1857 के विद्रोह के बाद | Aftermath of Revolt of 1857 in Hindi.

वर्ष 1857 में मध्य और उत्तरी भारत के कुछ भागों में हथियारबंद विद्रोह हुए जिनके फलस्वरूप 1858  के वसंत तक इन क्षेत्रों में ब्रिटिश राज लगभग समाप्त ही रहा; उसके बाद ही आगे बढ़ रही साम्राज्यिक सेनाएँ फिर से व्यवस्था स्थापित कर सकीं ।

इस विद्रोह में दोनों ओर से असाधारण हिंसा का सहारा लिया गया । चूंकि ब्रिटिश राज ने ”सूक्ष्मता के साथ हिंसा का एकाधिकार” स्थापित किया था इसलिए उसकी प्रजा ने भी उसका जवाब उतनी ही अधिक जवाबी हिंसा के साथ दिया ।

अगर विद्रोहियों को सार्वजनिक रूप से फाँसी देना तोप से उड़ाना और मनमाने ढंग से गाँवों को जलाना अंग्रेजों के विद्रोह-विरोधी कदमों में शामिल था तो विद्रोहियों ने भी निर्ममता से स्त्रियों और बच्चों समेत गोरे नागरिकों की हत्या की ।

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इस अर्थ में कानपुर का 27 जून, 1857 का हत्याकांड ”अतिचार” (Transgression) का एक कृत्य था क्योंकि यह उपनिवेशितों की देसी हिंसा का कृत्य था जिसने उपनिवेशकों की हिंसा के एकाधिकार को तोड़ा । इस विद्रोह ने ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत कर दिया और 1858 में उसके (विद्रोह के) कुचले जाने के बाद संसद के एक कानून के द्वारा भारतीय साम्राज्य को ब्रिटेन की महारानी ने अपने अधीन ले लिया ।

इस विद्रोह में जिसे एक लंबे समय तक बंगाल की सेना के भारतीय सिपाहियों का गदर मात्र समझा जाता रहा वास्तव में उत्तर भारत के दुखी ग्रामीण समाज की भी हिस्सेदारी थी । इसलिए आवश्यक है कि उसके कारणों की तलाश केवल सेना के असंतोष में नहीं बल्कि उस बुनियादी सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की एक लंबी प्रक्रिया में की जाए जिसने कंपनी राज की पहली सदी में किसान समुदायों को तबाह कर दिया ।

अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध के बाद एक स्थायी सेना बनाने के क्रम में कंपनी की सरकार ने देसी समुदायों की परंपराओं और रीति-रिवाजों का सम्मान किया तथा जानबूझकर सेना की एक सवर्ण पहचान को बढ़ावा दिया जाता रहा ।

यह बात विशेष रूप से बंगाल की सेना के बारे में सच थी जिसका प्रधानत एक सवर्ण चरित्र था उसमें मुख्यत  ब्राह्मण राजपूत और भूमिहार शामिल थे तथा वरन हेस्टिंग्ज के आदेशों के अनुसार सेना के प्रशासन में जाति के नियमों खानपान और (विदेश) यात्रा-संबंधी प्रतिबंधों का निष्ठा से पालन किया जाता था ।

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लेकिन 1820 के दशक के बाद स्थिति बदलने लगी क्योंकि एक अधिक सार्वभौम सैन्य संस्कृति के विकास के लिए सेना में सुधार आरंभ किए गए । चूंकि 1820 और 1830 के दशकों के सुधारों ने सेना के प्रशासन पर और भी कठोर नियंत्रण बनाने के प्रयास किए तथा कुछ जातिगत विशेषाधिकारों और मौद्रिक लाभों में कटौती शुरू की इसलिए कुछ प्रतिरोध भी हुए जो 1840 के दशक तक जारी रहे ।

इन्हीं घटनाओं ने 1857 के उस विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार की जिसके आरंभिक संकेत जनवरी के अंत में देखे गए । उस समय कलकत्ता के पास दमदम में सिपाहियों में यह अफवाह फैलने लगी कि नई एनफ्रील्ड राइफल के कारतूसों में जिसको हाल ही में पुरानी ‘ब्राउन बेस’ तफ्रग (Musket, तुपका) की जगह लाया गया था गाय और सुअर की चर्बी मिली हुई है ।

चूंकि भरने से पहले इन कारतूसों को दाँतों से काटना पड़ता था इसलिए अपने धर्म और अपनी जाति के नाश और ईसाई बनाए जाने के षड़यंत्र के बारे में सिपाहियों का पुराना शक पक्का हो गया । कारतूस संबंधी यह अफवाह जो पूरी तरह से गलत भी नहीं थी देश भर में सेना की विभिन्न छावनियों में जंगल की आग की तरह फैली ।

हालांकि इन कारतूसों का उत्पादन शीघ्र ही बंद कर दिया गया और सिपाहियों के डर को दूर करने के लिए कुछ और रियायतें भी दी गई पर टूटा हुआ विश्वास फिर कभी बहाल न हो सका । कलकत्ता के पास बैरकपुर में मंगल पांडे नाम के एक सिपाही ने 29 मार्च को एक यूरोपीय अफ्रसर पर गोली चला दी और यूरोपीय अफसरों ने जब उसकी गिरफ्तारी का आदेश दिया तो उसके साथियों ने मानने से मना कर दिया । शीघ्र ही उन्हें गिरफ्तार करके कोर्ट मार्शल किया गया और अप्रैल के आरंभ में फाँसी दे दी गई पर सिपाहियों के असंतोष को फैलने से रोका नहीं जा सका ।

