ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना | Read this article in Hindi to learn about the establishment of the British empire in India.

अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 31 दिसंबर 1600 के दिन एक शाही आदेशपत्र (रॉयल चार्टर) के द्वारा लंदन के उन सौदागरों की एक संयुक्त स्टॉक कंपनी के रूप में हुई थी जो पूरब के व्यापार में डचों की प्रतियोगिता का मुकाबला करने के लिए एक हुए थे ।

इस कंपनी को पूरब के साथ इंग्लैंड के समस्त व्यापार का एकाधिकार दे दिया गया और वणिकवादी विचारों के वर्चस्व वाले उस काल में भी अपने व्यापार का खर्च उठाने के लिए कीमती धातुओं (Bullion) को देश से बाहर ले जाने की अनुमति दे दी गई ।

लेकिन इलाके जीतने या उपनिवेश बनाने की खुली अनुमति उसे कभी नहीं दी गई । कंपनी ने औपचारिक रूप से भारत में अपना व्यापार 1613 में आरंभ किया जबकि वह अपने से पहले रंगमंच पर आए पुर्तगालियों के साथ हिसाब बराबर कर चुकी थी ।

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मुगल बादशाह जहाँगीर के एक फरमान ने उसे भारत में अपनी फैक्टरियाँ (गोदाम) बनाने की अनुमति दी और पहली फैक्टरी पश्चिमी तट पर सूरत में बनाई गई । 1617 में जहाँगीर ने अपने दरबार में अंग्रेजों के आवासी दूत के रूप में सर टॉमस रो का स्वागत किया ।

यही वह विनम्र प्रारंभ था जिसके बाद कंपनी ने धीरे-धीरे अपने व्यापारिक कार्यकलापों को भारत के दूसरे भागो में फैलाया और बंबई कलकत्ता और मद्रास सत्रहवीं सदी के अंत तक उसके कार्यकलापो के तीन प्रमुख केंद्र बन चुके थे ।

कंपनी का भारत में राजनीतिक प्रसार अठारहवीं सदी के मध्य से आरंभ हुआ और सौ साल के अंदर लगभग पूरा भारत उसके नियंत्रण में था । पी.जे. मार्शल (1968) का कथन है कि 1784 तक (अर्थात् पिट्‌स इंडिया ऐक्ट के पारित होने तक) भारत की राजनीतिक विजय के बारे में अंग्रेजों की कोई साहस या सुसंगत नीति नहीं थी ।

इंग्लैंड में सत्ता ईस्ट इंडिया कंपनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स और ब्रिटिश सरकार की कमजोर नियामक शक्ति के बीच बैटरी रही और देखने में इनमें से कोई भी 1784 तक भारत में इलाके जीतने में रुचि नहीं ले रहा था हालांकि तब तक एक बड़ा साम्राज्य उनके हाथ आ चुका था ।

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मार्शल के अनुसार ”इस तरह भारत में साम्राज्य की वृद्धि न तो नियोजित थी और न ब्रिटेन से निर्देशित ।” कंपनी के भारत में कार्यरत अधिकारियों की पहल ने ही भावी कार्य-प्रक्रिया का निश्चय किया इसके बावजूद विजय अभियानों (Conquests) या उपनिवेशीकरण के पक्ष में से लंदन कोई नीतिगत निर्देश नहीं था ।

अपने पहले के एक लेख में मार्शल ने स्वीकार किया था कि अठारहवीं सदी के आरंभ में व्यापार का पर्याप्त प्रसार हुआ था तथा व्यापार और साम्राज्य के सुस्पष्ट अंतर्सबंध को भी अनदेखा करना कठिन था । लेकिन फिर मुगल सत्ता के पतन से उपजे राजनीतिक विखंडन और अस्थायित्व ने कंपनी के क्षेत्रीय प्रसार को बढ़ावा दिया ।

इसलिए आवश्यक है कि उसके इतिहास को अठारहवीं सदी की भारतीय राजनीति के विकासक्रमों के संदर्भ में देखा जाए जब अंग्रेज सिर्फ “इन विकासक्रमों पर प्रतिक्रिया कर रहे थे और अपने रास्ते में आनेवाले अवसरों का लाभ उठा रहे थे ।”

दूसरे शब्दों में, मेट्रोपोल (Metropole) यानी सत्ताकेंद्र की किसी प्रेरणा की बजाय उसके परिधिक्षेत्रों में होनेवाले विकासक्रमों ने ही कंपनी पर भारत में क्षेत्रीय प्रसार का एक अभियान लादा और सी.ए. बेइली का तर्क यह है कि 1780 के दशक के बाद भी साम्राज्य का प्रसार मुख्यत कंपनी की वित्तीय और सैन्य आवश्यकताओं से प्रेरित रहा न कि व्यापारिक हितों से और ”मुक्त व्यापारी पहिये के चक्के से अधिक कुछ भी

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नहीं” था ।

जहाँ क्षेत्र-विजय की चालक शक्तियों के रूप में क्षेत्र में उपस्थित व्यक्तियों (कंपनी अधिकारियों) के ”उप-साम्राज्यवाद (Sub-imperialism)” के या सत्ताकेंद्र के दूर परिधि पर पैदा होनेवाले दबावों के महत्त्व को अस्वीकार कर सकना कठिन है वहीं हम भारत में साम्राज्य-निर्माण की परियोजना में सत्ताकेंद्र (Metropole) की भागीदारी के कुछ आँखें खोल देनेवाले साक्ष्य भी यहाँ पेश कर सकते हैं ।

पहले तो यह संकेत देनेवाले पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं कि व्यापार को बढ़ावा देने के लिए बल का प्रयोग आरंभ से ही ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यकलाप का सुमान्य तत्त्व था उसका व्यापार हमेशा हथियार-समर्थित व्यापार होता था ।

फिर कंपनी और राज्य (ब्रिटिश राजसत्ता) के बीच आभासी अलगाव (Apparent Separation) के बावजूद इंग्लैंड के कूटनीतिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाने में दोनों के बीच गहरा संबंध था क्योंकि स्वयं कंपनी का विशेषाधिकार बल्कि उसका अस्तित्व भी शाही विशेषाधिकार पर निर्भर था ।

इंग्लैंड की राजनीति में कंपनी के कामकाज को स्टुअर्ट राजाओं जेम्स प्रथम और चार्ल्स प्रथम के काल में तथा गृहयुद्ध के दौरान भी धक्के लगे जब उसके विशेषाधिकारों पर तीखे हमले हुए । लेकिन इंग्लैंड के तख्त पर चार्ल्स द्वितीय के पुनरूत्थान के बाद स्थिति में सुधार आने लगा ।

तख्त (Crown) के लिए धन और स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए उसने और उसके भाई जेम्स द्वितीय ने भी विदेशों में एक आक्रामक व्यापार-नीति का अनुसरण किया । वास्तविकता में इसका अर्थ हिंद महासागर में और भारत के तटीय क्षेत्रों में नौसेना का प्रयोग था इन क्षेत्रों के फैक्टरियों वाले बंदरगाहों में एक नियमित नीति के अंगरूप में किलेबंद आधार (Fortified bases) और घेरेदार आवासी क्षेत्र बनाए गए और इसको फिलिप लॉसन के शब्दों में “इन स्थानीय बाजारों में इंग्लैंड के तोपखाने की नैतिक अर्थव्यवस्था” कहा जा सकता है ।

इस काल में इंग्लैंड की नौसेना की तोपें पूरब के व्यापार के पूर ढर्रे को तो नहीं बदल सकीं लेकिन उन्होंने भारतीय राजाओं को स्थानीय वाजारो में अग्रेजो के व्यापार में बाधा डालने या उसे रोकने से अवश्य रोके रखा । तख्त (Crown) और कंपनी का यह संबंध दोनों के लिए परस्पर लाभकारी था ।

1660 न कपनी ने सम्राट (हिज़ मैजेस्टी) को 3000 पाउंड की चाँदी की प्लेट भेंट देकर स्टुअर्ट राजतंत्र की स्थापना का उत्सव मनाया । 1661 में क्रॉमवेल के चार्टर की जगह ब्रिटिश सम्राट के हस्ताक्षर वाले एक चार्टर ने ले ली और कृतज्ञतास्वरूप कंपनी के निदेशकों (Directors) ने 1662 में बादशाह के लिए 10,000 पाउंड का ऋण स्वीकार किया ।

बाद के वर्षों में और भी ऋण दिए गए जिनका कुल योग 1,50,000 पाउंड था और फिर अतिरिक्त विशेषाधिकारों के साथ और भी चार्टर जारी किए गए । जैसा कि जॉन की ने लिखा है, “बादशाह और कंपनी एक-दूसरे को भली-भांति समझते थे ।”

भारत में प्रेसिडेंसी व्यवस्था का आरंभिक इतिहास भी देश के उपनिवेशीकरण में बादशाह की भागीदारी के संकेत देता है । 1661 में पुर्तगाल के बादशाह से चार्ल्स द्वितीय को जो बंबई द्वीप दहेज में मिला था उसे 10 पाउंड के सांकेतिक वार्षिक किराये पर 1668 में ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया गया और 1687 में पश्चिमी तट के प्रेसिडेंसी मुख्यालय को सूरत से हटाकर यही लाया गया ।

ध्यान देने की बात यह है कि बंबई चार्ल्स को व्हाइटहॉल की संधि के द्वारा दी गई थी जिसमें एक गुप्त प्रावधान यह था कि उसका उपयोग भारत में पुर्तगालियों की बस्तियों की रक्षा के लिए किया जाएगा । उसमें आक्रामक और प्रसारमान डच ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध एक आपातकालीन प्रतिरक्षा समझौता भी था और अब इस हस्तांतरण के बाद भी पुर्तगाली ठिकानों की रक्षा का दायित्व बादशाह ने प्रसन्नता से अपने ऊपर ले लिया ।

इसके कारण अंग्रेज कंपनी के डायरेक्टर बेहद कृतज्ञ हुए और उन्होंने एक और ऋण पेश कर दिया । मद्रास प्रेसिडेंसी का प्रसार भी एक सीमा तक क्रॉमवेल के चार्टर का परिणाम था जिससे इस क्षेत्र के विकास को प्रोत्साहन मिला । कलकत्ता की प्रेसिडेंसी का विकास आगे चलकर अठारहवीं सदी में हुआ तथा उसके विकास और उसकी प्रतिरक्षा में लंदन के सत्ताधीश सक्रियता से शामिल थे ।

लेकिन उससे पहले 1680 के दशक में भी जब औरंगजेब साम्राज्यिक युद्धों में व्यस्त हो गया और इससे अंग्रेजो के व्यापार की स्थिरता और सुरक्षा के लिए गंभीर खतरे पैदा हो गए तो सर जोशिया चाइल्ड के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए आक्रामक नीति अपनाने का निर्णय किया ।

उस चरण में उसकी सैनिक कमजोरी घातक साबित हुई हालांकि यह कंपनी का सौभाग्य रहा कि औरंगजेब ने बदले की कोई कार्रवाई नहीं की तथा एक माफीनामे और क्षतिपूर्ति की अदायगी के बदले उसके विशेषाधिकार उसे लौटा दिए ।

लेकिन इस पराजय ने कंपनी की आक्रामक नीति को छुपाया नहीं और कंपनी ”दुनिया भर में उतनी ही साहसिक और एकाधिकारवादी साम्राज्यिक नीति अपनाने वाले स्टुअर्ट राजतंत्र के साथ जोड़कर देखी जाने लगी ।”

अठारहवीं सदी के मध्य में यूरोपवालों को भारतीयों पर ”एक निर्णायक प्रौद्योगिक श्रेष्ठता” प्राप्त हुई और इसके कारण उस नीति की विजय का मार्ग प्रशस्त हुआ जिसको फिलिप लॉसन ने ”आक्रमण और परोक्ष रूप से राजकीय साम्राज्यवाद की नीति” कहा है ।”

1689 में विलियम और मेरी द्वारा जेम्स द्वितीय के विस्थापन के बाद कंपनी पर इंग्लैंड में एक बार फिर अधिकाधिक हमले होने लगे । व्हिगों (Whigs) की राजनीतिक प्रधानता में कंपनी के इजारेदारी के अधिकारों और भ्रष्ट तरीकों पर संदेह किए जाने लगे तथा एक प्रतियोगी कंपनी खड़ी कर दी गई ।

