Read this article in Hindi to learn about the reformation movement in Europe.
सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ तक मध्यकालीन व्यवस्था और संस्थाएँ बिखर चुकी थीं । सामंतवाद और उससे जुड़ी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक मान्यताएँ टूट रही थीं, परन्तु धर्म एवं चर्च का प्रभाव ज्यों का त्यों कायम था ।
मध्यमवर्ग और वाणिज्य-व्यापार के उदय, राष्ट्रीय राज्य के उत्कर्ष और तर्क पर आधारित ज्ञान के विस्तार के कारण धर्म और चर्च में सुधारवादी परिवर्तन आवश्यक हो गया था । धार्मिक कुरीतियों से जनसाधारण एवं स्वयं पादरियों में भारी असन्तोष था । धर्मसुधार आन्दोलन की शुरुआत धार्मिक नेताओं से ही शुरू हुई ।
सोलहवीं शताब्दी के धर्मसुधार आन्दोलन को दो चरणों में बाँटा जा सकता हैं:
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i. प्रोटेस्टेण्ट धर्मसुधार और
ii. रोमन कैथोलिक धर्मसुधार ।
i. प्रोटेस्टेण्ट धर्मसुधार (Protestant Reformation):
प्रोटेस्टेन्ट धर्मसुधार तीन विशिष्ट परन्तु संबद्ध आन्दोलनों- लूथरवाद, कालविनवाद और ऐंग्लिकनवाद से मिलकर संघटित हुई । इन तीन मुख्य धाराओं तथा एनाबेपटिस्ट कहलाने वाले कई और छोटे पंथों से सैकड़ों प्रोटेस्टैण्ट सम्प्रदायों का जन्म हुआ । लूथर का विद्रोह धर्मसुधार की शुरुआत थी ।
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a. लूथरवाद:
मार्टिन लूथर (1483-1546) जर्मनी के एक साधारण किसान परिवार में पैदा हुआ था । उसके पिता उसे वकील बनाना चाहते थे, लेकिन विश्वविद्यालय में उसने कानून की जगह धर्मशास्त्र का अध्ययन शुरू कर दिया । उसका मन उद्वेलित रहने लगा ।
आत्मा की शान्ति के लिए वह आगस्टीनियन भिक्षुओं में शामिल हो गया । सन्त पॉल के पत्रों को पढ़कर उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि मुक्ति का मार्ग अच्छा कर्म, संस्कार और कर्मकाण्ड नहीं, बल्कि ईसा में सरल आस्था है । दूसरे शब्दों में ईसा मसीह में अटूट विश्वास के द्वारा मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है ।
इसी बीच वह बिटेनवर्ग विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त हुआ । वहां उसे और अध्ययन का मौका मिला । लूथर का विश्वास बढ़ता जा रहा था कि केवल आस्था और विश्वास से मुक्ति मिल सकती है ।
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उसने अनुभव किया कि पूजा, प्रायश्चित, खाननी प्रार्थना, आध्यात्मिक ध्यान और क्षमा-प्रदान पत्रों की खरीद से पाप से मुक्ति नहीं पाया जा सकता । इसी बीच एक ऐतिहासिक घटना घटी ।
1517 ई. में क्षमाप्रदान-पत्रों (इण्डलजेन्स) की बिक्री करता हुआ पोप का एक प्रतिनिधि टेट जेल विटेनवर्ग पहुँचा । लूथर ने इस कार्य की निन्दा की । इसके विरोध में उसने विटेनवर्ग विश्वविद्यालय की दीवारों पर अपनी पंचानबे बातें (95 थीसिसें) चिपका दीं ।
इन थीसिसों के द्वारा उसने इण्डलजेन्स की बिक्री के औचित्य को चुनौती दी । उसने दलील दी कि क्षमापत्र के द्वारा मनुष्य चर्च के लगाए दण्ड से मुक्त हो सकता है, किन्तु मृत्यु के पश्चात् वह ईश्वर के लगाए दण्ड से छुटकारा नहीं पा सकता और न अपने पाप के फल से बच सकता है ।
उसके विचारों ने तहलका मचा दिया । उसके समर्थकों की संख्या बढ़ने लगी । उसके कई पम्फलेट लिखकर चर्च की कमजोरियों पर प्रहार किया, पोप के अधिकारों को चुनौती दी, चर्च की सम्पत्ति जब्त करने और चर्च पर नियंत्रण करने का आह्वान राजाओं से किया ।
लूथर के विचारों से पोप को घबराहट हुई । पोप ने उसे धर्मच्युत कर दिया । पोप की आज्ञा को लूथर ने सबके सामने जलाकर विद्रोह का झंडा ऊँचा किया । 1529 ई. में सम्राट ने उसे वर्न्स में जर्मन डायट के समक्ष उपस्थित होने के लिए बुलाया ।
सम्भव था कि वहाँ जाने पर उसे अन्य चर्च-विरोधियों के समान जीवित जला दिया जाता, किन्तु सैक्सनी के राजा फ्रेडरिक ने उसे जाने नहीं दिया । इस समय तक सारे जर्मनी में सामाजिक एवं धार्मिक खलबली पैदा हो चुकी थी । हर तरह के असंतुष्ट लोग नेतृत्व के लिए लूथर की ओर देखने लगे ।
अपने को एनाबेपटिस्ट कहने वाले धार्मिक कट्टरपंथी लूथर के नाम पर अत्यन्त व्यक्तिवादी और उग्रवादी विचारधारा का प्रचार करने लगे । बाद में लूथर को स्पष्ट करना पड़ा कि उसे कैथोलिक चर्च की उन्हीं विशेषताओं का विरोध करना पड़ा जो धर्मग्रन्थों के अनुकूल नहीं हैं ।
दक्षिण-पूर्वी और मध्य जर्मनी के किसानों ने लूथर के उपदेशों से प्रेरणा पाकर विद्रोह कर दिया । शुरू में लूथर को इस आन्दोलन से सहानुभूति थी, लेकिन 1529 ई. के बाद आन्दोलन के जनवादी और हिंसक चरित्र से वह घबड़ा गया ।
उसने शासकों से आग्रह किया कि वे इस विद्रोह का दमन कर दें । बड़ी नृशंसता के साथ किसान विद्रोह दबा दिया गया । वह जानता था कि अशांति बढ़ी तो उसके विचारों का प्रसार अवरुद्ध हो जायगा और नेतृत्व उसके हाथ से निकल जायेगा ।
