The following article will guide you about how did Europeans invade India in Hindi language.
विदेशी मुख्यतया दो मार्गों द्वारा भारत में प्रवेश कर सकते थे- उत्तर-पश्चिम सीमा को पार कर प्रसिद्ध स्थल-मार्ग द्वारा तथा समुद्र-मार्ग द्वारा । गज़नी, गोर, समर-कंद और काबुल के मुसलमानों ने स्थल-मार्ग से आकर इस देश पर आक्रमण किया था ।
मोगल-साम्राज्य ने अपना आधिपत्य कायम रखने के लिए एक बड़ी स्थायी सेना रखी और इस प्रकार सावधानी बरती किन्तु एक मजबूत जलसेना का निर्माण कर समुद्र- मार्ग की रक्षा के महत्व को महसूस करने में मुगल चूक गये । आधुनिक काल की भारतीय शक्तियों में केवल मराठों ने ही इस ओर प्रयत्न किया ।
प्रत्यक्षत: मुगलों ने समुद्र पर शासन करने का मनसूबा नहीं किया । इसे पार कर यूरोप की व्यापारिक जातियाँ भारत आयीं, जिन्होंने अंत में इस देश के इतिहास को नया मोड़ दिया ।
ADVERTISEMENTS:
स्मरणातीत काल से ही भारत का पश्चिम के देशों से व्यापारिक सम्बन्ध था । किन्तु सातवीं सदी ईसवी से इसका सामुद्रिक व्यापार अरबों के हाथों में चला गया, जिनकी हिन्द महासागर और लाल सागर में तूती बोलने लगी । वेनिस और जेनोआ के साहसी सौदागर उन्हीं से भारतीय माल खरीदने लगे ।
पंद्रहवीं सदी के अंतिम चतुर्थांश की भौगोलिक खोजों का संसार के विभिन्न देशों के व्यापारिक सम्बन्धों पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा इनके इतिहास में महत्वपूर्ण परिणाम उपस्थित हुए ।
बार्थोलोम्यू डियाज १४८७ ई॰ में उत्तमाशा अंतरीप पहुँच गया, जिसे उसने तूफानी अंतरीप कहा । वास्को डा गामा ने भारत के एक नये मार्ग का पता लगाया और १७ मई, १४९८ ई॰ को कालीकट के प्रसिद्ध बंदरगाह पर पहुँच गया । “शायद मध्यकाल की किसी घटना ने सभ्य जगत् पर महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं डाला, जितना भारत के सामुद्रिक मार्ग के खुल जाने से पड़ा ।”
पुर्तगीज (Portuguese):
वास्को डा गामा को कालीकट के हिन्दू राजा से, जिसकी पैतृक उपाधि ‘जमोरिन’ थी, मैत्रीपूर्ण बर्ताव मिला । पुर्तगाल के सौदागर सदैव पूर्वी व्यापार के लाभों को लालच की नजर से देखते थे । वास्को डा गामा की खोजों के फलस्वरूप वे सौदागर भारत के प्रत्यक्ष सामुद्रिक संपर्क में आ गये तथा भारत से उनके व्यापारिक सम्बन्ध का रास्ता खुल गया ।
ADVERTISEMENTS:
९ मार्च, १५०० ई॰ को, तेरह जहाजों के एक बेड़े का नायक बनकर, पेड्रो अल्वरेज़ केबल जल-मार्ग द्वारा लिसबन से भारत के लिए रवाना हुआ । किन्तु पुर्तगीज, वैध व्यापार की सीमाओं में अपने को बाँध रखने के बदले, पूर्वी समुद्रों में अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए अनुचित रूप से महत्त्वाकांक्षी हो उठे ।
इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए उन्होंने दूसरी जातियों के सौदागरों को उनके व्यापार के लाभों में वंचित कर उन्हें तंग करने के मार्ग का अवलम्बन किया । इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि कालीकट के राजा से, जिसकी समृद्धि अरब सौदागरों पर काफी निर्भर थी, उनकी शत्रुता चलने लगी । अपनी ओर से पुर्तगीज दक्षिण भारत के राज्यों के राजनीतिक षड्यंत्रों में भाग लेने लगे । वे कालीकट के राजा के शत्रुओं से, जिनमें कोचीन का राजा प्रमुख था संधियां करने लगे ।