लेकिन इस नई कंपनी की स्थापना की अनुमति देनेवाले विधेयक को हाउस ऑफ कॉमंस ने 1698 में जाकर पारित किया जब नई कंपनी के प्रोमोटरों (Promoter) ने राज्य को 20,00,000 पाउंड के ऋण का प्रस्ताव दिया जबकि पुरानी कंपनी अपनी इजारेदारी के चार्टर का नवीनीकरण कराने के लिए 7,00,000 पाउंड का प्रस्ताव दे रही थी ।

उस समय तक स्पष्ट हो चुका था कि पूरब में व्यापार करने का अधिकार ”एक बिकाऊ माल” था और अगर संसद जब यह अधिकार देगी तो लाभ बादशाह और दरबार के बदले राज्य को मिलेगा ।”  1709 तक विसंगतियों को दूर कर दिया गया क्योंकि दोनों कंपनियों का विलय हो गया और लदन में व्यापक रूप से इसे स्वीकार कर लिया गया कि राज्य को मजबूत बनाने और यूरोप की राजनीति में उसके कूटनीतिक बल को निखारने मे कंपनी की वित्तीय भूमिका का कितना महत्त्व था ।

इस तरह अठारहवीं सदी भारत में आत्मविश्वास से भरे क्षेत्रीय प्रसार के आरंभ का काल थी जब कंपनी के साम्राज्यिक प्रसार और वित्तीय ताकत के बीच एक घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ । इस विषय पर अठारहवीं सदी के आरंभ में ही चर्चा हो चुकी थी न केवल कंपनी के अधिकारियों के बीच बल्कि व्यापक पैमाने पर लदन को जनता के बीच और राजनीतिक क्षेत्रों में भी ।

इस तरह भारत में कंपनी के साम्राज्य की स्थापना लंदन के निर्देशों से पूरी तरह वंचित नहीं थी । राज्य (ब्रिटिश सरकार) और कंपनी के संबंध 1770 के दशक में और भी प्रगाढ़ हुए जब कंपनी ने भारत में अपने इलाकों के तथा 1765 के बाद प्राप्त होनेवाले राजस्व के बदले राजकोष को वार्षिक 4,00,000 पाउंड देने की सहमति व्यक्त की और इस तरह भारत में अपनी स्थिति पर सरकार का अनुमोदन प्राप्त कर लिया ।

उस समय तक कंपनी को ”एक दूरस्थ देश से सबसे अधिक राजस्व वसूल करने के लिए जिसे वह देने में समर्थ हो सरकार के हाथों में एक शक्तिशाली साधन” माना जाने लगा था । कंपनी के चार्टरों को ”प्रत्यायोजित (Delegated) प्रभुसत्ता” का आज्ञापत्र माना जाने लगा जब व्यापार के एकाधिकार और इलाकों को ”ब्रिटिश राष्ट्र के लाभ के लिए” ज्वाइंट स्टॉक कंपनी में किए गए सार्वजनिक निवेश और भरोसे का प्रतिफल समझा जाने लगा ।

1773 के रेगुलेटिंग ऐक्ट ने प्रभुसत्ता के प्रश्न से जुड़ी अस्पष्टताओं को हल किया और विदेशों में विजित सभी भू-भागों पर राज्य के अधिकारों की पुष्टि की । आगे चलकर अगर लदन क सत्ताधीश क्षेत्रीय प्रसार के विरुद्ध हुए भी तो इसका कारण सिर्फ लड़ाइयों का खर्च था । वे एक भारतीय साम्राज्य के संसाधनों मैं हिस्से तो जरूर पाना चाहते थे पर उसे पाने की लागत या उसका प्रशासन चलाने का बोझ उठाने की शर्त पर नहीं ।

अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत में साम्राज्य का प्रसार, पी.जे. केन और ए.जी. हॉप्किस के शब्दों में, उस “सज्जन-समान पूँजीवाद” (Gentlemanly Capitalism) का विस्तार था जिसे भूस्वामी हितों और वित्तपतियों का वह गठजोड़ आश्रय दे रहा था जिसको 1688 के बाद लंदन में वर्चस्व प्राप्त हुआ और यही कारण था कि शाही नीति का मुख्य बिंदु ”राजस्व बन गया और बना रहा ।”

केन और हॉष्किंस ही साम्राज्यवाद संबंधी बहसों में मेट्रोपोल को वापस लानेवाले हैं तथा इंग्लैंड के बढ़ते घरेलू और विदेशी व्यापार के लिए वित्त की व्यवस्था में भारत के राजस्व संसाधनों के महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता विजय की प्रेरणा को निस्संदेह इसी चीज ने जन्म दिया ।

लेकिन अठारहवीं सदी के भारत में राजस्व और कंपनी के व्यापार के अलावा कुछ और महत्त्वपूर्ण हित भी थे और क्षेत्रीय प्रसार के विशिष्ट विकासक्रम के निर्धारण में ये भी शामिल थे । आरंभ से ही कंपनी के एकाधिकारिक अधिकारों का अनेक प्रकार से उल्लंघन होता आ रहा था और यह उल्लंघन अठारहवीं सदी में तो एक संकट का रूप लेने लगा ।

सत्रहवीं सदी में ”दस्तंदाजों” (Interlopers) ने इंग्लैंड और हिंद महासागर के देशों के बीच अवैध व्यापार चलाकर और उसके लिए वित्त की व्यवस्था करके कंपनी के एकाधिकारिक अधिकारों का सीधे-सीधे उल्लंघन किया ।

उनकी शक्ति पर अंकुश लगाने के प्रयासों ने अकसर संवैधानिक संकट को जन्म दिया जैसा कि 1668-69 में स्किनर बनाम ईस्ट इंडिया कंपनी वाले मुकदमे में हुआ जब हाउस ऑफ्र लॉर्ड्स ने एक दस्तंदाज के अधिकारों को वास्तव में उचित ठहराया ।

लेकिन अवैध व्यापार की समस्याएँ वास्तव में कंपनी के अपने संगठन के कारण गंभीर होती गईं । उसके कर्मचारी अपनी मामूली वेतनों की कमी पूरी करने के लिए भारतीय देहातों में निजी व्यापार करने लगे । फिर स्वतंत्र सौदागर भी थे जो कंपनी के सेवक नहीं थे पर उनको उसके प्रतिष्ठानों में बसने की अनुमति प्राप्त थी ।

जब तक ऐसे निजी व्यापारी इस या उस तरफ से यूरोप के साथ समुद्री व्यापार में सीधे-सीधे भाग नहीं लेते रहे, तब तक कंपनी इस व्यापार को अनदेखा करती रही बल्कि भारतीय सौदागरों के साथ तालमेल रखकर काम करनेवाले इन व्यापारियों को प्रोत्साहन भी देती रही ।

शीघ्र ही अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में इन दो प्रकार की समानांतर व्यापारिक गतिविधियों के बीच टकराव हुआ । इन निजी सौदागरों के हित जब भी कंपनी के हितों के साथ टकराए तो धोखाधड़ी का सहारा लिया गया और साख (क्रेडिट) तथा व्यापार के अवैध तंत्रों का एक पूरा जाल फैल गया जिससे कंपनी के लाभ में गिरावट आई ।

निजी सौदागरों और दस्तंदाजों के बीच अकसर साँठ-गाँठ होती थी और इस अवैध व्यापार से प्राप्त मुनाफे को कंपनी के लंदन कार्यालय या डच कंपनी के एम्सटर्डम कार्यालय के नाम जारी हुंडियों के सहारे बाहर भेज दिया जाता था ।

1750 के दशक में केवल अंग्रेज कंपनी द्वारा जानेवाली राशि औसतन 1,00,000 पाउंड सालाना थीं और ये इन अधिकारियों को कंपनी की सेवा के लिए मिलनेवाले वार्षिक वेतन कं स्कूटर से भी अधिक थीं । लेकिन इससे भी नाजुक तत्त्व इन निजी व्यापारियों द्वारा इत इंडिया कंपनी को मुगल शासकों द्वारा दिए गए व्यापार संबंधी विशेषाधिकारों का दुरुपयोग था । कंपनी की स्थानीय परिषदें अपने मालों के लिए दस्तक (प्रमाण-पत्र) जारी करती थीं और फिर उन पर मुगल शासक कोई शुल्क नहीं लेते थे ।

लेकिन कंपनी के अधिकारी अपने भारतीय (कर्मचारियों) को अकसर ऐसी दस्तकें जारी करते रहते थे जिससे मुगलों के कोष को राजस्व की भारी हानि होती थी । कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने इस कुप्रथा को रोकने के प्रयास किए पर कोई लाभ नहीं हुआ और शीघ्र ही 1750 के दशक में यह कंपनी और बंगाल के स्थानीय मुगल शासक के बीच टकराव का एक बड़ा मुद्दा वन गया जिसके कारण भारत में साम्राज्यिक शक्ति के रूप में कंपनी के उदय का आधार तैयार हुआ ।

लेकिन चूंकि ब्रिटेन का भारतीय साम्राज्य एक लंबे कालखंड मैं-लगभग सौ वर्षो में विकसित हुआ इस क्षेत्रीय प्रसार के पीछे अनेक प्रकार के कारण थे । जब हम इस लंबी प्रक्रिया की विस्तृत छानबीन करते हैं तो यह बात स्पष्ट हा जाती है कि परिधि (यानी फैलते साम्राज्य के सीमा-क्षेत्रों) से आनेवाले दबाव और मंटोपोल से प्राप्त प्रेरणा दोनों का घात-प्रतिघात लगातार चलता रहा तथा राजस्व की ननाश व्यापार संबंधी विशेषाधिकारों की चाह और सैन्य विकासक्रमों की विवशताएँ य सब कारण बारी-बारी से साम्राज्य के प्रसार के लिए क्षेत्र-विजय की प्रक्रिया में तेजी लाते रहे ।

भारत में ब्रिटेन का सबसे शानदार साम्राज्य खड़ा करने में इन सबका योगदान रहा । यह सब बंगाल में आरंभ हुआ जो अठारहवीं सदी के आरंभ में पश्चिमी तट और विशेषकर बंबई, सूरत और मलाबार की कीमत पर कंपनी के व्यापार के ढाँचे में काफी महत्त्व प्राप्त कर चुका था ।

इसका कारण था कि एशिया से अंग्रेजों के आयातों न लगभग 60 प्रतिशत भाग बंगाल के मालों का हो चुका था । कंपनी इस स्थिति की ओर धीरे-धीरे बढ़ती आ रही थी । 1690 में औरगंजेब के फरमान ने 3000 रुपए की त्रार्षिक अदायगी के बदले कंपनी को बंगाल में शुल्कमुक्त व्यापार का अधिकार दे दिया था ।

1690 में कलकत्ता की नींव पड़ि और 1626 में इसकी किलेबंदी जिसके दो साल बाद कंपनी को कोलिकाता, सूतानाटी और गोविंदपुर नाम के तीन गाँवों की जमींदारी का अधिकार मिला । औरंगजेब की मृत्यु के बाद स्थिति में अस्थिरता आई पर 1717 में फर्रुखसियर के एक फरमान से फिर उसे औपचारिक दर्जा मिला जिसने कंपनी को शुल्कमुक्त व्यापार करने, कलकत्ता के आसपास के अड़तीस गाँवों को लगान पर लेने और शाही टकसाल का उपयोग करने का अधिकार दे दिया ।

लेकिन यह फरमान भी कंपनी तथा बंगाल के नए स्वतंत्र शासक मुर्शिद कुली खाँ के बीच टकराव का एक नया स्रोत बन गया जब उसने शुल्कमुका व्यापार के इस प्रावधान को कंपनी के अधिकारियों के निजी व्यापार पर लागू करने से मना कर दिया ।

इन अधिकारियों ने तब दस्तकों का जमकर दुरुपयोग करना आरंभ कर दिया और नवाब राजस्व की हानि पर विरोध व्यक्त करने लगा । इसके अलावा मुर्शिद ने कंपनी को अड़तीस गाँव खरीदने तथा टकसाल संबंधी विशेषाधिकार देना भी अस्वीकार कर दिया । इस तरह बंगाल के नवाब और अंग्रेज़ कंपनी के बीच 1717 से ही टकराव बढ़ता आ रहा था ।

