Read this article in Hindi to learn about the rise of Hitler after the first world war.
1889 ई॰ में आस्ट्रिया में जन्मे एडोल्फ हिटलर ने अपने जीवन के प्रथम सत्ताइस वर्ष बड़ी ही विपन्नता में बिताये । इन वर्षों में वियना और म्यूनिख में घूमते हुए उसने राजनीति में अपनी अभिरुचि बढ़ायी और कम्युनिस्टों तथा यहूदियों के प्रति तीव्र एवं उग्र घृणा से भर गया । 1914 ई॰ में प्रथम विश्वयुद्ध के छिड़ने पर वह जर्मनी की सेना में भरती हो गया ।
युद्ध समाप्त होने के बाद पाँच वर्षों में उसने म्यूनिख में एक अर्थहीन राजनीतिक जीवन बिताया । वह जर्मन वर्कर्स पार्टी का एक सदस्य बन गया । यह पार्टी कुछ उग्रवादियों द्वारा अपने देश के प्रति किये गये अपमान का बदला तथा उसके लिए कुछ प्रतिष्ठा अर्जित करने के उद्देश्य से बनायी गयी थी ।
1920 ई॰ में जर्मन वर्कर्स पार्टी ने अपना नाम बदलकर नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी रखा और म्यूनिख में अपना मुख्यालय स्थापित किया । धीरे-धीरे, पर निश्चित रूप से हिटलर इसका नेता बन गया । उसने अपने चारों ओर हंगामा करनेवालों को इकट्ठा किया, जिसमें अर्स्ट रोहेम, रुफ्ड हेस, अत्फ्रेड रोजनबर्ग, गौल्टफ्रिएड फेडर, हरमन गोरिंग, जुलियस स्ट्रिचर, जौसेफ गोबुल्स आदि प्रमुख थे ।
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हिटलर पार्टी का फ्यूरर बन गया जिसका अर्थ होता था नेता । नेतृत्व का सिद्धान्त शीघ्र ही स्थापित हो गया, जो पार्टी का पहला कानून बना । इसका अर्थ था कि नेता सर्वशक्मिान है- लगभग एक महामानव ।
जर्मनी की नात्सी क्रांति संभवत: बीसवीं सदीकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आश्चर्यजनक घटना थी । हिटलर के नेतृत्व में नात्सियों का उदय 1920 से 1930 ई॰ के बीच यूरोप में हुए महान परिवर्तन को दर्शाता है । इस परिवर्तन को आर्थिक संकट से निश्चय ही उत्प्रेरणा प्राप्त हुई, लेकिन निश्चय ही यह आर्थिक संकट नास्सीवाद के उदय का न तो एकमात्र और न ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण था । बहुत हद तक नात्सीवाद एक आन्तरिक जर्मन प्रक्रिया थी जिसने उसके अधिकारवाद तथा राष्ट्रवाद की पुरानी जर्मन राजनीतिक विचारधारा को पुन: जागृत कर दिया ।
नात्सीवाद की समस्त विचारधारा जर्मन लोगों के नस-नस में समायी हुई थी, हिटलर ने उसे उभारकर उतेजित कर दिया । हिटलर का कार्यक्रम जर्मन जनता की इच्छाओं, परम्पराओं और विचारधाराओं के अनुकूल था । उसमें फ्रेडरिक द्वितीय के सैनिकवाद, फिक्टे की वीर-पूजा, हिगेल के राज्य की सर्वोच्चता के सिद्धान्त, नोबेलिस के ‘शक्ति ही अधिकार है’ के सिद्धान्त, मार्विल्स के यहूदी-विरोध, फ्रेडरिक लिस्ट की जर्मनी के लिए अतिरिक्त प्रदेशों की माँग तथा हीस्टन स्टीवर्ट चेश्वरलेन के आर्य प्रजाति की श्रेष्ठता के सिद्धान्त का समन्वय था ।
प्रथम विश्वयुद्ध में पराजय के बाद, जैसा कि हम देख चुके हैं, जर्मनी को वर्साय की अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर करना पड़ा था । उसके याद वाइमर गणतन्त्र के अधीन जर्मनी में एक प्रजातान्त्रिक सरकार की स्थापना की गयी । वाइमर गणतन्त्र को आरम्भ से ही बहुत-सारे बोझ (जैसे- वर्साय की संधि, क्षतिपूर्ति तथा 1923 ई॰ की भयानक मुद्रास्फीति का बोझ) उठाने पर विवश कर दिया गया था ।
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इसके अतिरिक्त, गणतन्त्र की सरकार जर्मनी के समाज में उन गहन एवं गंभीर सामाजिक परिर्तनों को लाने में असफल रही, जो संभवत: जर्मन समाज के राजनीतिक और सामाजिक आकृति को गणतन्त्रीय स्वरूप प्रदान करने में सफल हुई होती तथा इस प्रकार गणतन्त्रीय शक्तियों को और अधिक मजबूत बना पाती । वाइमर गणतन्त्र शुरू से ही विदेशी था ।
