Read this article in Hindi to learn about the nature of French revolution.
आधुनिक यूरोप के इतिहास में फ्रांस की क्रांति की एक मुख्य विभाजक-रेखा के रूप में देखने की परम्परा रही है । यह एक महान घटना थी, जिसने पुरातन व्यवस्था को नष्ट कर एक सर्वथा नवीन युग का सूत्रपात किया । कहा जाता है कि फ्रांस में यह क्रांति महज घट गयी ।
1789 ई. में विभिन्न तबके के फ्रांसीसियों ने अपने को एकाएक और अप्रत्याशित रूप से क्रांतिकारी परिस्थितियों के मध्य पाया । इस अर्थ में फ्रांसीसी क्रांति 1917 ई. की रूसी क्रांति से काफी भिन्न थी ।
रूस में प्रतिबद्ध क्रांतिकारियों के दल ने क्रांति की तैयारी बहुत पहले से की थी तथा बोल्शेविकों द्वारा सत्ता पर अधिकार करने की घटना एक सुनियोजित कार्यक्रम था जिस पर क्रांतिकारी लोग क्रांति के विस्फोट के लगभग बीस वर्ष पहले से कार्य कर रहे थे ।
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फ्रांस की क्रांति के स्वरूप के सम्बन्ध में सर्वप्रमुख उल्लेखनीय बात यह है कि यह पूर्णरूप से निश्चयात्मक थी, यानी फ्रांसीसी क्रांति की गति और दिशा वही थी जो लगभग सभी क्रांतियों की होती है ।
क्रांतियों के दौरान प्राय: देखा जाता है कि अनेक धक्कों और प्रतिघातों की बदौलत शक्ति अधिकाधिक उग्रवादी दलों में हस्तांतरित होती रहती है और यह क्रम तबतक चलता रहता है जबतक क्रांति की प्रारम्भिक गति अन्तिम रूप से समाज नहीं हो जाती तथा परिवर्तन का बिन्दु नहीं आ जाता है ।
तब अधिक उदारवादी तत्व अपने हाथों में क्रांति का नियन्त्रण लेने लगते हैं अथवा अपने को जनता की इच्छा का प्रतीक बताता हुआ कोई तानाशाह सत्ता पर अपना अधिकार जमा लेता है ।
1789 से 1799 ई. तक फ्रांस की क्रांति के विभिन्न चरणों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह क्रांति इस सिद्धान्त के बिल्कुल अनुरूप थी । रोग-विज्ञान से अपने शब्द उधार लेते हुए क्रेन ब्रिंटन क्रांति की तुलना बुखार से करते हैं ।
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कुछ लक्षणों के साथ क्रांति का बुखार आरम्भ होता है । आगे बढ़ते हुए या पीछे हटते हुए यह निर्णायक अथवा उन्माद की अवस्था में पहुँचता है । इस अवस्था का अन्त ज्वर के उतरने के साथ होता है । फिर स्वास्थ्य-लाभ की अवस्था आती है ।
इस अवस्था में पूर्ण स्वास्थ्य-लाभ के पहले एक या दो बार ज्वर के दुहरा जाने की स्थिति भी आ सकती है । अपने इस रूपक का प्रयोग फ्रांसीसी क्रांति के सम्बन्ध में करते हुए ब्रिंटन पाता है कि 1789 ई. में बीमारी की शुरुआत हुई और क्रांति का ज्वर तबतक बढ़ता रहा जबतक कि 1793-94 के वर्षों में आतंक के राज्य के रूप में चरम स्थिति पर नहीं पहुँच गयी ।
जुलाई, 1794 में आतंक के अन्त के रूप में ज्वर का अन्त हुआ और इसके साथ स्वास्थ्य-लाभ की लम्बी अवधि शुरू हुई । इस अवधि में ज्वर के दुहरा जाने की एक-दो घटनाएँ भी डाइरेक्टर शासन-काल में घटीं ।
