Read this article in Hindi to learn about the foreign policy of Hitler.
सत्ता-अधिग्रहण के बाद विदेश-नीति के क्षेत्र में हिटलर कैसी नीति का अवलंबन करेगा, इसकी थोड़ी-बहुत झलक उसकी पुस्तक ‘मिनकैम्फ’ में बहुत पहले मिल गयी थी । अपने सार्वजनिक भाषणों में हिटलर अधिक समय वर्साय की संधि की निन्दा में बिताता था और यह जानी हुई बात थी कि सता में आने के बाद हिटलर इस अन्यायपूर्ण संधि की धज्जी-धज्जी उड़ा देगा ।
उसकी विदेश-नीति की दूसरी विशेषता सर्व-जर्मनवाद थी, यानी सभी बिखरे हुए जर्मनों को एक साथ मिलाकर एक शुद्ध जर्मन साम्राज्य कायम करना । पूर्वी यूरोप में स्लाव प्रजाति को मिटाकर जर्मन साम्राज्य का विस्तार करना उसकी विदेश-नीति का तीसरा लक्ष्य था ।
1. वर्साय संधि को तोड़ना:
सत्ता में आते ही हिटलर ने वर्साय संधि पर अपना प्रहार शुरू कर दिया । उस समय जेनेवा ने निरस्त्रीकरण सम्मेलन हो रहा था और जर्मनी भी उसमें हिस्सा ले रहा था । अक्टूबर, 1933 में हिटलर ने जर्मन प्रतिनिधियों को निरस्त्रीकरण सम्मेलन से वापस बुला लिया और उसी समय राष्ट्रसंघ की सदस्यता त्यागने की सूचना भी दे दी ।
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उसने यह भी घोषणा की कि जब आयुधों के सम्बन्ध में जर्मनी की समानता का दावा मान लिया जायेगा तो वह पुन: राष्ट्रसंघ में सम्मिलित होने और निरस्त्रीकरण सम्मेलन में भाग लेने की बात पर पुनर्विचार कर सकता है । इसके बाद भी जर्मनी ने वर्साय संधि द्वारा आरोपित क्षतिपूर्ति की व्यवस्था को मानने से इनकार कर दिया । हिटलर ने स्पष्ट कर दिया कि इस मद में वह मित्रराष्ट्रों को अब कुछ भी देने नहीं जा रहा है ।
1935 ई॰ में ही उसने घोषणा कर दी कि वर्साय संधि की निरस्त्रीकरण-सम्बन्धी धाराएँ अब जर्मनी के लिए किसी भी दृष्टिकोण से बंधनकारी नहीं हैं । इस घोषणा के बाद उसने जर्मनी में अनिवार्य सैनिक सेवा आरम्भ की और वह जर्मनी की सैनिक शक्ति बढ़ाने लगा । कुछ दिनों के उपरान्त उसने स्पष्ट शब्दों में यह भी घोषित कर दिया कि वर्साय संधि की कोई भी शर्त जर्मनी को मान्य नहीं है और भविष्य में जर्मनी अपने को इस संधि से मुक्त समझेगा । इस प्रकार, हिटलर की विदेश-नीति का एक लक्ष्य पूरा हो गया ।
सत्ता में आने के तुरत बाद जहाँ एक ओर हिटलर वर्साय संधि के बंधनों को तोड़ता रहा, वहाँ दूसरी ओर यह भी दर्शाने का प्रयास करता रहा कि उसके इरादे अत्यन्त शान्तिमय हें और वह बलपूर्वक किसी व्यवस्था को तोड़ना नहीं चाहता तथा सभी देशों के साथ मित्रवत् सम्बन्ध कायम रखना चाहता है इसी बात को जताने के लिए मुसोलिनी के प्रस्ताव को मानकर उसने 1933 ई॰ में इटली, फ्रांस और इंग्लैण्ड के साथ पारस्परिक हितों के मामलों में सिर्फ राजनयिक परामर्श करने के लिए समझौता किया । जनवरी, 1934 में उसने पोलैण्ड से एक दसवर्षीय अनाक्रमण संधि द्वारा दोनों देशों के बीच मनोमालिन्य और तनाव कम करके अपनी शान्तिप्रियता का परिचय देने का प्रयास किया ।
