सातवाहन राजवंश: इतिहास, संस्कृति और प्रशासन, कला और वास्तुकला | Satavahana Dynasty: History, Culture and Administration, Art and Architecture .

सातवाहन राजवंश | Satavahana Dynasty


Essay Contents:

  1. सातवाहन युग का राजनीतिक इतिहास (Political History of Satavahana Dynasty)
  2. सातवाहन युग के  भौतिक संस्कृति के पहलू (Aspects of Physical Culture during Satvahana Dynasty)
  3. सातवाहन युग में सामाजिक संगठन (Social Organisation during Satvahana Dynasty)
  4. सातवाहन युग में प्रशासनिक ढाँचा (Administrative Framework during Satvahana Dynasty)
  5. धर्म (Religious Practices during Satvahana Dynasty)
  6. सातवाहन युग में वास्तुकला (Architecture during Satvahana Dynasty)
  7. सातवाहन युग में भाषा (Languages Used during Satvahana Dynasty)

Essay # 1. सातवाहन युग का राजनीतिक इतिहास (Political History of Satavahana Era):

उत्तर भारत में मौर्यों के सबसे बड़े देशी उत्तराधिकारी हुए शुंग और उसके बाद कण्व । दकन और मध्य भारत में मौर्यों के उत्तराधिकारी सातवाहन हुए, हालांकि बीच में करीब सौ वर्षों का व्यवधान हुआ । सातवाहन और पुराणों में उल्लिखित आंध्र एक ही माने जाते हैं । पुराणों में केवल आंध्र शासन का उल्लेख है, सातवाहन शासन का नहीं ।

दूसरी ओर सातवाहन अभिलेखों में आंध्र नाम नहीं मिलता है। सातवाहन-पूर्व बस्तियों का अस्तित्व दकन के अनेक स्थलों पर लाल मृदभांड काला-व-लाल मृद्‌भांड और गेरुआ लेपित चित्रित मृद्‌भांड के पाए जाने से प्रमाणित होता है ।

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इनमें से अधिकांश बस्तियाँ लोहे का इस्तेमाल करने वाले उन महापाषाण निर्माताओं से संबद्ध है जो उत्तर से आने वाली भौतिक संस्कृति के साथ संपर्क के फलस्वरूप नए-नए कार्यकलापों की ओर प्रेरित हुए होंगे । लोहे के फाल का प्रयोग धान की रोपनी नगरीकरण लेखन-कला आदि के आगमन से सातवाहनों के द्वारा राज्य के गठन के लिए उपयुक्त परिस्थिति बन गई थी ।

कुछ पुराणों के अनुसार, आंध्रों ने कुल मिलाकर 300 वर्षों तक शासन किया और यही समय सातवाहनों का शासनकाल माना जाता है । सातवाहनों के सबसे पुराने अभिलेख ईसा-पूर्व पहली सदी के हैं । उसी समय उन्होंने कण्वों को पराजित कर मध्य भारत के कुछ भागों में अपनी सत्ता स्थापित की ।

आरंभिक सातवाहन राजा आंध्र में नहीं, बल्कि उत्तरी महाराष्ट्र में थे जहाँ उनके प्राचीनतम सिक्के और अधिकांश आरंभिक अभिलेख मिले हैं । उन्होंने अपनी सत्ता ऊपरी गोदावरी घाटी में स्थापित की जहाँ अभी महाराष्ट्र में बढ़िया और तरह-तरह की फसल होती है ।

धीरे-धीरे सातवाहनों ने अपनी सत्ता का विस्तार कर्नाटक और आंध्र पर किया । उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी शक थे जिन्होंने अपनी सत्ता दकन और पश्चिमी भारत में स्थापित की थी । ऐसी भी अवस्था आई जब शकों ने सातवाहनों को महाराष्ट्र और पश्चिमी भारत के अंदर पड़ने वाले उनके राज्यक्षेत्र से बेदखल कर दिया ।

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लेकिन सातवाहन वंश के ऐश्वर्य को गौतमीपुत्र शातकर्णि (106-130 ई॰) फिर वापस लाया । उसने अपने को एकमात्र ब्राह्मण कहा शकों को हराया और अनेक क्षत्रिय शासकों का नाश किया ।

