ब्रिटिश शासन के दौरान किसानों और जनजातीय विद्रोह |Read this article in Hindi to learn about farmers and tribal revolt in India during British rule.
भारतीय समाज के कुलीन जब पश्चिम की नैतिक समालोचनाओं का जवाब देने के लिए अपने समाज को अंदर से बदलने हेतु धार्मिक और सामाजिक सुधारों का श्रीगणेश कर रहे थे तब ग्रामीण समाज उपनिवेशी शासन के आरोपण का जवाब एक बिलकुल अलग ढंग से दे रहा था ।
पढ़े-लिखे नगरवासियों के विपरीत उपनिवेशी दबावों के फलस्वरूप बरबाद हो रहे परंपरागत कुलीनों और किसानों का प्रत्युत्तर प्रतिरोध और अवज्ञा वाला था जिसका परिणाम पुरानी व्यवस्था की पुनर्स्थापना के असफल प्रयासों का एक सिलसिला था ।
ऐसा नहीं कि मुगलकालीन भारत के लिए किसान विद्रोह अनजाने थे; वास्तव में अठारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में तो वे बहुत फैले जब मालगुजारी की बढ़ती माँगों ने मुगल समाधान (Compromise) को भंग कर दिया किसानों के निर्वाह की व्यवस्थाओं को प्रभावित किया तथा मुगलों की प्रांतीय नौकरशाही उसकी वसूली के लिए अधिकाधिक आततायी और कठोर होती गई ।
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जब उपनिवेशी व्यवस्था ने अपने पाँव जमाए अपनी शक्ति बढ़ाई तथा मालगुजारी संबंधी अनेक प्रयोग किए जिनका एकमात्र उद्देश्य मालगुजारी की आय को बढ़ाना था तब यह प्रवृत्ति और भी व्यापक हो उठी । इसलिए उपनिवेशी शासन के प्रतिरोध का इतिहास उसी के जितना पुराना है ।
अठारहवीं सदी के अंतिम और उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षा में कंपनी की सरकार के मालगुजारी संबंधी सुधारों ने भारत के ग्रामीण समाज को बुनियादी तौर पर प्रभावित और परिवर्तित किया । इस नए ढाँचे की एक झलक पाने के लिए हम डेनियल थॉर्नर और डी.एन. धनगरे द्वारा विकसित सामान्य मॉडल का सहारा ले सकते हैं जिसमें हम निश्चित ही क्षेत्रीय भिन्नताओं की संभावना रखेंगे ।
इस मॉडल में पहला समूह बड़ी जागीरों अकसर अनेक गाँवों पर आधारित जागीरों पर मालिकाना अधिकारों से संपन्न जमींदारों का था । ये एक अनुपस्थित लगानभोगी वर्ग के लोग थे जिनकी भूमि के प्रबंध या कृषि के सुधार में दिलचस्पी नहीं थी या नहीं के बराबर थी ।
दूसरे समूह में धनी किसान आते थे, जिनको आगे दो उपसमूहों में बाँटा जा सकता था धनी भूस्वामी और धनी पट्टेदार (Tenant) में । जमीन पर पहले उपसमूह को मालिकाना हक प्राप्त थे पर आम तौर पर अपने ही गाँव में और वे खेती में खुद भाग भले ही न लेते हों उसमें निजी रुचि जरूर लेते थे ।
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दूसरी ओर धनी पट्टेदारों के पास काफ़ी बड़ी जोतें होती थीं उनके दखली अधिकारों को सुरक्षा प्राप्त होती थी और वे अपने जमींदारों को नाममात्र लगान देते थे ।
तीसरे समूह में मझोले किसान आते थे जिनको इन उपसमूहों में बाँटा जा सकता था:
(1) मझोले आकार की जोतों के स्वामी या आत्मनिर्भर किसान जो पारिवारिक श्रम के सहारे काम करते थे, और
(2) बड़ी जोतों वाले पट्टेदार जो दूसरी विशेष सुविधाओं से संपन्न पट्टेदारों से अधिक लगान देते थे ।
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चौथे समूह में गरीब किसान आते थे अर्थात् ऐसी छोटी जोतों के स्वामी जो परिवार के निर्वाह के लिए पर्याप्त नहीं होती थीं छोटी जोतों वाले पट्टेदार जिनको पट्टेदारी की कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं थी तथा बटाईदार या गैर-दखली काश्तकार । धनगरे के अनुसार पाँचवाँ समूह भूमिहीन मजदूरों का होता था ।
ऊपर बताया गया ढाँचा उत्पादन के संबंधों पर आधारित एक मनमाना ढाँचा है और सभी क्षेत्रों में ऐसी सभी श्रेणियाँ नहीं पाई जातीं । और भी सामान्यत: कहें तो यह एक पिरामिड के आकार का खेतिहर समाज था जिसमें 65 से 70 प्रतिशत खेतिहर आबादी जमीन की मालिक नहीं थी ।
वास्तव में खेतिहर सामाजिक ढाँचे की इन जटिलताओं का 1857 के पहले की अपेक्षा उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में और भी भरपूर विकास हुआ । 1857 के बाद के काल में डेविड हार्डिमन के वर्गीकरण का सहारा लें तो और भी व्यापक ढंग से भारतीय खेतिहर समाज को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता था ग्रामीण धनिक (Magnates) जो जमींदारों की हैसियत से धीरे-धीरे अपनी शक्ति बढ़ाते जा रहे थे धनी किसान या कृषक और गरीब किसान ।