भारत में पुर्तगीज शक्ति की वास्तविक नींव डालनेवाला अलफोंसो डि अलबुकर्क था । वह एक छोटे जहाजी बेड़े का नायक बनकर १५०३ ई॰ में प्रथम बार भारत आया । इस रूप में उसका कार्य संतोषजनक रहा । अतएव १५०९ ई॰ में वह भारत में पुर्तगीज कार्यों का गवर्नर नियुक्त हुआ ।
नवम्बर, १५१० ई॰ में उसने गोआ के समृद्ध बंदरगाह पर कब्जा कर लिया, जो उस समय बीजापुर सल्तनत के अधीन था । अपने शासन-काल में उसने नगर के दुर्ग को मजबूत करने और उसके व्यापारिक महत्व को बढ़ाने की भरसक कोशिश की । एक स्थायी पुर्तगीज आबादी बसाने के ख्याल से उसने स्वदेशवासियों को भारतीय स्त्रियों से विवाह करने में प्रोत्साहन दिया ।
ADVERTISEMENTS:
किन्तु उसकी नीति में एक बहुत बुरी बात यह थी कि वह मुसलमानों को बहुत तंग करता था । जो भी हो, उसने वफादारी के साथ पुर्तगीजों के स्वार्थों की सेवा की । १५१५ ई॰ में उसकी मृत्यु हुई । उस समय पुर्तगीज भारत की सबसे सबल जल-शक्ति बन चुके थे तथा-पश्चिमी समुद्रतट पर उनकी तूती बोलने लगी थी ।
अलबुकर्क के उत्तराधिकारियों ने धीरे-धीरे समुद्र के समीप कुछ महत्वपूर्ण पुर्तगीज बस्तियाँ बसायीं । ये थीं दीव, दमन, साष्टी, बसई, चौल, बम्बई सानथोमी (मद्रास के निकट) और हुगली (बंगाल में) । सीलोन के अधिकांश भाग पर भी उनका आधिपत्य हो गया । किन्तु कालांतर में इनर्म से अधिकतर स्थान उनके हाथों से निकल गये ।
बाकी बच गये केवल दीव, दमन और गोआ जिन्हें उन्होंने १९६१ तक अपने अधिकार में रखा । शाहजहाँ के शासन-काल में कासिम खाँ, ने हुगली पर कब्जा किया था तथा मराठों ने सन् १७३९ ई॰ में साष्टी और बसई पर अधिकार जमा लिया था ।
यद्यपि पुर्तगीज पूर्व में सबसे पहले “घुसे थे”, तथापि अठारहवीं सदी तक आते-आते भारतीय व्यापार के क्षेत्र में उनका प्रभाव जाता रहा । बहुतों ने लूटपाट और सामुद्रिक डकैती अपना ली, यद्यपि कुछ ने अपने लिये अधिक सम्माननीय पेशे-चुने । उनके पतन के अनेक कारण थे ।
प्रथमत: उनकी धार्मिक असहिष्णुता से भारतीय शक्तियाँ बिगड़ गयीं और इनकी शत्रुता पर विजय प्राप्त करना पुर्तगीजों के बूते के बाहर की बात थी । दूसरे, उनका चुपके-चुपके व्यापार करना अंत में उनके लिए घातक हो गया । तीसरे, ब्राजील का पता लग जाने पर पुर्तगाल की उपनिवेश सम्बन्धी क्रियाशीलता पश्चिम की ओर उन्मुख हो गयी । अंतत: उनके पीछे आनेवाली दूसरी यूरोपीय कंपनियों से उनकी प्रतिद्वंद्विता हुई, जिसमें वे पिछड़ गये ।
ये यूरोपीय कंपनियाँ पुर्तगाल से, उसकी पूर्वीय व्यापार से प्राप्त समृद्धि के कारण जलती थीं । पुर्तगाल ने इस व्यापार-क्षेत्र पर पहले दखल जमाया था तथा पोप की एक विशेष विज्ञप्ति प्राप्त कर ली थी । इन कारणों ले पुर्तगाल ने दूसरी यूरोपीय जातियों को दूर रखने की नीति अपनायी तथा अपने दावे बहुत बढ़ाचढ़ाकर पेश किये । किन्तु इन पूरोपीय कंपनियों ने उसकी नीति और दावों को नहीं माना ।
सन् १६०० ई॰ में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कपनी ने एक राजकीय आज्ञापत्र प्राप्त किया । इसके अनुसार उसे “पूर्वीय समुद्रों में व्यापार का एकाधिकार” मिला । नेदरलैंड्स (हालैंड) की युनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी पूर्व में व्यापार करने के लिए कायम हुई । इसे डच स्टेट्स जनरल २० मार्च, १६०२ ई॰ को एक आज्ञापत्र देकर कायम किया ।
