Read this article in Hindi to learn about the struggle for freedom and reform in Egypt.

मिस्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

मिस्र पश्चिम एशिया का अंग नहीं है । यह उत्तर- पूर्वी अफ्रिका में बसा हुआ है । 1517 ई॰ में यह ओटोमन-साम्राज्य के कब्जे में आ गया । यहाँ के निवासी अरब हैं । इन कारणों से मिस्र का इतिहास पश्चिम एशिया के इतिहास का अभिन्न अंग बन गया ।

ओटोमन-साम्राज्य के अंतर्गत मिस्र को एक विशेष स्थिति प्राप्त थी । उसके अपने शासक होते थे, जिन्हें खदीव कहा जाता था । लेकिन, वे ओटोमन-सुलतान की अधीनता स्वीकार करते थे । उन्नीसवीं शताब्दी में सुलतान की अधीनता नाम-मात्र की रह गयी थी । सुलतान स्वयं इतना कमजोर हो गया था कि वह दूर-स्थित साम्राज्य के इस भाग पर नियंत्रण नहीं रख सकता था । इसी पृष्ठभूमि में अठारहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में मिस्र यूरोपीय राजनीति के भँवरजाल में फँसने लगा ।

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मिस्र पर प्रभुत्व-स्थापना के लिए अँगरेजों और फ्रांसीसियों में संघर्ष शुरू हुआ । 1798 ई॰ में एक विशाल सेना लेकर नेपोलियन बोनापार्ट फ्रांस से मिल के लिए रवाना हुआ और जुलाई में सिकन्द्रिया पहुँचा । उसका उद्देश्य खदीव के शासन का अंत करना था । बाहर से तो वह यही कहता था कि मिस्र में ओटोमन-प्रभुता कायम करेगा, लेकिन अंदर से उसका विचार मिस्र को सैनिक अट्टे के रूप में प्रयुक्त करते हुए भारत से अँगरेजों को निकालना था ।

फ्रांसीसी फौज के सिकन्द्रिया में उतरने और तीन वर्ष तक मिल में बने रहने तथा सीरिया तक धावा करने से इस्लामी जगत् में सनसनी फैल गयी । जनवरी, 1799 में मिस्त्र से नेपोलियन को निकालने के लिए ब्रिटेन, रूस और ओटोमन-राज्य के मध्य एक समझौता हुआ । अगस्त, 1799 में अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में नेपोलियन को मिस्त्र से वापस लौटना पड़ा ।

नेपोलियन के झटके से अँगरेजों को अपने साम्राज्य की रक्षा की चिन्ता हुई । उन्होंने पश्चिम एशिया में अपने अहे कायम करने शुरू किये । 1805 ई॰ में मुहम्मद अली मिस्र का शासक बना । उसने अँगरेजों को आश्वासन दिया कि वह किसी यूरोपीय शक्ति को मिल या पश्चिम एशिया में हस्तक्षेप नहीं करने देगा ।

मुहम्मद अली:

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यूरोपीय लोगों की घुसपैठ से इस्तामी जगत् में सुधारों की दुन्दुभि बज गयी । इस मामले में मिस्त्र सबसे आगे निकला । 1805 ई॰ में पाशा (गवर्नर) मुहम्मद अली ने मिल के आधुनिकीकरण का कार्य शुरू किया । 1819 ई॰ में उसने फ्रांसीसी सलाहकारों की मदद से पश्चिमी ढंग पर सेना का संगठन किया और सैनिक अफसरों के प्रशिक्षण के लिए तूराह में एक विद्यालय खोला ।

सैनिक लोगों के सुख-आराम के लिए विशेष व्यवस्थाएँ की गयीं । शिक्षा के अन्य विभागों पर भी विशेष ध्यान दिया गया । इंजीनियरी, डॉक्टरी आदि के विद्यालय खोले गये । छापाखाना चलाया गया और एक अखबार निकालना शुरू किया गया । पश्चिमी ग्रंथों के अनुवाद छापे गये । यूरोपीय प्राध्यापकी को मिल बुलाया गया तथा मिली विद्यार्थियों को यूरोप के विभिन्न विश्वविद्यालयों में भेजा गया ।

इन पर जो अतिरिक्त खर्च का सिलसिला शुरू हुआ उसे पूरा करने के लिए अर्थव्यवस्था में सुधार आवश्यक हो गया । इसके लिए मुहम्मद अली ने 1808-14 के बीच इजारेदारी तथा जमींदारी प्रथा को खत्म किया । जमींदारों को हटाया गया तथा बक्कों (ट्रस्टों) की जायदादों को हस्तगत किया गया । सब भूमि सरकारी घोषित की गयी । किसान एक प्रकार के किरायेदार हो गये ।

सरकारी अफसर उनसे लगान वसूल करने लगे । किसानों को सरकार की ओर से खेती का सामान दिया जाने लगा और खाद्यान्न को छोड़कर बाकी सारी फसलें उनसे निश्चित मूल्यों पर खरीदी जाने लगीं । 1812 ई॰ में खाद्यान्नों के व्यापार पर भी सरकारी नियंत्रण कायम कर दिया गया । सरकार ने यातायात का भी अच्छा प्रबंध किया । हर किस्म की जहाजरानी पर सरकारी नियंत्रण हो गया ।

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वस्तुओं के मूल्यों का निर्धारण भी सरकार करने लगी । चमड़े, कपड़े और साबुन के उद्योग सरकारी नियन्त्रण में चलने लगे । मुहम्मद अली के पुत्र इब्राहिम पाशा ने कई तरह के कारखाने स्थापित कराने का यत्न किया । 1821 ई॰ में मिल में कपास की खेती आरंभ हुई । इससे मिल की अर्थव्यवस्था में आमूल परिवर्तन हुआ ।

मुहम्मद अली की विदेश-नीति:

इन सुधारों से मिस्र की शक्ति बहुत बढ़ गयी और वह इजामी जगत का सबसे शक्तिशाली देश माना जाने लगा । 1811 ई॰ में अरेबिया में बहावी आन्दोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया, जिसे दबाने के लिए ओटोमन-सुलतान ने मिल के पाशा की मदद माँगी । उसने अरेबिया पर आक्रमण किया और उसके एक भू-भाग पर अधिकार कर लिया ।

