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परिणाम की दृष्टि से प्रथम विश्वयुद्ध विश्व-इतिहास का एक वर्तन-बिन्दु था । इसमें जन और धन की जो हानि हुई, वह तो विस्मयकारी थी ही; इसने एक ही साथ कई साम्राज्यों और राजवंशों को ध्वस्त कर दिया । आस्ट्रिया-हंगरी का साम्राज्य बिखर गया और हैप्सबर्ग राजवंश का अन्त हो गया ।

1917 ई॰ में ही रूस की क्रांति ने रोमोनोव राजवंश को समाप्त कर वहाँ गणराज्य की स्थापना कर दी थी और अधिकृत प्रदेशों को स्वतन्त्र कर दिया था । जर्मनी और तुर्की की भी यही दुर्गति हुई । इन तात्कालिक परिणामों के अतिरिक्त प्रथम विश्वयुद्ध के कुछ ऐतिहासिक परिणाम भी निकले, जिनका महत्व अत्यन्त दूरगामी था ।

इस युद्ध में धन-जन का अपार विनाश हुआ । चालीस से कम उम्र के लगभग एक करोड़ लोग मारे गए और लगभग दो करोड़ लोग घायल हुए । 1790 से 1913 ई॰ तक संसार के विभिन्न भागो में होनेवाले सभी प्रमुख युद्धों में जितने सैनिक मारे गए, उससे दुगुने से भी अधिक संख्या में लोग प्रथम विश्वयुद्ध में मारे गए ।

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जनसंख्या की इस भारी क्षति का असर लिंग और उम्र पर भी हुआ । युद्ध में मरनेवालों में औरतों की संख्या बहुत कम थी । इसलिए युद्ध के कारण मर्द और औरत के अनुपात में भारी अंतर आया । इंग्लैण्ड, में 1911 ई॰ में प्रत्येक 1,000 मर्द पर 1067 औरतें थीं । 1921 ई॰ में वहाँ 1,000 मर्द पर 1,093 औरतें थीं । इस असंतुलन के कारण युद्ध के बाद ‘अतिरिक्त महिलाओं’ की समस्या पर बहस हुई ।

यूरोप की जन्मदर जो 1914 ई॰ के पहले ही पतनोन्मुख थी, युद्ध के दौरान तेजी से गिर गयी । इसका कारण यह था कि युद्ध के दौरान पारिवारिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था । लेकिन, युद्ध के तुरंत बाद जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई । इस तथ्य का अंदाज 1930 ई॰ में यूरोपीय स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चों के कड़े से लगता है ।

1930 ई॰ में स्कूलों में ग्यारह से पन्द्रह साल की उम्र के बच्चों की संख्या काफी कम थी, जबकि पाँच से दस वर्ष के बच्चों की संख्या काफी अधिक थी । इस ‘उम्र उभार’ की समस्या का असर 1960 ई॰ तक दिखाई पड़ता है ।

संपत्ति के विनाश की दृष्टि से भी यह युद्ध अभूतपूर्व था । युद्ध में सम्मिलित सभी पक्षों को लगभग 18 करोड़ 60 लाख डॉलर खर्च करने पड़े । इसके अतिरिक्त, युद्ध में लगभग 39 अरब डॉलर मूल्य की संतति नष्ट हुई । कुल मिलाकर विभिन्न राष्ट्रों को युद्ध के कारण लगभग 337 करोड़ डॉलर का आर्थिक बोझ उठाना पड़ा । लगभग सभी सरकारों को अपनी वित्तीय स्थिति को नियंत्रित करने के लिए अधिकाधिक संख्या में नोट छापने पड़े जिसके फलस्वरूप मुद्रास्फीति की भयंकर समस्या उठ खड़ी ।

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मुद्रास्फीति का तीखा फल सभी वर्ग के लोगों को चखना पड़ा । विशेषकर निश्चित आमदनीवाले लोग तो तबाह हो गए उनकी सामाजिक स्थिति, मान-मर्यादा तथा रहन-सहन के स्तर पर इस वित्तीय स्थिति का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा । युद्ध के समय सभी देशों की सरकारों ने अपार धनराशि ऋण ली थी । इन कर्जों को चुकाने के लिए देश की जनता को वर्षों तक अधिक-से-अधिक कर देना पड़ा ।

