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लगभग चार करोड़ वर्ष पहले स्वतंत्र भौगोलिक इकाई के रूप में भारतीय उपमहादेश का आविर्भाव हुआ । प्रायद्वीपीय भारतीय क्षेत्र अंटार्टिका, अफ्रीका, अरब और दक्षिणी अमेरिका के साथ दक्षिणी वृहत महादेश का हिस्सा था । इस वृहत महादेश को गोंडवानालैंड कहते हैं ।
पहले गोंडवानालैंड उत्तरी वृहत महादेश लॉरेशिया के साथ मिला था । उत्तरी वृहत महादेश में ग्रीनलैंड, यूरोप और हिमालय के उत्तर स्थित एशिया के भाग शामिल थे । बाद में गोंडवानालैंड और लॉरेशिया पृथक इकाइयाँ बन गए । विवर्तनिक (टेकटोनिक) गतिविधियों के कारण गोंडवानालैंड से विभिन्न भाग टूटने लगे जिससे प्रायद्वीपीय भारत सहित कई पृथक भौगोलिक इकाइयाँ बन निकलीं ।
बिखराव की यह प्रक्रिया लगभग 22 करोड़ 50 लाख वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई और लगभग चार करोड़ वर्ष पूर्व भारत पृथक इकाई बना । आज से लगभग पाँच करोड़ अस्सी लाख वर्ष पूर्व से लेकर तीन करोड़ सत्तर लाख वर्ष पूर्व के बीच में भारत यूरेशियाई महादेश में शामिल होने के लिए उत्तर की ओर बढ़ा ।
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पूर्व की इन तिथियों की तुलना में भारत की हिमालयी सीमा बहुत नवीन है । हिमालय की ऊंचाई चार चरणों में बड़ी । अंतिम चरण प्लाइस्टोसीन काल में विकसित हुआ । यह 20 लाख वर्ष ई॰ पू॰ से लेकर 12000 ई॰ पू॰ फैला था ।
सिंधु-गंगा के मैदान के निर्माण में हिमालय ने अपनी नदियों के द्वारा प्रमुख भूमिका निभाई जिससे प्लाइस्टोसीन काल में यहाँ कछारी मिट्टी का जमाव हो गया । भारतीय उपमहादेश उतना ही बड़ा है जितना बड़ा रूस के बिना यूरोप महादेश है । इसका कुल क्षेत्रफल 4,202,500 वर्ग किलोमीटर है ।
यह उपमहादेश पाँच देशों में बँटा है- भारत, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान । भारत में लगभग एक सौ करोड़ लोग हैं । इसमें अट्ठाईस राज्य और सात केंद्रशासित प्रदेश (राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सहित) हैं । भारत के कुछ राज्य यूरोप के कई देशों से बड़े हैं ।
भारतीय उपमहाद्वीप स्पष्ट भौगोलिक इकाई है और इसका अधिकांश भाग उष्ण कटिबंध में पड़ता है । भारत के इतिहास में मानसून की महत्वपूर्ण भूमिका है । दक्षिण-पश्चिमी मानसून यहाँ जून से अक्तूबर तक रहता है और देश के अधिकांश क्षेत्र में विभिन्न मात्रा में पानी बरसता है । प्राचीन काल में सिंचाई का कोई विशेष महत्व नहीं था और खेती वर्षा पर ही निर्भर थी ।
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आज जिसे हम उत्तर भारत में खरीफ फसल कहते हैं वह प्राचीन काल में मुख्यतः दक्षिण-पश्चिमी मानसून पर आश्रित थी । पश्चिमी विक्षोभ से उत्तरी भारत में जाड़े में वर्षा होती है जहाँ उस समय गेहूँ, जौ आदि प्रमुख फसलें होती हैं ।
प्रायद्वीपीय भारत के कुछ भाग विशेष रूप से तमिलनाडु के तटीय क्षेत्र में ज्यादातर वर्षा उत्तरी-पूर्वी मानसून से होती है जिसका समय मध्य अक्तूबर से लेकर मध्य दिसंबर तक होता है ।