वह जानता था कि शासकों और मध्यमवर्ग के ही बीच उसका विचार पनप सकता है । इसलिए उसने जनविरोधी फैसला किया । अपने देश में लूथर को छोटे-छोटे जर्मन-राजाओं से सहायता मिली । बहुत से राजा चर्च से बिगड़े हुए थे और इसलिए वे लूथर का समर्थन करने लगे ।
लूथर के विचार बहुत सुगम थे । उसने ईसा और बाइबिल की सत्ता स्वीकार की, लेकिन पोप और चर्च की दिव्यता और निरंकुशता को नकार दिया । चर्च द्वारा निर्धारित कर्मों के स्थान पर उसने आस्था को मुक्ति का साधन बताया ।
संस्कारों में उसने केवल तीन- नामकरण, प्रायश्चित और प्रसाद (बैप्टिज्म, पेनैंस और यूकेरिस्ट) को ही माना । चर्च में चमत्कार, ईसा को समर्पित रोटी और शराब का मांस ओर खून में परिवर्तित हो जाना आदि विश्वासों को उसने नहीं माना ।
उसने बताया कि चर्च का अर्थ रोमन कैथोलिक या कोई अन्य विशिष्ट संगठन नहीं, बल्कि ईसा में विश्वास करनेवाले लोगों का समुदाय है । उसने पोप, कार्डिनल और विशप के पदानुक्रम को समाप्त करने की माँग की और सभी आस्थावानों की पुरोहिताई की घोषणा की ।
उसने राजाओं को चर्च का प्रधान माना । मठों और पादरियों के बह्मचर्य को समाप्त करने का विचार उसने रखा । उसके विचार लोकप्रिय हुए और राष्ट्रीय स्फूर्ति को बल मिला ।
धर्म के प्रश्न को लेकर जर्मनी के राज्य दो दलों में बँट गये- लूथर के समर्थक ‘प्रोटेस्टैण्ट’ कहलाए और उसके विरोधी ‘कैथोलिक’ । प्रोटेस्टैण्ट सुधारवादी थे और कैथोलिक प्राचीन चर्च के अनुयायी । दोनों में युद्ध शुरू हो गया ।
1555 ई. में दोनों में आग्सबर्ग की संधि हुई । इस संधि के अनुसार यह तय हुआ कि प्रत्येक राजा अपनी प्रजा का धर्म निश्चित कर सकता है; किन्तु शर्त यह थी कि उनपर वह प्रोटेस्टैण्ट या रोमन कैथोलिक धर्म छोड़कर तीसरा धर्म नहीं लाद सकता ।
प्रोटेस्टैण्ट धर्म उत्तरी जर्मन राज्यों, डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन और बाल्टिक राज्यों में तेजी से फैल गया । 1546 ई. में लूथर की मृत्यु हो गयी । सुधारवादियों के इतिहास में लूथर का स्थान महत्वपूर्ण है । आधुनिक युग का आह्वान करने वालों में उसे गिना जा सकता ।
उसने धर्म के मामले में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर जोर दिया । उसने पोप के खिलाफ देशों के राजाओं और मध्यमवर्ग की राष्ट्रीय भावना को उभाड़ा । उसने बताया राजा चर्च से बढ़कर है । उसने जर्मन भाषा में अपने विचारों का प्रचार कर जर्मन भाषा को लोकप्रिय बनाया । वास्तव में जर्मन राष्ट्रवाद को जीवन्त और संगठित करने वालों में लूथर अग्रणी है ।
इरेसमस:
लूथर के द्वारा रिफार्मेशन आरम्भ होने के पहले 1511 ई. में हालैण्ड निवासी इरेसमस नामक विद्वान ने ‘द प्रेज ऑफ फॉली’ नामक पुस्तक लिखा । यूरोप धार्मिक विचारों पर इसका जबर्दस्त प्रभाव पड़ा । पुस्तक के सम्बन्ध में यह कहा जाता कि- ‘लूथर के क्रोध की अपेक्षा इरेसमस के उपहासों ने पोप की अधिक हानि पहुँचायी ।’
उसने लिखा था कि- ‘प्रसन्नता का प्रधान कारण मूर्खता है; मूर्खता संसार पर शासन करती है’ और विशेषकर चर्च पर । इरेसमस के विचार लूथर के समान उग्र नहीं थे । वह विवेक एवं बुद्धि के द्वारा चर्च में सुधार लाना चाहता था । उसने कभी भी चर्च का खुला विरोध नहीं किया ।
ज्विंगली (1484-1531):
जिस समय जर्मनी में लूथर पैदा हुआ, उसी समय स्विट्जरलैण्ड में ज्विंगली नामक सुधारक का अविर्भाव हुआ । धर्म के क्षेत्र में ज्विंगली का विरोध किया और पादरी के ब्रह्मचर्य और संतों की पूजा को गलत बताया । लूथर से भी अधिक बल के साथ उसने बाइबिल की सर्वोच्च सत्ता पर जोर दिया । 1523 ई. में वह कैथोलिक-चर्च से अलग हो गया और 1531 ई. में मारा गया ।
b. कालविनवाद:
प्रोटेस्टेण्ट धर्म की स्थापना में लूथर के बाद कालविन का ही नाम आता है । अगर धर्मसुधार आन्दोलन शुरू करने का श्रेय लूथर को है तो कालविन पहला सुधारक था, जो अटूट विश्वास के साथ एक ऐसा पवित्र सम्प्रदाय स्थापित करना चाहता था जिसको अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता और ख्याति प्राप्त हो ।
उसका जन्म 1509 ई. में फ्रांस में हुआ । उसका पिता एक वकील और नोयों के बिशप का सचिव था । उसने पेरिस विश्वविद्यालय में धर्म और साहित्य का गहरा अध्ययन किया । धर्म में उसकी रुचि देखते हुए उसके पिता ने उसे वकील बनने की सलाह दी और कालविन कानून के अध्ययन में रत हो गया । लूथर के विचारों को पढ़कर चौबीस साल की उम्र में उसने प्रोटेस्टैण्ट धर्म को अपना लिया ।
उसने चर्च से सम्बन्ध तोड़ लिया । फ्रांस के रोमन कैथोलिक चर्च और की फ्रांस की सरकार के क्रोध से बचने के लिए वह फ्रांस छोड़कर स्विट्जरलैण्ड चला गया । वहीं उसने ‘ईसाई धर्म की स्थापनाएँ’ (इन्सटीट्यूट्स ऑफ द क्रिश्चियन रिलीजन) नामक की रचना की ।
