुकाबले निश्चित ही अतिवाद (radicalism) बढ़ा । पर साथ ही यह कोई दोटूक सफलता भी नहीं था ।
इसमें हिंदू-मुस्लिम एकता का स्पष्ट अभाव था, इसमें मजदूरों की कोई बड़ी भागीदारी नहीं रही और पढ़ा-लिखा वर्ग उस तरह शामिल नहीं हुआ जैसे कि पहले हुआ था । दूसरी ओर, औद्योगिक घरानों का विशाल समर्थन सविनय अवज्ञा आंदोलन की एक नई विशेषता था ।
कम से कम आरंभिक काल में उन्होंने दो बहुत ही लाभदायक तरीकों से भाग लिया: उन्होंने आंदोलन के लिए धन दिया और बहिष्कार आंदोलन का समर्थन किया, खासकर विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का । आयातित कपड़ों का दाम 1929 के 2.6 करोड़ पाउंड से घटकर 1930 में 1.37 करोड़ पाउंड रह गया ।
इस गिरावट में आंशिक योगदान मंदी का रहा, परंतु एक विशेष अवधि तक विदेशी कपड़े रखने से व्यापारियों के इनकार का उल्लेख किए बिना इसकी व्याख्या नही की जा सकती । बड़ी संख्या में स्त्रियों की भागीदारी सविनय अवज्ञा आंदोलन की दूसरी सबसे अहम विशेषता थी ।
दांडी मार्च के दौरान लगभग हर पड़ाव पर स्त्रियाँ गांधी की बात सुनने के लिए हजारों की संख्या में आगे आई और आंदोलन जब शुरू हुआ तो उसमें पूरी तरह शामिल रहीं । उन्होंने विदेशी कपड़ों और शराब की दुकानों पर भी धरने दिए और अनक स्थानो पर एक-दो हज़ार स्त्रियों की भागीदारी वाले जुलूसों ने पूरे देश को आश्चय में डाल दिया और अधिकारियों को भौंचक्का कर दिया ।
ये स्त्रियाँ मुख्य रूप से ऊँची जातियों के सम्मानित परिवारों की थीं, जैसे बरार में ब्राह्मण और मारवाड़ी घरानों की या बंगाल में भद्रलोक और रूढ़िवादी मारवाड़ी और गुजराती व्यापारिक घरानों की । खुली सड़क पर उनके सामने आने या आंदोलनों की राजनीति में भाग लेने से उनके सम्मान पर कोई आँच नहीं आती थी, क्योंकि गांधी का नाम राष्ट्र के प्रति पवित्र कर्त्तव्यों के रूप में ऐसे कार्यो को वैध बना देता था ।
शहरी क्षेत्रों की तरह ग्रामीण क्षेत्रों में भी, जैसे बंगाल में, गांधीवादी आंदोलन में भागीदारी को किसान स्त्रियाँ एक ”धार्मिक कृत्य” समझती थीं, और वे अधिकतर ऊपर की ओर गतिशील किसान जातियों की औरतें
थीं । कारण कि आम तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में धनी किसानों की भागीदारी अधिक रही; भारी मालगुजारी के विरुद्ध उनकी शिकायतों को सफलता के साथ स्वराज की माँग के साथ जोड़ दिया गया था ।
चौकीदारी करों और मालगुजारी की गैर-अदायगी के अभियान गुजरात, संयुक्त प्रांत, बिहार, उड़ीसा और तटीय आंध्र के अनेक भागों में आंदोलन की प्रमुख विशेषता बन गए । उसी के साथ बहिष्कार आंदोलन भी चला, बड़े पैमाने पर नमक का उत्पादन हुआ और शराब की दुकानों पर धरने दिए गए ।
कुछ स्थानों पर, जैसे उत्तरी बिहार में, अगर आम जनता अपनी इच्छा से इन कार्रवाइयों में शामिल नहीं हुई, तो गाँव के स्तर पर जोशीले कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने अपने बहिष्कार कार्यक्रम को मनवाने के लिए ”सीमित हिंसा” का और सामाजिक बलप्रयोग के दूसरे सूक्ष्म रूपों का सहारा लिया ।
सरकार ने भी दमन के द्वारा इसका उत्तर दिया; पहली पंक्ति के सभी नेता और स्वयंसेवक गिरफ्तार कर लिए गए । सितंबर 1930 के बाद आंदोलन का पतन शुरू हुआ । शहरी क्षेत्रों में व्यापारिक वर्गो का उत्साह वित्तीय हानि के कारण ठंडा पड़ गया, जो दैनिक उद्योग में घाटे के कारण आई ।