इसके नेताओं को, राजतन्त्रवादी नागरिक प्रशासकों को (जो संसदीय प्रणाली तथा गणतन्त्र के प्रबल विरोधी थे) तथा उनके समान ही शासकीय मनोवृत्ति रखनेवाले अधिकारियों के ऐसे दल पर (जो अन्तरराष्टवाद और शान्तिवाद को घृणा की नजरों से देखते थे) निर्भर रहने के लिए विवश होना पड़ा था । अत: गणतन्त्र में अति महत्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के माध्यम से एक शक्तिशाली गणतंत्रविरोधी तथा प्रजातन्त्राबरोधी प्रभाव का उद्धव हुआ ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि गणतन्त्र को अपनी स्थापना के प्रारम्भिक दिनों में पर्याप्त जनसमर्थन मिला था । लेकिन, वर्साय की संधि के प्रभावस्वरूप यह समर्थन शीघ्र ही विलीन हो गया । युद्ध के बाद पाँच वर्षों तक जर्मनी में यंत्र-तंत्र तथा यदा- कदा हिंसक घटनाएँ घटती रहीं ।
कम्युनिस्ट आन्दोलन भी प्रबल होता रहा । पर, इनसे भी खतरनाक वे चालबाजियाँ थीं, जो राजतन्त्र समर्थकों तथा गणतन्त्रविरोधी संस्थाओं द्वारा की जा रही थीं । ऐसा इसलिए था कि जर्मन जनता के मन में इन संस्थाओं के प्रति कोई अनुराग नहीं था और ऐसे बहुत से संगठन कायम हो गये पेजो सशस्त्र लोगों के दल रखते थे तथा 1920 ई॰ के काप राजपलटी जैसा आन्दोलन करने की धमकी दे रहे थे । नात्सियों द्वारा पोषित ‘ब्राउन शर्ट्स’ अथवा ‘स्टौर्म दूपर्स’ एक ऐसी ही निजी सेना थी । ऐसा दल हत्याएँ करने पर भी उतर जाता था ।
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1923 ई॰ में जब क्षतिपूर्ति की अदायगी जर्मनी नहीं कर सका तब फ्रांसीसी सेनाओं ने, जैसा कि हम देख चुके हैं, रूर पर आधिपत्य जमा लिया । इस पर संपूर्ण जर्मनी राष्ट्रीय आक्रोश की भावना से भर उठा । हिटलर तथा राष्टीय समाजवादी, जिन्हें 1919 ई॰ के बाद काफी जनसमर्थन प्राप्त हो चुका था, ने फ्रांसीसियों के समक्ष लज्जाजनक ढंग से समर्पण कर देने के लिए वाइमर सरकार की तीव्र निन्दा की ।
उन्होंने इस अवसर को सता हथिया लेने के लिए सर्वोत्तम अवसर माना और 1923 ई॰ में ब्राउन प्राईस ने चूनिख के बीअर हॉल की राजपलटी का प्रयास किया । हिटलर मंच पर कूद पड़ा और यह चिल्लाते हुए कि राष्ट्रीय क्रांति प्रारम्म हो गयी है, उसने पिस्तौल से एक गोली चलायी । लेकिन, पुलिस ने इस उपद्रव को दबा दिया तथा हिटलर को पाँच वर्ष कैद की सजा दी गयी । जेल में ही उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मिनकैम्फ’ की रचना की ।
यह इतिहास के सिद्धान्तों, व्यक्तिगत स्मृतियों, प्रजातिवाद, राष्ट्रवाद, प्रबल यहूदी- विरोधवाद तथा राजनीतिक टिप्पणियों का एक अव्यवस्थित संग्रह था । हिटलर को कुछ बड़े लोगों का भी समर्थन मिला । इनमें एक था जनरल लूडेनड्रोफ, जिसने युद्ध में बड़ी प्रतिष्ठा अर्जित की थी ।
1924 ई॰ में जर्मनी की स्थिति सामान्य होती हुई नजर आयी । क्षतिपूर्ति की रकम की व्यवस्था हो जाने के कारण फ्रांसीसियों द्वारा रूर का प्रदेश खाली कर दिया गया । एक नयी और स्थिर मुद्रा अंगीकृत करने तथा अमेरिका से ऋण प्राप्त करने के साथ जर्मनी में एक आश्चर्यजनक आर्थिक पुनरुत्थान हुआ ।