यह धार्मिक पुस्तक बाद में प्रोटेस्टेण्टवाद के इतिहास में सबसे प्रभावशाली ग्रन्थ साबित हुआ । फ्रांसीसी भाषा के लिए इस पुस्तक का वही स्थान है जो स्थान जर्मन भाषा में लूथर द्वारा बाइबिल के अनुवादों को है ।
फ्रांसीसी भाषा की यह पहली पुस्तक मानी जाती है जिसकी रचना एक सुनिश्चित और सुडौल योजना के अनुसार हुई थी । इसकी शैली विश्वास और तर्क से परिपूर्ण है ।
अपने तर्कपूर्ण और विद्वतापूर्ण सिद्धांतों क कारण यह पुस्तक तेजी से लोकप्रिय हुई और ऐसा लगने लगा कि शायद सारे चर्च-विरोधी इस पुस्तक के आधार पर संगठित हो सकेंगे ।
इसी पुस्तक के कारण वह टीकाकारों में सबसे अधिक बुद्धिमान टीकाकार, बाइबिल का सबसे अधिक कुशल भाष्यकार और सबसे समझदार तथा नैन्यायिक आलोचक माना जाता है ।
कालविन यह जानता था कि युग के आधार पर कैसे मनुष्य को समझना चाहिए और मनुष्य के आधार पर, कैसे युग को समझा जाना चाहिए । बाइबिल का अर्थ लगाने में उसने लूथर से अधिक आधुनिक मनोवृत्ति और इतिहास के प्रति अपनी ईमानदारी दिखाई ।
उसका विचार था कि ईसाई धर्म को समझने के लिए ईसा के विचार को समझना आवश्यक है । चूँकि ये विचार प्राचीन धर्मग्रंथों में प्रकट किए गए हैं, इसलिए उन्हें जनप्रिय बनाना जरूरी है ।
उसका कहना था कि बाइबिल का ठीक अर्थ लगाना चाहिए और आचार-विचार का पालन कड़ाई से होना चाहिए । उसके विचार बड़े उग्र थे । उसकी माँग थी कि त्योहार नहीं मनाये जाएँ, आमोद-प्रमोद की मंडलियाँ न बैठें और थियेटरों को उठा दिया जाए ।
वह चाहता था कि यौन-व्यभिचार के अपराध में मृत्युदंड दिया जाए । उसमें उदारता का नितांत अभाव था और वह अपने विचारों में किसी से समझौता करने को तैयार नहीं था । वह इतना असहिष्णु था कि बहुत से लोगों को उसने सिर्फ इसलिए जलवा दिया था कि वे उससे सहमत नहीं थे ।
कालविन के सिद्धांतों का आधार ईश्वर की इच्छा की सर्वोच्चता है । ईश्वर की इच्छा से ही सब कुछ होता है, इसलिए मनुष्य की मुक्ति न कर्म से हो सकती है न आस्था से । वह तो बस ईश्वर के अनुग्रह से हो सकती है ।
मनुष्य के पैदा होते ही यह तय हो जाता है कि उसका उद्धार होगा या नहीं । इसे ही ‘पूर्व नियति का सिद्धांत’ कहते हैं । वैसे देखने पर इससे घोर भाग्यवादिता बढ़नी चाहिए थी, किंतु कालविनवाद ने ठीक इसके विपरीत अपने अनुयायियों में एक नवीन उत्साह और दैविक प्रेरणा का संचार किया ।
विशेषकर व्यापारियों के दिल में एक नया आत्मविश्वास जगा । वे अपने को ईश्वर का प्रिय पात्र समझने लगे । उन्हें यह विश्वास था कि वे जो कुछ भी करते हैं, वह ईश्वरीय योजना के अनुसार है; इसमें सामंती व्यवस्था कोई भी बाधा नहीं डाल सकती ।
इसलिए जिन-जिन लोगों- स्कॉट, डच, फ्रांसीसी ह्व्रुजनो और अंग्रेज, प्युरिटन ने कालविन के धर्म को अपनाया, वे सभी अपने दृढ़ आत्मविश्वास उद्यम और चरित्र बल के लिए प्रसिद्ध थे । वे प्राय: व्यापारी और शिल्पी थे ।
अतएव, यह स्पष्ट है कि कालविन के धर्म को व्यापारियों का समर्थन इसलिए मिला कि उसके सिद्धांतों से उनके व्यापार को बड़ा लाभ हुआ । वास्तव में “19वीं शताब्दी के सर्वहारा के लिए जो मार्क्स ने किया, वही 16वीं शताब्दी के मध्यम-वर्ग के लिए कालविन ने ।”
कालविन तत्कालीन पूँजीवादी विकास का समर्थक था । जिस प्रकार लूथर ने अपने धर्म को जर्मन राजकुमारों और किसानों की सहायता से प्रतिष्ठित करने की चेष्टा की, उसी प्रकार कालविन ने व्यापारियों और मध्यम-वर्ग के लोगों के समर्थन से अपने धर्म को मजबूत किया ।
कालविन ने बताया कि सूद लेना उचित है, किंतु इसे एक निश्चित सरकारी सीमा से अधिक नहीं बढ़ना चाहिए । और यदि सीमा निश्चित भी हो, तो गरीबों को मुफ्त में कर्ज देना चाहिए । उसने इस बात पर जोर दिया कि पूंजी के लिए सूद लेना उतना ही ठीक है, जितना कि जमीन के लिए मालगुजारी लेना ।
कारोबार में मुनाफा को वह उचित समझता था । कालविन के इन विचारों के कारण व्यापारी वर्ग का समर्थन प्रान्त हुआ । यद्यपि कालविन फ्रांसीसी था, उसने जिनेवा को अपना कार्यक्षेत्र बनाया ।
1536 ई. से अपनी मृत्यु के समय 1564 ई. तक वह वहीं रहा । इस काल में उसने नगर की धार्मिक संस्थाओं का ही नहीं, बल्कि उसकी शिक्षा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था तथा व्यापार का भी संचालन किया ।
वह शहर का वास्तविक शासक बन गया । वहाँ उसने अपने उग्र विचारों को कार्यरूप में परिणत करने की चेष्टा की । कालविनवाद का प्रचार स्विट्जरलैंड, डच नीदरलैंड, स्कॉटलैंड और जर्मन पैलेटिनेट में हुआ । इंगलैण्ड और फ्रांस में भी कालविन के अनुयायी थे ।
संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थापना में कालविन के अनुयायियों का बड़ा हाथ था । आधुनिक अमेरिका में पाये जानेवाले कांग्रेगेसनेलिस्ट, प्रेस्बीटेरियन ओर बैपटिस्ट कालविन के ही अनुयायी हैं ।
