Read this article in Hindi to learn about the importance of capitalism and commercial revolution in Europe.
पूँजीवाद आधुनिक युग की अर्थव्यवस्था की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता रही है । 16वीं शताब्दी में अमेरिकी महादेश तथा नए समुद्री मार्गों का पता लगाने के फलस्वरूप विश्वव्यापी पैमाने पर यूरोपीय वाणिज्य और वाणिज्यिक पूँजीवाद का जो दौर प्रारंभ हुआ, उसे वाणिज्यिक क्रांति कहते हैं ।
वाणिज्यिक क्रांति का सामान्य अर्थ है पूँजीवाद का उद्भव और विकास तथा नगर-केंद्रित अर्थव्यवस्था के स्थान पर राष्ट्र-केन्द्रित अर्थव्यवस्था का उदय । यह क्रांति अत्यंत धीमी और दीर्घकालिक थी, क्योंकि इसकी शुरुआत 14वीं शताब्दी में हुई और परिणति 18वीं शताब्दी में ।
वाणिज्यिक क्रांति का वर्णन करने के पूर्व पूँजीवाद का अर्थ समझ लेना आवश्यक है । पूँजीवाद की परिभाषाएँ अनगिनत हैं, उनमें अधिकांश सही जान पड़ेंगी, लेकिन उपयोगी शायद एक-दो ही हों । उदाहरणार्थ, हम यह कह सकते हैं कि पूँजीवाद वह अर्थव्यवस्था है जिसमें पूँजी का उपयोग होता है ।
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एक अन्य परिभाषा के अनुसार इस अर्थव्यवस्था का उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है । दोनों ही परिभाषाएँ सही तो हैं, किन्तु दुनिया के हर भाग में तथा हर समय में (निश्चय ही 20वीं सदी की सोवियत व्यवस्था एक अपवाद हो सकती है) जो भी अर्थव्यवस्था रही हो, उसमें पूँजी का उपयोग होता रहा तथा मुनाफा भी अर्जित किया जाता रहा है ।
फलत: उपर्युक्त परिभाषाएँ गहन अध्ययन के लिए उतनी उपयोगी नहीं रह जातीं । इसी प्रकार किसी समाज को पूंजीवादी केवल इसलिए कहना ठीक नहीं होगा कि उसके कुछ लोग सर्राफा (बैंक) का काम या मुद्रा की लेन-देन करते हैं । वाणिज्य तथा सूद-सहित अथवा सूद-रहित मुद्रा की लेन-देन मानव सभ्यता के इतिहास के समान ही पुराना है ।
इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं से विभिन्न युगों में या यूरोपीय संगठनों अथवा व्यवस्थाओं के जो विभिन्न स्वरूप विकसित होते रहे हैं, अथवा यूरोपीय आर्थिक पद्धतियों गैर-यूरोपीय देशों में विकसित आर्थिक पद्धतियों से किन बातों में भिन्न रही हैं, इनको जाँचने-परखने अथवा समझने में सहायता नहीं मिलती; बल्कि इनसे विभिन्न व्यवस्थाओं के बुनियादी फर्क परखने, विभिन्न युगों में या कालावधियों में उन्हें सीमाबद्ध करने तथा गहराई में जाकर विश्लेषण करने में कठिनाई ही होगी ।
फलत: पूँजीवाद के अर्थ को मुख्यत: औद्योगिक उत्पादन से जोड़े रखना अर्थात् औद्योगिक उत्पादन की एक विशेष परिपाटी के रूप में इसे देखना समझना अथवा इसका अध्ययन करना ही अधिक उपयोगी होगा । इसी प्रकार शिल्पी प्रणाली से इस प्रणाली का तुलनात्मक अध्ययन करके पूँजीवाद को परिभाषित करना किंचित् सुगम और लाभप्रद हो सकता है ।
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इस आधार पर पूँजीवाद की एक परिभाषा यह दी जा सकती है कि- ‘पूँजीवाद वह व्यवस्था है जिससे बड़े पैमाने पर व्यवसाय का गठन किया जाता है, संगठनकर्त्ता एक ही व्यक्ति हो सकता है अथवा एक से अधिक व्यक्तियों का संस्थान; शर्त यह है कि संगठनकर्त्ता के पास अर्जित या संचित धनराशि पर्याप्त होनी चाहिए, जिससे वह कच्चा माल तथा उपकरण की व्यवस्था कर सके एवं मजदूरी भुगतान करके श्रमिक जुटा सके । ऐसे व्यवसाय का उद्देश्य होगा संपत्ति का परिवर्धित परिमाण में उत्पादन करना जो उसका मुनाफा होगा अथवा जिसमें उसका मुनाफा अन्तर्निहित होगा ।’
पूँजीवाद एक संस्था से अधिक एक लोकाचार है । पूँजीवाद के लोकाचार का मूल मंत्र है अधिक से अधिक धन की अदम्य भूख । धन मुनाफे से प्राप्त होता है और मुनाफा कीमत से निर्धारित होता है ।
एक पूँजीवादी धन अर्जित करने को ही जीवन का साध्य मानता है, वह साधन की चिंता नहीं करता, बल्कि वह तो धन अर्जित करने को ही नैतिक और शुद्ध इच्छा मानता है । इस लोकाचार के साथ संस्थागत तत्व भी जुड़े हुए हैं ।
पूँजीवादी संस्था एक ओर मुद्रा, बैंकिंग, साख, बिल का विनिमय और बीमा से जुड़ा हुआ है तो दूसरी ओर अनुबंध, कम्पनी, साझेदारी, शेयर, ज्वाइंट स्टॉक, एकाधिकार, कार्टेल और ट्रस्ट जैसी संस्थाओं से भी जुड़ा हुआ है ।
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पूँजीवादी लोकाचार और संस्थागत ढांचे को भारी मात्रा में पूँजी की उपलब्धि, स्वतंत्र और व्यापक बाजार, तकनीकी ज्ञान, व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार और व्यक्तिगत उद्यम से बल मिला ।
सामान्यत: पूँजीवाद के तीन चरण माने जाते हैं । पहला, वाणिज्यिक पूँजीवाद या वाणिज्यवाद जिसकी अवधि 1500 से 1776 ई. तक मानी जाती है । दूसरा, औद्योगिक पूँजीवाद जिसकी अवधि 1776 से 1850 ई. तक मानी जाती है और तीसरा, वित्त पूँजीवाद जो 1850 ई. से अब तक चल रही है ।
पूँजीवाद का उद्भव:
प्राचीन युगों में यूनान तथा रोमन साम्राज्य में पूँजीवाद का अस्तित्व था, किन्तु रोमन साम्राज्य के विखरने से इसका लगभग अवसान हो गया था । पूर्व मध्यकालीन यूरोपीय अर्थव्यवस्था को पूँजीवादी नहीं कहा जा सकता । उन दिनों हर वर्ग या समुदाय अपेक्षाकृत स्वतःसंपूर्ण था ।
बड़े पैमाने पर उत्पादन नहीं होता था, जो भी उत्पादित किया जाता था उसका उपभोग हुआ करता था, उसे संचित नहीं किया जाता था अथवा बचाकर नहीं रख लिया जाता था । 1500 ई. में यूरोप बड़ा ही संकुचित था ।
आज यह समझना बड़ा कठिन है कि उन दिनों एक दूसरे से 50 मील की दूरी पर अवस्थित क्षेत्र भी कितने अलग-थलग थे । यातायात या संचार का कोई भी ऐसा मशीनी साधन न था, जो दूर-दराज के क्षेत्रों को परिचित या आसानी से पहुँचने लायक बना सके ।
लोग अथवा वस्तुएँ उतनी ही तेजी से एक जगह से दूसरी जगह पहुँच सकती थीं, जितनी तेजी से घोड़े उन्हें ऊबड़-खाबड़ राजपथों पर ले जा सकते थे अथवा साथ देने वाली हवा में नावें खेई जा सकती थीं ।
डाक सेवाएँ थीं ही नहीं, यदि नाममात्र के लिए थीं भी तो अत्यंत अनियमित । राजा, व्यापारी तथा पैसेवाले व्यक्ति अपना डाक विशेष दूतों के मार्फत भेजते थे । घटनाओं के समाचार भी धीरे-धीरे संचारित होते थे । 1498 ई. में फ्रांस के कुछ इलाके के लोगों को अपने राजा की मृत्यु का समाचार दो महीने बाद मिला ।
अगर समाचार धीमी गति से प्रचारित होते थे तो यातायात भी उतना ही धीमा था । 15वीं शताब्दी में घोड़ों, बैलगाड़ियों तथा नावों से अधिक बढ़िया यातायात का और कोई साधन नहीं था । स्थलमार्गीय तथा समुद्र यात्राओं के इतने धीमे तथा खतरों से पूर्ण होने के कारण लोग प्राय: यात्राएँ करते ही नहीं थे ।
अत्यधिक आवश्यकता ही उन्हें यात्रा के लिए बाध्य करती थी । अपनी खेती को ग्राम्य व्यवस्था तथा उद्योग को गिल्ड व्यवस्था, जो सहयोगदायक थी, के माध्यम से संगठित कर वे संतुष्ट रहते थे ।
श्रेणी व्यवस्था या गिल्ड व्यवस्था द्वारा उद्योग-धन्धे तथा व्यापार एक-दूसरे के सहयोग से चला करते थे । मध्य युग में नगर तथा उसके आस-पास के ग्रामीण क्षेत्र एक ही आर्थिक इकाई हुआ करते थे । प्रत्येक नगर में व्यापारी तथा कारीगर अपने व्यवसाय की देखरेख हेतु गिल्ड अथवा संघ बना लिया करते थे ।