जब से ईसा की पहली सदी के आसपास मानसून की दिशा मालूम हो गई व्यापारी लोगों ने उत्तर-पश्चिमी मानसून के सहारे जहाजों पर सवार हो पश्चिम एशिया और भूमध्यसागरीय क्षेत्र से चलकर भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया आना और फिर उत्तर-पूर्वी मानसून के उतरने पर पश्चिम की ओर लौट जाना शुरू कर दिया ।
मानसून के ज्ञान के फलस्वरूप भारत पश्चिम एशिया, भूमध्यसागरीय क्षेत्र और दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार करने और सांस्कृतिक संपर्क स्थापित करने में समर्थ हो गया ।
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भारत उत्तर में हिमालय से और शेष तीन दिशाओं में समुद्रों से घिरा है । हिमालय साइबेरिया से चलकर मध्य एशिया को पार करने वाली उत्तरध्रुवीय ठंडी हवाओं को रोकता है और इस प्रकार हमारे देश की रक्षा करता है । यही कारण है कि उत्तर भारत की जलवायु लगभग पूरे साल काफी गर्म रहती है ।
मैदानों में अधिक जाड़ा नहीं पड़ने से यहाँ के लोगों को बहुत अधिक कपड़े नहीं पहनने पड़ते और वे खुले में अधिक समय तक रह सकते हैं । दूसरे हिमालय बहुत ऊँचा होने के कारण उत्तर से होनेवाले हमलों से देश की रक्षा करता है । यह बात उन दिनों विशेष रूप से लागू थी जब औद्योगिक युग नहीं आया था और संचार-साधन इतने विकसित नहीं हुए थे ।
फिर भी उत्तर-पश्चिम में सुलेमान पर्वत-शृंखला जो दक्षिण की ओर हिमालय पर्वत-शृंखला की कड़ी है, खैबर, बोलन और गोमल दर्रे से पार की जा सकती थी । दक्षिण की ओर सुलेमान पर्वत-शृंखला बलूचिस्तान में किरथार पर्वत-शृंखला से जुड़ी है, जिसे बोलन दर्रे से पार किया जा सकता था ।
इन दर्रों से भारत और मध्य एशिया के बीच प्रागैतिहासिक काल से आवागमन होता आया है । ईरान, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के अनेक लोग हमलावरों और आप्रवासियों के रूप में भारत आए और यहाँ से वहाँ गए ।
यहाँ तक कि हिमालय पर्वत-शृंखला का पश्चिमी विस्तार, जो हिंदूकुश कहलाता है सिंधु और ऑक्सस के बीच पार कर लोग आते-जाते थे । ये दर्रे एक ओर भारत और दूसरी ओर मध्य एशिया और पश्चिमी एशिया के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध की स्थापना में बड़े सहायक हुए हैं ।
हिमालय में ही कश्मीर और नेपाल की उपत्यकाएं हैं । कश्मीर की घाटी चारों ओर से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ी से घिरी हुई है । इससे उसने अपनी अलग तरह की जीवन- पद्धति विकसित कर ली । लेकिन यहाँ कई दर्रों द्वारा पहुँचा जा सकता था । इस घाटी में कड़ा जाड़ा पड़ता है, अत: यहाँ के अनेक लोगों को सर्दियों में नीचे मैदानों में उतर जाना पड़ता था और गर्मियों में मैदानों के भेड़-बकरी चराने वाले यहाँ चले आते थे ।
इस तरह मैदानों और इस घाटी के बीच आर्थिक एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान बना हुआ था । कश्मीर को मध्य एशिया के इलाकों में बौद्ध धर्म के प्रचार का केंद्रस्थल बनाने में पामीर का पठार कोई बाधक नहीं हुआ । नेपाल की घाटी आकार में छोटी है ।