प्रथम विश्वयुद्ध ने महिलाओं की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया । अधिकांश स्वस्थ पुरुष सेना या सैनिक कार्य में शामिल हो गए थे । अत: कारखानों और दुकानों में, अस्पतालों और स्कूलों में, कार्यालयों और स्वयंसेवी संस्थाओं में महिलाओं की बाढ़ आ गयी यह घटनाक्रम अस्थायी नहीं, बल्कि स्थायी साबित हुआ ।

औरतों ने अब वह काम करना शुरू किया जो पहले केवल पुरुष करते थे । अत: समाज में महिलाओं के स्थान में क्रांतिकारी परिवर्तन आया । पति और पत्नी के सम्बन्ध और विवाह के स्वरूप में क्रांतिकारी परिवर्तन आया । लाखों महिलाओं की विचारधारा बहिर्मुखी हो गयी । महिलाओं ने अब पुरुषों के बराबर अधिकारों का दावा किया । प्रथम महायुद्ध के बाद ही यूरोपीय देशों में औरतों को मताधिकार मिला । 1918 ई॰ में पहली बार ग्रेट ब्रिटेन में ओरतों को मताधिकार मिला ।

खाई की सहभागिता और समान राष्ट्रीय खतरा और मेहनत के कारण उत्पन्न सामाजिक भाईचारे ने वर्ग और संपत्ति के घेरे को अगर पूर्ण रूप से नहीं तोड़ा तो कम-से-कम कमजोर अवश्य किया सामाजिक मान्यताएँ महत्त्वपूर्ण रूप से बदलीं । अमीर और गरीब सबने समान रूप से युद्ध के संकट को झेला ।

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मुनाफाखोर और चोरबाजारी करनेवाले घृणा और तिरस्कार के पात्र बने । युद्ध ने आर्थिक समानता के आदर्श को नया प्रोत्साहन प्रदान किया । ”खतरा हम सबको समाजवादी बनाता है ।” यही कारण हे कि प्रथम महायुद्ध के दौरान और उसके बाद समाजवाद का तेजी से विस्तार हुआ ।

प्रथम विश्वयुद्ध का सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक परिणाम था पूँजीवाद के स्वरूप में मौलिक परिवर्तन । पुराना या शास्त्रीय पूँजीवाद उन्मुक्त व्यापार के सिद्धांत पर आधारित था । युद्ध के आरंभ होने के पहले ही सरकारों ने सीमा- शुल्क लगाना, राष्ट्रीय उद्योगों को संरक्षण देना, साम्राज्यवादी विस्तार द्वारा बाजार और कच्चे माल की तलाश करना, श्रमजीवी वर्ग के हित में सुरक्षात्मक सामाजिक कानून बनाना शुरू कर दिया था ।

युद्ध के दौरान सभी युद्धरत देशों की सरकारों ने और अधिक सूक्ष्म रूप से अर्थव्यवस्था को नियंत्रित किया । सचमुच प्रथम विश्वयुद्ध की अवधि में ही नियोजित अर्थव्यवस्था लागू की गई पहली बार एक निश्चित उद्देश्य के लिए राज्य ने सारी संपत्ति, स्रोतों और समाज के नैतिक उद्देश्यों को संचालित करने का प्रयास किया ।

चूँकि किसी को इतनी लम्बी लड़ाई का अन्दाज नहीं था, इसलिए किसी ने भी युद्ध की आवश्यकताओं को पूरा करने की कोई पूर्व-योजना नहीं बनायी थी । इसलिए हर चीज का तत्काल प्रबन्ध किया जाना था । 1916 ई॰ तक युद्ध प्रयासों को समन्वित करने के लिए हर सरकार ने बोर्ड, ब्योरों, कौन्सिल और कमीशन की स्थापना की ।