नेपोलियन द्वारा 1799 ई. में सत्ता हथिया लेने की घटना को फ्रांस के ज्वर से मुक्ति लेने की संज्ञा दी जाये या नहीं, यह विवादास्पद बात हो सकती है । पर, निस्संदेह इस वर्ष तक राष्ट्र ने बहुत अंश तक वह सन्तुलन पा लिया जो क्रांतिकारी दशक की क्रमिक संकट की घड़ियों में खो दिया गया था ।
पेरिस की भीड़ जी भूमिका:
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क्रांति की एक अन्य विशेषता का भी यहाँ उल्लेख किया जा सकता है, पेरिस के भीड़ द्वारा अदा की गयी वह महत्वपूर्ण भूमिका जिसने फ्रांस की क्रांति के स्वरूप को काफी हद तक निश्चित किया ।
14 जुलाई, 1789 को पेरिस की भीड़ ने क्रांति के प्रवाह में प्रभावपूर्ण हस्तक्षेप उस समय किया जब उसने राजकीय निरंकुशता के प्रतीक बास्तिल के प्राचीन सामंती किले पर हमला किया ।
बास्तिल का पतन एक अत्यधिक प्रतीकात्मक महत्व की घटना थी । इसने क्रांति को गहराई देने का संकेत दिया तथा भीड़ द्वारा क्रांति की विभिन्न अवस्थाओं में हस्तक्षेप किये जाने का दरवाजा खोल दिया ।
बास्तिल-पतन का प्रभाव समूचे फ्रांस पर पड़ा । वर्ग-वैमनस्यता की आग में झुलसते हुए कृषकों ने सामंतवाद के विरुद्ध हथियार उठा लिया । चुन-चुन कर सामंत या उनके कारिन्दे मारे गये या उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा ।
अक्तूबर, 1789 में सरकार तथा न्यायालय को वर्साय से पेरिस स्थानांतरित करने में एक बार पुन: पेरिस की भीड़ ही जिम्मेवार थी; इस कार्य ने फ्रांस की सरकार को सीधे पेरिस की भीड़ के प्रभावक्षेत्र में ला दिया ।
लेकिन, क्रांति की विभिन्न स्थितियों पर पेरिस का प्रभाव वास्तविक रूप में 1792 ई. में देखने को मिला जब ‘द्वितीय क्रांति’ का विस्फोट हुआ । यदि राजतंत्र का भाग्य फ्रांस की ग्रामीण जनता के हाथों में छोड़ दिया गया होता तो शायद बच जाता ।
लेकिन, जैकोबिन क्लब जैसी राजनीतिक संस्थाओं के माध्यम से काम करते हुए तथा उत्तेजनात्मक पर्चों एवं समाचार-पत्रों के जरिये प्रचार करते हुए पेरिसवासियों को एक उग्रवादी अल्पसंख्यक वर्ग ने राजतंत्र को उलट देने तथा गणतंत्र की स्थापना करने की प्रेरणा दी ।
ऐसी परिस्थितियों में फ्रांस के सभी भागों के प्रतिनिधि समेत निर्वाचित सभा ने क्रांतिकारी कम्यून के आगे घुटने टेक दिये । यह कम्यून पेरिस के उग्रवादियों की वह समिति थी जिसने 10 अगस्त, 1792 को शहर की वैधानिक सरकार से सत्ता हथिया ली थी ।
इसके बाद से कम्यून ने फ्रांस की सरकार में प्रमुख भूमिका निभायी । इसने कई मौकों पर निर्वाचित प्रतिनिधियों को विशेष नीतियाँ अपनाने के लिए बाध्य किया । पेरिस के उग्रवादियों को अपनी शक्ति पर भरोसा था और वे बराबर शक्ति-प्रयोग की धमकी देते रहते थे ।
विधानसभा के प्रतिनिधियों के समक्ष सभास्थल के बाहर वे बराबर सावधानीपूर्वक संगठित प्रदर्शन किया करते थे । दुविधा में पड़े प्रतिनिधियों को पेरिस के उग्रवादियों का गुट इच्छित नीतियों को ही अख्तियार करने पर मजबूर कर देते थे ।