गंगा के मैदानी इलाकों के लोगों ने यहाँ पहुँचने के लिए अनेक दर्रे ढूँढ निकाले थे । कश्मीर की तरह इस घाटी में भी संस्कृत की उन्नति खूब हुई । दोनों ही उपत्यकाएं संस्कृत पांडुलिपियों का सबसे बड़ा भंडार रही हैं ।
मैदानों की कछारी मिट्टी में पनपे घने जंगलों की अपेक्षा हिमालय की तराइयों के जंगलों को साफ करना आसान था । इन तराइयों में बहने वाली नदियाँ कम चौड़ी होती हैं, अतः उन्हें पार करना कठिन न था । यही कारण है कि प्रारंभिक यात्रा मार्ग हिमालय की तराइयों में ही पश्चिम से पूर्व और पूर्व से पश्चिम की ओर विकसित हुए ।
संभवतः इन्हीं कारणों से ईसा-पूर्व छठी सदी में सबसे पुरानी कृषि बस्तियाँ तराई वाले इलाकों में ही बनीं और यहीं के रास्ते व्यापार के लिए अपनाए गए । ऐतिहासिक भारत का वक्षस्थल उन महत्वपूर्ण नदियों का क्षेत्र है जो उष्ण कटिबंधीय मानसूनी वर्षा से लबालब भरी रहती हैं ।
नदियों के ये क्षेत्र हैं- सिंधु का मैदान, सिंधु-गंगा जलविभाजक, गंगा की घाटी और ब्रह्मपुत्र की घाटी । ज्यों-ज्यों हम पश्चिम से पूरब की ओर बढ़ते हैं त्यों-त्यों पाते है कि वार्षिक वृष्टिमान क्रमश: 25 सेंटीमीटर से बढ़ते-बढ़ते 250 सेंटीमीटर तक पहुँच जाता है ।
25 से 37 सेंटीमीटर वर्षा द्वारा पोषित सिंधु प्रदेश के पेड़-पौधों को और संभवत: 37 से 60 सेंटीमीटर वर्षा द्वारा पोषित पश्चिमी गंगाघाटी के पेड़-पौधों को भी पत्थर और तांबे के औजारों से काटकर जमीन को कृषि योग्य बनाना संभव था ।
परंतु 60 से 125 सेंटीमीटर वर्षा द्वारा पोषित मध्य गंगा घाटी के जंगलों के बारे में ऐसा संभव नहीं था और 125 से 250 सेंटीमीटर वर्षा से पोषित ब्रह्मपुत्र घाटी के जंगलों के बारे में तो कतई संभव नहीं था । घने जंगलों और साथ ही कठोर भूमि वाले इन प्रदेशों को साफ करना लोहे के औजारों से ही संभव था परंतु लोहे के औजार तो बहुत बाद में विकसित हुए ।
अत: प्राकृतिक संपदाओं का इस्तेमाल पहले कम वर्षा वाले पश्चिमी प्रदेश में ही किया गया और बड़ी बस्तियों का विस्तार आमतौर से पश्चिम से पूरब की ओर होता गया । सिंधु और गंगा के मैदानों में शुरू हुई खेती से यहाँ बढ़िया फसल होने लगी और इसने एक के बाद एक कई संस्कृतियों का संभरण किया ।
सिंधु और गंगा के पश्चिमी मैदानों में मुख्यत: गेहूँ और जौ की उपज होती थी जबकि मध्य तथा निचले गंगा के मैदानों में मुख्यत: चावल पैदा किया जाता था । चावल गुजरात और विंध्य पर्वत के दक्षिण के लोगों का भी मुख्य भोजन बन गया । हड़प्पा संस्कृति का उद्भव और विकास सिंधु की घाटी में हुआ वैदिक संस्कृति का उद्भव पश्चिमोत्तर प्रदेश और पंजाब में हुआ और विकास पश्चिमी गंगा घाटी में ।
वैदिकोत्तर संस्कृति, जो मुख्यतः लोहे के प्रयोग पर आश्रित थी मध्य गंगा घाटी में फूली-फली । निचली गंगा घाटी और उत्तरी बंगाल को वास्तव में गुप्तयुग में उत्कर्ष मिला । अंत में असम सहित समूची ब्रह्मपुत्र घाटी को आंरभिक मध्ययुग में महत्व प्राप्त हुआ । प्रमुख शक्तियाँ इन घाटियों और मैदानों पर प्रभुत्व पाने के लिए आपस में लड़ती रहीं ।
