Read this article in Hindi to learn about the aims and achievements of French revolution.
फ्रांस की क्रांति का उद्देश्य (Aims of French Revolution):
1789 ई. में न तो फ्रांस के लोग क्रांति चाहते थे और न क्रांति की कोई तैयारी थी । वित्तीय संकट के समाधान के लिए बुलाए गए स्टेट्स जेनरल ने अनजाने में क्रांति की शुरुआत कर दी । संक्षेप में, फ्रांस की क्रांति पूर्वनियोजित क्रांति नहीं थी । यह एक स्वतःस्फूर्त्त क्रांति थी ।
परिस्थिति-विशेष और नेतृत्व-विशेष में क्रांति का उद्देश्य, उसका स्वरूप और उसकी उपलब्धि बदलती गई । राष्ट्रीय सभा या संविधान सभा में सदस्यों द्वारा लाये गए मांग-पत्रों के आधार पर क्रांति के प्रारंभिक चरण के उद्देश्यों का अंदाज लगाया जा सकता है ।
फ्रांस के बहुसंख्यक लोग जन्म या वंश पर आधृत विशेषाधिकार और असमानता अर्थात् सामंती व्यवस्था को समाज करना चाहते थे । वे सामाजिक समानता, अवसर की समानता और कानून की समानता चाहते थे ।
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वे सामंतों के नियंत्रण से मुक्त एक सीमित और सांवैधानिक राजतंत्र की स्थापना चाहते थे । वे प्रतिभा और योग्यता को पद या प्रतिष्ठा का आधार बनाना चाहते थे । मध्यम-वर्ग सारे आर्थिक प्रतिबंधों, विशेषकर सामंती बँधनों को तोड़ डालना चाहता था ।
साथ ही वह सामाजिक प्रतिष्ठा और शासन में साझेदारी चाहता था । किसान सामंती करों, दायित्वों और अन्य बोझों से मुक्ति चाहता था । संविधान सभा ने लगभग इन सारे उद्देश्यों को पूरा किया ।
मध्यमवर्ग की सारी आकांक्षाएँ पूरी हुई । सामंतवाद समाप्त हुआ । किसानों को सामंती शोषण से मुक्ति मिली । लेकिन, किसानों को आर्थिक लाभ प्राप्त नहीं हुआ ।
उन्हें सामाजिक समानता तो मिली, किंतु आर्थिक समानता नहीं मिली । राजनीतिक अधिकारों से तो वे लगभग वंचित ही रहे, क्योंकि संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान के अनुसार मताधिकार करदाताओं तक ही सीमित था ।
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अगर हम मानव और नागरिक अधिकार की घोषणा में निहित आदर्शों को फ़्रांसीसी क्रांति का उद्देश्य मानें, तो हमें भी मानना होगा कि संविधान सभा ने समानता के सिद्धांत का खुला उल्लंघन किया ।
यहाँ क्रांति के उद्देश्य और उपलब्धि में कोई सामंजस्य नहीं दिखायी पड़ता । क्रांति के दौरान राजतंत्र को समाप्त किया गया और राजा को फाँसी भी दी गई, किंतु यह उल्लेखनीय है कि राजतंत्र को समाप्त करना क्रांति का उद्देश्य नहीं था ।
राजा की निरंकुशता और उसके शासन करने के तरीके के प्रति जन-असंतोष था; किंतु राजतंत्र के प्रति असंतोष की अभिव्यक्ति हम कहीं नहीं पाते । यही कारण है कि संविधान-सभा ने राजतंत्र का प्रावधान किया ।
सोलहवें लूई ने अपनी गलती से अपना सर गँवाया बगैर राजतंत्र का समापन भी अवश्यंभावी कर दिया । और, इस प्रकार गणतंत्र का मार्ग प्रशस्त हुआ । निस्संदेह क्रांतिकारी धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांत की स्थापना करना चाहते थे, लेकिन चर्च की संपत्ति का राष्ट्रीयकरण क्रांति का घोषित उद्देश्य नहीं था ।