प्रमुख प्रारंभिक प्रोटेस्टेंट ग्रुपों में कालविनवादी सबसे अधिक उत्साही और सुसमाचारी थे । जहाँ कहीं भी कालविनवाद का प्रचार हुआ, वहाँ उसने मध्यम-वर्ग, जनतंत्र और सार्वजनिक शिक्षा के विकास में भी योगदान दिया ।
यद्यपि कालविन लूथर की तुलना में अधिक कट्टर था, उसके उपदेश और विधि-विधान लूथर से अधिक सरल थे । लूथर ने तीन संस्कारों को माना और वह चमत्कारों को प्रतीक के रूप में स्वीकार करने को तैयार था ।
कालविन ने दो संस्कार माने और चमत्कारों को बिल्कुल नकार दिया । दोनों ने आडंबर का विरोध किया, लेकिन उनके सुधार के तरीके सर्वथा भिन्न थे । अपने-अपने तरीके से दोनों ने धार्मिक कुरीतियों को दूर करने में सफलता प्राप्त की ।
आंग्ल धर्म:
इंगलैण्ड में प्रोटेस्टैंट चर्च की स्थापना सर्वथा भिन्न परिस्थिति में हुई । वहाँ लूथर, कालविन या नॉक्स जैसा कोई सुधारक नहीं हुआ । धर्मसुधार आंदोलन का नेतृत्व इंगलैण्ड के राजाओं ने किया । इंगलैण्ड में धर्म-सुधार आंदोलन की शुरूआत सम्राट हेनरी अष्टम के पुत्र प्राप्ति की इच्छा से शुरू हुई । उसकी पहली पत्नी कैथरिन ऑफ ऐरागॉन 18 वर्ष में सिर्फ एक पुत्री ही पैदा कर सकी ।
जब उसे विश्वास हो गया कि कैथरिन दूसरा बच्चा नहीं पैदा कर सकती, तो उसने पोप से आग्रह किया कि वह कैथरिन के साथ उसके विवाह को अमान्य घोषित कर दे । पोप हेनरी के लिए यह कर तो सकता था, किंतु उसे डर था कि कैथरिन के त्याग को उसका भतीजा सम्राट चार्ल्स पंचम कभी पसंद नहीं करेगा ।
सम्राट चार्ल्स पंचम से पोप डरता था, क्योंकि रोम की रक्षा सम्राट चार्ल्स पंचम की सेना ही करती थी और कैथरिन सम्राट चार्ल्स पंचम की बुआ थी । जब पोप ने हेनरी अष्टम के आग्रह को टाल दिया, तब हेनरी ने अपने आज्ञाकारी संसद को ऐक्ट ऑफ सुपरमेसी पास करने के लिए तैयार कर लिया ।
इस ऐक्ट के अनुसार इंगलैण्ड के शासक को इंगलैण्ड के चर्च का सर्वोच्च अधिकारी घोषित किया गया । अब पोप इंगलिश चर्च का प्रधान नहीं रहा । एक झटके में रोम से संबंध विच्छेद कर लिया गया ।
बाद में मठों की संपत्ति जब्त कर ली गई । फिर उसने क्रैमर को कैंटरबरी का बिशॉप बनाया जिसने कैथरिन के साथ उसके विवाह को गैरकानूनी घोषित कर दिया । अब हेनरी अष्टम् ने एन बोलिन के साथ विवाह कर लिया ।
हेनरी रोम से अलग होकर इंगलैण्ड का स्वतंत्र कैथोलिक चर्च बनाये रखना चाहता था । उसके समय में आंग्ल चर्च न पूरी तरह कैथोलिक रह सका और न प्रोटेस्टैंट । हेनरी के उत्तराधिकारी एडवर्ड VI (1547-53) के शासनकाल में आंग्ल चर्च प्रोटेस्टैंट बन गया ।
क्रैमर ने ‘बुक ऑफ कॉमन प्रेयर’ नामक पुस्तक प्रकाशित करवायी और प्रसिद्ध बयालिस सिद्धांतों की घोषणा हुई । इनमें प्रोटेस्टैंट और कुछ हद तक कालविनवादी विचारों को स्थापित किया गया । एडवर्ड VI अपने युवाकाल में ही मर गया जिससे प्रोटेस्टैंट सुधार की नीति को एक धक्का लगा ।
कैथरिन की पुत्री मेरी शासन की उत्तराधिकारी बनी । वह अपनी माँ की तरह कट्टर कैथोलिक थी । उसने अपने दो पूर्ववर्ती शासकों के कार्यों को पूरी तरह नकार दिया । रोम से फिर संबंध स्थापित हुआ ।
संसद को अपने द्वारा पास किए गए कानून बदलने पड़े । नए कानूनों के विरोधियों को जान से हाथ धोना पड़ा । क्रैमर को जिंदा जला दिया गया । अपनी कैथोलिक प्रवृत्तियों को पुष्ट करने के लिए मेरी ने उस समय के सबसे कट्टर कैथोलिक समर्थक शासक स्पेन के फिलिप द्वितीय से विवाह कर लिया ।
इंगलैण्ड के लोगों ने इस विवाह का भारी विरोध किया । कानूनों के बावजूद प्रोटेस्टैंट विचारधारा फैलती रही । मेरी निस्संतान मरी और शासन हेनरी तथा एन बोलिन की पुत्री एलिजाबेथ के हाथों में आ गया ।
एलिजाबेथ बहुत योग्य शासिका थी । उसे धर्म से उतना ही लगाव था जितना राजनीतिक हितों के लिए आवश्यक हो । इसीलिए वह धर्म का इस्तेमाल राजनीतिक हितों के लिए करना चाहती थी ।
उसके शासनकाल में आंग्ल धर्म का अंतिम स्वरूप निश्चित हुआ । आंग्ल चर्च जिसे एपिस्कोपल चर्च भी कहते हैं, की स्वतंत्रता फिर से स्थापित हुई और क्रैमर की पुस्तक को संशोधित करके फिर से प्रकाशित किया गया ।
बयालिस सिद्धांतों को थोड़ा संशोधित करके उन्नतालिस सिद्धांतों के नाम से फिर से लागू किया गया । आंग्ल चर्च को वैधानिक सत्ता प्रदान करने के लिए ‘सर्वोच्चता और एकरूपता का कानून’ पास किया गया ।
एलिजाबेथ ने बीच का रास्ता अपनाया । वह इंगलैण्ड को उग्र प्रोटेस्टैंट नहीं बनाना चाहती थी । न ही वह कैथोलिक लोगों का अंत करने के पक्ष में थी । राष्ट्रीय चर्च में शामिल न होने पर जुर्माना देना पड़ता था, लेकिन उन्हें कोई शारीरिक दंड नहीं दिया जाता था ।
प्रोटेस्टैंटवाद को धीरे-धीरे इंगलैण्ड की जनता ने स्वीकार कर लिया । यद्यपि कुछ उग्र प्रोटेस्टैंट विशुद्धतावादी प्युरिटन और कट्टर कैथोलिक असंतुष्ट ही रहे, लेकिन एलिजाबेथ की योग्यता और दूरदर्शिता की वजह से आंग्ल चर्च स्थायी साबित हुआ ।