इनमें भी ये शक्तियाँ गंगा-यमुना दोआब के लिए विशेष लोलुप रहीं और इसके लिए संघर्ष होते रहे । नदियाँ वाणिज्य और संचार की मानों धमनियाँ थीं । प्राचीन काल में सड़क बनाना कठिन था इसलिए आदमियों और वस्तुओं का आवागमन नावों से होता था ।
अतः नदी-मार्ग सैनिक और वाणिज्य संचार में बड़े ही साधक हुए । अशोक द्वारा स्थापित प्रस्तर स्तंभ नावों से ही देश के दूर-दूर स्थानों तक पहुँचाए गए । संचार साधन के रूप में नदियों की यह भूमिका ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के दिनों तक कायम रही ।
इसके अलावा नदियों की बाढ़ का पानी आसपास के क्षेत्रों में फैलता था और उन्हें उपजाऊ बनाता था । इन नदियों से नहरें भी निकाली गई थीं । किंतु नदियों की भारी बाढ़ से हर साल उत्तरी मैदानों के गाँव और शहर तबाह हो जाते थे । इस प्रकार अनेक प्राचीन इमारतें बाड़ा में बहकर नष्ट हो गई ।
फिर भी हस्तिनापुर प्रयाग वाराणसी और पाटलिपुत्र जैसे अनेक नगर और राजधानियों नदी तट पर बसी थीं । आजकल नए शहरों की स्थापना रेल मार्गों या सड़कों के संगम पर की जाती है अथवा औद्योगिक या खान वाले क्षेत्रों में । लेकिन औद्योगिक युग के आरंभ से पहले नगर अधिकतर नदी के तट पर स्थापित होते थे ।
सब से बढ़कर नदियों ने राजनीतिक और सांस्कृतिक सीमाओं का काम किया है । यह काम पर्वतों ने भी किया है । उदाहरणार्थ भारतीय प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में आज के उड़ीसा का समुद्रतटवर्ती प्रदेश जो कलिंग देश कहलाता था उसकी उत्तरी सीमा महानदी थी और दक्षिण सीमा गोदावरी ।
इसी प्रकार आंध्र प्रदेश के उत्तर में गोदावरी और दक्षिण में कृष्णा है । इन दोनों नदियों के मुहानों के मैदान को ईसवी सन् के आरंभकाल में अचानक ऐतिहासिक महत्व मिला । तब सातवाहनों और उनके उत्तराधिकारियों के शासनकाल में यहाँ अनेक नगर और बंदरगाह स्थापित हुए ।
फिर तमिलनाडु का अधिकतर भाग उत्तर में कृष्णा-नदी और दक्षिण में कावेरी नदी से घिरा है । कावेरी घाटी दक्षिण में वैगई नदी और उत्तर में पेन्नार नदी तक फैली हुई है । यह स्वतंत्र भौगोलिक क्षेत्र था और ईसवी सन् के आरंभ के थोड़ा पहले यहाँ चोल शासन स्थापित हुआ था ।
यह प्रदेश उत्तरी तमिलनाडु से अलग था । इस उत्तरी तमिलनाडु ने जो उच्च भूमिवाला प्रदेश था, पल्लव शासनकाल में ईसा की चौथी-छठी सदियों में प्रसिद्धि पाई । इसके प्रायद्वीप का पूर्वी भाग कोरोमंडल समुद्रतट से घिरा हुआ है । यद्यपि पूर्वी घाट समुद्रतट रेखा के पार्श्व में ही है, तथापि ये अधिक ऊँचे नहीं हैं ।
पूर्व की ओर बहकर बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियों ने इनमें अनेक रास्ते बना दिए हैं । इसलिए प्राचीन काल में पूर्वी समुद्रतट तथा आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के अन्य भागों के बीच आवागमन में कठिनाई नहीं थी, आरिकमेडु (आधुनिक नाम), महाबलिपुरम और कावरीपट्टनम् के बंदरगाह कोरोमंडल पर ही अवस्थित थे ।