हिटलर इंग्लैण्ड को संतुष्ट करके रखना चाहता था । उसके द्वारा जर्मनी के लिए शस्त्रीकरण की घोषणा करते ही यूरोप में बेचैनी फैल गयी । इंग्लैण्ड भी सशंकित न हो जाय, इसलिए उसने तत्काल उसके साथ नौ-सेना के सम्बन्ध में एक समझौता करने की दिशा में कदम उठाया ।
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1935 ई॰ के जून में जर्मनी और इंग्लैण्ड में एक समझौता हुआ जिसके द्वारा ब्रिटेन ने गुप्त रूप से यह स्वीकार कर लिया कि जर्मनी अपनी स्थल और वायुशक्ति में वृद्धि कर सकता है, बशर्ते वह अपनी नौ-सेना को ब्रिटेन की नौ-सेना के पैतीस प्रतिशत से अधिक न बढ़ाये । हिटलर की यह एक महत्वपूर्ण राजनयिक विजय थी ।
अब हिटलर राइनलैण्ड पर कब्जा करने की तैयारी करने लगा । वर्साय सन्धि के द्वारा जर्मनी पर यह प्रतिबन्ध लगा था कि राइनलैण्ड में न तो वह सशस्त्र सेना रख सकता है और न किलाबन्दी कर सकता है । लोकार्नो की सन्धि (1925 ई॰) द्वारा भी जर्मनी ने इस व्यवस्था की पुष्टि की थी । लेकिन, 1935 ई॰ में हिटलर राइनलैण्ड पर जबरन कब्जा करने की तैयारी करने लगा और पैंतीस हजार जर्मन सैनिकों को भेजकर उसने राइनलैण्ड को अपने अधिकार में ले लिया । हिटलर की इस कार्यवाही को कोई रोक नहीं सका । उस समय फ्रांस की सरकार में बुजदिलों का जोर था, जो हिटलर के साथ जोर-आजमाइश में कतराते थे और अन्य देश इस मामले में उदासीन थे ।
2. कामिण्टर्न-विरोधी समझौता:
इसी बीच मुसोलिनी ने अबीसीनिया पर आक्रमण किया । इससे अंतरराष्ट्रीय वातावरण अत्यन्त अशांत हो गया । राष्ट्रसंघ में इस मामले पर विचार हुआ और आक्रामक इटली के विरुद्ध आर्थिक पाबन्दी लगायी गयी । इस कारण, मुसोलिनी इंग्लैण्ड और फ्रांस से बहुत बिगड़ गया । उधर हिटलर ने मुसोलिनी की इस आक्रामक कार्यवाही का प्रबल समर्थन किया ।
इटली के विरुद्ध राष्ट्रसंघ ने जो प्रतिबन्ध लगाये थे, उनका प्रतिरोध करने के लिए इटली को जर्मनी की सहायता की आवश्यकता थी और इटली को यह सहायता मिली भी । इस कारण, जर्मनी और इटली के सम्बन्धों में एक नया अध्याय शुरू हुआ । कुछ महीनों पूर्व जब हिटलर ने आस्ट्रिया पर कब्जा करने का यत्न किया था तो इटली के विरोध के कारण ही वह ऐसा नहीं कर पाया था ।
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अबीसीनिया युद्ध के समय जर्मनी के मैत्रीपूर्ण रवैये के कारण हिटलर इस बात के लिए आश्वस्त हो गया कि आस्ट्रिया में अपने मनसूबों को पूरा करने में हिटलर को अब इटली के विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा । इस स्थिति में जर्मनी और इटली दोनों के सम्बन्ध घनिष्ठतर होते गये । इसी बीच जुलाई, 1937 में स्पेन में गृहयुद्ध छिड़ गया ।
फासिस्ट विचारोंवाले जनरल फ्रैंको ने गणतन्त्रीय स्पेन पर आक्रमण कर दिया और मुसोलिनी से उसको पूरी सहायता मिली । इस अवसर पर हिटलर ने मुसोलिनी के साथ पूरा सहयोग किया और दोनों मिलकर जनरल फ्रैंको की मदद करते रहे । इस गृहयुद्ध ने जर्मनी और इटली का सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ बना दिया ।