अकसर तर्क दिया जा सकता है कि अधिक स्वतंत्र होने के नाते धनी या मझोले किसान हमेशा अत्यधिक अतिवादी तत्त्व होते थे जो किसान विद्रोहों का आरभ कर सकें या उन्हें जारी रख सकें । लेकिन अठारहवीं सदी के अंतिम या उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में भारत में कंपनी की सरकार के भूमिसुधारों ने और मालगुजारी की भारी माँगों ने पूरी ग्रामीण आबादी को इतनी बुरी तरह प्रभावित किया कि देश के विभिन्न भागों में किसान वर्ग के सभी हिस्सों ने अनेक हिंसक प्रतिरोधों में भाग लिया ।
इसी कारण हम ”किसानों” की बात करेंगे जो कंपनी राज के विरुद्ध खड़े हुए और उनकी बातें करेंगे जो उस राज के समर्थक थे या उससे लाभान्वित हुए बजाय इसके कि उनके अंदर और भी सूक्ष्म भेदों की बात करें । ब्रिटिश राज की पहली सदी के दौरान सबसे पहले विद्रोहों का एक सिलसिला देखा जा सकता है जिनको कैथलीन गफ्र ने ”पुन:प्रतिष्ठा विद्रोह” (Restorative rebellions) था कहा है ।
इसका कारण है कि इनका आरंभ असंतुष्ट स्थानीय शासकों मुगल अधिकारियों और संपत्ति से वंचित जमींदारों ने किया । अधिकांश मामलों में उनको स्थानीय किसानो का समर्थन मिला जिनका पहला उद्देश्य पुरानी व्यवस्था को या पहले के खेतिहर संबंधो को बहाल करना था ।
इस क्रम में 1778-81 के दौरान अवध के राजा चैतसिंह और दूसरे जमींदारों के विद्रोह का और उसके बाद 1799 में अवध के अपदस्थ नवाब वजीर अली के विद्रोह का उल्लेख किया जा सकता है । वहाँ और खासकर अवध के उत्तरी और दक्षिणी भागों में 1830 के दशक तक कठिनाइयाँ जारी रहीं और मालगुजारों के लिए समस्याएँ खड़ी होती रहीं । उसके बाद 1842 में बुंदेला राजपूत सरदारों ने विद्रोह किया जिससे कुछ वर्षो तक इस क्षेत्र में खेती ठप रही और व्यापार मार्ग खतरों से भरे रहे ।
दक्षिण में उत्तरी अर्काट के तिरुनेल्वेली जिले में और आध्र के समर्पित (Ceded) जिलों मैं 1799 और 1805 के बीच मद्रास सरकार को स्थानीय सरदारों का कड़ा विद्रोह झेलना पड़ा जिनको पालेगर कहा जाता था । जहाँ कंपनी की सरकार उन्हें केवल सैन्य-सेवा के बदले बंदोबस्त पानेवाले जमींदार मानती थी वहीं स्थानीय किसान समाज में उनको ऐसे प्रभुतासंपन्न शासक समझा जाता था जिन्होंने सत्ता मुगलों से पहले के विजयनगर साम्राज्य से विरासत में पाई थी ।
इसलिए जब उन्होंने कंपनी के दस्तों का प्रतिरोध किया तौ स्थानीय किसान समाज ने उनका न केवल खुलकर समर्थन किया बल्कि उनको लोकनायक तक माना । दक्षिण में ही पझसी राजा का विद्रोह हुआ जिसने 1796-1805 के दौरान मलाबार को हिलाकर रख दिया और फिर त्रावणकोर रजवाड़े के दीवान वेन्न थैपी ने विद्रोह किया जिसकी कमान में पेशेवर सिपाहियों और किसान स्वयंसेवकों की एक बड़ी सेना थी ।
लेकिन इन सभी हथियारबंद विद्रोहों को अंतत ब्रिटिश सेना ने कुचल डाला । कुछ मामलों में विद्रोहियों को उनके अधिकार मालगुजारी की कुछ अधिक नरम शर्तो के साथ वापस लौटा दिए गए । लेकिन अधिक सामान्य ढंग से कहें तो उन्हें गफ्र के शब्दों में ”निवारक बर्बरता” (Exemplary savagery) के साथ कुचल किसानों ने अकसर पहल करके ब्रिटिश राज का प्रतिरोध किया ।
बंगाल के उत्तरी जिलों में 1783 का रंगपुर विद्रोह ऐसे विरोध का एक आदर्श उदाहरण है । मालगुजारी की वसूली के ठेकों वाले आरंभिक दिनों में मालगुजारी की भारी माँगे करके और अकसर अवैध करों (Cesses) की वसूली करके मालगुजार और कंपनी के अधिकारी किसानों का दमन करते थे ।
देवी सिंह या गंगागोविंद सिंह जैसे मालगुजार सबसे बुरे अपराधी थे जिन्होंने रंगपुर और दीनाजपुर जिलों के गाँवों में आतंक का साम्राज्य फैला रखा था । किसानों ने पहले तौ उद्धार की गुहार लगाते हुए कंपनी की सरकार को एक प्रार्थनापत्र भेजा ।
लेकिन जब उनकी न्याय की प्रार्थना अनसुनी कर दी गई तब उन्होंने अपने आपको संगठित किया अपना एक नेता चुना एक बड़ी सेना तैयार की आदिम तीर-कमानों और तलवारों से स्वयं को लैस किया स्थानीय कचहरी पर हमला किया अनाज के गोदाम लूटे और कैदियों को जबरन छुड़ा लिया ।
सुगत बोस ने जिन चीजों को ”उपनिवेश-पूर्व शासन व्यवस्था के प्रतीक” कहा है उनके नाम पर विद्रोहियों ने अपनै आदोलन को वैध ठहराने के प्रयास किए । उन्होंने अपने नेता को ‘नवाब’ कहा अपनी सरकार बनाई और अपने आंदोलन का खर्च उठाने के लिए कर वसूल किए ।