दुकानदार, पत्थर तोड़ने वाले, बढ़ई, हजाम, रंगसाज, जुलाहे, दर्जी, मोची, पंसारी, सोनार आदि अपना-अपना गिल्ड बनाया करते थे । नगरों का आर्थिक जीवन पूर्णतया इस श्रेणी व्यवस्था पर आधारित था ।
व्यापारी और कारीगर श्रेणियों (गिल्ड) में संगठित रहते थे । प्रत्येक व्यापारी एक व्यापारिक गिल्ड का सदस्य होता था । उसे अपने गिल्ड के नियमों का पूर्ण रूप से पालन करना पड़ता था ।
इन गिल्डों के सदस्य केवल वही लोग बन सकते थे, जो स्वतंत्र व्यापारी या स्वतंत्र कारीगर या उद्योगपति होते थे । जो कारीगर या व्यापारी दूसरों पर निर्भर रहते थे अथवा किसी उद्योगपति की नौकरी करते थे, वे गिल्ड के सदस्य नहीं हो सकते थे ।
ये गिल्ड धीरे-धीरे अधिकार प्राप्त करने लगे तथा 13वीं शताब्दी तक उन्होंने पर्याप्त अधिकार हस्तगत कर लिये । बड़े-बड़े व्यापारिक गिल्डों को काफी स्वतंत्रता प्राप्त थी । सरकार उनके कार्यकलापों में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी ।
वे कच्चे माल को थोक भाव में लेते थे और कारीगरों को गिल्ड के लिये ही माल बनाने के लिए बाध्य करते थे । व्यापारिक गिल्ड राजपथों का निर्माण करते, उनकी देखरेख करते, बन्दरगाहों को गहरा कराने का यत्न करते, मार्गों में सिपाहियों की नियुक्ति करते, बाजारों का निरीक्षण करते और वस्तुओं का दाम निश्चित करते थे ।
गिल्ड द्वारा निर्धारित मूल्य पर सौदा बेचना प्रत्येक व्यापारी के लिए अनिवार्य होता था । कारीगरों का पारिश्रमिक और उनके कार्य करने का समय भी व्यापारिक गिल्डों द्वारा निश्चित किए जाते थे ।
समय-समय पर वे व्यापारियों के बटखरों की भी जाँच किया करते थे । गिल्ड के अधिकारी इस बात का प्रयास करते थे कि बाजार में रद्दी माल बिकने न पाये । अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करना गिल्ड का महत्त्वपूर्ण कार्य होता था ।
गिल्ड के लोग काम आपस में बाँट लिया करते थे । वे नजदीक के नगरों में एक ही तरह का काम करने वालों में आपसी प्रतियोगिता नहीं होने देते थे । इसके लिए सामूहिक रूप से उपाय किए जाते थे ।
चाहे किसी एक नगर में हो अथवा विभिन्न नगरों के बीच अथवा नगर तथा गाँव के मध्य गिल्ड-व्यवस्था आपसी प्रतियोगिता नहीं होने देने का एक कारगर उपकरण हुआ करती थी ।
फलत: लगभग एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलता, जो धनार्जन या लाभ के लिए काम करना उचित समझता था । वैसे विस्तृत क्षेत्र में व्यापार करनेवाले कुछ बड़े सौदागर ऐसा करते थे, किन्तु उन्हें लोग शक तथा थोड़ी-बहुत नफरत की निगाह से देखते थे ।
स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था की गिल्ड-प्रणाली आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था के एकदम विपरीत थी । गिल्ड या श्रेणी के अन्तर्गत कारीगर आम जरूरत की वस्तुओं का ही उत्पादन करते थे । जमींदार तथा किसान नजदीक के नगरों में अपना सामान बेचते तथा वहाँ अपनी जरूरत की सामग्री खरीदते ।
हर नगर की अपनी चुंगी-व्यवस्था तथा व्यापारिक नियम होते थे । कारखाने के मालिक की अपनी पूँजी (यथा, घर, उपकरण, औजार, काम करने की अन्य सामग्री आदि) होती थी, पर वह तथा उसके परिवार के लोग खुद भी उत्पादन-कार्यों में हाथ बटाते थे ।
इनके अतिरिक्त उनके साथ लगभग आधा दर्जन दूसरे लोग भी काम करते थे । मालिक को थोड़ी-बहुत पूँजी तो होती थी, किन्तु उसे आधुनिक अर्थ में पूँजीपति शायद ही कहा जाता था । ये लोग आर्डर मिलने पर ही सामान तैयार करते थे ।
कम-से-कम उनके माल के कितने खरीदार होंगे तथा उनकी रुचि का तो पता उन्हें रहता ही था । इस सिलसिले में ध्यान देने की एक बात यह है कि ईसाई धर्म में सूद लेना तथा मुनाफा कमाना अनैतिक माना जाता था ।
इस प्रकार आर्थिक स्थितियों तथा आवश्यकताओं को नैतिक मान्यताओं से बल मिलता था । यूरोप में पाँचवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक सामंती अर्थव्यवस्था कायम थी, जिसमें जमीन की प्रधानता थी ।
सामंत अपने पास जमीन इसलिए नहीं रखते थे कि उनका धन बड़े, उनकी पूँजी बढ़े, बल्कि इसलिए कि जमीन पर रहनेवाले कम्मियों से वे तरह-तरह की सेवाएँ प्राप्त कर सकें । इन सबके परिणामस्वरूप ‘पूँजीवाद’ के विकास हेतु अनुकूल परिवेश नहीं था ।
नवीन परिस्थिति:
पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त होते-होते स्थिति बहुत कुछ बदल चुकी थी या बदलने लगी थी । इस बदलाव के कारण थे- मध्यपूर्व में ईसाई धर्म-स्थानों को मुसलमानों से मुक्त कराने के हेतु लगभग अनवरत चलने वाले धर्मयुद्ध (क्रुसेड), वाणिज्य का उन्मेष तथा प्रसार, नगरों का विकास और राष्ट्रीय राजतन्त्रों का उत्कर्ष ।
इसके अलावे और भी अनेक बातें थीं, जो इस परिवर्तन में योगदान कर रही थीं । सोलहवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों तक सामंती प्रथा तथा गिल्ड उत्पादन-प्रणाली दुर्बल पड़ने लगी थी । 15वीं शताब्दी तक इंगलैण्ड में कम्मी प्रथा का अंत हो गया ।
जमीन वालों को यह चिन्ता नहीं रही कि जमीन देकर वे दूसरों की सेवा प्राप्त करें, बल्कि जमीन को वे प्रधानत: धन बढ़ाने के काम में लगाने लगे । सामंत बँधुआ मजदूरों को मुक्त करके उनसे मुद्रा में मालगुजारी लेने लगे । व्यापारी भी जमीन रखते थे और उसे बढ़ा भी रहे थे; किन्तु उसे वे धन पैदा करने के काम में लगाते थे । उधर व्यावसायिक गिल्डों में भी कई तरह के परिवर्तन आने लगे थे ।
कारीगरों के गिल्ड और गैर-श्रेणी कारखानों (जो गिल्ड व्यवस्था से मुक्त थे) के बीच कड़ी प्रतियोगिता शुरू हो गयी थी । सबसे बड़ी बात यह थी कि आर्थिक मुनाफा बढ़ाने की कामना दिन-दिन बलवती होती जा रही थी और अर्थव्यवस्था पर इसका निर्णायक प्रभाव पड़ना अनिवार्य होता जा रहा था ।
यहूदी महाजन तो सूद पर धन लगाते ही थे अब ईसाई भी महाजनी का काम करने लगे थे । ईसाई धर्मशास्त्री महाजनी और सूदखोरी में भेद करके महाजनी को उचित बताने का उपक्रम कर रहे थे ।
लाभकर कार्यों के लिए ऋण का लेन-देन अनुचित या वर्जनीय नहीं है, ऐसी व्यवस्था करके वे महाजनी प्रथा को ईसाई धर्म के अनुकूल बताने लगे थे । उत्तर मध्यकाल में व्यापार के क्षेत्र या बाजार में भी तेजी से प्रसार हुआ ।
इसी कालावधि में ऐसे मालों का दूर-दराज का व्यापार शुरू हुआ, जिनका उत्पादन एक क्षेत्र या स्थान की अपेक्षा अन्य क्षेत्रों या स्थानों पर अधिक सुविधा तथा कौशल के साथ किया जा सकता था । धीरे-धीरे इस किस्म की सामग्री की संख्या बढ़ती गयी ।
इस माहौल में तैयार माल के परिमाण में भारी वृद्धि करनी पड़ी । माल कहाँ, कब तथा किन ग्राहकों के हाथ बिकेगा, उत्पादक को इसकी खबर रखने की भी जरूरत थी । ऐसा हालत में तैयार माल का भारी स्टॉक जमा रखा जाने लगा, जिससे काफी अर्से तक काफी पूँजी फँसने लगी ।
स्पष्ट था कि बेचारे गिल्ड मास्टर ऑर्डर पर या स्थानीय या समीपस्थ क्षेत्रों के ग्राहकों के लिए सीमित परिमाण में समान तैयार करने वाले होते । कारखानेदार इस स्थिति का सामना करने में नितांत असमर्थ था ।
उसके पास न तो इतनी पूँजी थी और न तो खरीददारों की पसंद का पता लगाने का कोई साधन । ऐसी हालत में व्यावसायिक प्रणाली में एक तरह के व्यवसाय का उद्भव हुआ । अर्थशास्त्रीय शब्दावली में इसे इण्टरप्रेनियर या उद्यमी कहा जाता है ।