इस आज्ञापत्र के अनुसार उक्त कंपनी को युद्ध करने, संधियाँ करने, राज्य प्राप्त करने और किले बनाने के अधिकार मिल गये । इस प्रकार यह कंपनी “युद्ध और विजय का एक महान् साधन” बना दी गयी । डेन (डेनमार्क के निवासी) सन् १६१६ ई॰ में आये ।
फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी राज्य की सहायता से सन् १६६४ ई॰ में स्थापित हुई । प्रसिद्ध फ्रांसीसी राजनीतिज्ञ कोल्बर्ट ने इसे सहारा दिया । इसे पूर्व में महत्वपूर्ण इतिहास का निर्माण करना बदा था । ओस्टेंड कंपनी को सन् १७२२ ई॰ में विधिवत् आज्ञापत्र मिला । इसका संगठन फ्लैर्डर्स के सौदागरों ने किया ।
भारत में इसका जीवन कम समय तक टिका । एक स्वेडिश ईस्ट इंडिया कंपनी सन् १७३१ ई॰ में कायम हुई किन्तु इसका व्यापार करीब-करीब चीन के साथ ही सीमित रहा । इन व्यापारिक कंपनियों में घोर संघर्ष अवश्यंभावी था, क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षा की वस्तु एक ही थी । उनके राज्य-विस्तार के इरादों से उनकी व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता और भी तीव्र हो उठी ।
सत्रहवीं सदी के पूर्वार्ध में त्रिदलीय संघर्ष चला-पुर्तगीजों और डचों के बीच, पुर्तगीजों और अंग्रेजों के बीच तथा डचों और अंग्रेजों के बीच । भारत में अंग्रेजी प्रभाव की वृद्धि का जो विरोध डच कर रहे थे वह अंतत: टूट गया, क्योंकि सन् १७५९ ई॰ में बेदारा की लड़ाई में डचों की हार हो गयी । किन्तु अंग्रेजों और फ़्रांसीसियों के बीच की शत्रुता, जो इसी बीच प्रारंभ हो गयी थी, अठारहवीं सदी तक चलती रही ।
डच (Dutch):
दक्षिण-पूर्व एशिया के मसाला-बाजारों में सीधा प्रवेश प्राप्त करने के विचार से डचों ने १५९६ ई॰ से कई बार सामुद्रिक यात्राएँ की और अन्तत: १६०२ ई॰ में ‘डच इस्ट इंडिया कम्पनी’ की स्थापना की ।
१६०५ ई॰ में डचों ने पुर्तगीजों से अंबायना ले लिया तथा धीरे-धीरे मसाला द्वीपपुज (इंडोनेशिया) में उन्हीं को हराकर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया । उन्होंने जाकर्ता जीतकर १६१९ ई॰ में इसके खंडहरों पर बैटेबिया नामक नगर बसाया, १६३९ ई॰ में गोआ पर घेरा डाला, १६४१ ई॰ में मलक्का पर कब्जा कर लिया तथा १६५८ ई॰ में सीलोन की अंतिम पुर्तगीज बस्ती पर अधिकार जमा लिया ।
सुमात्रा, जावा और मोलक्का के द्वीपों में मिर्च एवं मसालों की बहुतायत थी । इन वस्तुओं के लाभकर व्यापार से आकर्षित होकर ही डच यहाँ आये थे । इस प्रकार यह “द्वीप-पुंज उनकी व्यवस्था का न केवल सामरिक और प्रशासनिक केंद्र था, बल्कि उनका आर्थिक केंद्र भी था ।”
व्यापारिक स्वार्थों से प्रेरित होकर डच भारत भी आये । यहाँ उन्होंने गुजरात में, कोरोमंडल समुद्रतट पर और बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा में व्यापारिक कोठियां (फैक्ट्रियां) खोली तथा गंगा की निचली घाटी के बहुत भीतर तक गये । भारत में उनकी महत्वपूर्ण कोठियाँ मसुलीपट्टम (१६०५ ई॰) पुलीकट (१६१० ई॰) सूरत (१६१६ ई॰) बिमलीपट्टम (१६४१ ई॰), कारिकल (१६४५ ई॰) चिनसुरा (१६५३ ई॰) कासिम बाजार, बड़ा नगर, पटना, बालासोर, नागपट्टम (१६५८ ई॰) और कोचीन (१६६२ ई॰) में खुली ।