सुराग में 40 में रास्ट्रिय के उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हुआ तो भारत में अंग्रेज और फ़्रांसीसी कंपनियों के बीच भी शत्रुता पैदा हो गई । बंगाल में नए नवाब अलीवर्दी खाँ ने दोनों को वश में रखा और उनको किसी भी खुली शत्रुता में रत होने से मना कर गया लेकिन दक्षिण भारत में फ्रांसीसियों की विजयों ने बंगाल मैं अंग्रेजों को चिंतित दिया कि उनको किसी फ्रांसीसी हमले से रक्षा प्रदान करने के बारे में नवाब की क्षमता पर बहुत कम भरोसा था ।

इसके अलावा जैसा कि हाल में दिखाया गया है 104 एशियाई सौदागरों के साथ मिलीभगत से फ्रांस की प्रतियोगिता के कारण 1750 के दशक में अंग्रेजों के निजी व्यापार को भारी धक्का लगा । इस कारण अंग्रेज 1755 में नवाब की अनुमति लिए बिना कलकत्ता की किलाबंदी की मरम्मत कराने लगे और उसकी सत्ता की खुली अवज्ञा करतै हुए उसके दरबार से भागनेवालों को संरक्षण प्रदान करने लगे ।

1756 में सिराजुद्दौला जब नवाब बना और उसने दस्तको के दुरुपयोग को एकदम रोककर अंग्रेजों के निजी व्यापार को पूरी तरह रोक देने की धमकी दी तो यह टकराव एक निर्णायक चरण में पहुँच गया । मनमुटाव के और भी तात्कालिक कारण थे कृष्णवल्लभ को शरणदान जिस पर नवाब ने धोखाधड़ी का आरोप लगाया था और कलकत्ता की नई किलाबंदी-ये दोनों ही बातें नवाब की सत्ता के लिए चुनौती थीं तथा प्रभुसत्ता के प्रश्न के लिए केंद्रीय महत्त्व रखती थीं ।

कंपनी ने जब चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया तो सिराज ने कासिमबाजार की फैक्टरी पर कब्जा करके अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया । गवर्नर डेरक का विश्वास था कि वह ताकत के सहारे अपनी हार का बदला ले सकता है और उसने कूटनीतिक सुलह-सफ़ाई के बारे में नवाब के संकेतों को अनदेखा किया । उसके बाद कलकत्ता पर सिराज ने हमला किया और 20 जून को उस पर अधिकार कर लिया ।

इस तरह एक संकट पैदा हो गया क्योंकि मद्रास से एक बड़ी सेना लेकर अब रॉबर्ट क्लाइव आ पहुँचा । फ्रांसीसियों से सिराज की मित्रता के डर के कारण और अपने व्यापारिक एकाधिकारों में कटौती की आशका के कारण हुगली को उन्होंने (अंग्रेजों ने) नष्ट कर दिया और चंद्रनगर में फ्रांसीसियों की हार हुई ।

अब्दाली के नेतृत्व में अफगानों के एक हमले की आशंका के कारण सिराज अंग्रेजों से एक संधि चाहता था पर आत्मविश्वास से भरे क्लाइव ने तख्तापलट कराने का निर्णय किया । कलकत्ता में कंपनी के आत्मविश्वास से भरे कर्मचारी एक ऐसे नौजवान निरंकुश नवाब को सहन करने को तैयार न थे जो उनके व्यापारिक विशेषाधिकारों को समाप्त करने की धमकी दे रहा था और असीमित धन के एक स्रोत से उनको दूर करने के प्रयास कर रहा था ।

नवाब के दरबार में एक असंतुष्ट गुट पहले से था जिसमें सौदागर बैंकर वित्तपति ना शक्तिशाली जमींदार शामिल थे जैसे जगतसेठ बंधु (मेहताब राय और स्वरूपचंद), राजा जानकीराम राय दुर्लभ राजा रामनारायण और राजा माणिकचंद ।

अपने दरबार में शक्ति के संतुलन को नया रूप देने के लिए उत्साह से प्रयास कर रहे नौजवान नवाब कं स्वतंत्रता के दावे से ये सभी लोग भयभीत थे । भारत के व्यापारी समुदाय और यूरोपीय व्यापारियों के बीच हितों की एक स्वाभाविक एकता भी थी क्योंकि अनेक भारतीय सौदागर अंग्रेज कंपनी और निजी व्यापारियों के साथ मिलकर काम कर रहे थे उनके दादनी सौदागरों की तरह काम कर रहे थे और दादन (अग्रिम राशियों) के बदले उनको अंदरूनी क्षेत्रों में तैयार कपड़ों की आपूर्ति कर रहे थे ।

अनेक भारतीय जगतसेठ अपने मालों की ढुलाई के लिए अंग्रेजों के जहाजों को प्राथमिकता दे रहे थे और वास्तव में इसी के कारण हुगली बंदरगाह का हास हुआ तथा उसके सम्मानित स्थान को कलकत्ता ने हथिया लिया ।

इस कारण इन दोनों समूहों का सहयोग असंभव नहीं था और इसलिए सिराज की जगह उसके सिपहसालार मीर जाफर को बिठाने का षड्‌यंत्र रचा गया । यह व्यक्ति उन जगत सेठों का प्रिय था जिनके समर्थन के बिना तख्तापलट लगभग असंभव होता ।

क्या मुर्शिदाबाद दरबार में पहले ही एक षड्‌यंत्र रचा जा चुका था और इसका लाभ अग्रेजों ने उठाया या फिर षड्‌यंत्र अंग्रेजों ने रचा यह प्रश्न जिस पर इतिहासकारों ने अपने व्यर्थ ‘के वाक्‌युद्ध लड़े हैं कम महत्त्वपूर्ण है ।

महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है एक गठजोड़ था जिसका परिणाम पलासी की लड़ाई (जून 1757) था जिसमें क्लाइव ने अंतत सिराज को हरा दिया । यह एक झड़प से अधिक शायद ही कुछ रहा होगा के क्योंकि नवाबी सेना का सबसे बड़ा भाग मीर जाफर की कमान में निष्किय रहा ।

लेकिन इसका गहरा राजनीतिक प्रभाव पड़ा क्योंकि भगोड़े सिराज को जल्द ही गिरफ्तार करके मृत्युदंड दे दिया गया और नया नवाब मीर जाफर अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बन गया । इस तरह पलासी की लड़ाई (1757) भारत में अंग्रेजों के ईस्ट इडिया कंपनी के राजनीतिक वर्चस्व का आरंभ बिंदु था ।

उसके बाद जो कुछ हुआ उसे अकसर ”पलासी लूट” कहा गया है । युद्ध के तुरंत बाद अंग्रेज सेना और नौसेना में से हरेक को अपने सदस्यों में बाँटने के लिए 275 पाउंड की बड़ी राशि मिली । इसके अलावा 1757 और 1760 के बीच कंपनी को मीर जाफर से 2.25 करोड़ रुपए मिले; स्वयं क्लाइव को 1759 में 34.567 पाउंड कीमत की एक निजी जागीर मिली । जहाँ तक कंपनी का प्रश्न था उसके व्यापार के ढाँचे में एक बड़ा परिवर्तन आया ।

1757 से पहले बंगाल में अंग्रेजों के व्यापार के लिए धन अधिकतर इंग्लैंड से आयातित कीमती धातुओं से मिलता था । लेकिन उस साल के बाद न केवल इन धातुओं का आयात पूरी तरह रुक गया बल्कि बंगाल से कीमती धातुओं को चीन तथा भारत के दूसरे भागों को भेजा जाने लगा जिससे अंग्रेज कंपनी को अपने यूरोपीय प्रतियोगियों पर श्रेष्ठता प्राप्त हुई ।

दूसरी ओर कंपनी के अधिकारियों के लिए पलासी ने निजी संपत्ति जमा करने के रास्ते खोल दिए न केवल सीधे-सीधे बलप्रयोग द्वारा बल्कि निजी व्यापार के लिए दस्तकों के अनियंत्रित दुरुपयोग के द्वारा भी । इसी कारण मीर जाफर को भी कुछ समय बाद कंपनी की वित्तीय माँगों को पूरा करना मुश्किल लगने लगा और उसे अकबर 1760 में तख्त से हटाकर उसके दामाद मीर कासिम को बिठा दिया गया । लेकिन कंपनी के कर्मचारियों द्वारा व्यापारिक विशेषाधिकारों के दुरुपयोग के प्रश्न पर टकराव फिर पैदा हुआ ।

दस्तकों के दुरुपयोग को रोकने में असमर्थ होकर नए नवाब ने आंतरिक शुल्कों को एक सिरे से समाप्त कर दिया ताकि वे ही विशेषाधिकार भारतीय सौदागर भी पा सकें । लेकिन स्वतंत्रता का यह प्रदर्शन अंग्रेजों को पसंद नहीं आया और जवाबी कार्रवाई के रूप में वे उसे हटाकर फिर से मीर जाफर को ले आए ।

दिसबंर 1763 में मीर कासिम बंगाल से भागा और उसने मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ एक महागठबंधन बनाने के प्रयास किए । बादशाह इस इलाके में 1758 से ही था जब एक शाहजादे के रूप में दिल्ली दरबार की गंदी राजनीति से वह भाग खड़ा हुआ था और पूर्वी प्रांतों में उसने अपना एक स्वतंत्र राज्य बनाने का प्रयास किया था ।

दिसंबर 1759 में अपने पिता की हत्या का समाचार सुनकर उसने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया और शुजा को अपना वजीर बनाया । मीर कासिम भागकर उसके पास जब शरण के लिए पहुँचा तो लंबी और टेढ़ी वार्ताओं के बाद ही दोनों के बीच अंग्रेजों के विरुद्ध कार्रवाई पर सहमति हुई; शुजा का समर्थन तभी मिला जब उससे सफलता के बाद बिहार और उसका खजाना और साथ में 3 करोड़ रुपए देने का वादा किया गया ।

लेकिन उनकी संयुक्त सेना भी बक्सर की लड़ाई (1764) में रौंद दी गई क्योंकि अठारहवीं सदी की विखंडित सामाजिक संगठन वाली एक भारतीय सेना एकजुट कमान वाली और तकनीकी दक्षता से संपन्न अंग्रेज सेना के मुकाबले गंभीर सीमा तक कमजोर थी ।

लेकिन बक्सर में अंग्रेजों की विजय के बाद जो कुछ हुआ वह कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है । कंपनी ने पराजित मुगल बादशाह को सम्मान दिया क्योंकि अठारहवीं सदी की भारतीय राजनीति में अभी भी उसका प्रतीकात्मक महत्त्व था ।

वास्तव में अंग्रेजों ने मुगल बादशाह की प्रभुसत्ता का औपचारिक निषेध 1857 से पहले नहीं किया । बदले में 1765 में इलाहाबाद की संधि के द्वारा शाह आलम ने कंपनी को बंगाल बिहार और उड़ीसा की दीवानी (मालगुजारी वसूल करने के अधिकार) सौंप दी; दूसरे शब्दों में समृद्ध बंगाल प्रांत के लाभदायक संसाधनों का पूरा-पूरा नियंत्रण उसे सौंप दिया गया ।

उसके बाद मुर्शिदाबाद दरबार में नियुक्त अंग्रेज रेजिडेंट धीरे-धीरे 1772 तक प्रति में वास्तविक प्रशासनिक शेक्ति का केंद्र बन गया और इस तरह कंपनी के साम्राज्यिक शासन की नीति के रूप में अप्रत्यक्ष शासन की व्यवस्था सबसे पहले बंगाल में आरंभ हुई ।

कलकत्ता काउंसिल के पास संसाधनों के अभाव का दबाव अवध को झेलना पड़ा । संधि के अनुसार शुजाउद्दौला को 50,00,000 रुपए देने थे, यह निश्चित हुआ कि आगे से नवाब और कंपनी एक-दूसरे के भू-भाग की रक्षा करेंगे उसके दरबार में एक अंग्रेज रेजिडेंट रखा जाएगा और कंपनी को अवध में शल्कमुक्त व्यापार के अधिकार प्राप्त होंगे । यह एक ऐसी धारा थी जिसने बाद में नए तनाव पैदा किए और स्वयं अवध के अधिग्रहण की परिस्थिति तैयार की ।