बाद में उसने सूडान पर भी अधिकार कर लिया । आटोमन-सुलतान के कहने पर उसने यूनानियों का भी मुकाबला किया । इसके बदले मुहम्मद अली सीरिया को अपने राज्य में मिलाना चाहता था । पर, सुलतान इसके लिए तैयार नहीं हुआ । इस पर उसने अपने पुत्र इब्राहिम पाशा को 1831 ई॰ में सीरिया पर आक्रमण करने के लिए भेजा । सीरिया जीत लिया गया ।

ओटोमन-सेना ने इसका प्रतिरोध किया, लेकिन वह पराजित हुई और मिली फौज कांन्व्हैण्टिनीपुल के करीब पहुँच गयी । इस हालत में सुलतान ने ब्रिटेन और रूस से मदद माँगी । ये दोनों यूरोपीय देश मिल की उन्नति से जलते थे । अत: इन्होंने सुलतान की सहायता की, ताकि मुहम्मद अली को ओटोमन-साम्राज्य से निकाला जा सके । इसमें सुलतान को सफलता मिली । पर, 1840 ई॰ तक सीरिया पर मिस्र का अधिकार बना रहा ।

स्वेज नहर:

1849 ई॰ में मुहम्मद अली की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अब्बास प्रथम (1849-54) मिस्त्र का शासक हुआ । वह परंपरावादी था तथा मिस्त्र में पश्चिमी सभ्यता- संस्कृति का प्रवेश बिलकुल पसन्द नहीं करता था, इसलिए उसने मुहम्मद अली द्वारा किये गये सारे सुधारों को खत्म कर दिया ।

ज्यादातर वह पुराणपंथी मुल्लाओं, मौलवियों और प्रतिक्रियावादियों के हाथ की कठपुतली था । 1854 ई॰ में उसके मरने के बाद सईद पाशा मिस्त्र का खदीव बना । वह प्रगतिवादी विचारों का व्यक्ति था और उसने शासन में कई सुधार किये ।

इसी समय फ्रांस ने स्वेज से एक नहर निकालकर भूमध्यसागर और लालसागर को मिलाने की योजना बनायी थी । अब्बास प्रथम ने इस नहर के बारे में एक फ्रांसीसी फर्म के प्रतिनिधि से बात करने से इनकार कर दिया था । लेकिन, उसके उत्तराधिकारी सईद पाशा ने नहर की इस महत्त्वाकांक्षी योजना में रुचि ली ।

फ्रांसीसी इंजीनियर दी लैस्सपस उसका मित्र था । उसके प्रभाव में आकर खदीव ने स्वेज नहर योजना स्वीकार कर ली । 1859 ई॰ में नहर की खुदाई का काम शुरू हुआ और 1869 ई॰ में वह बनकर तैयार हो गयी ।

स्वेज नहर बनने के पूर्व ही सईद पाशा की मृत्यु हो गयी थी और 1863 ई॰ में इस्माइल पाशा (1863-74) मिल का शासक हुआ । वह बड़ा फिजूलखर्च था । सईद पाशा के समय में ही लन्दन के बैंक से तीन लाख पौण्ड की रकम कर्ज के रूप में ली गयी थी । इस्माइल ने फ्रांस में शिक्षा पायी थी और मिस्र का यूरोपीकरण करना उसका मुख्य लक्ष्य था, अत: उसने पश्चिमीकरण की प्रक्रिया को तेज कर दिया । इसके लिए एक ही साथ कई कार्यक्रम चालू किये गये ।

लेकिन, इन पर इतना खर्च बढ़ा कि मिस्र कर्ज के सागर में डूब गया । 1872 ई॰ तक मिल पर दस करोड़ पौण्ड का कर्ज चढ़ गया । मिल की सरकार के समक्ष अब इस कर्ज को अदा करने का प्रश्न आया । स्वेज नहर का निर्माण फ्रांसीसी पूँजी से हुआ था । यह मिस्र के भू-भाग में पड़ता था, इसलिए इसमें मिस्त्र के खदीव का भी हिस्सा रहा ।

पहले तो ब्रिटेन स्वेज नहर से एकदम अलग रहा और उसने नहर के निर्माण में किसी तरह के उत्साह का प्रदर्शन नहीं किया । लेकिन, यह इंग्लैण्ड की भूल थी । ब्रिटिश नेता उस समय नहर के महत्त्व को नहीं समझ सके कि उनके पूर्वी साम्राज्य की सुरक्षा के लिए यह जलमार्ग कितना उपयोगी सिद्ध हो सकता है । नहर के खुल जाने पर ब्रिटेन ने इसका महत्त्व समझा और अब वह इस पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए उतावला हो उठा । ऐसे ही समय इस्माइल पाशा के समक्ष अपार धनराशि के कर्ज को चुकाने का प्रश्न आया ।

लेकिन, इतनी बड़ी रकम वापस करना उसके वश से बाहर की बात थी । फलत: मिस्त्र की शासन-व्यवस्था चौपट होने लगी । ऐसी हालत में उसने स्वेज नहर के अपने हिस्से को बेचना तय किया । जिस समय खदीव ने स्वेज नहर का अपना हिस्सा बेचने के निर्णय की घोषणा की, उस समय इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री डिजरैली था । वह घोर साम्राज्यवादी था और स्वेज नहर के महत्व को खूबसमझौता था । डिजरैली स्वेज नहर को ब्रिटिश साम्राज्य की ‘जीवन-रेखा’ मानता था, जो पूर्वी साम्राज्य पर आधिपत्य रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक था । अतएव, उसने तुरंत ही खदवि के हिस्से को खरीद लिया । मिल की राजनीति में ब्रिटेन की दिलचस्पी का इतिहास यहीं से शुरू होता है । अब स्वेज नहर के दो यूरोपीय हिस्सेदार हो गये-फ्रांस और इंग्लैण्ड । स्वेज नहर पर इन्हीं का नियंत्रण कायम हुआ । नहर के प्रबंध के लिए एक ‘स्वेज कैनाल कंपनी’ बनी, जिसके संचालक अँगरेज और फ्रांसीसी हुए ।