सहयोग और मित्रता के इस वातावरण में अक्टूबर, 1936 में इटली और जर्मनी के बीच एक गुप्त समझौता हुआ, जिसके अनुसार सभी अंतरराष्ट्रीय मसलो पर दोनों ने पूर्ण सहयोग करने का वचन दिया ।
यह सन्धि यूरोपीय राजनीति के लिए बड़ी महत्वपूर्ण थी । इसके परिणामस्वरूप जर्मनी को एक विश्वासपात्र मित्र मिल गया और उसके एकाकी जीवन का अन्त हुआ । इसके साथ ही अब रोम-बर्लिन धुरी की बात चलने लगी । इसके कुछ ही दिनों बाद जर्मनी और जापान के मध्य अंतरराष्ट्रीय कम्युनिष्ट का विरोध करने के लिए एक कामिण्टर्न-विरोधी समझौता हुआ ।
जर्मनी और जापान दोनों ने कम्युनिष्ट का विरोध करने का निश्चय किया । 1937 ई॰ में कामिण्टर्न-विरोधी इस समझौते में इटली भी शामिल हो गया । इस प्रकार, संसार के तीन प्रमुख फासिस्टवादी राज्यों में घनिष्ठतर सहयोग कायम हुआ । आस्ट्रिया का बिलयन-सभी जर्मन भाषा-भाषी लोगों को एक अ में बाँधना हिटलर की विदेश-नीति का एक दूसरा लक्ष्य था ।
आस्ट्रिया के निवासी भी जर्मन जाति के थे और हिटलर उन्हें जर्मन साम्राज्य में सम्मिलित करना चाहता था । सत्ता-अधिग्रहण के तुरन्त बाद हिटलर इस प्रयास में जुट गया । आस्ट्रिया में नात्सी पार्टी की एक शाखा स्थापित हुई और उसी के माध्यम से जर्मनी में आस्ट्रिया के विलय के लिए एक प्रेरित आन्दोलन शुरू हुआ । उस समय आस्ट्रिया का प्रधानमंत्री जोजेफ डॉल्फस था ।
वह आस्ट्रिया की स्वतन्त्र स्थिति बनाये रखना चाहता था । अत: उसने आस्ट्रियाई नात्सियों का दमन करना शुरू किया । बहुत-सारे आस्ट्रियाई नात्सी जर्मनी भाग खड़े हुए, जहाँ हिटलर के निर्देशन पर एक अर्द्ध-सैनिक संगठन ‘आस्ट्रियाई लिजिन’ की स्थापना हुई । यह संगठन आस्ट्रिया-जर्मनी सीमाओं पर उत्पात मचाने लगा ।
जुलाई, 1934 में नात्सियों द्वारा डॉल्फस की हत्या की योजना बनायी गयी और एक खूनी राजपलटी द्वारा सत्ता हथियाने का कार्यक्रम बना । षड़यन्त्र को कार्यान्वित करने के क्रम में डॉल्फस की हत्या तो कर दी गयी, लेकिन आस्ट्रियाई नात्सी सत्ता हस्तगत करने में सफल नहीं हो सके और सभी नात्सी षड़यन्त्रकारी पकड़ लिये गये । हिटलर इस अव्यवस्था से लाभ उठाकर आस्ट्रिया मे फौज भेजने का प्रयास कर ही रहा था कि इटली ने उसका विरोध किया ।
उस समय तक मुसोलिनी और हिटलर में घनिष्ठ मैत्री-सम्बन्ध की स्थापना नहीं हुई थी । अत: मुसोलिनी के सक्रिय विरोध के कारण हिटलर को अपना कदम पीछे खींचना पड़ा और आस्ट्रिया-विलय का उसका मनसूबा तत्काल के लिए पूरा नहीं सका ।
इसके बाद ही मुसोलिनी ने अबीसीनिया पर आक्रमण किया और इस अवसर पर मुसोलिनी को हिटलर का पूरा समर्थन मिला । अब हिटलर निश्चिन्त हो गया कि यदि वह दुबारा आस्ट्रिया को मिलाने का यत्न करेगा तो इटली द्वारा उसका विरोध नहीं होगा । अत: वह उन परिस्थितियों को तैयार करने का उपक्रम करने लगा जिनमें बाध्य होकर आस्ट्रिया को जर्मनी के साथ मिलना पड़े ।