1925 ई॰ के लोकार्नो समझौते ने जर्मनी को एक सम्मानजनक स्थान दिला दिया । उस समय ऐसा लगा कि नात्सियों का प्रभाव समाप्त हो गया । हिटलर की गिनती पागलों की कोटि में होने लगी । सभी कुछ शान्त एवं स्थिर नजर आने लगा । तभी 1929 ई॰ का महान् आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ । एडोल्फ हिटलर, जो इस आर्थिक मदी के बिना इतिहास द्वारा भुला दिया गया होता, इस मंदी द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों में एक महान व्यक्ति की तरह अवतरित हुआ ।
विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से कोई भी देश इतना अधिक पीड़ित नहीं हुआ, जितना जर्मनी । विदेशों से प्राप्त होनेवाले ऋण अकस्मात बंद हो गये । मध्यमवर्ग अबतक 1923 ई॰ की महान मंदी के प्रकोप से उबरा नहीं था । एक अल्पकालिक विश्राम के बाद उसे पुन: एक-दूसरे आर्थिक संकट का शिकार होना पड़ा । इस कारण, मौजूदा आर्थिक व्यवस्था और उसके पूरे भविष्य पर से उसका विश्वास ही उठ गया । जर्मनी के समाज में इस वर्ग का प्राबल्य था और साम्यवाद को इस वर्ग के लोग बड़ी शंका की निगाह से देखते थे । जो स्थिति जर्मनी में उत्पन्न हो गयी थी, उसमें इस वर्ग के लोग व्याकुलता से चारों ओर देखने लगे और एक ऐसे व्यक्ति की खोज में रहने लगे जो उन्हें इन सारी मुसीबतों से छुटकारा दिलाता ।
इस मंदी ने जर्मनों के मन में वर्साय संधि के प्रति घोर घृणा का संचार किया । जर्मनी के बहुत-सारे लोग मानते थे कि युद्ध के बाद मित्रराष्ट्रों द्वारा किये गये व्यवहार-जर्मनी की सीमाओं का अन्यायपूर्ण निर्माण, उसके उपनिवेशों, बाजारों, जहाजरानी, विदेशों में लगी पूँजी का समाप्त हो जाना, क्षतिपूर्ति की रकम के रूप में बहुत बड़ी राशि की माँग करना, रूर को अधिकृत कर लेना, मंदी तथा अन्य कई कारण ही जर्मनी के विनाश और मुसीबतों के मुख्य कारण थे ।
ऐसी उलझनों में घिरकर किसी भी देश की जनता घबड़ाहट और आक्रोश से भर उठती, लेकिन इन उलझनों से छुटकारा पाने के लिए जर्मनों ने जो रास्ता अपनाया, उसका स्वरूप शुद्ध जर्मन था और जो जर्मनी के इतिहास और गहन विचारधारा में मूलबद्ध था और जो पिछली सदियों के उसके अनुभवों पर आधारित था ।
किसी अन्य देश में, संभवत: प्रजातांत्रिक तरीकों से इन समस्याओं को सुलझाया जा सकता था । लेकिन, जर्मनी में प्रजातंत्र एक नया प्रयोग था, जो उसके इतिहास के लिए एक अजनबी वस्तु थी । जर्मनी में इसका महत्त्व अभी तक प्रमाणित नहीं हुआ था और इसे सीधे ही अजर्मन परंपरा कहा जा सकता था जिसको विदेशी शक्तियों ने युद्ध में पराजय के बाद जर्मनी पर जबरन लाद दिया था ।
ऐसी सभी भावनाओं को हिटलर ने अपने प्रचारों द्वारा प्रचलित किया । उसने वर्साय संधि की निन्दा एक राष्ट्रीय अपमान के रूप में की । वर्ग-संघर्ष, मतभेद, दुर्बलता एवं शाब्दिक व्यर्थता के प्रतिरूप के रूप में उसने वाइमर गणराज्य की निन्दा की । उसने एक विशाल और महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रयत्नशील जनसमूह के बीच एक ‘वास्तविक प्रजातंत्र’ अर्थात् एक क्रियाशील नेता के नेतृत्व में एक जनतंत्र स्थापित करने का आहान किया ।
उसने उद्घोषणा की कि जर्मनी के ‘विशुद्ध जर्मनों’ को अपने-आप पर निर्भर होना ही होगा । मार्क्सवादियों, सामाजिक समाजवादियों तथा बोल्दोविकवादियों की निन्दा उसने यह कहकर की कि ये सभी जान-बूझकर समस्याओं को और अधिक उलझा देते हैं और राष्ट्र के हित के विरोध में काम करते हैं ।
लेकिन, उसने छोटे आदमी के लिए सही ढंग के समाजवाद, यानी राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन श्रमिक दल के सिद्धान्त का समर्थन करने का दावा किया अनर्जित आय, युद्धों से प्राप्त लाभ, बड़े-बड़े ट्रस्टों की शक्ति, उपभोक्ता वस्तुओं के भण्डारों की शृंखलाओं, भूमि के सट्टेबाजों, ‘सूद की गुलामी’ तथा अनुचित करो के प्रति उसने बड़ा ही कड़ा विरोध प्रकट किया लेकिन, इन सबसे परे उसने यहूदी जाति की बड़ी कड़ी निन्दा की ।