सरकार ने भी फरवरी 1931 में तैयार सूती कपड़ों के आयात पर 5 प्रतिशत अधिभार लगाकर उन्हें एक रियायत दी । मध्यम वर्ग आरंभ से ही उत्साह से रहित था और अब शिक्षित युवा क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की ओर अधिक खिंचने लगे ।
उनके आदर्श बन गए पंजाब के भगत सिंह, जिन्होंने एक अंग्रेज अफसर की हत्या की थी और केंद्रीय धारासभा (असेंबली) में बम फेंके थे, तथा बंगाल के विनय, बादल और दिनेश जिन्होंने कलकत्ता में राइटर्स बिल्डिंग पर हमला किया था । दूसरी ओर मजदूर वर्ग का समर्थन गायब रहा और उसके हाल के उग्र झुकाव को देखते हुए गांधी उनको आंदोलन में खींचने के विषय में शंकित थे ।
एक अपवाद था नागपुर, जहाँ मजदूर वर्ग की विशाल भागीदारी रही और 1921 के आंदोलन से बहुत अधिक रही । गाँवों में गुजरात के पाटीदारों या संयुक्त प्रांत के जाटों जैसे अधिक धनी किसानों का उत्साह संपत्ति की जन्मी और बिक्री के कारण ठंडा पड़ गया ।
दूसरी ओर खेतिहर पैदावारों के दामों में भारी गिरावट के कारण कमजोर किसानों के आंदोलनों में उग्र प्रवृत्तियाँ पैदा हुईं, जैसे संयुक्त प्रांत के लगान रोको अभियान तथा आंध्र, मध्य प्रांत, महाराष्ट्र, बिहार, उड़ीसा, असम और पंजाब के कुछ भागों में जंगल कानूनों का उल्लंघन और आदिवासी विद्रोह ।
इन विकासक्रमों के कारण समाज पर निश्चित ही वैसा गंभीर विभाजक प्रभाव पड सकता था, जिससे गांधी निश्चित ही बचना चाहते थे । इसलिए 5 मार्च 1931 के गांधी-इर्विन समझौते के द्वारा आंदोलन को वापस ले लिया गया और भारत के भावी संविधान पर विचार-विमर्श करने के लिए कांग्रेस ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का निश्चय किया ।
दिलचस्प बात यह है कि उड़ीसा के किसानों ने इस समझौते को ”गांधी की विजय” मानकर जश्न मनाया और उनमें करों की अदायगी रोकने तथा नमक बनाने का उत्साह और बढ़ा । 1931 का समझौता भारतीय इतिहास में विवाद का एक प्रमुख विषय रहा है ।
सबसे पहले तो आर. जे. मूर (1974) ने दिखाया कि पूँजीपति वर्ग का दबाव समझौते के पीछे एक प्रमुख कारण था; इसी बिंदु को और आगे बढ़ाकर सुमित सरकार (1976) ने तर्क दिया कि आंदोलन की आरंभिक सफलता और आगे चलकर उसकी वापसी, दोनों में भारतीय पूँजीपतियों की एक ”निर्णायक” भूमिका रही ।
वैचारिक मतभेदों के आरपार दूसरे इतिहासकारों ने भी इस बिंदु को स्वीकार किया है, जैसे ज्यूडिथ ब्राउन (1977), क्लाउद मार्कोवित्ज़ (1985) और बसुदेव चटर्जी (1992) ने । तर्क यह है कि कांग्रेस और पूँजीपतियों का गठजोड़ आरंभ से ही असहज और कमजोर था, और अब अनियंत्रित जन-आंदोलन ने औद्योगिक वर्गो को परेशान कर दिया जो शांति की स्थिति चाहते थे ।
इसीलिए गांधी पर संवैधानिक राजनीति की ओर वापस आने का दबाव पड़ा और इसका ही परिणाम गांधी-इर्विन समझौता था । लेकिन इस प्रस्थापना के साथ समस्या यह है कि औद्योगिक समूह 1931 में शायद ही कोई समरस समूह रहे हों और उनकी एक आवाज नहीं होती थी ।
जैसा कि ए. डी. डी. गॉर्डन का कथन है, मंदी, बहिष्कार, हड़तालों और सामाजिक अस्तव्यस्तताओं के कारण उद्योगपतियों का उत्साह ठंडा पड़ गया और वे चाहते थे कि या तो सविनय अवज्ञा समाप्त कर दी जाए या कांग्रेस और सरकार के बीच एक शांति समझौता हो ।
