नरमपंथी राजनीति और आर्थिक राष्ट्रवाद | Read this article in Hindi to learn about the decline of moderate politics and economic nationalism in India during British rule.
अपने इतिहास के पहले बीस वर्षो में कांग्रेस की राजनीति को मोटे तौर पर नरमपंथी (moderate) राजनीति कहा जाता है । उस समय कांग्रेस शायद ही एक संगठित राजनीतिक पार्टी रही होगी; उसकी प्रकृति एक वार्षिक सम्मेलन वाली अधिक थी जो ”तीन दिनों के तमाशे” के दौरान बहसें करती, प्रस्ताव पारित करती और फिर विखर जाती ।
उसके सदस्य अधिकतर अंशकालिक राजनीतिज्ञ थे, जो अपने-अपने निजी जीवन में सफल और पेशेवर लोग थे पूरी तरह अंग्रेजी रंग में रँगे उच्चवर्ग के लोग, जिनके पास पूरे समय राजनीति में जमे रहने के लिए बहुत कम समय और प्रतिबद्धता थी । नरमपंथी राजनीति के कुछ सुस्पष्ट चरण रहे पर कुल मिलाकर उसके उद्देश्यों और आंदोलन के ढंगों मे एकरूपता थी ।
नरमपंथी मुख्यत उपयोगितावादी सिद्धांतों से प्रभावित थे, एडमंड बर्क जॉन स्टुअर्ट मिल और जॉन मोर्ली ने उनके विचारों और कार्यो पर एक छाप छोड़ी थी । उनका विश्वास था कि सरकार नैतिकता या सदाचार के सिद्धांतों से नहीं कार्यसाधकता (expediency) से संचालित होनी चाहिए ।
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वे संविधान की अलंघ्य मानते थे और इसलिए उन्होंने बार-बार ब्रिटिश संसद से शिकायतें कीं कि भारत सरकार संविधान का हनन कर रही है । उन्होंने समानता की माँग नहीं की जो एक अपेक्षाकृत अमूर्त विचार लगती थी, उन्होंने स्वाधीनता को वर्गीय विशेषाधिकार के बराबर समझा और क्रमिक टुकड़ों में सुधार की इच्छा की ।
उनमें से अधिकांश को ब्रिटिश राज ईश्वरीय देन लगता था जिसका उद्देश्य आधुनिकीकरण लाना था । भारतवासियों को स्वशासन हेतु तैयारी के लिए कुछ समय चाहिए था; इस बीच ब्रिटिश संसद और जनता पर पूरा-पूरा भरोसा किया जा सकता था ।
उनकी शिकायत केवल भारत में वायसरॉय, उसकी कार्यकारी काउंसिल और आंग्ल-भारतीय नौकरशाही द्वारा स्थापित किए गए एक ”अ-ब्रिटिश राज” के विरुद्ध थी; ऐसी अपूर्णता के विरुद्ध जिसे प्यार से समझा-बुझाकर दूर किया या सुधारा जा सकता था ।
दूसरे शब्दों में, उनकी राजनीति उद्देश्यों या विधियों के भरोसे से बहुत सीमित थी । दृष्टिकोण में वे धर्मनिरपेक्ष थे पर इतने दोटूक नहीं कि अपने संकीर्ण हितों से ऊपर उठ सकें । वे ब्रिटिश राज के शासक चरित्र से अवगत थे पर उसे हटाना नहीं सुधारना चाहते थे ।
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जैसा कि इस राजनीति के एक पुरोधा दादाभाई नौरोजी ने 1871 में कहा था: ”मेरा विश्वास है कि इंग्लैंड अगर चला जाता है और भारत को उसके हाल पर छोड़ देता है तो भारत पर इंग्लैंड से कुछ अधिक मुसीबत नहीं आएगी ।”
वस्तुत: संवैधानिक क्षेत्र में नरमपंथी राजनीति ने कभी ब्रिटिश साम्राज्य से पूर्ण अलगाव की कल्पना नहीं की; वे केवल साम्राज्यिक ढाँचे के अंदर सीमित स्वशासन चाहते थे । वे सबसे पहले इंडिया काउंसिल का उन्मूलन चाहते थे जो भारत सचिव को भारत में उदार नीतियों का आरंभ करने से रोक रही थी ।
वे विधायिकाओं में भारतीयों की भागीदारी में वृद्धि चाहते थे और इसके लिए केंद्रीय और प्रांतीय विधायिकाओं में स्थानीय निकायों चैंबर्स ऑफ कॉमर्स विश्वविद्यालयों आदि के 50 प्रतिशत निर्वाचित प्रतिनिधियों को शामिल करके उन विधायिकाओं का विस्तार भी चाहते थे ।
वे पश्चिमोत्तर प्रति और पंजाब में नई काउंसिलें वायसरॉय की कार्यकारी काउंसिलों में दो भारतीय सदस्यों की उपस्थिति तथा बंबई और मद्रास में से हरेक की कार्यकारी काउंसिल में ऐसे एक सदस्य की उपस्थिति चाहते थे ।