आम तौर पर ऐसे व्यवसायी पहले-पहल विस्तृत क्षेत्रों में सौदागर के रूप में दिख पड़े, पर बाद में वे बड़े महाजन या बैंकर बन गए । पूँजीवाद का यह दौर अधिकतर नगरी में प्रारम्भ हुआ । कुछ गिल्डों के मालिकों ने अपने पंसारियों तथा कार्मिकों का शोषण करके और अपेक्षाकृत विस्तृत क्षेत्रों में अपना माल मुहैया कराके काफी निजी सम्पदा अर्जित कर ली थी । नगरों में अनेक लोग आ रहे थे ।
इनका परम्परागत गिल्डों से कोई सम्बन्ध नहीं था तथा विभिन्न कारोबार करके ये काफी सम्पदा बना रहे थे । इनमें अनेक कुलीन थे । ये नगरों में रहते, अपनी जमींदारी से निरन्तर आनेवाली आय से जमीन खरीदते तथा वाणिज्य-व्यवसाय में साझीदार होते अथवा खुद का व्यवसाय शुरू करते ।
राज्य तथा चर्च के उच्च पदाधिकारी, जैसे- चांसलर, मन्त्री, मार्शल, कलक्टर, कर-पदाधिकारी, जमींदारों के मैनेजर आदि भी इनमें होते थे । ये आम तौर पर उच्च वेतनभोगी लोग थे, उनके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आय के पर्याप्त स्रोत होते थे ।
स्वभावत: ये लोग व्यवसायिक संस्थानों में अपनी सम्पदा लगाने को उत्सुक रहते थे । ये अपनी संचित धनराशि-अर्थशास्त्र की भाषा में ‘पूँजी’-वाणिज्य-व्यवसाय में लगाने को उत्सुक रहते थे, फलत: वाणिज्य-व्यापार के प्रसार के साथ-साथ नगरों का प्रसार-विस्तार भी होने लगा ।
शहरी क्षेत्रों में जमीन के मूल्य में वृद्धि इसका एक अनिवार्य परिणाम हुई । इससे जमीन के मालिकों की आय में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई और इस प्रकार ‘अनर्जित आय’ से भी पूँजी बनने लगी ।
महाजनी प्रथा:
क्रूसेडों के दरम्यान तथा उनके तुरंत बाद होनेवाले वाणिज्य के अप्रत्याशित प्रसार के फलस्वरूप इटली के नगर इससे अत्यधिक लाभान्वित हो रहे थे । इस कारण इटली के नगरों में ही आधुनिक पूँजीवाद के एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपकरण-‘महाजनी-प्रथा’ या बैंकिंग-का पहले-पहल उदय हुआ ।
खासकर फ्लोरेंस नामक नगर में कतिपय परिवार धनी नागरिकों की सम्पदा अपने पास सुरक्षा के लिए रखने लगे । इसी जमा की हुई सम्पदा में से कुछ धनराशि वे पोप को या नरेशों को सार्वजनिक कार्यों या मात्र ऐशो-आराम के लिए काफी ऊँची दर पर सूद लेकर कर्ज दिया करते थे ।
इसके अतिरिक्त वेनिस या जेनोआ जैसे अन्य नगरों के सौदागरों को व्यवसायिक कार्यों के लिए भी सूद की ऊँची दर पर कर्ज देते थे । इस प्रकार महाजनी-धन के लेन-देन का कारोबार-एक पेशा बनता गया और साथ ही आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था का एक अभिन्न और बुनियादी अंग भी ।
फ्लोरेंस के आरंभिक, किन्तु सर्वाधिक प्रभावशाली महाजन परिवारों में मेडिसी परिवार विशेष उल्लेखनीय था । ये लोग पहले साधारण गिल्ड-मास्टर थे, किन्तु 15वीं शताब्दी में इनकी सम्पदा तथा प्रभाव की शोहरत सारे यूरोप में फैल गयी ।
1500 ई. के आस-पास यह परिवार नवोदित पूँजीपति वर्ग का मानो प्रतिनिधित्व करने लगा । ये लोग धन का व्यवसाय ठीक उसी तरह करते थे, जिस प्रकार अन्य लोग ऊन या शराब का व्यवसाय करते थे । इनके पास कर्ज लेने बालों की भीड़ लगी रहती थी ।
राजा, महाराजा, व्यवसायी, सौदागर, जमींदार, ऊँचे ओहदेदार आदि हर तरह के गण्यमान्य लोग इनके यहाँ जुटा करते थे । ये लोग साहित्य, कला तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यों को भी संरक्षण देते थे । फलत: समाज में इनका काफी महत्व कायम हो गया ।
फ्लोरेंस के महान परिवार ने यूरोप के अन्य देशों तथा रजवाड़ों में भी अपनी संस्थाएँ स्थापित कीं । जेनोआ तथा अन्य कई नगरों में भी बैंकिंग व्यवसाय का उद्भव और विकास हुआ । मेडिसी परिवार का प्रतीक चिह्न था, सुनहली जमीन पर लाल गोलियाँ । कालान्तर में यह महाजनों का आम प्रतीक चिह्न बन गया । चाहे तो इसे नवोदित पूँजीवाद का बिल्ला भी कह सकते हैं ।
मेडिसी परिवार के इस महत्व के बावजूद इस किस्म के पूँजीवाद की परिणति आधुनिक पूँजीवाद में होना असंभव था, यदि उसका आधार यूरोप तक ही सीमित रहता । इसके कई महत्वपूर्ण कारण थे । यूरोप में सोने-चाँदी की बहुत कम खानें थीं ।
उसका कृषक समुदाय मालगुजारी के रूप में उतनी धन राशि नहीं दे सकता था, जिसकी पूँजीवाद के गगनस्पर्शी उन्मेष के लिए आवश्यकता थी । यूरोप के नगरों में माल तैयार करने की प्रक्रिया को गतिशील बनाने के लिए पर्याप्त या आंतरिक उपकरण नहीं थे ।
मुनाफा कमाने वालों, कारखानेदारों, तथा व्यवसायियों के उन्मुक्त शोषण का शिकार बनने के लिए भूमिहीन लोगों की भी कमी थी । निष्कर्ष यह है कि 16वीं सदी के शुरू में यूरोप में कारखानों में काम करने वाले श्रमिक वर्ग, औद्योगिक संयंत्र, प्राकृतिक साधन तथा धनापूर्ति के साधनों की बड़ी कमी थी ।
पूँजीवाद के विकास में इन सभी चीजों की आवश्यकता थी । यूरोप का दुनिया के अन्य देशों के साथ संपर्क और पूँजीवाद के अन्य उपकरणों का उदय, यूरोप वालों के सौभाग्य से जिन वस्तुओं की आपूर्ति उनके अपने देश में नहीं हो सकती थी, उनकी पूर्ति उन देशों और क्षेत्रों ने कर दी, जिनसे 16वीं शताब्दी में उनका संपर्क हुआ ।
एशिया, अफ्रीका तथा अमेरिका से उनके जो संपर्क सम्बन्ध कायम हुए, उससे पूँजीवाद के विकास को प्रोत्साहन और गति मिली । इनके अतिरिक्त पूँजीवाद के निरन्तर विकास के लिए एक ही उपकरण बच जाता था जिसकी आपूर्ति एशिया, अफ्रीका या अमेरिका नहीं कर सकता था, वह था, बड़े पैमाने पर उत्पादन करने हेतु औद्योगिक संयंत्र पर, यूरोप में पिछले दशकों में विभिन्न क्षेत्रों में जो विकास हो रहे थे, उन्होंने स्वयं ही इसकी आपूर्ति के लिए मिट्टी तथा जलवायु तैयार कर दी ।
उत्पादन तकनीक का विकास अन्य कई बातों पर निर्भर था । कालक्रम में उनका विकास होना ही था । यूरोप वालों को एशिया तथा अमेरिका से महत्वपूर्ण प्राकृतिक साधनों तथा सोना-चाँदी के अच्छे स्रोत मिले ।
इन्हें किस तरह हासिल किया गया, यह दुनिया के इतिहास का कालिख-पुता अध्याय है । बहरहाल, इसके लिए कहीं तलवार के जोर पर खुली लूट की गयी, जैसे- पेरू, मैक्सिको और पूर्वी हिन्द द्वीप समूह में ।
भारत, चीन और जापान के लोगों तथा अमेरिका महादेश के आदिवासियों के साथ पुर्तगालियों, स्पेनियों, डचों ने ऐसी शर्तों पर व्यापार करके अपार सम्पदा से अपने घर भरे, जिनके अनुसार सारा लाभ उन्हें ही होता था ।
समुद्र पार के अपने उपनिवेशों की प्रजा से नजराना, कर, चुंगी, जुर्माना आदि के रूप में मनमानी धनराशियाँ बटोरी गयीं । अनेक जगह स्थानीय लोगों पर व्यापार या कोई व्यवसाय करने पर रोक लगाई गई ।
इसके अतिरिक्त अन्य देशों और क्षेत्रों, विशेषकर अमेरिका में, यूरोप में प्रचलित मजदूरी प्रथा से सर्वथा भिन्न प्रणाली का उपयोग कर लाभार्जन का एक नया कीर्तिमान स्थापित किया गया । उदीयमान यूरोपीय पूँजीवाद का समुद्रपार का नवीन आधार था, मानुषिक दास-प्रथा ।
किसी जमाने में यूरोप में भी दास-प्रथा थी, किन्तु वहाँ उनका अंत हजारों वर्ष पहले हो चुका था 1500 ई. तक कम्मी प्रथा का भी ह्रास हो चुका था । यद्यपि अधिकांश यूरोपीय गरीब होते थे, किन्तु व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उनका अधिकार मान लिया गया था ।