उसका दावा है कि उसने क्षहरात वंश का नाश किया क्योंकि उसका शत्रु नहपान इसी वंश का था । उसका यह दावा सही है, क्योंकि नहपान के जो 8,000 से अधिक चांदी के सिक्के नासिक के पास मिले हैं उन पर सातवाहन राजा द्वारा फिर से ढलाए जाने के चिह्न हैं ।

उसने मालवा और काठियावाड़ पर भी अधिकार जमा लिया जो शकों के अधीन थे । ऐसा लगता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि का साम्राज्य उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक फैला हुआ था । संभवत: आंध्र पर भी उसका आधिपत्य था ।

गौतमीपुत्र के उत्तराधिकारियों ने 220 ई॰ तक राज किया । इसके प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी वासिष्टीपुत्र पुलुमायिन् (130-154 ई॰) के सिक्के और अभिलेख आंध्रं में पाए गए हैं, जो बताते हैं कि यह क्षेत्र दूसरी सदी के मध्य तक सातवाहन राज्य का अंग बन चुका था । उसने अपनी राजधानी आंध्र प्रदेश के औरंगाबाद जिले में गोदावरी नदी के किनारे पैठन या प्रतिष्ठान में बनाई ।

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शकों ने कोंकण समुद्रतट और मालवा पर अधिकार करने के लिए सातवाहनों के साथ पुन: संघर्ष छेड़ दिया । सौराष्ट्र (काठियावाड़) के शक शासक रुद्रदामन् प्रथम (130-150 ई॰) ने सातवाहनों को दो बार हराया मगर वैवाहिक संबंध के कारण उनका नाश नहीं किया ।

बाद के सातवाहन राजा यज्ञश्री शातकर्णि (165-194 ई॰) ने उत्तर कोंकण और मालवा को शक शासकों से वापस ले लिया । वह व्यापार और जलयात्रा का प्रेमी था । उसके सिक्के न केवल आंध्र प्रदेश बल्कि महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात में भी पाए गए हैं । इन सिक्कों पर जहाज का चित्र है जो जलयात्रा और समुद्री व्यापार के प्रति उसके प्रेम का परिचायक है ।


Essay # 2. सातवाहन युग के  भौतिक संस्कृति के पहलू (Aspects of Physical Culture during Satvahana Era):

सातवाहन काल में दकन की भौतिक संस्कृति में स्थानीय उपादान और उत्तर के वैशिष्ट्य दोनों का मिश्रण है । दकन के महापाषाण निर्माता लोहे का इस्तेमाल और खेती दोनों से परिचित थे । यद्यपि लगभग 200 ई॰ पू॰ के पहले हम लोहे के बने कुछ फावड़े पाते हैं, तथापि ऐसे औजारों की संख्या ईसा की आरंभिक दो-तीन सदियों में काफी बढ़ी ।

महापाषाण अवस्था में कोई खास परिवर्तन नहीं दिखाई देता है । अंतर इतना ही है कि फावड़ों में मूठ अच्छी तरह और पूरी तरह लग गए थे । मूठ वाले फावड़े के अतिरिक्त हंसिये कुदालें हल के फाल कुल्हाड़ियाँ बसूले उस्तरे आदि उत्खनित स्थलों के सातवाहन स्तरों में पाए गए हैं ।

चूलदार और मूठ वाले बाणाग्र और कटारें भी मिली हैं । करीमनगर जिले में एक उत्खनित स्थान पर लोहार की एक दुकान भी मिली है । सातवाहनों ने करीमनगर और वारंगल के लौह अयस्कों का उपयोग किया होगा क्योंकि पता चला है कि इन दोनों जिलों में महापाषाण काल में लोहे की खदानें थीं ।

ईसा से पूर्व की और बाद की सदियों में कोलार के स्वर्ण क्षेत्र में सोने की प्राचीन खदानों के प्रमाण मिले हैं । सातवाहनों ने सोने का प्रयोग बहुमूल्य धातु के रूप में किया होगा क्योंकि उन्होंने कुषाणों की तरह सोने के सिक्के नहीं चलाए ।

उनके सिक्के अधिकांश सीसे (लेड) के हैं जो दकन में पाए बाते हैं । उन्होंने पोटीन तांबे और कांसे की मुद्राएँ भी चलाईं । उत्तरी दकन में ईसा की आरंभिक सदियों में सातवाहनों की जगह आने वाले इक्ष्वाकुओं ने भी सिक्के चलाए । लगता है सातवाहन और इक्ष्वाकु दोनों ने दकन के खनिज स्रोतों का उपयोग किया ।