इस तरह पूर्वी भारत जब 1765 तक कंपनी के नियंत्रण में आ गया तो आंग्ल-फ्रांसीसी शत्रुता ने दक्षिण में कंपनी के प्रसार का आधार तैयार किया । यूरोपीय शक्तियों में फ़्रांसीसी ही भारत में सबसे बाद में आए पर इस उपमहाद्वीप में एक साम्राज्य स्थापित करने की महत्त्वाकांक्षी परियोजना सबसे पहले उनके ही मन में आई ।

पांडिचेरी में उनका मुख्य केंद्र 1674 में बना और जो भारत में सबसे यशस्वी फ्रांसीसी जनरल था उसे भारी राजनीतिक महत्त्व वाले दर्जे तक उठा दिया । सर्वप्रथम वह 1731 में बंगाल मैं फ्रांसीसियों की बस्ती चंद्रनगर का गवर्नर बना और दस साल के अंदर इस केंद्र से फ्रांस के व्यापार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई ।

दुप्ले काम का मतवाला था और भारत से गुणा करता था लेकिन एक लाभदायी निजी व्यापार में लगकर उसने भारी धनराशि क्रमाई । उसे 1742 में पांडिचेरी की जिम्मेदारी मिली और शीघ्र ही वह वहाँ के व्यापार का बढ़ाने में जुट गया ।

पर इससे भी अहम बात यह है कि उसने एक राजनीतिक खेल गरभ कर दिया । भारतीय राजाओं के विवादों में हस्तक्षेप करने और इस तरह बड़े-बड़े क्षेत्रों पर राजनीतिक नियंत्रण प्राप्त करने का रास्ता उसी ने दिखाया ।

यह एक ऐसी तकनीक थी जिसे बाद में अंग्रेज कंपनी ने जो भारतीय रंगमंच पर फ्रांसीसियों की प्रमुख यूरोपीय व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी थी पूर्णता तक पहुँचा दिया । यूरोप में 1740 में आस्ट्रिया के ज्ज्गधिकार का युद्ध आरंभ हुआ तो भारत में दोनों यूरोपीय प्रतियोगियों के राजनीतिक टकराव की परिस्थिति बन गई ।

बंगाल में उनकी शत्रुता पर अलीवर्दी खाँ के कारगर म्मक्षेप ने अंकुश लगाकर रखा था । लेकिन दक्षिण में फ्रांस की स्थिति मॉरीशस से एक ब्रस् आने के बाद मजबूत हो गई और फिर इसका परिणाम मद्रास में अंग्रेजों के ठिकाने आक्रमण था ।

मद्रास के समर्पण के साथ पहला कर्नाटक युद्ध आरंभ हुआ क्योंकि त्यजो ने कर्नाटक के नवाब से सुरक्षा के लिए प्रार्थना की थी । नवाब ने फ्रांसीसियों विरुद्ध एक सेना भेजी पर उसको बुरी तरह हार मिली । इस चरण में दूप्ले और दंड-जरल ला बोर्दोनियर के मतभेदों से भी फ्रांस की स्थिति कमजोर हुई और ला बोर्दोनियर मद्रास के समर्पण के बाद मॉरीशस लौट गया ।

सितंबर 1746 मैं दूजैं ने मद्रास एक और हमला किया जिसने समर्पण करा दिया । उसके बाद फोर्ट सेंट डेविड पर कब्ज़ा हुआ, जो पांडिचेरी से दक्षिण में एक गौण महत्त्व का अंग्रेज ठिकाना था । लेकिन यह सब और लंबा खिंचे इससे पहले ही यूरोप में ऐक्स-ला-शैपैल की संधि के द्वारा यूरोप में शत्रुताओं की समाप्ति ने भारत में अतल-फ्रांसीसी टकराव के पहले दौर का भी समापन कर दिया । भारत में अंग्रेजों के स्वामित्व के क्षेत्र लौटा दिए गए, जबकि फ्रांसीसियों को उत्तरी अमेरिका में अपने क्षेत्र वापस मिल गए ।

भारत में राजवंशों के टकरावों से पैदा हुई राजनीतिक जटिलताओं ने दक्षिण में आंग्ल-फ्रांसीसी टकराव के दूसरे दौर की परिस्थिति तैयार की । कर्नाटक और हैदराबाद दोनों में उत्तराधिकार के विवादों ने फ्रांसीसी गवर्नर जनरल दुप्ले को भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने और इस तरह महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय और वित्तीय रियायतें प्राप्त करने का अवसर दिया ।

फ्रांसीसियों ने कर्नाटक के तख्त के लिए चंदासाहब और हैदराबाद के तख्त के लिए मुज़फ्फ़र जंग का समर्थन किया जबकि अंग्रेजों ने उनके विरोधी उम्मीदवारों का साथ दिया । दोनों फ्रांसीसी उम्मीदवार विजयी रहे और हैदराबाद के नए निजाम मुझक्कर जंग ने नॉर्दर्न सरकार्स में एक जागीर के रूप में मसुलीपट्टम और पांडिचेरी के आसपास कुछ गाँवों के रूप में फ्रांसीसियों को काफी क्षेत्रीय रियायतें दे दीं तथा एक फ्रांसीसी एजेंट की नियुक्ति के द्वारा उसने उरपने दरबार में उनको महत्त्वपूर्ण नियंत्रण भी सौंप दिया ।

अंग्रेज इस कारण सचेत हो गए; रॉबर्ट क्लाइब के नेतृत्व में कलकत्ता से एक शक्तिशाली सेना आई और 1752 में दूसरा कर्नाटक युद्ध आरंभ हो गया । इस बार विजयी अंग्रेज रहे; अर्काट पर क्लाइव के कब्जे के बाद मुहम्मद अली को रिहा करके कर्नाटक के तख्त पर बिठाया गया ।

दूप्ले ने फ्रांस की स्थिति को ठीक करने का प्रयास किया पर फ्रांस की सरकार उससे अप्रसन्न हो गई खासकर वित्तीय हानियों के कारण और 1754 में उसे वापस बुला लिया गया । अंग्रेजों के मुकाबले उसकी असफलता की व्याख्या अनेक कारणों के आधार पर की जा सकती है, जैसे उसकी गलत चालें और गलत अनुमान फ्रांसीसी सरकार और कंपनी का समर्थन न मिलना फ्रांसीसियों की उत्तरी अमेरिका में अपने ठिकाने बचाकर रखने की चिंता और साथ ही उपनिवेशों के संघर्षो मैं फ्रांस की बुनियादी कमजोरी जो बाद के युद्धों में भी स्पष्ट हुई ।

लेकिन दूजे की नीतियों को और भारत में उसकी उपलब्धियों को पूर्णतया नकारा नहीं जा सकता । उसकी जगह गोदेहियो को लाया गया जिसने 1754 में अंग्रेजों के साथ एक संधि कर ली । इस संधि के अनुसार पांडिचेरी और कराइकल के आसपास के इलाके कर्नाटक में उनकी महत्त्वपूर्ण चौकियाँ नॉर्दर्न सरकार्स के चार जिले और हैदराबाद दरबार में नियंत्रक प्रभाव फ्रांसीसियों के ही हाथों में रहे । इस तरह दक्षिण में फ्रांस की शक्ति अभी भी समाप्त नहीं हुई ।

यूरोप में इंग्लैंड और फ्रांस के बीच 1756 में सप्तवर्षीय युद्ध के आरंभ ने भारत में उपाग्ल-फ्रांसीसी टकराव के तीसरे और निर्णायक दौर का आधार तैयार किया । वित्तीय कठिनाइयों के कारण अब तक फ्रास की स्थिति बहुत कमजोर हो चुकी थी क्योंकि सैनिकों को भी कई महीनों तक वेतन नहीं मिलता था । फ्रांस सरकार की उदासीनता यूरोप में शत्रुताओं के आरंभ के कारण जाती रही और काउंट दे लाली के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी गई ।

फिर भी भारत में फ्रांसीसियों के ठिकाने एक-एक करके निकल गए-पहले बंगाल में चंद्रनगर का पतन हुआ; फिर जब कर्नाटक में लाली की सहायता के लिए बुसी को बुलाया गया तो नॉर्दर्न सरकार्स पर बंगाल की ओर से एक हमले का रास्ता खुल गया; इन सरकारों (जिलों) के और साथ में मसुलीपट्टम और यनम नाम की दो पुरानी बस्तियों के पतन के साथ दकन में फ्रांसीसियों का प्रभाव समाप्त हो गया ।

अंग्रेजी बड़ा बंगाल से मुड़ा और अगस्त 1758 में उसने फ्रांसीसियों को भारी नुकसान पहुँचाए; कर्नाटक में फ्रांसीसियों के सारे किले ढह गए । लाली को मद्रास का घेरा उठाना पड़ा और इस मुहिम का खर्च कर्नाटक के नवाब ने दिया ।

तीसरे कर्नाटक युद्ध की सबसे निर्णायक लड़ाई जनवरी 1760 में वैडीवाश की लड़ाई थी । मई में पांडिचेरी पर घेरा पड़ा और जनवरी 1761 में उसने समर्पण कर दिया; युद्ध का खर्च एक बार फिर कर्नाटक के नवाब ने ही उठाया । उसी साल मलाबार तट पर माहे और कर्नाटक के आखिरी दो किलों, जिंजी और ठियागार का पतन हुआ । फ्रांसीसियों के पास भारत में अब पैर जमाने की जगह नहीं बची ।

फ्रांसीसियों की इस निर्णायक हार के अनेक कारण गिनवाए जा सकते हैं जैसे लाली की जल्दबाजी और घमंड जिसने पांडिचेरी में लगभग सभी फ्रांसीसी अधिकारियों को नाराज कर रखा था; धन की भयानक कमी जिससे सैनिक कार्रवाइयों में बाधा पड़ती रहती थी; दकन से बुसी का वापस बुलाया जाना; और सबसे बढ्‌कर अंग्रेज नौसैना की श्रेष्ठता उनके लिए धन की तत्काल आपूर्ति और उनका नया-नया आत्मविश्वास ।

1763 में पेरिस की संधि के कारण फ्रांस को भारत में वे सभी फैक्टरियाँ और बस्तियाँ वापस मिल गईं जो उसके पास 1749 से पहले थीं; शर्त यह थी कि वे अब कभी चंद्रनगर की किलाबंदी नहीं कर सकते थे । लेकिन अंग्रेज कंपनी की शक्ति में निरंतर वृद्धि के साथ भारत में शक्ति-संतुलन अब तक निर्णायक रूप से बदल चुका था ।

फ्रांस की इंडिया कंपनी आखिरकार 1769 में तोड़ दी गई और इस तरह भारत में उनका अंग्रेजों का प्रमुख यूरोपीय प्रतिद्वंद्वी रहा ही नहीं । अंग्रेज कंपनी अब व्यवहार में कर्नाटक की भी स्वामी थी हालांकि पेरिस की संधि ने नवाब को उसका पूरा राज्य उसी के पास रहने देने का आश्वासन दिया था ।

उसकी नाममात्र की प्रभुसत्ता का 1801 तक सम्मान किया जाता रहा; फिर सत्तासीन नवाब की मृत्यु के बाद उसके इलाकों पर कब्जा कर लिया गया और उसके उत्तराधिकारी को पेंशन दे दी गई । हैदराबाद भी अंग्रेजों पर लगभग पूरी तरह निर्भर हो गया और 1766 में निजाम ने अपने शक्तिशाली पड़ोसियो के विरुद्ध सैन्य सहायता मिलने पर बदले में कंपनी को नॉर्दर्न सरकार्स दे दिया ।

आंग्ल-फ्रांसीसी शत्रुता ने भारत में बड़ी संख्या में शाही फौजों को लाकर दूसरे भारतीय पा के सापेक्ष अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी के सैन्य बल को बहुत बड़ा दिया । भारत में शक्ति-संतुलन अब निर्णायक रूप से उसी के पक्ष में झुकने लगा ।

