Read this article in Hindi to learn about:- 1. क्रीमिया युद्ध के कारण (Causes of Crimean War) 2. क्रीमिया के युद्ध में यूरोपीय राज्यों की स्थिति (Status of European States during Crimean War) 3. परिणाम (Consequences).

क्रीमिया युद्ध के कारण (Causes for Crimean War):

क्रीमिया-युद्ध को आधुनिक समय में लड़ा गया एक बिल्कुल ही बेकार का युद्ध कहा गया है । अवसर, स्वरूप और मुद्दों के दृष्टिकोण से यह बिल्कुल ही महत्त्वहीन एवं व्यर्थ का युद्ध था । फिर भी, यह प्रतिद्वन्द्वी शक्तियों के आपस में उलझे हुये परस्पराविरोधी स्वार्थों का परिणाम था । तूफान का केन्द्र बाल्कन प्रायद्वीप की राजनीति थी ।

इस प्रायद्वीप की जनता की राष्ट्रवादी अभिलाषाओं और इस क्षेत्र पर प्रभुत्व स्थापित करने की महाशक्तियों की प्रतिद्वन्द्विता ने इसे यूरोपीय तनाव का मुख्य स्थल बना दिया था । सारी समस्या की उत्पत्ति यूरोप में ओटोमन साम्राज्य के बिखराव के फलस्वरूप हुई । पतनोन्मुख टर्की साम्राज्य ‘यूरोप का मरीज’ कहा जाता था और बहुत अरसे से रूसी प्रसारवादियों की निगाहें इस पर अड़ी हुई थीं ।

बाल्कन प्रायद्वीप को अपना प्रभावक्षेत्र बनाना उनकी एक आकांक्षा थी । इसके साथ ही काले सागर को भूमध्यसागर से जोड़नेवाले जलडमरूमध्यों-बोस्फोरस और डार्डोनेलेस-पर भी वे अधिकार करना चाहते थे । इंग्लैण्ड रूस के इन इरादों का प्रबल विरोधी था ।

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इंगलैण्ड चाहता था कि ‘यूरोप का मरीज’ किसी तरह जीवित रहे । सम्पूर्ण आटोमन साम्राज्य को वह अपने भारतीय साम्राज्य और रूस के प्रसारोन्मुखी साम्राज्यवाद के बीच एक मध्यवर्ती राज्य मानता था और उसकी यह धारणा थी कि भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा के हित में लड़खड़ाते हुए आटोमन साम्राज्य का अस्तित्व आवश्यक है । उन्नीसवीं सदी के मध्य तक इन दो महाशक्तियों के विरोधी हितों के टकराव से बाल्कन की समस्या गम्भीर बनी रही ।

लेकिन, 1850 ई॰ के तुरंत बाद इस समस्या में एक और तत्त्व जुट गया । वह था फ्रांस का सम्राट् नेपोलियन तृतीय-जिसके रवैये के कारण क्रीमिया के युद्ध की पृष्ठभूमि बनी । 1848 ई॰ की क्रांति की लहर में वह फ्रांसीसी गणराज्य का राष्टपति निर्वाचित हुआ था और 1851 ई॰ में उसने स्वयं को फ्रांस का सम्राट घोषित कर दिया ।

फ्रांस में उसके सबसे प्रबल समर्थक रोमन कैथोलिक चर्च के लोग थे । अपने को सत्ता में बनाये रखने के लिये उसे कुछ ऐसे काम करने ही थे, जिनसे रोमन कैथेलिक चर्च के लोग खुश रहते हुये उसे अपना समर्थन देते रहें ।

जेरूसलम के पवित्र स्थल के रोमन चर्च के स्वार्थों के हितों के संरक्षण कर वह आसानी से इन उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकता था । 1740 ई॰ के एक समझौते के अनुसार पवित्र स्थल के रोमन पुजारियों को फ्रांस के संरक्षण में रखा गया था । लेकिन, पिछले दशकों में ग्रीक चर्च (जिसका संरक्षक रूस का जार था) के पादरियों ने रोमन पादरियों का हक छीन लिया था ।

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इस कारण दोनों के बीच का पुराना झगड़ा एक बार फिर शुरू हो गया था । नेपोलियन तृतीय ने रोमन पादरियों का पक्ष लेते हुए इस मामले में हस्तक्षेप करने का निश्चय किया । उसका ख्याल था कि यदि वह रोमन पादरियों का हक उन्हें दिलाने में सफल हो गया तो यह फ्रांस के रोमन कैथोलिकों में लोकप्रिय बना रहेगा ।

