सैन्धव सभ्यता: पशुचारी तथा कृषक समुदाय | Read this article in Hindi to learn about the veterinary and farming practices undertaken during sindhu civilization.
सैन्धव सभ्यता नगरीय सभ्यता थी । अतः इसके पतन के साथ मुख्यतः नगरीय तत्वों जैसे नगर नियोजन, भव्य भवन, भार-माप के पैमानों, लिपि आदि का ही अन्त हुआ । इसके विपरीत ग्राम्य जीवन से सम्बन्धित तत्व जैसे खेत जोतने की पद्धति, भार ढोने के साधन (बैलगाड़ियाँ), लोक विश्वास, प्रथायें आदि अवशिष्ट रही ।
परिणामस्वरूप हमें भारत में सिन्ध क्षेत्र के बाहर अनेक विकसित ग्रामीण संस्कृतियों के दर्शन होते हैं । इन्हें ताम्र-पाषाणिक (Chalcolithic) कहा गया है क्योंकि इन संस्कृतियों के लोग पत्थर के साथ-साथ ताँबे की वस्तुओं का उपयोग करते थे । वे मुख्यतः ग्रामीण समुदाय के लोग थे जिनका प्रमुख उद्यम कृषि एवं पशुपालन था ।
इन्हें पशुचारी एवं कृषक समुदाय (Pastoral and Agrarian Community) कहा जा सकता है । वे जिन क्षेत्रों में निवास करते है वहाँ पर्वतीय भूमि एवं नदियाँ थीं । ग्रामीण एवं पशुचारी समाज की बस्तियाँ दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिणी-पूर्वी भागों में दिखाई देती है । इनके निवासियों द्वारा प्रयुक्त विशिष्ट प्रकार के मृदभाण्डों के आधार पर इन्हें जाना जाता है ।
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दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में ताम्र पाषाणिक संस्कृति के प्रमुख उत्खनित स्थल हैं- अहाड़, गिलुन्ड तथा वालाथल । अहाड़ (उदयपुर जिले में स्थित) तथा गिलुन्ड (चित्तौड़गढ़ जिले में स्थित) चूंकि बनास नदी घाटी में स्थित है, इस कारण इस संस्कृति को अहाड़ अथवा बनास संस्कृति भी कहा जाता है । अहाड़ संस्कृति का एक अन्य स्थल वालाथल भी उदयपुर जिले में ही स्थित है । अहाड़ तथा गिलुन्ड के उत्खनन से बड़ी बस्तियों के प्रमाण मिलते हैं । इस संस्कृति के लोग अपने मकान गीली मिट्टी (गारा) तथा पत्थर के बनाते थे ।
नींव पत्थरों से भरी जाती थी तथा कभी-कभी दीवारों के निर्माण में कच्ची ईटों का भी प्रयोग होता था । गिलुन्ड में मकानों के निर्माण में पक्की ईंटों के प्रयोग के साक्ष्य भी मिले हैं । कुछ मकानों से चूल्हे के अवशेष मिलते है । दीवारों के निर्माण में कभी-कभी लकड़ी और बाँस का प्रयोग किया जाता था तथा उनके ऊपर छप्पर भी बनाये जाते थे ।
गिलुन्ड की खुदाई में स्तम्भ गर्त (Post-Holes) के प्रमाण भी मिले हैं । अहाड़ संस्कृति के लोग मूलतः कृषक एवं पशु पालक थे । वे गेहूँ जौ, धान, चना, मूंग आदि की खेती करते तथा गाय-बैल, भेड़-बकरी, सूअर, भैंस आदि पशुओं को पालते थे । हिरण आदि पशुओं का शिकार भी किया जाता था । संस्कृति के लोग अपने मृद्भाण्ड चाक पर बनाते थे । कई प्रकार के भाणक मिलते है ।
मुख्य भाण्ड काले तथा रंग (Black and Red Ware) के है । कुछ पर सफेद ज्यामितीय आकृतियाँ बनाई गयी हैं । इसके अतिरिक्त कुछ दूसरे प्रकार के मृद्भाण्ड भी मिलते है किन्तु इस संस्कृति की विशिष्ट पात्र परम्परा काली तथा लाल ही है जिसका द्वितीय सहस्त्राब्दि की ग्रामीण संस्कृतियों में व्यापक रूप से प्रचलन था ।