उनका शोषण एक सीमा के अंदर ही हो सकता था । किन्तु, जब पुर्तगाली और स्पेनी समुद्री मार्ग का पता लगाते हुए एशिया अफ्रीका तथा अमेरिका पहुँचे तो उनका संपर्क ऐसे लोगों से हुआ जिनमें दास-प्रथा एक मान्य प्रचलन थी ।
इन यूरोपीय दुस्साहिसकों को यह समझते देर नहीं लगी कि इस नयी दुनिया में खानों में काम करने तथा बड़े पैमाने पर खेती करने के लिए दास-प्रथा अत्यंत लाभकर हो सकती थी । अमेरिकी महादेश में प्रथम आदिवासियों के रूप में स्पेनी तथा पुर्तगाली दूर-दूर तक बसते जा रहे थे ।
खेती के लिए विशाल क्षेत्रों को वे अधिकृत करते, उन्हें घने जंगल साफ करके खेत बनाते थे, मकानों और गोदामों का निर्माण करते थे, पहाड़ों और नदियों से होकर जाने वाले राजपथ बनाते थे, ये सब बहुत बड़े काम थे, पर उनकी संख्या बहुत कम थी ।
यूरोपीय देशों में प्रचलित स्वतंत्र वेतन-भोगी या दैनिक मजदूरी पर काम करने वाले श्रमिक की परम्परा यहाँ उपयोगी नहीं हो सकती थी । इस नई दुनिया की जलवायु भी उनके अनुकूल नहीं थी । उन्हें एक ऐसे मूक और निस्सहाय लोगों के फौज की जरूरत थी जो उनके लिए टुकड़े खाकर उनके कोड़े के डर से 18-20 घंटे रोज उनके खेतों और खानों में जानवरों की तरह काम करते ।
अफ्रीका से जहाजों में भरकर लाए गए हब्शी गुलाम यूरोपीय औपनिवेशिकों की इस जरूरत की पूर्ति करने वाले थे । इसके पूर्व पश्चिमी हिन्द द्वीप समूह, मैक्सिको, पेरू तथा ब्राजील में स्पेनी और पुर्तगाली औपनिवेशिक इन क्षेत्रों की लगभग सारी आबादी को गुलाम बना चुके थे ।
वे उनके साथ अमानुषिक व्यवहार करते, खेतों तथा खानों में उनसे हमेशा जानवरों की तरह जोते रखते । पश्चिमी द्वीप-समूह में करीबी आदिवासियों का इतना प्राणांतक शोषण किया गया कि वे लगभग निर्मूल ही हो गए ।
बाद में यूरोपीय देशों में इस अमानवीय शोषण के विरुद्ध आवाजें उठायी गयीं तो मानवता के नाम पर पादरियों और पुरोहितों ने शोर मचाया, फलत: राजाओं को हस्तक्षेप करने को बाध्य होना पड़ा ।
इन सबके फलस्वरूप स्थानीय आदिवासियों का शोषण तो कुछ हद तक रुका, किन्तु उनके स्थान पर अफ्रीकी हब्शियों की शामत आ गयी । 1517 ई. में एक ईसाई बिशप ने स्पेन के राजा को बताया कि अफ्रीकी हब्शी अमेरिकी आदिवासियों की अपेक्षा पश्चिमी द्वीप-समूह में काम करने के लिए अधिक उपयुक्त होंगे ।
राजा ने यह सुझाव मान लिया । 15वीं शताब्दी के मध्य से ही पुर्तगाली मुस्लिम मुरों से अफ्रीकी हब्शियों की खरीद-बिक्री, बड़ी संख्या में पकड़कर उन्हें अन्यत्र भेजे जाने तथा गुलाम बनाए जाने की संभावना के विषय में सुनते आ रहे थे ।
गिनी तट पर पुर्तगालियों के कुछ अड्डों से यह काम शुरू भी हो चुका था । बड़ी संख्या में हब्शियों को पकड़कर उन्हें ईसाई बनाने तथा उससे भी ज्यादा गर्म या नर्म जलवायु में कठोर काम कराने हेतु मजदूर मुहैया कराने की सुविधा छोड़ी नहीं जा सकती थी ।
फलत: मध्य तथा पश्चिमी अफ्रीका से बड़ी संख्या में हब्शियों को पकड़कर पुर्तगाली जहाजों पर पश्चिमी हिन्द द्वीप-समूह तथा ब्राजील भेजे जाने का एक भयानक तथा अमानुषिक सिलसिला शुरू हुआ ।
स्पेन के राजा द्वारा डच नागरिकों को प्रतिवर्ष पश्चिमी हिन्द द्वीप समूह में 4000 हब्शी-गुलामों की पूर्ति करने की सनद दी गई । उक्त डच ने 25,000 स्वर्ण-मुद्रा लेकर सनद जेनोआ के कतिपय सौदागरों के हाथ बेच दिया । ये सौदागर पुर्तगालियों से गुलाम खरीदने लगे ।
इस प्रकार पुर्तगाली अफ्रीका और स्पेनी अमेरिका के मध्य गुलामों की तिजारत विधिवत शुरू हुई । अफ्रिका में हब्शियों को पकड़ना तथा अमेरिकी उपनिवेशों में बड़े पैमाने पर उन्हें खेती में लगाने का धंधा शुरू हुआ । इस प्रकार यह पूँजीवादी व्यवस्था का एक आवश्यक उपादान बन गयी ।
जाहिर था कि यूरोप के लोग अन्य महादेशों में बेगार कराकर जितनी अपार सम्पदा अर्जित करने लगे थे, वह अपने-अपने देशों में स्वतंत्र मजदूरों से काम कराकर अर्जित करना संभव नहीं था ।
स्पेन और पुर्तगाल के लोगों ने अन्य महादेशों की खोज करने, नये समुद्री मार्गों का पता लगाने, उपनिवेश बसाने, तिजारत तथा गुलामों का व्यापार करने आदि में पहल की थी । अत: उन्हें ही अपार धनराशि अर्जित करके यूरोप के आर्थिक रंगमंच का प्रमुख अभिनेता बन जाना चाहिए था, लेकिन वैसा नहीं हुआ ।
स्पेन तथा पुर्तगाल के नरेशों, राजपरिवार के कुछ सदस्यों एवं अन्य लोगों के पास विदेशों से आनेवाली अतुल सम्पदा संचित हुई । कुछ काल के लिए लिस्बन और सेविले इटली के वेनिस तथा जेनोआ के स्थान पर यूरोप के प्रमुख वाणिज्य केन्द्र बन गये ।
फिर भी, विदेशों से आनेवाली सम्पदा का अधिकांश स्पेन या पुर्तगाल में नहीं रहता था और न वहाँ के आम लोगों तक पहुँच पाता था । वस्तुस्थिति यह थी कि मध्यवित्त वर्ग के मुट्ठी भर लोग ही समुद्र पार के व्यापारिक या औपनिवेशिक कार्यकलापों से संबंध रखते थे ।
इन देशों के कुलीन से लेकर खेतिहर तथा अन्य लोग परम्परागत ढंग से काम करते रहे । फलत: देश में इतना भी उत्पादन नहीं होता था कि हर आदमी का पेट भर सके अथवा तन पर पूरे कपड़े हों ।
इस कारण राजा और धनी-मानी लोग औपनिवेशिक कार्यकलापों के लिए अन्य देशों के महाजनों (बैंकरों) के मुहताज बने रहते थे । अत: उपनिवेशों से अर्जित सम्पदा का लाभ उनके अपने देशों को उतना नहीं मिल पाता था, जितना विदेशियों को मिलता था ।
जर्मनी तथा नीदरलैंड के महत्व में वृद्धि:
नई दुनिया तथा जल-मार्गों की खोज के लिए स्पेन तथा पुर्तगाल से अभियान दल तो भेजे जाते रहे, किन्तु पहले अभियानों में इटालवी नाविक होते थे तथा इटालवी धन लगा होता था ।
16वीं सदी ज्यों-ज्यों गुजरती जा रही थी, यूरोपीय आर्थिक जगत का नेतृत्व इटालवी महाजनों के हाथ से निकलकर नीदरलैंड तथा जर्मन महाजनों के हाथ में जाने लगा था । इन देशों के महाजन ही अंतत: यूरोप के आर्थिक प्रसार के कर्णधार बने ।
ऑटोमन तुर्कों की विजय तथा पुर्तगाली एवं स्पेनी नागरिकों की प्रतियोगिता के फलस्वरूप इटालवी आयातों का प्रवाह लगभग सूख सा गया । सौदागर अब वेनिस या जिनोआ के स्थान पर विदेशी माल के लिए लिस्बन या सेविले जाने लगे ।
व्यापार में ह्रास होने से कारखानों का उत्पादन भी कम होने लगा । इस स्थिति में यूरोपीय रंगमंच पर उनका प्रभुत्व समाप्त होने लगा । इधर जर्मनी तथा नीदरलैंड के महाजन लगभग असीमित पूँजी लगा सकते थे । ऑटोमन तुर्कों के आक्रमण से उन्हें कोई खतरा नहीं था ।
रूस तथा स्केण्डीनेविया से उनके व्यापार पुराने तथा परम्परागत थे । इंगलैण्ड तथा उत्तरी सागर के मछुआरे क्षेत्र भी उनके व्यापार क्षेत्र में थे । उनके अपने देश में लोहा तथा ताम्बा के प्रचुर भंडार थे । इनसे उनको अपने कारखानों का उत्पादन बढ़ाने का अच्छा अवसर था ।
अपना माल सुदूर-पूर्व न ले जाकर लिस्बन तथा सेविले के बाजारों में ही बेच देते थे । पूरब से लायी गई सामग्री भी वे वहीं खरीद लेते थे । फलत: स्पेन और पुर्तगाल की प्रतियोगिता का सामना भी उन्हें नहीं करना पड़ता था ।
पहले वे यही काम वेनिस या जेनोआ में करते थे । इस प्रकार बेचारे इटालवी महाजन सौदागर अलग-थलग पड़ने लगे थे । स्पेनी-पुर्तगाली व्यापारी आयात-व्यापार में उनका स्थान ले रहे थे ।