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कर्ज की अदायगी के लिए चर्च की संपत्ति जब्त की गई और चर्च पर सरकारी नियंत्रण स्थापित किया गया । आरंभ में प्रतिक्रियावादी यूरोपीय देशों के विरुद्ध आक्रामक रवैया अपनाने की कोई योजना फ्रांसीसी क्रांतिकारियों में नहीं थी ।
लेकिन, यूरोपीय देशों द्वारा क्रांति की आलोचना और धमकियों तथा जिरोंदिस्त नेताओं के अतंर्राष्ट्रीय क्रांति की विचारधारा ने फ्रांस और प्रतिक्रियावादी यूरोप के बीच युद्ध को अवश्यंभावी बना दिया और अप्रैल, 1792 में फ्रांस और यूरोपीय देशों के बीच युद्ध छिड़ गया ।
इसी क्रांतिकारी युद्ध ने फ्रांस की क्रांति को अंतर्राष्ट्रीय बनाया । इस प्रकार, फ्रांस की आंतरिक समस्याओं से उत्पन्न फ्रांसीसी क्रांति परिस्थिति विशेष में अंतर्राष्ट्रीय और विश्वव्यापी बन गई ।
आतंकवादी सरकार की स्थापना करना कहीं भी क्रांतिकारियों का उद्देश्य नहीं था । लेकिन देश की सुरक्षा के लिए, गृह-युद्ध को समाप्त कर कानून और व्यवस्था की स्थापना के लिए तथा वित्तीय संकट से देश को उबारने के लिए नेशनल कन्वेबान को आपातकालीन सरकार की स्थापना करनी पड़ी ।
इन तीनों उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कठोर अनुशासन, महान देशभक्ति और बलिदान की आवश्यकता थी । फलतः विरोधी तत्वों की हत्या की गई, लोगों को देशभक्त बनने के लिए बाध्य किया गया और गरीबों के हित में क्रांतिकारी कदम उठाए गए ।
अत: स्वेच्छा से नहीं, बल्कि आपात स्थिति का सामना करने के लिए जैकोबिन नेताओं को आतंक राज्य की स्थापना करनी पड़ी । जैसे ही समसामयिक समस्याओं का समाधान हुआ, वैसे ही प्रगतिशील और आपातकालीन उपाय वापस ले लिए गए ।
मध्यमवर्ग फिर हावी हो गया । आतंक-राज्य के समाप्त होते-होते फ्रांस में नेतृत्व का संकट पैदा हुआ । कोई भी डायरेक्टर शब्द के सही अर्थ में राष्ट्रीय नेता नहीं था । भ्रष्ट और औसत योग्यता के डॉयरेक्टरों द्वारा फ्रांस का शासन संभालना मुश्किल हो गया ।
और, अंत में एक सैनिक नेता ने सत्ता हथिया ली । क्रांति जब भटकती है तब वह प्रतिक्रियावादी तत्वों का हाथ मजबूत करती है और अंत में क्रांति के गर्भ से एक तानाशाह पैदा होता है ।
निश्चित उद्देश्य और एक नेतृत्व के अभाव में तथा पूर्व योजना की कमी के कारण फ्रांस की क्रांति के स्वरूप और उपलब्धि में बदलाव आता रहा । पूर्वनियोजित नहीं होने के कारण इस क्रांति का उद्देश्य निश्चित नहीं था ।
परिस्थिति और नेतृत्व के अनुसार उसका स्वरूप और उद्देश्य बदलता गया । अत: फ्रांसीसी क्रांति के उद्देश्य और उपलब्धि के बीच सीधा अतंर्सम्बंध ढूंढ़ना उचित नहीं होगा । साथ ही यह कहना भी उचित नहीं होगा कि क्रांति की उपलब्धि अपने उद्देश्यों से भटक गई थी । इसी दृष्टि से फ्रांस की क्रांति और 1917 ई. की रूसी क्रांति में महान अंतर है । रूसी क्रांति के उद्देश्य, योजना, नेतृत्व और उपलब्धि में सामंजस्य था ।
फ्रांसीसी क्रांति की उपलब्धियाँ (Achievements of French Revolution):
पारम्परिक रूप से फ्रांसीसी क्रान्ति को आधुनिक यूरोप के इतिहास में एक प्रमुख विभाजक रेखा के रूप में देखा जाता रहा है । इसने यूरोपवासियों के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला । वर्ग के सन्दर्भ इस क्रान्ति से समाज में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ ।