दकन के लोग धान की रोपनी जानते थे और शुरू की दो सदियों में कृष्णा और गोदावरी के बीच का क्षेत्र खासकर दोनों नदियों के मुहानों का क्षेत्र चावल का विशाल भंडार हो गया था । दकन के लोग कपास भी उपजाते थे । विदेशी विवरणों में आंध्र को कपास के उत्पादन के लिए मशहूर बताया गया है ।

इस प्रकार दकन के बड़े हिस्से में अत्यंत उन्नत ग्रामीण अर्थव्यवस्था विकसित हुई थी । प्लिनी के अनुसार आंध्र राज्य की सेना में 1,00,000 पैदल सिपाही, 2,000 घुड़सवार और 1,000 हाथी थे । इससे सिद्ध होता है कि काफी ग्रामीण आबादी रही होगी और वह इतनी बड़ी सेना के पोषण के लायक पर्याप्त अनाज पैदा करती रही होगी ।

उत्तर के संपर्क से दकन के लोगों ने सिक्के पकी ईंट, छल्लेदार कुआँ, लेखन-कला आदि का प्रयोग सीखा । भौतिक जीवन के ये अंग 300 ई॰ पू॰ तक उत्तर भारत में काफी महत्वपूर्ण हो चुके थे किंतु दक्षिण में इनका महत्व दो सदी के बाद बढ़ा । करीमनगर जिले के पेड्‌डबंकुर (200 ई॰ पू॰-200 ई०) में पकी ईंट और छत में लगने वाले चिपटे छेददार खपड़े का प्रयोग पाते हैं ।

इन सबों से निर्माण में टिकाऊपन आया होगा । महत्वपूर्ण बात यह है कि द्वितीय शताब्दी ईसवी के ईंटों के बने 22 कुएँ भी इस स्थल पर पाए गए हैं । इनसे घनी आबादी के विकास में सुविधा हुई होगी । हम जमीन के अंदर बनी ढकी हुई नालियाँ भी पाते हैं जिनसे गंदा पानी गड्‌ढों में जाता था । महाराष्ट्र में नगर ईसा-पूर्व पहली सदी से दिखाई देते हैं जब हम कई तरह के शिल्प पाते हैं ।

इनका प्रसार पूर्वी दकन में एक शताब्दी के बाद हुआ । प्लिनी ने लिखा है कि पूर्वी दकन में आंध्र देश में बहुत सारे गाँवों के अलावा दीवार से घिरे 30 नगर थे । इस क्षेत्र में दूसरी और तीसरी सदियों में कई नगर थे । इसकी जानकारी अभिलेखों और उत्खननों से मिली है ।

भारी संख्या में मिले रोमन और सातवाहन सिक्कों से बढ़ते हुए व्यापार का संकेत मिलता है । ये सभी पूर्वी दकन में गोदावरी-कृष्णा क्षेत्र में लगभग एक सदी बाद दिखाई देते हैं ।


Essay # 3. सातवाहन युग में सामाजिक संगठन (Social Organisation during Satvahana Era):

लगता है कि सातवाहन दकन की किसी जनजाति के लोग थे । लेकिन वे ब्राह्मण बना लिए गए थे । उनके सबसे प्रसिद्ध राजा गौतमीपुत्र शातकर्णि ने कहा है कि उसने विच्छिन्न होते चातुर्वर्ण्य (चार वर्णों वाली व्यवस्था) को फिर से स्थापित किया और वर्णसंकर (वर्णों और जातियों के सम्मिश्रण) को रोका । संभवत: वर्णसंकर का यह संकट शकों के प्रवेश से तथा दकन में रहने वाले जनजातीय लोगों के सतही ब्राह्मणीकरण से उत्पन्न हुआ होगा ।

लेकिन जब शकों और सातवाहनों के बीच वैवाहिक संबंध होने लगे तब शकों का क्षत्रिय के रूप में ब्राह्मण समाज में प्रवेश आसान हो गया । इसी प्रकार बौद्ध भिक्षुओं ने देशी जनजातीय लोगों का बौद्धीकरण किया । इस कार्य के लिए बौद्ध भिक्षुओं को भूमिदान देकर प्रेरित किया गया कि वे पश्चिमी दकन में जनजातीय लोगों के बीच बस जाएँ ।