इसी के साथ हम दूसरे भारतीय शासकों के साथ कंपनी के संबंध के प्रश्न पर पहुँचते हैं । अठारहवीं सदी में भारतीय राज्य लगातार आपसी टकरावों में उलझे रहते थे । उनकी क्षेत्रिय प्रसार की आकांक्षा नए-नए संसाधनों पर नियंत्रण पाने के लिए ! थी क्योंकि आंतरिक दृष्टि से देखें तो अनेक क्षेत्रों में राजस्व की वसूली अब अपनी लूट की स्थिति में पहुँच चुकी थी ।

राजनीतिक स्तर पर हर एक दूसरे पर श्रेष्ठता पाने के प्रयास करता रहता था और अंग्रेजों को सत्ता के इस खेल का बस एक नया खिलाड़ी समझा जा रहा था । अठारहवीं सदी के राजनीतिक संदर्भ में एक विदेशी शक्ति के विरुद्ध एक राष्ट्र के रूप में एकजुट होना भारतीय राजाओं की कल्पना से भी परे था ।

इसलिए आश्चर्य नहीं कि वे अपने पड़ोसियों के साथ अपने टकरावों में शक्ति का संतुलन अपने पक्ष में झुकाने के लिए अक्सर कंपनी के साथ कूटनीतिक गठबंधन कायम करते रहते थे । भारतीय राज्यों की इस आपसी शत्रुता ने अंग्रेजों को स्थानीय राजनीति में हस्तक्षेप का अवसर दिया जबकि व्यापारिक हित इसके लिए पर्याप्त प्रेरणा के स्रोत होते थे ।

लेकिन जैसा कि आगे की कहानी से संकेत मिलेगा कंपनी केवल अवसरों पर प्रतिक्रिया नहीं कर रही थी जैसा कि कुछ इतिहासकारों ने सुझाया है; वह हस्तक्षेप और विजय के लिए ऐसे अवसर पैदा करने के लिए भारी पहल भी दिखा रही थी क्योंकि असुरक्षित सीमाओं या अस्थिर राज्यों को अकसर व्यापार के मुक्त प्रवाह के लिए खतरनाक समझा जाता था ।

यह सही है कि 1784 में पिट्‌स इंडिया ऐक्ट के पारित होने के बाद थोड़े समय तक साम्राज्यिक प्रसार पर संसद का प्रतिबंध लगा रहा और इस काल में बोर्ड ऑफ कंट्रोल और ईस्ट इंडिया कंपनी की नीति का विशेष बल भारतीय राज्यों के बीच सावधानी के साथ शक्तियों के संतुलन को बढावा देकर और इस तरह (ब्रिटिश) सम्राट की सैनिक जिम्मेदारियों में कमी लाकर ब्रिटिश क्षेत्रों की रक्षा करना और व्यापारिक हितों को बढ़ावा देना था ।

लेकिन सावधानी की इस नीति को तब पलीता लगा दिया गया जब 1798 में वेलेजली गवर्नर जनरल बनकर विजय के सपने सँजोए और व्यक्तिगत गरिमा का लोभ लिए हुए भारत आया । यहाँ पहुँचने से पहले ही उसने तय कर लिया था कि भारत में शक्ति-संतुलन की नीति अब आगे जारी नहीं रखी जाएगी और इसलिए एक साम्राज्य की आवश्यकता है ।

1798 की गर्मियों में मिस्र पर नेपोलियन के आक्रमण ने उसे प्रसार के प्रश्न पर लंदन के प्रतिरोध को कम करने के लिए एक उपयोगी अवसर प्रदान किया हालांकि एक पल के लिए भी उसका यह मत नहीं रहा कि मिस्र से स्थल-मार्ग से या केप ऑफ गुड होप होकर जलमार्ग से ब्रिटिश भारत पर फ्रांस के हमले का कोई खतरा नहीं था ।

फिर भी, लंदन की चिंताओं को शांत करने के लिए उसने ‘सहायक संधि’ (Subsidiary Alliance) की नीति विकसित की जो सम्राट पर सीधे-सीधे कोई बोझ डाले बिना किसी भारतीय राज्य के आंतरिक मामलों पर कंपनी का नियंत्रण स्थापित करे ।

प्रसार के बारे में वेलेजली के निजी एजेंडे को आंग्ल-भारतीय कूटनीतिक सेवा के कार्मिकों के एक परिवर्तन ने भी बल पहुँचाया; अब नए कार्मिक ‘आगे बढ़ा’ की नीति के समर्थक थे । जैसा कि एडवर्ड इनग्रैम का तर्क है वेलेजली ”स्थानीय दशाओं के प्रत्युत्तर में एक नीति तैयार नहीं कर रहा था बल्कि वह अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ पैदा करने का प्रयास कर रहा था…। अगर भारत की राजनीति उथल-पुथल से भरी थी तो उसने उसे खतरे से भरा बतलाया अगर उसमें शांति थी तो उसने उसे हलचल से भर दिया ।”

लेकिन लंदन में बैठे सत्ताधीश भी इस साम्राज्यिक नाटक के भोले दर्शक या मासूम नहीं थे । उन्होंने 1784 के बाद ब्रिटिश विदेश नीति के सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमले की सभी कार्रवाइयों को स्वीकृति दी अर्थात् यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों के सभी खतरों से ब्रिटिश भारत की रक्षा करने के लिए ।

वेलेजली को 1805 में तभी वापस बुलाया गया जब उसके विजय के लिए किए गए युद्धों ने कंपनी के भारतीय प्रशासन को एक गंभीर वित्तीय संकट में डाल दिया । इस संदर्भ में यह समझना कठिन नहीं है कि हैदर अली और टीपू सुल्तान के शासन में मैसूर की राजनीतिक शक्ति को मद्रास और कर्नाटक में अंग्रेजों की स्थिति के लिए एक सुरक्षा संबंधी खतरा समझा जा रहा था ।

कुछ सालों के भीतर मैसूर की सीमाएँ उत्तर में कृष्णा नदी से लेकर पश्चिम में मलाबार तट तक फैल चुकी थीं जिसके कारण निश्चित रूप से उसका टकराव उसके भारतीय पड़ोसियों से खासकर हैदराबाद और मराठों से हुआ ।

और ये दोनों भी अकसर अंग्रेजों से मिले रहते थे जो फ्रांसीसियों के साथ मैसूर की मित्रता के बारे में शंकित रहते थे । लेकिन खतरे की यह समझ वास्तविक कम और ”भ्रामक” अधिक थी क्योंकि अब भारत में फ्रांसीसियों के उत्थान की या बाहर से फ्रांसीसी हमले की संभावना नहीं के बराबर थी ।

मलाबार तट के समृद्ध व्यापार पर मैसूर के नियंत्रण को भी अंग्रेजों के काली मिर्च और इलायची के व्यापार के लिए खतरा समझा जा रहा था । 1785 में टीपू सुल्तान ने अपने रजवाड़े की बंदरगाहों से काली मिर्च चंदन की लकड़ी और इलायची के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया ।

फिर 1788 में उसने अंग्रेजों से लेन-देन को पूरी तरह समाप्त कर दिया । अब कंपनी के निजी मौदागरों के हित निश्चित रूप से अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए प्रत्यक्ष गजनीतिक हस्तक्षेप की एक नीति की माँग करने लगे ।

लेकिन सबसे अहम बात यह है कि टीपू सुल्तान मैसूर में एक सशक्त केंद्रीकृत और सैन्यीकृत राज्य बनाने के प्रयास कर रहा था जिसकी भू-भाग संबंधी महत्त्वाकांक्षी योजनाएँ थीं और दक्षिण भारत की राजनीति को नियंत्रित करने की राजनीतिक आकांक्षा थी ।

इस तरह वह दक्षिण मैं कंपनी का अभी तक कमजोर स्थिति के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया । टॉमस मुनरो और अलैक्वेडर रीड जैसे युवा सैनिक अधिकारी देख रहे थे कि मैसूर का ”वणिकवादी राज्य” (Mercantilist State) दक्षिण में कंपनी के राज्य जैसी ही वर्चस्ववादी महत्त्वाकांक्षा का सूचक था और इसलिए भारतीय राज्यों के बीच शक्ति-संतुलन के सिद्धांत पर अधारित किसी भी अप्रत्यक्ष शासन व्यवस्था के बारे में उसपर विश्वास नहीं किया जा नकता था ।

इसलिए मद्रास का असैनिक प्रशासन भले ही ढुलमुल रहा हो वह गवर्नर जनरलों पहले लॉर्ड कॉर्नवॉलिस और फिर लॉर्ड वेलेजली से इस बात पर सहमत था मैसूर को समाप्त करना आवश्यक है । 1799 में अंतत: मैसूर के अधिग्रहण से पहले कंपनी और मैसूर के बीच लड़ाई के स्टार दौर (1767-69, 1780-84, 1790-92 और 1799) चले ।

पहले आंग्ल-मैसूर युद्ध मैं मराठे और निजाम हैदर अली के विरुद्ध अंग्रेजों के साथ थे; दूसरे में उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध हैदर से हाथ मिलाए । लेकिन ये दोनों शक्तियाँ 1790 में फिर अंग्रेजों के साथ हो गई जब लॉर्ड कॉर्नवॉलिस के काल में अंग्रेजों ने टीपू सुन्तान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी जिसने उस समय हाल ही में उनके सहयोगी त्रावणकोर के राजा पर हमला किया था । इस लड़ाई के अंत में कंपनी ने डिंडीगुल बड़ामहल और मलाबार पर कब्जा कर लिया ।

कुछ साल बाद फ्रांसीसियों के पुनरूत्थान और उनके साथ टीपू सुल्तान की गुप्त वार्ताओं ने लॉर्ड वेलेजली को उपनिवेशी आक्रमण के अंतिम दौर के लिए निर्णायक कार्रवाई करने का बहाना दे दिया । 1799 में मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टम पर कंपनी का अधिकार हो गया जबकि उसकी रक्षा करते हुए टीपू मारा गया ।

मैसूर को जिसे एक बार फिर पहले के वाडियार वंश को सौंप दिया गया लॉर्ड वेलेजली की सहायक संधि की व्यवस्था में शामिल कर लिया गया । इसका अर्थ स्वतंत्र मैसूर राज्य की समाप्ति था । इस व्यवस्था के अंतर्गत वह दूसरी यूरोपीय शक्तियों से कोई संबंध नहीं रख सकता था कंपनी की सेना का एक दस्ता मैसूर में रखा जाना था और मैसूर के खजाने से ही उसके रखरखाव का प्रबंध किया जाना था ।

मैसूर के इलाके का एक भाग निजाम को दे दिया गया जो पहले ही सहायक संधि को स्वीकार कर चुका था जबकि वायनाड कनाडा और कुंडा जैसे भागों को कंपनी ने सीधे अपने अधिकार में ले लिया । इस तरह गुजरात से बंबई के रास्ते चीन के साथ कंपनी के कपास-व्यापार की अकस्मात वृद्धि ने उसे दकन की सुरक्षा के विषय में चिंता में डाल दिया जो तब मराठा महासंघ के अंतर्गत था ।

उत्तराधिकार के एक विवाद ने उनको हस्तक्षेप का पहला अवसर प्रदान किया क्योंकि रघुनाथराव जिसने अपने भतीजे पेशवा नारायणराव को एक षड्‌यंत्र द्वारा मरवा डाला था अब मराठा सरदारों का संयुक्त विरोध झेल रहा था और बंबई स्थित अंग्रेजों को अपना संभावित नया सहयोगी समझने लगा था ।

मार्च 1775 में गुजरात में रघुनाथराव की सेना हारी और मद्रास व बंबई से एक संयुक्त ब्रिटिश सेना उसके लिए पहुँच गई । 1776 में पुरंदर की अधूरी संधि ने रघुनाथराव से समर्थन वापस लेने के बदले कंपनी को अनेक रियायतें दी ।

लेकिन बंगाल के अधिकारियों ने इस संधि की पुष्टि नहीं की और 1777 में युद्ध फिर से आरंभ कर दिया गया । अब तक मराठा सेनाएँ नाना फड़नवीस सिंधिया और होलकर के नेतृत्व में फिर से एकजुट हो चुकी थीं और उन्होंने वड़गाँव में (1779 में) अंग्रेजों को करारी मात दी ।