इस तरीके से दृढ़ निश्चय तथा स्पष्ट लक्ष्य वाले अल्पसंख्यकों की इच्छा फ्रांसीसियों के उदासीन बहुमत पर थोप दी जाती थी । किसी ने ठीक ही कहा है कि अल्पसंख्यकों के द्वारा बहुसंख्यकों पर जोर-जबर्दस्ती करने का नाम ही जनतंत्र है ।
इस अल्पसंख्यक वर्ग ने किस प्रकार सरकार तथा उसके नौकरशाही पर अपना नियंत्रण पाया तथा किस प्रकार इसने अपने विचारों को सारे देश में लागू कराया-वह क्रांति की कहानी का एक महत्वपूर्ण भाग है ।
क्रांति का विश्वव्यापी चरित्र:
क्रांति की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता थी इसका विश्वव्यापी चरित्र । क्रांति के प्रारम्भ से ही क्रांतिकारियों ने केवल घरेलू मुसीबतों से निपटनेवाला राष्ट्रीय आन्दोलन मात्र ही नहीं समझा । उन्होंने अपने विचारों को धर्म और रंग का भेद किये बिना सभी मनुष्यों के सामने रखा तथा सभी देशों के लोग उनके अनुयायी हुए ।
क्रान्तिकारियों द्वारा उठाये गये आरम्भिक कदमों में से एक था 27 अगस्त, 1789 को की गयी घोषणा जिसे ‘मनुष्य तथा नागरिकों के अधिकारों की घोषणा’ के नाम से जाना जाता है । इसने “सभी मनुष्यों के लिए, सभी समय के लिए और सभी देशों के लिए और उदाहरण- स्वरूप सारी दुनिया के लिए” घोषित किया कि ”जन्म से समान पैदा होने के कारण सभी मनुष्यों को समान अधिकार मिलना चाहिए ।”
इस घोषणा के आन्तरिक अर्थ पर सरसरी निगाह डालने से पता चलता है कि इसका विश्वव्यापी उपयोग करने का इरादा था और निश्चय ही इसका बड़ा दूरगामी प्रभाव पड़ा ।
यह सिर्फ फ्रांस के लिए ही नहीं, वरन् हर जगह के उन सभी लोगों की भलाई के लिए, जो स्वतन्त्र होना चाहते थे तथा निरंकुश राजतन्त्र एवं सामंती विशेषाधिकारों के बोझ से मुक्ति पाना चाहते थे, बनाया गया था । फ्रांसीसी क्रांति का यह चरित्र अत्यन्त महत्वपूर्ण था । क्रांति के आरम्भिक चरणों में यूरोप में व्यापक रूप से फैलनेवाली उत्साह की लहर की व्याख्या इसी से हो जाती है ।
ब्रिटेन और अमेरिका में सभी प्रकार के प्रगतिवादियों और गणतंत्रवादियों ने उन लक्षणों का स्वागत किया जिनसे यह पता चलता था कि आखिरकार स्थापित निरंकुश तानाशाही कम-से-कम संवैधानिक सुधारों की आवश्यकताओं के समक्ष घुटने टेक रही थी ।
1789 ई. में अन्तरराष्ट्रीय गणतंत्रवाद की एकता का सांकेतिक प्रदर्शन हुआ । इस अवसर पर अमेरिकी स्वातंत्र्य संग्राम का फ़्रांसीसी नायक तथा नेशनल गार्ड के नवनियुक्त कमाण्डर लफायते ने अँग्रेज नायक टॉम पायने को ‘बास्तिल की चाभी’ जॉर्ज वाशिंगटन को प्रदत्त करने हेतु दी ।
1792 ई. में नेशनल ऐसेम्बली ने पायने को ‘फ्रांसीसी नागरिक’ की उपाधि से अलंकृत किया तथा बाद में वह नेशनल कन्वेंशन का एक प्रतिनिधि भी चुना गया जहाँ उसने जिरोंदिस्तों का समर्थन किया ।
प्राकृतिक अधिकारों और जैकोबिनवाद का विरोधी होने के बावजूद प्रमुख अँग्रेजी उदारवादी दार्शनिक जेरमी बेन्थम को भी नागरिकता प्रदान की गयी और इस रूप में उसने 1799 ई. में विधिवत नेपोलियन के समर्थन में अपना मतदान किया ।
क्रांति ने बहुत सारे विदेशियों को आकर्षित किया । दिसम्बर, 1791 में वाष्प इंजिन के आविष्कारक जेम्स वाट के पुत्र के नेतृत्व में अँगरेज प्रगतिवादियों के एक शिष्टमंडल का पेरिस जैकोबिन क्लब में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच भव्य स्वागत हुआ ।