लाभ अन्तिम रूप से उन बुर्जुआओं को ही मिला जिन्होंने सामंतवाद के पारम्परिक विशेषाधिकारों को समाप्त कर यह निश्चित कर दिया कि राजनीतिक सत्ता सम्पत्तिशाली लोगों के ही हाथ में बनी रहे ।
दूसरे शब्दों में, इसने एक सुविधासम्पन्न वर्ग के शासन की जगह मात्र दूसरे सुविधासम्पन्न वर्ग का शासन स्थापित किया । फिर भी इसके कुछ ऐतिहासिक नतीजे बड़े महत्वपूर्ण रहे । जर्मन दार्शनिक फॉन हरडर ने ठीक ही इसे मानवता के जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना माना है । इसने सदियों से चली आनेवाली व्यवस्था को समाप्त कर एक सर्वथा नवीन व्यवस्था की स्थापना की ।
i. सामंतवाद की समाप्ति:
सर्वप्रथम, इस क्रांति ने सामंती व्यवस्था पर कुठाराघात किया । यूरोप में यह प्रथा लगभग एक हजार वर्षों से चली आ रही थी । सदियों तक करोड़ों व्यक्ति इस प्रथा के अन्तर्गत पिसते रहे ।
फ्रांस की क्रांति ने इस घृणित व्यवस्था का अन्त कर दिया । इसने समानता के न्यायोचित सिद्धान्त को स्थापित करके साधारण व्यक्तियों को उपयुक्त सामाजिक स्थान प्रदान किया । कुलीनों के विशेषाधिकार समाप्त हो गये ।
कर की समान व्यवस्था स्थापित हुई क्रांति की यह उपलब्धि फ्रांस तक ही सीमित नहीं रही । यूरोप के अन्य देश भी इससे प्रभावित हुए और वहाँ भी सामंती व्यवस्था का अन्त अवश्यम्भावी हो गया । विशेष लोगों के विशेषाधिकार सभी यूरोपीय देशों से समाप्त हुए तथा कानून के समक्ष सभी लोग बराबर हो गये ।
ii. लोकतन्त्र के सिद्धान्त का प्रतिपादन:
फ्रांस की क्रांति ने राजनीतिक क्षेत्र में लोकतन्त्र के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । उसने शासन के दैवी सिद्धान्त का अन्त कर लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त को मान्यता दी । क्रांति के पूर्व देश की राजनीति चलाने का अधिकार केवल कुछ लोगों तक ही सीमित था ।
सर्वसाधारण जनता को इससे कोई मतलब नहीं रहता था, पर क्रांति के बाद देश के सभी नागरिक राजनीति में सक्रिय भाग लेने लगे । सर्वप्रथम मानवाधिकारों की घोषणा और फिर स्वतन्त्रता और समानता के सिद्धान्तों के प्रतिपादन करके फ्रांस की क्रांति ने व्यक्ति की महत्ता को स्वीकार किया ।
क्रांति के पूर्व एक व्यक्ति का कुछ भी मूल्य नहीं था; लेकिन क्रांति ने समाज में हर व्यक्ति को यथोचित स्थान दिया । यह बात भी फ्रांस तक ही सीमित नहीं रही । यूरोप के सभी देश इस भावना से प्रभावित हुए ।
iii. राष्ट्रवाद:
सबसे पहली बात तो यह थी कि क्रांति ने इस बात का आश्चर्यचकित कर देनेवाला उदाहरण प्रस्तुत किया कि स्वयं अपने द्वारा बनायी गयी सरकार में एक होकर जनता सब कुछ उपलब्ध कर सकती है ।
राष्ट्रीय शक्ति का विशाल विकिरण तथा अभिभूत कर देनेवाले देशभक्त क्रांतिकारियों की दो प्रमुख उपलब्धियाँ थीं । इन उपलब्धियों ने 1815 ई. के बाद उन यूरोपवासियों को अत्यधिक प्रभावित किया जो अब भी विभाजित थे तथा विदेशी शक्तियों के गुलाम थे ।
फ्रांस के नजारे ने उन्हें यह विश्वास करने को बाध्य कर दिया कि यदि वे भी अपने में वैसी ही राष्ट्रवादी चेतना तथा उत्साह जगा सकें तो उनकी आजादी और एकता के मार्ग की सारी बाधाएँ दूर होने में देर नहीं लगेगी । जनसम्प्रभुता में आस्था उदारवाद तथा राष्ट्रवाद को जोड़ने वाली कदाचित सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है ।