लेकिन अंग्रेजों को फिर भी दक्षिणी गुजरात का राजस्व मिलने लगा क्योंकि बंगाल से आए एक शक्तिशाली दस्ते ने गायकवाड़ को उसके समर्पण के लिए मजबूर कर दिया । यह वह समय था जब मराठा शासन-व्यवस्था के राजनीतिक केंद्र में नाना फड़नवीस का उदय हुआ । 1781 में वे और भोंसले परिवार अंग्रेजों के विरुद्ध निजाम और हैदर अली के साथ एक महागठजोड़ कर चुके थे ।

लेकिन अनिर्णायक पहला आंग्ल-मराठा युद्ध 1782 में सलबई की संधि के द्वारा समाप्त हो गया जिसने मराठों को एक बार फिर कंपनी से मित्रता रखने और मैसूर से टकराने के लिए भी प्रतिबद्ध कर दिया । मराठा राज्य अब तक दुखद स्थिति में पहुँच चुका था जिसका कारण सरदारों के बीच तीखा अतिरिक टकराव था । नाना फड़नवीस ने पेशवा को लगभग असहाय बना रखा था ।

1795 में कुंठा के मारे पेशवा ने आत्महत्या कर ली और फिर उत्तराधिकार का जो विवाद उठा उसने पूरी मराठा शासन-व्यवस्था को उलझाकर रख दिया । नया पेशवा बाजीराव द्वितीय नाना फड़नवीस से छुटकारा पाना चाहता था और उसने विभिन्न स्थानों पर सहयोगियों की तलाश की ।

1800 में फड़नवीस की मृत्यु के बाद अफरातफरी और गहरी हो गई । जहाँ दौलतराव सिंधिया ने पेशवा का समर्थन किया वही होलकर की सेना ने मालवा में उसके इलाकों को लूटना शुरू कर दिया । निराश पशवा ने सहायता के लिए एक बार फिर कंपनी की ओर देखा ।

इस बीच वेलेजली के आन के बाद भारतीय राज्यों के प्रति ब्रिटेन के रवैयों में एक उल्लेखनीय परिवर्तन आ चुका था जैसा कि हमने देखा हैदराबाद सहायक संधि को स्वीकार कर चुका था; जबकि 700 में मैसूर को कुचला जा चुका था ।

इस तरह कंपनी को मराठों का अब सीधा मामना करना पड़ा जो उपमहाद्वीप में अकेली बची महत्त्वपूर्ण देशी शक्ति थे । होलकर नं सेना ने जब अक्तूबर 1802 में पेशवा की सेना को हराया और पूना को लूटा तो, पेशवा भागकर अंग्रेजों के पास बसाईं चला गया और उसे 1803 में एक सहायक संधि हस्ताक्षर के लिए विवश कर दिया गया ।

सूरत को कंपनी को सौंप दिया गया जबकि जावा ने एक अंग्रेज सेना का खर्च उठाने तथा अपने दरबार में नियुक्त अंग्रेज रेजिडेंट से सलाह-मशविरा करते रहना स्वीकार कर लिया । उसके बाद बाजीराव को पहरे में पूना भेजकर पर बिठाया गया । लेकिन इसका अर्थ अभी भी स्वतंत्र मराठा सत्ता का अंत नहीं था ।

वास्तव में यही दूसरे अतल-मराठा युद्ध (1803-05) का आरंभ था क्योंकि कर ने शीघ्र ही पेशवा-पद के लिए एक विरोधी उम्मीदवार पेश कर दिया और योगियों की खोज करने लगा । दूसरी ओर लॉर्ड वेलेजली और लॉर्ड लेक ने एक बड़ी-उतारी और अगले दो वर्षो तक पूरे मराठा प्रदेश में विभिन्न मोर्चो पर लड़ाई चलती अंत में मराठों के अनेक अधीनस्थों जैसे राजपूत राज्यों जाटों मलिक और उत्तरी जबकि सिंधिया के साथ की गई एक संधि ने दिल्ली और आगरा सहित यमुना न उत्तर उसके सारे इलाके गुजरात में उसके सभी इलाके और दूसरे मराठा घरानों नमक दावे अंग्रेजों को सौंप दिए ।

इस संधि ने दूसरे यूरोपीय को किसी भी मराठा में सेवा करने से मना कर दिया और मराठा घरानों के किसी भी विवाद में अंग्रेजों मस्थ बना दिया । लेकिन यह भी मराठा सत्ता का पूर्ण अंत नहीं था । दूसरी ओर लड़ाइयों का अर्थ कंपनी पर भारी आर्थिक बोझ था और कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने, जो लॉर्ड वेलेजली की ‘आगे बढ़ो’ की नीति से पहले ही असंतुष्ट था, उसे 1805 में वापस बुला लिया ।

अहस्तक्षेप की नीति अपनाने का सुस्पष्ट निर्देश देकर लॉर्ड कॉर्नवालिस को फिर से भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया । इसके कारण होलकर और सिंधिया जैसे मराठा सरदारों को अपनी खोई हुई शक्ति को एक सीमा तक फिर से पाने का अवसर दिया, जबकि उनके अनियमित सैनिक जिनको पिंडारी कहा जाता था मालवा और राजस्थान के गाँवों को लूटने लगे ।

यह स्थिति कुछ समय तक 1813 में लॉर्ड हेस्टिंग्ज के गवर्नर जनरल बनकर आने तक जारी रही । उसने ‘सर्वोच्चता’ की नई नीति आरंभ की जिसमें भारत को दूसरी शक्तियों के हितों पर सर्वोच्च शक्ति के रूप में कंपनी के हितों को वरीयता दी गई और अपने हितों की रक्षा के लिए कंपनी किसी भी भारतीय राज्य का वैधता के साथ अधिग्रहण कर सकती थी या अधिग्रहण करने की धमकी दे सकती थी ।

इन्हीं दिनों पेशवा बाजीराव द्वितीय ने मराठा सरदारों को लामबंद करके अंग्रेजों से अपनी स्वतंत्रता फिर से पाने का अंतिम असफल प्रयास किया । इसका परिणाम तीसरा आग्ल-मराठा युद्ध (1817-19) था जिसमें होलकर की सेना और पिंडारियों को बुरी तरह कुचल दिया गया ।

अंग्रेजों ने पेशवा के इलाकों पर पूरा नियंत्रण स्थापित कर लिया और स्वयं पेशवा-पद को समाप्त कर दिया गया । भोंसले और होलकर के इलाकों के काफी बड़े भाग भी जब उन्होंने अधीनता की संधि पर हस्ताक्षर किए तो कंपनी के को दे दिए गए । अब विंध्य से दक्षिण के सभी क्षेत्रों पर कंपनी का पूरा-पूरा नियंत्रण हो गया ।

उत्तर भारत में भी अब तक व्यापक पैमाने पर भू-क्षेत्र जीते जा चुके थे । अक्सर के युद्ध और इलाहाबाद की संधि के बाद से ही अवध बंगाल में कंपनी की स्थिति और उत्तर भारत की राजनीति के बीच एक तटस्थ राज्य का काम कर रहा था ? और इस राजनीति को खासकर मराठों ने भँवर में डाल रखा था ।

1773 में लखनऊ दरबार में एक अंग्रेज रेजिडेंट रखकर और अवध में स्थायी रूप से एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी रखकर जिसका खर्च एक अनुदान के रूप में नवाब शुजाउद्दौला को उठाना था अवध में ब्रिटेन के रणनीतिक हितों को सुरक्षित किया गया ।

लेकिन शीघ्र ही यह एक विवादास्पद प्रश्न बन गया क्योंकि कँपनी द्वारा अनुदान की राशि की माँग धीरे-धीरे बढ़ती गई । इस बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए नवाब को नए कर लगाने पड़े जिसके कारण तान्नकदारों के साथ उसके संबंध बिगड़े ।

राज्य में राजनीतिक अस्थिरता के बढ़ने का मुख्य कारण यही था जो अंतत सीधे-सीधे अधिग्रहण का बहाना बन गया । वरन हेस्टिंग्ज ने जो 1774 में गवर्नर जनरल बना पहले तो यह तर्क दिया कि अनुदान का नियमित भुगतान सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा उपाय यह था कि अवध के उतने इलाके का अधिग्रहण कर लिया जाए जितने का भू-राजस्व अनुदान की राशि के बराबर हो ।

फ्रांसीसियों और मैसूर के साथ हुए युद्ध से परेशान कंपनी को उस चरण में धन की बहुत आवश्यकता थी । यह बात बनारस के चैतसिंह से की गई माँगों उसकी दे सकने में असमर्थता और फिर अगस्त 1781 में उसके पदक्षत करने से पूरी तरह स्पष्ट हो गई ।

यही संकट सीधे-सीधे वरन हेस्टिंग्ज के निर्देश पर अभी भी शुजा के खजानों को नियंत्रित करनेवाली अवध की बेगमों से धन ऐंठने की विचित्र कहानी में भी व्यक्त हुआ । स्पष्ट रूप से बहाना नवाब पर कँपनी के बढ़ते ऋण को चुकाने का था ।

इस तरह स्पष्ट है कि अवध का अधिग्रहण कुछ समय से चर्चा में था और वेलेजली ने इसे 1801 में एक ठोस रूप दिया जब नवाब ने यह आशंका व्यक्त की कि हो सकता है वह अनुदान की अदायगी न कर सके इस अधिग्रहण के और भी कारण थे ।

इलाहाबाद की संधि के बाद से ही नवाब शुजाउद्दौला निजी यूरोपीय व्यापारियों और उनके भारतीय गुमाश्तों (नौकरों) द्वारा कंपनी के शुल्क-मुक्त व्यापार संबंधी अधिकारों का जमकर दुरुपयोग किए जाने की शिकायतें करता आ रहा था ।

कंपनी के अधिकारियों ने आधे-अधूरे मन से ही उसे रोकने का प्रयास किया क्योंकि इन सौदागरों पर अंकुश लगाना उनकी शक्ति से बाहर था । इसके अलावा बंगाल से अंग्रेजों के समुद्रमार्गी व्यापार के प्रसार के बारे में अवध निर्णायक महत्त्व प्राप्त कर चुका था ।

अठारहवीं सदी के आखिरी दशक में लंदन में नील की माँग बढ़ रही थी और भारत से नील के कुल निर्यात का लगभग 375 भाग अवध से आ रहा था । उन्नीसवीं सदी के आरंभ से साम्राज्यिक व्यापार-संतुलन को ब्रिटेन के पक्ष में रखने के लिए अवध का कच्चा कपास चीन के बाजार में आपूर्ति की एक और प्रमुख मद बनता जा रहा था ।

”मुक्त व्यापार” सुनिश्चित करने के लिए लॉर्ड कॉर्नवार्लिस के समय में जो संधि 1788 में की गई थी उसके बाद भी अवध के निर्यात पर नवाब द्वारा लगाए गए करों की भारी दर इस संदर्भ में निश्चित ही चिढ़ का कारण थी । लॉर्ड वेलेजली के आने के बाद कंपनी की नीतियों में जब जोरदार प्रसार के पक्ष में झुकाव आया तो अवध का अधिग्रहण निश्चित लगने लगा ।

हस्तक्षेप का पहला अवसर 1797 में नवाब आसफुद्दौला की मृत्यु ने दिया जो 1775 में शुजा का उत्तराधिकारी बना था । अंग्रेजों ने उसके बेटे के उत्तराधिकार के दावे को मान्यता देने से इनकार कर दिया और दिवंगत नवाब के भाई सआदत अली खाँ को तख्त पर बिठा दिया ।

इसकी कीमत के रूप में सआदत कुछेक इलाके सौंपने और सालाना 76 लाख रुपए का भारी-भरकम अनुदान देने के लिए तैयार हो गया । फिर भी इससे समस्या हल नहीं हुई क्योंकि अनुदान देने के लिए तत्पर होने के बावजूद नया नवाब अपने प्रशासन में अंग्रेजों का हस्तक्षेप स्वीकार करने को तैयार नहीं था ।

इसलिए 1801 में वेलेजली ने उस पर एक संधि थोपने के लिए अपने भाई हेनरी को भेजा जिसका परिणाम अनुदान के स्थायी भुगतान के रूप में आधे अवध का अधिग्रहण था । वास्तव में इसका अर्थ रुहेलखंड गोरखपुर और दोआब से हाथ धोना था, जहाँ से 1,35,23,475 रुपए का, अनुदान की रकम के लगभग दोगुने के बराबर राजस्व मिलता था ।