जिरोंदिस्तों की पार्टी अन्तरराष्ट्रीय क्रांति की पार्टी बन गयी । उनका दृढ़ विश्वास था कि फ्रांस में क्रांति तबतक स्थायी और दृढ़ नहीं हो सकती है जबतक वह सारे विश्व में न फैल जाये ।
उन्होंने एक ऐसे युद्ध की कल्पना की जिसमें फ्रांसीसी सेनाएँ पड़ोसी देशों में प्रवेश कर वहाँ के स्थानीय क्रांतिकारियों से मिलकर वहाँ की स्थापित सरकार को उलट देती तथा गणतंत्रों के संघ की स्थापना करती ।
संक्षेप में, उन्होंने संसार भर के लोगों को स्वतन्त्रता का नारा दिया । क्रांतिकारी, फ्रांस की प्रभावशाली पार्टियाँ तथा वर्ग अनुभव करते थे कि वे सम्पूर्ण मानव जाति की ओर से क्रांति-संचालन कर रहे थे । इस कारण वे दूसरे देशों के वासियों को जिन्हें वे अपनी अभिलाषाओं का भागीदार समझते थे, अपनी श्रेणी में सम्मिलित कर लेते थे ।
दूसरे देशों के उदारवादी लोगों ने क्रांति को कम-से-कम तबतक इसी रूप में देखा जबतक आतंक के राज्य की ज्यादतियों तथा फ्रांसीसी सेना की आक्रमकता ने उन्हें निराश नहीं कर दिया । अठारहवीं शताब्दी की यूरोपीय संस्कृति विश्वव्यापी थी तथा इसके अनुरूप ही इसका अन्त एक विश्वव्यापी क्रांति के साथ हुआ ।
क्रांति का बुर्जुआई चरित्र:
कई इतिहासकारों ने 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति को एक बुर्जुआई (बुर्जुआ वर्ग की) क्रांति कहा है । उनके अनुसार इस क्रांति ने महज एक विशेषाधिकारप्राप्त वर्ग की जगह दूसरे विशेषाधिकारी वर्ग का शासन स्थापित कर दिया ।
मनुष्य के अधिकार की घोषणा में पाया जानेवाला सम्मति का ‘पवित्र अधिकार’, 1791 ई. के संविधान में मतदान पर लगाये गये नियन्त्रणों तथा नयी क्रांतिकारी व्यवस्था की वास्तविक कार्यप्रणाली, ये सब इसी विचार का समर्थन करते जान पड़ते हैं कि क्रांति द्वारा उत्पन्न व्यवस्था का उद्देश्य सम्पत्तिशाली वर्गों के हितों की सुरक्षा करना ही था ।
1789 ई. के 4 अगस्त की इस घटना, जिसमें बास्तिल के पतन में उत्पन्न हंगामे के बीच नेशनल ऐसेम्बली ने सामंतवाद को समाप्त घोषित किया, का व्यापक प्रचार किया गया है । सामंतों ने स्वत: अपने सामंती विशेषाधिकारों तथा निजी छूटों को त्याग दिया ।
4 अगस्त की नाटकीय रात्रि के समाप्त होने के पहले ही फ्रांस में सामंती शासन-व्यवस्था का अन्त हो चुका था । कम-से-कम सिद्धान्तत: सभी फ्रांसीसी समान कानूनों तथा करों के अन्तर्गत आ गये थे ।
कुछ ने उदासीन भाव से तथा दूसरों ने भाव-विभोर होकर आत्मत्याग किया होगा । परशु बहुत-सारे प्रतिनिधियों ने सम्भवत: यह अनुभव किया कि उनके विशेषाधिकारों का अन्त निश्चय था ।
अत: इस प्रकार का त्याग शायद किसानों के गुस्से को शान्त कर दे, लेकिन कुछ दिनों पश्चात् जब चार अगस्त के इन निर्णयों को लागू करने की घोषणाएं की गयीं तो किये गये वादों की अपेक्षा उनके शर्त कुछ कम उदार थे ।