एक शासक-वर्ग अथवा किसी वंश के शासन के अन्तर्गत रहनेवाले लोगों को अपने देश के प्रति उस प्रकार का लगाव या अनुराग सम्भव नहीं हो सकता है, जिस प्रकार का लगाव तथा अनुराग उस शासन में रहनेवाले लोगों के मन में होगा जिसने मानवाधिकारों की घोषणा के साथ-साथ यह भी घोषणा की हो कि सभी प्रकार की सम्प्रभुता का उद्गम मूलरूप से राष्ट्र में ही निहित होता है ।
जब सरकार और जनता के बीच घनिष्ठतम सम्पर्क सम्बन्ध कायम होगा तभी कोई देश पूर्णरूप से स्वतन्त्र माना जायेगा । अत: आधुनिक राष्ट्रवाद की कई मूलभूत विशेषताएँ पहली बार क्रांति के दौरान उभरीं और फ्रांस द्वारा राष्ट्रराज्य के ऐसे आदर्श प्रस्तुत किये गये जिनका उसके बाद वाले सदी में व्यापक रूप से अनुकरण किया गया ।
iv. धर्मनिरपेक्षवाद:
उदीयमान राजनीतिक शक्ति के रूप में मध्यमवर्ग (बुर्जुआ) का उद्भव राजतन्त्र की संप्रभुता पर जन-संप्रभुता के सिद्धान्त की विजय मानी जा सकती है । इसके फलस्वरूप जन-संप्रभुता की धारणा ने राजतन्त्रीय संप्रभुता का स्थान ग्रहण कर लिया ।
मिसाल के तौर पर जब चर्च के हाथों से सत्ता छिन गयी तभी सामंती शासक वर्ग के पाँव तले की धरती भी खिसकने लगी थी । क्रांति के पूर्व फ्रांस में कल्याण-कार्य, देश से संबंधित मुख्य आँकड़े एकत्र करना तथा शिक्षण-व्यवस्था का संचालन-परिचालन नरेश के सहयोग से चर्च किया करता था ।
क्रांति के दिनों में फ्रांस का रोमन कैथोलिक चर्च निष्क्रिय कर दिया गया । उसकी जगह पर राज्य द्वारा सम्पोषित, समर्थित धर्मनिरपेक्ष सामाजिक एजेंसियों की स्थापना हुई थी ।
राज्य के अधिकारी इनका अधीक्षण करते थे, राज्य द्वारा स्वीकृत लक्ष्य हासिल करना इनका मुख्य लक्ष्य था । राज्य द्वारा संचालित धर्मनिरपेक्ष शिक्षा, कल्याण-कार्य तथा मुख्य आँकड़ों के एकत्रीकरण के फलस्वरूप नागरिक चर्च से दूर होता गया ।
इससे राज्य तथा चर्च के परम्परागत संबंध भी अप्रासंगिक हो गये । पहले शिक्षा धर्म-अभिमुखी थी । उसका स्थान लिया नयी शिक्षा-व्यवस्था ने, जो राजनीति- अभिमुखी थी ।
नये राजकीय विद्यालय छात्र को अच्छा नागरिक बनने पर बल देते थे, जबकि पुराने विद्यालयों में (जो चर्च द्वारा परिचालित होते थे) निष्ठावान ईसाई बनने पर जोर दिया जाता था । 1815 ई. के बाद चर्च की पुनर्स्थापना के बाद भी नवीन शिक्षा-व्यवस्था किसी तरह बनी रह गयी ।
यह फ्रांस की क्रांति की महानतम उपलब्धि थी । फ्रांस की क्रांति के दरम्यान अच्छा नागरिक होने का अर्थ था नवीन शासनतन्त्र के प्रति निष्ठावान होना; इसलिए जरूरी हो गया था कि यूरोपीय देशों के नरेश क्रांति के फैलाव को रोकने के उद्देश्य से फ्रांसीसी जनता को उनके क्रान्तिकारी नेतृत्व से अलग-थलग कराने की लगातार कोशिश में लगे रहते थे ।
विदेशी शक्तियों द्वारा फ्रांस की भूमि हड़प लिये जाने को रोकने तथा नागरिक सेना-निर्माण करने हेतु नवोदित गणतन्त्र के नेताओं ने सशस्त्र राष्ट्र या सार्वजनिक सैनिक सेवा की उद्घोषणा की क्रांति की रक्षा करने तथा उसके सिद्धान्तों के प्रचार की प्रक्रिया में देशप्रेम की भावना को एक नयी भूमिका का निर्वाह करना था ।