16वीं शताब्दी के अंत तक वहाँ एक ऐसे राष्ट्रीय चर्च की स्थापना हो गई, जो इतिहासकार फिशर के अनुसार- ”प्रशासनिक रूप से इरेस्टीयन, कर्मकांड में रोमन और धर्मशास्त्रीय संदर्भ में कालविनवादी था ।” आंग्ल चर्च का यह मिश्रित स्वरूप उसके स्थायित्व का आधार बन गया ।
निष्कर्ष:
16वीं शताब्दी के अंत तक प्रोटेस्टैंटवाद उत्तरी जर्मनी, स्केंडेनेविया, बाल्टिक प्रांतों, अधिकांश स्विट्जरलैंड, डच नीदरलैंड, स्कॉटलैंड और इंगलैण्ड में विजयी हो चुका था । इसके अतिरिक्त फ्रांस, बोहेमिया, पोलैंड और हंगरी में भी इसके काफी अनुयायी हो गए थे । यद्यपि विभिन्न प्रोटेस्टैंट शाखाओं के बीच काफी मतभेद था, परंतु वे सभी रोमन कैथोलिक चर्च के विरोधी थे ।
सभी प्रोटेस्टैंट धर्मावलंबियों ने पोप की सर्वोच्चता, रोमन चर्च की दैवी सत्ता, ब्रह्मचर्य, मठों के अधिकार और परगेटरी ट्रांसअवस्टेनशिएसन, संतों के आह्वान और पुराने स्मृति चिह्नों की पूजा का विरोध किया । इस प्रकार धर्मसुधार आंदोलन ने ईसाई दुनिया को दो परस्परविरोधी खेमों में विभक्त कर दिया ।
ii. रोमन कैथोलिक धर्मसुधार (Roman Catholic Reformation):
रोमन कैथोलिक चर्च में सुधार:
रोमन कैथोलिक चर्च पश्चिमी ईसाई जगत के आधे हिस्से को खो चुका था और बाकी आधे हिस्से को खोने का खतरा महसूस कर रहा था । इस खतरे ने रोमन कैथोलिक चर्च के अंदर सुधार आंदोलन को जगाया ।
16वीं शताब्दी के मध्य तक रोमन कैथोलिक सुधार आंदोलन काफी आगे बढ़ चुका था । चर्च में नया उत्साह पैदा किया गया और प्रोटेस्टैंटों के विरुद्ध प्रत्याक्रमण शुरू किया गया । इस रणनीति ने न केवल आधे ईसाई जगत को रोमन कैथोलिकों के लिए सुरक्षित रखा, बल्कि प्रोटेस्टेंटवाद को पीछे की ओर भी धकेला ।
सुधार आंदोलन का आरंभ:
लूथर और कालविन के विरोध के बहुत पहले ही कुछ निष्ठावान रोमन कैथोलिकों द्वारा सुधार की माँग हुई थी । स्पेन में 16वीं शताब्दी के अंत में कार्डिनल जिम्मेंस ने पादरियों में दृढ़ अनुशासन लागू करके और विधर्मियों के विरुद्ध संघर्ष करके एक प्रत्याशित प्रोटेस्टैंट विद्रोह को होने से रोक दिया ।
लेकिन, यूरोप के अन्य देशों में इस तरह के सुधार की कोशिश पहले नहीं की गई । अब जब एक के बाद एक राज्य प्रोटेस्टैंट बनता जा रहा था तब कुछ सशक्त उपायों की आवश्यकता महसूस की गई । प्रोटेस्टैंटवाद के प्रवाह को रोकने के लिए दो तरह के प्रत्युपाय सुझाये गए ।
वेनिस के उदारवादी कार्डिनल कोंटारेनी ने समझौता और मेलमिलाप का सुझाव दिया । दूसरे तरह का सुझाव नेपुल्स के कार्डिनल कराफॉ ने दिया । कराफॉ ऐसा मानता था कि प्रोटेस्टैंटवाद से समझौते की आवश्यकता नहीं है बल्कि चर्च के अंदर व्याप्त भ्रष्ट आचरणों को रोका जाना चाहिए ।
उसने कहा कि प्रोटेस्टैंट विधर्मी हैं और जबतक वे पोप के प्रति अपनी सर्वोच्च भक्ति समर्पित नहीं करते हैं, तबतक उनके साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा । इसी विचारधारा की जीत हुयी और कराफॉ पॉल चतुर्थ के रूप में पोप बना । पोप पॉल चतुर्थ के समर्थकों के इच्छानुसार उत्तरी इटली के ट्रेंट नामक जगह में चर्च कौंसिल की बैठक बुलायी गयी ।
ट्रेंट की कौंसिल (The Council of Trent):
ट्रेंट की सभा कुछ अंतराल के साथ 1545 से 1563 ई. तक कार्यरत रही । इसी सभा में चर्च के सिद्धांतों की परिभाषा और व्याख्या नए सिरे से की गई । ट्रेंट की सभा में दो तरह के निर्णय लिए गए- सिद्धांतगत और सुधार संबंधी ।
चर्च के मूल सिद्धांतों में कोई परिवर्तन नहीं स्वीकार किया गया । स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया कि बाइबिल की व्याख्या का अधिकार सिर्फ चर्च को है । सातों संस्कार अपरिवर्तनीय माने गए ।
मुक्ति का आधार चर्च के माध्यम से संपन्न कार्य बताये गये और चमत्कार में आस्था व्यक्त की गई । पोप को चर्च का सर्वोच्च अधिकारी और सर्वमान्य व्याख्याता स्वीकार किया गया । संक्षेप में सैद्धांतिक दृष्टि से परंपरागत रूप को ही फिर से दोहराया गया ।
सुधार के क्षेत्र में चर्च के पदों की बिक्री समाप्त कर दी गई, अधिकारियों को निर्देश दिया गया था कि वे अपने कार्यक्षेत्र में रहकर आदर्श जीवन बिताते हुए सुविधाजीवी होने से बचें ।
पादरियों की उपयुक्त शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया गया । धर्म की भाषा लैटिन ही रही, लेकिन लोकभाषाओं का प्रयोग करने की भी आज्ञा मिल गई । क्षमा-पत्रों की बिक्री रोक दी गई और संस्कार संबंधी कार्यों के लिए पादरियों के आर्थिक लाभ पर प्रतिबंध लगा दिया गया ।
अब एक अधिकारी एक ही कार्य कर सकता था । इन को लागू करने के लिए धार्मिक न्यायालय (इनक्यूजिशन) को मान्यता दी गई । ऐसी पुस्तकों की एक सूची बनायी गई जो पूर्णत: या अंशतः चर्च विरोधी थी ।