इस बात के संकेत मिलते हैं कि व्यापारी वर्ग बौद्ध भिक्षुओं की सहायता करता था क्योंकि आरंभिक बौद्ध गुहाएँ व्यापार मार्गों पर ही मिली हैं । ब्राह्मणों को भूमि अनुदान या जागीर देने वाले प्रथम शासक सातवाहन ही हुए, हालांकि भिक्षुओं के लिए इस प्रकार के अनुदान के उदाहरण अधिक मिलते हैं ।

शासन करना धर्मशास्त्र के अनुसार क्षत्रियों का कर्त्तव्य है, परंतु सातवाहन शासकों ने अपने को ब्राह्मण कहा । गौतमीपुत्र तो गर्व से कहता है कि सच्चा ब्राह्मण वही है । चूंकि आंध्रों को आरंभिक सातवाहनों से अभिन्न माना गया है अत: संभव है कि वे दोनों एक ही स्थानीय जनजाति के थे और उन्होंने ब्राह्मण धर्म स्वीकार कर लिया था ।

उत्तर के कट्‌टर ब्राह्मण लोग औथों को वर्णसंकर मानकर हीन समझते थे । इससे यह प्रतीत होता है कि आंध्र लोग जनजातीय मूरल के थे जिन्हें हिंदू समाज के अंर्तगत मिश्रित जाति के रूप में लाया गया ।

शिल्प और वाणिज्य में हुई प्रगति के फलस्वरूप इस काल में अनेक वणिक और शिल्पी सामने आए । वणिक लोग अपने-अपने नगर का नाम अपने नाम में जोड़ने लगे । शिल्पी और वणिक दोनों ने बौद्ध धर्म के निमित्त उदारतापूर्वक दान दिए । उन्होंने स्मारक और शिलापट्‌टिकाएँ स्थापित कीं ।

शिल्पियों में गंधिकों का उल्लेख दाताओं के रूप में बार-बार आया है । गंधिक वे शिल्पी कहलाते थे जो इत्र आदि बनाते थे । बाद में इस शब्द का अर्थ व्यापक हो गया और हर प्रकार के दुकानदारों के लिए यह शब्द प्रयुक्त होने लगा । आज का उपनाम गांधी इसी प्राचीन शब्द से निकला है ।

सातवाहनों के बारे में सबसे दिलचस्प ब्योरा उनके पारिवारिक ढाँचे से संबद्ध है । उत्तर भारत के आर्यों के समाज में पिता का महत्व माता से अधिक था और अब तक हम उत्तर भारत के जिन राजाओं की चर्चा कर चुके हैं वे सभी पितृतंत्रात्मक समाज के थे । परंतु सातवाहनों में हमें मातृतंत्रात्मक ढाँचे का आभास मिलता है । उनके राजाओं के नाम उनकी माताओं के नाम पर रखने की प्रथा थी ।

गौतमीपुत्र वासिष्टीपुत्र आदि नाम बताते हैं कि उनके समाज में माता की प्रतिष्ठा अधिक थी । आजकल प्रायद्वीपीय भारत में पुत्र के नाम में केवल पिता के नाम का अंश जोड़ने की परंपरा है माता के नाम का इसमें कोई स्थान नहीं है ।

इससे पितृतांत्रिक प्रभाव लक्षित होता है । रानियों ने स्वाधिकारपूर्वक बड़े-बड़े धार्मिक दान किए और कई रानियों ने तो प्रतिशासक (रीजेंट) के रूप में भी काम किया । किंतु सारत: सातवाहन राजकुल पितृतंत्रात्मक था क्योंकि राजसिंहासन का उत्तराधिकारी पुत्र ही होता था ।


Essay # 4. सातवाहन युग में प्रशासनिक ढाँचा (Administrative Framework during Satvahana Era):

सातवाहन शासकों ने धर्मशास्त्रों में बताए गए राजा के आदर्श पर चलने का प्रयास किया । राजा धर्म का संरक्षक होता था । उसमें कुछ दैवी गुणों का होना माना जाता था. । सातवाहन राजा को इस प्रकार दिखलाया जाता था जैसे उसमें राम भीम केशव अर्जुन आदि प्राचीन देवताओं के गुण वर्तमान हों ।

