Read this article in Hindi to learn about the rise of nationalism and communism in China.
चीन में राष्ट्रवाद (Nationalism in China):
राष्ट्रवाद का उदय और 1911 ई॰ की चीनी क्रान्ति के कारण:
जैसा कि पहले कहा जा चुका हे, 19वीं सदी के अंत तक चीनी के लोगों में मंचू राजवंश के प्रति असंतोष और विरोध की भावनाएँ जड़ पकड़ चुकी थीं । लोगों ने समझ लिया था कि विदेशी शोषण तथा देश की बढ़ती हुई समस्याओं के लिए मंचू सरकार दोषी है और इनके संतोषजनक समाधान की क्षमता उसमें नहीं है ।
इस सरकार की कमजोरी के कारण ही चीन को चीन-जापान युद्ध तथा बॉक्सर विद्रोह के अवसर पर विदेशी राज्यों के सम्मुख झुकना पड़ा था । प्रान्तों के सूबेदार केन्द्रीय सरकार की उपेक्षा करने लगे थे । आर्थिक दृष्टिकोण से चीन जर्जर होता जा रहा था । पहले तो शासन में परिवर्तन और सुधार की माँग की गई । यहाँ तक कि राजमाता सम्राज्ञी त्जे-शी भी सुधारों की आवश्यकता अनुभव करने लगी और उसने सुधारों का एक कार्यक्रम अपनाया । परन्तु, 1908 ई॰ में सम्राज्ञी की मृत्यु के साथ सुधार योजनाएँ ठप्प पड़ गयीं । चारों तरफ दुर्बलता, विघटन और पतन का माहौल था ।
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इसी अवस्था में 1911 ई॰ की चीनी क्रान्ति हुई । ताइपिंग तथा बॉक्सर विद्रोह की परिणति इस क्रान्ति में हुई । स के असफल हो जाने के बाद क्रान्ति के अतिरिक्त कोई विकल्प भी नहीं था ।
आर्थिक कारण:
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बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में चीन की आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो चली थी । विदेशी शोषण तो इसके लिए जिम्मेवार था ही; जनसंख्या में निरंतर वृद्धि भी हो रही थी । पर, कृषि या उद्योग-धंधों के विकास के लिए कुछ भी कार्य नहीं हो रहा था ।
इसके साथ ही चीन के लोग निरन्तर प्राकृतिक प्रकोपों के शिकार होते रहे । देश में अकाल पड़ रहा था । बाढ़ के कारण खेती को नुकसान हो रहा था । 1910-11 में भयंकर बाढ़ आयी । इसके कारण लाखों व्यक्ति बेघरबार हो गए और उनकी आजीविका का कोई साधन नहीं रहा ।
सरकार ने इस स्थिति में जनता की सहायता के लिए कोई प्रबंध नहीं किया । जनसंख्या में वृद्धि और सरकार की निर्बलता के कारण इस समय चीन में हर समय दुर्भिक्ष की स्थिति रहती थी और बहुत से लोगों को मृत्यु का शिकार होना पड़ता था ।
विदेशों से संपर्क:
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मंचू शासन के विरुद्ध चीन में क्रान्ति की पृष्ठभूमि बनने लगी थी । चीन की नवीन पीढ़ी में जागरण इसका एक आधार का कारण था । 1905 ई॰ में चीन की प्राचीन शिक्षापद्धति का अंत कर दिया गया था । लेकिन, चीन में आधुनिक शिक्षण-संस्थाओं की बड़ी कमी थी । इसलिए, 1905 ई॰ के बाद बहुत सारे चीनी विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से यूरोप और अमेरिका गए ।
उन पर यूरोप के उदारवाद, राष्ट्रवाद और लोकतंत्रवाद की विचारधाराओं का व्यापक प्रभाव पड़ा । वे अपने देश के लिए पाश्चात्य देशों के नमूने पर सुधार के पक्षपाती हो गए । उन्हें मंचू राजवंश के निरंकुश शासन से बड़ी घृणा हुई और वे उसका अत: करने के लिए व्यग्र हो उठे ।
समाचारपत्रों की भूमिका:
चीन के राष्ट्रवादी समाचारपत्र भी इस समय सक्रिय थे । इन समाचारपत्रों ने जनता का ध्यान चीन की गिरती अवस्था की ओर आकृष्ट किया और लोगों को इस बात की चेतना दी कि जबतक चीन में भ्रष्ट मंचू शासन का अंत नहीं होता तबतक उसका कल्याण नहीं हो सकता । इस प्रकार, समाचारपत्रों ने लोगों में क्रान्तिकारी भावना भरकर चीन में क्रान्ति का रास्ता प्रशस्त किया ।
क्रान्तिकारी दल का संगठन:
इस समय चीन का जाग्रत वर्ग राजनीतिक दलों का संगठन करने लगा था । इसमें डॉ॰ सनयात सेन के नेतृत्व में गठित तुंग-मेंग हुई पार्टी सबसे प्रभावकारी और सुसंगठित थी । इसका उद्देश्य मंचू राजवंश के शासन का अंत कर चीन में गणराज्य की स्थापना करना था । इसी दल ने चीन में क्रान्ति का सूत्रपात कर मंचू राजवंश का अंत किया और चीन में गणराज्य की स्थापना हुई ।
तात्कालिक कारण:
क्रान्ति का श्रीगणेश 10 अक्टूबर, 1911 को हैन्को में हुआ । वहाँ एक दिन बम-विस्फोट हुआ । सरकार द्वारा उस स्थान की जाँच करने पर यह मालूम हुआ कि वह जगह क्रान्तिकारियों के बम बनाने का अड्डा है । सरकार ने अनेक क्रान्तिकारियों को पकड़कर सजा देना शुरू की ।
इसके फलस्वरूप बूचैंग की सेनाएँ उत्तेजित हो गईं । उन्होंने अपने कमाण्डर ली-यूआन-हुंग को अपना नेता बनाकर क्रान्ति का उद्घाटन किया । उसने हैन्को, हैन्यांग और अगल-बगल के इलाकों पर अधिकार कर लिया । क्रान्ति की लपटें चारों ओर फैलने लगीं । शान्तुंग प्रान्त ने अपनी स्वाधीनता की घोषणा कर दी । इसी प्रकार, बहुत से प्रान्तों में स्थानीय विद्रोह हुए । खैंग में स्वतंत्र प्रान्तों के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक क्रान्ति कौंसिल का निर्माण हुआ ।
इसी बीच शंघाई में सैनिक सरकार की स्थापना कर दी गई । बूतिंग पैंग विदेश मंत्री नियुक्त हुआ । उसने दूसरे देशों से क्रान्तिकारियों के साथ सहानुभूति प्रकट करने की अपील की ।
विद्रोह की लपटों को फैलते हुए देखकर पेकिंग में सरकार ने नेशनल एसेम्बली को वैध राजतंत्र के सिद्धान्त निश्चित करने का अवसर देकर वातावरण को शान्त करने की चेष्टा की । युआन-शी-काई को फिर से बुलाकर जल और थल सेनाओं का सुप्रीम कमाण्डर बना दिया गया । नेशनल एसेम्बली ने उसे अपना मंत्री चुना ।
युआन वास्तव में वैध राजतंत्र का समर्थक था । उसने अपनी चातुरी से ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करने का यल किया, जिससे न तो क्रान्तिकारी लोकतंत्र की स्थापना कर सकें और सम्रास् के हाथ से सर्वोच्च सत्ता भी निकल जाय ।