लेकिन, दूसरी ओर, दुकानदार और व्यापारी अभी भी गांधी के जोरदार समर्थक बने हुए थे और सविनय अवज्ञा का सिलसिला आगे बढ़ा तो उनकी मूलगामी वृत्ति (radicalism) में और वृद्धि हुई । इससे भी अहम बात यह है कि, जैसे कि इस सिद्धांत के दूसरे समर्थकों ने कहा है, हालांकि औद्योगिक समुदायों ने आंदोलन का समर्थन किया और उसकी आरंभिक सफलता के लिए वे श्रेय के एक अंश का दावा भी कर सकते थे फिर भी वे कभी इस स्थिति में नहीं रहे कि गांधी पर आंदोलन वापस लेने का दबाव डाल सकें ।
गांधी की कांग्रेस अपने आपको एक सगंठन के रूप में पेश करती आ रही थी, जिसमें सभी वर्ग और समुदाय शामिल थे । इस कारण इसकी संभावना बहुत कम है कि एक विशेष वर्ग के हितों को पूरा करने के लिए गांधी ने इतना अहम निर्णय किया होगा ।
आंदोलन के वापस लिए जाने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण ऐसे कुछ निचले वर्गो में उग्रवाद और हिंसा का उदय था, जिन्होंने स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के नियंत्रण में रहने से मना कर दिया । आंदोलन तब इधर-उधर भटक रहा था या गांधी के अहिंसा के सिद्धांत के विरुद्ध जा रहा था राजनीतिक राष्ट्र की कमजोर एकता को भंग कर रहा था ।
समझौते और आंदोलन की वापसी का यही कारण था । सरकार के साथ वार्ताएँ अंतत: असफल रहीं और गांधी लंदन में सितंबर-दिसंबर 1931 में आयोजित दूसरे गोलमेज सम्मेलन से खाली हाथ लौटे । कांग्रेस ने सम्मेलन के पहले सत्र का बहिष्कार किया था और दूसरे सत्र में अल्पसंख्यक प्रश्न पर गतिरोध पैदा हो गया था, क्योंकि मुस्लिम ही नहीं बल्कि दलित (अछूत), एंग्लो-इंडियन, भारतीय ईसाई और यूरोपीय जैसे सभी दूसरे अल्पसंख्यक भी अलग निर्वाचकमंडलों की माँग कर रहे थे, जिन्हे गांधी न मानने की कसम खा चुके थे ।
वे भारत वापस आ गए और अब अकेला विकल्प लड़ाई को नए सिरे से शुरू करना था । कुछ अन्य विवशताएँ थीं, क्योंकि सरकार ने पहले ही दमन का चक्र शुरू कर दिया था और एक निरोधक उपाय के रूप में 4 जनवरी 1932 को कांग्रेस को प्रतिबंधित कर दिया था ।
आंदोलन को और भी जोरदार ढंग से शुरू किया गया, पर उसपर स्पष्ट रूप से कम उत्साह देखा गया । धनी किसान समूह, जिन्होने आंदोलन के पहले चरण में अधिक जुझारूपन का परिचय दिया था, उनके वापस लौटने पर ठगे-ठगे महसूस कर रहे थे और जब कांग्रेसी नेताओं ने दूसरी बार उन्हें लामबंद करने की कोशिश की तो वे अनेक स्थानों पर शांत रहे, जैसे तटीय आंध्र, गुजरात या उत्तर प्रदेश में ।
गांधीवादी सामाजिक कार्यक्रम के कुछ पहलू, जैसे छुआछुत के विरुद्ध उनका जेहाद, उनको पसंद ही नही थे, क्योंकि वे अधिकतर ऊंची जातियों के लोग थे, और उन्होंने तो बल्कि उस पर शत्रुतापूर्ण प्रतिक्रिया दिखाई । दूसरी ओर गांधी की हरिजन मुहिम स्वयं हरिजनों को प्रभावित करने में असफल रही ।
मराठी-भाषी नागपुर और बरार में, जो अंबेडकर की दलित राजनीति के गढ़ थे, अछूतों ने अपनी वफादारी कांग्रेस की और मोड़ने से इनकार कर दिया । परंतु इस उदासीनता और विरोध के साथ-साथ कमजोर किसानो के कुछ दूसरे हिस्सों में और अधिक उग्रता के संकेत देखे गए, जो नमक सत्याग्रहों, वन सत्याग्रहों, चौकीदारी करों की गैर- अदायगी, लगान रोका और मालगुजारी रोको अभियानों में व्यक्त हुई ।