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अहाड् से पाषाण उपकरणों के स्थान पर ताम्र उपकरण, सपाट कुल्हाड़ी, चूड़ी, चादरें आदि मिलते हैं । इसका एक नाम ताम्बवती (तौबा वाला स्थान) भी मिलता है जिससे सूचित होता है कि यहां ताँबा बहुतायत में उपलब्ध था । यहाँ के निवासी ताँबे को अपने घरों में ही पिघलाकर मनचाही वस्तुयें तैयार करने में निपुण थे ।
सम्भव है वे अपने तैयार ताम्र उपकरणों का पास-पड़ोस में निर्यात भी करते रहे है । तीन हजार ईसा पूर्व में राजस्थान ताँबे का काम करने चाले शिल्पियों का प्रमुख केन्द्र बन गया था । ताँबा खेत्री की खानों में प्राप्त किया जाता था । इसी के पास गणेश्वर नामकर पुरास्थल है जिसकी खुदाई में बहुसंख्यक ताँबे के उपकरण मिलते है ।
अहाड़ संस्कृति का कालक्रम ई॰ पू॰ 2500-1500 के बीच निर्धारित किया गया है । ताम्र पाषाणकाल का दूसरा क्षेत्र मालवा (मध्य प्रदेश) है । प्रमुख उत्खनित स्थल है- कायथा (उज्जैन) एरण, नवदा टोली तथा माहेश्वर (खरगोन जिला) । कायथा में उत्खनन कार्य वी॰ ए॰ वाकाणकर ने करवाया था । यहाँ से तीन संस्कृतियों के साक्ष्य मिलते हैं- कायथा, अहाड़ तथा मालवा । मालवा की ताम्रपाषाणिक संस्कृति का प्रतिनिधि स्थल नवदा टोली है । यह सबसे विस्तृत स्थल है जिसका उत्खनन एच॰ डी॰ संकालिया द्वारा करवाया गया है ।
ताम्रपाषाणिक संस्कृति के सबसे अधिक स्थल पश्चिमी महाराष्ट्र में मिलते है जिनका उत्खनन कर अनेक सामग्रियाँ प्रकाशित की गयी है । इनमें जोरवे, नेवासा, दायमावाद (अहमदनगर जिला), चन्दोली, सोनगाँव, इनामगाँव (पुणे जिला) तथा नासिक है । इन्हें जोरवे सस्कृति कहा जाता है क्योंकि जोरवे, जो गोदावरी की सहायक प्रवरा नदी के बाये तट पर स्थित है, ही इसका प्रतिनिधि स्थल है ।
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यह मालवा संस्कृति से भी प्रभावित है । यह संस्कृति महाराष्ट्र के अधिकांश क्षेत्रों में फैली हुई थी । इस संस्कृति के लोग एक विशिष्ट प्रकार के मृद्भाण्ड चाक पर तैयार करते थे जिन पर लाल रंग का लेप लगाया गया है तथा काली चित्रकारियां है । इनमें टोंटीदार जलपात्र एवं गोड़ीदार कटोरा प्रमुख है ।
इनामगाँव से नारी तथा वृषभ की मृण्मूर्तियाँ मिलती है जिनका समीकरण माता देवी से किया जा सकता है । ताम्रपाषाणिक संस्कृति का विस्तार पश्चिमी बंगाल के वीरभूमि, बर्दवान, मिदनापुर आदि में दिखाई देता है । यहाँ के प्रमुख उत्खनित स्थल पाण्डुराजार, ढिवि, महिशाल है । यहाँ से मुख्यतः चावल की खेती किये जाने के प्रमाण मिलते है ।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में ०राडाह और नौहान तथा बिहार के चिरांद, सोनपुर आदि से भी इस संस्कृति के साक्ष्य मिलते है । अभी इलाहाबाद के समीप झूंसी हवेलिया ग्राम की खुदाई इलाहावाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा करवायी जा रही है । प्रो. वी. डी. मिश्र की सुचना के अनुसार यहाँ ताम्रपाषाणिक संस्कृति के दो चरण परिलक्षित होते है ।
पहले चरण में लोगों को लोहे की जानकारी नहीं थी जबकि दूसरे चरण में उन्हें लोहे का ज्ञान हो गया था । जितने बड़े पैमाने पर यहाँ ताम्रपाषाणकाल के प्रमाण मिल रहे है, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि यहाँ काफी बड़े क्षेत्र में लोग आबाद थे। इस संस्कृति का काल ई. पू. 1500-700 बताया गया है ।