हिटलर ने आस्ट्रिया के प्रधानमन्त्री शुशनिंग को बर्लिन-यात्रा के लिए आमन्त्रित किया । जब शुशनिंग बर्लिन पहुँचा तो उसके समक्ष कई माँगे रखी गयीं और यह धमकी दी गयी कि यदि शुशनिंग उन्हें नहीं मान लेता है तो जर्मनी आस्ट्रिया पर हमला कर देगा और सैनिक कार्यवाही द्वारा उसे जर्मनी में मिला देगा । शुशनिंग ने वियना लौटकर हिटलर की कई शर्तों को स्वीकार कर लिया, पर उसने स्पष्ट कर दिया कि जर्मनी के साथ आस्ट्रिया के विलय का प्रश्न आस्ट्रियाई जनता के लोकमत द्वारा तय होगा ।
लेकिन, हिटलर अपनी योजना को लोकमत की अनिश्चित कसौटी पर नहीं रखना चाहता था । उसने माँग की कि लोकमत का कार्यक्रम तुरन्त स्थगित कर दिया जाय और आस्ट्रियाई नात्सी नेता सेइस इन्कार्बट को प्रधानमंत्री बनाया जाय; यदि ऐसा नहीं हुआ तो जर्मनी शीघ्र ही आस्ट्रिया के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही प्रारम्भ कर देगा ।
सीमान्तों पर जर्मन सेना इकट्ठी की जाने लगी । सौनक दबाव से भयभीत होकर आस्ट्रिया के राष्ट्रपति ने सेइस इन्कार्बट को आस्ट्रिया का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया । नये प्रधानमंत्री ने तुरंत ही हिटलर को एक तार द्वारा सूचित किया कि आस्ट्रिया में कानून-व्यवस्था की हालत एकदम खराब हो गयी है और इसको नियंत्रित करने के लिए वह जर्मनी से सैनिक सहायता माँग रहा है ।
इसी बात को बहाना बनाकर जर्मनी की सेना आस्ट्रिया में प्रविष्ट कर गयी और उसने पूरे आस्ट्रिया को अपने कब्जे में ले लिया । हिटलर ने कहा कि लोकमत-संग्रह का उपयुक्त समय अब है । जब लोकमत हुआ तो लगभग 99 प्रतिशत जनता ने भयभीत अवस्था में जर्मनी के साथ आस्ट्रिया के विलयन के पक्ष में वोट दिया ।
इस प्रकार, आस्ट्रिया जर्मन साम्राज्य में मिला लिया गया और एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में आस्ट्रिया का अस्तित्व समाप्त हो गया । हिटलर के विरोध में किसी भी शक्तिशाली राष्ट्र ने उसके इस गैरकानूनी कार्य में हस्तक्षेप नहीं किया । इससे हिटलर का हौसला बहुत बढ़ गया और वह दूसरे राज्यों को भी हड़पने की तैयारी करने लगा ।
3. चेकोस्लोवाकिया का विनाश:
आस्ट्रिया के बाद हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया को अपने साम्राज्यवादी इरादों का लक्ष्य बनाया । चेकोस्लोवाकिया राज्य का सृजन प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हुआ था और इसके सुडटेन प्रदेश में बहुत-बड़ी संख्या में जर्मन जाति के लोग निवास करते थे । इसलिए, हिटलर सुडटेनलैण्ड को जर्मनी के साथ मिलाना चाहता था सत्ता में आने के तुरन्त बाद उसने सुडटेन-जर्मनों को अपने पक्ष में करना शुरू किया और वहाँ भी नात्सी पार्टी की एक शाखा स्थापित की गयी ।
सुडटेन-जर्मनो ने कहना शुरू किया कि चेक सरकार उन पर घोर अत्याचार करती है और इस अत्याचार से मुक्ति का एकमात्र उपाय यह है कि उन्हें जर्मन साम्राज्य का अंग बनने दिया जाय । चेक सरकार पर यह इस्लाम सरासर गलत था, लेकिन हिटलर ने अपने प्रचार-साधनों से इसका खूब प्रचार किया और सुडटेन-जर्मनों की माँगो का समर्थन किया ।