कुछ पुस्तकों को पूरी तरह निषिद्ध कर दिया गया और कुछ का अंश निकाल कर पढ़ने योग्य समझा गया । इन कार्यों से चर्च में आत्मविश्वास जागा; उसकी पुरानी गति लौट आई; उसका ढीलापन दूर होने लगा । यही कारण है कि ट्रेंट की कौंसिल का चर्च के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है ।
सोसायटी ऑफ जेसस:
कैथोलिक चर्च को नया जीवन प्रदान करनेवालों में इग्नेशियस लोयला (1491-1556) का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है । स्पेन निवासी लोयला एक बहादुर सैनिक था । युद्ध में आहत लोयला अध्ययन में जुट गया ।
पेरिस जाकर उसने धर्म का विशद अध्ययन किया और उसने अपना सारा जीवन चर्च को समर्पित कर दिया । चर्च को नए सिरे से संगठित करने के लिए उसने सोसायटी आफ जेसस की स्थापना की । इसके सदस्य जेसुइट कहलाने लगे ।
सोसायटी ऑफ जेसस का पूरा संगठन सैनिक आधार पर था । हर सदस्य कठोर अनुशासन में बंधा हुआ था । वही व्यक्ति इस संस्था का सदस्य बन सकता था जिसने अपने सारे भौतिक नाते-रिश्तों को तोड़ लिया हो । वैसे ही अभ्यर्थियों को इस संस्था में दाखिला मिलता था जो उच्च प्रतिभा, अच्छे स्वास्थ्य और आकर्षक व्यक्तित्ववाले होते थे । दो वर्षों तक उन्हें कठोर प्रशिक्षण दिया जाता था ।
इस प्रशिक्षण के दौरान जो किसी भी तरह की कमजोरी का परिचय नहीं देते थे, उन्हें विशिष्ट कार्यों के लिए फिर लंबे अरसे तक कठोर शिक्षा दी जाती थी और तब उन्हें पादरी, शिक्षक, डॉक्टर, कूटनीतिक दूत इत्यादि का कार्य सौंपा जाता था ।
इस संस्था में एक अंतर्निहित आक्रमकता थी क्योंकि लोयला जानता था कि चर्च के जीवन-मरण का प्रश्न है । वह अपने अनुयायियों को केवल पवित्र जीवन के लिए ही नहीं, बल्कि चर्च की रक्षा और प्रसार के लिए तैयार करता था ।
दीनता, पवित्रता, आज्ञापालन और पोप के प्रति समर्थन की शपथ हर सदस्य को लेनी पड़ती थी । जेसस समाज के सदस्यों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन और उत्प्रेरण के लिए लोयला ने स्पीरिचुअल एक्सरसाइजेज की रचना की ।
शुरू से ही जेसुइट लोगों ने शिक्षा को आधार बनाकर शिक्षक के रूप में जो सद्भावना प्राप्त की, वह आज भी कायम है । वे युवकों के सीधे संपर्क में आते थे और आसानी से उन्हें प्रभावित कर लेते थे ।
अधिकांश रोमन कैथोलिक देशों में जेसुइटों ने शिक्षा पर नियंत्रण स्थापित कर लिया । प्रचार कार्य में भी उनका मुकाबला करना मुश्किल था । शास्त्रों की उनकी तर्कपूर्ण व्याख्या से पादरी लोग भी प्रभावित होते थे ।
बाद में चलकर तो वे कूटनीतिक सेवाओं में भी कार्य करने लगे । वे जहाँ जाते अपना प्रभाव अवश्य छोड़ते थे । उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य विदेशों में हुआ । वे बहुत अच्छे मिशनरी थे और दूर-दराज के देशों में कैथोलिक चर्च के नए क्षेत्र बनाने में अग्रगामी साबित हुए ।
सुदूर-पूर्व में फ्रांसिस जेवियर ने हजारों लोगों को जेसुइट विचार-धारा में परिणत किया । जेसुइट लोगों ने चर्च का प्रभाव बढ़ाने के लिए राजनीति, कृषि, साहित्य, सेवा, आचार-व्यवहार-हर तरीका अपनाया और बहुतेरे ऐसे क्षेत्र बचा लिए जो निश्चित रूप से प्रोटेस्टैण्ट लोगों की चपेट में आ जाते ।
अमेरिका, इटली, पोलैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, इंगलैण्ड हर कहीं उन्होंने कैथोलिक लोगों को आश्वस्त किया, परिवर्तन के लिए उन्मुख लोगों को रोका और परिवर्तित लोगों को फिर से कैथोलिक बनाया ।
यूरोप में धार्मिक युद्ध:
प्रोटेस्टैण्टों के विरुद्ध रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा शुरू किए प्रत्याक्रमण में सबसे अधिक सहायक स्पेन का सम्राट फिलिप II था । सम्राट चार्ल्स पंचम ने अपने विशाल साम्राज्य का अधिकांश हिस्सा अपने पुत्र फिलिप द्वितीय (1556-98) के लिए छोड़ा था ।
स्पेन के अतिरिक्त उसका अधिकार नीदरलैण्ड, फ्रेंच कोम्टे, दोनों सिसली, सार्डिनिया, बेलियरिक टापू, अफ्रीका के पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्र और पश्चिमी गोलार्द्ध पर भी था ।
सोलहवीं शताब्दी में स्पेन दुनिया की सबसे बड़ी सैनिक शक्ति माना जाता था । वह कट्टर रोमन कैथोलिक था । वह पश्चिमी ईसाई जगत में स्पेन की शक्ति और वैभव द्वारा रोमन कैथोलिक चर्च की सत्ता पुन: स्थापित करना अपने जीवन का उद्देश्य मानता था ।
नीदरलैण्ड, इंगलैण्ड और फ्रांस में प्रोटेस्टैण्टों के विरुद्ध रोमन कैथोलिकों के प्रत्याक्रमण में फिलिप II ने स्पेन की सारी-शक्ति रोमन कैथोलिकों के पक्ष में लगा दी । स्पेनी शासन के विरुद्ध नीदरलैण्ड के विद्रोह का सबसे प्रमुख कारण धार्मिक था ।
नीदरलैण्ड के दक्षिणी (बेलजियन) प्रान्तों में रोमन कैथोलिक चर्च का ही बोलबाला था किन्तु उत्तरी (डच) प्रान्तों मे कालविनवाद का जोर था । फिलिप II ने डच प्रोटेस्टैण्टवाद को समाप्त करने के लिए कड़ा कदम उठाया, क्योंकि वह विधर्मिता बर्दास्त नहीं कर सकता था ।
