Read this article in Hindi to learn about the linguistic frame of ancient India.
मुख्य भाषाई वर्ग (Main Linguistic Classes):
भारत बहुसंख्यक भाषाओं का देश है । भारतीय भाषाई सर्वेक्षण (द लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया) के संपादक ग्रियर्सन के अनुसार भारतीयों द्वारा लगभग 180 भाषाएँ और प्राय: 550 बोलियाँ बोली जाती हैं ।
ये भाषाएँ चार महत्वपूर्ण वर्गों के अर्थात् ऑस्ट्रोएशियाटिक (Austro-Asiatic), तिब्बती-बर्मी (Tibeto-Burmese), द्रविड (Dravidian) और हिंद-आर्य (Indo-Aryan) वर्गों के अंतर्गत हैं । भारत में ऑस्ट्रोएशियाटिक भाषाएँ प्राचीनतम प्रतीत होती हैं और सामान्यतया मुंडा बोली के कारण जानी जाती हैं ।
इन भाषाओं के बोलने वाले पूरब में आस्ट्रेलिया तक और पश्चिम में अफ्रीका के पूर्वी समुद्रतट के निकट मैडागास्कर तक पाए जाते हैं । नृविज्ञानियों के विचारानुसार लगभग 40,000 ई॰ पू॰ में आस्ट्रियाई लोग आस्ट्रेलिया में आए ।
ADVERTISEMENTS:
इसलिए यह अधिक संभव है कि वे लोग 50,000 वर्ष पहले भारतीय उपमहादेश होते हुए अफ्रीका से दक्षिण-पूर्वी एशिया और आस्ट्रेलिया गए । ऐसा लगता है कि उस समय तक भाषा का जन्म हो चुका था ।
ऑस्ट्रोएशियाटिक (Austro-Asiatic):
ऑस्ट्रियाई भाषा परिवार दो उपपरिवारों में बँटा है:
(1) भारतीय उपमहादेश में बोली जानेवाली ऑस्ट्रोएशियाटिक और
(2) ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया में बोली जानेवाली ऑस्ट्रोनेशियन (Austronesian) ।
ADVERTISEMENTS:
ऑस्ट्रोएशियाटिक परिवार की मुंडा और मोन-खमेर दो शाखाएँ हैं । मोन-खमेर शाखा खासी भाषा का प्रतिनिधित्व करती है जो उत्तर-पूर्वी भारत में मेघालय अंतर्गत खासी और जामितिया पहाड़ियों में और निकोबारी द्वीपों में भी बोली जाती है । लेकिन मुंडा अपेक्षाकृत बहुत विस्तृत क्षेत्र में बोली जाती है ।
मुंडा भाषा झारखंड, बिहार, पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा में संथालियों द्वारा बोली जाती है । संथाल इस उपमहादेश की सबसे बड़ी जनजाति है । मुंडों, संथालों, होओं इत्यादि में प्रचलित बोलियाँ भी मुंडारी भाषा के रूप में जानी जाती हैं । ये पश्चिमी बंगाल, झारखंड और मध्य भारत में बोली जाती हैं ।
तिब्बती-बर्मी (Tibetan-Burmese):
भाषा का दूसरा वर्ग, अर्थात् तिब्बती-बर्मी, चीनी-तिब्बती परिवार की शाखा है । यदि हम चीन और अन्य देशों पर ध्यान देते हैं तो पता चलता है कि इस परिवार की भाषाओं के बोलनेवालों की संख्या ऑस्ट्राई परिवार की यहाँ तक कि हिंद-आर्य परिवार की भाषाओं के बोलनेवालों की संख्या से भी बहुत अधिक है ।
भारतीय उपमहादेश में तिब्बती-बर्मी बोलियाँ हिमालय के किनारे-किनारे उत्तर-पूर्वी असम से उत्तर-पूर्वी पंजाब तक फैली हैं । ये बोलियाँ भारत के उत्तर-पूर्वी पंजाब तक फैली हैं । ये बोलियाँ भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में प्रचलित हैं और बहुत लोग इस क्षेत्र में तिब्बती-बर्मी भाषा के विभिन्न रूप बोलते हैं ।
ADVERTISEMENTS:
अनेक जनजातियों द्वारा इस भाषा की 116 बोलियों का प्रयोग किया जाता है । जिन उत्तर-पूर्वी राज्यों में ये बोलियाँ बोली जाती हैं उनमें त्रिपुरा, सिक्किम, असम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मिजोरम और मणिपुर शामिल हैं । तिब्बती-बर्मी भाषा पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग क्षेत्र में भी प्रचलित है ।
यद्यपि आस्ट्रियाई और तिब्बती-बर्मी दोनों बोलियाँ द्रविड और हिंद-आर्य बोलियों से बहुत पुरानी हैं फिर भी इनका अपना साहित्य विकसित नहीं हो सका क्योंकि इनकी अपनी किसी प्रकार की लिखावट नहीं थी । स्वभावत: मुंडा और तिब्बती-बर्मी भाषाओं में लिखित सामग्री का अभाव है ।
बोलनेवाले जो दंतकथाएँ और परंपराएँ मौखिक रूप से जानते थे, वे पहले-पहल उन्नीसवीं सदी में ईसाई धर्मप्रचारकों द्वारा लिपिबद्ध की गईं । यह महत्वपूर्ण बात है कि ‘बुरुंजी’ नामक तिब्बती-बर्मी शब्द मध्यकाल में अहोमों के द्वारा वंश-वृक्ष के प्रलेख के अर्थ में प्रयुक्त होता था । यह संभव है कि मैथिली शब्द ‘पंजी’ का, जिसका अर्थ वंश-वृक्ष होता है, संपर्क उक्त तिब्बती-बर्मी शब्द से हो ।
द्रविड़ भाषा परिवार (Dravidian Language Family):
देश में बोली जानेवाली भाषाओं का तीसरा परिवार द्रविड़ भाषाओं का है । यह बोली लगभग पूरे दक्षिण भारत में व्याप्त है । द्रविड़ बोली का प्राचीनतम रूप भारतीय उपमहादेश के पाकिस्तान स्थित उत्तर-पश्चिमी भाग में पाया जाता है । ब्रहुई को द्रविड़ भाषा का प्राचीनतम रूप माना जाता है ।
भाषा विज्ञान के विद्वान द्रविड़ भाषा की उत्पत्ति का श्रेय एलम, अर्थात् दक्षिण-पश्चिमी ईरान को देते हैं । इस भाषा की तिथि चौथी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ निर्धारित की जाती है ब्रहुई इसके बाद का रूप है । यह अभी भी ईरान, तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बलूचिस्तान और सिंध राज्यों में बोली जाती है ।
यह कहा जाता है कि द्रविड़ भाषा पाकिस्तानी क्षेत्र होते हुए दक्षिण भारत पहुँची जहाँ इससे तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम जैसी इसकी मुख्य शाखाओं की उत्पत्ति हुई, लेकिन तमिल दूसरी भाषाओं से कहीं अधिक द्रविड़ है । झारखंड और मध्य भारत में बोली जानेवाली ओराँव अथवा कुरुख भाषा भी द्रविड़ है, लेकिन यह मुख्यत: ओराँव जनजाति के सदस्यों द्वारा बोली जाती है ।
हिंद-आर्य (Hind-Arya):
चौथा भाषा वर्ग हिंद-आर्य है जो हिंद-यूरोपीय परिवार का है । यह कहा जाता है कि हिंद-यूरोपीय परिवार की पूर्वी अथवा आर्य शाखा हिंद-ईरानी, दर्दी और हिंद-आर्य नामक तीन उपशाखाओं में बँट गई । ईरानी, जिसे हिंद-ईरानी भी कहते हैं, ईरान में बोली जाती है, और इसका प्राचीनतम नमूना अवेस्ता में मिलता है ।
दर्दी भाषा पूर्वी अफगानिस्तान उत्तरी पाकिस्तान और कश्मीर की है, यद्यपि अधिकतर विद्वान दर्दी बोली को हिंद-आर्य की शाखा मानते हैं । हिंद-आर्य भाषा पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली जाती है । लगभग 500 हिंद-आर्य भाषाएँ उत्तर और मध्य भारत में बोली जाती हैं ।