आवश्यकता इस बात की थी कि कैसे सभी मानव संसाधनों, कच्चे माल और आयातित वस्तुओं का कारगर उपयोग युद्ध के लिए किया जाय । युद्ध की विपत्ति में उत्सुक्त प्रतिस्पर्द्धा की पद्धति को खर्चीला पाया गया और निर्देशनहीन व्यक्तिगत उद्यम को अत्यन्त धीमा और डाँवाँडोल मुनाफे की प्रकृति बदनाम हो गयी । जो व्यापारी वस्तुओं की कमी का फायदा उठाकर मुनाफा कमा रहे थे, उनकी ‘मुनाफाखोर’ कहकर निन्दा की गयी इच्छानुसार व्यवसायियों को कारखाना खोलने और बन्द करने का अधिकार नहीं दिया गया ।

सरकार की अनुमति के बिना कोई नया व्यवसाय शुरू करना असम्भव हो गया, क्योंकि स्टॉक और बॉण्ड का प्रवर्तन नियंत्रित किया गया और सरकार की इच्छानुसार कच्चामाल उपलब्ध कराया गया युद्धोपयोगी वस्तुओं के उत्पादन से सम्बन्धित उद्योगों को बन्द करना असम्भव हो गया । अगर इस तरह के कारखाने घाटे में चल रहे थे या चलने में असमर्थ थे तो सरकार ने घाटा सहकर या आर्थिक सहायता देकर उन्हें चलाया ।

यहाँ भी प्रतिस्पर्द्धा और मुनाफे का आधार त्यागा गया अब नया लक्ष्य था सारे देश के हित में उत्पादन का समन्वय या वैक्तिकीकरण करना मजदूरों को काम के घंटे या मजदूरी के लिए विरोध करने से रोका गया और बड़े-बड़े मजदूर संघों ने हड़ताल से दूर रहने की सहमति दी । उच्च और मध्यमवर्ग के लिए अपनी सुविधाओं को प्रदर्शित करना लज्जाजनक बात हो गयी ।

कम खाना और पुराने कपड़े पहनना देशभक्ति का सूचक था । युद्ध ने समान संकट में धनी और गरीब सबका समर्थन प्राप्त करने के लिए आर्थिक समानता के विचार को नया प्रोत्साहन दिया । पुरुषशक्ति के विनियोजन के लिए सेनिक भरती पहला कदम था सभी सरकारों के समक्ष यह प्रश्न था कि उपलब्ध पुरुष आबादी को सेनिक और असैनिक कार्यों के लिए किस प्रकार वितरित किया जाय, ताकि कोई कठिनाई उसब्र न हो ।

सैनिक आवश्यकता की दृष्टि से पुरुष आबादी के अधिकतम उपयोग के लिए सरकार ने उन उद्योग-धंधों को बन्द कर दिया अथवा उनकी संख्या बहुत घटा दी, जिनका सैनिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं था । सरकार ने न तो लोगों को जबरदस्ती सेना में भरती किया और न किसी व्यवसाय में शामिल होने या उसे छोड़ने के लिए बाध्य किया ।

लेकिन, मजदूरी की दर तय करके, कुछ लोगों को सैनिक भरती से मुक्त कर देने, कुछ उद्योगों को बढ़ाने और कुछ को सीमित करने का आदेश करके और इस विचार का प्रचार करके कि आयुध कारखानों में काम करना देशभक्ति है, सरकार ने काफी संख्या में लोगों को आयुध उद्योगों में जाने की प्रेरणा दी प्रथम महायुद्ध में बँधुआ मजदूरी का प्रयोग नहीं हुआ और न ही युद्धबंदियों से मजदूरी ली गई । लेकिन, जर्मनी ने कहीं-कहीं इस मामले में अंतर्राष्टीय कानून का उल्लंघन अवश्य किया ।

सरकार ने सारे विदेशी व्यापार को नियंत्रित किया । यह असहनीय था कि लोग अपनी इच्छा से राष्ट्रीय संसाधनों का निर्यात विदेशों में करें । नागरिकों द्वारा अनावश्यक वस्तुओं का आयात कर विदेशी मुद्रा का दुरुपयोग करना या प्रतिस्पर्धा द्वारा मूल्य में वृद्धि करना भी सरकार के लिए उतना ही असहनीय था । विदेशी व्यापार पर राज्य का एकाधिकार स्थापित हो गया । प्राइवेट फर्म सज लाइसेंस और कोटा के अंदर चलाए जाने लगे । तटस्थ देश भी इससे प्रभावित हुए ।