विधर्मिता के विरुद्ध कानून लागू करने के लिए इनक्यूजिशन लागू किया गया और बारह नए रोमन कैथोलिक बिशप के पदों का सृजन किया गया । 1566 ई. में नीदरलैंड के 400 प्रमुख कुलीनों ने अपनी माँगों की तालिका लुई फिलिप के सामने प्रस्तुत किया ।
जब उनकी कोई माँग नहीं मानी गई तब प्रोटेस्टैंटों के गिरोह ने रोमन कैथोलिक चर्च का रूप बिगाड़ना आरंभ किया । इसपर फिलिप ने अल्वा के ड्युक के नेतृत्व में दस हजार स्पेनी सैनिक नीदरलैंड के दमन के लिए भेजा । छह साल तक आतंक का राज्य कायम रहा है और हजारों डच मारे गए ।
परंतु डचों ने डरने के बदले हथियार उठा लिया । विलियम ऑफ ऑरेंज के नेतृत्व में डचों ने स्पेनी संचार और व्यापार पर आक्रमण करना शुरू किया । 1580 ई. में डचों ने पूर्वी द्वीपसमुह में पुर्तगाली साम्राज्य पर कब्जा कर लिया जो फिलिप द्वितीय के कब्जे में था ।
उत्तरी प्रोटेस्टैंट राज्यों की बढ़ती हुई शक्ति से डर कर दक्षिणी दस रोमन प्रांतों ने स्पेन का संरक्षण स्वीकार किया । किंतु, सात कालविनवादी उत्तरी प्रांतों ने युट्रेट के संघ और अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष जारी रखा ।
जब 1584 ई. में विलियम ऑफ ऑरेंज की हत्या कर दी गई तब कई योग्य नेताओं ने उसका स्थान लिया । अंत में फिलिप की मृत्यु के ग्यारह साल बाद 1609 ई. में स्पेन ने बारह वर्ष के लिए युद्ध-स्थगन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और 1648 ई. में स्पेन ने डच नीदरलैंड की पूर्ण स्वतंत्रता को मान्यता दे दी ।
तेरह अमेरीकी उपनिवेशों की स्वतंत्रता की तरह डचों का स्वतंत्रता-संग्राम साहस और शौर्य से भरा था । इस प्रकार, नीदरलैंड में फिलिप द्वितीय का धर्मयुद्ध अंशत: सफल रहा । दक्षिणी प्रांतों को वह स्पेन और रोमन कैथोलिक चर्च के लिए सुरक्षित रख सका ।
लेकिन, डच प्रांत स्पेन और रोमन कैथोलिक चर्च के हाथों से निकल गया । धर्मयुद्ध के क्षेत्र में फिलिप द्वितीय का सबसे शानदार प्रयास रोमन कैथोलिक चर्च के अंदर इंगलैण्ड को लाने का प्रयास था ।
उसने इंगलैण्ड की रोमन कैथोलिक रानी मेरी ट्युडर से शादी की । परंतु इस विवाह ने और इंगलिश प्रोटेस्टैंटों की हत्या ने न केवल महारानी को, बल्कि रोमन कैथोलिक चर्च को भी, इंगलैण्ड की जनता की नजरों से गिरा दिया ।
फिर यह शादी रोमन कैथोलिक उत्तराधिकारी पैदा नहीं कर सकी । 1558 ई. में जब दुखी मेरी की मृत्यु हो गई, तो फिलिप ने इंगलैण्ड में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए मेरी की उत्तराधिकारिणी एलिजाबेथ से विवाह करने का प्रयास किया ।
परंतु, एलिजाबेथ प्रोटेस्टैंट थी और देशभक्त थी । इसलिए वह चालाकी से फिलिप द्वितीय के इस शादी के प्रस्ताव को टालती रही । अपनी योजना को असफल होते देख फिलिप ने एलिजाबेथ की हत्या का षड्यंत्र किया ।
एलिजाबेथ के बाद इंगलैण्ड की गद्दी की दूसरी दावेदार रोमन कैथोलिक मेरी स्टुअर्ट थी । स्कॉटलैंड की कालविनवादी जनता ने अपनी महारानी मेरी स्टुअर्ट को स्कॉटलैंड छोड़ने के लिए बाध्य किया ।
वह भागकर एलिजाबेथ की शरण में आयी और काफी दिनों तक नजरबंद रही । बाद में एलिजाबेथ को मालूम हुआ कि फिलिप द्वितीय द्वारा उसकी हत्या की साजिश में मेरी स्टुअर्ट भी शामिल थी ।
अत: 1587 ई. में एलिजाबेथ ने मेरी स्टुअर्ट को फाँसी की सजा दी । इस बीच एलिजाबेथ डच प्रोटेस्टैंट-विरोधियों को सहायता दे रहीं थी और अंग्रेज समुद्री लुटेरों को स्पेनी जहाजों को लूटने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी ।
जब लुई फिलिप को मेरी स्टुअर्ट की फाँसी का समाचार मिला तो उसने अपने अजेय जहाजी बेड़े की सहायता से इंगलैण्ड को जीतने का निर्णय लिया । परंतु 1580 ई. में इंगलैण्ड ने स्पेनी आर्मडा को ध्वस्त कर दिया ।
स्पेनी आर्मडा की पराजय के फलस्वरूप समुद्र पर इंगलैण्ड का दबदबा स्थापित हो गया । इंगलैण्ड से प्रोटेस्टैंटवाद को समाप्त करने का फिलिप द्वितीय का मंसूबा असफल रहा । अब प्रोटेस्टैंटवाद पहले की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बन चुका था ।
धर्मसुधार आंदोलन के परिणाम:
धर्मसुधार आंदोलन के परिणाम- कैथोलिक धर्मसुधार या काउंटर रिफार्मेशन और यूरोप में धार्मिक युद्धों की चर्चा हम कर चुके हैं । कुछ अन्य प्रमुख परिणामों की चर्चा हम यहाँ करेंगे ।
धर्मसुधार और बौद्धिक प्रगति:
जिस बौद्धिक आंदोलन ने धर्मसुधार के उदय में सहायता दी थी उसके प्रसार से उस आंदोलन को और बल मिला । अपने नवीन सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए प्रोटेस्टैंट इस बात पर जोर देते थे कि प्रत्येक व्यक्ति को बाइबिल स्वयं पढ़ने और उसका स्वयं अर्थ लगाने का अधिकार है ।
वे समझते थे कि ऐसी स्वतंत्रता मिलने से लोग उन्हीं के रास्ते पर आ जाएँगे और कैथोलिक धर्म के बाह्याडंबर को भूलने लगेंगे । जहाँ कैथोलिक धर्म पूजा पर अधिक जोर देता था, वहाँ प्रोटेस्टैंट धर्म व्यक्तिगत विचार और विश्वास पर अधिक जोर देता था ।