अब जर्मनी तथा नीदरलैंड के लोग महाजनी, औद्योगिक उत्पादन तथा वितरण में उनसे आगे बढ़ने लगे थे । स्पेन जर्मनी के राज्यों के बीच राजनीतिक सम्बन्ध-सूत्र भी आर्थिक जीवन को प्रभावित कर रहा था । पवित्र रोमन साम्राज्य का सम्राट स्पेन और नीदरलैंड का भी शासक था ।
वह एक ओर समुद्र पार के स्पेनी औपनिवेशिक अभियानों को बढ़ावा देता, दूसरी ओर अपनी जर्मन भाषी प्रजा तथा नीदरलैंड के लोगों की महाजनी हितों को भी प्रोत्साहन देना था ।
जर्मनी में पूँजीवाद के विकास के एक प्रतिनिधि उदाहरण के रूप में फग्गर परिवार को रखा जा सकता है । 1368 ई. में जॉन फग्गर नामक एक बुनकर अपना घर छोड़कर जीविका अर्जन की तलाश में ऑग्सवर्ग आया ।
उसने वस्त्र उत्पादन की एक तकनीक इजाद करके एक नए किस्म के कपड़े का उत्पादन शुरू किया । इसमें कपास मिला होता था और यह ऊनी एवं सूती वस्त्रों की अपेक्षा पहनने में अधिक सुविधाजनक था । थोड़े ही दिनों में इसका कपड़ा दूर-दराज तक बिकने लगा ।
कपास लाने के लिए उसे वेनिस जाना पड़ता था । वहाँ से वापसी में वह पूर्वी तथा दक्षिणी एशिया से आयातित रेशमी वस्त्र, मसाले तथा अन्य समान भी साथ लाने लगा । इसी अकार फग्गर परिवार का व्यापार बढ़ता गया । इनकी आय भी बढ़ी ।
उन्होंने कई तरह के व्यवसाय खोले, कई खदानों के मालिक हो गए । पुनर्जागरण काल में यह परिवार अन्य-व्यवसायों के साथ महाजनी भी करने लगा । ये लोग रोम के पोप को भी कर्ज देते थे । 1519 ई. में चार्ल्स पंचम ने पवित्र रोमन साम्राज्य के सम्राट् के निर्वाचन के अवसर पर इस परिवार से एक बड़ी रकम कर्ज ली । स्पेन तथा आस्ट्रिया के नरेशों का महाजन भी फग्गर परिवार ही था ।
अन्य कई महाजनों की तरह फग्गर परिवार भी पुर्तगाली व्यापारियों को एशिया से माल लाने के लिए बड़ी-बड़ी रकम कर्ज दिया करता था । स्वयं पुर्तगाल में अधिक उत्पादन नहीं होता था । एशियाई बाजारों में पुर्तगाल में बनी चीजों की मांग नहीं थी ।
फलतः एशिया जानेवाले पुर्तगाली मालवाही जहाजों पर सोना-चाँदी, ताम्बा, पारा तथा लीड लदे होते थे । इनमें अधिकतर जर्मन भाषी क्षेत्रों से आए होते थे तथा इनमें जर्मन-पूँजी लगी होता थी ।
इसी प्रकार फग्गर परिवार तथा अन्य महाजन इन जहाजों पर आनेवाले माल के यूरोपीय बाजारों में वितरण और विक्रय को भी लिस्बन तथा एण्टवर्प आदि में स्थित अपनी शाखाओं द्वारा नियंत्रित एवं संचालित करते थे ।
1500 ई. तक फग्गर परिवार 20 लाख स्वर्ण मुद्राओं से अधिक का मालिक बन चुका था । यूरोप के सर्वाधिक वैभवशाली परिवारों में इसका शुमार होता था । अनेक व्यवसायों के साथ-साथ स्पेन के समुद्री अभियानों में भी ये लोग धन लगाने लगे थे ।
कहा जाता है कि स्पेनी जहाजरानी और औपनिवेशिक अभियानों में लगी धनराशि पर इन्हें 50% से अधिक का लाभ हुआ करता था । 1546 ई. तक इनकी पूँजी 40 लाख स्वर्ण मुद्रा तक पहुँच गयी थी ।
कुछ काल तक फग्गर परिवार की सम्पदा की शोहरत सारे यूरोप में फैली रही । बाद में हैप्सबर्ग राजवंश के कई बार दिवालिया होने के फलस्वरूप इन्हें भारी धक्का लगा । 16वीं सदी के अंतिम दशक में जर्मनी के व्यापक आर्थिक ह्रास के साथ इस परिवार का भी अवसान हो गया ।
ऐण्टवर्प का विकास:
महाजनी अथवा व्यवसाय के क्षेत्र में फग्गर परिवार की सफलता के कई कारण थे । अपनी पैनी व्यापारिक सूझ-बूझ के कारण उन्होंने यह परख लिया था कि भूमध्यसागरीय क्षेत्रों तथा मध्य यूरोप से वाणिज्य-व्यवसाय के केन्द्र अतलांतिक सागर के तटवर्ती क्षेत्र की ओर जाने वाले थे ।
फलतः इन्होंने नीदरलैण्ड के ऐण्टवर्प नामक नगर में अपनी महाजनी एक शाखा स्थापित की । यह नगर पुराने तथा नये जलमार्गों के संगम स्थल पर बसा था । अत: यहाँ देश-देशांतर के महाजनों और सौदागरों की भीड़ लगने लगी ।
सोलहवीं सदी के मध्य तक हजारों विदेशी व्यापारी ऐण्टवर्प में रहने लगे थे । इनमें यूरोप के हर देशों के लोग थे । ऐण्टवर्प के बन्दरगाह में हर दिन लगभग दो हजार गाड़ियों पर लदान होती थी । वेनिस में जितना व्यापार एक वर्ष में होता था यहाँ उतना व्यापार एक पखवारे में ही हुआ करता था ।
आधुनिक पूँजीवाद की अनेक संस्थाओं और उपकरणों का जन्म ऐण्टवर्प में ही हुआ । यह दुनिया का पहला सट्टा-बाजार (स्थानीय भाषा में इसे बोर्ज, Bourse) कहा जाता था । यहाँ मुद्रा और माल दोनों की लेन-देन बड़े पैमाने पर होती थी । अत: राजा- महाराजा से लेकर सौदागरों तथा व्यवसाय संस्थापक तक कर्ज लेने के लिए यहाँ आते थे ।
अब उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर मेडिसी या फग्गर जैसे महाजनों के यहाँ नहीं जाना पड़ता था । ऐण्टवर्प में ही ‘सट्टेबाजी’ की प्रथा शुरू हुई । लॉटरी का खूब प्रचलन हुआ । जीवन बीमा का भी प्रचलन हुआ ।
पहले छोटी अवधि के लिए (यथा स्थलमार्ग या जलमार्ग से यात्रा करने का) ही बीमा कराया जाता था । उस युग में ऐण्टवर्प बीमा का सबसे बड़ा केन्द्र हो गया । कहा जाता है 1564 ई. में इस नगर में छह सौ लोग केवल इसी काम में लगे हुए थे और अच्छी आय अर्जित करते थे ।
सोलहवीं शताब्दी के दशकों में यूरोप के आर्थिक प्रसार के प्रतिफल के रूप में आनेवाला पूंजीवादी मुनाफा केवल जर्मनी और नीदरलैण्ड तक ही सीमित नहीं रहा । उसका एक काफी बड़ा हिस्सा ऐण्टवर्प, जैसे सर्राफा बाजारों के माध्यम से यूरोप के सभी देशों के सौदागरों, कारखानेदारों तथा महाजनों की जेब में भी चला जा रहा था ।
ये लोग भी इस नयी ‘पूँजीवादी चेतना’ को ग्रहण करने में पीछे नहीं रहे । फलत: सोलहवीं सदी के अन्तिम दशक तक यूरोपीय देशों की अर्थव्यस्था में पूँजीवाद की जड़ काफी गहरी हो गयी ।
मुद्रा-प्रसार और मूल्य में भारी वृद्धि:
इन सबके फलस्वरूप मुद्रा-प्रसार बड़ा तेजी से होने लगा । फलतः मूल्यों में भी तेजी से वृद्धि हुई । यह भी अर्थव्यवस्था के पूंजीवादी बनते जाने की एक अनिवार्य परिणति थी और प्रमाण भी । 16वीं शताब्दी के मध्य तक वस्तुओं का मूल्य तथा मजदूरी-दर सोना-चाँदी के पैमाने पर का जाता था तथा अपेक्षाकृत स्थायी था ।
किन्तु, 1500-1650 के बीच अमरीका से बेशुमार सोना-चाँदी आने लगा । पहले स्पेन में फिर वहाँ से अन्य देशों में उसका आयात होने लगा । फलत: इस 150 वर्ष की कालावधि में यूरोपीय देशों में चालू धनराशि में तिगुनी वृद्धि हुई ।
मुद्रा के भारी प्रसार के कारण मुद्रा के मूल्य में कमी आयी और वस्तुओं की कीमत बढ़ गई । अर्थात् 150 वर्षों के अंतराल में मूल्यों तथा मजदूरी-दर में तिगुनी वृद्धि हुई । 1500 की तुलना में 1650 ई. में गेहूँ की कीमत पंद्रह गुनी बढ़ गई थी ।
लगातार बढ़ने वाली मुद्रास्फीति का हमेशा एक ही परिणाम होता है कि जिस व्यक्ति की आमदनी मुद्रा के रूप में निर्धारित है वह घाटे में रहता है, क्योंकि मुद्रा की क्रय-शक्ति घटती जाती है; जबकि दूसरी ओर जिस व्यक्ति ने मुद्रा के रूप में कोई कर्ज या दायित्व लिया है, वह फायदे में रहता है, क्योंकि मुद्रा-प्रसार के कारण उसकी मुद्रा की आमदनी बढ़ती जाएगी और वह आसानी से अपना कर्ज अदा कर देगा ।
1620 ई. में एक फ्रांसीसी ने कहा था- “The Debtor Gains what the Creditor has Lost”. मुद्रा-प्रसार और मूल्य में वृद्धि का सबसे अधिक लाभ कारखानेदारों एवं व्यापारियों को मिला । जो जितना अधिक माल तैयार करता था, वह उतना अधिक मुनाफा कमाता था ।