परन्तु, नानकिंग नगर पर लोकतंत्रीय सेनाओं का अधिकार हो गया । नानकिंग को दक्षिणी लोकतंत्र की राजधानी बनाया गया और डॉ॰ सनयात सेन को नानकिंग सरकार का अध्यक्ष चुना गया । मंचू सरकार ने जब देखा कि धीरे-धीरे क्रान्तिकारियों को सफलता प्राप्त होती जा रही है तो उस ओर से शान्ति-स्थापना के लिए सन्धि-वार्ता आरंभ हुई ।
सरकारी सुप्रीम कमाण्डर यूआन-शी-काई तथा लोकतंत्रीय नेता ली-युआन-झा के बीच समझौते की बातें चली । सनयात सेन नानकिंग सरकार के अध्यक्ष का पद छोड़ने के लिए तैयार थे अगर मंचू राजवंश का शासन समाप्त हो जाता और युआन-शी-काई लोकतंत्रवादी बन जाए ।
12 फरवरी, 1912 को दोनों पक्षों में समझौता हो गया । मंचू सम्राट् ने गद्दी छोड़ने तथा युआन-शी-काई को लोकतंत्र की स्थापना करने के अधिकार देने की घोषणा की । युआन-शी-काई ने विश्वास दिलाया कि वह अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं करेगा ।
डॉ॰ सनयात सेन ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और युआन को लोकतंत्रीय चीन का प्रथम राष्ट्रपति चुना गया । इस प्रकार, संसार के सबसे विशाल और विस्तृत देश में बिना किसी रक्तपात के क्रान्ति सम्पन्न हो गई । सहलो वर्ष पुरानी राज्य-परंपरा विस्मृति के गर्भ में समा गयी ।
यद्यपि सनयात सेन ने नानकिंग सरकार के अध्यक्ष का पद छोड़ दिया, लेकिन देश में एकता स्थापित न हो सकी । युआन-शी-काई पुन: मंचू राजाओं की तरह निरंकुश शासन स्थापित करना चाहता था । वह कोमिन्तांग दल को अपना सबसे बड़ा विरोधी मानता था । वह इस दल को खत्म कर देना चाहता था । यह दल उसके खिलाफ कोई कार्य न कर सके, इसके लिए उसने कई तरह का प्रतिबंध लगा दिया ।
1913 ई॰ में युनान-शी-काई का पेकिंग की सरकार पर एकाधिकार स्थापित हो गया । 4 नवम्बर, 1913 को उसने कोमिन्तांग दल को गैर-कानूनी घोषित कर दिया । इस दल के बहुत से सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए । कोमिन्तांग के अनेक सदस्य विदेश भाग खड़े हुए । इस प्रकार, कुछ दिनों के लिए चीन में कोमिन्तांग दल का प्रभाव खत्म हो गया ।
लेकिन, युआन-शी-काई का निरंकुश शासन चीन पर अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सका । 1916 ई॰ में उसकी मृत्यु हो गयी । युआन की मृत्यु के बाद चीन में पुन: अराजकता फैल गयी और सारा देश व्यवस्था का अडा बन गया । केन्द्रीय सरकार का रहा-सहा प्रभुत्व भी समाप्त हो गया और विभिन्न प्रान्तीय सिपहसालार अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र शासकों के समान आचरण करने लगे ।
इस स्थिति से डॉ॰ सनयात सेन ने लाभ उठाया । उन्होंने दक्षिणी चीन में पुन: अपनी शक्ति की स्थापना की और क्टैंन को राजधानी बनाकर कोमिन्तांग दल की सरकार का संगठन किया । 1916 ई॰ से कोमिन्तांग के उत्कर्ष का प्रारम्भ हुआ । युआन-शी-काई ने कोमिन्तांग दल को गैर-कानूनी घोषित कर दिया था । लेकिन, पेकिंग सरकार के मतभेद और प्रान्तीय शासकों के विरोधी रूप से लाभ उठाकर इस दल ने फिर शक्ति प्राप्त करनी शुरू कर दी और दक्षिण चीन में विविध प्रदेशों ने उसका साथ दिया ।
कैंटन की सरकार का दावा था कि वही चीन की असली सरकार है, यद्यपि उसका आधिपत्य दक्षिणी चीन पर ही था । 1921 ई॰ में डॉ॰ सनयात सेन कैंटन की सरकार का राष्ट्रपति निर्वाचित हुआ ।
1911 ई॰ की चीनी क्रान्ति का महत्व और स्वरूप:
इस क्रान्ति के फलस्वरूप चीन में मंचू राजवंश का अंत हो गया और वहाँ एक गणराज्य की स्थापना हो गयी । यह एक युगान्तरकारी घटना थी । पिछले तीन सौ वर्षों से चले आ रहे मंचू राजवंश का अंत हो गया । दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि बीसवीं शताब्दी में पहली बार चीन में ही गणतांत्रिक सरकार की स्थापना हुई । राजतंत्र का सदा के लिए अंत हो गया ।
परन्तु, यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि यह क्रान्ति मुख्यत: राजनीतिक क्रान्ति ही बनकर रह गयी । सरकार के स्वरूप में परिवर्तन करने के अतिरिक्त इस क्रान्ति की कोई दूसरी उपलब्धि नहीं थी । जनता की आर्थिक दशा में इस क्रान्ति के फलस्वरूप कोई परिवर्तन नहीं हुआ । युआन-शी-काई ने तो राजनीतिक मामले में भी निरंकुशता को ही प्रश्रय दिया । इस दृष्टि से 1911 ई॰ की क्रान्ति को सफल नहीं माना जा सकता ।
क्रान्ति सफल नहीं रही, इसका एक कारण तो युआन-शी-काई ही था । वह गणतंत्र और राष्ट्र की एकता का प्रतीक नहीं बन सका । उसने क्रान्ति को पूरा मोड़ लेने नहीं दिया । दूसरे, प्राप्तों में केन्द्रीय सरकार की उपेक्षा कर अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाए रखने की परम्परा प्रबल हो चुकी थी ।
गणतांत्रिक सरकार इस प्रवृति का अंत नहीं कर सकी । क्रान्ति की असफलता का तीसरा कारण जनता में शिक्षा और जागरूकता की कमी थी । चीन में गणतंत्र की स्थापना तो हो गई थी, लेकिन इसकी सफलता के लिए जनता में जागरूकता और शिक्षा की आवश्यकता होती है, जिसका चीन में सर्वथा अभाव था ।
लोकतंत्रीय शासन के प्रति उत्साह की कमी के कारण चीन के नए गणतंत्र को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा । चौथे, नयी सरकार ने जनता की आर्थिक दशा सुधारने के लिए कोई कदम नहीं उठाया । इस हालत में जनता मंचू शासकों और गणतांत्रिक सरकार में किसी तरह का भेद नहीं कर सकी ।
यदि चीन की नयी सरकार इस समय जनता के आर्थिक कल्याण के लिए कुछ करती तो संभव था कि जनता क्रान्ति के महत्त्व को समझ लेती और नए गणतंत्र को उसका पूरा समर्थन प्राप्त हो जाता । लेकिन, चीन के दुर्भाग्य से पेकिंग सरकार के पास आर्थिक साधनों का अभाव था और वह चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकती थी । इन्हीं सब कारणों से 1911 ई॰ की चीन की राज्य क्रान्ति असफल सिद्ध हुई ।