मिस्र पर ब्रिटिश प्रभुत्व की स्थापना-स्वेज नहर के अपने हिस्से बेच देने से इस्माइल पाशा की हालत नहीं सुधरी । वह स्वभावत: अपव्ययी था, इस कारण इंग्लैण्ड तथा फ्रांस से बेशुमार कर्ज लेता रहा । यह कर्ज टैक्सों को जमानत पर रखकर लिया गया था । इसलिए ब्रिटेन और फ्रांस मिस्र पर अपना नियंत्रण बढ़ाने लगे और उस पर सैनिक नियंत्रण भी कायम करने लगे । टैक्सों की जमानत वसूल करने के लिए ये दोनों देश मिस्र में अपने कर्मचारी भी नियुक्त करने लगे ।

इस्माइल ने इन नियुक्तियों का विरोध किया, इस कारण ब्रिटेन और फ्रांस उस पर नाराज हो गये । मिस्र ओटोमन-साम्राज्य का अंग था, अत: उन्होंने सुलतान पर दबाव डालकर इस्माइल को खदीव के पद से हटवा दिया और उसके पुत्र तौफीक पाशा को खदीव नियुक्त किया ।

मिस्त्र की जनता अपने देश में साम्राज्यवादी प्रभुत्व को इस तरह बढ़ते देखकर चिन्तित हो रही थी, इसलिए तौफीक जैसे ही खदीव नियुक्त हुआ, वैसे ही मिस्त्र में एक देशव्यापी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ । इस विद्रोह का नेता अरबी पाशा नामक एक देशभक्त था । उसने सांविधानिक सरकार की माँग की । अरबी पाशा के समक्ष नये खदीव को झुकना पड़ा । उसने वादा किया कि वह देश में मिस्त्र को पश्चिम के साम्राज्यवादी प्रभाव से मुक्त करने का प्रयास करेगा और पश्चिमी देशों का किसी प्रकार का आर्थिक हस्तक्षेप नहीं होने देगा ।

मिल में अरबी पाशा का प्रभाव बढ़ने लगा । इस कारण ब्रिटेन और फ्रांस की चिन्ता बड़ी । ब्रिटेन ने मिस्त्र की राष्ट्रीयता के इस जागरण को कुचलने का निश्चय किया । इसके लिए उसने फ्रांस के सहयोग की याचना की । लेकिन, फ्रांस मिल के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने के लिए तैयार नहीं हुआ । अतएव, ब्रिटेन ने अकेले हस्तक्षेप कर अरबी पाशा के नेतृत्व में चल रहे साम्राज्यवाद-विरोधी आन्दोलन को कुचलने का निश्चय किया ।

इंग्लैण्ड ने बाजाब्ला मिस्र के राष्ट्रवादियों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी । सिकन्द्रिया में एक दंगे को बहाना बनाकर अँगरेजों ने उस पर बमबारी कर दी, पोर्ट सईद पर कब्जा कर लिया और नहर पर अपना शासन जमा लिया । तेल- अल-कबीर के मैदान में अरब पाशा को बुरी तरह पराजित कर दिया गया । इसके बाद 1882 ई॰ में मिस्र के शासन पर ब्रिटेन का पूर्ण प्रभाव कायम हो गया ।

तौफीक अब भी मिल का खदीव रहा, लेकिन राज्य की वास्तविक शक्ति क्रिया अधिकारियों के हाथ थी । मिल के शासन-संचालन के कार्य में सहायता देने के लिए 1884 ई॰ में लॉर्ड क्रीमर को राजदूत बनाया गया । क्रीमर एक कुशल राजनीतिज्ञ था । वह 1897 ई॰ तक मिस्त्र में रहा और इस अवधि में उसने मिल पर पूरा नियंत्रण कायम कर लिया । उसने मिस्र की सेना का संगठन किया ।

शासन के उच्च पदों पर ब्रिटिश अफसरों को दहाल किया गया । तीस सदस्यों की एक विधानसभा बनायी गयी, जिसमें चौदह सदस्य खदीव द्वारा नामजद होते थे और शेष जनता द्वारा अत्यन्त सीमित मताधिकार के आधार पर निर्वाचित होते थे । पर, इसे सलाह-मशविरा देने के अलावा और कोई अधिकार नहीं था । मिस्त्र की आर्थिक व्यवस्था में कुछ सुधार किया गया ।

लगान कम किया गया; बेगार बंद कर दी गयी, वित्त-व्यवस्था ठीक की गयी और कर्ज को संतुलित करने की कोशिश की गयी; डेल्टा के बाँध (1890 ई॰) और असवान बाँध (1902 ई॰) के निर्माण से कपास की पैदावार में वृद्धि हुई, आयात-निर्यात बढ़ा और रहन-सहन का स्तर बढ़ा । लेकिन, इन सारे सुधारों का मुल मिस्त्र पर ब्रिटेन के प्रभुत्व को मजबूत बनाना था ।

सूडान पर कब्जा:

1881-85 के बीच सूडान में मेहदी पाशा के नेतृत्व में विदेशियों के विरुद्ध आन्दोलन छिड़ा । मेहदी ने अँगरेज जनरल चार्ल्स जॉर्ज गोर्डन को मार दिया और खारतूम पर कब्जा कर लिया । लेकिन, 1896-88 के बीच लॉर्ड किचनर ने सूडान को फिर से जीत लिया । इस प्रकार, उन्नीसवीं सदी के अंत तक मिल और सूडान ब्रिटेन के कब्जे में आ गये । खदीव वहाँ के नाममात्र के शासक रह गये ।

मिस्र में राष्ट्रीय भावना का विकास:

उन्नीसवीं सदी के अंत में अरब जगत् यूरोपीय साम्राज्यवाद के पंजे में फँसता जा रहा था । मिल में अँगरेजी शासनकाल में कुछ आर्थिक सुधार अवश्य हुये थे, लेकिन उसके साथ ही लूट-खसोट का बाजार भी गर्म रहा । इससे मध्यमवर्ग और किसानों की हालत बहुत खराब हो गयी । इसलिए वहाँ अँगरेज अधिकारियों का विरोध होना स्वाभाविक था ।

यूरोप के प्रभाव से इस्लामी जगत् की चिन्तन-पद्धतियाँ पलटनी शुरू हुईं । अनेक विचारक नये विचारों में डूब गये और उद्‌बोधन का स्वर ऊंचा करने लगे । इससे मिस्त्र में राष्ट्रीय दल का विकास हुआ । 1879 ई॰ में वहाँ ‘अल-हिज्ब अल-वतनी’ नामक एक राष्ट्रीय दल की स्थापना हुई ।

इसके प्रवक्ता अब्दुल्ला अन्नदीम (1844-96) ने ‘अल-वतन’ नामक नाटक लिखा, जो मिस्त्री राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत था । इस काल में राष्ट्रवाद का दूसरा प्रवक्ता मुस्तफा कामिल (1874-1908) था ।

1905 में रूस-जापान-युद्ध में जापान की विजय से प्रसन्न होकर उसने अपना ग्रंथ ‘अल-शम्स अल-मशरिका’ (उदीयमान सूर्य) लिखा । उसका आशय था कि मिस्र को जापान के रास्ते का अनुकरण कर ही पाश्चात्य शक्तियों का विरोध करना चाहिए । एक-दूसरे नेता साद जगलुल (1857-1927) ने मिस्र की ऐतिहासिक एकता पर जोर देते हुए उसकी स्वतंत्रता का समर्थन किया और उसकी शिक्षा-पद्धति और कानून व्यवस्था में सुधार की माँग की ।

अक्टूबर, 1872 में उसने ‘अल-हिज्ब अल-उम्मा’ नामक राष्ट्रिय दल संगठित किया और मुस्तफा कामिल ने ‘अल-हिज्ब अल-वतनी’ का नये सिरे से संगठन किया ।

1907 से 1911 ई॰ तक मिस्र में एल्डन गोर्स्ट का शासन रहा । वह नरम स्वभाव का व्यक्ति था । 1910 ई॰ में इंग्लैण्ड में उदारवादी दल की सरकार आ गयी । उसका आदेश था कि को जापान के रास्ते का अनुकरण कर ही पाश्चात्य शक्तियों का विरोध करना चाहिए ।

एक-दूसरे नेता साद जगलुल (1857-1927) ने मिस्र की ऐतिहासिक एकता पर जोर देते हुए उसकी स्वतंत्रता का समर्थन किया और उसकी शिक्षा-पद्धति और कानून व्यवस्था में सुधार की माँग की । अक्टूबर, 1872 में उसने ‘अल-हिज्ब अल-उम्मा’ नामक राष्टीय दल संगठित किया और मुस्तफा कामिल ने ‘अल-हिज्ब अल-वतनी’ का नये सिरे से संगठन किया ।

1907 से 1911 ई॰ तक मिस्र में एल्डन गोर्स्ट का शासन रहा । वह नरम स्वभाव का व्यक्ति था । 1906 ई॰ में इंग्लैण्ड में उदारवादी दल की सरकार आ गयी । उसका आदेश था कि मिस्रियों को शासन के अधिकार दिये जायँ और उन्हें राजकीय कार्य-भार सौंपा जाय ।

1908 ई॰ में तुर्की में युवा तुर्क-दल ने क्रांति कर दी । सुलतान अकुल हमीद ने संविधान को बहाल कर दिया और साम्राज्य में रहनेवाली सभी जातियों की समानता की घोषणा कर दी । सारे मिस्र में खुशी और जोश की लहर दौड़ गयी । लोग अपना संयम खो बैठे । 1910 ई॰ में प्रधानमंत्री वुत्रुस गाली की हत्या कर दी गयी । उसने निशाबी की घटना में बेगुनाहों को फाँसी पर लटकवाया था ।

1911 ई॰ में गोर्स्ट की जगह किचनर ने शासन सँभाला । उसने गड़बढ़ से निपटने के लिए कड़ा रुख अपनाया और साथ ही 1913 ई॰ में वैधानिक कानून लागू किया तथा उसके अनुसार 1914 ई॰ में मिली संसद् की पहली बैठक बुलायी । इसमें तिरासी सदस्य थे, जिनमें से सतरह सरकार द्वारा नामजद थे और बाकी निर्वाचित ।

मिस्र पर बिटेन की संरक्षकता:

1914 ई॰ में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हुआ । इस युद्ध में तुर्की का सुलतान इंग्लैण्ड के खिलाफ युद्ध में शामिल हुआ । मिस्र को पूर्णत: अपने अधिकार में लाने के लिए ब्रिटेन को यह अच्छा मौका मिल गया । ब्रिटेन की ओर से घोषणा की गयी कि मिल को तुर्की की अधीनता से मुक्त किया जाता है और वहाँ के खदीव ने ब्रिटेन की संरक्षकता में रहना स्वीकार कर लिया है ।

इस प्रकार, मिस्र अब पूर्ण रूप से इंगलैण्ड का संरक्षित राज्य हो गया । इसी समय ब्रिटेन ने खदीव अब्बाल हिक्मी को पदद्युत दिया, क्योंकि वह तुर्क सुलतान का समर्थक था और उसके चाचा हुसैन कामिल को खदीव के पद पर आरूढ़ किया गया । सैनिक कानून और पाबंदियों लागू की गयीं । स्वेज नहर पर कड़ा नियंत्रण किया गया । सब पैदावार सैनिक काम में लायी जाने लगी । लोगों की तंगी और दिक्कत बहुत बढ़ गयी इससे राष्ट्रीय आन्दोलन को और अधिक प्रेरणा मिली ।

युद्धकाल में स्वाधीनता के लिए संघर्ष:

मिस्र के देशभक्तों का ख्याल था कि अँगरेजों का संरक्षण केवल युद्धकाल के लिए है । युद्ध तुरंत ही समाप्त हो जायेगा और मिस्र पर से ब्रिटेन का संरक्षण भी खत्म हो जायेगा । लेकिन, युद्ध जल्दी समाप्त नहीं हुआ । यद्यपि मिस्र युद्ध में तटस्थ था, लेकिन ब्रिटेन ने जबरदस्ती मिल के निवासियों को युद्ध में सहयोग करने के लिए विवश किया ।

मिस्र के आर्थिक साधनों का भी युद्ध को सफल बनाने के लिए प्रयोग किया गया । लड़ाई के दिनों में वहाँ के किसानों से बेदर्दी से धन वक्ता गया और उन्हें हजारों की संख्या में जबरदस्ती मजदूर-शिविरों में भरती किया गया । शहरों में अनाज की कमी, चीजों की महँगाई और रेडक्रॉस के चंदे की मार लोगों को खाये जा रही थी । पढ़े-लिखे लोगों को अँगरेजी बहुत अखरती थी ।

मिस्रियों में बड़ा असंतोष फैला और उन्होंने एक राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारंभ कर दिया, जिसका उद्देश्य देश को ब्रिटेन के प्रभुत्व से मुक्त करना था । इस आन्दोलन का प्रमुख नेता जगलुल पाशा था । जगलुल पाशा ने एक पार्टी का संगठन किया और इसे वफ्य पार्टी का नाम दिया । वफ्द पार्टी ने सशस्त्र स्वयं सेवकों का संगठन किया और ब्रिटिश अफसरों पर हमला करना शुरू किया ।

1919 ई॰ में विश्वयुद्ध समाप्त हुआ । जगलुल पाशा मिल की स्वतंत्रता की माँग को रखने के लिए पेरिस के शान्ति-सम्मेलन में जाना चाहता था लेकिन अँगरेजों ने इसकी इजाजत नहीं दी और उसे कैद कर लिया गया । जगलुल के अन्य साथी भी गिरफ्तार कर माल्टा भेज दिये गये । अपने नेताओं की कैद और नजरबंदी की खबर सुनते ही मिस्र के लोगों ने क्रान्ति कर दी ।

अँगरेजों ने इस विद्रोह को दबाने के लिए अत्यन्त उग्र उपायों का प्रयोग किया । लेकिन, मिल के विद्रोह ने इतना भयंकर रूप धारण कर लिया कि अंत में अँगरेजों को यह अनुभव करना पड़ा कि मिस्र में तभी शान्ति स्थापित करना संभव होगा, जब उसके नेताओं के साथ सुलह की बात चलायी जाय ।

अतएव, जगलुल पाशा आदि गिरफ्तार नेताओं को छोड़ दिया गया और लॉर्ड मिलनर को इस उद्देश्य से मिल भेजा गया कि वह वहाँ की परिस्थिति का भली-भाँति अध्ययन कर अपना परामर्श दे । दिसम्बर, 1919 से मार्च, 1920 तक लॉर्ड मिलनर मिस्र में रहा और उसने वहाँ की स्थिति का अध्ययन किया ।

1922 ई॰ की सन्धि-लॉर्ड मिलनर ने इंगलैण्ड लौटकर यह रिपोर्ट दी कि मिल के साथ शीघ्र ही एक ऐसी संधि की व्यवस्था करनी चाहिए, जिसके अनुसार उसे स्वाधीनता तो दे दी जाय, पर साथ ही वहाँ ब्रिटिश हितों की रक्षा के लिए समुचित प्रबंध भी कर लिया जाय । मतलब यह कि मिस्र में ब्रिटिश लोगों को विशेष सुविधा और अधिकार मिलें । मिस्र के नेता इस तरह की शर्त मानने के लिए तैयार नहीं थे, अत: पुन: गतिरोध उत्पन्न हुआ और मिल के नेताओं ने पुन: ब्रिटेन के खिलाफ आन्दोलन शुरू कर दिया ।

जगलुल पाया अपने साथियों-सहित पुन: बंदी बना लिया गया और अँगरेजों ने अत्यन्त कुरतापूर्वक मिल के आन्दोलन का दमन करना शुरू किया । ब्रिटेन ने मिस्र में शान्ति-व्यवस्था स्थापित करने का कार्य जनरल एलेन्वी को दिया । एलेन्वी ने स्थिति का अध्ययन किया और इसे बड़ा गंभीर बताया ।

उसने सिफारिश की कि मिस्र की राष्ट्रीय भावना को संतुष्ट करने के लिए कार्य करना परम आवश्यक है, नहीं तो वहाँ भीषण क्रान्ति हो जायेगी । लॉर्ड एलेन्वी के परामर्श के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने समझौता कर लेना ही उचित समझा ।

अतएव फरवरी, 1922 में ब्रिटेन और मिल में एक समझौता हुआ जिसकी मुख्य शर्त्तें निम्नलिखित थीं:

(1) मिल की स्वतंत्रता मान ली गयी और उस पर से ब्रिटेन का संरक्षण समाप्त कर दिया गया ।

(2) स्वेज नहर पर ब्रिटेन के हितों को मान्यता दी गयी और उसके रक्षार्थ निम्नांकित बातें तय की गयीं:

(क) स्वेज नहर की रक्षा के लिए उस क्षेत्र में एक ब्रिटिश सेना रहे;

(ख) मिस्र में ब्रिटेन या अन्य विदेशियों के जो हित हैं, उनकी रक्षा का भार ब्रिटेन पर रहे;

(ग) यदि मिल पर किसी दूसरे देश का आक्रमण हो तो उस स्थिति में उसकी रक्षा का उत्तरदायित्व ब्रिटेन पर रहे,

(घ) सूडान पर पहले की तरह ब्रिटिश प्रभुत्व बना रहे ।

स्पष्ट है कि इस समझौते से न तो मिस्र स्वाधीन हुआ और न ही उस पर ब्रिटेन का संरक्षण समाप्त हुआ । स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी रही, केवल कुछ मधुर शब्दों का प्रयोग किया गया । अतएव, मिस्र के देशभक्त इस समझौते से संतुष्ट नहीं हुए । लेकिन, अभी वे ऐसी स्थिति में नहीं थे कि इसका खुल्लमखुल्ला विरोध करते ।