123 वेलेजली ने एक लंबा-चौड़ा नैतिक तर्क देकर अपनी कार्रवाई को उचित ठहराया यह कि सड़-गल चुके देसी प्रशासन से अवध को बचाना उसका उद्देश्य था । 124 लेकिन साम्राज्यवाद की राजस्व और व्यापार संबंधी माँगों से इस प्रश्न को अलग कर सकना कठिन है ।

इससे भी अहम बात यह है कि समस्या यहीं समाप्त नहीं हुई । 1801 के बदोबस्त ने अंग्रेजों की लूट-खसोट को समाप्त नहीं किया हालर्घक इसका उद्देश्य अनुदान का अंतिम भुगतान था । लखनऊ का रेजिडेंसी कार्यालय धीरे-धीरे अवध में सत्ता का एक वैकल्पिक केंद्र बन गया, और उसने विभिन्न प्रकार के अनुग्रहों और राजनीतिक संरक्षण के बदले खरीदारियाँ करके अपने दरबारियों प्रशासकों और जमींदारों की पूरी एक सेना खड़ी कर ली ।

इस तरह रेजिडेंट ने व्यवस्थित रूप से नवाब को सबसे अलग-अलग किया उसकी राजनीतिक और नैतिक सत्ता को कमजोर किया तथा उसकी सैन्य क्षमताओं को कम किया । लॉर्ड डलहौजी ने कुशासन के आधार पर 1856 में जब बचे-खुवे अवध का अधिग्रहण किया तो वह एक लंबी खिंच चुकी प्रक्रिया का मात्र एक तार्किक परिणाम था ।

पंजाब के सिख अब उत्तर भारत में बची एकमात्र बड़ी शक्ति थे । सिख सत्ता को मजबूती अठारहवीं सदी के अंतिम वर्षो (1795-98) में रणजीत सिंह के काल में मिली थी । उसके जीवनकाल में अंग्रेजों के साथ कोई बड़ा तनाव पैदा नहीं हुआ पर उसकी मृत्यु के बाद पंजाब राजनीतिक अस्थिरता का शिकार हो गया । बहुत थोड़े-थोड़े समय के लिए अनेक व्यक्ति सत्ता में आए और पूरा क्षेत्र उत्तराधिकार की लंबी और खूनी लड़ाइयों में उलझ गया ।

लेकिन इन पारिवारिक संघर्षो और दरबारी षड्‌यंत्रों में योगदान उस संवेदनशील शक्ति-संतुलन की समाप्ति ने दिया जिसे पुश्तैनी सरदारों और नवाबों के बीच और शाही दरबार में पंजाबी और जम्मू के डोगरा कुलीनों के बीच रणजीत सिंह ने बनाकर रखा था ।

नौकरशाहों के भ्रष्टाचार और सरदारों के बीच के अंतहीन टकराव ने पंजाब की अर्थव्यवस्था को पंगु करके रख दिया । सेना के खर्च में वृद्धि के कारण 1839 के बाद गाँवों में राजस्व की माँगे बड़ी जिसके कारण राजस्व-संग्रह का जमींदारों ने प्रतिरोध किया ।

दूसरी ओर कारदारों ने भूस्वामी जमींदारों को लूटना और तेज कर दिया और केंद्रीय राजकोष को भी धोखा देते रहे । इन विकासक्रमों ने पंजाबी समाज के अंदर अपसारी प्रवृत्तियों को और बढ़ावा ही दिया । व्यापारी वर्ग राजनीतिक बाधाओं के कारण त्रस्त था और यह पूरी स्थिति अंग्रेजों को हस्तक्षेप के अवसर दे रही थी ।

संक्षेप में यह कि 1839 में जब रणजीत सिंह की मृत्यु हुई तो उसने अपने बेटे खड़क सिंह को उत्तराधिकारी नियुक्त किया । वह बहुत योग्य प्रशासक नहीं समझा जाता था और अपने डोगरा वजीर राजा ध्यान सिंह पर निर्भर हो गया । यह संबंध शुरू में सौहार्द्र से भरा हुआ था पर शीघ्र ही दरबार के डोगरा-विरोधी गुट को संरक्षण देकर महाराजा ने अपने वजीर के पंख कतरने का प्रयास किया ।

पर वजीर ने मुकाबला किया और महाराजा के बेटे नौनिहाल सिंह से गठजोड़ कर लिया । लेकिन यह सिलसिला बहुत आगे बड़े उससे पहले ही 1840 में खड़क सिंह की मृत्यु हो गई और उसके कुछ ही समय बाद उसका बेटा एक दुर्घटना में मारा गया ।

तख्त पर दावे किए शेर सिंह ने जो जीवित बचे छह शाहजादों में एक था और खड़क सिंह की विधवा महारानी चाँद कौर ने जिसने अपने अनजन्मे पोते की ओर से दावा पेश किया जिसको नौनिहाल सिंह की विधवा हो चुकी पत्नी के गर्भ से पैदा होना था ।

इस टकराव में शेर सिंह का साथ डोगरा गुट ने दिया जबकि महारानी के दावे को सिंधाँवालिया सरदारों ने समर्थन दिया जो शाही खानदान की एक और शाखा थे । दोनों दावेदारों ने कंपनी से समर्थन की प्रार्थना की पर कंपनी ने हस्तक्षेप न करने का निर्णय किया ।

शेर सिंह अंतत डोगराओं द्वारा रचे गए एक विचित्र षड़यंत्र के कारण महाराजा बना और एक बार फिर अतिशय शक्तिशाली डोगरा वजीर राजा ध्यान सिंह पर निर्भर हो गया । फिर भी जैसा कि पहले भी हुआ था कुछ ही समय बाद महाराजा ने अपने वजीर की शक्ति कम करने की कोशिश की और दरबार में उसके विरोधियों से गठजोड़ करने लगा जैसे सिधाँवालियों से और अन्य पुश्तैनी सरदारों से ।

लेकिन यह रणनीति उल्टी पड़ी क्योंकि सिधाँवालियों ने 1843 में उसके बेटे के साथ-साथ उसे और वजीर ध्यान सिंह की भी हत्या करके अपना बदला ले लिया । लेकिन फिर बाजी को वजीर के बेटे राजा हीरा सिंह डोगरा ने पलट दिया जिसने सेना के एक भाग को अपनी ओर कर लिया सिंधाँवालियों को नष्ट कर दिया और रणजीत सिंह के सबसे छोटे बेटे पाँच साल के दलीप सिंह को तख्त पर बिठाकर खुद उसका वजीर बन बैठा ।

महल के षड़यंत्रों और सरदारों की आपसी शत्रुताओं का यहीं अंत नहीं हुआ । लेकिन अब तक खालसा सेना अपने आप में एक शक्ति बन चुकी थी और वह पंजाब की राजनीति को नियंत्रित करने लगी । शेर सिंह के शासनकाल में सेना ने पंचायतें (रेजीमेंटों की समितियाँ) बना रखी थीं, जिनकी महाराजा तक सीधी पहुँच थी ।

अब ये पंचायतें दरबार से अधिक से अधिक रियायतों की माँग करने लगीं और हीरा सिंह सेना को पहले से अधिक धन देकर ही अपने को बचाए रख सकता था । लेकिन यह बहुत दिनों तक नहीं चला क्योंकि सेना और पुश्तैनी सरदारों में डोगरा-विरोधी भावनाएँ पैदा होने लगीं ।

हीरा सिंह का दिसंबर 1844 में कत्ल कर दिया गया जिसके बाद दलीप सिंह की माँ महारानी जिंदाँ रीजेंट बनी और उसका भाई सरदार जवाहर सिंह वजीर बना । लेकिन व्यवहार में वह सेना के हाथों की कठपुतली ही बना रहा ।

खालसा सेना के इसी गजनीतिक उदय ने उसके लोकतांत्रिक गणतंत्रवादी नए प्रयोगों ने और लाहौर में किसी स्थिर सरकार के न होने की संभावना ने ही अंग्रेजों को पंजाब के बारे में चिंतित कर दिया । उन्नीसवीं सदी के आरंभ में कंपनी सिख राज्य को एक ओर अपने उत्तर भारतीय क्षेत्रों और दूसरी ओर फारस और अफगानिस्तान की मुस्लिम शक्तियों के बीच नटस्थ शक्ति के रूप में बनाए रखना चाहती थी ।

लेकिन निरंतर वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता ने उस योजना को अव्यावहारिक बना दिया और इसलिए 1840 के दशक के आरंभिक वर्षो में बहुत से लोग एक आंग्ल-सिख टकराव को अपरिहार्य समझने लगे । अंग्रेजों की ओर से इसके लिए 1843 में तैयारियाँ आरंभ हुई और जब स्थिति में स्थिरता नहीं आई और सेना ने सितंबर 1845 में जवाहर सिंह को मौत के घाट उतार दिया तो लॉर्ड हारिज ने तय किया कि मुकाबले का समय आ चुका है । उसने 13 दिसंबर, 1845 को लाहौर राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और इस तरह पहला आनल-सिख युद्ध आरंभ हो गया ।

नेतृत्व की असफलता और कुछ सरदारों की गद्दारी प्रचंड सिख सेना की हार का कारण बनी । मार्च 1846 में लाहौर की अपमानजनक संधि के फलस्वरूप अंग्रेजों ने जलंधर दोआब को हड़प लिया और कश्मीर जम्मू के राजा गुलाब सिंह डोगरा को दे दिया गया जो कंपनी के प्रति उसकी वफादारी का पुरस्कार था ।

लाहौर की सेना की संख्या घटा दी गई और वहाँ एक अंग्रेज सेना रख दी गई । दिसंबर की एक अन्य संधि ने महारानी जिदीं को रीजेंट-पद से हटा दिया एक रीजेंसी काउंसिल का गठन किया और लाहौर के अंग्रेज रेजिडेंट को राज्य के हर विभाग के कार्यकलापों के निर्देशन और नियंत्रण का व्यापक अधिकार दे दिया ।

लेकिन अंग्रेजों का अंतिम उद्देश्य पंजाब का पूरा अधिग्रहण था जिसे दूसरे आंग्ल-सिख युद्ध के बाद 1849 में गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने पूरा किया । दो सिख सूबेदारों मुल्लान के दीवान मूल राज और सरदार चत्तरसिंह अटारीवाला और उसके बेटे हरीपुर के राजा शेर सिंह का विद्रोह हमले का तात्कालिक कारण था ।

लड़ाई के पहले दो चरणों नवंबर 1848 में रामनगर में और जनवरी 1849 में चिलियाँवाला में अंग्रेजों को भारी नुकसान उठाना पड़ा । लेकिन जल्द ही फरवरी-मार्च में स्थिति पलट गई क्योंकि विद्रोही सरदारों ने एक-एक करके समर्पण कर दिया ।

29 मार्च, 1849 को महाराजा दलीप सिंह ने अधिग्रहण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किया फिर तो पंजाब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्य का एक प्रति बन गया । उन्नीसवीं सदी में भारत के दूसरे भाग भी धीरे-धीरे कंपनी के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण में आए क्योंकि स्वयं साम्राज्य या और सही-सही कहें तो साम्राज्य का सरक्षण और अधिक साम्राज्यिक प्रसार के औचित्य का तर्क बन गया ।

भारत के सत्ताधीश और खासकर सैन्य प्रतिष्ठान भारतीय साम्राज्य के लिए हमेशा बाहरी खतरे और अंदरूनी खतरे के भी अनुमान लगाते रहे और तलवार की शक्ति का जोरदार प्रदर्शन उनकी समझ में सुरक्षा की सबसे अच्छी गारंटी था ।

और आगे प्रसारवादी आक्रमण के विरुद्ध कंपनी के लंदन स्थित डायरेक्टरों के मन में सतर्कता की जो भी मंशा रही हो इस तर्क ने उन सबको किनारे लगा दिया । शांति सुनिश्चित करने और खर्चीले साम्राज्यिक युद्धों से बचने का सुस्पष्ट निर्देश लेकर लॉर्ड एम्हर्स्ट गवर्नर जनरल के रूप में भारत आया पर बंगाल की पूर्वोत्तर सीमा पर उसे बर्मा के साथ बढ़ते संकट का सामना करना पड़ा ।