सनयात सेन के नेतृत्न में कोमिन्तांग दल का निकास:
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि 1921 ई॰ में डॉ॰ सनयात सेन को कैंटन की सरकार का राष्ट्रपति निर्वाचित किया गया । डॉ॰ सनयात सेन के नेतृत्व में कोमिन्तांग दल की बड़ी प्रगति हुई । प्रारम्भ में कोमिन्तांग दल को जनता का लोकप्रिय समर्थन प्राप्त नहीं था । इसके संगठन का आधार डॉ॰ सनयात सेन के प्रति व्यक्तिगत वफादारी थी । उसने यह अनुभव किया कि पार्टी की सफलता के लिए जनता का अधिकाधिक समर्थन परम आवश्यक है ।
अत: उसने कोमिन्तांग दल के पुनर्गठन की ओर ध्यान दिया । राष्ट्रीयता के सिद्धान्त से ओत-प्रोत होने के कारण कोमिन्तांग दल को पश्चिमी यूरोपीय राज्यों और संयुक्त राज्य अमेरिका से समर्थन और सहायता की आशा नहीं थी ।
लेकिन, इसी समय रूस में बोलशेविक क्रान्ति हुई और लेनिन के नेतृत्व में साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई । सोवियत संघ की साम्यवादी सरकार ने डॉ॰ सनयात सेन को सहायता देने का वचन दिया । माईकेल बोरोदिन नामक एक रूसी साम्यवादी कोमिन्तांग सरकार का सलाहकार बनकर कैंटन आया । उसने सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के आधार पर कोमिन्तांग दल का संगठन करना शुरू किया ।
बोरोदिन ने पार्टी का आधार बहुत विस्तृत कर इसमें लोकतंत्रीय भावनाओं का समावेश कराया । चीन के सभी प्रगतिवादी विचारों के लोगों की सहानुभूति इस दल को प्राप्त थी । इस कारण शुरू से ही कोमिन्तांग दल के अंदर दो प्रवृत्तियाँ विद्यमान थीं ।
एक तरफ तो समाजवादी सिद्धान्तों का विश्वास करनेवाले लोग थे और दूसरी ओर वैसे लोग भी थे, जो अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए कोमिन्तांग दल को एक साधन के रूप में देखते थे । बाद में कोमिन्तांग दल में जो छूट पैदा हुई और चीन में गृहयुद्ध का सूत्रपात हुआ-उसकी उत्पत्ति हम इन्हीं दो विरोधी प्रवृत्तियों के कारण मान सकते हैं ।
कोमिन्तांग दल के तीन सिद्धान्त:
कोमिन्तांग पार्टी की पहली महासभा 1924 ई॰ में हुई और वहीं दल के सिद्धान्तों और उद्देश्यों का प्रतिपादन किया गया । इस महासभा में डॉ॰ सनयात सेन ने दल के तीन सिद्धान्तों की घोषणा की ।
ये निम्नलिखित थे:
राष्ट्रीयता:
राष्ट्रीयता कोमिन्तांग दल का पहला सिद्धान्त था । सनयात सेन ऐसा मानता था कि चीन की दशा में सुधार के लिए चीन के लोगों में राष्ट्रीयता के सिद्धान्त का विकास परम आवश्यक है ।
साम्राज्यवादी देशों के हस्तक्षेप और शोषण के कारण चीन की स्थिति उपनिवेशों जैसी हो गयी थी । इस हालत में विदेशी साम्राज्यवाद से देश की रक्षा का प्रश्न सर्वोपरि था । लेकिन, चीन को विदेशी साम्राज्यवाद का शिकार बनने से तभी बचाया जा सकता था, जब चीन के लोग देशभक्त और राष्ट्रवादी बने ।
डॉ॰ सनयात सेन ने राष्ट्रीयता की भावना के विकास पर बहुत बल दिया और कोमिन्तांग पार्टी ने इसे अपने कार्यक्रम का एक मुख्य सिद्धान्त बना लिया ।
लोकतंत्र:
कोमिन्तांग दल का दूसरा नारा लोकतंत्र था । डॉ॰ सनयात सेन को लोकतंत्र में अटूट विश्वास था । चीन के विकास के लिए वह लोकतंत्रीय व्यवस्था को अत्यन्त आवश्यक मानता था । इसी उद्देश्य से उसने मंचू राजवंश का अंत करने का निश्चय किया और इसमें उसे सफलता भी मिली ।
वह जनमत को सर्वोपरि स्थान देता था और चाहता था कि चीन की जनता शासन के कार्य में अधिकाधिक हिस्सा ले । आर्थिक उन्नति-जनता की आर्थिक उन्नति कोमिलाग दल का तीसरा सिद्धान्त था । चीन की आर्थिक स्थिति दयनीय थी । देश को बराबर अकाल और प्राकृतिक प्रकोपों का सामना करना पड़ता था । लोग भूखों मर रहे थे ।
चीन की अधिकांश जनता देहातों में निवास करती थी और कृषि से अपना जीवन-निर्वाह करती थी, किंतु कृषि पिछड़ी दशा में थी और किसानों की आर्थिक स्थिति दयनीय थी । इस स्थिति में चीन की आर्थिक उन्नति का प्रयास आवश्यक था और आर्थिक उन्नति के लिए समाजवाद के सिद्धान्त को अपनाना आवश्यक था ।
डॉ॰ सनयात सेन कोमिन्तांग दल के नेतृत्व में चीन में राष्ट्रीय एकता स्थापित करना चाहता था । वह पेकिंग की सरकार से इस सम्बन्ध में एक समझौता करना चाहता था । इसी उद्देश्य से वह स्वयं पेकिंग गया और उसने पेकिंग सरकार के प्रतिनिधियों से वार्ता की । लेकिन, वहाँ उसे घोर निराशा का सामना करना पड़ा । इसी समय 12 मार्च, 1925 को पेकिंग में ही उसकी मृत्यु हो गयी ।
डॉ॰ सनयात सेन का मूल्यांकन:
डॉ॰ सनयात सेन आधुनिक चीन के निर्माताओं में अग्रणी थे । उन्होंने सोए हुए चीन को जगाया और देशवासियों में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावना भरने का अपूर्व प्रयास किया । वे एक ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने अपना सारा जीवन देश की सेवा में अर्पित कर दिया । कोमिन्तांग पार्टी सनयात सेन की ही देन थी जो उनकी मृत्यु के बाद भी शक्तिशाली बनी रही ।
साम्यवादी सरकार स्थापित होने के पहले कीमिन्तांग दल का ही चीन पर शासन रहा सनयात सेन चीन के एक महान् सपूत थे, जिनके सिद्धान्तों और आदर्शों की कद्र उनके विरोधियों ने भी की । चीन की जनता ने उनके सिद्धान्तों को आदर्श के रूप में स्वीकार किया । चीन की जनता ने सनयात सेन के प्रति उतनी ही श्रद्धा और सम्मान प्रदर्शित किया जितना कि भारत की जनता ने महात्मा गाँधी के प्रति और तुर्की की जनता ने मुस्तफा कमाल के प्रति । उनकी रचनाओं का आदर धार्मिक ग्रंथों की तरह होने लगा ।
च्यांग काई शेक:
डॉ॰ सनयात सेन की मृत्यु के बाद भी कीमिन्ताग दल चीन की राजनीति में मुख्य प्रेरक तत्त्व बना रहा । कैंटन में दल की सरकार को एक ठोस आधार मिल गया था । इसके बाद इस दल का सबसे मुख्य काम था राष्ट्रिय एकता स्थापित करना ।