अत: इस भावना की एक नयी व्याख्या की गयी जिसके अनुसार मात्र अपनी मातृभूमि या अधिस्वामी के प्रति निष्ठा रखने से ही कोई देशप्रेमी नहीं कहा जा सकता था । फ़्रांसीसी अब भाई-भाई थे, फ्रांस उनकी भूमि थी, अब नागरिक ही राज्य था । इस हेतु नरेश के प्रति उनकी निष्ठा एक-दूसरे के प्रति उनकी निष्ठा में रूपान्तरित हो गयी थी ।
ऐसा इसलिए भी कि संप्रमुता की भावना में लोगों का एकजुट होना अन्तर्निहित था । यही तो राष्ट्रवाद का व्यक्त रूप था । इससे ‘जनता’, ‘राष्ट्र’, ‘नागरिक’ तथा ‘देशभक्त’ सभी एक दूसरे के पर्याय थे, यह आस्था बनती है ।
निश्चय ही यह एक ऐसी विचार-स्थापना थी जो यदि एक ओर विश्वजनित मानव भ्रातृत्व की धारणा के विरुद्ध पड़ती थी तो दूसरी ओर अठारहवीं सदी के प्रबुद्धवादी विश्व मानवीयतावादी चिन्तन दृष्टि के विश्व पर भी प्रहार करती थी । आगे के वर्षों में इसी भावना को अधिकाधिक बद्धमूल तथा क्रियाशील होते देखा जायेगा ।
v. युद्ध की धारणा में परिवर्तन:
1793 ई. में आतंक के शासन के दौरान फ्रांस में नागरिकों के लिए सैनिक सेवा अनिवार्य कर दी गयी । इस आदेश ने युद्ध की धारणा में एक घोर क्रान्ति ला दी ।
जन-सुरक्षा-समिति का आदेश था- “अब से जबतक कि गणतंत्र के प्रदेश से शत्रुओं को निकाल-बाहर नहीं कर दिया जाता तबतक फ्रांसीसी जनता स्थायी रूप से सैनिक सेवा के लिए उपलब्ध रहेगी । युवक युद्ध में लड़ने जायेंगे, विवाहित हथियार बनायेंगे तथा रसद पहुँचाने का काम करेंगे, महिलाएँ तम्बू तथा कनात बनायेंगी, अस्पतालों में सेवा करेगी, बच्चे पुराने कपड़ों से जख्म पर बाँधनेवाली पट्टियाँ बनायेंगे, वृद्धजन सभा-भवनों की मरम्मत कर योद्धाओं का साहस बढ़ायेंगे, गणतंत्र के लिए एकता बनाये रखने तथा राजाओं से घृणा करने का प्रचार करेंगे ।”
यह घोषणापत्र आधुनिक युग में युद्ध के लिए जनता की सम्पूर्ण लामबन्दी के लिए पहली अपील थी । यह राष्ट्रीय निष्ठा के उस रूप की ओर इंगित करता है, जिससे क्रांतिकारी नेतागण जनता को उत्साहित करने की आशा करते थे ।
इस उद्देश्य की प्राप्ति में उन्हें निराश भी नहीं होना पड़ा, क्योंकि अनिवार्य सैनिक सेवा के आदेश ने उल्लेखनीय जनशक्ति को उभाड़ा । जनता ने बड़े उत्साह के साथ इस आदेश का स्वागत किया और लाखों-लाख की संख्या में फ्रांसीसी राष्ट्र के लिए अपने को समर्पित करने को तैयार हो गये ।
इसको ‘सन् 1793 का उत्साह’ कहा जाता है । देशभत्ति कोई ऐसी नयी धारणा नहीं थी जिसका उभार पहले-पहल क्रान्ति के दिनों में ही फ्रांस में देखने को मिला । यह भावना पुरानी थी । लेकिन 1793 ई. में अपने देश के प्रति अनुराग का जो दृश्य फ्रांसीसी नागरिक सिपाहियों के बीच देखने को मिला, वह पुरातन युग के पेशेवर सैनिकों के दृष्टिकोण से सर्वथा भिन्न था ।
पेशेवर सिपाही द्रव्य के लोभ में किसी राजवंश या विशेषाधिकारयुक्त वर्ग के लिए लड़ता था । लेकिन, फ्रांस का नागरिक सिपाही अपने उस देश की रक्षा के लिए लड़ रहा था जिससे उसका व्यक्तिगत लगाव था और जिसके साथ स्वयं उसका भविष्य जुड़ा हुआ था ।
लोकप्रिय सत्ता के सिद्धांत ने आक्रामक राष्ट्रीय उत्साह का जिस मात्रा में सृजन इस समय किया उसका उदाहरण अन्यत्र कहीं नहीं मिलता । विदेशी प्रेक्षकों ने इस उदाहरण से शिक्षा ग्रहण की ।