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आनेवाले दिनों में अवज्ञा भड़कावे और लूटपाट की घटनाओं की खबरें अंबाला लखनऊ और मेरठ छावनियों से आई और आखिर 10 मई को मेरठ के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया । उन्होंने अपने उन गिरफ्तार साथियों को छुड़ा लिया जिन्होंने नए कारतूस को स्वीकार करने से मना कर दिया था उन्होंने अपने यूरोपीय अफसरों को मार डाला और दिल्ली की ओर बढ़ चले जहाँ उन्होंने 11 मई को बूढ़े मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को हिंदुस्तान का बादशाह घोषित किया ।

दिल्ली के बाद यह विद्रोह जल्द ही पश्चिमोत्तर प्रति और अवध के दूसरे सेना-केंद्रों तक फैल गया और जल्द ही उसने एक नागरिक विद्रोह का रूप ले लिया जब चिड़ी हुई ग्रामीण जनता उसकी मदद के लिए आगे आई ।

हताशा से भरे गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने 19 जून को लिखा, ”रुहेलखंड और दोआबे में दिल्ली से कानपुर और इलाहाबाद तक देश न केवल हमारे विरुद्ध बगावत कर बैठा है, बल्कि एक सिरे से विधिविरुद्ध हो चुका है ।”

विद्रोह ने मुख्यत बंगाल की सेना को प्रभावित किया; मद्रास और बंबई की रेजिमेंटे शांत रहीं जबकि पंजाबी और गोरखा सिपाहियों ने विद्रोह को कुचलने में सक्रिय सहायता दी । फिर भी यह बात याद रहनी चाहिए कि भारतीय सिपाहियों की सबसे अधिक संख्या बंगाल की सेना में थी और अगर हम कुल संख्या को लें तो ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय सिपाहियों में लगभग आधे ने विद्रोह किया था ।

इसमें काफ़ी दोष बंगाल की सेना की संरचना का था क्योंकि उसमें अंग्रेजों की सैन्य उपस्थिति सबसे कम थी जिसे आगे चलकर भयानक भूल माना गया । इसके अलावा बंगाल की सेना के अधिकतर अवध से भरती किए गए सिपाहियों की सवर्ण पृष्ठभूमि उनको एक समरस चरित्र प्रदान करती थी ।

वे एक लंबे समय से शिकायतों से भरे हुए थे और हाल में उसकी धार्मिक आस्थाओं का सेवा की नई दशाओं से टकराव शुरू हो चुका था; इनके वेतन कम कर दिए गए थे तथा पदोन्नति और पेंशन के मामलों में भी उनके विरुद्ध भेदभाव किया जाता था ।

हालत तब और भी बदतर हो गई जब 1856 में सेवा की नई दशाएँ लागू की गई और उनमें अपने क्षेत्र से बाहर तैनात किए जाने पर मिलनेवाला अतिरिक्त भत्ता समाप्त कर दिया गया । विदेश में सेवा उनके जातिगत नियमों के विरुद्ध मानी जाती थी लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के प्रसार के कारण ठीक यही बात अपरिहार्य हो गई थी । जब उन्होंने बर्मा, सिंध और अफगानिस्तान में सेवा से इनकार किया तो उसका जवाब बदले की कार्रवाइयों और बर्खास्तगी से दिया गया ।

सेवा की दशाओं संबंधी असंतोष के साथ यह स्थायी डर भी जुड़ गया कि अंग्रेज उनको ईसाई बनाने पर आमादा थे । मिशनरियों की उपस्थिति, आटे में गाय और सुअर की चर्बी मिलाए जाने संबंधी अफवाहें और अंत में एनफ्रील्ड राइफलों के कारतूसों संबंधी विवाद-षड्‌यंत्र के सिद्धांत से ये सभी बातें बखूबी मेल खाती लग रही थीं ।

1856 में अवध पर कंपनी के कब्जे ने बंगाल की सेना के मनोबल पर खास तौर पर प्रतिकूल प्रभाव डाला क्योंकि लगभग 75,000 सैनिक तो उसी क्षेत्र से भरती किए गए थे । सर जेम्स आउट्रम ने पहले ही डलहौजी को चेता दिया था कि ”संभवत बिना किसी अपवाद के अवध का हरेक खेतिहर परिवार…ब्रिटिश सेना में अपना एक सदस्य भेजता है ।”

अवध के अधिग्रहण ने इन सिपाहियों की वफ़ादारी को झकझोर दिया क्योंकि यह उनकी नजरों में अंग्रेजों की अविश्वसनीयता का अंतिम प्रमाण था । इसके अलावा चूंकि ये सिपाही वर्दीधारी किसान थे इसलिए अवध के चलताऊ बंदोबस्तों के कारण किसानों की बिगड़ती दशा को लेकर भी वे चिंतित थे ।

विद्रोह से पहले ये सिपाही लगभग चौदह हजार प्रार्थनापत्र मालगुजारी व्यवस्था के कारण पैदा समस्याओं के बारे में दे चुके थे । दूसरे शब्दों में सिपाहियों ने हथियार उठाकर अंग्रेजों के विरुद्ध खुली बगावत की तो केवल ”कारतूस” के कारण नहीं की ।

गदर से जुड़े नागरिक विद्रोह की व्याख्या कर सकना कहीं अधिक कठिन है । चूंकि भारतीय समाज पर उपनिवेशी शासन के भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रभाव पड़े इसलिए इस समाज के प्रत्युत्तरों में भी भारी विविधताएँ थीं ।

पहली बात यह कि राज से लाभ पानेवाले क्षेत्रों और व्यक्तियों ने विद्रोह नहीं किया । बंगाल और पंजाब शांत रहे पूरा दक्षिण भारत भी अप्रभावित रहा । दूसरी ओर जिन लोगों ने विद्रोह किया उनमें भी दो तत्त्व थे-एक तो सामंती तत्त्व और बड़े भूस्वामी और दूसरे किसान ।