इसके लिए डॉ॰ सनयात सेन ने स्वयं प्रयास किया था, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी । जब समझौता द्वारा एकता स्थापित करने की आशा लुप्त हो गयी तो कीमिन्तांग दल के सम्मुख एक ही मार्ग बच गया कि सैन्यशक्ति का प्रयोग कर देश की एकता कायम की जाय ।
1926 ई॰ में कीमिन्ताग दल का नेतृत्व व्यांग काई शेक के हाथों में आया । च्यांग काई शेक एक सैनिक अफसर था और बचपन से ही वह राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत था । वह डॉ॰ सनयात सेन का कट्टर अनुयायी था । डॉ॰ सनयात सेन की प्ररेणा पर कोमिन्तांग दल के सदस्यों को सैनिक शिक्षा देने के लिए उसने व्हाम्पोआ में एक सैनिक स्कूल की स्थापना की थी ।
वह आधुनिक युग की प्रवृतियों से भी परिचित था । कोमिन्तांग दल का नेतृत्व सँभालते ही वह देश की राष्ट्रीय एकता प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो गया । उसके आदेश पर 1926 ई॰ में कैंटन सरकार की सेना ने उत्तरी चीन पर आक्रमण किया इस आक्रमण की योजना रूसी सैनिक सलाहकार जनरल ब्लूचर द्वारा तैयार की गयी थी । इस योजना के अनुसार सर्वप्रथम हैं को पर आक्रमण कर उस पर अधिकार किया गया ।
इसके बाद नानकिंग और शंघाई पर आक्रमण हुआ और उनपर भी विजय प्राप्त हुई । सैनिक विजय के साथ-साथ सैद्धान्तिक विजय प्राप्त करने का भी प्रयास किया गया । कैंटन सरकार की सेना के अतिरिक्त कोमिन्तांग दल के प्रचारक भी इस समय चीन में अपने सिद्धान्तों का प्रचार लोगों में कर रहे थे । चीन की जनता पर इन प्रचारों का बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ा ।
दल में छूट-जब कोमिन्तांग दल के सैनिकों ने विजय अभियान शुरू किया, ठीक उसी समय उसमें आंतरिक कलह शुरू हुआ, जिसके फलस्वरूप कोमिन्तांग दल दो दलों में बँट गया कोमिन्तांग दल में बहुत से कम्युनिस्ट सम्मिलित हो गए थे ।
लेकिन, कोमिन्तांग दल में कुछ ऐसे लोग भी थे, जो साम्यवाद के विरोधी थे । व्यांग काई शेक ऐसे सभी तत्त्वों का नेता था । वह साम्यवाद का प्रबल विरोधी था । इसलिए कम्युनिस्टों और च्यांग काई शेक के अनुयायियों में निरंतर विरोध बढ़ने लगा । कोमिन्तांग दल के दक्षिणपंथियों ओर वामपंथियों में इस समय जो संघर्ष शुरू हुआ, उसका चीन के इतिहास पर बड़ा ही व्यापक प्रभाव पड़ा । इसके फलस्वरूप व्यांग काई शेक साम्यवाद का विरोधी हो गया ।
राष्ट्रीय एकता की स्थापना:
कोमिन्तांग की सेना ने नानकिंग पर विजय प्राप्त कर ली थी, अतएव अब नानकिंग को ही कोमिन्तांग सरकार की राजधानी बनाया गया । लेकिन, इस समय तक हैं को और उसके निकटवर्ती प्रदेशों में कम्युनिस्ट लोगों की शक्ति बहुत बढ़ गयी थी । व्यांग काई शेक उनको एकदम कुचल देना चाहता था । अतएव इस क्षेत्र में बहुत सी गिरजारियाँ की गयीं और सैकड़ो लोग-जिन पर थोड़ा भी कम्युनिस्ट होने का शक हुआ, पकड़ लिए गए ।
इनमें विद्यार्थियों की संख्या बहुत अधिक थी । इस प्रकार, हैंको क्षेत्र के कम्युनिस्टों का दमन करने में व्यांग काई शेक सफल रहा इसके बाद 1928 ई॰ में व्याग ने उत्तर की ओर पेकिंग के लिए प्रस्थान किया और कुछ ही दिनों में पेकिंग को जीत लिया । इस प्रकार, पेकिंग पर कोमिन्तांग दल का अधिकार हो गया । अब केवल मंचूरिया का प्रान्त चीन से अलग रह गया था ।
व्यांग काई शेक मंचूरिया पर भी आक्रमण करना चाहता था । लेकिन, अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति को ध्यान में रखकर कोमिन्तांग सरकार ने मंचूरिया पर आक्रमण नहीं किया । कुछ ही दिनों में चीन का शासन मंचूरिया पर भी कायम हो गया । इस प्रकार, पेकिंग-विजय और मंचूरिया पर आधिपत्य हो जाने के उपरान्त चीन की राष्ट्रीय एकता स्थापित हो गयी । लेकिन, यह एकता बहुत सुदृढ़ नहीं मानी जायगी, क्योंकि चीन के विभिन्न प्रदेशों में अभी पृथकता की भावना विद्यमान थी और वे केन्द्रीय सरकार के मातहत नहीं रहना चाहते थे ।
प्रान्तों के सूबेदार तो राष्ट्रीय एकता के प्रश्न को कठिन बना ही रहे थे, इसी समय व्याग काई शेक को कम्युनिस्टों का भी मुकाबला करना पड़ा कम्युनिस्ट लोग अनेक प्रदेशों पर प्रभुत्व जमाने का यल कर रहे थे और इस कार्य में उन्हें काफी सफलता भी मिल रही थी ।
व्यांग काई शेक ने अपनी पूरी शक्ति से कम्युनिस्टों को कुचलने का यत्न किया । पूर्वी चीन में निहित स्वार्थी लोग दिल खोलकर उसकी सहायता करते रहे । इस प्रकार, चीन में गृहयुद्ध चलता रहा और शान्ति-व्यवस्था की स्थापना नहीं हो सकी ।
चीन का लोकतंत्रीकरण:
व्यांग काई शेक के प्रयासों से चीन में आशिक रूप से एकता कायम हो गयी और इस प्रकार कोमिन्तांग दल के एक उद्देश्य की पूर्ति हो गयी । अब कोमिन्तांग दल के सामने अगला कार्यक्रम यह था कि सरकार का संगठन इस तरह किया जाय जिससे देश में लोकतंत्र का विकास हो । अगस्त, 1928 में पार्टी ने इस समस्या पर विचार किया और देश के लिए एक संविधान की रचना की गयी ।
1931 ई॰ में इस शासन-विधान को लागू कर दिया गया । इस विधान के अनुसार चीन की राजशक्ति सर्वसाधारण जनता में निहित की गयी और संविधान में जनता के जन्मसिद्ध अधिकारों का प्रतिपादन विशद् रूप से किया गया । राज्य के शासन में कोमीन्तांग दल के प्रत्येक व्यक्ति को यह आजादी दी गयी कि वह अपने इच्छानुसार इसमें शामिल हो ।
आन्तरिक सुधार:
कोमिन्तांग दल को लोकतंत्रीय संस्थाओं का विकास करने के लिए पर्याप्त अवसर नहीं मिल सका, क्योंकि इसके सामने सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि देश में छूट की भावना का अंत कर एकता कैसे स्थापित की जाय । इसके लिए दल को हमेशा युद्ध में फँसा रहना पड़ा, इसलिए देश की अवस्था में सुधार करने का अवसर भी उसे प्राप्त नहीं हुआ । फिर भी यह कहना गलत होगा कि कोमिन्तांग सरकार ने आन्तरिक क्षेत्र में कोई सुधार नहीं किया । देश की आर्थिक अवस्था को ठीक करने का प्रयास किया गया ।