सामंती देयों को पूरी तरह छोड़ा नहीं गया । ऐसा करना निजी सम्पत्ति के सिद्धान्त के लिए काफी बड़ा खतरा हो सकता था । जिन उत्तरदायित्वों से किसान मुक्त किये गये थे उनके लिए उन्हें भूमिपतियों को किस्तों में क्षतिपूर्ति करनी थी ।
इस तरह से तथा कई अन्य तरह से आगे के दो वर्षों के दौरान नेशनल ऐसेम्बली ने क्रांतिकारी भावभंगिमा दिखायी, पर वास्तव में वह निजी सम्पत्ति के अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए पूर्ण जागरूक बनी रही ।
आखिरकार तृतीय इस्टेट के निर्वाचित प्रतिनिधि बुर्जुआ ही थे और यद्यपि वे समानता और प्राकृतिक अधिकारों की लम्बी-चौड़ी बातें अवश्य करते थे, फिर भी वे देश को निम्न वर्ग की जनता के हाथों सौंप देने को कतई तैयार नहीं थे ।
मानवाधिकार की घोषणा की दो व्यवस्थाएँ निश्चित रूप से बुर्जुआओं के वर्गहित की सुरक्षा के लिए थीं । प्रथम, घोषणा में सम्मत्ति के अधिकार के महत्व को दुहराया गया था । इसे मनुष्य के प्राकृतिक तथा न छोड़े जा सकनेवाले अधिकार के रूप में रखा गया था ।
द्वितीय, घोषणा के सातवें अनुच्छेद में विधायिनी शक्तियों के सन्दर्भ में उल्लिखित था- ”कानून जन-इच्छा की अभिव्यक्ति है । व्यक्तिगत रूप से अथवा अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से इसके निर्माण में समर्थन देना सभी नागरिकों का अधिकार है ।”
इस प्रकार, वयस्क मताधिकार की बात इस घोषणा में निहित थी, पर नेशनल ऐसेम्बली ने संविधान का निर्माण करते समय ‘नागरिक’ शब्द का अत्यन्त संकुचित अर्थ लगाया तथा मताधिकार को सम्पत्ति के स्वामित्व पर निर्भर करा दिया ।
अपने बुर्जुआ स्वरूप के अनुरूप नेशनल ऐसेम्बली ने नागरिक होने के लिए कुछ योग्यताएँ निर्धारित कर दीं । फ्रांसीसियों को ‘सक्रिय’ ओर ‘निष्क्रिय’ नागरिकों में विभक्त किया गया । यह विभाजन प्रत्यक्ष कर के रूप में अदा की जानेवाला राशि पर निर्भर था ।
सक्रिय नागरिक वे थे जो अपने क्षेत्र में कम-से-कम तीन दिन के परिश्रम के बराबर की रकम प्रत्यक्ष-कर के रूप में अदा करते थे और सिर्फ इन्हें ही मत देने का अधिकार था । इस व्यवस्था ने फ्रांस के लगभग एक-तिहाई पुरुषों को मताधिकार प्राप्त करने से वंचित रखा ।
घरेलू नौकरों और दूकानदारों के सहायकों को भी सक्रिय नागरिकों की सूची से अलग रखा गया । फ्रांसीसी उपनिवेशों में जो हजारों-हजार गुलाम थे, उनकी बात यहाँ उठाना ही बेकार है ।
उनके लिए जिन्होंने ऐसेम्बली के वादों को अक्षरश: लिया था, संविधान की इस व्यवस्था से तीव्र निराशा हुई । ऐसेम्बली की निर्वाचन-पद्धति ने सम्पदा के महत्व पर और जोर डाला । नागरिकों को अपने प्रतिनिधियों के लिए प्रत्यक्ष मतदान करने के अधिकार से वंचित रखा गया ।
इसके बदले में उन्हें प्राथमिक सदनों के रूप में मिलकर निर्वाचकों का चुनाव करना था । निर्वाचक होने के लिए सम्पत्ति-योग्यता मतदाताओं के लिए निश्चित सम्पत्ति-योग्यता से कहीं अधिक रखी गयी और, ये निर्वाचक बदले में ऐसेम्बली के लिए प्रतिनिधियों का नाम देते थे ।