यदि ग्रीक पादरियों का पक्ष लेकर रूस ने इस मामले में हस्तक्षेप किया तो उसके साथ युद्ध की संभावना हो सकती थी । नेपोलियन ने सोचा कि यदि ऐसे युद्ध में रूस को हरा दिया जाय तो फ्रांस में उसकी ख्याति इस बात से भी बढ़ जाएगी कि उसने 1814-15 की अपमानजनक पराजय का बदला रूस से ले लिया । इस प्रकार, फ्रांस में उसके विरोधी शान्त हो जायेंगे और उसका नाम देश के एक कोने से दूसरे कोने में गूँजने लगेगा ।

क्रीमिया के युद्ध में यूरोपीय राज्यों की स्थिति (Status of European States during Crimean War):

इसी पृष्ठभूमि में नेपोलियन तृतीय ने रोमन पादरियों का पक्ष लेते हुए जेरूसलम में उनके अतिक्रमणित अधिकारों को लौटाने की माँग की और टर्की के सुलतान पर दबाव डालने लगा कि वह इस सम्बन्ध में उचित कार्यवाही करें, क्योंकि जेरूसलम टर्की साम्राज्य के अन्तर्गत ही पड़ता था । जब टर्की के सुलतान ने रोमन पादरियों को उनके अधिकारों को वापस दिलाने की पहल की तो रूस ने इस मामले में हस्तक्षेप किया ।

रूस के इस हस्तक्षेप से संकट का वह सिलसिला शुरू हुआ, जिसके कारण युद्ध छिड़ गया । रूस की माँग थी कि ग्रीक पादरियों के अधिकारों में कोई कटौती न हो तथा सुलतान अपनी सारी ईसाई प्रजा का संरक्षक रूसी जार को मान ले । इस बिन्दु पर इंग्लैण्ड भी इस झंझट में शामिल हो गया । कान्सटैण्टिनोपुल में ब्रिटेन के राजदूत ने टर्की के सुलतान को सलाह दी कि वह रूसी माँगों को अस्वीकार कर दे । ब्रिटेन का प्रोत्साहन पाकर टर्की ने रूसी माँगों को अस्वीकृत कर दिया । इस पर रूस ने टर्की पर आक्रमण कर दिया तथा टकीं का पक्ष लेते हुए ब्रिटेन और फ्रांस भी युद्ध में शामिल हो गये । यह 1853 ई॰ का क्रीमिया-युद्ध था ।

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युद्ध शुरू होने पर एक छोटा-सा इटालवी राज्य सार्डेनिया भी इसमें सम्मिलित हो गया । सार्डेनिया का प्रधानमन्त्री काबूर फ्रांस की मदद करके उस पर एहसान लादना चाहता था, ताकि बाद में नेपोलियन तृतीय से इटली के एकीकरण में मदद प्राप्त हो सके । यूरोप का एक दूसरा महान् राज्य प्रशा इस युद्ध में एकदम तटस्थ रहा, किंतु आस्ट्रिया ने रूस की विवशता से लाभ उठाने का निश्चय किया ।

रूस का साथ अपने परम्परागत मैत्री सम्बन्ध को नजरअन्दाज करते हुए उसने दो बार अल्टीमेटम इस धमकी के साथ दिये कि यदि इन्हें नहीं माना जायगा तो आस्ट्रिया भी रूस के विरुद्ध युद्ध में शामिल हो जायगा । रूस के समक्ष आस्ट्रिया की माँगों को स्वीकार करने के सिवा और कोई चारा नहीं था । बाद में आस्ट्रिया के लिए उसका यह रवैया बहुत मँहगा पड़ा ।

पेरिस की सन्धि:

क्रीमिया के युद्ध का अन्त 1856 ई॰ की ‘पेरिस-सन्धि’ से हुआ । इस सन्धि के द्वारा सभी यूरोपीय शक्तियों ने ओटोमन साम्राज्य की अखंडता बनाये रखने का वादा किया । यह तय किया गया कि किसी भी देश को सुलतान और उसकी ईसाई प्रजा के बीच हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा । सुलतान ने अपनी प्रजा के लिए एक बेहतर शासन का प्रबन्ध करने का जिम्मा लिया ।

रूस का कुछ क्षेत्र माल्डेविया को प्राप्त हुआ । बाद में माविया और बैलेविया को मिलाकर रूमानिया का राज्य निर्मित हुआ । सर्बिया को स्वशासन का अधिकार मिला । काला सागर, जिसके दो जलडमरूमध्यों पर रूस दशकों से निगाहें गड़ाये हुए था, तटस्थ घोषित कर दिया गया । यद्यापि काला सागर में रूसी युद्धपोत रखने पर पाबन्दी लगा दी गयी, तथापि इसे सभी देशों के व्यापारिक जहाजों के लिए उन्मुक्त घोषित कर दिया गया ।