इस युग में चीन का मुख्य प्रयास यह रहा कि चीन पर विदेशी राज्यों के आर्थिक प्रभुत्व का अंत किया जाय । साथ ही, चीन में रेलवे लाइनों के विस्तार के लिए भी यत्न किया गया । इसके लिए नए विभागों की स्थापना की गयी । यातायात के साधनों के विकास के लिए इस विभाग ने कई उल्लेखनीय कार्य किए । इसी तरह चीन की मुद्रापद्धति में सुधार के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की गयी ।
फिर, चीन के विकास के लिए नए कानूनों को व्यवस्थित रूप देने के लिए प्रयास किया गया । फौजदारी और दीवानी के पुराने कानूनों को समाज कर उनकी जगह नयी कानून-पद्धति चालू की गयी । न्यायालयों का भी नए ढंग से पुनर्गठन किया गया । सार्वजनिक स्वास्थ्य की उन्नति, अफीम के सेवन का निषेध, कारखानों में काम करनेवाले मजदूरों के कल्याण आदि पर भी ध्यान दिया गया ।
इतना करने के बाद भी व्यांग काई शेक के नेतृत्व में कोमिन्तांग दल जनता में लोकप्रिय नहीं हुआ । इसका मुख्य कारण यह था कि व्यांग काई शेक ने साधारण जनता की आर्थिक दशा को सुधारने का काई यत्न नहीं किया था । चीन की साधारण जनता की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि अधिकांश जनता अत्यधिक गरीब थी और कोई भी सरकार तभी लोकप्रियता हासिल कर सकती थी, जब वह आर्थिक दशा में सुधार का यत्न करती । कामिन्तांग सरकार के प्रयास इस दिशा में अधूरे थे और सरकारी अधिकारियों में भ्रष्टाचार फैला था । इसका परिणाम यह हुआ कि जनता तक कोई लाभ नहीं पहुँचा तथा व्यांग काई शेक और कोमिन्तांग दल बहुत बदनाम हो गया । अत: कम्युनिस्टों की शक्ति में निरंतर वृद्धि होती गयी । चीन के लोग समझते थे कि व्यांग काई शेक की सरकार पूँजीपतियों की सरकार है, जो सर्वसाधारण जनता के हितों पर ध्यान नहीं देती ।
विदेशी प्रभाव के अंत का प्रयल-कोमिन्तांग सरकार के समक्ष एक और समस्या थी कि चीन में विदेशी राज्यों के जो अनेक प्रकार के प्रभाव स्थापित थे, उनको कैसे नष्ट किया जाय । इसके लिए कोमिन्तांग दल के उत्कर्ष के पहले ही प्रयास आरश्व हो चुका था । डॉ॰ सनयात सेन द्वारा चीन में क्रान्तिकारी आन्दोलन प्रारम्भ हुआ उसका एक प्रधान उद्देश्य चीन की राष्ट्रीय एकता और पूर्ण स्वतंत्रता था ।
इसलिए जब कोमिन्तांग दल ने नानकिंग में अपनी सरकार स्थापित की और पेकिंग पर भी अधिकार कर लिया तो उसने चीन को विदेशी प्रभाव और प्रभुत्व से मुक्त करने के प्रश्न पर विशेष ध्यान दिया । इसके लिए चीन का विद्यार्थी समाज भी बहुत प्रयत्नशील रहा । विदेशी प्रभाव से मुक्ति पाने के लिए कई जन-आन्दोलन हुए ।
जब इन आन्दोलनों ने प्रबल रूप धारण किया तो विदेशी सरकारों ने धीरे-धीरे विशेषाधिकारों को छोड़ना प्रारम्भ किया । लेकिन, चीन की सरकार बहुत कमजोर थी, अतएव इस क्षेत्र में उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकी
चीन में साम्यवादी क्रान्ति (Communism in China):
चीन में साम्यवादी दल:
1917 ई॰ की रूस की बोल्शेविक क्रान्ति एक ऐसी महत्वपूर्ण घटना थी जिसका प्रभाव समस्त विश्व पर पड़ा । इसने समस्त संसार में नये विचार उत्पन्न किए । चीन पर इस क्रान्ति का प्रभाव विशेष रूप से पड़ा 1919 ई॰ के पेरिस के शान्ति-सम्मेलन में पाश्चात्य राष्ट्रों ने चीन के साथ जो सलूक किया उससे संपूर्ण देश में घोर निराशा फैल गयी थी ओर चीन के लोग समझने लगे कि चीन का कल्याण बोल्शेविक विचारधारा अपनाने में ही है ।
सोवियत संघ के प्रति चीन में अपार सहानुभूति पैदा हुई और प्रबुद्ध चीनी साम्यवाद की ओर आकृष्ट होने लगे पेकिंग के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुछ प्राध्यापकों और छात्रों ने 1919 ई॰ में मार्क्सवाद और साम्यवाद के अध्ययन के लिए एक संस्था की स्थापना की ।
इन्हीं व्यक्तियों में विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का एक कर्मचारी था, जिसका नाम माओत्से-तुंग था । 1919 ई॰ में इन लोगों ने चीनी साम्यवादी (कुंगचानतांग) दल स्थापित किया लगभग उसी समय पेरिस में पढ़नेवाले चीनी विद्यार्थियों ने चाउ-एन-लाई ओर ली-ली-सान के नेतृत्व में और जर्मनी में पढ़नेवाले छात्रों ने चूनते हैं के नेतृत्व में इसी प्रकार के दल संगठित किए 4 मई, 1920 को पेकिंग के प्राध्यापकों ओर विद्यार्थियों ने मार्क्सवाद और साम्यवाद के अध्ययन के लिए जो संस्था 1919 ई॰ में कायम की थी, उसकी वर्षगाँठ बड़े धूमधाम से मनायी और एक समाजवादी युवक दल की स्थापना की ।
अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी संगठन कॉमिन्टर्न के एक कार्यकर्ता ग्रेगोरी बोहतिच्छी ने इसके प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता की और इस संगठन को खाचानताग के साथ मिला दिया गया । अगले ही वर्ष पेकिंग, कैण्टन, शंधाई और हूनान प्रान्तों में कम्युनिस्ट पार्टी की शाखाएँ कायम हो गयीं और जुलाई, 1921 में इन सब शाखाओं का प्रथम सम्मेलन शंघाई में हुआ । विदेशी आधिपत्य से चीन को मुक्ति दिलाना सम्मेलन का लक्ष्य घोषित किया गया साम्यवादी विचारधारा ने चीन के उदारवादी राष्ट्रवादियों को भी प्रभावित किया इस समय चीन में जो राष्ट्रवादी सरकार थी, उसका नेता डॉ॰ सनयात सेन विदेशी सहायता प्राप्त कर चीन को संगठित करना चाहता था । लेकिन, पश्चिम के साम्राज्यवादी राज्यों ने उसे किसी प्रकार की मदद नहीं की ।
अत: वह सोवियत संघ की ओर आकृष्ट हुआ सोवियत संघ की नयी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट सरकार ने चीन के प्रति अपार सहानुभूति का प्रदर्शन किया और चीन को हर तरह की मदद का आश्वासन दिया । उसने चीन को वे सारे इलाके वापस कर देने का वचन दिया, जिन्हें जार की सरकार ने उससे छीना था । अगस्त, 1921 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बैठक के लिए नियुक्त कॉमिन्टर्न के प्रतिनिधि मेरिंग ने सनयात सेन से मुलाकात की ।