इस व्यवस्था ने यह निश्चित कर दिया कि अपेक्षाकृत धनी लोग ही राज्य के राजनीतिक कार्यकलापों में भाग ले सकते हैं । इस दृष्टि से जबकि ऐसेम्बली ने निश्चित रूप से नागरिकों के अधिकार का समर्थन किया, सामान्य लोगों को ठंढ में ठिठुरने के लिए छोड़ दिया ।
इस प्रकार अतीत की परम्परा को पूरी तरह तोड़ा नहीं गया । फ्रांसीसी क्रांति ने मात्र जन्म पर आधारित भेदभावों को नष्ट किया । जन्म पर आधारित प्राचीन सामंतवाद की जगह धन पर आधारित नये सामंतवाद ने ले ली ।
मताधिकार एवं कोई सार्वजनिक पद प्राप्त करने योग्य होने के लिए कम-से-कम एक निश्चित सीमा तक सम्पत्ति का स्वामी होना आवश्यक हो गया । फ्रांसीसी क्रांति का वास्तविक स्वरूप यही था ।
नेशनल ऐसेम्बली द्वारा अपनायी गयी आर्थिक नीतियों ने स्पष्ट कर दिया कि क्रांति पर बुर्जुआ वर्ग पूरी तरह हावी हो गया है । सरकार द्वारा लिये गये कर्ज की समस्या ने क्रांति को जन्म दिया था ।
लेकिन, क्रांतिकारी नेताओं ने, यहाँ तक कि सर्वाधिक अतिवादी जैकोबिन लोगों ने भी, कभी पुरानी सरकार द्वारा लिये गये ऋणों से मुकर जाने की बात नहीं कही । कारण यह था कि पूरे रूप से बुर्जुआवर्ग का ही धन सरकार के यहाँ बाकी था ।
इस कर्ज को सुरक्षित करने तथा सरकारी खर्च चलाने की नीयत से ही सरकार ने चर्च की सम्पत्ति जब्त की थी । इसी सम्पत्ति को सीमित रखकर ऐसिगनेट्स जारी किया गया था । ऐसिगनेट्स रखने वाले ही चर्च की जमीन खरीद सकते थे ।
जब्त की हुई जमीन में से कुछ भी गरीबों के बीच नहीं बाँटी गयी, यहाँ तक कि समाज के सबसे गरीब तबके को भी नहीं । वास्तव में सभी की सभी जमीन सर्वाधिक कीमतों पर बेची गयी; क्योंकि सरकार की रुचि सामाजिक नहीं, वरन् आर्थिक लाभ प्राप्त करने में थी ।
किसान, अगर उन्हें द्रव्य होता भी तब भी, आसानी से जमीन खरीद नहीं सकते थे; क्योंकि जमीन को नीलामियों और बड़े-बड़े अविभाजित टुकड़ों में बेचा जाता था । वस्तुत: ऐसेम्बली की जमीन-सम्बन्धी नीति से भूमिहीन किसान अत्यन्त क्षुब्ध थे ।
उनका आक्रोश तब और अधिक बढ़ा जब बुर्जुआ विचारों से प्रोत्साहित होकर सरकार ने ग्रामीण आम जमीनों को भी बेचना शुरू किया । यह व्यक्ति के निजी सम्पत्ति के अधिकार के हित में आवश्यक माना गया ।
क्रांतिकारी बुर्जआओं ने स्वतन्त्र आर्थिक व्यक्तिवाद का समर्थन किया । पुरातन व्यवस्था के अन्तर्गत आर्थिक कार्यकलाप पर कई तरह के सरकारी नियन्त्रण लगे थे । वे ऐसे सभी प्रतिबन्धों को हटाने के लिए आतुर थे ।
क्रांति के प्रमुख नेतागण एडम स्मिथ के अनुगामी थे तथा उन्मुक्त आर्थिक क्रियाकलाप में विश्वास रखते थे । अत: नेशनल ऐसेम्बली ने गिल्डों को समाप्त कर दिया । फ्रांस में पहले से ही एक सुसंगठित श्रमिक आंदोलन भी था ।
श्रमिकों ने अपना श्रमिक संघ बना रखा था । संगठित हड़ताल प्राय: ही हुआ करते थे । 1789 ई. के शुरू में जो श्रमसम्बन्धी झंझट शुरू हुए थे, वे क्रांति के दिनों में भी चल रहे थे । अराजकता की स्थिति में व्यापार में मंदी आ गयी ।
1791 ई. में हड़तालों की दूसरी लहर आयी । क्रांति के बुर्जुआ नेतृत्व को यह सब गवारा नहीं था । इन परिस्थितियों से निपटने के लिए नेशनल ऐसेम्बली ने निरंकुश राजतंत्र के युग में निर्मित ली-चैपेलियर कानूनों को फिर से लागू कर दिया ।