हिटलर उन्हें दैवीय अभिशाप मानता था और प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के लिए उन्हें ही मुख्य रूप से जिम्मेवार मानता था । जर्मनी के आर्थिक जीवन पर यहूदी हावी थे और लगभग सभी बड़े समाचारपत्रों पर उनका नियंत्रण था इन सभी कारणों से हिटलर ने यहूदियों का प्रबल विरोध किया ।
यहूदी विरोधवाद के रूप में हिटलर को वह माध्यम मिल गया, जिसकी सहायता से वह सभी वर्गों के जर्मन लोगों को प्रभावित कर सकता था । विचारहीन तथा अज्ञानी लोग जो आर्थिक और सामाजिक शक्तियों के विषय में कुछ भी नहीं जानते थे, उन्हें यहूदियों के बारे में आसानी से समझाया जा सकता था कि मात्र वे ही देश की विपत्ति के मूल कारण थे ।
1930 ई॰ के चुनाव में नात्सियों ने जर्मन संसद् के निम्न सदन राइखस्टैग की 107 सीटे जीतीं, जबकि 1924 ई॰ में उन्होंने मात्र बारह जगहे प्राप्त की थीं । कम्युनिस्टों का प्रतिनिधित्व से बढ़कर 77 हो गया था । इस समय तक आर्थिक संकट बना हुआ था तथा निराशा और उतावलापन गहनतर होता जा रहा था ।
राइखस्टैग में कामचलाऊ बहुमत के अभाव में जब-तब चुनाव कराने पड़ते थे । किसी भी चुनाव ने इस गतिरोध को समाप्त करने में कोई भी सहायता प्रदान नहीं की । जुलाई, 1932 में नात्सियों ने दो सौ तीस जगहें प्राप्त कर अपने को एक सबसे बड़ा दल प्रमाणित किया, यद्यपि अनेक दलों के चुनाव में हिस्सा लेने के कारण राइखस्टैग में उनको बहुमत नहीं मिल पाया ।
1932 ई॰ के दूसरे चुनाव में नात्तियों की ताकत कुछ कम हो गयी, क्योंकि वे 196 साटें ही प्राप्त कर सके, यद्यपि इस बार भी वे राइखस्टैग में सभी दलो से आगे थे । वोट हासिल करने की दृष्टि से इस चुनाव में कम्युनिस्ट आगे बढ़ गये थे यद्यपि उन्हें एक सौ सीटे ही मिली थीं । इस चुनाव के नतीजों को देखते हुए हिटलर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अब सत्ता में आने का अवसर समाप्त हो गया ।
लोकन, इसी समय कुछ उग्रवादी राष्ट्रवादियों तथा गणतंत्रविरोधी तत्त्वों (जिसमें पुराने कुलीनवर्गीय व्यक्ति, संकीर्ण विचारवाले जंकर लोग, सेना के पदाधिकारी, लौह-व्यवसाय के बड़े-बड़े उद्योगपति आदि थे) ने हिटलर की सहायता की । उन्होंने समझ लिया कि बोत्योयिकवाद से जर्मनी की रक्षा एकमात्र हिटलर ही कर सकता है । अत: उन्होंने हिटलर और अन्य नात्सी नेताओं को भरपूर आर्थिक सहायता देनी शुरू की ।
हिटलर द्वारा सत्ता-अधिग्रहण:
1930 ई॰ के बाद से एक के बाद एक कई चांसलर हुए, जो प्रमुख रूप से आपातकालीन सांविधानिक अधिकारों की सहायता से शासन चलाते रहे । जब फॉन श्लीचर ने अपने मन्त्रिमण्डल के साथ अपना त्यागपत्र दिया तो राष्ट्रवादी नेताओं ने राष्ट्रपति हिण्डेनबर्ग को हिटलर को एक मिले-जुले मन्त्रिमण्डल का चान्सलर मनोनीत करने पर तैयार कर लिया ।
30 जनवरी, 1933 को एक पूर्णरूपेण वैधानिक तरीके से एडोल्फ हिटलर जर्मन गणतंत्र का चांसलर या प्रधानमंत्री बना । नये मंत्रिमंडल में अन्य स्थान उन राष्ट्रवादियों को प्राप्त हुए, जिनके साथ मिलकर नात्सियों को सत्ता संभालनी थी । लेकिन, सत्ता में हिस्सा प्राप्त करना हिटलर का लक्ष्य नहीं था । वह पूरी तरह अपने बूते पर मंत्रिमंडल बनाने की कामना करता था ।
हिटलर ने एक दूसरा चुनाव कराने की घोषणा की । चुनाव के एक सप्ताह पहले राइखस्टैग के भवन में आग लग गयी । यह आग स्वयं नात्सियों के षड़यन्त्र से लगी थी । लेकिन, नालियों ने इसका सारा दोष कचुनिस्टो पर मढ़ा । उन्होंने एक भयानक ‘लाल संकट’ का वातावरण उत्पन्न कराया और यह प्रचारित किया कि हिंसक तरीकों के जरिये कम्युनिस्ट सत्ता- अधिग्रहण की योजना बना रहे थे ।