इस मुलाकात का सनयात सेन पर गहरा असर पड़ा और उसने मान लिया कि साम्यवादी विचारधारा शोषित जनता की सबसे बड़ी मददगार हो सकती है । अतएव उसने सोवियत संघ से संपर्क-सम्बन्ध बढ़ाना शुरू किया और वहाँ से बहुत से सलाहकार चीन आए, जिन्होंने कीमिन्तांग पार्टी तथा चीनी सेना का पुनर्गठन किया ।
मजदूरों और किसानों का संगठन:
इन दिनों कोमिन्तांग और कुंगचानतांग में सोवियत प्रभाव के कारण काफी तालमेल रहा । सोवियत संघ के साम्यवादी विचारकों का मत था कि चीन जैसे अर्द्ध-औपनिवेशिक देश में क्रान्ति का प्रथम लक्ष्य सामन्तवाद तथा साम्राज्यवाद का अंत करना होना चाहिए । उनका यह भी मत था कि यह लक्ष्य बुर्जुआ-लोकतन्त्रीय क्रान्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है ।
इसलिए उन्होंने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को कोमिन्तांग के साथ मिलजुलकर काम करने का परामर्श दिया । लेकिन, चीनी कम्युनिस्ट अपने संगठन को सुदृढ़ करने के लिए भी सक्रिय रहे । वे किसानों और मजदूरों के बीच काम करते रहे और उन्हें संगठित करते रहे । शंघाई के कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम सम्मेलन में राष्ट्रीय स्तर पर मजदूरों का संघ बनाने का कार्यक्रम निश्चित किया गया ।
एक मजदूर-संगठन कायम हुआ, जिसमें शुरू में अधिकतर जहाजी मजदूर थे । 1921 ई॰ के अंत में इस संघ ने वेतन बढ़ाने की माँग की और उसके न माने जाने पर हड़ताल की हांगकाग के ब्रिटिश शासन ने संघ को गैर-कानूनी घोषित कर दिया ।
इस पर उसकी सहानुभूति में और कई हड़ताले हुईं, जिससे सारा कारोबार ठप्प पड़ गया । अंत में, विदेशी शासन को झुकना पड़ा और वेतन में 20 प्रतिशत की वृद्धि करनी पड़ी । उसी वर्ष मई-दिवस के अवसर पर शंघाई और कैण्टन में मजदूरों का बड़ा जबरदस्त प्रदर्शन हुआ ।
कम्युनिस्ट लोग किसानों को भी संगठित करने लगे । सितम्बर, 1922 में किसान-नेता फेंग पांग ने किसानों पाँच सौ संघ बनाए और 1923 ई॰ में हाइफेंग किसान-संघ बना जिसके सदस्यों की संख्या एक लाख तक पहुंच गयी 1923 ई॰ तक किसान- संगठन काफी मजबूत हो गए और वे लगान में कमी तथा जमींदारी-उन्मूलन की माँग करने लगे ।
किसानों का आन्दोलन दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली होता गया । 1925 ई॰ में सनयात सेन के मरते ही माओत्से-तुंग ने हूनान में एक किसान-आन्दोलन चला दिया । इस आन्दोलन ने शीघ्र ही भयानक रूप धारण कर लिया और जमींदारों को उखाड़ फेंका । झुण्ड-के-झुण्ड किसान जमींदारों के घर में घुसकर उनके अनाज लूटने लगे । कई जगहों पर उन्होंने देव-मन्दिरों पर कब्जा कर लिया और उनकी संपत्ति जब्त कर ली ।
लीलिंग के उत्तरी जिलों में उन्होंने एक धार्मिक जुलूस को रोक दिया और चीन की प्राचीन रीति के अनुसार मृत्यु के मौके पर देवताओं को बलि देना और उनके सामने दीपक जलाना बंद कर दिया । तुंग फेंग के भिक्षुणीगृह में उन्होंने लकड़ी की देव-प्रतिमाओं को फाड़कर उसके ईंधन से मांस पकाया । इस प्रकार, इस आन्दोलन से न केवल जमींदारों का सफाया होने लगा, बल्कि पुजारी-पंडों की सत्ता, कुल के अधिकार और पूरे समाज का ढाँचा बदलने लगा ।
च्यांग काई शेक द्वारा साम्यवादियों का विरोध:
अपने रूसी संपर्क के बावजूद च्यांग कोई शेक कम्युनिस्ट नहीं था । दरअसल, वह सनयात सेन की अपेक्षा कहीं अधिक दक्षिणपंथी था । वह दिनानुदिन कम्युनिस्ट-विरोधी होता गया और उसकी सद्भावना व्यवसायियों और जमींदारों के साथ रही । कोमिन्तांग पार्टी का नेता बनने के तुरत बाद उसने सभी वामपंथियों को पार्टी के महत्त्वपूर्ण पदों से निकाल दिया, यद्यपि उसने कुछ दिनों तक कोमिन्तांग और कम्युनिस्ट पार्टी के आपसी समझौते को कायम रखा था ।
1926 ई॰ में वह मध्य एवं उत्तरी चीन के सैनिक सरदारों को कुचलने के लिए उत्तरी अभियान पर रवाना हुआ । कैण्टन से चलकर कोमिन्तांग और कम्युनिस्टों ने हैंको, शंघाई और नानकिंग पर 1927 ई॰ तक कच्चा कर लिया । 1928 ई॰ में पेकिंग पर भी उनका अधिकार हो गया ।
च्यांग की सफलता का मुख्य कारण भारी जनसमर्थन था और यह जनसमर्थन किसानों की ओर से मिला, जो कम्युनिस्टों की भूमि-नीति से आकर्षित हुए थे । शंघाई पर अधिकार तो औद्योगिक मजदूरी के विद्रोह के कारण हो पाया था जिसका संगठन एक कोमन्तांग और कम्युनिस्ट नेता चाउ-एन-लाइ ने किया था ।
अप्रैल, 1927 तक च्यांग काई शेक को पूरा विश्वास हो गया कि कम्युनिस्ट बहुत शक्तिशाली होते जा रहे हैं जिन क्षेत्रों में कम्युनिस्ट प्रभावशाली है वहाँ जमींदारों पर आक्रमण किया जा रहा हे और उनकी जमीन छीनी जा रही है, अत: परेशानी में डालने वाले इस सहयोगी को समाप्त करना आवश्यक है ।
कोमिन्तांग पार्टी से सभी कम्युनिस्टों को निकाल दिया गया और एक कठोर ‘शुद्धिकरण आन्दोलन’ चलाया गया, जिसमें हजारों कम्युनिस्ट, ट्रेड यूनियनिस्ट तथा किसान नेता मारे गए । एक अनुमान के अनुसार मारे गए लोगों की संख्या ढाई लाख थी । कम्युनिस्टो को रोका जा चुका था, सैनिक सरदार नियंत्रण में थे और व्यांग पूरी तरह से चीन के सैनिक और राजनीतिक नेता के रूप में स्थापित हो चुका था ।
परन्तु चीनियों के लिए कोमिन्तांग सरकार निराशाजनक साबित हुई । व्यांग सनयात सेन के पहले सिद्धान्त, राष्ट्रवाद, को प्राप्त करने का दावा कर सकता था । लेकिन चूँकि वह धनी जमींदारों के समर्थन पर निर्भर था, जनतंत्र या भूमि-सुधार के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया । यों अधिक स्कूलों और सड़कों के निर्माण में कुछ सीमित प्रगति अवश्य हुई ।