सभी श्रमिक संघ संबंधी कार्यों पर प्रतिबन्ध लगा दिये गये । इसने गिल्डों को गैर-कानूनी घोषित कर दिया और किसी प्रकार के आर्थिक हितों को संस्थाबद्ध करने की मनाही कर दी गयी ।
इसने घोषणा की कि किसी भी व्यापार में कोई भी प्रवेश पा सकता था । सभी को किसी संस्था की सदस्यता ग्रहण किये बिना अपने मनपसन्द पेशे या व्यापार में काम करने का अधिकार था । सभी प्रकार के पारिश्रमिक या वेतन काम करनेवाले तथा काम करानेवाले के बीच व्यक्तिगत बातचीत के आधार पर तय किये जानेवाले थे । इस सारी व्यवस्था में श्रमिक-वर्ग को ही नुकसान था ।
फिर भी ली-चैपेलियर कानून का प्रावधान फ्रांस में एक-चौथाई सदी तक बना रहा; क्योंकि यह बुर्जुआओं के वर्गहित में था । नेशनल ऐसेम्बली के उत्तराधिकारी लेजिस्लेटिव ऐसेम्बली बुर्जुआओं से भरी हुयी थी; क्योंकि इसका निर्वाचन नये संविधान के प्रावधान के अनुसार सक्रिय नागरिकों द्वारा हुआ था ।
अत: इस ऐसेम्बली ने सम्पत्तिशाली वर्ग के हितों की ही रक्षा की और सामान्य जनता के हित में कुछ भी नहीं किया । इस अवधि में जिरोंदिस्त और जैकोबिन क्लबों का विकास हुआ ।
सामाजिक रूप से इन क्लबों के सदस्य बुर्जुआ थे, लेकिन राजनीतिक बे घटनाओं के क्रम में वे श्रमजीवी (सर्वहारा) वर्ग की ओर झुकाव रखते थे, हालाँकि उनमें अधिकांश के लिए श्रमजीवी वर्ग एक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधनमात्र था ।
किसानों और श्रमजीवियों दोनों ने ही यह अनुभव किया कि दोनों एसेम्बलियों ने केवल धनियों के हित में काम किया है और उनके लिए कुछ भी नहीं किया है । उनके ये विचार ठीक भी थे ।
यूरोप के साथ क्रान्तिकारी फ्रांस का युद्ध आरम्भ होने पर असन्तुष्ट निम्न-वर्ग के लोगों ने क्रान्ति का समर्थन इसलिए किया था कि प्रतिक्रियावादी शक्तियों की विजय से भगोड़े कुलीन पुन: वापस आ सकते हैं और बदले की भावना से प्रेरित होकर पुन: पुरातन व्यवस्था की स्थापना की माँग कर सकते हैं ।
चूँकि नेशनल कनवेन्शन का निर्वाचन व्यापक वयस्क मताधिकार के आधार पर हुआ था, इसलिए यह दावा किया गया कि इस अवधि में क्रान्ति ने अपने को बुर्जुआ प्रभाव से मुक्त कर लिया था ।
आतंक के राज्य के दौरान एनरेजेज (श्रमजीवी वर्ग के राजनीतिक रूप से चैतन्य नेतागण) तथा हेबर्टवादियों (बुर्जुआवर्ग के कठोर आलोचक) के दबाव में पड़कर क्रांतिकारी सरकार ने श्रमजीवियों की दशा सुधारने की ओर कुछ निश्चित कदम उठाये ।
मेनोरियल व्यवस्था का अन्तिम अवशेष भी समाप्त कर दिया गया और किसानों को जमीन के लिए मुआवजा देने से भी मुक्त कर दिया गया । इस प्रकार और कई अन्य तरीकों से पद्दलितों के हित में कुछ काम अवश्य हुआ । लेकिन श्रमजीवियों की ओर क्रांति का यह झुकाव अल्पकालिक था ।
आतंक के राज्य के अन्त होते ही प्रतिक्रिया प्रारंभ हुई और बुर्जुआओं ने एक बार पुन: अपने को शासन पर प्रतिष्ठित कर लिया । जैकोबिन क्लब बन्द कर दिया गया और वे सारी पुरानी प्रवृत्तियाँ पुन: सक्रिय हो उठीं जिन्होंने बुर्जुआ वर्ग को महत्वपूर्ण स्थान दिया था ।