हिटलर ने तुरंत भाषण और स्वतंत्रता के अधिकारों को निलम्बित कर दिया तथा मतदाताओं को धमकाने के उद्देश्य से ब्राउन शर्ट्स को पूरी छूट दे दी । इसके बावजूद चुनाव में नालियों को मात्र चौवालिस प्रतिशत ही मत प्राप्त हुए । फिर भी, हिटलर ने राष्ट्रीय आपात् की घोषणा की और एक पूर्णत: नियंत्रित राइखस्टैग-जिसमें उसके नवनिर्वाचित कम्युनिस्ट सदस्यों को भाग नहीं लेने दिया गया था-द्वारा उसको अधिनायकवादी अधिकार प्रदान किया गया ।
नात्सी क्रांति अब प्रारम्भ हो चुकी थी । अपनी नयी व्यवस्था को हिटलर ने ‘तृतीय राइख’ की संज्ञा दी और उसने यह घोषणा की कि यह तीसरा राइख हजारों वर्ष तक बना रहेगा ।
जर्मनी में नात्सियों के उत्कर्ष में किन लोगों या वर्गों का समर्थन मिला ? हिटलर के समर्थक अनेक थे । कुलीनवर्ग के लोगों ने हिटलर को अपना समर्थन इसलिए दिया कि वे धृणित वाइमर गणतंत्र को उलट देना चाहते थे । नात्सियों की एक नयी सामाजिक व्यवस्था करने के वायदे ने युवकों और छात्रों को बहुत हद तक प्रभावित किया ।
किसान तथा छोटे शहरों के वासिन्दे बड़े शहरी तथा औद्योगिकीकरण के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे । उन्हें उम्मीद थी कि हिटलर इन प्रवृत्तियों से उनकी रक्षा करेगा । नाती मतों का अधिकांश मध्यमवर्गों, विशेषकर निम्न-मध्यमवर्गों से आता था । वे मुद्रास्फीति से बुरी तरह प्रभावित हुए थे ।
1920 ई॰ के दशक के बादवाले हिस्से में हुए कुछ सुधार के बावजूद ट्रस्टों तथा कारटेलों के रूप में संगठित बड़े उद्योगों के खरा प्रस्तुत कठोर प्रतियोगिता के कारण लघु उद्योगों के मालिकों की आर्थिक स्थिति चिन्ताजनक बनी रही । बड़े-बड़े विभागीय भण्डारों डिपार्टमेण्टल स्टोस ई की बढ़ती हुई लोकप्रियता के कारण छोटे दुकानदारों को अपने व्यापार में घाटा होने लगा ।
इसके अतिरिक्त, कारखानों, कार्यालयों तथा भण्डारों में काम करनेवाले ‘बाबुओं’ पर मन्दी का बड़ा ही बुरा प्रभाव पड़ा । उन्हें श्रमिक संघों की न्यूनतम सुरक्षा भी प्राप्त नहीं थी । निम्न-मध्यमवर्ग के अधिकांश सदस्यों का यह विश्वास था कि गणतंत्रीय शासन-व्यवस्था अयोग्यता और भ्रष्टाचारिता से ऊपर उठ ही नहीं सकती ।
नात्सी पाद के तगड़े प्रभाव का एक कारण यह भी था कि यह दल अपने को सभी दलों से अलग घोषित करता था तथा यह घोषणा करता था कि वह चुनावों में मात्र इसलिए भाग ले रहा है कि उसे तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था को उलटना है ।
हिटलर के उत्कर्ष में स्वयं उसका व्यक्तित्व और उसके विचार बड़े सहायक हुए । जनसमूहों के मस्तिष्क को निर्देशित करने की कला में पारखी होना हिटलर की मौलिकता थी । राजनीति में झूठ बोलने की प्रभावकारिता पर वह बड़ा बल देता था और यही उसका प्रमुख अस्त्र था । ”एक राजनीतिक नेता को ।”
हिटलर ने कहा था- ”झूठ बोलने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए अगर उसके द्वारा बोला गया झूठ प्रभावशाली हो । पर वह झूठ निश्चय ही एक बहुत बड़ा झूठ होना चाहिए, क्योंकि छोटे-मोटे झूठों को जनता पहचान ले सकती है, क्योंकि ऐसा झूठ वह स्वयं बोलती हे । लेकिन, बहुत बड़े झूठ बोलने की क्षमता जनसमूह में नहीं होती और वह यह विश्वास भी नहीं कर सकेगी कि दूसरे लोग इस तरह से तथ्य को तोड़-मरोड़ कर झूठ बोल सकते हैं । अत: किसी कथन की प्रभावशीलता उसकी सत्यता पर आधारित नहीं होती, वरन् इस पर निर्भर करती है कि कितने उन्माद और उत्तेजना के साथ इसे पेश किया जाता है । समुचित ढंग से प्रस्तुत किये गये किसी तथ्य के प्रति जनसमूह की प्रतिक्रिया हमेशा ही बिना यह सोचे हुए कि क्या कहा जा रहा है, उसे स्वीकार कर लेने की होगी ।”