मूल्यों में वृद्धि होने से सौदागरों के लिए स्थिति अनुकूल थी । उनके गोदामों में जमा या जहाजों पर लदे माल का बढ़ी हुई दर पर मूल्य उसे मिलता था । फलत: उनके मुनाफे में अनर्जित आय का अंश बढ़ने लगा ।
इस प्रकार, बढ़ते हुए मूल्य से व्यवसायियों को अत्यधिक लाभ हो रहा था तथा पश्चिमी एवं मध्य यूरोप में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की जड़े मजबूत हो रही थीं । सोने-चाँदी की आपूर्ति में वृद्धि होने के फलस्वरूप वित्त-आधारित अर्थव्यवस्था की ओर तेजी से अग्रसर होने का माहौल बना ।
कृषि तथा उद्योग-धंधों, महाजनी तथा तिजारत में, ऋण एवं साख के उपयोग में वृद्धि आई । मुद्रा-प्रसार एवं मूल्य में वृद्धि का सरकारों पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा । उनको स्थायी रहनेवाली आय तथा निरंतर बढ़ते रहने वाले व्यय की समस्या से निबटना पड़ता था ।
मध्यकाल से ही यह विचारधारा कायम थी कि राजाओं को अपनी ही आय पर निर्भर रहना चाहिए । उसे मैनर से प्राप्त आमदनी, सामंती अदायगी, आयात एवं चुंगी पर ही निर्भर रहना चाहिए ।
परंतु यह सारी अदायगी मुद्रा में निर्धारित थी जिसका मूल्य दिनों-दिन घट रहा था । राजाओं को बड़ी-बड़ी सेना, एवं युद्ध का खर्च भी वहन करना पड़ रहा था, जो दिनोंदिन बढ़ रहा था । अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए विभिन्न राजे-रजवाड़ों ने अनेक तरीके अपनाये ।
कहीं कोई शासन बड़े पैमाने पर कर्ज लेकर काम चलाता, जैसे- आस्ट्रिया के सम्राट ने फग्गर परिवार से कर्ज लिया । दूसरे राजाओं ने अपने राज्यों की मुद्राओं-जो सोना-चाँदी में थी-की मात्रा कम-बेश करके समस्या से निबटने का उपक्रम किया ।
इसे एक प्रकार का अवमूल्रयन भी कह सकते हैं । इसके अंतर्गत यह घोषणा कर दी जाती थी कि चाँदी या सोने की एक विहित मात्रा पहले से कहीं बड़ी संख्या में उस राज्य के मुद्रा के बराबर होगी ।
इन उपायों से भले ही कुछ दिनों के लिए राजाओं की आमदनी बढ़ी, किंतु अंतत: इसने मुद्रा-प्रसार को ही बढ़ावा दिया । कुछ राजाओं ने, विशेषकर फ्रांस के शासकों ने, नकद के बदले सरकारी पदों को बेचा, या उन्होंने कुछ खास तरह के व्यवसाय का एकाधिकार बेच डाला ।
या उन्होंने शहरों के अधिकारों पर अतिक्रमण करके शहरों को अधिक कर देने के लिए बाध्य किया । या फिर राजाओं ने कर बढ़ाने के लिए संसद से झगड़ा किया, जिसका उदाहरण इंगलैण्ड है ।
इस प्रकार, मुद्रा के कारण उत्पन्न संकट ने राजा एवं संसदीय संस्थाओं के बीच झगड़ों को जन्म दिया । पूरी 17वीं शताब्दी में इंगलैण्ड में राजा और संसद के बीच संघर्ष होता रहा । इस संघर्ष की परिणति 1688 ई. की शानदार क्रांति में हुई, जिसने वहाँ राजा के ऊपर संसद की सर्वोच्चता स्थापित कर दी ।
नगरों में मुद्रास्फीति का एक अन्य प्रभाव भी दीख पड़ा । समाज के विभिन्न वर्गों के बीच की खाई अधिक चौड़ी होने लगी । मुद्रास्फीति से आम तौर पर व्यापारियों को लाभ होता था ।
दूसरी ओर रोजी कमानेवाले पंसारी आदि परेशानी में रहते थे, क्योंकि उनकी मजदूरी या वेतन में वृद्धि मूल्यों में वृद्धि के अनुपात से कहीं कम थी । कबाड़ी या घूम-घूमकर बेचनेवालों की स्थिति सबसे खराब थी ।
इन्हीं घूम-घूमकर माल बेचनेवालों में से कुछ ने अपना अलग गुप्त संघ बनाया । इन गुप्त संघों की जानकारी गिल्डों के मालिकों को भी नहीं होती थी । आधुनिक श्रमिक संघों का इन्हें असली जनक कहा जा सकता है ।
यदा-कदा मजदूरी-दर में वृद्धि के लिए ये हड़तालें भी करते थे । राज्य की ओर से इनका दमन किया जाता था । फिर भी अनेक स्थानों पर ये गुप्त रूप से काम करते रहे ।
लगभग हर राज्य या क्षेत्र में नगरों में समाज उच्च या बुर्जुआ वर्ग तथा निम्न या मेहनतकश वर्ग में खंडित होने लगा था या हो चुका था । घूम-घूम कर काम करनेवालों को मध्य युग के नगर की प्रशासनिक संस्थाओं में मताधिकार हुआ करता था ।
प्रशासनिक संचालन में उनका कारगर हाथ हुआ करता था । अब यह सब उनसे छिन गया । नए कॉरपोरेशन में नवोदित वैभवशाली लोगों के हाथ सारी सत्ता सीमित हो गई थी । श्रमजीवी वर्ग झुग्गी-झोंपड़ियों में रहता था, सौदागर तथा वैभवशाली लोगों के भव्य तथा पक्के मकान हुआ करते थे ।
ब्रिटेन में इन्हें भद्रलोक कहा जाता था । हॉलैंड में यही लोग देश का शासन चलाते थे । फ्रांस में ये अपने को भद्रजन कहते थे । उनकी समाधियों पर लिखा होता था- ”इन्होंने भव्य जिंदगी बितायी ।”
कृषि-प्रणाली या मैनॉरियल व्यवस्था पर प्रभाव:
मध्यकालीन कृषि-प्रणाली या मैनॉरियल व्यवस्था पर भी पूँजीवाद का प्रभाव पड़ा । अपनी जागीरों को अधिक लाभकर बनाने के उद्देश्य से अधिकतर जमींदार नगरों में रहने लगे थे तथा वाणिज्य-व्यापार या अपने कार्यों में अपना अधिकांश समय बिताने लगे थे ।
अपनी रैयतों से उन्हें जो सेवायें या सामग्री आदि मिलती थी उनके बदले नकदी मालगुजारी निर्धारित कर दी गई । अपनी जागीरों की देखभाल तथा रैयतों से निबटने के लिए इन जमींदारों ने वेतनभोगी अधिकारी या कारिंदे नियुक्त किए ।
इन्हें रैयतों तथा जमींदारों से अधिकाधिक आय संचित करने के आदेश दिए जाते थे । यह व्यवस्था किसानों के लिए प्रायः प्रतिकूल हुआ करती थी । अनेक कृषकों को भूमिहीन खेत-मजदूर बनकर मालिकों पर आश्रित रहने को बाध्य होना पड़ता था ।
जागीरदार स्वयं उनसे दूर शहरों में रहता था । अत: उसके अमले लोगों के साथ कैसा व्यवहार करते थे, यह देखने का मौका नहीं मिलता था । पूँजीवाद के उदय की एक देन थी खेत-खलिहानों की घेराबंदी । इसका एकमात्र उद्देश्य था कारखाने में काम आनेवाली वस्तुओं का अधिकाधिक उत्पादन ।
पूँजीवाद के उदय इसके साथ जुड़े हुए मुद्रा-प्रसार एवं मूल्य-वृद्धि का सबसे अधिक असर देहातों पर हुआ, परंतु पश्चिमी एवं पूर्वी यूरोप पर इसका प्रभाव बिल्कुल विपरीत रूप में पड़ा । पश्चिमी यूरोप में किसानों की स्थिति में सुधार हुआ और जमींदारों की स्थिति में पतन, जबकि पूर्वी यूरोप में जमींदारों की स्थिति सुधरी एवं किसानों की स्थिति बिगड़ी ।
पश्चिमी यूरोप में मैनॉरियल व्यवस्था में किसानों का अधिकार सुनिश्चित था और 14वीं शताब्दी में यह तय हो चुका था कि किसानों को एक निश्चित रकम देनी होगी । दूसरे शब्दों में किसानों को 1300ई. में जितनी मालगुजारी देनी होती थी, उतनी ही उन्हें 1600 ई. में भी देनी थी ।
इस तीन सौ साल के अंदर किसानों द्वारा पैदा किए जानेवाले अनाज की कीमत कई गुना बढ़ी थी । मतलब यह हुआ कि किसानों की आमदनी तो कई गुना बढ़ी, परंतु मालगुजारी की रकम ज्यों की त्यों रह गई । अत: किसानों की आर्थिक स्थिति काफी सुधरी ।
दूसरी ओर अधिकांश जमींदारों ने अपनी जमीन निश्चित लगान पर किसानों को दे दी । अब किसानों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसी दर पर जमीन जोतती रही । जोतनेवाले किसानों की आमदनी तो बढ़ती रही, परंतु जमींदारों की मालगुजारी का अवमूल्यन होता रहा ।
पश्चिमी देशों के जमींदारों जैसे स्पेन के हिडालगो, फ्रांस के हावरैक्स और इंगलैण्ड के स्क्वॉयर के लिए यह अवधि कष्ट की अवधि थी । इन जमींदारों ने इस समस्या का समाधान कई तरह से किया ।
कुछ ने बैकरों एवं सौदागरों से कर्ज लिया और जब वे कर्ज अदा न कर सके तो उनकी जमीन नीलाम हो गई । कभी-कभी उन्होंने अपनी सारी जमीन एवं मैनर संपन्न सौदागरों को बेच दी ।