प्रायद्वीप के पश्चिमी भाग में ऐसी संस्पष्ट प्रादेशिक इकाइयाँ नहीं हैं । परंतु उत्तर में ताप्ती (दमन गंगा) और दक्षिण में भीमा के बीच का प्रदेश महाराष्ट्र के रूप में पहचाना जा सकता है । उत्तर में भीमा और ऊपरी कृष्णा तथा दक्षिण में तुंगभद्रा के बीच को प्रदेश कर्नाटक के रूप में पहचाना जा सकता है ।
तुंगभद्रा के उत्तर और दक्षिण में स्थित युद्धरत व्यक्तियों के बीच इस नदी ने लंबे समय तक प्राकृतिक सीमा का काम किया । एक ओर बादामी के चालुक्यों और राष्ट्रकूटों को तुंगभद्रा नदी के दक्षिण में अपनी सत्ता फैलाने में कठिनाई हुई तो दूसरी और पल्लवों और चोलों को इस नदी के उत्तर में राज्य-विस्तार करने में कठिनाई हुई ।
प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिण-पश्चिम के तटीय प्रदेश में आजकल का केरल राज्य है । प्रायद्वीप का समुद्र तटवर्ती पश्चिमी भाग मालाबार तट कहलाता है जिसके इस तट पर कई बंदरगाह और छोटे-छोटे राज्य स्थापित हुए । फिर भी इस तटीय प्रदेश और समीप के महाराष्ट्र कर्नाटक और केरल के प्रदेशों के बीच आवागमन में ऊँचे पश्चिमी घाट कठिनाइयाँ पैदा करते थे क्योंकि इनके दर्रों को पार करना आसान नहीं था ।
उत्तर में सिंधु और गंगा की नदी-प्रणालियाँ और दक्षिण में विंध्यपर्वत शृंखला, इन दोनों के बीच का विस्तृत प्रदेश अरावली पर्वतों द्वारा दो भागों में बँटा हुआ है । अरावली पर्वतों से पश्चिम का भू-भाग थार मरुभूमि में पड़ता है, हालांकि राजस्थान का हिस्सा भी इस क्षेत्र में पड़ता है ।
प्राचीन काल में इस विस्तृत मरुभूमि में बस्तियाँ संभव नहीं थीं । फिर भी इस मरुभूमि में कुछ उर्वर मरुद्यान थे, जहाँ कहीं-कहीं बस्तियाँ थीं और आंरभकाल से ही ऊँटों के सहारे इस मरुभूमि को पार करना संभव था । राजस्थान का दक्षिण-पूर्वी भाग प्राचीन काल से ही अपेक्षाकृत उपजाऊ रहा है । इसके अलावा, खेत्री की तांबे की खानें भी उसी क्षेत्र में होने से वहाँ ताम्रपाषाण युग से ही बस्तियाँ बनती रही हैं ।
राजस्थान की सीमा गुजरात के उपजाऊ मैदानों में जा मिलती है । नर्मदा, ताप्ती, माही और साबरमती नदियाँ इस प्रदेश को पार करती हुई समुद्र में गिरती हैं । दकनी पठार के पश्चिमोत्तर छोर पर स्थित इस गुजरात प्रदेश में कम वर्षा वाला क्षेत्र काठियावाड़ वाला प्रायद्वीप भी शामिल है । इस राज्य का तटीय क्षेत्र काफी दंतुर होने के कारण यहाँ कई बंदरगाह बने है ।
यही कारण है कि प्राचीन काल से ही गुजरात समुद्रतटीय और विदेशी व्यापार के लिए प्रसिद्ध रहा है और यहाँ के लोगों ने अपने को उद्यमशील व्यापारी सिद्ध किया है ।
गंगा-यमुना दोआब के दक्षिण में मध्य प्रदेश राज्य है जो पश्चिम में चंबल नदी पूर्व में सोन नदी और दक्षिण में विंध्य पर्वत और नर्मदा नदी से घिरा है । इसके उत्तरी भाग में उपजाऊ मैदान है । यह मोटे तौर पर पूर्वी और पश्चिमी दो भागों में बाँटा जा सकता है । पूर्वी भाग को जो ज्यादातर विंध्य पर्वत से घिरा हैं गुप्त वंश के समय (ईसा की चौथी-पाँचवी सदियों) में ऐतिहासिक महत्व मिला था ।