कुछ वर्ष बाद, सेना के फ्रांसीसी विजय के उपरांत, प्रशा के एक प्रमुख सैनिक नेता, फॉन ग्नेशनन ने कहा- ”सबसे परे एक कारण ने फ्रांस को सफलता के इस शिखर पर पहुँचाया है । क्रान्ति ने उसकी सभी शक्तियों को आंदोलित कर दिया तथा प्रत्येक व्यक्ति को काम करने के लिए उसके अनुरूप कार्य-क्षेत्र प्रदान करके उसकी पूरी शक्ति को जागृत कर दिया ।”
vi. कल्याणकारी राज्य की धारणा:
अनिवार्य सैनिक सेवा के आदेश ने एक नया और दूरगामी सिद्धांत स्थापित किया । यह सिद्धांत था कि आपातकाल में राष्ट्र को अपने सभी नागरिकों की सेवाएँ प्राप्त करने का अधिकार था ।
आवश्यकता पड़ने पर दूसरे राष्ट्रों ने भी इस सिद्धांत का अनुसरण किया तथा इस प्रकार इसने आधुनिक नागरिक सेना को जन्म दिया । इसके फलस्वरूप युद्ध के स्वरूप में मौलिक परिवर्तन हुआ ।
अब दो सेनाओं के बीच होनेवाले युद्ध ने दो राष्ट्रों के बीच का रूप ग्रहण कर लिया । 1793 ई. में प्रचलित प्रजातंत्र के सिद्धांतों के साथ मिलकर इसने आन्तरिक सुधारों की ऐसी योजना को भी जन्म दिया, जो भविष्य के लिए बड़ी ही महत्वपूर्ण थी ।
यदि नागरिकों और उनकी सेवाओं की लामबन्दी राष्ट्र के लिए की जा सकती थी, तो सम्पत्ति का अधिग्रहण भी राष्ट्र के हित में किया जा सकता था । फिर, यदि सभी के लिए त्याग करना आवश्यक कर दिया जाये तो राज्य का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह उनकी आवश्यकताओं और सुविधाओं का प्रबन्ध करें जिनकी सेवाओं को वह अनिवार्य रूप से प्राप्त करता था ।
इस प्रकार, शासक और शासित का आपसी सम्बन्ध पहले की तुलना में अधिक पारस्परिक तथा अन्तरंग हो गया । क्रान्तिकारी सरकार ने कीमतों तथा पारिश्रमिक को नियंत्रित रखने, आपूर्ति को संगठित करने, मुद्रा तथा व्यापार को नियन्त्रित रखने, खेती को प्रोत्साहन देने, अधिक अच्छी तकनीकी शिक्षा का प्रबन्ध करने, गरीबों की सहायता करने और यहाँ तक कि दासता को समाप्त कर देने का निश्चय किया ।
प्रबुद्ध निरंकुश शासकों ने भी इनमें से अधिकांश काम किये थे । पर, अब ये सभी काम प्रजातन्त्र के नाम पर, राष्ट्र के प्रजातांत्रिक ढंग से निर्वाचित प्रतिनिधियों की सभा द्वारा जनकल्याण के लिए उत्तेजनापूर्ण उत्साह से भरे वातावरण में किये जा रहे थे ।
युद्ध की आवश्यकताओं तथा जनकल्याण की प्रगति के बीच के इस सम्बन्ध ने अब आगे के सम्पूर्ण यूरोपीय इतिहास में एक निश्चित स्थान ग्रहण कर लिया था ।
vii. समाजवादी आंदोलन का प्रेरणा-स्रोत:
यह कहा जाता है कि फ़्रांसीसी क्रांति राब्स-पियर के पतन अथवा नेपोलियन बोनापार्ट के राज्याभिषेक के साथ ही समाज नहीं हो गयी, वरन् उसने आगे जारी रहनेवाली एक ऐसी परम्परा को जन्म दिया जो आजतक समाप्त नहीं हुआ है ।
कोई भी इतिहासकार समझ लेगा यदि हम क्रान्ति को एक जारी रहनेवाली ऐसी घटना कहें जो अपने को 1789, 1793, 1830, 1848, 1871 ई. के वर्षों में प्रस्फुटित तथा विकसित करता रहा । ये सभी मानव-इतिहास में मात्र तिथियाँ हैं, पर 1917 ई. में दृश्यपटल पेरिस से हटकर रूस की पुरानी राजधानी सेण्ट पीट्सबर्ग में आ गया ।
1917 ई. की बोल्शेविक क्रान्ति 1871 ई. के पेरिस कम्यून का परिणाम थी, यह कम्यून 1848 ई. की क्रान्ति का परिणाम थी, 1848 ई. की क्रांति 1830 ई. में चार्ल्स दसवें को निकाल-बाहर करने का परिणाम थी, और 1830 ई. की घटनाएँ 1793 और 1789 ई. की घटनाओं का परिणाम थीं ।