अपने भाषणों में हिटलर हमेशा ही इन नियमों का पालन बड़ी सावधानीपूर्वक किया करता था । उसका भाषण ही उसकी ताकत था तथा सर्वोच्च सत्ता तक पहुँचने की उसकी प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान उन विशाल जनसमूहों का था, जिनमें वह भाषण देकर उन्माद पैदा करता था ।
हिटलर के राजनीतिक विचार अपरिपक्व थे तथा उसमें डारविनवाद, नित्से के दर्शन, हेनरीख ट्रेटस्की और गोबिन्यू की विचारधारा का निचोड़ था । प्रकृति का संपूर्ण क्रियाकलाप शक्ति और दुर्बलता के बीच एक व्यापक संघर्ष के समान है- दुर्बलों पर शक्तिशालियों की एक चिरन्तन विजय ।
हिटलर के अनुसार- राजनीति विभिन्न प्रजातियों के बीच एक संघर्ष था, लोकन उसके विचार में सभी प्रजातियाँ समान नहीं थीं । आर्य प्रजाति अन्य सभी प्रजातियों से श्रेष्ठ थी । चूँकि, संघर्ष जीवन का नियम था, अत: युद्ध एक आवश्यकता थी और एक राष्ट्रीय नेता का प्रमुख कर्तव्य था अपने राज्य को सामाजिक रूप से इतना शक्तिशाली बनाना, ताकि वह युद्ध जीत सके तथा अपना प्रसार कर सके ।
इस विचारधारा की राजनीतिक प्रयुक्ति का परिणाम कुछ ठोस उद्देश्यों की प्राप्ति के रूप में परिलक्षित हुआ । अपने विचार में हुए कुछ परिवर्तनों के बावजूद हिटलर ने सर्वदा फ्रांस और इंग्लैण्ड को जर्मनी का दुश्मन समझा । उन्हें वह घृणा की दृष्टि से देखता था ।
पुराने पड़ गये जनतंत्रों के रूप में उनमें कुलीनों के शासन का अभाव था और इसलिए वे दुर्बल और पतनोन्मुखी थे । जर्मन राष्ट्र का विशेष शत्रु, हिटलर की नजर में, बोल्दोविक रूस था, क्योंकि रूस एक प्रजातंत्र नहीं, वरन् अधिनायकतंत्र था । उसमें पुराने पड़ने का कोई आसार नजर नहीं आ रहा था ।
इसके अतिरिक्त, रूस कोपराजित करके उसके विस्तृत भू-भाग को जर्मनी के लिए प्राप्त किया जा सकता था । और, अंत में हिटलर यह मानता था कि साम्यवाद का मूल यहूदी थे और जर्मनी के लिए यहूदी सर्वाधिक खतरनाक थे तथा आर्यों के घोर शत्रु थे । यहूदी-विरोधवाद हिटलर के राजनीतिक विचारों का केन्द्र था ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दरम्यान यहूदी समस्या का आखिरी समाधान, अर्थात् यहूदियों का पूर्ण विनाश-की धारणा जो उभर कर आयी थी, उस पर उसका ध्यान प्रारम्भ से ही केन्द्रित था । लेकिन, नात्सी शासन के प्रारम्भ में हिटलर यह मानता रहा कि यहूदियों को अपना कार्यकलाप जारी रखने की अनुमति दी जाय शीघ्र ही बात बदल गयी ।
यहूदी युवकों को स्कूल तथा कॉलेज में दाखिला बंद करा दिया गया आर्थिक कार्यकलाप की दृष्टि से भी वे पंगु बना दिये गये । यहूदी-विरोधवाद की नीति चरमोत्कर्ष पर 15 सितम्बर, 1935 को पहुँची, जब न्यूरेमबर्ग कानून पारित हुआ ।
इसके द्वारा यहूदियों अथवा यहूदी मूलवाले व्यक्तियों को जर्मन नागरिकता प्राप्त करने तथा उनके एवं विशुद्ध जर्मनों के बीच शादी-विवाह होने पर रोक लगा दी गयी । यहूदियों पर यह भी प्रतिबंध लगा कि वे किसी जर्मन महिला को सेविका नियुक्त नहीं कर सकते ।
इस बात पर भी यहूदियों को बाध्य किया गया कि जब कभी भी वे बाजार या गलियों में निकलें तो अपने पोशाक पर डेविड का पीला तारा लगाये रखे । उन्हें घेटो में रहने पर बाध्य किया गया इन कानूनों के विरुद्ध किये गये विरोधों और प्रदर्शनों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया ।