परंतु पश्चिमी मध्य प्रदेश में मालवा का वह भू-भाग शामिल है जो ईसा-पूर्व छठी सदी से ऐतिहासिक क्रियाकलापों का क्षेत्र रहा है । गुजरात के बंदरगाहों के लिए मालवा महत्वपूर्ण पृष्ठ प्रदेश (भीतरी प्रदेश) था, और इसीलिए मालवा तथा गुजरात पर अधिकार स्थापित करने के लिए दकन और उत्तरी शक्तियों के बीच अनेक युद्ध हुए ।
इस महत्वपूर्ण क्षेत्र पर अधिकार जमाने के लिए ईसा की पहली और दूसरी सदियों में शकों और सातवाहनों ने लड़ाइयाँ लड़ी और अठारहवीं सदी में मराठों और राजपूतों ने भी ऐसी लड़ाइयाँ लड़ी ।
नदियों द्वारा कहीं-कहीं पर्वतों द्वारा घिरा और कहीं-कहीं डेल्टा या पठार रूप वाला ऐसा प्रत्येक प्रदेश एक-एक राजनीतिक और प्रशासनिक इकाई था जहाँ विभिन्न राजवंशों के शासन का उत्थान-पतन होता रहा । विशाल देश में यातायात की कठिनाइयों को और प्राकृतिक सीमाओं की मजबूती को देखते हुए शासक वर्ग के लिए यह आसान नहीं था कि अन्य सारे प्रदेशों पर भी अपना शासन स्थापित कर सके ।
शनै: शनै: प्रत्येक प्रदेश ने ऐसी पृथक सांस्कृतिक इकाई का रूप धारण किया जिसकी अपनी अलग भाषा और जीवन-पद्धति थी । परंतु उत्तरी और पश्चिमी भारत की अधिकांश भाषाएँ एक ही मूल हिंद-आर्य भाषा से विकसित हुई हैं और इसीलिए इनमें बहुत ही तात्त्विक समानता दिखाई देती हैं ।
एक और भी महत्व की बात है कि लगभग सारे देश में संस्कृत का विकास होने लगा और वह समझी जाने लगी । विंध्य पवतशृंखला देश को पूरब से पश्चिम तक बीचों-बीच विभक्त करती है और इस प्रकार उत्तर भारत और दक्षिण भारत की विभाजक रेखा बनी हुई है ।
द्रविड भाषा बोलने वाले लोग विंध्य के दक्षिण में रहते और भारतीय आर्यभाषा बोलने वाले इसके उत्तर में । दोनों के बीच विंध्य क्षेत्र में आदिवासी लोग रहते थे जहाँ वे आज भी हैं । पश्चिमी और पूर्वी घाटों के तटवर्ती क्षेत्रों में आप्रवासी तथा व्यापारी लोग आ बसे । दक्षिण में विदेशी व्यापार खूब चला ।
विंध्य की यह सीमा अलंघ्य नहीं है । प्राचीन काल में संचार व्यवस्था की कठिनाइयों के बावजूद उत्तर के लोग दक्षिण पहुँचते और दक्षिण के लोग उत्तर । संस्कृति और भाषा का आदान-प्रदान हुआ ।
उत्तर की शक्तियों ने बार-बार दक्षिण में प्रवेश किया और दक्षिण के शासकों ने उत्तर में । धर्मप्रचारकों और सांस्कृतिक नेताओं, विशेषत: ब्राह्मणों पर भी यही बात लागू होती है । दोनों ओर का यह आवागमन निरंतर जारी रहा और इसने सामाजिक संस्कृति के विकास में योग दिया ।
यद्यपि देश के अधिकांश प्रदेशों की अपनी सुनिश्चित प्राकृतिक सीमाएँ थीं परंतु प्रत्येक प्रदेश में जीवन-यापन के लिए अपेक्षित समुचित संपदा नहीं थी । इसलिए प्रागैतिहासिक काल से ही धातुओं और अन्य आम जरूरतों की पूर्ति के लिए देश के विभिन्न क्षेत्रों में पारस्परिक संबंधों का जाल बिछ गया था ।
प्राकृतिक संपदा के उपभोग का देश के इतिहास में विशिष्ट महत्व है । जब तक लोगों की बस्तियाँ बड़े पैमाने पर फैली नहीं थीं भारी वर्षा की बदौलत भारत के मैदानों का बहुत बड़ा हिस्सा घने जंगलों से भरा था । इन जंगलों से शिकार के अलावा पशुओं का चारा ईंधन और लकड़ी प्राप्त होती थी ।