जमीन खरीदनेवाले सौदागर अब देहातों में आकर बस गए और भद्र-जन की तरह रहने लगे । जो असल कुलीन था अर्थात् जो जन्म या वंश के कारण जमींदार था, उसने अपनी संपत्ति खो दी और वह जीविका के लिए दूसरे धंधों की तलाश करने लगा ।
इन्हीं जड़ से उखड़े जमींदार परिवार के सदस्यों ने धर्म-युद्धों के समय सेना में नौकरी कर ली । स्पेनी हिडालगो अमेरिका चले गए । अन्य देशों में उन्होंने राजा के दरबार में नौकरी कर ली ।
इंगलैण्ड में इन जमींदारों ने व्यापार में प्रवेश किया । फलत: वहाँ वर्ग-विभेद की दीवारें टूटने लगीं । इंगलैण्ड के जमींदारों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब नहीं हुई, क्योंकि एक ओर जहाँ उन्होंने व्यापार को अपनाया वहीं दूसरी ओर उन्होंने खेती को भी व्यवसाय के रूप में अपनाया ।
पूर्वी यूरोप में अनाज और जंगलात की बढ़ती हुई कीमतों का फायदा जमींदारों ने उठाया । मैनोरियल व्यवस्था यहाँ भी थी, परंतु किसानों का अधिकार और उनकी काश्तकारी इंगलैण्ड की तरह सुनिश्चित नहीं, बल्कि अनिश्चित थी ।
सामंत अपनी इच्छा से या किसानों के मरने के बाद काश्तकारी के नियमों में परिवर्तन कर सकते थे । दूसरी बात यह है कि वहाँ के अधिकांश जमींदार स्वयं ही खेती करते थे ।
बाल्टिक व्यापार के विस्तार और कीमत में वृद्धि ने जमींदारों को उत्पादन में वृद्धि के लिए प्रोत्साहित किया, अत: जर्मनी के जंकर वर्ग ने और पूर्वी यूरोप के कई देशों के जमींदारों ने किसानों की कीमत पर अपनी आय बढ़ाई ।
फलस्वरूप जर्मनी, पोलैंड, बाल्टिक देशों, रूस, बोहेमिया एवं हंगरी में अधिकांश किसानों की स्थिति दासों जैसी हो गई । धार्मिक युद्धों से उत्पन्न हिंसा एवं अनिश्चितता के कारण ही दास-प्रथा का उदय हुआ ।
किसानों ने या तो अपनी जमीन खो दी या उन्हें जमीन इस शर्त पर मिली कि वे जमींदारों को मुफ्त सेवा प्रदान करेंगे । बोहेमिया जैसे देशों में इन किसानों को सप्ताह में तीन-चार दिन बंधुआ मजदूर की तरह काम करना पड़ता था । इन बँधुआ मजदूरों से जमींदारों ने खेतों एवं जंगलों में अपनी आय बढ़वायी ।
इस प्रकार पूर्वी देशों के किसानों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता खोनी पड़ी एवं गरीबी में जीवन गुजारना पड़ा । पश्चिमी देशों के किसान स्वतंत्र थे । उन्हें खेती करने, जमीन बेचने एवं खरीदने का अधिकार था ।
शायद ही पश्चिमी देशों में कहीं किसानों को बँधुआ मजदूरी करनी पड़ती थी । पूर्वी यूरोपीय देशों में मध्यम वर्ग का उदय नहीं हुआ था । इसलिए जंकर जैसे जमींदार वर्ग को चुनौती देनेवाला कोई नहीं था । यही कारण है कि पूर्वी यूरोप का जमींदार, विशेषकर जर्मनी का जंकर वर्ग, राजनीति एवं समाज पर छाया रहा ।
उत्पादन के तरीके में परिवर्तन:
वाणिज्य-व्यवसाय के विस्तार का उत्पादन-प्रणाली पर भी असर पड़ा । मध्यकालीन गिल्ड प्रणाली पहले से ही दुर्बल पड़ रही थी । उत्पादन की गिल्ड-प्रणाली एक सीमित और स्थायी बाजार की आवश्यकता को ही पूरा कर पाती थी ।
नया दौर था संसार-भर से कच्चा माल मुहैया करने तथा देश-देशान्तर के बाजार के लिए माल तैयार करने का, जबकि गिल्ड-प्रणाली के स्थानीय साज-सामान से स्थानीय लोगों की जरूरतों की पूर्ति की जाती थी ।
अत: नयी प्रतियोगिता में उनका पराभव अवश्यम्भावी था । गिल्ड-व्यवस्था से अलग उत्पादन और वितरण की एक नवीन प्रणाली शुरू हो रही थी । इसमें वैभवशाली बिचौलिया कच्चा माल खरीदकर कारीगरों को बाँट देता ।
अपने-अपने घर में कारीगर सामान तैयार करते, उन्हें मजदूरी चुकाकर वह तैयार माल एकत्र कर लेता था तथा उसे बाजार में ले जाकर बेचता था । इस नयी प्रथा का नाम Putting out System है ।
इसे घरेलू या कुटीर उद्योगों भी कहा जाता है । इसके अन्तर्गत बिचौलिया (चाहे तो उसे व्यवस्थापक भी कह लिजिए) अपेक्षाकृत काफी विस्तृत क्षेत्र में औद्योगिक माल तैयार करने का काम फैला सकता था ।
खेत-मजदूरों की पत्नियाँ, पहले के कम्मी मजदूर जिनकी दासता की कड़ियाँ टूटने के साथ-साथ जमीन भी छीन ली गयी थी तथा इसी तरह के दूसरे लोग सस्ती दर पर उसका काम करते थे ।
एक ही कारखाने में कुशल कारीगरों से काम कराने की बाध्यता उसे नहीं थी । उसके पास काफी पैसे होते थे, इसके बल पर वह अधिक अच्छी शर्तों पर खरीद-बिक्री कर सकता था ।
फलस्वरूप गिल्ड-प्रणाली से उत्पादन करने वाले उसकी प्रतियोगिता में नहीं ठहर सकते थे, किन्तु यह उत्पादन-प्रणाली कार्मिकों के लिए हितकर नहीं थी । वैसे उन्हें रोजी तो मिल जाती थी, लेकिन अपेक्षाकृत कम मजदूरी पर ।
धनी और गरीब-पूंजीपति और मजदूर के बीच की दूरी इससे और भी बढ़ती थी । इस प्रणाली में मालिक तथा मजदूर के बीच गिल्ड-प्रणाली जैसी आत्मीयता का सम्बन्ध नहीं रह पाता था । उनका सम्बन्ध अब मात्र पैसों का था ।
घरेलू या कुटीर उत्पादन प्रणाली पश्चिमी यूरोप के देशों में कपड़ा एवं लोहा उद्योग के क्षेत्रों में काफी अरसे तक कारगर ढंग से चलती रही । 18वीं शताब्दी के अंतिम चरण में कारखानेदारी प्रथा के प्रचलन होने पर इसका अंत हुआ ।
Putting out System या कुटीर उद्योग प्रणाली साफ तौर से पूंजीवादी कही जा सकती है । इस प्रणाली में कामगारों की स्थिति उत्पादन-प्रक्रिया के मात्र एक उपकरण से भिन्न न थी । उन्हें मालिकों की इच्छानुसार एवं उनकी जरूरतों के मुताबिक ही काम करना होता था ।
उन्हें जो काम दिया जाता था उससे ज्यादा कुछ जानने की या सीखने की जरूरत उन्हें नहीं थी । खेती या कुटीर उद्योग उनकी रोजी के साधन थे । ऐसे मजदूरों की संख्या में बराबर बढ़ रही थी । जहाँ और जब भी मजदूरों की जरूरत होती, ये लोग उपलब्ध रहते थे ।
वैसे इनकी हालत बहुत संतोषजनक नहीं कही जा सकती । काम मिला तो ठीक, अन्यथा उधार और भिखमंगी के अलावा कोई चारा शायद ही बचता था । इस प्रणाली के दूसरे छोर पर वह व्यक्ति होता था, जो इस सारी व्यवस्था को संचालित करता था । कामगारों के साथ उनका व्यक्तिगत संबंध नहीं होता था ।
वह अपने देश या अन्य देशों में कितना माल बेच सकेगा, इसका अनुमान करता था । तदंतर कुछ कामगारों को एक काम करने, कुछ को दूसरा काम करने के लिए उन्हें आवश्यक साज-सामान देकर काम में लगाता था; उत्पादन के विभिन्न चरणों के लिए अलग-अलग कार्मिक दल नियुक्त करता था ।
हर कामगार को नकद मजदूरी मिलती थी । कामगारों को दिए जानेवाले कच्चे माल अथवा साज-सामान, औजार, उपकरण आदि पर मालिक का सत्वाधिकार रहता था । इस संपूर्ण उत्पादन एवं व्यवसाय प्रणाली की सभी प्रक्रियाओं तथा चरणों पर संयोजन वह स्वयं करता था । निश्चित रूप से यह पूंजीवादी व्यवस्था थी ।
इस प्रणाली के अंतर्गत कुछ नए उद्योग-धंधे शुरू हो रहे थे, क्योंकि गिल्ड-प्रणाली इन उद्योग- धंधे को नहीं चला सकती थी । खनिज उद्योग, मुद्रण तथा पुस्तक व्यवसाय, जहाजों का निर्माण आदि ऐसे ही उद्योग थे । यूरोप के लोगों में पुस्तकें खरीदने की रुचि थी ।
पुस्तकों के मुद्रण, प्रकाशन तथा क्रय-विक्रय के लिए बड़ी पूंजी जरूरी थी । गिल्ड या छोटा पूंजी वाला व्यवसायी उतनी पूंजी मुहैय्या नहीं कर सकता था । उन दिनों किताबें अधिकतर लैटिन भाषा में होती थीं । उनका बाजार यूरोप के सभी देशों में होता था ।