देवी सिंह की अपील पर वरन हेस्टिंग्ज के काल में कंपनी की सरकार ने विद्रोह के दमन के लिए दस्ते भेजे । लेकिन उसके निर्मम दमन के बाद मालगुजारी-ठेका की व्यवस्था में कुछ सुधार भी किए गए । इसी तरह दक्षिण में टीपू सुल्तान की निर्णायक हार और मैसूर के पुराने राजघराने की पुन: स्थापना के बाद मालगुजारी की माँगे बढ़ा दी गई जिसका बोझ अंतत किसानों पर पड़ा ।
भ्रष्ट अधिकारियों को निर्मम लूट-खसोट ने उनकी निराशाजनक स्थिति को और भी बदतर बनाया और नागर प्रांत में उन्हें 1830-31 में खुले विद्रोह के लिए प्रेरित किया । यहाँ भी विद्रोहियों ने अपने नेता चुने मैसूर के शासको की सत्ता को ललकारा और आखिरकार आगे बढ़ रही ब्रिटिश सेना के आगे टिक न सके । इस काल के अनेक किसान आदोलनों में धर्म ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और निरूपण का ५० ढर्रा सामने रखा जिसके सहारे किसानों ने ब्रिटिश राज को समझा और प्रतिरोध की धारणा विकसित की ।
दूसरे शब्दों में उनके धर्म ने ही उनकी प्रतिरोध की विचारधारा का निरूपण किया । इनमें सबसे पहला विद्रोह संन्यासी-फकीर विद्रोह था जिसने 1763 और 1800 के बीच उत्तरी बंगाल को तथा बिहार के साथ लगे क्षेत्रों को हिलाकर रख दिया ।
अपनी लड़ाकू परंपरा के लिए विख्यात दसनामी संन्यासी भूस्वामी थे सूद पर पैसा चलाते थे तथा कच्चे रेशम खुदरा मालों खुरदुरे कपड़ों ताँबे और मसालों का व्यापार करते थे । शाहे मदार के आरंभ किए हुए सूफी सिलसिले से अपना नाता जोड़नेवाले मदारी फकीरों को मुगलकाल में माफ़ी की लगानमुक्त जमीनें मिली हुई थी और उनके अपने सशस्त्र अनुयायी होते थे ।
लेकिन हथियारबंद घुमक्कड़ संन्यासियों के ये समूह कंपनी की मालगुजारी की भारी माँगों माफ़ी की जमीनों की जली और व्यापार पर एकाधिकार से प्रभावित हुए । फिर 1769-70 के अकाल से पीड़ित होनेवालों दुखी छोटे जमींदारों की एक बड़ी संख्या घर बिठा दिए गए सैनिकों और गाँवों की गरीबों के कारण उनकी कतारें और भी बढ़ीं ।
इन दोनों धार्मिक समूहों की उल्लेखनीय दार्शनिक निकटता उनके आपसी संबंधों सांगठनिक तंत्र और अनुयायियों से संवाद के तंत्र ने विद्रोहियों की लामबंदी में सहायता पहुँचाई । लेकिन टकराव अगर अपरिहार्य हुआ तो इसलिए कि कंपनी की सरकार हथियारबंद संन्यासियों के ऐसे घुमक्कड़ गिरोहों को सहन करने को तैयार न थी जो बंगाल में प्रतिरोध किए बिना नियमित रूप से मालगुजारी देनेवाले एक बसे-बसाए किसान समाज के पसंदीदा आदर्श को गंभीर चुनौती देते थे ।
इसलिए 1760 के दशक के आरंभ से ही लेकर 1800 के दशक के मध्य तक संन्यासी-फ्रकीर समूह और ईस्ट इंडिया कंपनी के सशस्त्र बलों के बीच बंगाल और बिहार के एक व्यापक क्षेत्र में बार-बार संघर्ष हुए । विद्रोह जब चरम सीमा पर पहुँचा तो भागीदारों की संख्या बढ्कर पचास हजार तक जा पहुँची थी हालाकि 1800 के बाद यह कम होने लगी ।
लेकिन पूर्वी बंगाल के मैमनसिंह जिले के शेरपुर परगना में एक और आंदोलन उठ खड़ा हुआ; वहाँ करीम शाह और फिर उसके वारिस टीपू शाह ने गारो हजंग और हादी जैसे हिंदू रंग में रँगे कबीलों के बीच एक नए धार्मिक आंदोलन का आरंभ किया ।
इस क्षेत्र में कंपनी के शासन ने जब जड़ें जमाईं और स्थायी बंदोबस्त के तहत जमींदारी व्यवस्था और भी मजबूत हुई तो जमींदारों द्वारा वसूले जा रहे अवैध अबवाब (करों) और डिप्टी कलेक्टर डनबर द्वारा किए गए नए मालगुजारी बंदोबस्त के विरुद्ध किसानों की शिकायतें बढ़ती गई ।
ऐसी स्थिति में 1824 के आसपास टीपू के पागलपंथी संप्रदाय ने एक नई व्यवस्था और न्यायसंगत लगानों का वादा पेश किया । यह नई भावना धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र में व्याप्त हो गई और इसने एक हथियारबंद विद्रोह का रूप ले लिया जिसको 1833 में सेना की मदद से कुचलना पड़ा ।
उन्हीं दिनों बंगाल के एक और भाग में तीतू मीर के नेतृत्व में तरीखा-ए-मुहम्मदिया (मुहम्मद साहब का तौर-तरीका) नाम से एक और धार्मिक आंदोलन विकसित हो रहा था । स्थानीय जमींदारों के एक किराये के लठैत रह चुकने के बाद तीतू ने मक्का की यात्रा की और सैयद अहमद बरेलवी से दीक्षा पाई ।
वापस आकर वे जमुना और इच्छामती नदियों के दोनों ओर परगना जिला के उत्तरी भाग में 250 वर्गमील क्षेत्र में इस्लाम का प्रचार करने लगे । उनके अनुयायियों में मुख्यत: गरीब मुस्लिम किसान और दस्तकार थे जो एक समुदाय के रूप में संगठित थे अलग पहनावा और दाढ़ी उनकी पहचान थी ।