प्राचीन काल में जब पकाई हुई ईंटों का अधिक इस्तेमाल नहीं होता था लकड़ी के मकान और लकड़कोट बनाए जाते थे । इनके अवशेष पाटलिपुत्र में मिले हैं जहाँ देश की पहली प्रमुख राजधानी स्थापित हुई थी । मकान और औजार बनाने के लिए सभी किस्म के पत्थर बलुआ पत्थर भी देश में उपलब्ध थे ।
सहज ही भारत में सबसे पुरानी बस्तियाँ पहाड़ी इलाकों में और पहाड़ों के बीच की नदी घाटियों में स्थापित हुई थीं । ऐतिहासिक युगों में पत्थर के मंदिरों और प्रस्तर-मूर्तियों का निर्माण उत्तर भारत के मैदानों की अपेक्षा दकन तथा दक्षिण भारत में अधिक संख्या में हुआ है ।
तांबा देश भर में व्यापक रूप से बिखरा है । तांबे की समृद्ध खानें झारखंड के पठार में विशेषकर सिंहभूम जिले में पाई जाती है । तांबे की यह पट्टी 130 कि॰ मी॰ लंबी है और पता चलता है कि प्राचीन काल में यहाँ से तांबा निकाला जाता था ।
तांबे के औजारों का इस्तेमाल करने वाले झारखंड के सबसे पुराने निवासियों ने सिंहभूमि और हजारीबाग के तांबे की इन खानों का उपयोग किया था । झारखंड और मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में तांबे के बहुत-से औजार मिले हैं । तांबे के विपुल भंडार राजस्थान के खेत्री खानों में भी मिले हैं ।
इनका उपयोग पाकिस्तान, राजस्थान, गुजरात और गंगा-यमुना दोआब में रहने वाले प्राक्-वैदिक और वैदिक दोनों ही लोगों ने किया है । खेत्री इलाके में तांबे के बहुत-से सेल्ट (आदिम कुल्हाड़े) पाए गए हैं और वे लगभग 1000 ई॰ पू॰ से पहले की अवधि के प्रतीत होते हैं ।
चूंकि तांबा उपयोग में लाई गई पहली धातु थी इसलिए हिंदू इस धातु को पवित्र मानने लगे और ताम्र-पात्रों का धार्मिक अनुष्ठानों में व्यवहार होने लगा । आज हमारे देश में टिन का उत्पादन नहीं होता है । प्राचीन काल में भी यह धातु कम ही उपलब्ध थी ।
कुछ साक्ष्य मिलते हैं कि यह धातु राजस्थान और बिहार में पाई जाती थी परंतु अब इसके भंडार समाप्त हैं । चूंकि तांबे और टिन को मिलाने से ही कांसा बनता है, इसलिए हमें प्रागैतिहासिक काल की कांस्य-वस्तुएँ अधिक नहीं मिलतीं ।
हड़प्पा संस्कृति के लोग संभवत: राजस्थान से कुछ टिन प्राप्त करते थे परंतु वे टिन का आयात मुख्यत: अफगानिस्तान से करते थे और वह भी सीमित मात्रा में ही ।
यही कारण है कि हड़प्पाई लोग कांसे के औजारों का प्रयोग तो करते थे लेकिन यहाँ पर ऐसे औजार पश्चिमी एशिया, मिस्र और क्रीट की अपेक्षा कम ही मिले हैं और जो मिले हैं उनमें टिन की मात्रा कम है । अत: भारत के अधिकतर हिस्से में कांस्य युग अर्थात् ऐसा युग जिसमें औजार और हथियार अधिकतर कांसे के होते ठीक से आया ही नहीं ।
ईसवी सन् के आरंभिक शतकों से ही भारत का घना संपर्क बर्मा और मलय प्रायद्वीपों के साथ कायम हुआ जहाँ टिन के विपुल भंडार हैं । फलस्वरूप बड़े पैमाने पर कांसे का इस्तेमाल होने लगा विशेषत: दक्षिण भारत में बनने वाली देवप्रतिमाओं में ।