पुर्तगीजों के हटा देने के कारण डच समूची सत्रहवीं सदीमे पूर्व में मसाले के व्यापार का एक तौर से एकाधिकार बनाये रहे । वे भारत और सुदूर पूर्व के द्वीपों के बीच भी व्यापार करने लगे । इस प्रकार उन्होंने विजयनगर-साम्राज्य के गौरवपूर्ण दिनों के अत्यन्त पुराने सम्बन्ध को फिर से चालू कर दिया ।
सूरत में डचों को काफी नील मिल जाता था, जो मध्य भारत और यमुना की घाटी में तैयार होता था । बंगाल, बिहार, गुजरात और कोरोमंडल से वे कच्चा रेशम, बुने हुए कपड़े, शोरा, चावल एवं गंगा को अफीम बाहर भेजते थे । १६९० ई॰ के बाद पुलीकट के बदले नागपट्टम कोरोमण्डल तट पर डचों का मुख्य स्थान बन गया ।
स्पेन और पुर्तगाल के राजमुकुट सन् १५८० ई॰ से १६४० ई॰ तक संयुक्त रहे । इंगलैड ने स्पेन से सन् १६०४ ई॰ में संधि कर ली । किन्तु अंग्रेज और पुर्तगीज पूर्वीय व्यापार में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हो गये । फारस के शाह से संधि कर अंग्रेजों ने पुर्तगीजों से सन् १६२२ ई॰ में फारस की खाड़ी में स्थित ओरमुज़ को ले लिया । उन्होंने गोम्ब्रून में बसने और आधी चुंगी लेने की आज्ञा प्राप्त कर ली ।
इस समय से पुर्तगीज प्रतिद्वंद्विता की तीव्रता में कमी आने लगी । १६३० ई॰ में मेड्रिड की संधि हुई । इसके अनुसार पूर्व में अंग्रेजों और पुर्तगीजों के बीच व्यापारिक शत्रुता बंद करना तय हुआ । १६३४ ई॰ में सूरत की अंग्रेजी कोठी के अध्यक्ष मेथोल्ड और गोआ के पुर्तगीज वाइसराय (राजप्रतिनिधि) ने एक संधि पर हस्ताक्षर किये, जिसके अनुसार भारत में दोनों जातियों के बीच “व्यापारिक अंत: सम्बन्ध की गारंटी” मिल गयी ।
सन् १६४० ई॰ में पुर्तगाल ने इंगलैंड के पुराने शत्रु स्पेन के नियंत्रण से स्वतंत्रता प्राप्त कर ली । इससे अंग्रेजों और पुर्तगीजों के बीच शांतिपूर्ण सम्बन्धों की वृद्धि में सुविधा होगयी । पूर्वी व्यापार पर अंग्रेजों के अधिकार को पुर्तगीजों ने जुलाई, सन् १६५४ ई॰ में हुई एक संधि में सवीकार कर लिया ।
सन् १६६१ ई॰ में एक दूसरी संधि हुई । यह पुर्तगाल के राजा और इंगलैंड के राजा (चार्ल्स द्वितीय) के बीच हुई । इसके अनुसार चार्ल्स द्वितीय ने बेंगाजा की कैथेरिन के दहेज के रूप में बम्बई द्वीप पाया तथा उसने भारत में डचों के विरुद्ध पुर्तगीजों को अंग्रेजी सहायता का बचन दिया ।
सच पूछिए तो अब भारत में अंग्रेजों की पुर्तगीजों रो कठोर व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता जाती रही, क्योंकि पुर्तगीजों का इतना अधिक अधःपतन हो गया था कि वे किसी स्थिर नीति के चलाने में असमर्थ थे । हाँ, व्यक्तिगत रूप से कुछ पुर्तगीज व्यापारी अठारहवीं सदी में अंग्रेजों द्वारा उनकी कोठियों में पूंजी के संग्रह में कभी-कभी बाधा पहुंचाते रहते थे ।
डचों की अंग्रेजों से प्रतिद्वंद्विता, सत्रहवीं सदी में, पुर्तगीजों की प्रतिद्वंद्विता की अपेक्षा अधिक तीव्र थी । पूर्व में डचों की नीति दो उद्देश्यों से प्रभावित हुई । पहला उद्देश्य था उनकी स्वतंत्रता के शत्रु कैथोलिक-मतावलम्बी स्पेन और उसके मित्र पुर्तगाल से बदला लेना ।