अलग-अलग वर्गो की अलग-अलग समस्याएँ थीं और इनकी प्रकृति भी अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग थी । जहाँ तक सामंती तत्त्वों का सवाल था उनकी प्रमुख शिकायत लॉर्ड डलहौजी के उस ”डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स (विलय सिद्धांत)” के तहत किए गए अधिग्रहण को लेकर थी जो मरनेवाले राजाओं के दत्तक पुत्रों को कानूनी उत्तराधिकारी की मान्यता नहीं देता था और उनके रजवाड़े जप्त कर लिए जाते थे ।

एक-एक करके बहुत कम समय मैं सतारा (1848) नागपुर संभलपुर और बगहट (1850) उदयपुर (1852) और झाँसी (1853) पर इसी तरह कब्जे किए गए थे । यह उत्तराधिकार की परंपरागत व्यवस्था में अंग्रेजों के हस्तक्षेप के समान था और इसने चि, हुए ऐसे सामंत स्वामियों का एक समूह पैदा किया जिनके पास विद्रोहियों की कतार में शामिल होने के वैध कारण थे ।

आखिरकार फ्ररवरी 1856 में अवध का अधिग्रहण करके नवाब को कलकत्ता भेज दिया गया । इस अधिग्रहण ने नवाब और उसके परिवार को ही नहीं बल्कि शाही दरबार से जुड़े पूरे कुलीन वर्ग को प्रभावित किया । अनेक मामलों में अपने-अपने क्षेत्र में विद्रोहियों का नेतृत्व इन्हीं सत्ताचूत शाहजादों ने किया और इस तरह विद्रोह को वैधता प्रदान की ।

जैसे पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब ने कानपुर में नेतृत्व संभाला बेगम हजरतमहल ने लखनऊ को नियंत्रण में लिया रुहेलखंड में खान बहादुर खाँ और झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई सिपाहियों की नेता बनकर उभरी हालांकि पहले रानी अपने दत्तक पुत्र को गद्दी का वैध उत्तराधिकारी स्वीकार किए जाने पर अंग्रेजों का वर्चस्व स्वीकार करने को तैयार थी ।

मध्य भारत के जिन क्षेत्रों में ऐसा कोई अधिग्रहण नहीं हुआ वहाँ अगर सिपाहियों ने विद्रोह नहीं किया, तो राजा भी अंग्रेजों के वफादार बने रहे, जैसे इंदौर, ग्वालियर सागर और राजस्थान के कुछ भागों में । बड़े भूस्वामी यानी ताण्डकदार ग्रामीण समाज के ऐसे दूसरे तत्त्व थे जो विद्रोहियों के साथ आए । अवध के अधिग्रहण के बाद वहाँ 1856 में एक चलताऊ बंदोबस्त (Summary Settlement) किया गया जिसके कारण अनेक शक्तिशाली ताल्लुकदार बेदखल कर दिए गए ।

यह बंदोबस्त स्वामित्व संबंधी दूसरे सभी अधिकारों को अनदेखा करके भूमि के वास्तविक कब्जादारों या गाँवों के सहभागियों (Coparcenaries) के साथ किया गया था वैसे ही जैसे कि कुछ ही समय पहले पश्चिमोत्तर प्रांत में किया गया था ।

प्रमुख उद्देश्य खेतिहर आबादी में लोकप्रियता पाना तथा किसानों और सरकार के बीच में खड़े अवांछित बिचौलियों से छुटकारा पाना था । इसके कारण अवध में लगभग आधे तालुकदार अपनी जागीरों से वंचित हो गए ।

उनके हथियार कब्द कर लिए गए और किलेबदियाँ गिरा दी गई जिसके कारण स्थानीय समाज में उनकी स्थिति और शक्ति में काफ़ी गिरावट आई । कानून की दृष्टि में अब वे अपने मामूली से मामूली काश्तकारों से भिन्न नहीं रहे ।

इस तरह अवध अब भूस्वामी कुलीनों के असंतोष का बड़ा बन गया और यही हालत पश्चिमोत्तर प्रांत में थी; वहाँ भी बहुत से ताल्लुकदार हाल में बेदखल किए गए थे। विद्रोह का आरंभ होने पर ये ताल्लुकदार तुरंत ही उन गाँवों में जाकर रहने लगे जो उनके हाथों से निकल चुके थे और अहम बात यह है कि उनके भूतपूर्व असामियों ने उनका कोई विरोध नहीं किया ।

जैसा कि टॉमस मेटकॉफ का तर्क है, नातेदारी के संबंधों और सामंती निष्ठा में बंधे ग्रामीणों ने अपने स्वामियों के दावों को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया और अपने साझे शत्रु यानी अंग्रेजों के विरुद्ध उन्होंने आपस में हाथ मिला लिया ।

किसान विद्रोह में इसलिए शामिल हुए कि राज्य की मालगुजारी की असाधारण सीमा तक भारी माँग उनकी भी कमर तोड़ रही थी । उदाहरण के लिए, अवध में कुल मिलाकर मालगुजारी की माँग कम हुर्ह पर कुछ क्षेत्र भारी माँग वाले भी थे और वहाँ ताल्लुकदारों के नुकसान ने हितों की एक ”ताल्लुकदार-किसान संपूरकता (Complementarity)” को जन्म दिया ।

ऐसी ही स्थिति पश्चिमोत्तर प्रांत में थी जहाँ महलवारी बंदोबस्त गाँवों के मालगुजारों के साथ किया गया था । गाँवों के ये स्वामी नई मालगुजारी व्यवस्था के लाभार्थी समझे जाते थे पर वे भी मालगुजारी की भारी माँग के कारण संतुष्ट नहीं थे ।

दूसरों की तुलना में अति-आकलन की अधिक करारी चोट लगान वसूल करनेवाले जमींदारों की बजाय भूमिधारी खेतिहरों पर पड़ी और भूस्वामित्व के अधिकारों की सार्वजनिक बिक्री में वृद्धि इस असाधारण दबाव की सूचक थी जो विद्रोह का एक प्रमुख कारण बन गया ।