बिहार में मिली पालकालीन कांस्य प्रतिमाओं के लिए टिन संभवत: हजारीबाग और राँची से प्राप्त किया गया था क्योंकि हजारीबाग में पिछली सदी के मध्यकाल तक टिन के अयस्क को गलाने का काम होता था । भारत लौह अयस्क में समृद्ध रहा है । यह मुख्यत: झारखंड, पूर्वी मध्य प्रदेश और कर्नाटक में पाया जाता है ।
एक बार अयस्क गलाने की विधि, धौंकनी का इस्तेमाल (इस्पात बनाने की कला) सीख लेने पर युद्ध के काम में लोहे का प्रयोग करना संभव हो गया । परंतु लोहा इससे कहीं अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ जंगल को साफ करने और गहरी और नियमित खेती करने में ।
मगध में ईसा-पूर्व छठी-चौथी सदियों में जो पहला साम्राज्य स्थापित हुआ उसका प्रमुख कारण यही बताया जाता है कि इस प्रदेश के ठीक दक्षिण में लोहा उपलब्ध था । बड़े पैमाने पर लोहे का उपयोग करके ही अवंति जिसकी राजधानी उज्जयिनी में थी, ईसा-पूर्व छठी-पाँचवीं सदियों का महत्वपूर्ण राज्य बन पाई थी ।
सातवाहनों ने और विंध्य के दक्षिण में उदित हुई अन्य सत्ताओं ने भी शायद औध्र और कर्नाटक के लौह अयस्कों का इस्तेमाल किया था । आंध्र प्रदेश में सीसा भी मिलता है । यही कारण है कि ईसा की दो आरंभिक सदियों में आंध्र और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों पर शासन करने वाले सातवाहनों ने बड़ी संख्या में सीसे के सिक्के जारी किए थे । सीसा राजस्थान के जोमवार से भी प्राप्त किया गया होगा ।
हमारे देश के सबसे पहले के सिक्के, जिन्हें आहत (या पंच-मार्क्ड) सिक्के कहते हैं, मुख्यत: चांदी के हैं, यद्यपि देश में यह धातु विरल मिलती है । परंतु प्राचीन काल में मुंगेर जिले की खड़कपुर पहड़ियों में चांदी की खानें मौजूद थीं । अकबर के समय तक इन खानों के उल्लेख मिलते हैं । यही कारण है कि बिहार में मिले सबसे पुराने आहत सिक्के चांदी के हैं ।
प्रचुर स्वर्णकण नदी-धाराओं से बने जमावों से चुने जाते थे, जहाँ वे हिमालय से जल-धाराओं में बहकर मैदान में आते थे । ऐसे जमावों को प्लेसर्स कहते हैं । सोना कर्नाटक की कोलार खानों में मिलता है ।
सोने का सबसे पुराना अवशेष 1800 ई॰ पू॰ के आसपास के कर्नाटक के एक नवपाषाणयुगीन स्थल से मिलता है । इन खानों से सोना निकाले जाने के बारे में हमें ईसा की दूसरी सदी के आरंभ तक कोई जानकारी नहीं मिलती । कोलार दक्षिण कर्नाटक के गंगवंशियों की प्राचीनतम राजधानी माना जाता है ।
प्राचीन काल में उपयोग में लाया गया अधिकांश सोना मध्य एशिया और रोमन साम्राज्य से प्राप्त किया गया था । इसलिए स्वर्णमुद्रा का नियमित प्रचलन ईसा की आरंभिक पाँच सदियों में हुआ था । पर लंबी अवधि तक स्वर्ण मुद्रा चलाते रहने के लिए यहाँ पर्याप्त स्रोत नहीं था, इसलिए बाहर से सोने का आयात बंद होते ही स्वर्ण मुद्रा दुर्लभ होती गई ।
प्राचीन भारत में, विशेषत: मध्य भारत उड़ीसा और दक्षिण भारत में भांति-भांति के रत्नों और मोतियों का भी उत्पादन होता था । ईसा की आरंभिक सदियों में रोमन भारत की जिन व्यापार-वस्तुओं के लिए लालायित रहते थे, उनमें रत्नों का प्रमुख स्थान था ।