उदाहरण के लिए नीदरलैंड की सरकार ने आयात-निर्यात को नियंत्रित करने के लिए नीदरलैंड ओवरसिज ट्रस्ट की स्थापना की । अमेरिका की सरकार ने भी 1917 ई॰ में कानून द्वारा खाद्यान्न और औद्योगिक माल की कीमत को नियंत्रित किया । हर सरकार को एक जहाजरानी बोर्ड की स्थापना करनी पड़ी, ताकि सैनिकों के आवागमन और माल की बुलाई व्यवस्थित रूप से हो सके ।

नियंत्रण और विनियोजन ने अंतत: अंतर्राष्ट्रीय रूप धारण कर लिया । युद्ध के दौरान एक अंतर-मित्रराष्ट्र जहाजरानी कौंसिल जिसका सदस्य संयुक्त राज्य अमेरिका भी था, का गठन किया गया । इंग्लैण्ड और फ्रांस में जहाँ सारे उत्पादक आयात पर निर्भर थे, सरकारी नियंत्रण में आ गये और इस तरह सारी अर्थव्यवस्था सरकार के अधीन आ गयी ।

यहाँ तक कि रूस और पश्चिमी यूरोप की पहुँच से वंचित जर्मनी को अप्रत्याशित रूप से आर्थिक आत्मनिर्भरता की नीति अपनानी पड़ी । युद्ध के अंतिम दिनों में रोमानिया से प्राप्त तेल और यूक्रेन से प्राप्त गेहूँ जर्मनी की आवश्यकताओं के लिए बहुत कम पड़ रहा था । अन्य युद्धरत देशों से जर्मनी अधिक भूखा था अत: जर्मनी को और पक्का और सक्षम सरकारी नियंत्रण स्थापित करना पड़ा जिसे युद्ध-समाजवाद कहा जाता है ।

जर्मनी को वाल्टर रैथनो के रूप में एक प्रतिभावान आयोजक मिल गया । वह एक उद्योगपति था, एक जर्मन विद्युत-ट्रस्ट के मालिक का बेटा था और एक निर्भीक तथा अग्रसोची व्यक्ति था । वह कुछ उन लोगों में एक था जिन्होंने एक लंबी लड़ाई का अनुमान लगाया था । उसे युद्ध के दौरान कच्चे माल के संघटन का प्रभारी बनाया गया था ।

युद्ध के आरंभ में ऐसा लगा कि बारूद बनाने के लिए आवश्यक नाइट्रोजन के अभाव में जर्मनी हार जाएगा । रैथनो ने बहुत तेजी से हर कल्पनीय प्राकृतिक स्रोत यहाँ तक कि किसानों के बीनयार्ड से प्राप्त खाद को भी जमा किया । जर्मन रासायनिक उद्योग में कई और वैकल्पिक वस्तुएँ विकसित की गईं, जैसे सिंथेटिक रबर । रैथनो ने हर उद्योग के लिए एक युद्ध कंपनी का निर्माण करके जर्मन उत्पादन को संघटित किया ।

ये कंपनी एक तरह के ट्रस्ट होते थे जो एक उद्योग से सम्बन्धित विभिन्न व्यावसायिक फर्मों का प्रतिनिधित्व करते थे । सरकारी नियंत्रण में हर कंपनी ने उत्पादन को अधिक-से-अधिक बढ़ाया, कीमतों को नियंत्रित किया, सदस्य फर्मों और प्रतिष्ठानों को कच्चे माल का आबंटन किया और यह निर्धारित किया कि कैसे प्रत्येक खान और कारखाने को उत्पादन करना चाहिए । युद्ध कंपनी प्रतिस्पर्द्धा के निषेध का प्रतीक था और 1890 ई॰ से यूरोप और अमेरिका में ट्रस्ट और एकाधिकार की बढ़ती हुई प्रवृति का विजय था ।