प्राचीन हिंद-आर्य भाषा के अंतर्गत वैदिक संस्कृत भी है । लगभग 500 ई॰ पू॰ से 1000 ई॰ तक मध्य हिंद-आर्य भाषाओं के अंतर्गत प्राकृत, पालि और अपभ्रंश भाषाएँ आती हैं, यद्यपि पालि और अपभ्रंश को भी प्राकृत माना जाता है ।
प्राकृत और शास्त्रीय संस्कृत दोनों का विकास प्रारंभिक मध्यकाल के दौरान भी होता रहा और 600 ई॰ से अनेक अपभ्रंश शब्दों का प्रचलन हुआ । हिंदी, बंगला, असमी, ओड़िया, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी और कश्मीरी जैसी आधुनिक हिंद- आर्य क्षेत्रीय भाषाओं का विकास मध्यकाल में अपभ्रंश भाषा से हुआ ।
यह बात नेपाली भाषा के मामले में भी है । कश्मीरी मूलत: दर्दी है, लेकिन यह गहरे रूप में संस्कृत से और परवर्त्ती प्राकृत से प्रभावित रही है । यद्यपि भारत में भाषाओं के चार वर्ग हैं तथापि उनके बोलनेवालों की अलग-अलग इकाइयाँ नहीं हैं । पूर्व में अनेक भाषा वर्गों के बीच पारस्परिक प्रभाव पड़ता रहा है ।
फलस्वरूप एक भाषा वर्ग के शब्द दूसरे भाषा वर्ग में प्रकट होते रहे हैं । यह प्रक्रिया बहुत पहले वैदिक काल में ही शुरू हो गई थीं । मुंडा और द्रविड दोनों के बहुसंख्यक शब्द ऋग्वेद में मिलते हैं । फिर भी अंतत: हिंद-आर्य भाषाभाषियों ने अपने सामाजिक-आर्थिक प्राबल्य के कारण अपनी भाषा को जंनजातीय भाषाओं पर लाद दिया ।
यद्यपि हिंद-आर्य प्रशासनिक वर्ग अपनी ही भाषा का प्रयोग करते थे तथापि वे जनजातीय बोलियों के प्रयोग के बिना जनजातीय साधन और मानव शक्ति का उपयोग नहीं कर सकते थे । इसके कारण शब्दों का पारस्परिक लेन-देन हुआ ।
मानवजातीय समूह और भाषा परिवार (Ethnic Groups and Language Families):
उपर्युक्त चार भाषा वर्गों को भारतीय उपमहाद्वीप के चार मानवजातीय समूहों की अलग-अलग भाषा बताया जाता है । ये चार समूह हबशीनुमा (नेग्रिटो), ऑस्ट्रालाई (ऑस्ट्रैलॉयड्स), मंगोलीय (मांगोलॉयडस्) और कॉकेसीय (कॉकेसायड्स) हैं ।
नाटा कद, छोटा चेहरा और छोटा होंठ हबशीनुमा (नेग्रिटो) की प्रमुख विशेषताएँ हैं । वे अंडमान द्वीप और तमिलनाडु की नीलगिरि पहाड़ियों में रहते हैं । वे केरल और श्रीलंका के भी माने जाते हैं । यह समझा जाता है कि वे कोई ऑस्ट्रियाई (ऑस्ट्रिक) भाषा बोलते हैं ।
ऑस्ट्रालाई (आस्ट्रालॉयड्स) भी नाटे कद के होते हैं, यद्यपि ये हबशीनुमा (नेग्रिटो) से लंबे होते हैं । इनका भी रंग काला होता है और शरीर पर बहुत रोंगटे होते हैं । वे मुख्यत: मध्य और दक्षिणी क्षेत्रों में रहते हैं, यद्यपि वे हिमालयी क्षेत्रों में भी दिखाई पड़ते हैं । वे ऑस्ट्रियाई अथवा मुंडा भाषाएँ बोलते हैं ।
मंगोलीय नाटे कदवाले अल्प रोंगेटेयुक्त शरीरवाले और चिपटी नाकवाले होते हैं । वे उपहिमालयी और उत्तरी-पूर्वी क्षेत्रों में रहते हैं । वे तिब्बती-बर्मी भाषाएँ बोलते हैं ।
कॉकेसीय लोग साधारणतया लंबे कदवाले, पूर्ण विकसित दाढ़ीयुक्त लंबे चेहरेवाले, गोरे चमड़े युक्त और संकुचित सुस्पष्ट नाकवाले होते हैं । वे द्रविड़ और हिंद-अर्थ दोनों भाषाएँ बोलते हैं । इस प्रकार कोई भाषा परिवार किसी खास मानवजातीय समूह तक सीमित नहीं रहता है ।