सुडटेन जर्मनो के नेता हेनलीन ने चेक सरकार के समक्ष आठ माँगे रखीं और हिटलर ने डराना- धमकाना शुरू किया कि यदि चेक सरकार इन माँगों को स्वीकार नहीं करती तो जर्मनी की सरकार सुडटेन-जर्मनो के न्यायपूर्ण अधिकारों के रक्षार्थ चेकोस्तोवाकिया के विरुद्ध सैनिक कार्यवाह? करेगी । हिटलर के इस रवैये से यूरोप का राजनीतिक वातावरण अत्यन्त तनावपूर्ण हो गया, क्योंकि चेकोस्तोवाकिया की फ्रांस और सोवियत संघ के साथ एक संधि थी ।
यदि चेकोस्लोवाकिया पर जर्मनी आक्रमण करता तो संधि के अनुसार फ्रांस और सोवियत संघ उसको सैनिक मदद देने को बाध्य थे । इस तरह, पुन: एक यूरोपीय युद्ध छिड़ जाने की संभावना थी । ऐसी हालत में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने हिटलर पर दबाव डालना शुरू किया कि वह चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण नहीं करें और वार्तालाप द्वारा इस मामले को तय कर ले ।
लेकिन, हिटलर संकट को और गहरा बनाता रहा और ऐसा प्रतीत हुआ कि इस प्रश्न पर यूरोप के बड़े-बड़े राष्ट्र युद्ध में फँस जायेंगे इसी समय मुसोलिनी के माध्यम से हिटलर को एक सम्मेलन के लिए राजी करा लिया गया और जूनिख में चार महाशक्तियों- ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस और इटली के शासनाध्यक्ष्यों का एक सम्मेलन हुआ इस सम्मेलन ने सुडटेनलैण्ड को जर्मनी को दे देने का निश्चय किया ।
हिटलर ने अक्टूबर, 1938 में पूरे सुटडटेलैण्ड पर अधिकार कर लिया । इस तरह, चेकोस्लोवाकिया का अंग-भंग करके हिटलर की प्रादेशिक भूख को शान्त किया गया । लेकिन, यूरोप के शान्ति के हक में इसका परिणाम बड़ा भयानक हुआ । एक छोटे राज्य को भेड़िये के सामने फेंक दिया गया था और एक बार खून की लत लग जाने के बाद आगे हिटलर की भूख मिटाना संभव नहीं रहा ।
वह समझ गया कि उसके विरोधी कमजोर हैं और धौंस दिखाकर वह कोई भी लक्ष्य प्राप्त कर सकता हैं । ब्रिटेन का प्रधानमंत्री चेम्बरलेन यह समझता था कि एक बार हिटलर की माँगों को स्वीकार करके उसको संयमित रखा जा सकता है । लेकिन, चूनिख संधि के बाद उसे पता चल गया कि हिटलर की प्रादेशिक भूख बड़ी तेज है, उसकी माँगों की कोई सीमा नहीं है और किसी कीमत पर उसको संतुष्ट नहीं किया जा सकता ।
चेकोस्लोवाकिया का अंग-भंग करके भी हिटलर को संतोष नहीं हुआ वह संपूर्ण चेकोस्लोवाकिया को निगलना चाहता था । अत: धूनिख समझौते के कार्यान्वित होने के तुरंत बाद उसने शेष चेकोस्लोवाकिया को भी समाप्त करने का निश्चय किया । हिटलर ने पुन: एक संकट पैदा किया और चेक राष्ट्रपति हाचा को बर्लिन बुलाकर उसे एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने को बाध्य किया गया, जिसके अनुसार राष्ट्रपति हाचा ने कहा- ”मैं पूर्ण विश्वास के साथ चेक-जनता और चेक-राज्य को जर्मन चांसलर के महान नेता (फ्यूरर यानी हिटलर) की संरक्षता में सौंपता हूँ ।”
15 अगस्त, 1938 को चेकोस्लोवाकिया को जर्मन साम्राज्य में शामिल कर लिया गया । इसके कुछ भू-भाग पर रूमेनिया, पोलैण्ड और हंगरी ने अधिकार कर लिया और इस प्रकार स्वतंत्र चेकोस्लोवाकिया का नामोनिशान मिट गया ।चेकोस्लोवाकिया के विनाश के बाद हिटलर ने लिथुआनिया को डरा-धमकाकर मेमेल के बंदरगाह पर अधिकार कर लिया ।