चूंकि किसानों की अपनी शक्ति की इस घोषणा ने सुस्थापित शक्ति-संबंधों को चुनौती दी इसलिए स्थानीय जमींदारों ने उनपर अनेक प्रकार से अंकुश लगाने के प्रयास किए जैसे दाढ़ी पर एक कर लगाकर । तीतू मीर और उनके अनुयायियों ने मौजूदा सत्ता को जिसके प्रतिनिधि स्थानीय जमींदार निलहे साहब और राज्य थे ललकारा अपनी खुद की एक व्यवस्था स्थापित की करों की वसूली शुरू की और इलाके में आतंक फैला दिया ।
अंतत: सरकार को सेना और तोपखाने को लामबंद करना पड़ा और तीतू मीर का आंदोलन कुचलने के लिए 16 नवंबर, 1831 को उनके बाँसों के किलों को ध्वस्त कर दिया गया । लगभग उन्हीं दिनों हाजी शरीअतुल्लाह के नेतृत्व में पूर्वी बंगाल के किसानों में फराइजी आंदोलन नाम का एक और धार्मिक आंदोलन विकसित हुआ ।
ऊपर वर्णित तरीक्रा-ए-मुहम्मदिया आंदोलन की मूल प्रेरणा अठारहवीं सदी के दिल्ली के सूफी संत शाह वलीउल्लाह की शिक्षाओं में निहित थी और उसे प्रोत्साहन रायबरेली के शाह सैयद अहमद से मिलता था जिनको उपनिवेशी भाषा में आम तौर पर ‘वहाबी’ कहा जाता था ।
दूसरी ओर फ्रराइजी आंदोलन देसी मूल का था । उसने सभी गैर-इस्लामी आचार-विचारों को बाहर निकालकर और कुरान को उसका एकमात्र आध्यात्मिक मार्गदर्शक ठहराकर इस्लाम को शुद्ध करने का प्रयास
किया ।
इस आंदोलन का महत्त्व उसकी सामाजिक जड़ों में निहित था क्योंकि पूर्वी बंगाल के गरीब ग्रामीण मुसलमान इस धार्मिक संघ में एकजुट हुए और उन्होंने जमींदारों निलहे साहबों और ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध विद्रोह किया ।
हालांकी उनके गुस्से का शिकार मुख्यत: हिंदू जमींदार हुए पर मुसलमान जमींदार भी अपने को सुरक्षित अनुभव नहीं करते थे । जब 1839 में शरीअतुल्लाह की मृत्यु हुई तो उनके बेटे दूधू मियाँ ने नेतृत्व सँभाल लिया और एक समतावादी विचारधारा के आधार पर किसानों को एकजुट किया ।
उसकी घोषणा थी कि सारी जमीन अल्लाह की है और इस कारण उसपर लगान या कर वसूल करना खुदाई कानून के विरुद्ध है । उसने फरीदपुर बाकरगंज ढाका पबना टिपरा जैसोर और नोआखली जिलों में ग्राम स्तर के संगठनों का एक जाल तैयार किया ।
वह ब्रिटिश न्यायिक संस्थाओं के विकल्प रूप में स्थानीय अदालतें लगाता था और अपने आंदोलन का खर्च चलाने के लिए कर वसूल करता था । 1840 और 1850 के दशकों में जमींदारों और निलहों के साथ लगातार हिंसक टकराव होते रहे ।
1862 में दूधू मियाँ की मृत्यु के बाद आंदोलन में अल्पकालिक ठहराव तो आया पर उसके उत्तराधिकारी नया मियाँ ने 1870 के दशक में एक और ही स्तर पर उसे नए सिरे से संगठित किया । 1840 और 1850 के दशकों में ऐसा ही एक और आदोलन जिसमें धर्म की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही दक्षिण भारत के मलाबार क्षेत्र का मोपला विद्रोह था । ये मोपला (या मपिला) उन अरब व्यापारियों के वंशज थे जो इस क्षेत्र में बस गए थे और जिन्होंने यहीं की नायर और तीयर स्त्रियों से विवाह किए थे ।
बाद में निचली जातियों के हिंदुओं के जैसे चेरुमार नाम की दास जाति के धर्म-परिवर्तन के कारण उनकी संख्या और बड़ी 1843 के दासप्रथा उन्यूलन कानून (स्लेवरी ऐबोलिशन ऐक्ट) ने इन चेरुमारों को और भी अधिक सामाजिक समस्याओं में फँसा दिया था ।
ये मोपला धीरे-धीरे खेती पर निर्भर होते गए और खेतिहर फेदारों भूमिहीन मजदूरों छोटे व्यापारियों और मछुआरों के समुदाय बन गए । अंग्रेजों ने जब 1792 में मलाबार को जीता तो उन्होंने जमीन में वैयक्तिक संपत्ति के अधिकार पैदा करके भूमि-संबंधों को नया रूप देने के प्रयास किए ।
परंपरागत व्यवस्था में जमीन की मात्र पैदावार जेनमी (जेनम पट्टेदार), कनामदार या कनाक्करन (कनम पट्टेदार) और खेतिहर के बीच बराबर-बराबर बँट जाती थी । जेनमी को जमीन का एकमात्र स्वामी स्वीकार करके और उसे पट्टेदार को बेदखल करने का अधिकार देकर ब्रिटिश व्यवस्था ने इस बंदोबस्त को उलट-पुलट दिया और बाकी दो श्रेणियों को पट्टेदारों और लगानदारों के स्तर तक गिरा दिया ।
इसके अलावा अति-आकलन (Over-assessment) अवैध करों के भारी बोझ तथा न्यायपालिका और पुलिस के जमींदार-समर्थक रवैये का अर्थ यह था कि के.एन. पणिक्कर के अनुसार मलाबार के किसान ”ज़मींदार और राज्य की दोहरी वसूलियों के कारण बेहद बदहाली की दशाओं में रहते और काम करते थे ।”