माओत्से-तुंग और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी:
इस बीच जब च्यांग काई शेक 1930 और 1934 ई॰ के बीच कम्युनिस्टों के विरुद्ध ‘उन्मूलन अभियान’ में लगा हुआ था, माओत्से-तुंग और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अपने अस्तित्व को बनाए रखने में लगे हुए थे । जैसा ऊपर बताया जा चुका है कि अबतक माओ ने एक दक्ष मजदूर संघ और किसान संघ संगठनकर्ता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी ।
कोमिन्तांग पार्टी से अलग होने के बाद माओ के द्वारा ही कम्युनिस्ट पार्टी की रणनीति में परिवर्तन हुआ । उसने इस बात पर जोर दिया कि कम्युनिस्ट पार्टी को औद्योगिक मजदूरों की तुलना में किसानों के बीच जनसमर्थन प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए ।
कारण यह था कि चीन अत: एक कृषिप्रधान देश था, जहाँ औद्योगिक क्रान्ति अभी पिछड़ी हुई थी । 1931 ई॰ में माओ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति का अध्यक्ष निर्वाचित हुआ और इसके बाद धीरे-धीरे उसने पार्टी के शीर्षस्थ और असल नेता के रूप में अपनी स्थिति ठोस बना ली ।
‘उन्मूलन अभियान’ के दौरान माओ और उसके समर्थक हुनान और कियांग्सी प्रान्तों के मध्य की पहाड़ियों में चले गए और लाल सेना के निर्माण में लगे रहे । परंतु 1934 ई॰ के आरम्भ में माओ और कम्युनिस्टों के अड्डे को कोमिन्तांग सेना ने घेर लिया । माओ ने निर्णय लिया कि बचने का एकमात्र उपाय यही है कि कोमिन्तांग सुरक्षा पंक्ति को तोड़ते हुए कहीं और अड़ा बनाया जाय ।
1934 ई॰ के अक्टूबर महीने में माओ को यह सफलता मिली और लगभग दस हजार कम्युनिस्ट सुप्रसिद्ध ‘लम्बे अभियान’ पर रवाना हुए, जो बाद में चीनी दंतकथा का हिस्सा बन गया । उन्होंने 368 दिन में 6,000 मील लंबी दूरी पार की और एडगर स्नो के शब्दों में ‘18 पर्वत-शृंखलाओं जिनमें 5 हिमाच्छादित थे और 24 नदियों को पार किया’ ।
उन्होंने 12 विभिन्न प्रान्तों को पार किया, 62 शहरों को जीता और 10 विभिन्न प्रान्तीय सैनिक सरदारों की सेना का भेदन किया, जो उनके विरुद्ध लगाए गए थे । अंत में, बचे हुए लोगों ने शेन्सी प्रान्त की येनान नामक जगह पर शरण ली, जहाँ एक नया गढ़ स्थापित किया गया । माओ शेन्सी और कांशु प्रान्तों पर नियंत्रण पाने में सफल रहा । अगले दस साल तक कम्युनिस्ट अपना समर्थन बढ़ाते रहे, जबकि च्यांग और कोमिन्तांग की लोकप्रियता दिनानुदिन घटती गयी ।
माओ और कम्युनिस्टों की लोकप्रियता के कारण:
(i) कम्युनिस्टों को जनसमर्थन पाने का मौका मूलत: इस कारण मिला, क्योंकि कोमिन्तांग सरकार भ्रष्ट और निकम्मी थी । उन्हें जनता को सुधार के रूप में देने के लिए कुछ नहीं था साथ ही, उन्होंने अपना अधिकांश समय उद्योगपतियों, बैंकरों और जमींदारों के हितों की रक्षा में गँवाया और जनसमर्थन प्राप्त करने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया ।
(ii) कारखानों की स्थिति में सुधार नहीं के बराबर हुआ, यद्यपि कपड़ा उद्योग में बाल-श्रम जैसी बुराइयों को दूर करने के लिए कानून मौजूद थे । सामान्यत: इन कानूनों का पालन नहीं हो पाता था । कारखाना-निरीक्षकों में भ्रष्टाचार व्याप्त था और स्वयं च्यांग भी अपने उद्योगपति समर्थकों को नाराज नहीं करना चाहता था ।
(iii) कोमिन्तांग सरकार द्वारा किसानों की गरीबी को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया गया । 1930 ई॰ के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में कई बार सूखा पड़ा और फसल बरबाद हुई, जिसके कारण देहातों में व्यापक अकाल पड़ा, जबकि दूसरी ओर शहरों में मुनाफाखोर सौदागरों की मंडियों में चावल और गेहूँकी कमी नहीं थी ।
इसके अतिरिक्त, करों की दर ऊंची थी और बँधुआ मजदूरी की प्रथा प्रचलित थी । ठीक इसके विपरीत, कम्युनिस्ट-शासित क्षेत्रों की भूमि सम्बन्धी नीति किसानों को आकर्षित करती थी कम्युनिस्टों ने सबसे पहले दक्षिण में धनी जमींदारों की जमीन छीन ली और किसानों के बीच उनसे बाँट दिया । द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कोमिन्तांग सरकार के साथ अल्पकालिक समझौते के बाद उन्होंने अपना सारा ध्यान भू-राजस्व को कम करने में लगाया तथा यह निश्चित करने का प्रयास किया कि सबसे गरीब मजदूर को भी एक छोटा भूखंड मिल सके ।
इस नीति के कारण कम्युनिस्टों को छोटे-छोटे किसानों के साथ-साथ छोटे भूमिपतियों का भी समर्थन मिला । इसके अतिरिक्त, कम्युनिस्ट-शासित क्षेत्रों में किसानों के सर्वांगीण उन्नति के प्रयास होते थे- उन्हें खेती के नए तरीके समझाए जाते थे, लिखना-पढ़ना सिखाया जाता था । इससे उनकी लोकप्रियता बड़ी ।
(iv) कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति जनमत के झुकाव का सबसे प्रमुख कारण यह था कि कोमिन्तांग सरकार ने जापानी विस्तारवाद को रोकने के लिए ठोस कदम नहीं उठाया । जापान ने 1931 ई॰ में मंचूरिया पर कब्जा कर लिया था और उत्तरी चीन के पड़ोसी प्रान्तों को हड़पने की ताक में लगा हुआ था । च्यांग जापानियों को रोकने की बजाय कम्युनिस्टों का सफाया करना अधिक महत्त्वपूर्ण मानता था और इसलिए 1936 ई॰ में उसने माओ पर आक्रमण करने के लिए दक्षिण शेन्सी प्रान्त में सैनिक कार्रवाई की ।
यहाँ एक उल्लेखनीय घटना घटी । च्यांग को उसी के कुछ सैनिकों ने बंदी बना लिया । ये सैनिक अधिकांशत: मंचूरियन थे, जो जपानी अधिग्रहण से उत्तेजित थे । वे चाहते थे कि व्यांग जापान के विरुद्ध कदम उठाए, लेकिन आरम्भ में वह ऐसा करने से अनिच्छुक था । अंत में जब एक प्रमुख कम्युनिस्ट नेता चाउ-एन-लाई सियान में उससे मिलने आया, तब वह जापानियों के विरुद्ध चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ संधि करने के लिए राजी हुआ ।