लेकिन ये अधिकतर कांग्रेसी संगठन के दायरे से बाहर के आंदोलन थे और इस कारण कुछ स्थानों पर कांग्रेसी नेताओं ने उनमे नरमी लाने का और जहाँ यह संभव नहीं हुआ वहाँ ऐसे किसान जुझारूपन से स्वयं को अलग करने का प्रयास किया ।
शहरी क्षेत्री में औद्योगिक समुदाय निश्चित ही दुविधा में पड़े रहे । कांग्रेस और बंबई के मिल-मालिकों के बीच अलगाव खुलकर सामने आया; इन मिल-मालिकों ने होमी मोदी के नेतृत्व मे गांधी को आंदोलन के पुनरारंभ के विरुद्ध चेतावनी दी । बड़े भारतीय उद्योगपतियों के दूसरे हिस्से भी दुविधा में थे ।
उनकी सरकार से रियायते पाने की आशाएँ धूमिल हो चुकी थी, लेकिन इस बार सविनय अवज्ञा का पुनरारंभ सामाजिक यथास्थिति के लिए गंभीर खतरे पैदा कर सकता था, क्योंकि सरकार ने जवाबी हमले के लिए अधिक तैयारी की थी । क्लाउद मार्कोवित्ज़ (1985) का तर्क है कि इस दुविधा के तनाव के कारण भारतीय पूंजीपति वर्ग की एकता भंग हो गई ।
1933 तक कमजोर हो रही अर्थव्यवस्था और बढ़ती हिंसा ने गांधी के सबसे कट्टर समर्थकों, गुजराती और मारवाड़ी व्यापारियों, तक के उत्साह को ठंडा कर दिया । शिक्षित नगरवासी भी गांधी के रास्ते पर चलने के प्रति कम उत्सुक थे ।
दुकानों पर दिए जानेवाले धरने अकसर बमों के उपयोग से त्रस्त होते रहे, और गांधी ने इसकी निंदा की पर इसे रोक न सके । मजदूर उदासीन ही रहे और मुस्लिम अकसर शत्रुता के भाव से ग्रस्त रहे । सरकार के दमन ने हजारों कांग्रेसी स्वयंसेवकों को सलाखों के पीछे धकेल दिया । 1934 तक आंदोलन धीरे-धीरे ठंढा पड़ चुका था ।
कांग्रेस के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन किसी भी तरह असफल नहीं था । अब तक वह भारी राजनीतिक समर्थन जुटा चुकी थी और एक नैतिक सत्ता प्राप्त कर चुकी थी, जो 1937 में भारी चुनावी विजय में व्यक्त हुए ।
भारत सरकार अधिनियम 1935 (गवर्नमेंट ऑफ्र इंडिया ऐक्ट, 1935) के तहत हुए इस पहले चुनाव में, जिसमें एक अधिक बड़े निर्वाचकमंडल को मताधिकार दिए गए थे, कांग्रेस ने ग्यारह में से पाँच प्रांतों (मद्रास, बिहार, उड़ीसा, संयुक्त प्रांत, और मध्य प्रांत) में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया, बंबई में उसे लगभग बहुमत ही मिला और बंगाल में, जो मुस्लिम-बहुल प्रांत था, वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी ।
अधिकांश भारतवासियों और खासकर हिंदुओं की नजर में यह ”गांधीजी और पीले बक्से के पक्ष में मतदान” था और यह ऐसे कुछ वास्तविक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के प्रति उनकी आशाओं का सूचक था, जिनके वादे अभी हाल में समाजवादियों और दूसरे वामपंथी कांग्रेसी नेताओं ने किए थे ।
बाद में आठ प्रांतों (संयुक्त प्रांत, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रांत, बंबई, मद्रास, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत और असम) में मंत्रिमंडलों का गठन सत्ता के तंत्र से कांग्रेस का पहला संपर्क था । लेकिन यह पदग्रहण कांग्रेस की कमान के ढाँचों के अंदर उन दक्षिणपंथियों की विजय का सूचक भी था, जो गांधी की आंदोलन की विधियों पर संवैधानिक राजनीति को प्राथमिकता देते थे । जैसा कि डी. ए. लो का तर्क है, ब्रिटिश राज से लड़ते हुए कांग्रेस स्वयं ही राज बनती जा रही थी और स्वराज के गांधीवादी आदर्श से धीरे-धीरे दूर खिसक रही थी ।