दक्षिणी भारत में ताम्रपाषाणिक संस्कृति के प्रसार के प्रमाण मिले है । कई स्थल कृष्णा तथा तुंगभद्रा के वीच दोआव प्रदेश में स्थित हैं- ब्रह्मगिरि, मास्की, पिक्कलीहोल, संकन-कल्लू नागार्जुनकोंड आदि । इन संस्कृतियों को सामान्यत ई. पू. 1500-700 के बीच माना जाता है ।
इस प्रकार ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों का वितरण सिन्धु क्षेत्र के बाहर भारतीय भूभाग के अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र में मिलता है । इनके कुछ समान अभिलक्षण दिखाई देते है । सभी ग्रामीण हैं । इनके निवासियों का मुख्य उद्यम कृषि एवं पशुपालन था । वे अपने मकान मिट्टी के गारे, घास-फूस, बांस-बल्ली आदि की सहायता से बनाते थे ।
अहाड़ में पत्थर के घरों तथा गिलुण्ड में पकी ईंटों के प्रयोग के साक्ष्य मिलते हैं । मकान प्रायः आयताकार, वर्गाकार अथवा गोलाकार बनते थे । इनामगाँव से मिली मिट्टी की नारी मूर्तियों से पता चलता है कि संभवतः वे माता देवी की पूजा करते थे । राजस्थान और मालवा क्षेत्र से वृषभ मूर्तियाँ मिली हैं ।
इनसे सूचित होता है कि इसे भी धार्मिक मान्यता प्राप्त थी । ई. पू. 2000 से इन संस्कृतियों में काले और लाल रग के मृद्भाण्डों का निर्माण व्यापक रूप से होने लगा था । मालवा संस्कृतियों के काले रग से चित्रित लाल रंग के मृद्भाण्ड सर्वोकृष्ट माने जाते है ।
इसके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रकार के भाण्ड भी मिलते हैं । प्रमुख पात्रों में टोटीदार एवं गोड़ीदार लोटे, कटोरे, थालियों आदि है । बर्तन चाक पर बनाये जाते थे । राजस्थान के स्थलों से विकसित ताम्रधातु उद्योग का पता चलता है । अन्य स्थलों के लोग पत्थर के छोटे-छोटे उपकरणों एवं अस्त्रों का प्रयोग करते थे । कुछ स्थानों से ताम्र उपकरण भी मिलते हैं ।
दैमाबाद से कांसे के उपकरण प्राप्त होते है । कुछ विद्वान् दैमाबाद संस्कृति पर सैन्धव प्रभाव मानते है । यहाँ से बस्ती के दुर्गीकरण एवं परिखा से आवृत्त होने के भी साक्ष्य मिले हैं । ताम्रपाषाणकाल के निवासी पत्थर तथा ताँबे के उपकरण बनाने में निपुण लगते हैं ।
मालवा तथा जोरवे संस्कृति के लोग वस्त्रों की कताई-बुनाई भी करते थे । वे अपने मृतकों को अस्थि कलश में रखकर घरों के भीतर गाड़ते थे तथा उनके साथ दैनिक उपयोग की कुछ वस्तुयें भी रखते थे । इससे पारलौकिक जीवन में आस्था सूचित होती है ।
भारत के मध्य तथा पश्चिमी क्षेत्रों में ताम्रपाषाणिक संस्कृति ई. पू. 1200 तक विद्यमान रही जबकि जोरवे संस्कृति (महाराष्ट्र) सातवीं शती ईसा पूर्व तक अस्तित्व में रही । ऊपरी गंगाघाटी तथा गंगा-यमुना के दोआब वाले प्रदेश के विभिन्न स्थलों से एक विशिष्ट प्रकार के बर्तन मिलते है जिन्हें गेरुवर्णी (गोरक) मृद्भाण्ड कहा जाता है । अनेक ताम्रनिधियाँ भी पायी गयी हैं ।
गंगा-यमुना दोआब से सबसे बड़ी ताम्र निधियाँ मिलती है । इनमें दो धारवाली कुल्हाड़िया, हानि, फरसे, भाले, दुसिंगी नलवार आदि शामिल है । कुछ आकृतियाँ मनुष्यों से मिलती-जुलती हैं । अधिकांश पुराविद् गैरिक मृद्भाण्डों तथा ताम्रनिधियों को एक ही संस्कृति से सम्बद्ध करते है । इसका काल ई. पू. 2000-1500 सामान्यतः स्वीकार किया जाता है । इसके बाद की पात्र परम्परा ”चित्रित धूसर” की है जिसका सम्बन्ध लोहे से जाता है ।