नयी हिटलरी व्यवस्था और सर्वाधिकारवाद:
जर्मनी में जो नयी हिटलरी व्यवस्था कायम हुई, वह पूर्णत: सर्वाधिकारवादी थी । यह एक ठोस और चट्टानी व्यवस्था थी । यह उस चट्टान की तरह थी जिसमें अलग-अलग कणों का कोई महत्त्व नहीं था । जर्मनी अब वाइमर गणराज्यवाला एक संघीय राज्य नहीं था ।
राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी को छोड़कर सभी राजनीतिक पार्टियाँ नष्ट कर दी गयीं । कचुनिस्ट पार्टी को समाप्त करने के बाद सामाजिक प्रजातांत्रिक पार्टी की बारी आयी इस दल की प्रमुखता ट्रेड यूनियनों पर थी और हड़ताल कराकर वे सरकार को अस्त-व्यस्त कर सकते थे । हिटलर ने पहले ट्रेड यूनियनों को सोशल डेमोक्रैस्सों से अलग करा दिया । उसने ट्रेड यूनियनों को कहा कि वे राजनीतिक गतिविधि को छोड़कर केवल आर्थिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सक्रिय रहें तो उन्हें वह अपना अस्तित्व बनाये रखने देगा यूनियनों के नेता इस जाल में फँस गये और इस प्रतिबन्ध को स्वीकार कर लिया ।
उसके पश्चात् नालियों ने घोषणा की कि स्वतंत्र ट्रेड यूनियनों की कोई आवश्यकता नहीं है । श्रमिक संघों और मालिकों को मिलाकर एक विशाल संगठन कायम गया और संभी ट्रेड यूनियनों को इसमें मिल जाने को कहा गया । पहली मई, 1934 को एक जर्मन लेबर फ्रंट की स्थापना की गयी ।
दूसरे दिन ट्रेड यूनियन के भवनों पर सरकार ने कब्जा कर लिया, उनकी धनराशियों जन्त कर ली गयीं तथा उनके कुछ प्रमुख नेताओं को हिरासत में ले लिया गया । ट्रेड यूनियनों के नष्ट होने के बाद सामाजिक प्रजातंत्रवादी एकदम कमजोर हो गये । अब वे सरकार पर किसी तरह का दबाव डालने की स्थिति में नहीं रहे । कैद कर लिये जाने के भय से कुछ सामाजिक प्रजातंत्रवादी जर्मनी छोड़कर विदेश चले गये और वहीं से नालियों के विरुद्ध काम करने लगे ।
इस पर नात्सियों ने सामाजिक प्रजातंत्रवादियों को देशद्रोही घोषित कर दिया, इस पार्टी पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा इसके बहुत-से नेताओं को कैद करके नजरबन्दी शिविर में डाल दिया । कैथोलिक सेंटर पार्टी तथा जर्मन नेशनलिस्ट पार्टी का भी यही अंजाम हुआ ।
14 जुलाई, 1934 को सरकारी घोषणा की गयी कि सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी देश की एकमात्र राजनीतिक पार्टी है जर्मनी अब एकदलीय देश हो गया । बहुदलीय व्यवस्था को समाप्त किया जाना जर्मनी द्वारा सर्वाधिकारवादी अधिनायकत्व की ओर उठाया गया सर्वाधिक महत्वपूर्ण कदम था । लेकिन, यह तो बहुत सारे कदमों में केवल एक था । विभिन्न सरकारी तंत्रों के शीर्ष पर नात्सी-कौमिसारों की नियुक्तियाँ की गयीं ।
नात्सियों द्वारा नियंत्रित एक व्यापक संस्था बनाकर प्रेस और समाचारपत्रों के क्रियाकलापों को समन्वित किया गया । मात्र इस संस्था के सदस्यों को अखबारों का मालिक होने, अखबारों को सम्पादित करने तथा अखबारों में काम करने की अनुमति प्रदान की गयी । विश्वविद्यालयों का भी इसी तरह सरकारीकरण कर दिया गया प्रजाति-विज्ञान के अध्ययन-अध्यापन का विशेष प्रबन्ध किया गया ।
नात्सी पार्टी के लोग विश्वविद्यालयों में रेक्टर बहाल किये गये विश्वविद्यालयों की सेवा-अवधि तथा प्रोन्नति पाने के लिए शिक्षकों को उद्घोषित नात्सी विचारो को अभिव्यक्त करना तथा उनका समर्थन करना एक आवश्यक शर्त थी । उन पुस्तकों को सार्वजनिक स्थलों पर रखकर जलाया गया, जिनमें नात्सीवाद के विरोध में विचारधाराएँ व्यक्त की गयी थीं ।