इसलिए पूरी उन्नीसवीं सदी में ऐसी घटनाओं की एक श्रुंखला सामने आई जो दमन और शोषण के कृत्यों के विरुद्ध ग्रामीण गरीबों के विरोध और प्रतिरोध को व्यक्त करती थी । लेकिन इन खेतिहर संबंधों का सबसे अहम पहलू यह था कि अधिकांश जेनमी सवर्ण हिंदू थे और किसान मोपला मुसलमान थे ।
इस सामाजिक चौखटे के अंदर वेलियमकोड के उमर काजी मम्मुरम के सैयद अलवी काल और उनके बेटे सैयद फजल पूक्कोया काल तथा सैयद सनाउल्लाह मकटी काल ने ऐसी जनप्रिय विचारधारा को नवजीवन देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसमें धर्म और आर्थिक शिकायतों ने घुल-मिलकर खुले विद्रोह की मानसिकता को जन्म दिया ।
मस्जिदें लामबंदी के केंद्र बन गई और उनके निशाने पर थे हिंदू जेनमी उनके मंदिर और वे ब्रिटिश अफसर जो उनको बचाने के लिए आगे बढ़ते थे । तीन गंभीर घटनाएँ हुईं-मंजेरी में अगस्त 1849 में कुलातूर में अगस्त 1851 में (ये दोनों स्थान दक्षिणी मलाबार में हैं) और उत्तर में स्थित मत्तनूर में जनवरी 1852 में ।
विद्रोह को कुचलने के लिए ब्रिटिश सशस्त्र बल लगाए गए । दमन के कृत्यों ने लगभग बीस साल तक शांति बनाए रखी पर मोपले 1870 में फिर विद्रोह कर बैठे और घटनाओं का क्रम इस बार भी लगभग वैसा ही रहा ।
1857 से पहले के कुछ किसान विद्रोहों में शुद्ध रूप से आदिवासी जनता ने भाग लिया जिसकी राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए तथा स्थानीय संसाधनों पर जिसके नियंत्रण के लिए ब्रिटिश राज की स्थापना और उसके गैर-आदिवासी कारिंदों (एजेटों) के आगमन के कारण खतरे पैदा हो गए थे ।
उदाहरण के लिए भील पहले मराठा भू-भाग में स्थित खानदेश की पहाड़ियों में संकेंद्रित (Concentrated) थे । इस क्षेत्र पर 1818 में अंग्रेजों का अधिकार होने के साथ यहाँ बाहरी लोग पहुँचे और इन भीलों का सामुदायिक जीवन अस्तव्यस्त हो गया ।
1819 में ब्रिटिश सेना ने एक आम भील विद्रोह को कुचला और हालांकि उनकी शांत करने के लिए कुछ सुलह-सफाई के कदम उठाए गए पर स्थिति 1831 तक अस्थिर ही बनी रही जब तक पुरंधर के रामोशी नेता उमाजी राजे को पकड़कर फाँसी नहीं दे दी गई ।
जिला अहमदनगर के कोली आदिवासी कबीले के लोग शक्ति के लिए भीलों के स्थानीय प्रतियोगी थे उन्होंने (कोलियों ने) भी 1829 में अंग्रेजों को चुनौती दी लेकिन सेना के एक बड़े दस्ते ने जल्द ही उन्हें कुचल दिया ।
लेकिन विद्रोह की चिनगारी फिर भी सुलगती रही और 1844-46 में फिर भड़क उठी जब एक स्थानीय कोली नेता ने दो साल तक ब्रिटिश सरकार की सफलतापूर्वक अवज्ञा की । बिहार और उड़ीसा के छोटानागपुर और सिंहभूमि क्षेत्र में एक और प्रमुख आदिवासी विद्रोह 1831-32 का कोल विद्रोह हुआ । इन क्षेत्रों में आदिवासी सदियों से स्वतंत्र सत्ता का उपभोग करते आ रहे थे ।
लेकिन अंग्रेजों की पैठ और अंग्रेजी कानून के आरोपण ने अब कबीलों के पुश्तैनी सरदारों की सत्ता के लिए संकट पैदा कर दिए । उधर बाहरी लोगों को अधिक लगान पर जमीनें उठाकर छोटानागपुर के राजा ने भी आदिवासियों को बेदखल करना शुरू कर दिया ।
गैर-आदिवासियों के इस बसाव ने और आम तौर पर अर्थात् बाहरी कहे जानेवाले सौदागरों और सूदखोरों को निरंतर भूमि के हस्तांतरण ने एक जनविद्रोह को जन्म दिया क्योंकि आदिवासियों की न्याय की पुकार अधिकारियों का दिल छूने में असफल रही ।
इस विद्रोह का रूप बाहरी लोगों की संपत्तियों पर हमलों का था न कि उनके जीवन पर । दूसरे शब्दों में लूट-मार और तबाही किसानों के विरोध के प्रमुख ढंग थे जबकि हत्या की दर नगण्य थी । लेकिन इस विद्रोह ने ”कुछ ही सप्ताहों के अंदर छोटानागपुर से (ब्रिटिश) राज का सफ़ाया कर दिया ।” उथल-पुथल को कुचलने और व्यवस्था की पुनर्स्थापना के लिए ब्रिटिश सेना बुलानी पड़ी ।
1855-56 का संथाल हूल (विद्रोह) इस काल का सबसे प्रभावशाली आदिवासी आंदोलन था । ये संथाल पूर्वी भारत के विभिन्न जिलों, जैसे: कटक, ढालभूमि, मानभूमि, बड़ाभूमि, छोटानागपुर, पालामऊ (पलामू), हजारीबाग, मेदिनीपुर, बाकुड़ा और बीरभूमि में बिखरे हुए थे ।
अपने घरों से भगाए जाने पर इन्होंने राजमहल की पहाड़ियों के आसपास का इलाका साफ किया और उसे दामने-कोह (पहाड़ का दामन) नाम दिया । आदिवासियों की जमीनें जब किराये पर गैर-आदिवासी जमींदारों और सूदखोरों को दे दी गई तो धीरे-धीरे वे हताशा की स्थिति में पहुँच गए ।