क्रान्ति केवल अपना चरित्र बदलती रही । जैकोबिनवाद से काल्पनिक समाजवाद, काल्पनिक समाजवाद से मार्क्सवाद और मार्क्सवाद से बोल्शेविकवाद तक प्रगति की यह रेखा खंडित रही ।
मार्क्स से पहले के समाजवादियों ने फ्रांसीसी क्रान्तिकालीन सामूहिक क्रियाओं तथा वर्ग-संघर्ष के विचारों से बहुत अधिक प्रोत्साहन ग्रहण किया । क्रान्ति के लाभों को सिर्फ अपने तक सीमित कर लेने के बुर्जुआओं के प्रयास से निराश होकर क्रान्ति के दौरान प्रथम बार निम्न वर्गों ने सामूहिक रूप से अपने को क्रियाशील बनाया ।
वारलेट और जेक्स रौक्स नामक प्रगतिवादी व्यक्तियों के एक समूह एनरेजेज द्वारा निर्देशित उन्हें एक बनी-बनायी योजना उपलब्ध हो गयी । जनता की ओर से बोलने का दावा करते हुए एनरेजेज लोगों ने कीमतों पर सरकारी नियन्त्रण, गरीबों के लिए सहायता तथा युद्ध की लागत को पूरा करने की नीयत के संपत्तिशालियों पर भारी कर लगाये जाने की मांग की ।
उनके सभी प्रस्तावों को तुरत ही कार्यान्वित नहीं किया गया, पर 1793 ई. के वसन्त में कन्वेन्शन ने जनता को अनेकानेक सुविधाएँ प्रदान करने के लिए नियम बनाये, एक युद्ध कर लगाया, धनियों से बलपूर्वक ऋण प्राप्त किया और 4 मई को पहले-पहल ‘लॉ ऑफ मैक्सिमम’ का नियम लागू किया ।
इस नियम के द्वारा वस्तुओं का अधिकतम मूल्य सरकार द्वारा निर्धारित कर दिया गया । श्रमिक वर्गों की यह पहली महत्वपूर्ण विजय थी । इसने एक परम्परा कायम की कि यदि उन्हें समाज में प्रतिष्ठापूर्वक जीवन जीना हो तो निर्धनवर्गों को स्वत: क्रियाशील होना होगा, एक ऐसी प्रथा जो आजतक हमारी बुर्जुआ-व्यवस्था में चली आ रही है ।
1796 ई. का पैंथियोन विद्रोह नामक क्रान्तिकारी घटना वर्ग-संघर्ष की विचारधारा में हुई एक महत्वपूर्ण प्रगति थी । 1795 ई. के अक्तूबर में डायरेक्टरी के नये संविधान द्वारा संपत्तिशाली लोगों की शक्ति को चिरस्थायी बनाने के प्रयास के विरुद्ध सोसाइटी ऑफ पैंथियोन नामक एक राजनीतिक क्लब की स्थापना की गयी ।
इस क्लब ने कुछ भूतपूर्व जैकोबिनों और उग्रवादी कार्यकर्ताओं को आकर्षित किया तथा अपना अखबार निकाला । इस अखबार का सम्पादक फ्रैंक्वायस नोयल बबूफ था । बबूफ कन्वेन्शन के काल में एक छोटे-से पद पर काम कर चुका था ।
वह निर्धनों का बड़ा हिमायती था । वह फ्रांस में एक ऐसी राज्य-व्यवस्था स्थापित करना चाहता था जो मध्यमवर्गीय पूँजीवाद के प्रभाव से सर्वथा मुक्त हो । वह क्रान्ति को उसके आरम्भिक आदर्शवाद की ओर ले जाना चाहता था, ताकि ‘समान लोगों का जनतंत्र’ कायम हो सके ।
वह समाज की संरचना नये ढंग से करना चाहता था, ताकि आर्थिक दृष्टि से समानता का सिद्धान्त स्थापित हो सके । बबूफ के अनुयायियों ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक कार्यक्रम बनाया जिसका स्वरूप क्रान्तिकारी था ।
वे सेना, प्रशासन और पुलिस की इकाइयों में घुसपैठ करके सशस्त्र विद्रोह द्वारा शासन पर आधिपत्य जमाने को बात सोचते थे । इसकी पूरी तैयार की जा रही थी । हथियार तथा गोलियाँ एकत्र कर ली गयी थीं और निश्चित संकेत दिये जाने पर झंडों के साथ पेरिस के सभी भागों से नागरिकों को विद्रोही सैनिकों के समर्थन में निकल पड़ना था ।