प्रोटेस्टैंट धर्म शिक्षा के प्रचार कार्य पर अधिक जोर देता था । इसके प्रवर्तक चाहते थे कि गृहस्थी में धर्म के प्रति जागृति हो और वे धर्म-सिद्धांत संबंधी समस्याओं में अभिरुचि दिखायें । फलस्वरूप सभी प्रोटेस्टैंट देशों में बौद्धिक तथा अनुशीलन संबंधी वातावरण पैदा हुआ । धार्मिक संप्रदायों की संख्या बढ़ने लगी । दर्शन और विज्ञान पर रचनाएँ होने लगीं और पुस्तकों का व्यापार बढ़ने लगा ।
धर्मसुधारकों को इस बात की बड़ी चिंता थी कि उनके उपदेश जनता के पास कैसे पहुँचें । अभी तक धार्मिक पुस्तकें प्रधानतः लैटिन भाषा में थीं, जबकि सुधारकों ने अपनी रचनाओं और उपदेशों के लिए लोकभाषा को अपना माध्यम बनाया । जनसाधारण तक धार्मिक उपदेश फैलाने के विचार से अंग्रेजी और जर्मन आदि लोकभाषाओं में बाइबिल का अनुवाद हुआ और इससे देशी भाषा सबल और समृद्धशाली हुई ।
धर्मसुधार और राष्ट्रीय राजा की शक्ति में वृद्धि:
धर्मसुधार के कारण राष्ट्रीय राजा की शक्ति और प्रतिष्ठा में और विकास हुआ । बिना राष्ट्रीय राजाओं की सहायता के प्रोटेस्टैंट आंदोलन का सफल होना संभव नहीं था ।
रोमन कैथोलिक चर्च अंतर्राष्ट्रीय संस्था थी और राजाओं की सर्वोच्च सत्ता को नहीं मानती थी, किंतु प्रोटेस्टैंट आंदोलन ने एक ओर चर्च के अधिकारों का विरोध किया और दूसरी ओर राज्य के प्रति अपनी आज्ञाकारिता और कर्त्तव्य की घोषणा की ।
उस समय पतनोन्मुख सामंत वर्ग की अराजक प्रवृत्तियों को दबाने और नवोदित मध्यम वर्ग को सहायता पहुँचाने के लिए समाज में एक त्राता की आवश्यकता थी । धर्मसुधार ने राजा को भी इस त्राता के रूप में दीक्षित किया और कहा कि राजा नया मसीहा है और वही समाज का त्राण कर सकता है । दरअसल धर्मसुधार राज्य की अंतिम और सबसे बड़ी विजय थी ।
इसके कारण राजा ने न केवल चर्च पर ही अपना अधिकार जमाया, बल्कि अपने राष्ट्र की सीमाओं के भीतर अपनी सता को अक्षुण्ण और निर्द्वंद्व बनाया । उदाहरण के लिए इंगलैण्ड की सीमा के भीतर अब किसी विदेशी पादरी अथवा चर्च का कुछ नहीं चल सकता था ।
वहाँ का राजा अपने राष्ट्रीय चर्च का प्रधान था और रोम के पोप को उसके मामलों में दखल देने का कोई अधिकार नहीं था । हर प्रोटेस्टैंट राज्य में राष्ट्रीय चर्च की स्थापना हुई और इससे राजा की शक्ति बहुत बढ़ी । कैथोलिक राज्य भी धर्मसुधार के इस प्रभाव से अछूते नहीं रहे ।
फ्रांस कैथोलिक देश था, परंतु पुराने अर्थ में नहीं । वहाँ का चर्च राष्ट्रीय बन गया, राजा की शक्ति अधिक बढ़ गई और संघर्ष के कारण राष्ट्रीय भावना अधिक जागृत हुई । कैथोलिक पक्ष का समर्थक स्पेन भी अब पोप की सत्ता पर पहले की अपेक्षा कम निर्भर रहने लगा ।
धर्मसुधार और सांवैधानिक प्रगति:
शुरू में धर्मसुधार से राजा की शक्ति में अभूतपूर्व वृद्धि हुई, किंतु बाद में इसी के कारण एक-आध देशों में राजा की शक्ति पर प्रतिबंध लगाने के भी प्रयत्न होने लगे और इससे देश में सांवैधानिक प्रगति हुई ।
प्रोटेस्टैंटों की सहायता से जब इंगलैण्ड के राजा ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ बना लिया तो 17वीं शताब्दी के आरंभ में उन्होंने स्वेच्छाचारी शासन स्थापित करने का प्रयास किया ।
इंगलैण्ड में राजा और संसद के बीच संघर्ष का एक प्रमुख कारण धार्मिक था । जब स्टुअर्ट राजा अपने ढंग का धर्म चलाने लगे और कैथोलिक देशों के साथ संबंध जोड़ने लगे तो इंगलैण्ड में प्यूरिटनों ने उनका प्रबल विरोध किया ।
यहाँ तक कि इस कारण 1642 ई. में वहाँ गृह-युद्ध छिड़ गया और 1649 ई. में प्यूरिटनों ने वहाँ के स्वेच्छाचारी राजा चार्ल्स प्रथम को फाँसी पर लटका दिया । यह गृहयुद्ध राजा पर संसद की विजय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था ।
धर्मसुधार और नवीन आर्थिक आदर्श:
ऐसे तो लगता है कि धर्म का अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता, किंतु तत्कालीन अर्थव्यवस्था पर धर्मसुधार का गहरा प्रभाव पड़ा । कालविनवाद ने व्यापार और वाणिज्य का समर्थन किया था ।
जहाँ पहले कैथोलिक पादरी धन-प्राप्ति के मार्ग को नरक का मार्ग बताते थे, वहाँ अब प्रोटेस्टैंट संप्रदाय धन-प्राप्ति को धर्मानुकूल बताने लगा । 16वीं शताब्दी में सूद और मुनाफे के संबंध में धार्मिक विचार बदलने लगे । प्रोटेस्टैंट धर्मावलंबियों ने सिखाया कि जो लोग धन प्राप्त करने के अवसर से लाभ नहीं उठाते हैं, वे ईश्वर की सेवा नहीं करते । अब सूद लेना और मुनाफा कमाना उचित बताया जाने लगा ।
कालविन ने बतलाया था कि एक हद तक सूद लेना और मुनाफा कमाना ठीक है । किंतु बाद के अनुयायियों ने व्यापारी जीवन की स्पष्ट रूप से प्रशंसा की और व्यापार को ईश्वर की सेवा, आत्मा का शिक्षण-शिविर बताया । अतएव वाणिज्य-व्यापार पर से धार्मिक प्रतिबंधों के हट जाने से इनका तेजी से विकास हुआ ।