दूसरा उद्देश्य था पूर्वी द्वीप-पुंज (इंडोनेशिया) में उपनिवेश स्थापित करना और बस्तियाँ बसाना, जिससे उस क्षेत्र के व्यापार पर एकाधिकार हो जाए । पुर्तगीज प्रभाव के क्रमिक पतन के द्वारा, जिसे हम पेहले लिख चुके हैं, उनका पहला लक्ष्य पूरा हो गया । दूसरे लक्ष्य की प्राप्ति के कारण उनकी अंग्रेजों से घोर स्पर्धा हो गयी ।
जिस समय इंगलैड में स्टुअर्ट वंश और खौमवेल का शासन था, उस समय युरोप में भी इंगलैंड एवं हाउंड के बीच के सम्बन्ध शत्रुतापूर्ण हो गये । इसके दो कारण थे- व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता तथा स्टुअर्ट वंश की फ्रांस से संधि और स्पेन-पक्षीय नीति ।
एक तो डचों का सामुद्रिक आधिपत्य था, दूसरे १६०९ ई॰ में स्पेन और हालैंड के बीच इक्कीस वर्षों के लिए एक अस्थायी रणशांति के सम्बन्ध में बातचीत होने लगी । इस बातचीत का आधार था डचों को यूरोप में युद्ध के खतरे से और मसाला द्वीप-कुंज (इंडोनेशिया) में कुछ प्रतिबन्धों से मुक्त कर देना ।
इन दोनों बातों से डच पहले की अपेक्षा अधिक शक्ति के साथ पूर्वी द्वीप-पुंज (इंडोनेशिया) में अंग्रेजी व्यापार का विशेष करने को उत्साहित हो उठे । इस युग में डचों की क्यिाशीलता अधिकतर जावा और द्वीप-पुंज में सीमित रही ।
फिर भी उन्होंने कोरोमंडल समुद्रतट पर अपने को स्थापित कर लिया तथा १६१० ई॰ में पुलीकट में एक कोठी की किलेबंदी कर ली । इसका उद्देश्य था अपने लिए सूत्री माल प्राप्त करना, जिसके लिए द्वीप-पुंज (इंडोनोशिया) में तैयार बाजार मिल सकता था ।
लंदन और ‘दि हेग’ (हालैड की राजधानी) में हुए सम्मेलनों (सन् १६११ ई॰ और १६१३- १६१५ ई॰) के फलस्वरूप डचों और अग्रेजों के बीच एक मैत्रीपूर्ण संधि हो गयी । सन् १६१९ ई॰ में उनके बाच यह समझौता हुआ ।
किंतु दो वर्ष बाद ही फिर शत्रुता प्रारंभ हो गयी । १६२३ ई॰ में अबायना में दस अंग्रेजों और नौ जापानियों का क्रूरतापूर्ण वध हुआ । इस घटना से पूर्व में अंग्रेजों के प्रति “डचों की घृणा की चरम सीमा प्रकट हुई ।” डचों ने मलय द्वीप-पुज में और अंग्रेजों ने भारत में अपने को सीमित कर देना शुरू किया । फिर भी भारत में डचों का अंग्रेजों के लिए व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी होना बंद न हुआ ।
कोरोमण्डल तट पर डचों एवं दूसरे क्षेत्रों में इनके व्यापार के विस्तार का समय १६३० से १६५८ ई॰ के बीच है, “यद्यपि युद्ध, अकाल और अधिकारियों की लूट उन्हें तबाह करती रही ।” समय-समय पर मीर जुमला के साथ उनका संघर्ष होता रहता था ।
१६७२-१६७४ ई॰ में डचों ने सूरत और बम्बई की नयी अंग्रेजी बस्ती के बीच आवागमन को बहुत बारे रोका तथा बंगाल की खाड़ी में तीन अंग्रेजी जहाजों पर कब्जा कर लिया ।
१६९८ ई॰ में जब शाहजादा अजीमुश्शान बर्दवान गया, तब वहाँ चिनसुरा के डच प्रधान ने उससे शिकायत की कि जब कि उसकी कम्पनी डचों के व्यापार पर साढ़े तीन प्रतिशत चुंगी देती थी, वहाँ अंग्रेज केवल तीन हजार रुपये सालाना देकर की पा जाते थे । उसने यह बात रखी कि डचों को भी वही विशेषाधिकार मिले जो अंग्रेजों को प्राप्त है । डचों और अंग्रेजों के बीच यह व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता सन् १७५९ ई॰ तक तीव बनी रही ।