क्रीमिया युद्ध के परिणाम (Consequences of Crimean War):

पेरिस की सन्धि का विश्लेषण करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसके द्वारा रूस की विस्तारवादी नीति पर अंकुश लग गया और युद्ध में पराजय के कारण रूस बहुत अपमानित हुआ । उधर यूरोप की महाशक्तियों के संरक्षण में टर्की को एक नया जीवन मिला ।

नेपोलियन तृतीय को खूब प्रचार मिला और उसकी शोहरत यूरोप भर में फैल गयी । इंग्लैण्ड को भी ठोस लाभ प्राप्त होता नजर आया । ऐसा लगा कि तनाव का मुख्य कारण समाप्त हो गया और पूर्वीय समस्या का एक स्थायी समाधान निकल आया । लेकिन, इन सारे परिणामों के सूक्ष्म अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि पेरिस सन्धि द्वारा समस्या का कोई समाधान नहीं निकला । जैसाकि बाद की घटनाओं से पता चला, रूस की महत्त्वाकांक्षा पर कुछ भी अंकुश नहीं लगा ।

इस सन्धि द्वारा टर्की-शासक की ईसाई प्रजा के प्रति नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और वह ईसाई प्रजा को वैसे ही सताता रहा, जैसे उन्हें युद्ध के पूर्व सताया जाता था । सर्बिया को स्वतन्त्रता मिल जाने से इस सन्धि ने पराधीन राज्यों को अपनी स्वतन्त्रता हासिल करने के लिए उत्तेजित किया । इस प्रकार, पेरिस की सन्धि ने आटोमन साम्राज्य के और अधिक विघटित होने का द्वार खोल दिया ।

यदि सर्बिया की तरह दूसरे राज्य भी अपनी स्वतन्त्रता प्राप्ति में सफल रहते तो ओटोमन साम्राज्य का अन्त होना ही था । इस प्रकार, क्रीमिया- युद्ध और पेरिस की सन्धि न तो रूस की प्रसारवादी नीति पर अंकुश लगा सकी और न ‘यूरोप के मरीज’ को मरने से बचा सकी ।

युद्ध द्वारा ब्रिटेन का कोई भी लक्ष्य पूरा नहीं हो सका । टर्की को विघटन से बचाना उसका लक्ष्य था, किंतु बाद की घटनाओं से स्पष्ट हो गया कि टर्की को मरने से नहीं बचाया जा सकता । इस युद्ध में इंग्लैण्ड के साठ हजार सैनिक मारे गये और उस पर राष्ट्रीय कर्ज बहुत बढ़ गया । सेना और सम्पत्ति के भारी खर्च के बदले में ब्रिटेन को कुछ भी हाथ नहीं लगा ।

जहाँ तक फ्रांस का सम्बन्ध है, ऐसा प्रतीत होता है कि नेपोलियन तृतीय को समुचित यश प्राप्त हुआ, उसने रूस से बदला ले लिया और 1814-15 के कलंक को धो डाला । उसने स्वयं को कैथोलिक चर्च का एक महान् संरक्षक प्रमाणित कर दिया था । इसके परिणामस्वरूप फ्रांस में उसकी स्थिति बड़ी मजबूत हो गयी ।

देश के अन्दर उसके बहुत सारे विरोधी शान्त हो गये । लेकिन, युद्ध के दूरगामी परिणाम स्वयं नेपोलियन के लिए ही बहुत हानिकारक साबित हुये । एक साहसिक कदम उठाये जाने में मिली सफलता ने उसे और साहसिक कदम उठाने को प्रोत्साहित किया और इससे अन्तत: उसका पतन हुआ । 1859 ई॰ में इटली में, 1812 से 1867 ई॰ तक मैक्सिको में तथा 1870 ई॰ में खुद फ्रांस में वह प्रशा के साथ ऐसे युद्ध में लगा रहा, जिनसे आसानी से बचा जा सकता था ।