बाहरी लोगों (संथालों की भाषा में डीकू) की इस पैठ ने उनकी जानी-पहचानी दुनिया को एकदम नष्ट कर दिया और उनको अपने छिन चुके क्षेत्र को वापस पाने के लिए कार्रवाई पर विवश कर दिया । जुलाई 1855 में जब जमींदारों और सरकार के नाम उनकी चेतावनी अनसुनी कर दी गई तो तीर-कमान से लैस कई हजार संथालों ने ”अपने उत्पीड़कों अर्थात् जमींदारों, महाजनों और सरकार की अपवित्र तिकड़ी के विरुद्ध ”खुला विद्रोह शुरू कर दिया ।”
यह विद्रोह तेज़ी से फैला तथा भागलपुर और राजमहल के बीच एक बड़े क्षेत्र में कंपनी का शासन लगभग पूरी तरह समाप्त हो गया जिससे सरकारी तंत्र में बौखलाहट मच गई । इस चरण में निचली जातियों के गैर-आदिवासी किसान संथाल विद्रोहियों की सक्रिय सहायता कर रहे थे ।
विद्रोह के विरुद्ध निर्मम कदम उठाए गए सेना लामबंद की गई तथा बदले की भावना से संथालों के गाँव एक के बाद एक करके जलाए जाने लगे । एक गणना के अनुसार विद्रोह के पूरी तरह कुचले जाने से पहले तक 30-50 हज़ार विद्रोहियों में से 15-20 हजार मारे जा चुके थे ।
उसके बाद ब्रिटिश सरकार उनके बारे में और भी सावधान हो गई और संथाल आबादी वाले क्षेत्र को संथाल परगना नाम से एक अलग प्रशासनिक इकाई बना दिया गया जिसमें उनकी अलग आदिवासी संस्कृति और पहचान को मान्यता दी गई थी ।
ऊपर वर्णित किसान विद्रोह पूरे उपमहाद्वीप में हुए इसी प्रकार के आंदोलनों की एक लंबी सूची में शामिल कुछ प्रमुख आंदोलन हैं । उनके उद्गम और चरित्र के बारे में कोई भी सामान्यीकरण जोखिम का काम होगा । फिर भी एक बहुत व्यापक अर्थ में हम कह सकते हैं कि उपनिवेशी काल में बदलते आर्थिक संबंधों ने किसानों का दुख बढ़ाया और उनकी तकलीफ़ इन विभिन्न विद्रोहों में व्यक्त हुई ।
उपनिवेश-पूर्व काल में भारत की खेतिहर अर्थव्यवस्था जीवन निर्वाह की सोच पर आधारित थी । किसान इससे परेशान नहीं होते थे कि उनसे कितना वसूल किया जा रहा है; दुर्लभता के माहौल में यदि उनकी मौलिक आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त पैदावार छोड़ दी जाती थी तो भी वे विद्रोह नहीं करते थे ।
उपनिवेश-पूर्व काल का मुगल समझौता जिसका वर्णन किया जा चुका है अठारहवीं सदी में भंग हो गया । अब ज्यादा जोरदार ढंग से अधिशेष वसूल किया जाने लगा । इससे किसानों के निर्वाह के बंदोबस्त प्रभावित हुए और फिर बार-बार किसान विद्रोह फूटे; उपनिवेशी मालगुजारी व्यवस्था ने इस प्रक्रिया को और मजबूत ही बनाया ।
उपनिवेशी खेतिहर अर्थव्यवस्था में निरंतरता से अधिक परिवर्तन का तत्त्व पाया जाता था । भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में खींचने की ब्रिटिश मुहिम और पूँजीवादी कृषि के विकास के प्रयासों ने अनेक मामलों में खेतिहर संबंधों पर विनाशकारी प्रभाव डाला ।
भूमि से संपत्ति के अधिकार और फलस्वरूप एक भूमि बाजार के सृजन के कारण प्रथासम्मत उत्पादक संबंधों की जगह अनुबंध ने ले ली । व्यवसायीकरण बढ़ा तो धीरे-धीरे खिराज (Tribute) की जगह मुनाफा अधिशेष की वसूली का प्रमुख रूप हो गया लेकिन इस रूपांतरण की प्रक्रिया कभी पूरी नहीं हुई ।
खिराज और मुनाफा साथ-साथ चलते रहे और इसका परिणाम खेतिहर संबंधों के सभी सुपरिचित मानकों का टूटना था । उपनिवेशी शासन का परिणाम वही हुआ जिसे रणजीत गुहा ने ”जमींदारी का पुनर्जन्म” कहा है । संपत्ति के संबंधों में आए परिवर्तनों के कारण किसान अपने दखली अधिकारों से वंचित हो चुके थे और गैर-दखली काश्तकार बन चुके थे अर्थात् उनकी स्थिति में भारी परिवर्तन आया ।
ब्रिटिश सरकार ने पट्टेदारी के सवाल पर 1859 तक न विचार किया न उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ किया । राज्य की भारी मालगुजारी की माँग का बोझ इसलिए किसानों पर आसानी से डाला जा सकता था; मालगुजारी के अधिकारियों के भ्रष्ट तौर-तरीकों और कठोर रवैयों ने उनकी बदहाली को और भी बढ़ाया ।
जमींदारों की किसानों के उत्पीड़न की शक्ति ब्रिटिश राज के अंतर्गत काफी बड़ी । उनके सैन्य बल पर वास्तव में कोई अंकुश नहीं लगा और जमींदार-दारोगा गठजोड़ के माध्यम से इसका व्यवहार होता रहा जबकि नई अदपतों और लंबी न्यायिक प्रक्रियाओं ने उनकी दमन की शक्ति को और बढ़ाया ।