कोमिन्तांग सरकार के साथ की गयी नयी सन्धि से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को कई लाभ मिले । कुछ समय के लिए कम्युनिस्टों के विरुद्ध शुरू किया ‘उन्मूलन अभियान’ रुक गया और इसका लाभ उठाकर कचुनिस्टो ने शेन्सी में अपनी स्थिति दृढ़ कर ली । 1937 ई॰ में जब जापान के साथ व्यापक स्तर पर लड़ाई भड़की, तब कोमिन्तांग सैनिकों की तेजी से पराजय हुई और अधिकांश पूर्वी चीन पर जापान का कला हो गया तथा च्यांग को पश्चिम में चुंगकिंग की ओर पीछे हट जाना पड़ा । इस परिस्थिति में शेन्सी में डटे हुए कम्युनिस्टों ने उत्तर में जापान के विरुद्ध कारगर छापामार लड़ाई का नेतृत्व किया और अपने को लोगों के सामने देशभक्त राष्ट्रवादी के रूप में प्रस्तुत किया ।
इस कारण उन्हें किसानों और मध्यमवर्ग का भारी समर्थन मिला, जो जापानी अमानुषिकता और अक्खड़पन से ऊबे हुए थे । 1937 ई॰ में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के 5 अड्डे थे और वे एक करोड़ बीस लाख लोगों पर नियंत्रण करते थे, जबकि 1945 ई॰ में उनके अड्डों की संख्या 19 और समर्थकों की संख्या 10 करोड़ हो चुकी थी ।
जब 1945 ई॰ में द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की निर्णायक पराजय हो गयी, तब कोमिन्तांग और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता के लिए अन्तिम संघर्ष में उलझ गए । कई प्रेक्षक, विशेषकर अमेरिका को आशा थी कि इसमें च्यांग विजयी होगा । च्यांग काई शेक को मित्रराष्ट्रों से बड़े पैमाने पर सहायता मिलती थी । उसे जापानी सैनिकों द्वारा पीछे छोड़ी गई युद्ध-सामग्री भी हाथ लगी थी ।
अमेरिकियों ने कोमिन्तांग सरकार को पहले जापान द्वारा जीते गए सभी क्षेत्रों पर अधिकार दिलाने में सहायता की । एकमात्र अपवाद मंचूरिया था, जिस पर युद्ध-समाप्ति के कुछ ही दिन पहले रूस ने कब्जा कर लिया था । यहाँ रूसियों ने कोमिन्तांग सैनिकों को आने से रोक दिया और कम्युनिस्ट छापामारों को प्रवेश की अनुमति दे दी । यथार्थ में, कोमिन्तांग की शक्ति भ्रामक थी ।
1948 ई॰ तक कम्युनिस्ट सेना की संख्या इतनी अधिक हो चुकी थी कि अब उन्होंने छापामार लड़ाई त्यागकर व्यांग की सेना को सीधी चुनौती देना शुरू किया । सीधे दबाव में आने के बाद कोमिन्तांग सेना बिखरने लगी । जनवरी, में कम्युनिस्टों ने पेकिंग पर अधिकार कर लिया और साल का अंत होते-होते व्यांग और उसकी बची-खुची सेना चीन की मुख्य भूमि का नियंत्रण माओ-त्से-तुंग के हाथों में छोड़कर ताइवान के टापू में भाग गयी । सारा चीन साम्यवादी हो गया और यहाँ चीनी जनवादी गणतंत्र की स्थापना हुई ।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सफलता के कारण:
कम्युनिस्ट अपनी संयमित भू-नीति के कारण जनसमर्थन बढ़ाते रहे । उनकी भूमि-सम्बन्धी रणनीति इलाके के अनुसार बदलती भी रहती थी । वे समय के अनुकूल जमींदारों की पूरी या कुछ जमीन को छीनकर भूमिहीनों के बीच बाँटने की माँग करते थे तो कभी सिर्फ भू-राजस्व को कम करने की माँग करते थे ।
कम्युनिस्ट सेना अत्यन्त अनुशासित तथा कम्युनिस्ट प्रशासन ईमानदार और अत्यन्त निष्पक्ष था । दूसरी ओर, कोमिन्तांग शासन अयोग्य और भ्रष्ट था । अधिकांश अमेरिकी सहायता-धन अधिकारियों की जेब में चली जाती थी । युद्ध के दौरान मुद्रा की अतिरिक्त छपाई के कारण भयंकर मुद्रास्फीति पैदा हुई, जिसके कारण सामान्य जनता की कठिनाइयाँ कई गुना बढ़ गयीं और मध्यमवर्ग के बहुत लोग बरबाद हो गए ।
इसकी सेना का वेतन बहुत कम था और उन्हें देहातों को लूटने की अनुमति मिली हुई थी; जबकि कम्युनिस्ट सैनिक आदर्शवाद से प्रेरित थे । कम्युनिस्टों के प्रचार का सेना पर असर हुआ । व्यांग की सरकार से सेना का मोहभंग हुआ और वे कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थक थन गए । कोमिन्तांग सरकार ने अपनी अधीनता स्वीकार कराने के लिए स्थानीय जनता को आतंकित भी किया । इससे जनता कोमिन्तांग सरकार से और भी भड़क उठी ।
संघर्ष के अन्तिम दौर में व्यांग ने कुछ भारी सामरिक भूल भी की । हिटलर की तरह वह सेना को पीछे हटने का आदेश नहीं दे पाता था और फलत: उसकी बिखरी हुई सेना दुश्मनों से घिर जाती थी । पेकिंग और शघाई में पूर्ण रूप से घबराई हुई उसकी सेना को बिना किसी विरोध के समर्पण करना पड़ा ।
अंत में, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के चालाक नेताओं जैसे- माओत्से-तुंग और चाउ- एन-लाई ने कोमिन्तांग सरकार की कमजोरियों का लाभ उठाया । कम्युनिस्ट नेता पूरी तरह समर्पित और प्रतिबद्ध थे । लिन पियाओ, चु तेह और चेन यी जैसे कम्युनिस्ट सेनापतियों ने सतर्कतापूर्वक सेना को तैयार किया और वे अपने कोमिन्तांग प्रतिरूपों तुलना में कहीं अधिक सक्षम और राजनीतिज्ञ थे ।
१९४९ ई॰ में चीनी जनवादी गणतंत्र के सामने अनेक जटिल समस्याएँ थीं । देश लम्बे गृहयुद्ध और जापान के साथ युद्ध के कारण बरबाद हो चुका था । रेलवे, सड़क, नहर और बाँध बरबाद हो चुके थे और देश में खाद्यान्न की भारी कमी थी । उद्योग पिछड़े हुये थे; खेती पिछड़ी हुई थी और इतनी बड़ी जनसंख्या को खिलाने में सक्षम नहीं थी तथा मुद्रास्फीति नियंत्रण के बाहर हो चुकी थी ।
किसान और अधिकांश मध्यमवर्ग के लोग कोमिन्तांग सरकार की धृणित उपलब्धियों से उबकर माओ की सरकार का समर्थन कर रहे थे, परंतु अपना समर्थन बनाए रखने के लिए कम्युनिस्टों को काफी सुधार लाना आवश्यक था । साठ करोड़ की जनसंख्यावाले इस विशाल देश को नियंत्रित और संगठित कर पाना एक दुष्कर कार्य था; फिर, भी माओ स्थिति को सँभालने में सफल रहा और आज का चीन, चाहे इसकी जो भी कमजोरी हो, माओ की ही देन है । उसने स्टालिन के तरीकों और प्रयोगों को ध्यानपूर्वक देखा पर लागू उसे ही किया जो चीनी संदर्भ में अधिक उचित था ।