4. पोलैण्ड पर आक्रमण:
चेकोस्लोवाकिया के बाद हिटलर का अगला लक्ष्य पोलिश गलियारा और डान्जिंग के जर्मन नगर पर अधिकार करना था । स्मरणीय हे कि वर्साय संधि के द्वारा नवनिर्मित स्वतंत्र पोलैण्ड के राज्य को बाल्टिक सागर के तट पर पहुँचने के लिए जर्मनी के बीचों-बीच कुछ भूभाग दिया गया था, जिसको ‘पोलैण्ड का गलियारा’ कहा जाता था । डान्जिंग के जर्मन बंदरगाह पर इस गलियारे का दरवाजा खुलता था और इसलिए इस जर्मन नगर को जर्मनी से अलग करके राष्ट्रसंघ की प्रशासनिक देखरेख में रखा गया था । हिटलर ने फौरन यह माँग की कि जर्मनी का भू-भाग उसे वापस मिलना चाहिए ।
अर्थात्, गलियारे को समाप्त करके डान्जिंग का बंदरगाह उसको वापस मिल जाना चाहिए । उसने यह धमकी भी दी कि यदि पोलैण्ड की सरकार इन्हें नहीं लौटाती है तो जर्मनी सैनिक कार्यवाही करके बलपूर्वक इन खोये हुए जर्मन भू-भागों को प्राप्त कर लेगा । गलियारे और डान्जिंग के प्रश्नों पर हिटलर ने एक गंभीर अंतरराष्ट्रीय संकट पैदा कर दिया ।
ब्रिटेन और फ्रांस जो अभी तक तुष्टिकरण की नीति का अवलंबन कर रहे थे, सचेत हो गये । अब उनकी आँखे खुलीं और वे समझ गये कि हिटलर को तुष्ट करके उन्होंने उसकी प्रसारवादी मनोवृत्ति को कितना प्रोत्साहित किया था । अत: अब उन्होंने हिटलर का विरोध करने का संकल्प किया तथा पोलैण्ड को इस बात की गारंटी दी गयी कि यदि हिटलर ने उस पर आक्रमण किया तो वे पोलैण्ड की रक्षा करेंगे । इसका मतलब साफ था ।
यदि गलियारे और डान्जिंग को लेकर हिटलर पोलैण्ड पर आक्रमण करता है तो युद्ध में ब्रिटेन और फ्रांस भी उसके विरोध में रहेंगे और इस प्रकार पोलैण्ड-जर्मनी-युद्ध एक यूरोपीय और अंतत: विश्वयुद्ध का रूप ले लेगा । ऐसी हालत में जर्मनी चाहता था कि सोवियत संघ तटस्थ रहे, क्योंकि यदि सोवियत संघ भी पोलैण्ड की ओर से युद्ध में आ जाता तो जर्मनी को दो मोर्चों पर युद्ध करना पड़ता । हिटलर इस संभावना को टालना चाहता था ।
अत: उसने सोवियत नेताओं से एक समझोते के लिए बातचीत शुरू की । सोवियत नेता भी जर्मनी के साथ एक समझौता करने को तैयार थे, क्योंकि अभी उनकी सामरिक तैयारियाँ पूरी नहीं हुई थीं और वे हिटलर के साथ उस समय तक युद्ध करना नहीं चाहते थे, जबतक कि वे पूरी तरह से तेयार न हो जाते ।
अत: 23 अगस्त, 1939 को जर्मनी और सोवियत संघ के बीच एक अनाक्रमण संधि हो गयी, जिसके अनुसार दोनों देशों ने एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध नहीं छेड़ने का आश्वासन दिया इसके तुरंत बाद हिटलर पोलैण्ड की ओर मुड़ा । जान-बूझकर उसने संकट को गहरा बनाया ओर 1 सितम्बर, 1939 को उसने पोलैण्ड पर विशाल पैमाने पर आक्रमण कर दिया । फिर, फ्रांस और ब्रिटेन ने पोलैण्ड का पक्ष लिया और इस प्रकार यूरोप की महाशक्तियाँ एक अन्य यूरोपीय युद्ध में फँस गयीं, जिसने बाद में द्वितीय विश्वयुद्ध का रूप धारण कर लिया ।