जमींदारों को उत्पीड़न के ऐसे कारिंदे समझा जाने लगा जिनको राज्य का संरक्षण प्राप्त था; इसलिए जमींदार विरोधी शिकायतें आसानी से अंग्रेजों के विरुद्ध भी होने लगीं । जमींदार पूँजीवादी उद्यम से अधिक लूट-खसोट में रुचि लेते थे क्योंकि वे भी लगातार जानलेवा कानूनों के दबाव में और मालगुजारी की भारी माँगों के दबाव से परेशान रहते थे ।
भूमि बाजार के विकास से जमीनों के हस्तांतरण की दर बड़ी और जिस बात ने इस प्रक्रिया को और तीव्र किया वह था ऋणों का नया तंत्र । मालगुजारी की भारी माँग के कारण किसानों की ऋण की आवश्यकता बड़ी और इस बात ने ग्रामीण समाज के ऊपर सूदखोरों और सौदागरों की शक्ति को और बढ़ाया ।
बढ़ती कर्जदारी के कारण जमीनों से बेदखलियों होने लगीं और जमीनें गैर-खेतिहर वर्गो के हाथों में जाने लगीं । रणजीत गुहा के शब्दों में जमींदार सूदखोर और राज्य इस तरह ”किसान पर प्रभुत्व का एक संश्लिष्ट तंत्र बन गए ।
आदिवासी किसानों के दुखी होने के कुछ विशेष कारण भी थे । वे बसे-बसाए हिंदू किसानों के समाजों की परिधि पर रहते थे और उनकी संस्कृति में जो एक समतावादी लोकाचार पर आधारित थी एक स्वतंत्रता थी ।
कालक्रम में उनका क्रमिक हिंदूकरण उनको कर्मकांडी सोपानक्रम के दमन का शिकार बनाता रहा और फिर ब्रिटिश मालगुजारी व्यवस्था के विस्तार ने आदिवासी संसार की स्वतंत्रता को पूरी तरह नष्ट कर दिया । आदिवासियों की जमीनें जब गैर-आदिवासी उत्पीड़कों अर्थात् जमींदारों और सूदखोरों के हाथों में जाने लगीं तो वे वृहत्तर अर्थतंत्र में सिमट आए ।
फिर उनको नए जंगल कानून अपने स्वाभाविक अधिकारों पर अतिक्रमण समान लगने लगे । दूसरे शब्दों में ब्रिटिश राज के आरोपण ने उनकी शक्ति स्वतंत्रता और संस्कृति के स्वायत्त क्षेत्रों को मिटा डाला । बाहरी दखलअंदाजों सूडों और डीकुओं के हाथों उनके परिकल्पित स्वर्णिम अतीत के विनाश ने स्पष्ट है कि हिंसक प्रतिरोधों को जन्म दिया ।
आरंभिक उपनिवेश काल के किसान और आदिवासी विद्रोहों पर अनेक दृष्टिकोणों से विचार किया गया है । ब्रिटिश प्रशासन उनको कानून और व्यवस्था की समस्याएँ मानता था और विद्रोहियों को सभ्यता का विरोध कर रहे आदिम जंगलियों के रूप में पेश किया जाता था ।
आगे चलकर राष्ट्रवादियों ने किसानों और आदिवासियों के इतिहासों को उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के लिए अपनाने के प्रयास किए और उन्हें आधुनिक राष्ट्रवाद के प्रागैतिहास के रूप में पेश किया । इतिहासकार एरिक स्टोक्स ने उन्हें ”प्राथमिक प्रतिरोध” कहा था, अर्थात् ”एक परंपरागत समाज का हिंसापूर्ण अवज्ञा का कृत्य जिसका परिणाम आम तौर पर उपनिवेशी शासन का आरोपण रहा ।”
डी.एन. धनगरे जैसे दूसरे इतिहासकारों ने किसान विद्रोहों को ‘प्राक्-राजनीतिक’ कहा है, क्योंकि उनमें संगठन कार्यक्रम और विचारधारा का अभाव था । दूसरी ओर रणजीत गुहा का तर्क है कि ”ग्रामीण जनसमूहों के… जुझारू आंदोलनों में ऐसा कुछ भी नहीं था जो राजनीतिक न हो ।”
ऊपर हमने जिन विद्रोहों का वर्णन किया है वे कोई अराजनीतिक कृत्य न थे वे ऐसे राजनीतिक कृत्य थे जिन्होंने अनेक अलग-अलग ढंगों से ही सही किसान वर्ग की राजनीतिक चेतना को दर्शाया । जैसा कि रणजीत गुहा (1994) ने दिखाया है उन्होंने सबसे पहले तो ग्रामीण समाज में शक्ति के संबंधों की एक स्पष्ट चेतना का और सत्ता के उस ढाँचे को पलट देने के संकल्प का पता दिया ।
दमन के राजनीतिक स्रोतों के बारे में विद्रोही पूरी तरह सजग थे और यह बात उनके हमलों के निशानों से स्पष्ट हो जाती है-जमींदारों के घर उनके अनाजों के भंडार सूदखोर सौदागर और आखिर में अंग्रेजों की राजसत्ता जो उत्पीड़न के इन स्थानीय निमित्तों की रक्षा के लिए आगे आ जाती थी ।
शत्रुओं की एक स्पष्ट पहचान के साथ दोस्तों की समझ भी उतनी ही स्पष्ट थी । इन किसान विद्रोहों में जो चीज हम अकसर पाते हैं वह है प्रभुत्वशाली वर्गो की भाषा संस्कृति और धर्म के साथ उत्पीड़ित जनता के संबंध का पुनर्निरूपण हालांकि उनके प्रतिरोध के अनेकानेक रूप रहे ।
ये विद्रोह अपराधों से भिन्न राजनीतिक कृत्य थे क्योंकि वे खुले और सार्वजनिक थे । संथालों ने पर्याप्त अग्रिम चेतावनी दी; रंगपुर के नेताओं ने विद्रोह के लिए किसानों पर एक शुल्क लगाया । सार्वजनिक सम्मेलन सभाएँ और योजनाबंदी भी जारी रहीं जो निश्चित ही एक कार्यक्रम का सूचक थीं ।