रैथनो सोचता था कि उसकी युद्ध कंपनियाँ प्राइवेट कॉरपोरेशन और सरकारी ब्यूरो के बीच का एक अच्छा रास्ता है और ऐसा विश्वास करता था कि युद्ध के बाद स्थायी तौर पर इसी तरह की व्यवस्था की जाएगी । Of Things to Come नामक अपनी पुस्तक में उसने एक ऐसे औद्योगिक समाज का चित्रांकन किया जिसमें प्रतिस्पर्द्धा और मुनाफाखोरी समाप्त कर दी जाएगी, व्यवस्थापक और मजदूर मिलकर उद्योगों को चलाएँगे, योजना बनाएंगे, आपस में दायित्वों को बाँटेगे और ईमानदारी स लाभ का बँटवारा करेंगे ।

उसके विचारों का प्रभाव युद्ध के बाद जर्मनी और जर्मनी के बाहर अन्य देशों में दिखायी पड़ता है । इसमें हमें रूसी साम्यवाद, जर्मन नाजीवाद और इटालियन फासीवाद की झलक दिखायी देती है । जर्मनी में तो युद्ध ने स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा के प्रति लोगों का विश्वास ही खत्म कर दिया ।

अन्य युद्धरत सरकारों ने भी स्वतंत्र फर्मों और कारखानों के बीच की प्रतिस्पर्द्धा के बदले समन्वय स्थापित किया । फ्रांस में उद्योगपतियों के कान्सॉर्टियम ने विभिन्न उद्योगों के बीच कच्चे माल का आवंटन किया । संयुक्त राज्य अमेरिका में बर्नार्ड ब्रूच के नेतृत्व में युद्ध उद्योग बोर्ड ने भी यही काम किया । ब्रिटेन में भी यह प्रणाली बहुत सफल रही ।

कोई भी सरकार कितना भी कर लगाकर युद्ध के लिए अपेक्षित खर्च नहीं जुटा सकती थी । अत: हर युद्धरत देश को कागजी मुद्रा छापनी पड़ी, भारी बॉण्ड जारी करना पड़ा और बेंको को अधिक-से-अधिक धन मुहैथ्या करने के लिए बाध्य करना पड़ा । वस्तुओं की कमी और मुद्रा के अधिक प्रचलन के कारण मुद्रास्फीति पैदा हुई ।

कीमत और मजदूरी को नियमित किया गया, लेकिन 1914 ई॰ के पहलीवाली कीमत नहीं स्थापित हो सकी । मुद्रास्फीति का सबसे बड़ा भुक्तभोगी वेतनभोगी वर्ग बना जिसकी आमदनी आसानी से नहीं बढ़ सकती थी । वेतनभोगी कर्मचारी और निश्चित आयवाले लोग युद्ध के पहले यूरोपीय समाज में स्थायित्व प्रदान करनेवाला वर्ग था ।

हर जगह युद्ध ने उनकी प्रतिष्ठा, उनके रहन-सहन के स्तर और उनके महत्त्व के लिए खतरा पैदा किया । बढ़ते हुए राष्ट्रीय कर्ज का मतलब था आनेवाले वर्षों में अधिक-से-अधिक करारोपण । दूसरे देशों से लिए गए कर्ज के कारण कर्ज की समस्या और भी गंभीर हो गई । युद्ध के दौरान यूरोपीय देशों ने ब्रिटेन से कर्ज लिया और उन दोनों ने मिलकर संयुक्त राज्य अमेरिका से कर्ज लिया ।

इस प्रकार, उन्होंने अपने भविष्य को बंधक बना दिया । कर्ज चुकाने के लिए उन्हें वर्षों तक आयात की अपेक्षा अधिक निर्यात करने के लिए बाध्य होना पड़ा । यहाँ यह याद रखना चाहिए कि 1914 ई॰ में प्रत्येक विकसित यूरोपीय देश आदतन निर्यात की अपेक्षा आयात अधिक करता था ।