केवल इटालवी राज्य सार्डेनिया को युद्ध से ठोस फायदे हुये । काबूर को वह अवसर प्राप्त हुआ, जिसकी उसने उम्मीद की थी । एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन (पेरिस सम्मेलन) में महाशक्तियों के साथ बैठने से उसकी प्रतिष्ठा बड़ी और उसे अपनी अभिलाषा को पूरा करने का अवसर मिला । वह नेपोलियन की सदिच्छा प्राप्त करने में सफल रहा, जिससे आगे चलकर इटली के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ । आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध करने के लिए फ्रांस की सहायता प्राप्त करना आवश्यक था और क्रीमिया-युद्ध में फ्रांस का साथ देकर काबूर ने इस सहायता का आश्वासन पा लिया । यह ठीक ही कहा गया है कि क्रीमियां के दलदल से इटली का उदय हुआ ।

क्रीमियां का युद्ध एक अनावश्यक और व्यर्थ का युद्ध था, फिर भी यह परिणामों से भरपूर था । इसने 1815 ई॰ की वियना-व्यवस्था की नींव को हिला दिया । 1815 से 1848 ई॰ तक यूरोप में उदारवाद और राष्ट्रवाद की लहर को रोककर यथास्थिति बनाये रखने में आस्ट्रिया और रूस एक-दूसरे के दृढ़ समर्थक थे । 1850 ई॰ में इन दोनों ने मिलकर जर्मनी की एकता के प्रबल प्रयास को रोका था ।

लेकिन, क्रीमिया- युद्ध के बाद परिवर्तन का विरोध करनेवाली शक्तियाँ बहुत कमजोर पड़ गयीं । युद्ध के बाद रूस तथा आस्ट्रिया के आपसी सम्बन्ध बड़े तनावपूर्ण हो गये, क्योंकि युद्ध के मध्य में आस्ट्रिया ने दो-दो बार रूस को परेशान करने का यत्न किया था । आस्ट्रिया द्वारा प्रदर्शित बेमिसाल कृतघ्नता के कारण रूस और आस्ट्रिया के सम्बन्ध इतने खराब हो गये कि प्रशा और सार्डेनिया दोनों ने इससे लाभ उठाकर जर्मनी और इटली का एकीकरण सम्पन्न कर लिया ।

युद्ध के दिनों में रूस के प्रति प्रशा का रूख दोस्ताना रहा । यह इन पड़ोसियों के बीच अत्यन्त मधुर सम्बन्ध स्थापित होने का प्रारम्भ था । इसके आधार पर ही 1866 ई॰ के आस्ट्रिया-प्रशा युद्ध में प्रशा ने जार का महत्त्वपूर्ण समर्थन प्राप्त करके जर्मनी का एकीकरण लगभग पूरा कर लिया ।

सामान्य अर्थ में क्रीमिया का युद्ध यूरोपीय इतिहास की विभाजक रेखा थी । यह तथ्य रूस के लिए विशेष रूप से सही था । विदेशी युद्ध में पराजय ने जार निकोलस प्रथम की शासन-नीति को पूरी तरह से बेकार प्रमाणित कर दिया और रूस में प्रजातन्त्र की स्थापना के लिए एक आन्दोलन प्रारम्भ करा दिया । जार निकोलस की तीसवर्षीय शासनावधि तानाशाही की रक्षा करने में बीती थी ।

विदेशों में रूसी सेना को इसके समर्थन में लगाया जाता था तथा देश के अन्दर उदारवादी विचारों को कुचलने के लिए सभी प्रकार के तरीके काम में लाये जाते थे । सम्पूर्ण देश को एक सेना के रूप में देखा जाता था । तभी रूस क्रीमिया-युद्ध में पराजित हुआ । महान रूसी तानाशाह की सेना उदारवादी पश्चिम की सेना से पराजित हो गयी थी-जिस सैनिक-शक्ति के संचय के लिए सब कुछ बलिदान किया गया था, उसकी प्रतिष्ठा पराजय के कारण धूल में मिल गयी थी ।

इस कारण रूसी लोगों का आक्रोश-जो युद्ध के पहले अन्दर ही अन्दर उबल रहा था-पराजय के बाद खुले विरोध में परिवर्तित हो गया और रूस में भयंकर हिंसक आन्दोलन शुरू हो गया । स्थिति की गम्भीरता को समझते हुए नये जार अलेक्जेण्डर ने समय की माँग को स्वीकार कर लिया तथा सुधार लाने के तरीकों, जैसे- कृषक- दासों की उन्मुक्ति, शासन-व्यवस्था का आधुनिकीकरण इत्यादि लागू किया, ताकि रूस को एक आधुनिक राज्य बनाया जा सके ।

इस प्रकार, क्रीमिया-युद्ध ने यूरोपीय इतिहास को आन्दोलित कर दिया । इस युद्ध ने एक नये युग को प्रारम्भ किया, जिससे कई युगान्तकारी घटनाओं के लिए रास्ता खुल गया ।

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