इन सभी परिवर्तनों के साथ-साथ आतंक की एक व्यवस्थित नीति अपनायी गयी सत्ता में आते ही नात्सियों ने पुलिस को अपने शिकंजे में ले लिया । पुराने संघीय राज्यों में आन्तरिक मामलों के मंत्री के हाथ में पुलिस का विभाग रहता था । अत: नात्सियों ने यह सुनिश्चित कर लिया कि इस पद पर उनके दल के ही विश्वसनीय सदस्यों की नियुक्ति हो ।
बड़े-बड़े नगरों में केवल नात्सियों को ही पुलिस कमिश्नर के पद पर नियुक्त किया गया । इन पदाधिकारियों ने नात्सी स्ट्रौर्म ट्रूपर्स को सहायक पुलिस बना लिया । राइखस्टैग अग्निकांड के बाद पारित किये गये आपातकालीन कानून ने पुलिस को किसी भी व्यक्ति को मात्र शक-संदेह पर गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया । अब जर्मनी में कोई भी सुरक्षित न था ।
स्ट्रौर्म ट्रूपर्स के विरुद्ध असावधानीपूर्वक बोले गये किसी भी वाक्य का परिणाम कैद हो सकता था । बहुत सारे लोग विलुप्त हो गये और उनके बारे में कभी कुछ सुना नहीं गया । नात्सी प्रदर्शनकारियों के क्रियाकलापों में हस्तक्षेप करने से पुलिस ने इनकार कर दिया । अप्रैल, 1933 में नात्सी बेरोकटोक मध्य बर्लिन की गलियों में धमाचौकड़ी मचाते रहे और यहूदियों के विभागीय भंडारों और दूकानों पर पत्थर फेंकते रहे ।
इसी प्रकार, विश्वविद्यालयों में नात्सी छात्रों द्वारा किये गये उपद्रवों ने नयी सत्ता के विरुद्ध अमैत्रीपूर्ण विचार रखनेवाले प्राध्यापकों को अपना पाठ्यक्रम छोड़ देने पर विवश किया । आतंक के वातावरण में और इन अन्धकारपूर्ण घटनाओं के संदर्भ में अधिकारियों द्वारा बरती जा रही चुप्पी ने स्थिति को और अधिक भयावह बना दिया ।
लोगों ने प्रश्न पूछना बंद कर दिया तथा उनके चारों ओर जो कुछ भी घट रहा था उसकी ओर से आँखें मूँद लीं । इसके अतिरिक्त, पुलिस का एक नया संगठन किया गया जिसे ‘गेस्टापो’ कहते हैं । इसका मुख्यालय बर्लिन में था और सारे देश में इसके कार्यालय फैले हुए थे । गेस्टापो ने नात्सियों के विशेष दुश्मनों पर ध्यान दिया । उन्हें गिरफ्तार किया गया, पूछताछ की गयी, पीड़ित किया गया और अंत में नजरबंदी शिविरों में डाल दिया गया ।
प्रोटेस्टेंट तथा कैथोलिक दोनों ही चर्चों को शासन के साथ समन्वित कर दिया गया तथा उनके पादरियों को नास्तियों की गतिविधियों की आलोचना करने की मनाही कर दी गयी । अंतरराष्ट्रीय धार्मिक सम्बन्धों को तोड़ दिया गया तथा बच्चों को चर्च के स्कूलों से अलग रखने का प्रयास किया गया । शिक्षा-प्रणाली में सबसे अधिक जोर नात्सीवाद तथा इसके नेता की पूजा पर दिया गया
श्रमिक संगठनों को भी समन्वित किया गया ।
नेतृत्व का सिद्धान्त यहाँ भी लागू किया गया । कारखानों के मालिकों को छोटे-छोटे नेताओं के रूप में मान्यता दी गयी और उन्हें व्यापक अधिकार दिये गये । एक व्यापक जनकार्य योजना प्रारम्भ की गयी । मकान तथा विशाल राजमार्ग निर्मित किये गये । शस्त्रीकरण की एक विशाल योजना ने बेकारों को नौकरियाँ दीं ओर कुछ ही समय में बेकारी समाप्त हो गयी ।
हिटलर को एकमात्र गंभीर खतरा स्वयं नात्सी पार्टी के अंदर से ही उत्पन्न हुआ । 1934 ई॰ में पार्टी में घोर हिंसात्मक ‘शुद्धिकरण’ किया गया । बहुत-सारे पुराने ब्राउन शर्टस के नेताओं (जो सामाजिक क्रान्ति के पक्षधर होते जा रहे थे) पर हिटलर के विरुद्ध षड़यन्त्र करने का आरोप लगाया गया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया । ये घटनाएँ हिटलर के सर्वशक्तिमान होने की प्रतीक थीं ।
जब अगस्त को राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग की मृत्यु हो गयी, तब हिटलर ने राष्ट्रपति और चांसलर दोनों ही पदों को बिना किसी विरोध का सामना किये हुए अपने में एकीकृत कर लिया ।