वे ब्रिटेन की अपार सैनिक शक्ति का मुकाबला नहीं कर सकते थे, अतएव विवश होकर उन्हें इस संधि को स्वीकार करना पड़ा । 28 फरवरी, 1922 को मिल के प्रतिनिधि ने इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये । इस समय मिस्र के लिए एक नया शासन-विधान बनाया गया । इसके अनुसार वहाँ एक संसद् तथा उत्तरदायी मन्त्रिमण्डल की व्यवस्था की गयी ।

संघर्ष का फिर से प्रारंभ:

नवीन शासन-विधान के अनुसार मिस्र में 1923 ई॰ में आम चुनाव हुआ । इस चुनाव में वफ्द पार्टी को विजय हासिल हुई और उसका नेता जगलुल पाशा प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त किया गया । जगलुल पाशा शुरू से ही 1922 ई॰ के समझौते का विरोधी था । वह मिस्र को पूर्ण स्वतंत्र करना चाहता था । वह प्रत्यक्ष या परोक्ष, किसी भी रूप में ब्रिटेन के प्रभुत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था ।

वह ब्रिटेन के उन सारे विशेषाधिकारों को समाप्त करना चाहता था, जो उसे 1922 ई॰ संधि द्वारा प्राप्त हुए थे । अतएव, इस उद्देश्य के साथ वह लन्दन गया और मजदूर दल के नेता प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड के समक्ष उसने अपना प्रस्ताव रखा कि 1922 ई॰ की संधि को रह किया जाय । लेकिन, ब्रिटिश सरकार उसकी माँग को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुई ।

जगलुल पाशा निराश होकर स्वदेश लौट आया । उसका खाली हाथ लन्दन से लौटना मिस्र में उपद्रवों के प्रारंभ के लिए सिगनल था । मिस्र के देशभक्तों ने पुन: हिंसात्मक कार्यवाही का सहारा लिया । ब्रिटिश अफसरों पर फिर से आक्रमण शुरू हुए । नवम्बर, 1924 में सूडान के अँगरेज गवर्नर और मिल में स्थित ब्रिटिश सेना के सेनापति जनरल ली स्टैक की हत्या मिली देशभक्तों ने कर दी । ब्रिटेन के लिए यह एक बहुत बड़ी चुनौती थी । उसने तुरंत ही मिस्र को कुचलने का निश्चय किया ।

मिल की सरकार के समक्ष हाई कमिश्नर एलेन्बी ने निम्नांकित बातें मानने या ब्रिटिश सरकार से मुकाबले की धमकी दी:

(i) मिस्र की सरकार इन हत्याओं के लिए ब्रिटिश सरकार सें क्षमा की याचना करें और यह आश्वासन दे कि भविष्य में फिर इस तरह की घटना नहीं घटेगी ।

(ii) हत्या के लिए पचास हजार पौण्ड का हरजाना दिया जाय ।

(iii) जो लोग हत्या के लिए जिम्मेवार हैं, उन्हें कठोरतम दंड दिया जाय ।

(iv) सूडान में स्थित मिस्री सेना और अफसरों को शीघ्र वापस बुलाया जाय ।

(v) सूडान के कपास की खेती के इलाके को नील नदी से सिंचाई के लिए पानी लेने की पूर्ण स्वतंत्रता दी जाय ।

अंतिम माँग प्रतिशोध की भावना से परिपूर्ण थी और मिल के लिए बड़ी आपत्तिजनक थी, क्योंकि नील नदी उसके आर्थिक जीवन का आधार थी । यदि सूडान की खेती के लिए इसका जल ले लिया जाता तो मिस्र सूख जाता । इस कारण जगलुल पाशा इस माँग को छोड़कर अन्य सभी माँगों को मानने के लिए तैयार हो गया ।

ब्रिटेन का रवैया भी सख्त रहा और उसने सिकन्द्रिया पर अधिकार कर लिया । मिस्र के नेताओं के समक्ष अब दो ही मार्ग थे-चुपचाप आत्मसमर्पण करना या ब्रिटेन का मुकाबलाकरना । जगलुल पाशा स्थिति सँभालने में असमर्थ था, अत: उसने इस्तीफा दे दिया ।

सुलतान कुआद मिल पर अपना निरंकुश शासन चाहता था । उसे लोकतंत्र की पद्धति पसंद नहीं थी, इसलिए उसने इस हलचल से लाभ उठाने का निश्चय किया तथा वफ्ती क्ट्रमतवाली संसद् को भंग कर दिया और अपने पिब्लओ की मदद से, जिन्होंने हसन नशात के नेतृत्व में इतिहाद दल बना लिया था, मनमाना शासन शुरू किया ।

लेकिन, उसका शासन तुरंत ही बदनाम हो गया और उसके दल के बहुत-से लोग बफ्य पार्टी में मिल गये । इस कारण देश में राजनीतिक हलचल और बढ़ गयी तथा स्थिति अत्यन्त तनावपूर्ण हो गयी । अत: नये ब्रिटिश हाई कमिश्नर लॉर्ड लोयड ने फुआद को नया चुनाव कराने के लिए कहा ।

नये चुनाव में पुन: वफ्य पार्टी को बहुमत मिला । उसे सत्तर प्रतिशत स्थान मिले । लेकिन, ब्रिटिश सरकार जगलुल पाशा को प्रधानमंत्री बनने देना नहीं चाहती थी । किसी तरह यह फैसला हुआ कि उदारवादी नेता सरवत पाशा प्रधानमंत्री हो और उसके मन्त्रिमण्डल में छह बफ्य पार्टी के, तीन उदारवादी और एक निर्दलीय रहें और जगलुल पाशा को संसद् का अध्यक्ष बना दिया जाय ।

नहस पाशा का नेतृत्व:

1927 ई॰ में सरवत पाया संधि के मसविदें पर बातचीत करने के लिए लंदन गया । वहाँ ब्रिटिश सरकार ने इस बात की जिद की कि मिस्त्री सेना के ब्रिटिश अफसरों को सैनिक मिशन का रूप दे दिया जाय और कुछ समय के लिए पुलिस तथा सुरक्षा विभाग में ब्रिटिश कर्मचारी काम करते रहें । उसी वर्ष जगलुल पाशा की मृत्यु हो गयी और उसकी जगह मुस्तफा अन्-नहस वष्म पार्टी का नेता बना । नये नेतृत्व ने संधि के मसविदे का विरोध किया और अँगरेजों से पूरी तरह मिस्र खाली करने की माँग की । सरवत पाशा की सरकार का वहुमत समाप्त हो गया और उसे इस्तीफा देना पड़ा ।

सरवत पाशा के इस्तीफे के बाद वफ्द के नये नेता नहस पाशा ने विशुद्ध वादी सरकार बनायी और राजा तथा हाई कमिश्नर दोनों से टक्कर ली । तीन महाने के बाद कुछ पत्रों में एक समाचार छपा कि नहस ने पागल शहजादे सैफुद्दीन की जायदाद, जो सुलतान के कब्जे में थी, उसकी माँ को दिलाने के बदले में डेढ़ लाख पौण्ड माँगे थे । इस समाचार से मिस्र में बड़ी उत्तेजना फैली ।

सुलतान को नहस को बर्खास्त करने, संसद् भंग करने और तीन वर्ष तक चुनाव न करने की घोषणा करने का अच्छा बहाना मिल गया । लेकिन, इस चाल में वह सफल नहीं हो सका । नया उदारवादी प्रधानमन्त्री मुहम्मद महमूद संविधान को इस प्रकार भंग करने के पक्ष में नहीं था, अत: 1929 ई॰ में चुनाव हुआ । इस बार वष्म पार्टी को बहुमत मिला ।

नहस पाशा पुन: प्रधानमंत्री बन गया । 1930 ई॰ में उसने मुहमम्द महमूद की जगह लंदन में संधि के सम्बन्ध में बातचीत जारी रखी । सूडान के प्रश्न पर पुन: गतिरोध पैदा हो गया । नहस चाहता था कि वहाँ मिलियो को आने-जाने की पूरी आजादी हो । ब्रिटिश सरकार का कहना था कि गवर्नर जनरल को इस पर रोक लगाने का अधिकार रहे । अत: कोई फैसला नहीं हो सका ।

नहस पाशा ने स्वदेश लौटने पर संसद के समक्ष दो विधेयक रखे, जिनका आशय था कि राजा को संसद् के बिना शासन करने का अधिकार न हो । वह 1928 ई॰ की घटना की पुनरावृति की संभावना को पूरी तरह समाज कर देना चाहता था । राजा इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हुआ । इस पर नहस पाशा ने इस्तीफा दे दिया और सरकार के विरुद्ध असहयोग और कर न देने का आन्दोलन शुरू कर दिया ।

सिद्यकी पाशा और मिस्र की हलचल-नहस पाशा के बाद खदीव ने घोर प्रतिक्रियावादी सिद्यकी पाशा को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त किया । सिद्यकी पाशा अंगरेजों के इशारों पर चलता था । उसके शासनकाल मे भ्रष्टाचार में खूब वृद्धि हुई और उसके पिछलगुओं ने खुलकर लूटखसोटकी । इसलिए लोग भारी संख्या में नहस पाशा द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन में शरीक होने लगे ।

सरकार ने घोर दमन किया । वफ्य पार्टी के समाचारपत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया गया, उसके वार्षिक सम्मेलन को रोक दिया गया और संसद् भी भंग कर दी गयी । लोकतंत्र के सभी सिद्धान्तो के विरुद्ध 1930 ई॰ में मिल में एक नया संविधान बना और इसे लागू कर दिया गया । लेकिन, यह सब वफ्द पार्टी तथा इस्माइल सिदकी के उदारवादी दल को असह्य था ।

1931 ई॰ के चुनाव में, जो नये तरीके से हुआ, सिद्यकी पाशा के नये दल शआब पार्टी को स्वभावत: बहुमत मिला । लेकिन, मजदूर-संगठनों ने इस चुनाव का प्रबल विरोध किया । सरकार ने उन्हें भंग कर दिया । 1933 ई॰ में स्वास्थ्य गिरने के कारण सिंध की पाशा ने पदत्याग कर दिया ।

1936 ई॰ की संधि-इसी बीच अंतरराष्ट्रिय राजनीति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए । फासिस्ट इटली अफ्रीका में अपने साम्राज्य-विस्तार की तैयारी करने लगा और 1935 ई॰ में उसने अबीसीनिया पर आक्रमण कर उस पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया । इस स्थिति में मिल का महत्त्व बहुत बढ़ गया इटली का विरोध करने के लिए ब्रिटेन मिस्र का सहयोग आवश्यक मानता था ।

वह मिस्र की जनता से समझौता कर उसे मित्र बना लेना चाहता था मिस्र के नेताओं ने इस स्थिति से लाभ उठाने का निश्चय किया । वफ्य पार्टी के नेता नहस पाशा ने घोषणा की कि मिस्र के लोग ब्रिटेन के साथ इसी शर्त पर सहयोग करेगे जब ब्रिटेन उनकी स्वतंत्रता को लौटा दे ।

ब्रिटिश हाई कमिश्नर ने यह घोषणा की कि इंग्लैण्ड मिस्र के साथ समझौता करने के लिए तैयार हे । इसके बाद मिस्र में पुन: चुनाव हुए ओर वफ्य पार्टी का नेता नहस पाशा एक बार फिर प्रधानमंत्री बना । नहस पाशा की सरकार और ब्रिटिश सरकार के बीच 1936 ई॰ में एक संधि हुई । सधि की अवधि बीस वर्ष की रखी गयी, लोकन दस वर्ष बाद इसमें संशोधन हो सकता था ।

इसकी पाँच मुख्य धाराएँ इस प्रकार थीं:

(i) ब्रिटेन और मिस्र में सेनिक मेल रहेगा, युद्ध के समय दोनों एक-दूसरे की मदद करेंगे, उनकी विदेश-नीति संधि के विपरीत नहीं होगी,

(ii) स्वेत नहर की सुरक्षा के लिए ब्रिटेन को वहाँ दस हजार पैदल फौज और चार सौ हवाबाज और अन्य सेनाएँ रखने का अधिकार होगा;

(iii) सूडान में मिस्री सेना, अफसर और प्रवासी जा सकेंगे, लेकिन मिली सरकार को वहाँ सहराज्य सिद्धान्त को मानना होगा;

(iv) मिस्री सरकार विदेशी लोगों की रक्षा के लिए जिम्मेवार होगी और उनके साथ भेदभाव नहीं बरतेगी तथा उन पर कोई ऐसा कानून लागू नहीं करेगी, जो आधुनिक सिद्धान्तों पर आधारित न हो,

(v) मिस्र में ब्रिटिश प्रतिनिधि राजदूत कहलायेगा और अन्य देशों के प्रतिनिधियों में उसका स्थान प्रथम होगा ।

मिस्र और ब्रिटेन के बीच यह संधि इसलिए पट गयी कि दोनों पक्ष फासिस्ट शक्तियों के खतरे को देखते हुए मामला सुलझा लेने में ही अपना हित मानते थे । ब्रिटेन ने अपनी फौज को काहिरा और सिकन्द्रिया से हटाकर नहर के इलाके में भेजना मान लिया । सूडान पर मिलियों के जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं रहा ।

1937 ई॰ में मिल को राष्ट्रसंघ की सदस्यता प्राप्त हो गयी । विदेशी विशेषाधिकारों की समाप्ति के लिए उसी वर्ष मोन्त्रों में एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन हुआ । इसमें निश्चय किया गया कि 1947 ई॰ तक सभी अपने विशेषाधिकारों को समाप्त कर लेंगे । इस प्रकार, राजनीतिक दृष्टि से मिस्र स्वतंत्रता की स्थिति में आ गया, पर स्वेज नहर पर अब भी ब्रिटेन का पूर्ण नियंत्रण कायम रहा ।

उग्र राष्ट्रवाद का उदय:

इन्हीं दिनों मिस्त्र में उग्र राष्ट्रवाद का विकास हुआ । 1928 ई॰ में हसन अल-बन्ना ने इखवान अल-मुसलिमून (मुस्लिम भ्रातृत्व) नामक एक दल की स्थापना की थी । इसमें हर तबके के लोग शामिल थे । इसके सदस्यों की इस्लामी रीति- रिवाज में पूरी श्रद्धा थी जल्दी ही इनकी संख्या बढ़ी (1964 ई॰ तक यह संख्या बीस लाख तक पहुँच गयी थी) ।

ये लोग घोर प्रतिक्रियावादी होने के साथ बड़े उग्रवादी भी थे । उनकी प्रार्थना थी- ”ओ अल्लाह ताला, इन ब्रिटिश घुसपैठियों ने हमारी भूमि छीन ली है, हमारे अधिकार खत्म कर दिये हैं, हमारे ऊपर जुल्म ढाया है और भ्रष्टाचार बढ़ाया है । हमें इनके अत्याचार से बचा, इन्हें बदहवास कर, इन्हें दण्ड दे, इन्हें क्षति पहुँचा और इन्हें अपनी इस भूमि से निकाल ।” इस प्रकार, यह दल उग्र राष्ट्रवाद में विश्वास करता था । इसके सदस्य एक हाथ में कुरान और दूसरे में पिस्तौल लेकर गुप्त बैठकों में अँगरेजों को निकालने की शपथ लेते थे । इनका संगठन गुप्त था ।

द्वितीय विश्वयुद्ध में मिस्र:

अप्रैल, 1936 में फुआद की मृत्यु के बाद उसका नाबालिग पुत्र फारूख मिस्र की गद्दी पर बैठा । दो वर्षों तक प्रधानमंत्री नहस पाशा उसका संरक्षक बना रहा । 1938 ई॰ में जब फारूख बालिग हुआ तो वह स्वख्म होकर शासन करने लगा । उसने नहस पाशा को प्रधानमंत्री के पद से हटाया तथा अपने पिट्‌सू अली माहिर को प्रधानमंत्री बनाया ।

इसके कुछ ही महीनों बाद द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया । अली माहिर का झुकाव इटली की तरफ था, अतएव ब्रिटिश सरकार ने फारूख पर दबाव डालकर उसे बर्खास्त करवाया । 1938 ई॰ के प्रारंभ में हुसेन सिरा ने नयी सरकार बनायी । उसने ब्रिटिश विरोधी तत्त्वों का दमन किया । लेकिन, युद्ध के कारण लोगों को बड़ी कठिनाई हुई ।

चीजों का मूल्य बहुत बढ़ गया और इस कारण यंत्र-तंत्र उपद्रव होने लगे । ब्रिटिश सरकार ने अनुभव किया कि मिस्र पर नियंत्रण रखने के लिए वहाँ एक मजबूत सरकार बननी चाहिए । वफ्य पार्टी एक राष्ट्रीय संस्था थी, इसलिए अँगरेजों ने उसके नेता नहस पाशा को फिर से प्रधानमंत्री बनाने के लिए शाह फारूख को मजबूर किया ।

नहस पाशा की सरकार ने अक्टूबर, 1944 तक ब्रिटेन के साथ मिलकर काम किया । जनवरी, 1945 ई॰ के चुनाव में वफ्य पार्टी का बहुमत समाप्त हो गया और सादी पार्टी का नेता अहमद माहिर प्रधानमंत्री बना । उसने अप्रैल, 1945 में ब्रिटेन के कहने पर जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी । यह बात राष्ट्रवादियों को एकदम पसंद नहीं आयी । कुछ उग्रवादियों ने माहिर की हत्या कर दी । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि लोग अँगरेजों के कितने खिलाफ थे ।

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