जहाँ खेती का कोई भरोसा न था वहाँ भारी मालगुजारी की माँगों ने निश्चित तौर पर किसानों को कर्जदार बनाया आखिरकार बेदखल किया तथा नई दीवानी अदालतों का और विधि व्यवस्था का भी इस प्रक्रिया में योगदान रहा ।

1853 में केवल पश्चिमोत्तर प्रति में 1,10,000 एकड़ जमीन नीलाम कर दी गई और इसी कारण जब विद्रोह का आरंभ हुआ तो बनिये महाजन और उनकी संपत्तियाँ विद्रोही किसानों के हमलों के स्वाभाविक निशाने बन गए ।

एस.बी. चौधुरी ने स्थिति को इस तरह सामने रखा है: ”इस तरह जमीनों की बिक्री ने न केवल मामूली लोगों को उनकी छोटी जोतों से बेदखल किया बल्कि गाँवों के कुलीनों को भी तबाह किया और ब्रिटिश दीवानी कानून के कार्यकलापों के शिकार होने के नाते ये दोनों ही वर्ग 1857-58 के क्रांतिकारी दौर में, जो कुछ वे खो चुके थे उसे फिर से पाने के साझे प्रयास में एकजुट हो गए ।

हो सकता है कहानी इतनी स्पष्ट न हो और एरिक स्टोक्स (1980) ने परिस्थिति की जटिलताओं की ओर हमारा ध्यान खींचा है । याद रखने की पहली बात यह है कि अंग्रेजों की मालगुजारी व्यवस्था से सभी ताल्लुकदार घाटे में नहीं रहे ।

अनेक क्षेत्रों में संपत्ति के अधिकार पारंपरिक भूस्वामी जातियों में ही घूमते रहे तथा अकसर पतनशील जातियों में से ही नए भूस्वामी निकलकर सामने आए; कुछ मामलों में जमीनों की सार्वजनिक बिक्री में सरकारी पदों के प्रभाव के कारण कुछ स्थानीय व्यक्ति लाभ में रहे ।

इन सफल ताल्लुकदारों ने जिनको स्टोक्स ने ”नए धनवान” कहा है अवध और पश्चिमोत्तर प्रांत दोनों में मौजूद हालात के साथ बखूबी तालमेल बिठा लिया । उन्होंने विद्रोह नहीं किया बल्कि अपने-अपने समुदाय पर शांतिकारी प्रभाव भी डाला न ही सारे किसान एकसमान कष्ट में रहे । पिछड़े क्षेत्रों की अपेक्षा उपजाऊ और सिंचित क्षेत्रों के किसानों ने अति-आकलन का बोझ अधिक आसानी से झेला ।

पिछड़े क्षेत्रों में वंचित किए जाने की वह भावना निरपेक्ष कम और सापेक्ष अधिक थी जो चिढ़ का प्रमुख कारण थी । अगर कुछ किसान समूह इस दबाव तले कराह रहे थे तो वे इस बात को भी आसानी से पचा नहीं पा रहे थे कि पड़ोस के नहरी क्षेत्रों में नकदी फसलों की लाभदायी खेती के कारण उनके जातिभाई समृद्ध बनते जा रहे थे ।

इन्हीं पिछड़े क्षेत्रों में किसान देखने में सूदखोरों और महाजनों के दबावों के आगे अधिक असहाय भी थे और उनकी जमीनों के छिनने की संभावना भी अधिक थी । फिर भी इस बात में संदेह है कि क्या कर्जदारी और बगावत के बीच कोई सकारात्मक सहसंबंध भी था; वास्तव में स्टोक्स ने तो दोनों के बीच एक विलोम सहसंबंध का तर्क दिया है ।

भारी मालगुजारी वाली असिंचित जमीनें बाहरी बनियों और महाजनों के लिए शायद ही आकर्षक रही होंगी । उन्होंने जमीन का कब्जा वहीं लिया जहाँ नकदी फसलों की खेती का प्रसार हो रहा था । ऐसे मामलों में वास्तविक कब्जा बहुत कम हुआ क्योंकि-उद्देश्य राजनीतिक अधिक था अर्थात् स्वयं जमीन की बजाय उत्पादक किसान को अपने नियंत्रण में लाना ।

इसलिए भारी मालगुजारी वाले पिछड़े और ”प्यासे” क्षेत्र जहाँ महाजनों की घुसपैठ सबसे कम थी विद्रोह के दौरान सबसे अधिक हिंसा-संभावित बन गए । साथ ही उन क्षेत्रों में महाजनों के दबाव का प्रतिरोध बेहतर ढंग से हुआ जहाँ जातिगत भाईचारे अधिक मजबूत थे ।

यहाँ सामाजिक समरसता और सामूहिक शक्ति किसानों में विद्रोह-भावना को बढ़ावा देनेवाले अहम कारण बन गईं । गूजरों या जाटों राजपूतों या सैयदों के आपसी सामुदायिक संबंध किसान विद्रोह के प्रभाव को निर्धारित करनेवाले प्रमुख कारण बन गए ।

ग्रामीण समाज के सभी समूहों में व्याप्त एकमात्र साझा तत्त्व संभवत उस ब्रिटिश राज के प्रति एक संशय का भाव था जो समझा जाता था कि उनके धर्मो के लिए एक खतरा है । इससे पहले के सामाजिक सुधारों ने अप्रत्यक्ष रूप से यह भावना पैदा की थी और ईसाई मिशनरियों का इसमें प्रत्यक्ष योगदान था । हिंदू और मुसलमान एक समान रूप से प्रभावित हुए और इसलिए विद्रोह के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता बराबर बनाए रखी गई ।

उत्तर भारत की खेतिहर आबादी में हिंसक प्रतिरोध के इस व्यापक आरंभ की कोई एक कारण वाली व्याख्या नहीं की जा सकती । सी.ए. बेइली के अनुसार एरिक स्टोक्स ने जो बात साबित की है यह है कि 1857 का भारतीय विद्रोह कोई एक आंदोलन न था … अनेकों (आंदोलन) थे ।