छापाखाना के व्यवसाय के लिए टाइप-फाउंड्री, कागज की आपूर्ति तथा अन्य अनेक तरह के उपकरणों की जरूरत होती थी । यह एक जगह या क्षेत्र में मिलती भी नहीं थी । इसके अतिरिक्त मुद्रण के उपरांत किताबें काफी अरसे तक गोदामों में पड़ी रह सकती थी । इन सब कारणों से छापाखाना तथा प्रकाशन का व्यवसाय आरंभ से ही पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली का मुहताज रहा ।
पश्चिमी यूरोप के तटवर्ती इलाकों में छोटे-बड़े जलयान या जहाज का निर्माण बहुत काल से होता आया था, लेकिन महासमुद्रीय मार्गों पर जहाजरानी प्रचलित होने पर इस उद्योग की कायापलट हो गई । अब यह एक सर्वथा नए उद्योग के रूप में उमर रहा था ।
बंदूक, तोप एवं उनके उपकरणों का निर्माण एक अन्य नया उद्योग था । इन शस्त्राशस्त्रों की खरीदारी राजाओं द्वारा होती थी । नए जमाने के दौर में राष्ट्रीय राज्यों का उद्भव हो रहा था । दूर-दराज के क्षेत्रों में औपनिवेशिक प्रसार का दौर भी शुरू हो गया ।
अत: नवीनतम शस्त्राशस्त्रों की माँग में भारी वृद्धि हुई । वैसे पूँजीवाद के अभ्युदय में, इसका अनिवार्य प्रतिफल था कच्चा माल, सस्ता श्रम, बाजारों के लिए प्राणांतक होड़, सामरिक शक्ति एवं क्षमता में वृद्धि भी अंतर्निहित थी । सैनिकों के लिए नए शस्त्राशस्त्र, वर्दियाँ एवं सैकड़ों अन्य सामरिक उपादानों की माँग बढ़ रही थी ।
इनके अतिरिक्त उनके रहने के लिए बैरक तथा किलाबंदियों के निर्माण का सिलसिला भी शुरू हुआ । इनकी माँग काफी बड़े पैमाने पर हुआ करती थी । बड़े पैमाने पर उत्पादन के अवसर का यह सबसे पहला क्षेत्र था ।
जिन राज्यों में सरकार इस उत्पादन के लिए पहल नहीं करती थी, उन राज्यों में एक या अधिक पूंजीपति बिचौलियों के रूप में सामरिक निर्माण के क्षेत्र में चले जाते ।
व्यापार का विस्तार:
पूर्वी एशिया को जानेवाले नए समुद्री मार्ग तथा अमेरिकी महादेशों की खोज के फलस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के परिमाण में भारी वृद्धि हुई । ऐश-विलास की सामग्री के अतिरिक्त चावल, चीनी, चाय तथा अन्य सामग्री के आयात निर्यात में वृद्धि हुई ।
नए बाजारों के लिए माल मुहैय्या कराने के सिलसिले में परंपरागत व्यापारिक कार्यकलापों का स्वरूप बदल गया । वाणिज्य के विस्तार के सामंजन के लिए नए व्यवसायिक संगठनों का जन्म हुआ ।
मध्यकालीन गिल्डों के स्थान पर चार्टर कंपनी का जन्म हुआ । प्रारंभिक चार्टर कंपनियों को रेगुलेटेड कंपनी कहा जाता है । इस व्यवस्था के अंतर्गत कुछ व्यापारी सरकारी लाइसेंस या चार्टर के अंतर्गत कुछ खास बाजारों का लाभ उठाने के लिए अपने को संगठित करते थे ।
एक-दूसरे को सुरक्षा प्रदान करने तथा आपसी प्रतिस्पर्द्धा को सीमित करने के लिए वे आपस में सहयोग तो करते थे, लेकिन वे अलग से स्वतंत्र व्यापार भी करते थे । स्वतंत्र व्यापार के कारण इन कंपनियों को घाटा भी बर्दाश्त करना पड़ता था ।
कंपनी के सदस्यों के अलग हो जाने या मर जाने पर और भी समस्याएँ पैदा होती थीं । अत: चार्टर कंपनी के स्थान पर एक बेहतर संगठन की आवश्यकता थी । अत: 17वीं शताब्दी के आरंभ में रेगुलेटेड कंपनी के स्थान पर ज्वाएण्ट-स्टॉक कंपनी का जन्म हुआ ।
इस कंपनी के सदस्य संसाधन जुटाते थे, व्यवस्थापक को चुनते थे या नियुक्त करते थे और स्टॉक या शेयर के अनुपात में आपस में मुनाफा बाँटते थे । स्टॉक या शेयर को खुले बाजार में बेचने की व्यवस्था करके कंपनी के अंदर की प्रतिस्पर्द्धा को समाप्त किया गया और स्थायित्व प्राप्त किया गया ।
स्टॉक बेचकर, अधिक से अधिक पूंजी इकट्ठा की जा सकती थी । अपनी अतुलित क्षमता के कारण इस तरह की कंपनियां आज भी पाई जाती हैं, इसका उदाहरण है जनरल मोटर्स, स्टैंडर्ड ऑयल और युनाइटेड स्टेट स्टील ।
दो सर्वप्रमुख प्रारंभिक ज्वाएण्ट स्टॉक कंपनी के उदाहरण हैं- 1600 ई. में स्थापित ईस्ट इंडिया कंपनी और 1602 ई. में स्थापित डच ईस्ट इंडिया कंपनी । इन दोनों को समुद्र पार के व्यापार का एकाधिकार प्राप्त हुआ था । इन कंपनियों ने कभी- कभी तीन सौ प्रतिशत मुनाफा कमाया ।
व्यापार का इतना अधिक विस्तार हुआ कि अब स्पेन को खाद्यानों की आपूर्ति सिसली से हो रही थी तो नीदरलैंड को पोलैंड से । फ्रांस के मदिरा-उत्पादन क्षेत्रों की खाद्यान्न आवश्यकताओं की आपूर्ति उसके उत्तरी कृषि क्षेत्रों से होती थी । जहाजरानी तथा उससे संबद्ध कार्यकलापों में अच्छी खासी वृद्धि हुई थी ।
अंतरमहादेशीय व्यापार के लिए नए ढंग के जहाजों का निर्माण होने लगा था । इन सबके परिणामस्वरूप लकड़ी, अलकतरा आदि की माँग बढ़ी, इनके असीमित भंडार रूस तथा बाल्टिक तटवर्त्ती क्षेत्रों में अछूते पड़े थे ।
अब इन क्षेत्रों से साज-सामानों की आपूर्ति होने लगी । फलत: ये क्षेत्र भी व्यापारिक रंगमंच पर आ गए । भारी तथा अधिक जगह घेरनेवाले साज-सामानों का आयात-निर्यात तथा परिवहन बढ़ रहा था । यह काम भारी पूँजीवाले लोग ही कर सकते थे ।
किंतु पूंजी का केवल निवेश ही नहीं होता था, बल्कि अल्पकालीन कर्ज के रूप में पूजी का लेन-देन भी होने लगा था । इस तरह के कर्ज लेनेवालों में धार्मिक संस्थान, राजे-रजवाड़े तथा सरदार-सामंत ही अधिक थे ।
कर्ज लेने वालों में कुछ व्यापार तथा व्यवसाय में लगे लोग भी शामिल थे, यद्यपि 16वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में इनकी संख्या अधिक नहीं थी । कर्ज देने वाले चाहे वे पेशेवर महाजन हों या अन्य लोग, दी हुई धनराशि से अधिक राशि अर्थात् ब्याज सहित मूलधन वापसी में चाहते थे ।
कभी-कभी ब्याज की दर सालाना 30 प्रतिशत तक होती थी । मध्ययुग में धार्मिक भावना के कारण सूदखोरी वर्जित थी, लेकिन जमाने की रफ्तार के साथ ब्याज का स्वरूप बदला और उसकी दर में कमी आई ।
ब्याज नवोदित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का एक मान्य तथा स्वीकृत उपकरण बन गया । व्याज केवल कर्ज लेन-देन का ही एक उपादान नहीं था । बैंकों में लोग अपना अतिरिक्त धन केवल सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि ब्याज अर्जित के लिए भी जमा करने लगे ।
17वीं शताब्दी में हॉलैंड के एमस्टर्डम बैंक में यूरोप के प्राय: हर देश के लोग ब्याज पर धन जमा करते थे । यह बैंक काफी कम ब्याज देता था । लेकिन, वैसे ही यह कम ब्याज दर पर व्यवसायिक कार्यकलापों के लिए कर्ज भी देता था ।
इन सबके परिणामस्वरूप उद्योग-धंधों का वाणिज्यीकरण होता जा रहा था । परंतु औद्योगिक उत्पादन की प्रक्रियाएँ अभी भी हस्तशिल्प के ही चरण में थी । फलत: क्रेता-विक्रेता उन पर हावी थे ।
वास्तविक उत्पादक-बुनकर रंगसाज, लोहार, बढ़ई, शीसा के काम करने वाले तथा ऐसे दूसरे कारीगर शिल्पी सौदागरों की माँग की अपूर्ति करने के लिए काम करते थे; अक्सर कच्चा माल, औजार तथा अन्य आवश्यक साज-सामान या उन्हें खरदीने के लिए पूंजी भी सौदागर ही देता था ।
इस प्रकार, सामान कहाँ और कैसे बिकेगा यह जाननेवाला सामान कैसे बनाया जा सकता है इसकी जानकारी रखनेवाले पर हावी हो रहा था । 1800 ई. तक यूरोप में पूँजीवाद का स्वरूप वाणिज्यिक या व्यापारिक पूँजीवाद ही था । जब वाष्प तथा बिजली द्वारा प्रचालित संयंत्रों द्वारा संचालित युग आया तबसे कारखानेदार सौदागर पर हावी होने लगा ।