जन-भवनों तथा बेकरियों को हथिया लेने की योजना थी । संक्षेप में, यह 1917 ई. की बोल्शेविक क्रांति का पूर्वाभिनय होनेवाला था । लेकिन, आरम्भ से ही आन्दोलनकर्त्ताओं के बीच पुलिस के खुफिया घुसे हुए थे ।
विद्रोह के प्रारम्भ होने के अवसर पर इसके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया । बबूफवादियों के षड्यंत्र का कोई भी नतीजा नहीं निकला । इसके बावजूद अपने गुप्त, रहस्यात्मक तथा पौराणिक प्रकृति के अपनाने के कारण यह बड़े ही ऐतिहासिक महत्व की घटना बन गयी ।
1797 ई. में षड्यंत्रकारियों पर मुकदमा चला । तीन महीने तक अदालत में चलनेवाला यह मुकदमा बबूफवादी आदर्शों के प्रचार करने का मंच बन गया । बबूफ ने इसे तत्कालीन सत्ता तथा सामाजिक व्यवस्था की आलोचना करने के अवसर में बदल दिया ।
अन्त में वबूफ को फाँसी दे दी गयी और इस प्रकार विशुद्ध फ्रांसीसी क्रान्ति का वह अन्तिम शहीद हुआ । पर बबूफवाद के रूप में एक नया राजनीतिक दर्शन आ निकला ।
फिलीप बोनारौट्टी नामक एक क्रान्तिकारी ने सारे यूरोप में बबूफ के सिद्धान्तों का प्रचार किया । उन्नीसवीं सदी के यूरोप के सर्वाधिक क्रियाशील क्रान्तिकारियों के बीच बबूफ का कार्यक्रम एक क्रान्तिकारी गणतंत्रीय पौराणिक कथा बन गया ।
विप्लव के तरीके एवं उसके आन्तरिक संगठन का व्यापक अध्ययन किया गया, इसका अनुसरण किया गया तथा इसे और भी विकसित किया गया । आधुनिक साम्यवादी भी बबूफ के आदर्शों के साथ कुछ संबंध रखने का दावा करते हैं ।
यह कहा जाता है कि फ़्रांसीसी क्रान्ति की उपज बबूफ तथा वैज्ञानिक समाज के सृजनहार कार्ल मार्क्स के बीच सीधा संबंध था । 1815 ई. के बाद के युग में बबूफ के शिष्य फिलीप बोनारौट्टी ने सामाजिक क्रान्ति को एक नया आयाम दिया ।
उसने ऐसे प्रशिक्षित क्रान्तिकारियों की एक संस्था कायम करने का प्रयास किया, जो सामाजिक क्रान्ति लाने में कार्य करते । अपनी पुस्तकों तथा पर्चों के माध्यम से उसने पश्चिमी यूरोप के युवा क्रान्तिकारियों की नयी पीढ़ी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया तथा उनके बीच अपने लिए प्रतिष्ठा का स्थान बनाया ।
1830 ई. के दशक में जर्मनी के क्रान्तिकारियों के एक दल ने बोनारौट्टी तथा बबूफ के अन्य शिष्यों द्वारा संचालित सर्वहारावर्ग के आन्दोलनों से संबंधित एक संस्था की स्थापना की ।
उन्होंने इस संस्था का नाम ‘द लीग ऑफ द जस्ट’ रखा । विलहेम विटलिंग, जिसने 1842 ई. में एक साम्यवादी पुस्तक Guarantees of Human Freedom की रचना की तथा जिसने अपने को सर्वहारावर्ग के सर्वाधिक प्रमुख जर्मन नेताओं में से एक के रूप में प्रतिष्ठित किया, इस संस्था में शामिल हुआ ।
1846 ई. में ब्रुसेल्स में सामाजिक क्रान्तिकारियों की एक सभा में उसने भाग लिया । इस सर्वहारावर्ग के आन्दोलन को चलाने के लिए एक समान नीति का निर्धारण करने का प्रयास करने के उद्देश्य से इस सभा का आयोजन किया गया था ।
इस सभा में भाग लेनेवालों में से एक था अट्ठाईस वर्षीय युवक कार्ल मार्क्स तथा दूसरा उसका भक्त, मित्र और सहयोगी फ्रेडरिक ऐंजेल्स । कार्ल मार्क्स ‘द लीग ऑफ द जस्ट’ में शामिल हो गया और उसका नाम बदलकर उसने इसे ‘कम्युनिस्ट लीग’ कर दिया । इसके शीघ्र ही बाद ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ नामक ऐतिहासिक घोषणापत्र जारी किया गया ।