अब नेतृत्वहीन सर्वहारावर्ग इतना पीड़ित होने लगा जितना पहले कभी नहीं हुआ था । अब वे यदा-कदा विद्रोह करने लगे । तब सरकार ने सेना की सहायता ली । श्रमजीवी वर्ग के विद्रोहियों ने गलियों में रुकावटें खड़ी कर दीं ।
लेकिन, सेना ने इन विद्रोहों को दबा दिया । विजयी तत्व बुर्जुआ वर्ग था जिसने नेशनल ऐसेम्बली के समय से क्रान्ति को निर्देशित किया था और जो आतंक के राज्य के दिनों में भी सही माने में अपदस्थ नहीं हुआ था ।
निम्नवर्ग के विरुद्ध ‘श्वेत आतंक’ को सफल बनाने में युवा बुर्जुआओं ने कुलीनों का साथ दिया । 1793 ई. का प्रजातांत्रिक संविधान रह कर दिया गया और एक नया संविधान बना जो 1795 ई. के अन्त में लागू हुआ ।
इस संविधान ने राजनीतिक रूप से सक्रिय वर्गों पर नियन्त्रण लगाया तथा बुर्जुआ वर्ग के प्रभुत्व को मजबूत बनाया । इसने सभी शिक्षित नागरिकों को मताधिकार प्रदान किया, लेकिन ये मतदाता केवल ‘निर्वाचकों’ का ही चुनाव कर सकते थे और इन निर्वाचकों को अधिक वास्तविक सम्पदा का मालिक होना आवश्यक था, परंतु उनकी संख्या मात्र बीस हजार थी ।
यह 1791 ई. में उनकी संख्या से भी कम थी । ये निर्वाचक सभी प्रमुख विभागों के अधिकारियों के साथ-साथ विधान सभा के सदस्यों का भी चुनाव करते थे । विधानसभा उन दिनों दो सदनों की होती थी । ये सदन डायरेक्टरी नामक प्रशासकों का चुनाव करते थे ।
इस तरह सरकार सिद्धान्तत: बीस हजार ग्रामीण और शहरी भूमिपतियों के हाथ में थी, लेकिन वस्तुत: इसका आधार और भी संकुचित था । कारण, कन्वेन्शन ने अपने सदस्यों के हित में यह निर्णय लिया कि नये व्यक्तियों में से दो-तिहाई को कन्वेन्शन का भूतपूर्व सदस्य होना आवश्यक है ।
इस प्रकार, तथाकथित डायरेक्टरी के युग में फ्रांस में एक बार पुन: बुर्जुआ आधिपत्य स्थापित हो गया । बुर्जुआ क्रांति के लाभों को अन्तिम रूप से इसके ‘पुत्र’ नेपोलियन ने स्थायित्व प्रदान किया ।
उसकी विधान-संहिता ने सम्पत्ति के सम्बंध में नये नियमों का निर्माण किया । पुरातन व्यवस्था की अपेक्षा भू-सम्पत्ति को एक अधिक निजी अधिकार का रूप प्रदान किया गया ।
ठेका, कर्ज, लीज, स्टॉक कम्पनियों तथा ऐसी ही अन्य संस्थाओं से सम्बन्धित नियमों की ऐसी व्यवस्था की गयी जिसमें व्यक्तिगत उद्यम की अर्थनीति को वांछनीय प्रोत्साहन मिले ।
पहले के शासकों द्वारा बनाये गये मजदूर-विरोधी कानूनों को और भी कठोर बनाया गया । कचहरियों में अपने मालिकों के विरुद्ध कामगारों द्वारा उठायी गयी आवाज को कोई महत्व नहीं दिया गया ।
कानून के समक्ष समानता के सिद्धान्त का यह खुला उल्लंघन था । इस प्रकार, नेपोलियन की विधान-संहिता ने सामाजिक और वैधानिक रूप से फ्रांस को बुर्जुआ राज्य-व्यवस्था का स्वर्ग बना दिया ।
श्रमिक आन्दोलन जो कई कारणों से कमजोर रहता आया था और जो बार-बार सभी क्रांतिकारी सरकारों के समक्ष असफल होता रहा था, अब राजनीतिक दृष्य-पटल से ओझल हो गया ।