सभी युद्धरत सरकारी ने आर्थिक उत्पादन की तरह विचारों पर भी नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया । विचारो की वह स्वतंत्रता, जो लगभग पचास साल से यूरोप में प्रतिष्ठित थी, अब एक तरह से फेंक दी गई । प्रचार और सेसरशिप अधिक कारगर बनाये गए । सरकारी नियंत्रण को चुनौती देने की आदत को नापसंद किया जाने लगा । विरोधी देशों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हुआ । लंबे संघर्ष, व्यर्थ लड़ाई, अपरिवर्तनीय युद्ध-प्रश्न और भारी क्षति के कारण लोगों का हौसला टूट रहा था ।

सामान्य स्वतंत्रताओं से वंचित अधिक मेहनत करते हुए, साधारण भोजन करते हुए और विजय का कोई लक्षण नहीं देखनेवाले लोगों के हौसले को भावोत्तेजक रूप में बढ़ाये रखना था । पोस्टर, इश्तहार, श्वेत-दस्तावेज, स्कूली किताबों, सार्वजनिक भाषणों, औपचारिक संपादकीय लेखों, समाचारपत्र की रिपोर्टों आदि के द्वारा लोगों का हौसला बढ़ाये रखने की कोशिश की गई । विश्वव्यापी साक्षरता, समाचारपत्रों की भारी संख्या, गतिशील तस्वीरों के द्वारा जनमत को प्रभावित करने का प्रयास किया गया ।

विद्वानों और प्राध्यापकों ने जटिल ऐतिहासिक तर्कों के द्वारा विरोधी देशों की हार की अनिवार्यता की भविष्यवाणी की मित्र देशों में जर्मन कैजर को उग्र आँखो और आवश्यकता से अधिक खड़ी मूँछोंवाले राक्षस के रूप में प्रस्तुत किया गया, जो सारी दुनिया को जीतने के लिए पागल हो रहा था जर्मन लोगों को उस दिन से डरने के लिए कहा गया जिस दिन कोजेक और सेनेगल के नीग्रो जर्मन महिलाओं पर बलात्कार करेंगे जर्मनी में इंग्लैण्ड को एक ऐसे कट्टर दुश्मन के रूप में चित्रित किया गया, जो नाकेबदी के द्वारा मासूम बच्चों को भूखे मार रहा था ।

हर देश ने अपने पक्ष को सही बताया और दूसरे को गलत, दुष्ट और बर्बर के रूप में प्रस्तुत किया । इस भयावह संघर्ष में उत्तेजित जनमत ने पुरुष और महिलाओं को ढ़ाढ़स बँधाया । लेकिन, जब शांति स्थापित करने का समय आया तो इन्हीं पूर्वाग्रहों, दृढ़ विचारों, गहरी धृणा, भय और उदासीनता के कारण स्थायी शांति स्थापित करना मुश्किल साबित हुआ ।

लेकिन, प्रथम विश्वयुद्ध का इससे भी महत्त्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम था विश्व- राजनीति पर से यूरोपीय प्रभुत्व के समाप्त होने के युग का प्रारम्भ । अभी तक सारे विश्व में यूरोप की तूती बोलती थी । यूरोपीय देश सारे विश्व को कठपुतली की तरह नचाया करते थे और उनका विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी । प्रथम विश्वयुद्ध ने उन प्रक्रियाओं को आरम्भ कर दिया, जिनके फलस्वरूप यूरोपीय प्राधान्य के इस युग के अन्त की शुरुआत हो गयी ।

युद्ध की समाप्ति के तुरत बाद यूरोप के पतन के सभी लक्षण एक ही साथ देखने को मिले । विश्वयुद्ध के बाद पेरिस में शान्ति-सम्मेलन शुरू हुआ । इससम्मेलन में केवल यूरोप के राष्ट्र ही नहीं, वरन् एशिया, अफ्रीका और अमेरिका के राष्ट्र भी सम्मिलित हुए थे और सम्मेलन में लिये गये निर्णयों में उनका प्रमुख हाथ था पच्चीस-तीस वर्ष पहले इस तरह की घटना की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी ।