बल और पराक्रम में राजा की तुलना उक्त पौराणिक पुरुषों और दिव्य विभूतियों से की जाती थी । स्पष्टत: ऐसा सातवाहन राजा में देवत्व सिद्ध करने के लिए किया जाता होगा । सातवाहनों ने कई प्रशासनिक इकाइयाँ वही रखीं जो अशोक के काल में पाई गई थीं ।

उनके समय में जिला को अशोक के काल की तरह ही आहार कहते थे । उनके अधिकारी, मौर्यकाल की तरह ही अमात्य और महामात्य कहलाते थे । परंतु सातवाहनों के प्रशासन में हम कुछ खास सैनिक और सामंतिक लक्षण पाते हैं । यह गौर करने की बात है कि सेनापति को प्रति का शासनाध्यक्ष या गवर्नर बनाया जाता था ।

चूंकि दकन की जनजातीय लोगों का न तो पूरा-पूरा ब्राह्मणीकरण हुआ था और न वे अपने को नए शासन के अनुकूल बना पाए थे इसलिए उन्हें प्रबल सैनिक नियंत्रण में रखना आवश्यक था । ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशासन का काम गौल्मिक को सौंपा जाता था । गौल्मिक एक सैनिक टुकड़ी का प्रधान होता था जिसमें नौ रथ नौ हाथी पच्चीस घोड़े और पैंतालीस पैदल सैनिक होते थे ।

गौल्मिक को ग्रामीण क्षेत्रों में इसलिए रखा जाता था कि वह शांति-व्यवस्था बनाए रख सके । सातवाहन शासन का सैनिक चरित्र उसके अभिलेखों में कटक और स्कंधावर शब्दों के आम प्रयोग से स्पष्ट होता है । वे सैनिक शिविर और बस्तियाँ होते थे ।

वे तब तक प्रशासनिक केंद्र के रूप में काम करते थे जब तक वहाँ पर राजा स्वयं रहते । इस प्रकार सातवाहन शासन में दमन नीति का प्रमुख स्थान था ।

सातवाहनों ने ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं को कर-मुक्त ग्रामदान देने की प्रथा आरंभ की । जो आबाद भूमि और ग्राम दान में दिए जाते थे उन्हें राजपुरुषों और सैनिकों के और हर कोटि के राजकीय अधिकारियों के हस्तक्षेप से मुक्त घोषित कर दिया जाता था । अत: दान किए गए ऐसे क्षेत्र सातवाहन राज्य के भीतर छोटे-छोटे स्वतंत्र द्वीप जैसे बन गए ।

संभवत: बौद्ध भिक्षु भी अपने निवास-क्षेत्र में लोगों को शांति और सदाचरण के नियमों का पालन करने तथा राजसत्ता और सामाजिक व्यवस्था का आदर करने का उपदेश दिया करते थे । बेशक, वर्णव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में ब्राह्मणों की मदद मिली और इससे समाज में स्थिरता आई ।

सातवाहन राज्य में सामंतों की तीन श्रेणियाँ थीं । पहली श्रेणी का सामंत राजा कहलाता था और उसे सिक्का ढालने का अधिकार रहता था । द्वितीय श्रेणी का महाभोज कहलाता था और तृतीय श्रेणी का सेनापति। ऐसा लगता है कि इन सामंतों को अपने-अपने इलाकों में कुछ प्रभुत्व प्राप्त था ।


Essay # 5. धर्म (Religious Practices during Satvahana Era):

सातवाहन शासक ब्राह्मण थे और उन्होंने ब्राह्मणवाद के विजयाभियान का नेतृत्व किया । आरंभ से ही राजाओं और रानियों ने अवश्मेध, वाजपेय आदि वैदिक यज्ञ किए । वे कृष्ण वासुदेव आदि जैसे बहुत-से वैष्णव देवताओं के भी उपासक थे । यज्ञानुष्ठानों में ब्राह्मणों को उन्होंने प्रचुर दक्षिणा दी ।

फिर भी, सातवाहन शासकों ने भिक्षुओं को ग्रामदान दे-देकर बौद्ध धर्म को आगे बढ़ाया । उनके राज्य में बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय का बोलबाला था खासकर शिल्पियों के बीच ।