एक और विवादास्पद प्रश्न है 1857 के विद्रोह की प्रकृति को लेकर जिसके बारे में बहस लगभग उसके आरंभ-काल में ही शुरू हो चुकी थी । कुछ समकालीन समझते थे कि यह मुगल साम्राज्य की पुनर्स्थापना के लिए एक मुस्लिम षड़यंत्र था पर इसके समर्थन में कुछ अधिक साक्ष्य नहीं मिलते ।

घटनाओं की अधिक प्रचलित आधिकारिक व्याख्या यह थी कि यह मुख्यत सिपाहियों का एक गदर था और नागरिक असंतोष इसका एक गौण तत्त्व था कि यह गदर इसलिए हुआ कि उच्छृंखल तत्त्वों ने कानून और व्यवस्था के भंग होने का लाभ उठाया ।

एस.एन. सेन जैसे कुछ परवर्ती भारतीय इतिहासकारों ने भी इस विद्रोह की शतवार्षिकी पर अपने सरकार द्वारा प्रायोजित इतिहास लेखन में इसी उपनिवेशी तर्क को दोहराया है । सेन का तर्क है “आंदोलन का आरंभ एक सैनिक गदर के रूप में हुआ” और फिर जब प्रशासन का हास हुआ तो उच्छृंखल तत्त्व हावी हो गए ।

रोमेशचंद्र मजुमदार के विचार भी इससे मेल खाते थे: ”जिस चीज का आरंभ एक गदर के रूप में हुआ उसका अंत कुछ क्षेत्रों में असैनिक जनता के एक विद्रोह के रूप में हुआ” जो कभी तो स्वार्थी स्थानीय नेताओं द्वारा आयोजित किया गया था और जो कभी मात्र भीड़ की हिंसा था जिसका जन्म प्रशासनतंत्र के विघटन के कारण हुआ था ।

लेकिन विद्रोह के समय से ही राजनीतिक रंगमंच के दूसरे छोर से इससे भिन्न विचार व्यक्त किए जा रहे थे। 27 जुलाई 1857 को हाउस ऑफ्र कॉमंस में बेंजामिन डिजराइली ने पूछा: ”यह एक सैनिक गदर है या एक राष्ट्रीय विद्रोह है ?” न्यूयार्क डेली ट्रित्रन में 1857 की गर्मियों में ऐसे ही संदेह कार्ल मार्क्स ने व्यक्त किए थे: ”वह (जॉन बुल) जिस चीज को एक सैनिक गदर समझता है वह वास्तव में एक राष्ट्रीय विद्रोह है ।”

1857 के विद्रोह को भारतीय राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन का अंग विनायक दामोदर सावरकर ने बनाया जब उन्होंने 1909 के एक प्रकाशन में उसे ”भारत का स्वाधीनता-संघर्ष” या ”स्वधर्म और स्वराज के लिए” लड़ा गया संघर्ष कहा ।

हालांकि सेन और मजुमदार दोनों ने उनके दावे का जोरदार खंडन किया पर उसे गंभीर अकादमिक समर्थन 1959 में एस.बी. चौधुरी से मिला जिन्होंने इस विद्रोह को ”एक विदेशी शक्ति को चुनौती देने के लिए अनेक वर्गों की जनता का पहला संयुक्त प्रयास” कहा । उनकी समझ में ”यह एक परवर्ती चरण में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की तरह दूर से ही सही एक वास्तविक कदम है ।”

तब से यह बहस चलती ही आई है और धीरे-धीरे यह सहमति पैदा हो रही है कि 1857 का विद्रोह आधुनिक अर्थ में एक राष्ट्रवादी आंदोलन नहीं था । 1965 में टॉमस मेटकॉफ ने लिखा ”इस बात पर व्यापक सहमति है कि यह सैनिक गदर से अधिक मगर एक राष्ट्रीय विद्रोह से कम कोई चीज था ।

यह ”राष्ट्रीय” इसलिए नहीं था कि विद्रोह का जनप्रिय चरित्र उत्तर भारत तक ही सीमित था जबकि ब्रिटिश राज से लाभ पानेवाले क्षेत्र और समूह उसके वफादार बने रहे । मददगारों के भी कुछ महत्त्वपूर्ण समूह थे । बंगाली मध्य वर्ग वफादार बना रहा क्योंकि जैसा कि ज्यूडिथ ब्राउन ने लिखा है उसके ”नई व्यवस्था से भौतिक हित जुड़े हुए थे और अकसर उसमें नए विचारों के साथ एक गहरी वैचारिक प्रतिबद्धता थी ।”

पंजाबी राजे हिंदुस्तानी सिपाहियों से घृणा करते थे और मुगल साम्राज्य की पुनर्स्थापना के विचार से ही काँपते थे । दूसरी ओर जैसा कि सी.ए बेइली का तर्क है विद्रोह करने वालों की प्रेरणाओं में विविधता थी और अंग्रेज विरोधी किसी विशेष शिकायत से उनका हमेशा एक संबंध होता भी नहीं था; अकसर वे एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ते रहते थे और यह ”भारतीय फूट ब्रिटिश हाथों में खेल गई ।”

कोई पहले से तैयार योजना या षड्‌यंत्र थी भी नहीं तथा विद्रोह से पहले गेहूँ की चपातियों के गाँव दर गाँव पहुँचने के कारण भ्रामक संदेश मिलते रहे । इस तरह कहा गया है कि पूरा विद्रोह ही नकारात्मक था और विद्रोहियों के पास ब्रिटिश राज की जगह किसी वैकल्पिक व्यवस्था का कोई खाका भी नहीं था ।