बर्मा का राजतंत्र अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही प्रसारवादी प्रवृत्तियाँ दिखाने लगा था जब उसने पेगू तेनासरीम और अरकान को अधीन बनाया और फिर उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में मणिपुर कछार और अंत में असम तक अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा लिया ।

अधिग्रहण हमेशा अतीत की इन कार्रवाइयों का परिणाम नहीं रहा और इसलिए आरंभ के गवर्नर जनरलों ने उनको अनदेखा करना ही उचित समझा । लेकिन 1822-23 में लगभग छह वर्षों तक साम्राज्यिक युद्धों में ठहराव के बाद आंग्ल-भारतीय सैनिक कुलीनवर्ग यह तर्क देने लगा कि साम्राज्य के अंदरूनी शत्रुओं की हिम्मत बर्मा की धृष्ठ घुसपैठों के कारण बढ़ रही थी ।

इसलिए जरूरी है कि बर्मा को एक सबक सिखाया जाए और बेहतर हो कि ताकत का जोरदार प्रदर्शन करके सिखाया जाए । इस तरह 1824-28 में कंपनी का पहला बर्मा युद्ध आरंभ हुआ जिसका परिणाम था पूर्वोत्तर भारत में असम और नगालैंड का तथा दक्षिणी बर्मा में अरकान और तेनासरीम का अधिग्रहण ।

1830 में कछार कंपनी के इलाके में शामिल कर लिया गया; कुर्ग का अधिग्रहण आगे चलकर लॉर्ड बेटिक ने 1834 में किया। बर्मा अगर उत्तर-पूर्व में एक खतरा था, तो क्रीमिया के युद्ध (1854-56) से पहले और बाद में रूस का डर उत्तर-पश्चिम में अंग्रेजों के प्रसार का प्रमुख कारण था । अफगान तख्त पर एक सत्ताच्युत अमीर को दोबारा बिठाकर अप्रत्यक्ष शासन करने के लिए लॉर्ड आकलैंड ने 1838-42 में पहला अफगान युद्ध लड़ा और लॉर्ड एलनबरी ने 1843 में सिंध पर कब्जा किया ।

लेकिन कंपनी के राज में प्रसारवादी प्रवृत्तियों लॉर्ड डलहौजी के काल (1848-56) में ही सबसे स्पष्ट हुईं । उसके ‘विलय सिद्धांत’ (Doctrine of Lapse) का अर्थ एक नर उत्तराधिकारी को जन्म दिए बिना मरनेवाले भारतीय शासकों के इलाकों का अधिग्रहण था ।

इस सिद्धांत के सहारे उसने सतारा (1848) संभलपुर और बगहट (1850) उदयपुर (1852) नागपुर (1853) और झाँसी (1854) पर अधिकार किया । दूसरे बर्मा युद्ध (1852-53) का परिणाम पेगू का अधिग्रहण था, जबकि कंपनी की सेना के लिए अनुदान सुनिश्चित करने के लिए उसने 1853 में हैदराबाद से बरार ले लिया ।

इस तरह 1857 तक कंपनी भारतीय उपमहाद्वीप का लगभग 63 प्रतिशत क्षेत्र हथिया चुकी थी और उसकी 78 प्रतिशत से अधिक जनता को अधीन बना चुकी थी । शेष क्षेत्रों को भारतीय राजाओं के पास छोड़ दिया गया जिनका उपयोग 1858 के बाद ब्रिटिश राज से उनकी जनता की वफादारी सुनिश्चित करने के लिए किया गया ।

कंपनी की नीतियाँ अब अधिग्रहण से हटकर अप्रत्यक्ष शासन क पक्ष में हो चुकी थीं । लेकिन प्राय: इन रजवाड़ों को जबरदस्त ब्रिटिश हस्तक्षेप का सामना करना पड़ता था हालाकिं औपचारिक रूप से आगे कोई और अधिग्रहण नहीं हुआ ।

संक्षेप में कहें, तो चाहे इसके पीछे ब्रिटेन की सरकार की मंशा रही हो या मौके पर उपस्थित ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों ने यह षड़यंत्र रचा हो-जो माना जाता है कि अठारहवीं सदी के भारत के राजनीतिक संकट के कारण एक विजय-अभियान के चंगुल में फँस गए-पर अठारहवीं सदी के अंतिम और उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो क भारत में साम्राज्यवाद की इस कहानी में व्यापारिक कुसैर राजनीतिक प्रसार के संबंध न देख पाना कोई कठिन नहीं है ।

ब्रिटिश साम्राज्यिक इतिहास की निरंतरताओं की ग्हचान करते हुए गैलगर और राबिनसन (1953) ने तर्क दिया था कि ब्रिटिश नीति का मूल-रूप में ”व्यापार जहाँ संभव हो वहाँ अनौपचारिक नियंत्रण के साथ; व्यापार जहां आवश्यक हो वहाँ शासन के साथ” कहा जाना चाहिए ।

लेकिन यह बात कही जानी चाहिए कि ऐसे वैश्लेषिक प्रवर्गों के अंतर अपेक्षाकृत संदिग्ध होते हैं, प्रत्यक्ष शासन श्चित करने की आवश्यकता अधिकतर अनौपचारिक नियंत्रण के द्वारा व्यापारिक-पाने के प्रयासों के ही कारण पैदा हुई ।

निजी व्यापार का विकास और स्वतंत्र सौदागरों के कार्यकलापों का प्रसार ब्रिटेन की शक्ति के बढ़ने पर निर्भर था और इसने टकराव की संभावनाएँ पैदा कीं । भारतीय राजाओं को लगातार उन्मुक्ति (Immunity) और रियायतें देने के लिए विवश किया गया और अंतत ऐसी उत्तरोत्तर माँगो ने भारतीय राज्यों की सत्ता को कमजोर किया ।

कंपनी को कारगर दबाव डालना इसलिए सरल लगा कि भारतीय राजाओं के बीच शत्रुताएँ थी और उनके दरबारों में गुटबंदी थी जिसने एक संयुक्त मोर्चे के निर्माण को बाधित किया । ब्रिटिश शक्ति के विरुद्ध भारतीय राजाओं का एक महासंघ बनाने के बारे में नाना फड़नवीस का सपना कभी साकार नहीं हुआ ।

इस तरह कंपनी के सिलसिले में व्यापार ने विजय की इच्छा को जन्म दिया और राजनीतिक वैमनस्यों ने इसका अवसर प्रदान किया; अब प्रश्न केवल एक साम्राज्य बनाने की क्षमता का रह गया था । मुगलों के पतन के बावजूद उत्तराधिकारी राज्य कमजोर नहीं थे हालांकि सैन्य संगठन और प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उनकी सेनाएँ यूरोपीय सेनाओं के मुकाबले पिछड़ी हुई थीं ।

आंग्ल-फ़्रांसीसी शत्रुता के कारण ब्रिटिश सम्राट की सेनाएँ बड़े पैमाने पर भारत में आई और इसके कारण ब्रिटेन के सैन्य में वृद्धि हुई जो भारतीय साम्राज्य के मामलों में मेट्रोपोलिस की पहले से अधिक संलग्नता का सूचक था ।

लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इस चरण में कंपनी ने भारत में अपनी सेना बनाने का निर्णय किया जिसे यूरोपीय अधिकारी प्रशिक्षित और संचालित करते थे । कंपनी की इस सेना का आकार निरंतर बढ़ता गया और उसे उसके राजनीतिक विरोधियों पर एक निर्णायक सैनिक श्रेष्ठता प्राप्त हुई । दूसरी ओर स्वयं यह नई सेना भारतीय राजाओं से नई-नई माँगों का कारण बन गई और इस कारण अनुदानों की राशि और भुगतान के बारे में बराबर तनाव जारी रहा ।

व्यापार के सुगम संचालन के लिए एक अनिवार्य दशा के रूप में स्थिर सीमाओं के प्रति कंपनी का सम्मोह विजय का एक और कारण बन गया क्योंकि हर अधिग्रहण के बाद सीमाएँ फिर अस्थिर हो जाती थीं और इसलिए और विजय आवश्यक हो जाती थीं ।

लेकिन सेना के इसी प्रतिष्ठान ने जो भारतीय राजस्व का सबसे बड़ा भाग हड़प जाता था जानबूझकर भय का ऐसा वातावरण पैदा किया और उसे मजबूत बनाया जो लगातार या तो एक कथित रूप से सैन्यीकृत भारतीय समाज की ओर से या फिर बाहर से साम्राज्य की सुरक्षा के लिए खतरों का हौआ खड़ा करता रहता था ।

इस तरह विजय की प्रक्रिया स्वयं को स्थायी बनाने और वैध ठहराने बन गई, जो सेना के एक विशाल प्रतिष्ठान के रखरखाव का औचित्य प्रदान करती थी । ईस्ट इंडिया कंपनी की सफलता प्रतियोगियों की तुलना में उसकी अधिक संसाधन जुटाने की क्षमता पर भी निर्भर थी । कंपनी की सेना के लिए मोर्चे पर लड़नेवाले सैनिकों को मुगलों के उत्तराधिकारी राज्यों की सेवा कर रहे सैनिकों की तुलना में बेहतर भोजन मिलता था और नियमित वेतन भी ।

हुंडियों के माध्यम से बड़ी-बड़ी राशि का नियंत्रण और स्थानातरण करनेवाले भारतीय साहूकार भी लगता है कि अस्थिर भारतीय रजवाड़ों की तुलना में कंपनी को अधिक विश्वसनीय देनदार समझकर उसे प्राथमिकता देते थे ।

कंपनी ने इस निर्भरता को धीरे-धीरे कम किया और इसे उन राजस्व संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित करके पलट भी दिया, जो व्यापार चलाने के लिए तथा आगे के विजय-अभियानों के लिए अनिवार्य बन गए थे । राजस्व की चिंता ने कंपनी को प्रशासन के काम से लगाया और इस तरह सैनिक श्रेष्ठता से भू-भाग पर वर्चस्व की दिशा में अप्रत्यक्ष शासन से प्रत्यक्ष अधिग्रहण की दिशा में एक संक्रमण आया ।

भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कार्यकलाप में राजस्व की प्रधानता के बारे में केन और हाष्किस ने जो बातें कही हैं, वे उपरोक्त संक्रमण के बहुत निकट हैं । उनका तर्क है कि पीछे इंग्लैंड में भूमि और धन के बीच जो राजनीतिक गठजोड़ पैदा हो रहा था उसने यह धारणा पैदा की कि शक्ति तो भूमि में केंद्रित होती है और यही कारण था ”राजस्व जुटाने की और व्यवस्था बनाए रखने की आवश्यकता” के प्रति कंपनी-उर्फ-राज्य के उस सम्मोहन का जिसने बाद के अधिग्रहण का और भारत में ब्रिटिश राज के सशक्तीकरण को एक बड़ी सीमा तक निर्धारित किया ।

भारत में ब्रिटेन के साम्राज्यिक प्रसार की प्रक्रिया में राजस्व व्यापार और सैन्य आवश्यकताओं का घात-प्रतिघात इतना स्पष्ट है कि उसे अनदेखा कर पाना असंभव है; उनके सापेक्ष महत्त्व पर बहस करना भी व्यर्थ है ।

इस बात को अस्वीकार करना भी मुश्किल है कि अठारहवीं सदी के अंत से ही जार्जी (Georgian) इंग्लैंड की विचारधाराओं और जीवनमूल्यों के हाथों उप-निवेशी राजसत्ता एक रूप ले रही थी और यह इंग्लैंड पूँजीवाद के लाभ उठाने के लिए, व्यापार की स्वतंत्रता के खुले लाभों को सुरक्षित रखने के लिए और देश-विदेश में मालों के बाजार पाने के लिए राजसत्ता का उपयोग करता आ रहा था ।

विचार और कार्यकलाप दोनों कै स्तर पर भारत में साम्राज्य की विजय और प्रशासन में परिधि की तरफ्र से आनेवाले दबावों और मेट्रोपोल के हितों ने मिलकर काम किया ।

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