युद्धोत्तर काल में संसार का सबसे महान् व्यक्ति कोई यूरोपीय राजनेता नहीं, वरन् संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति वुडरो विल्सन था, जिसकी खुशामद में विजित और विजेता दोनों पक्ष लगे हुए थे । गैर-यूरोपीय महादेशो के राजनेताओं की जो भूमिका पेरिस शान्ति-सम्मेलन में रही, उसने इस बात को प्रमाणित कर दिया कि वह समय गुजर चुका हे, जिसमें यूरोपीय नेता आपस में ही संपूर्ण विश्व के मामलों को तय कर लिया करते थे ।

इस शान्ति-सम्मेलन ने राष्ट्रसंघ की भी स्थापना की । राष्ट्रसंघ की स्थापना विश्व के यूरोपीय तथा गैर-यूरोपीय भागो के बीच बदलते हुए सम्बन्ध का सर्वाधिक स्पष्ट लक्षण था । यह 1815 ई० के यूरोपीय कन्सर्ट से भिन्न था, क्योंकि इसके सदस्य राज्य केवल यूरोप के देश ही नहीं, वरन् संसार भर के देश थे । युद्ध के पहले चूरोपीय शक्तियों के निर्णयों को गैर-यूरोपीय विश्व द्वारा कभी चुनौती नहीं दी गयी थी ।

लेकिन, अब राष्ट्रसंघ की स्थापना के साथ उनकी नीति और आचरण को भी नियमित और नियन्त्रित किया जा सकता था तथा उन्हें छोटी-छोटी शक्तियों के समुख जवाब देने को बाध्य किया जा सकता था ।

बदली हुइ आर्थिक परिस्थिति ने यूरोप के पतनोन्मुख होने का एहसास कारगर ढंग से कराया । यह युद्ध बड़ा ही व्ययसाध्य और खर्चीला था । अपार खर्चों की पूर्ति करारोपण से नहीं हो सकती थी । अत: सभी सरकारो को ऋण लेना पड़ा और यह ऋण एकमात्र संयुत्त राज्य अमेरिका से ही मिल सकता था । इस कारण अमेरका की तुलना में यूरोप की अर्थिक स्थिति में स्पष्ट गिरावट आयी ।

यूरोपीय शक्तियाँ कर्ज देनेवाली शक्तियों की जगह कर्ज लेनेवाली शक्तियों की कोटि में आ गयीं । अमेरिका से कर्ज लेकर यूरोपीय राष्ट्रों ने अपने भविष्य को बंधक रख दिया । वर्षों तक उन्हें अपने आयात से अधिक निर्यात करने को बाध्य होना पड़ा ।

प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप गैर-यूरोपीय राष्ट्रों में लगायी जानेवाली पूँजी में भारी कमी आयी तथा दूसरे महादेश में होनेवाले आर्थिक विकास को यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा प्रभावित करने के अवसर कम होने लगे । युद्ध के दिनों में यूरोपीय राष्ट्रों ने अपने औद्योगिक उत्पादनों को युद्धोन्मुखी कर दिया था । इस कारण उनका आयात-व्यापार पूरी तरह ठप्प पड़ गया ।

फलत: गैर-यूरोपीय देशों को अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए अपने आर्थिक जीवन को पुनर्व्यवस्थित करना पड़ा । यूरोप चार वर्षों तक युद्ध में फँसा रहा इसी बीच शेष दुनिया ने अपने औद्योगीकरण की गति बढ़ा दी । अमेरिका की उत्पादन-क्षमता बहुत ही बढ़ गयी । जापानियों ने एशिया और दक्षिणी अमेरिका के देशों को अपना बाजार बना लिया जहाँ पहले यूरोपीय देशों का एकाधिकार था अर्जेण्टीना और ब्राजील ने रेलवे इंजनों के पुर्जे तथा खनन-सम्बन्धी यन्त्रों को इंग्लैण्ड से प्राप्त करने में असमर्थ होकर इनका उत्पादन स्वयं प्रारम्भ कर दिया । पहले के अविकसित देश नयी परिस्थिति में अब औद्योगीकरण के पथ पर बढ़ चलने को तैयार बैठे थे और 1920 ई॰ के दशक में इन्होंने उल्लेखनीय प्रगति भी की ।