मेटकॉफ़ लिखते हैं कि अपनी भविष्य-दृष्टि में विद्रोही नेता निराशाजनक सीमा तक परस्परविरोधी थे ”और उनमें से कुछ जहाँ मुगल बादशाह बहादुरशाह के प्रति वफादार थे वहीं दूसरे विभिन्न क्षेत्रीय राजाओं के समर्थक थे ।” पराजय में एकजुट ये विद्रोही नेता विजयी होते तो एक-दूसरे के गले काट रहे होते ।

फिर भी हाल के वर्षों में अनेक इतिहासकारों ने इस तथाकथित ”सहमति” गंभीर संदेह व्यक्त किए हैं । इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि 1857 के विद्रोहियों के बीच आधुनिक अर्थ में एक भारतीय राष्ट्र की कोई धारणा नहीं थी ।

किसानों की कार्रवाइयाँ स्थानीय घटनाएँ थीं जो सुस्पष्ट क्षेत्रीय सीमाओं में बँधी हुई थीं । फिर भी पहले के किसान विद्रोहों के विपरीत अब क्षेत्रों के बीच निश्चित ही आपसी संपर्क अधिक था और विद्रोही अपने इलाके से बाहर के प्रभावों से प्रभावित हो रहे थे ।

उत्तर और मध्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों के विद्रोहियों के बीच समन्वय और संवाद भी था और उड़ती हुई अफवाहें विद्रोहियों को एक अनदेखे बंधन में बाँधे रहती थीं । ब्रिटिश राज और उसके कारण उनके जीवन में आई उथल-पुथल के प्रति पूणा उन सबकी एक साझी भावना थी ।

इसलिए जो भी चीज कंपनी की सत्ता की प्रतीक थी उनके हमलों का निशाना बन गई । वे सब यही समझते थे कि उनकी जाति और धर्म खतरे में हैं । झाँसी के सिपाहियों की तरह विद्रोही हर जगह अपने ”दीन-धरम” के लिए लड़ रहे थे-एक ऐसी नैतिक व्यवस्था की पुनर्स्थापना के लिए जिसे एक अतिक्रामक विदेशी राज ने भ्रष्ट कर दिया था ।

गौतम भद्र के शब्दों में ”अपने तात्कालिक वातावरण में विदेशी राज की सत्ता संबंधी समझ और दैनिक अनुभव ने ही विद्रोहियों की कार्रवाई को निर्धारित किया ।” एक-दूसरे के लिए अनजान होकर भी और संभवत: अपने अलग-अलग अनुभवों के द्वारा एक-दूसरे से कटे हुए होने पर भी वे इतिहास के ही मोड़ पर एक ही शत्रु के विरुद्ध खड़े थे । रणजीत गुहा लिखते हैं ”उन्होंने हथियार उस क्षेत्र को वापस पाने के लिए उठाए जिसे वे अपने पूर्वजों का संसार मानते थे ।”

सवाल है कि इस क्षेत्र का वास्तविक अर्थ क्या था ? भौतिक या सामाजिक स्थल के रूप में क्षेत्र का विचार अब संभवत गाँव से या जाति से या नातेदारी से वृहत्तर था । जैसा कि रजत रे का तर्क है वे विदेशी शासन से ”हिंदुस्तान” को मुक्त कराने के प्रयास कर रहे थे ।

विद्रोह के दौरान उल्लेखनीय धार्मिक एकता देखने को मिली क्योंकि सब इस बात पर सहमत थे कि हिंदुस्तान एक समान हिंदुओं और मुसलमानों का था । 1857 के विद्रोही पुरानी सुपरिचित व्यवस्था की ओर लौटना चाहते थे और इससे उनकी मंशा सत्रहवीं सदी की केंद्रीकृत मुगल राजसत्ता से नहीं थी ।

वे अठारहवीं सदी के भारत की विकेंद्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था को वापस लाना चाहते थे जब प्रांतों के शासकों को पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त था लेकिन जब मुगल बादशाह को सभी राजनीतिक वैधता का सात मानते थे ।

अवध के विद्रोहियों ने जब बिरजीस कद्र की ताजपोशी की तो यही शर्त रखी कि वह मुगल बादशाह को अधिराज माने । मुगलों की राजधानी दिल्ली और मुगल बादशाह बहादुरशाह उसी सुपरिचित संसार के प्रतीक थे और इस पर विद्रोहियों के बीच कोई मतभेद नहीं था ।

अपनी नवीनतम पुस्तक में सी.ए. बेइली को 1857 के विद्रोह में ”देशभक्तों के विद्रोहों के एक समूह” के दर्शन हुए हैं । वे लिखते हैं कि विद्रोहियों की माँग ”मुगल वैधता के वृहत्तर क्षेत्र के अंदर उस हिंद-मुगल संरक्षकी (Patrias) की पुनर्स्थापना की थी जो क्षेत्रों और जनगणों के बीच आपसी सम्मान और एक स्वस्थ संतुलन से प्रेरित हो ।

विद्रोह जब आगे बढ़ा तो तथाकथित मददगारों ने भी ब्रिटिश राज को आलोचना के साथ ही स्वीकार किया । उदाहरण के लिए कलकत्ता के शिक्षित वर्ग के लोग भी दुविधा से मुक्त न थे और वे भी हिन्दु पैट्रियट के शब्दों में ”एक विदेशी शासन की अधीनता से अलग न की जा सकने वाली तकलीफें” महसूस कर रहे थे ।

इस दुविधा को इस अखबार ने बड़े सुंदर ढंग से रखा था: ”हो सकता है कि यह वफ़ादारी दिल की बजाय दिमाग से उपजी हो ।” इस तरह विदेशी शासन से मुक्ति की जोरदार तड़प न सही उसके विंरुद्ध विरोध और असंतोष की आवाजें 1857-58 में भारतीय जनता के विभिन्न हिस्सों की ओर से उठ रही थीं ।