1933-34 के बाद की घटनाओं तथा हिटलर की विदेश-नीति के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के विस्फोट के लिए जर्मनी मुख्य रूप से जिम्मेवार था । हिटलर ने घटनाओं की उस शृंखला का प्रारम्भ किया, जिसमें द्वितीय विश्वयुद्ध का आरम्भ होना अनिवार्य हो गया । फिर भी, इस जवाबदेही से ब्रिटेन और फ्रांस को भी मुक्त नहीं किया जा सकता ।
यदि शुरू में ही उन्होंने हिटलर की आक्रामक नीतियों का डटकर मुकाबला किया होता तो हिटलर का हौसला इतना नहीं बढ़ता और उसके आक्रामक इरादों को खत्म किया जा सकता था ।
5. द्वितीय विश्वयुद्ध:
जर्मनी और पोलैण्ड का युद्ध शीघ्र ही एक विश्वयुद्ध में परिवर्तित हो गया । जर्मन सेनाओं ने विद्युदवेग से पोलैण्ड पर प्रहार किया । 17 सितम्बर को रूस ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया तथा 28 सितम्बर को जर्मनी और रूस ने पोलैण्ड को आपस में विभाजित कर लिया । परंतु हिटलर केवल पोलैण्ड की विजय से ही संतुष्ट नहीं हुआ । वह विश्व-प्रभुत्व का स्वप्न देख रहा था ।
23 नवम्बर, 1939 को उसने अपने जनरलों से कहा- ”मैं प्रहार करूँगा, शत्रु के हाथ समर्पण नहीं । समझौते की प्रत्येक आशा बचपनामात्र है यह विजय है या पराजय । प्रश्न नात्सी जर्मनी के भाग्य का नहीं है, वरन् इसका है कि भविष्य में यूरोप पर कौन शासन करेगा ।” 9 अप्रैल, 1940 को हिटलर ने नार्वे पर और अगले दिन डेनमार्क पर आक्रमण कर दिया । दोनों ने तुरंत आत्मसमर्पण कर दिया ।
10 मई को बेल्जियम पर आक्रमण के साथ नात्सी विद्युत-प्रहार का दूसरा दौर प्रारम्भ हुआ और 24 जून तक बेल्जियम, हॉलैण्ड और फ्रांस हिटलर के चरणों पर लोटने लगे । 10 जुलाई को जर्मनी का ब्रिटेन पर वायु-आक्रमण प्रारम्भ हुआ, पर जर्मनी को महीनों युद्ध करने के बाद भी ब्रिटेन को पराजित करने में सफलता नहीं मिली । ऐसी स्थिति में हिटलर ने अपना ध्यान पुन: पूर्वी क्षेत्रों की ओर लगाया सितम्बर में रूमानिया तथा नवम्बर मे हंगरी और चकोस्लोवाकिया धुरीराष्ट्रों में सम्मिलित हो गये ।
1 मार्च, 1941 को बल्गारिया धुरीराष्ट्रों में सम्मिलित हुआ । अप्रैल में जर्मनी ने यूगोजाविया पर विजय प्राप्त कर ली । 22 जून, 1941 को जर्मनी ने रूस पर धावा बोल दिया । परंतु, रूस पर आक्रमण हिटलर की एक भयानक भूल सिद्ध हुई । कुछ प्रारम्भिक सफलताओं के बावजूद जर्मन सेनाएँ पराजित हुईं ।
1943 ई॰ में लेनिनग्राद के ऐतिहासिक युद्ध के बाद जर्मनी की सामरिक कमर टूट गयी । रूस, ब्रिटेन और अमेरिका आदि संयुक्त राष्ट्रों के संयुक्त आक्रमणों के समक्ष जर्मनी को घुटने टेक देने पड़े । 29 अप्रैल, 1945 को हिटलर नेआत्महत्या कर ली 7 मई को जर्मनी ने आत्मसमर्पण कर दिया ।
युद्ध के बाद जर्मनी दो भागों में विभाजित हो गया । पूर्वी भाग पर रूस का और पश्चिमी भाग पर अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस का आधिपत्य स्थापित हुआ । पश्चिमी जर्मनी को लगभग पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हो गयी, परंतु उसने पश्चिमी राष्ट्रों से मैत्री संधियाँ कीं । पूर्वी जर्मनी में एक रूस-समर्थक साम्यवादी सरकार कार्य करती रही । जर्मनी के ये दोनों भाग 1990 ई॰ में पुन संयुक्त हो गए और अविभक्त जर्मन राष्ट्र का उदय हुआ ।