इसी तरह का आर्थिक विकास भारत में भी हुआ । पश्चिमी एशिया के युद्ध-स्थलों पर सामान पहुँचाने के लिए यह आवश्यक हो गया कि भारत के ओद्योगीक विकास को प्रोत्साहन दिया जाय । युद्ध की आवश्यकता ने ब्रिटिश सरकार को बाध्य कर दिया कि वह भारत के औद्योगिक विकास पर लगाये गये बंधनों को हटाये ।

इसी समय धनी पारसियों का टाटा परिवार सामने आया । उसने असंख्य औद्योगिक प्रतिष्ठान विकसित किये । इनमें से एक बिहार का टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे बड़ा इस्पात का कारखाना बन गया । विश्व बाजार से जर्मनी के पूर्णत: बाहर हो जाने, ब्रिटेन और फ्रांस के मुश्किल से महज अपने लिए उत्पादन कर पाने तथा विश्व जहाजरानी के पूर्णत: युद्ध-सम्बन्धी कार्यों में लग जाने के कारण विश्व के कारखाने के रूप में पश्चिम यूरोप का स्थान अब गौण पड़ गया । आर्थिक क्षेत्र में यूरोप के कई नये और तगड़े प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गये । स्पष्ट था कि यह विश्व पर यूरोपीय प्रभुत्व के युग की गोधूलि की बेला थी ।

राजनीतिक क्षेत्र में भी यूरोप को गैर-यूरोपीय उपनिवेशों से भारी चुनौती मिलने लगी तथा यूरोपीय शासकों और औपनिवेशिक गुलाम जनता के बीच के सम्बन्धों में एक नया परिवर्तन परिलक्षित हुआ । युद्ध के समय मित्र और सहयोगी राष्टों ने बड़े- बड़े और लुभावने नारे लगाये थे । संसार को प्रजातन्त्र के लिए सुरक्षित करने की बातें कही गयी थीं और आत्मनिर्णय के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया था । इससे पराधीन लोगों के मन में एक नयी आशा का संचार हुआ था और वे उम्मीद करने लगे थे कि युद्धोपरान्त उन्हें भी स्वशासन का अधिकार मिलेगा ।

लेकिन, युद्ध खत्म होते ही साम्राज्यवादी राज्यों का उपनिवेशों के साथ वही पुराना व्यवहार शुरू हो गया, जिसके फलस्वरूप उपनिवेशों में घोर निराशा का वातावरण छा गया । अत: अब उपनिवेशों में साम्राज्यवादी शासन का सशक्त विरोध शुरू हुआ । सोया हुआ राष्ट्रवाद जग गया और यूरोपीय देशों को अपने उपनिवेशों में जबरदस्त राष्ट्रीय आन्दोलनों का मुकाबला करना पड़ा और पराधीन लोगों ने विश्व-राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना शुरू किया ।

उपनिवेश और राष्ट्रवाद के मुकाबले में राष्ट्रवादियों को बोल्शेविक रूस से मदद मिलने लगी । क्रांति के पूर्व रूस स्वयं एक साम्राज्यवादी देश था, लेकिन क्रांति के बाद उसने पराधीन जातियों का पक्ष लेना शुरू कर दिया । रूस में कामिण्टर्न की स्थापना हुई और इस क्रांतिकारी संगठन ने उपनिवेशवासियों को साम्राज्यवाद के विरुद्ध भड़काना शुरू किया ।

विश्व पर यूरोपीय नियन्त्रण के विरुद्ध किए जानेवाले सभी आन्दोलनों को रूस द्वारा समर्थन मिलने के कारण विश्व पर यूरोपीय प्रभुत्व के युग का अन्त दृष्टिगोचर होने लगा । इस प्रकार, प्रथम ‘विश्वयुद्ध’ अपने परिणामों के साथ एक युग-प्रवर्तक घटना प्रमाणित हुआ, क्योंकि इसने विश्व के नक्शे पर यूरोपीय प्रभुत्व के समाप्त होने के युग को प्रारम्भ किया ।

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