हाल के वर्षो में 1857 के गदर की ऐतिहासिक व्याख्या की सुई बहुत हद तक विपरीत दिशा में मुड़ चुकी है । विद्रोह के चरित्र पर एक और अहम सवाल यह है कि यह कुलीनों का आंदोलन था या नहीं । ज्यूडिथ ब्राउन जैसे कुछ इतिहासकारों का विचार है कि विद्रोह के दौरान निर्णय सामंती तत्त्व करते थे और विद्रोह का निर्धारण एक बड़ी हद तक ब्रिटिश राज से प्रतिबद्ध एक फलते-फूलते वर्ग की उपस्थिति या अनुपस्थिति से हुआ क्योंकि विद्रोह को एक सामान्य दिशा वही दे सकते थे ।

एरिक स्टोक्स का निष्कर्ष तो बल्कि यह है कि ”1857 के ग्रामीण विद्रोह का चरित्र मूलत कुलीनवादी था ।” लेकिन यह रुख जनता की भूमिका को तुच्छ बनाकर दिखाता है । रहा सवाल सामंत प्रभुओं का तो अनेक अवसरों पर वे नेतृत्व करने से झिझके और विद्रोहियों द्वारा विवश किए गए ।

विद्रोही सिपाहियों के आने पर बहादुरशाह जफर हक्का-बक्का रह गए और भारी संकोच के बाद ही उनके नेता बने । कानपुर में नानासाहब को जैसा कि उनके विश्वासपात्र तात्या टोपे की स्वीकृति से बाद में पता चला विद्रोही सिपाहियों ने पकड़कर गंभीर परिणाम की धमकी दी; विद्रोहियों से हाथ मिलाने के अलावा उनके पास कुछ खास विकल्प था भी नहीं ।

झाँसी की रानी को तो वास्तव में सिपाहियों की मदद न करने या अंग्रेजों से सहयोग करने पर मौत की धमकी दी गई थी । विद्रोह की पहल बल्कि उसकी प्रभावशालिता भी वास्तव में सामंती नेतृत्व पर निर्भर नहीं थी ।

जहाँ तक ताल्लुकदारों का संबंध है तो यह सही है कि अनेक क्षत्री में किसानों ने उनका नेतृत्व माना क्योंकि दोनों वर्गो के बीच पूँजीवाद के आगमन से पहले ही एक जीवंत संबंध था लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में ताल्लुकदारों की भूमिकाएं अलग-अलग थीं ।

जैसे अवध में जैसा कि रूद्रांशु मुखर्जी ने दिखाया है ताल्लुकदारों की भागीदारी कभी भी पूरी नहीं रही; कुछ वफादार बने रहे कुछ ने गद्दारी की दूसरों ने बीच का रास्ता अपनाया और कुछ ने तो ब्रिटिश सेना को आते देखकर ही हथियार डाल दिए ।

अनेक क्षेत्रों में किसानों और दस्तकारों ने ताल्लुकदारों को विद्रोह में भाग लेने पर विवश किया जबकि कुछ मामलों में जब ताल्लुकदारों ने अंग्रेजों से सुलह कर ली तब भी जनता ने विद्रोह जारी रखा । सबसे बड़ी बात यह कि मुख्य पहल सिपाहियों यानी वर्दीधारी किसानों ने की जो अब अपनी वर्दी उतारकर फिर किसानों में जा मिले थे । मध्य और उत्तर भारत में लगभग हर जगह सेना की बैरकों से आरंभ होकर विद्रोह जल्द ही पास के गाँवों तक फैला; सिपाहियों के जातिगत और उपजातीय संबंध भी उनको किसान समुदायों से जोड़ते थे ।

लगभग हर जगह विद्रोह से पहले बडी संख्या में विद्रोहियों ने बातचीत पंचायतें या खुली बैठकें कीं । अंत में रहा सवाल चपातियों का तो वे तेजी से, ज्यामितीय श्रेढ़ी (Geometric Progression) में, गाँव-दर-गाँव फैलीं जनता उनका अलग-अलग अर्थ ग्रहण करती रही और वे आसन्न संकट के सूचक या कारण की बजाय उसका प्रतीक बनी रहीं । 1857-58 के विद्रोह में किसान वर्ग की स्वतंत्र लामबंदी के प्रमाणों को अनदेखा कर सकना कठिन है।

यह विद्रोह निर्मम दमन के सहारे कुचला गया । लॉर्ड कैनिंग ने कलकत्ता में ब्रिटिश दस्तों को जमा किया और दिल्ली को मुक्त कराने के लिए भेजा । अंतत: 20 सितंबर, 1857 को दिल्ली पर फिर से उसका कब्बा हुआ और बहादुरशाह को गिरफ्तार करके निर्वासित कर दिया गया; पर अभी भी इसका अर्थ विद्रोह का अंत नहीं था ।

बनारस, इलाहाबाद और कानपुर बहुत धीरे-धीरे ही कब्बे में आए; विद्रोही एक-एक इंच जमीन के लिए लड़ते रहे और गाँवों में अंग्रेजों ने शुद्ध आतंक का एक राज्य स्थापित कर दिया । अक्तूबर में कलकत्ता में नए ब्रिटिश दस्तों के आने के बाद संतुलन एकदम विद्रोह के खिलाफ हो गया । 1858 के वसंत और 1859 के आरंभ के बीच ब्रिटिश दस्तों ने एक-एक करके ग्वालियर, दोआब, लखनऊ और बाकी अवध रुहेलखंड तथा मध्य भारत के बाकी भागों पर कब्जे किए ।

सिपाहियों और ग्रामीण विद्रोहियों की हार के तत्कालीन वृत्तांत अंग्रेजों की बहादुरी उनके श्रेष्ठतर राष्ट्रीय चरित्र बेहतर नेतृत्व और कारगर सैन्य रणनीतियों के गुण गाते हैं जबकि विद्रोहियों में एकता अनुशासन और व्यवस्था का अभाव था ।