आंध्र प्रदेश में नागार्जुनकोड और अमरावती नगर सातवाहनों के शासन में और विशेषकर उनके उत्तराधिकारी इक्ष्वाकुओं के शासन में बौद्ध संस्कृति के महत्वपूर्ण केंद्र बन गए । इसी प्रकार महाराष्ट्र में पश्चिमी दकन के नासिक और जुनार क्षेत्रों में भी संभवत: व्यापारियों का संरक्षण पाकर बौद्ध धर्म फूला-फला ।


Essay # 6. सातवाहन युग में वास्तुकला (Architecture during Satvahana Era):

सातवाहन काल में पश्चिमोत्तर दकन या महाराष्ट्र में अत्यंत दक्षता और लगन के साथ ठोस चट्‌टानों को काट-काटकर अनेक चैत्य और विहार बनाए गए । वस्तुत: यह प्रक्रिया 200 ई॰ पू॰ के आसपास लगभग एक शताब्दी पहले ही आरंभ हो चुकी थी । चैत्य बौद्धों के मंदिर का काम करता था और विहार भिक्षु-निवास का ।

चैत्य अनेकानेक पायों पर खड़ा बड़ा हॉल जैसा होता था और विहार में एक केंद्रीय शाला होती थी जिसमें सामने के बरामदे की ओर एक द्वार रहता था । सबसे मशहूर चैत्य है पश्चिमी दकन में काले का । यह लगभग 40 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊँचा है । यह विशाल शिला-वास्तुकला का अच्छा उदाहरण है ।

विहार चैत्यों के पास बनाए गए । उनका उपयोग वर्षाकाल में भिक्षुओं के निवास के लिए होता था । नासिक में तीन विहार हैं । चूंकि उनमें नहपान और गौतमीपुत्र के अभिलेख हैं इसलिए प्रतीत होता है कि वे ईसा की पहली-दूसरी शताब्दियों के हैं ।

शिलाखंडीय वास्तुकला आंध्र में कृष्णा-गोदावरी क्षेत्र में भी पाई जाती है परंतु यह क्षेत्र वस्तुत: स्वतंत्र बौद्ध संरचनाओं के लिए मशहूर है । ये संरचनाएँ अधिकतर स्तूप के रूप में हैं । इनमें अमरावती और नागार्जुनकोंड के स्तूप सबसे अधिक मशहूर हैं ।

स्तूप गोल स्तंभाकार ढाँचा है जो बुद्ध के किसी अवशेष के ऊपर खड़ा किया जाता था । अमरावती स्तूप का निर्माण लगभग 200 ई॰ पू॰ में आरंभ हुआ किंतु ईसा की दूसरी सदी के उत्तरार्द्ध में आकर वह पूर्णरूपेण निर्मित हुआ ।

इसका गुंबज नींव के आर-पार 53 मीटर है और इसकी ऊँचाई 33 मीटर मालूम होती है । अमरावती का स्तूप भित्ति-प्रतिमाओं से भरा हुआ है । इनमें बुद्ध के जीवन के विभिन्न दृश्य उकेरे हुए हैं ।

नागार्जुनकोंड सातवाहनों के उत्तराधिकारी इक्ष्वाकुओं के काल में अपने उत्कर्ष की चोटी पर था । यहाँ केवल बौद्ध स्मारक ही नहीं बल्कि सबसे पुराने ईंट के बने हिंदू मंदिर भी हैं । यहाँ लगभग दो दर्जन विहार दिखाई देते हैं । अपने रूपों और महाचैत्यों से अलंकृत यह स्थान ईसा की आरंभिक सदियों में मूर्तिकला में सबसे ऊँचा प्रतीत होता है ।


Essay # 7. सातवाहन युग में भाषा (Languages Used during Satvahana Era):

सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत थी । सभी अभिलेख इसी भाषा में और ब्राह्मी लिपि में लिखे हुए हैं, जैसा कि हम अशोक के काल में देख चुके हैं । हो सकता है कि कुछ सातवाहन राजाओं ने प्राकृत में पुस्तकें भी लिखी हों ।

प्राकृत ग्रंथ गाथासत्तसई (या गाथासप्तशती) हाल नामक सातवाहन राजा की रचना बताई जाती है । इसमें 700 श्लोक हैं जो सभी प्राकृत में हैं । किंतु लगता है कि इसका अंतिम परिमार्जन बहुत दिनों के पश्चात् संभवत: ईसा की छठी सदी के बाद किया गया है ।


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