विद्रोहियों के अभियानों के शानदार समारोह भी हुए । समूहबद्ध श्रम का उपयोग करके इस सार्वजनिक चरित्र को और पुष्ट किया गया जैसे संथालों ने विद्रोहियों के कृत्यों को अपने परंपरागत शिकार-कर्म के रूप में पेश किया पर अब तो शिकार का भी एक नया राजनीतिक अर्थ था ।
जहाँ तक किसान विद्रोहों के नेतृत्व का प्रश्न है तो यह स्वयं विद्रोहियों की कतारों में से मिला । चूंकि नेतागण उन्हीं किसानों और आदिवासियों के सांस्कृतिक जगत के प्राणी थे जिनका वे नेतृत्व कर रहे थे इसलिए उनका नेतृत्व अधिक प्रभावी रहा ।
लामबंदी सामुदायिक आधारों पर की जाती थी; रंगपुर का विद्रोह इसका अपवाद था । उपनिवेश काल के ग्रामीण समाजों में वर्गों जातियों नस्ली और धार्मिक समूहों के बीच कमोबेश तनाव पाए जाते थे और इसकी अभिव्यक्ति ग्रामीणों में दमन और निर्धनता की एक भयानक दशा में होती थी ।
अनेक मामलों में गरीब वर्गो के बीच एकता के सूत्र का काम धर्म ने किया और उनके नेता ऐसे धर्मगुरु थे जिन्होंने उनको पराप्राकृतिक (Supernatural) साधनों से एक नए युग में ले जाने का वादा किया । पूँजीवाद-पूर्व समाजों में जहाँ वर्गीय चेतना कम विकसित थी और वर्गीय विचारधारा उपस्थित नहीं थी धर्म ने विद्रोह की विचारधारा पेश की ।
इन धर्मगुरुओं ने सदाचारी जगत के विनाश की बातें कीं और इस तरह किसानों की चिंताओं को धार्मिक मुहावरों में व्यक्त किया । इस तरह धर्म ने उनके आंदोलनों को वैधता प्रदान की । ऐसे क्रांतिकारी मसीहावाद में करिश्माई नेताओं को जादुई शक्तियों से लैस समझा जाता था और इस तरह उनकी शक्ति स्वयं ईश्वर की देन मानी जाती थी ।
इस तरह विद्रोह दैवी निर्देशों से प्रेरित था और एक उच्चतर सत्ता के उल्लेख से उसे वैधता मिलती थी । इस बात ने किसान विद्रोह को एक प्रेरणा भी दी और विचारधारा भी । ये किसान विद्रोह आधुनिक राष्ट्रवाद से भी भिन्न थे । विद्रोह का प्रसार स्थान और जातीय सीमा के बारे में विद्रोहियों की अपनी समझ पर निर्भर होता था यह उस भौगोलिक क्षेत्र के अंदर सबसे अधिक प्रभावी होता था जिसमें वह समुदाय विशेष रहता और काम करता था ।
उदाहरण के लिए संथालों की लड़ाई उनकी ‘पितृभूमि’ के लिए थी । लेकिन कभी-कभी उपजातीय संबंध क्षेत्रीय सीमाओं के पार तक फैल होते थे उदाहरण के लिए कोल विद्रोह में हम विभिन्न क्षेत्रों के कोलों को एक साथ विद्रोह के लिए उठते हुए देखते हैं ।
समय के बारे में विद्रोहियों की अपनी समझ की भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही । अकसर एक दूरस्थ अतीत में एक ”स्वर्ण युग” की धारणा में इतिहास का आह्वान किया जाता था । उस परिकल्पित स्वर्णिम अतीत की पुनर्स्थापना की आकांक्षा ने किसानों की कार्रवाईयों के लिए एक विचारधारा प्रदान की फराइजी और संथाल विद्रोह इसके प्रमुख उदाहरण थे ।
ऊपर उल्लिखित अधिक सगंठित आंदोलनों के अलावा हिंसक हथियारबंद विद्रोह सामाजिक लूट, या ‘कानूनी अराजकता (Lawlessness)’ भारत में ब्रिटिश राज की पहली सदी में आम थी । वास्तव में विद्रोह और सहयोग की सीमारेखा बहुत ही सूक्ष्म थी क्योंकि जो लोग सहयोगी नजर आते थे वे अकसर विजातीय शासकों के प्रति असंतोष और मृणा की भावना पाले रहते थे ।
उदाहरण के लिए कलकत्ता का भद्रलोक ब्रिटिश साम्राज्य में आस्था रखता था और इसलिए उसने जोश के साथ किसान विद्रोहियों की आलोचना की; फिर भी उसने यह मुद्दा उठाया कि वफादार संथालों ने साम्राज्य के विरुद्ध अकारण ही हथियार नहीं उठाए थे ।
उधर किसानों की ही तरह शहरी समाज के निम्न वर्ग भी प्रतिरोध में उतने ही मुखर थे । 1833-38 में पश्चिमी हिंदुस्तान और दिल्ली में अनाज व्यापारियों की जमाखोरी के विरुद्ध और हस्तक्षेप करनेवाले ब्रिटिश अफसरों के विरुद्ध अनाज दंगे और प्रतिरोध हुए ।
वेल्लोर में चावल के लिए दंगे हुए और 1806 और 1858 के बीच दक्षिण भारत में ईसाईयत में दीक्षा के विरुद्ध दंगे हुए । मुक्त व्यापारवादी साम्राज्यवाद के फलस्वरूप हस्तशिल्प उद्योग के पतन के कारण 1789 में कलकत्ता 1790 और 1800 के दशकों में सूरत तथा 1809 और 1818 के बीच रुहेलखंड और बनारस में दस्तकार समूहों के शहरी विद्रोह हुए ।
ये विद्रोह हमेशा सीधे-सीधे उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन नहीं होते थे पर उपनिवेशी शासन की नीतियों और दशाओं से उन सबका संबध होता था । लेकिन प्रतिरोध का सबसे शक्तिशाली और भारत में कंपनी के शासन के लिए सबसे खतरनाक कृत्य 1857 का विद्रोह था ।