कुछ आरंभिक भारतीय इतिहासकार भी इस सिद्धांत में विश्वास करते थे । मगर आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेज इसलिए जीते कि उन्होंने अपना साम्राज्य फिर से पाने के लिए असीमित व्यक्ति और संसाधन झोंक दिए जबकि सिपाहियों के पास धन की हताशाजनक  कमी थी ।

एक किसान सेना की तर्ज पर साधारण ग्रामीण विद्रोही आदिम हथियारों से लैस थे और उनमें से अधिकांश तो प्रशिक्षित सैनिक भी नहीं थे । उनका सामना था अंग्रेजोंकी सेना से जिनके पास अत्यंत परिष्कृत शस्त्र ही नहीं थे बल्कि जो लगभग पूरे खत के स्वामी थे एक केंद्रीकृत नौकरशाही से लैस थे और जिनके पास एक सुरक्ष संचार व्यवस्था थी ।

इसके अलावा जैसा कि स्टोक्स का तर्क है विद्रोही सिपाहियों ने ”दिल्ली में जमा होने के एक उल्लेखनीय अभिकेंद्री आवेग (Centripetal Impulse) का परिचय दिया जिसके कारण विद्रोह उतना नहीं फैला जितना फैल सकता था ।

इसलिए जब मार्च 1858 तक दिल्ली और लखनऊ का पतन हुआ विद्रोह अपने अंतिम चरण में प्रवेश कर चुका था । विद्रोहों की अत्यधिक स्थानबद्ध प्रकृति के कारण अंग्रेज उनसे एक-एक करके निबटने में सफल रहे । 1859 तक सब कुछ समाप्त हो चुका था ।

1857 का विद्रोह भारत के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण विभाजक रेखा है । सबसे पहली बात यह कि उसने ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया । भारत में शांति के पूरी तरह पुनर्स्थापित होने से पहले ही ब्रिटिश संसद ने 2 अगस्त, 1858 को भारत में बेहतर शासन के लिए एक कानून पारित किया महारानी विक्टोरिया को ब्रिटिश भारत की महारानी घोषित किया और एक भारत सचिव (सेक्रेटरी ऑफ्र स्टेट कॉर इंडिया) की नियुक्ति का प्रावधान किया जो ब्रिटिश मंत्रिमंडल का सदस्य होता ।

यह कानून 1 नवंबर से लागू होना था और उस दिन महारानी ने एक घोषणा जारी की जिसने धार्मिक सहिष्णुता का वादा किया और भारत पर उसके स्थापित रीति-रिवाजों के अनुसार शासन का प्रस्ताव किया । भारत में ब्रिटिश राज की स्थिति के लिए इस संवैधानिक परिवर्तन का क्या अर्थ था इसे बरनार्ड कोहन ने सूत्ररूप में इस तरह रखा है: ”अवधारणा की दृष्टि से देखें तो अंग्रेज जिन्होंने ‘बाहरी’ के रूप में अपने शासन का आरंभ किया अपनी महारानी को भारत की प्रभुसत्ता से लैस करके ‘अंदरूनी’ बन बैठे ।”

इस घोषणा ने महारानी और भारत में उसके प्रतिनिधियों उनकी भारतीय प्रजा और राजाओं के बीच संबंधों की एक व्यवस्था बनाई और इन सबके बीच एक लंबा-चौड़ा साम्राज्यिक सोपानक्रम स्थापित हुआ । इसके अलावा दूसरे दूरगामी परिवर्तन भी सामने आए जो लगभग सालभर के खूनी नस्लवादी युद्ध के परीणाम थे । सिपाहियों पर गंभीर विश्वासघात का आरोप लगाया गया और इस बात ने आम तौर पर सभी भारतीयों को भारत में और ब्रिटेन में भी अंग्रेजों की नजर में संदिग्ध बना दिया ।

सिपाहियों के अत्याचारों की कहानियों के कारण सजा और बदले की भावना बढ़ने लगी और जब वायसरॉय लॉर्ड कैनिंग जैसे समझदार तत्त्वों ने इस जुनून को रोकने की कोशिश की तो उसके देशवासी ही उसे ”क्लेमेंसी कैनिंग” कहने लगे और उसे वापस बुलाने के लिए प्रार्थनापत्र भेजने लगे ।

हालांकि यह पागलपन धीरे-धीरे समाप्त हो गया पर बाद के काल में ब्रिटेन और भारत के संबंधों पर इसने स्थायी प्रभाव छोड़ा । इसके बाद जातीय अलगाव और मजबूत हो गया क्योंकि भारतीयों को जाति से भिन्न ही नहीं हीन भी समझा जाने लगा ।

इससे भी अहम बात यह है कि आत्मविश्वास से भरे विक्टोरियाई उदारवाद को अब स्पष्ट तौर पर धक्का लगा क्योंकि बहुत से अंग्रेज तो यह मानने लगे कि भारतीयों का सुधार असंभव है । यह नई मनोदशा जिसे टॉमस मेटकॉफ ने ”उदारवाद का रूढ़िवादी रूप” कहा है  ”रूढ़िवादी और कुलीन वर्गों के ठोस समर्थन पर और भारतीय समाज के परंपरागत ढाँचे में पूर्ण अहस्तक्षेप के सिद्धांत पर” आधारित था ।

इस रूढ़िवादी प्रतिक्रिया ने स्पष्ट है कि साम्राज्य को और भी निरंकुश बनाया और सत्ता में भागीदारी के बारे में पढ़े-लिखे भारतवासियों की आकांक्षाओं को ठुकराया । इसी कारण से इसने साम्राज्य को और भी अस्थिर बनाया क्योंकि उन्नीसवीं सदी के अंतिम भाग में आधुनिक राष्ट्रवाद का जन्म शिक्षित मध्य वर्गो की इसी कुंठा से हुआ ।

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