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उनकी माँग थी कि बजट विधायिका को भेजा जाना चाहिए, उसे बजट पर विचार और मतदान करने का अधिकार होना चाहिए तथा सवाल उठाने का अधिकार भी होना चाहिए । भारत सरकार के विरुद्ध हाउस ऑफ कॉमंस की स्थायी समिति में अपील करने का अधिकार भी होना चाहिए ।
इसलिए पूरा-पूरा स्वशासन या लोकतंत्र उनकी तत्कालीन माँग नहीं थी; उन्होंने भारतीय समाज के केवल शिक्षित वर्गों, जो जनता के विकल्प माने जा सकते थे के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों की माँग की । नरमपंथी राजनीतिज्ञों को आशा थी कि पूर्ण राजनीतिक स्वाधीनता धीरे-धीरे ही आएगी और भारत को आखिरकार कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे दूसरे उपनिवेशों की तरह स्वशासन का अधिकार मिलेगा ।
भारत में ब्रिटिश राज की दैवी प्रकृति में गहरी आस्था लेकर वे लोग आशा कर रहे थे कि एक दिन उन्हें साम्राज्य के मामलों में अधीन नहीं भागीदार माना जाएगा और उन्हें पूर्ण ब्रिटिश नागरिकता के अधिकार दिए जाएँगे ।
लेकिन उन्हें बदले में कुछ मिला तो लॉर्ड क्रॉस ऐक्ट या 1892 का भारतीय काउंसिल संशोधन कानून (इंडियन काउंसिल एमेंडमेंट ऐक्ट) मिला जिसमें केंद्र और राज्य दोनों की विधायिकाओं (लेजिस्लेटिव काउंसिलों) में बहुत मामूली से प्रसार की ही व्यवस्था थी ।
वास्तव में इन काउंसिलों का गठन चुनाव नहीं चयन के द्वारा किया जाना था स्थानीय निकाय अपने-अपने नाम भेजते जिनमें से केंद्र में वायसरॉय और प्रांतों में गवर्नर लेजिस्लेटिव काउंसिलों के सदस्यों का चयन करते । विधायिकाओं में बजट पर बहस होती पर मतदान नहीं होता ।
विपक्ष कोई प्रस्ताव पेश नहीं कर सकता था, न सरकार द्वारा पेश किसी प्रस्ताव पर मतदान की माँग कर सकता था । भारत सरकार को विधायिकाओं की चिंता किए बिना भी कानून बनाने की शक्ति दी गई थी इनको अधिक से अधिक सिफारिशें ही करने का अधिकार था और इनकी सिफ़ारिश पर अमल जरूरी नहीं था ।
लगता है कि इस कानून ने नरमपंथी नेताओं की बहुत थोड़ी-सी संवैधानिक माँग ही पूरी की । रहा सवाल प्रशासन में सुधार का तो नरमपंथियों की पहली माँग सेवाओं के भारतीयकरण की थी । उनका तक था कि एक भारतीयकृत सिविल सवा भारत की आवश्यकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील होगी ।
वह भारत से पैसे का दाहन रोकेगी जो हर साल यूरोपीय अफ्रसरों के वतन और पेंशन के रूप में बाहर जा रहा था । इससे भी अहम बात यह है कि इस सुधार का समर्थन नस्लवाद विरोधी एक कदम के रूप मैं किया जा रहा था । वास्तव मे उनकी माँग यह थी कि लदन और भारत में सिविल मेवा की परीक्षाएं एक साथ हौं और इन परीक्षाओं में बैठने क लिए ! आयु की सीमा 19 से बढकर 23 सप्त की जाए ।
लेकिन बोर्ड ऑफ कट्राल के अध्यक्ष चार्ल्सवुड ने इसका विरोध इस आधार पर किया कि भारत में ऐसी कोई सम्था नहीं जो लड़कों को इस परीक्षा के लिए प्रशिक्षित कर सके । चार्ल्स एचिंसन के अंतर्गत गठित लोक सेवा आयोग (पब्लिक सर्विस कमीशन) ने अधिकतम आयु बढ़ाने की सिफ़ारिश की पर एक साथ परीक्षा की नहीं । 1892-93 में विलियम ग्लैडस्टोन की पहल पर हाउस ऑफ़ कॉमंस ने एक साथ परीक्षा का प्रस्ताव पारित किया, हालांकि भारत सचिव अभी भी इसका विरोध कर रहा था ।
पर साथ ही भारतवासियों का वंचित करने के लिए परीक्षा मैं बैठने की अधिकतम आयु और कम कर दी गई । शीघ्र ही ग्लैडस्टोन की जगह लॉर्ड सैलिसबरी ने ले ली ओर पूरा मामला यहीं समाप्त हो गया । इम बारे मे सैन्य व्यय कड़वाहट का एक और कारण था ।
ब्रिटिश भारत की सेना का उपयोग दुनिया के सभी भागों मे खासकर अफ्रीका और एशिया में साम्राज्यिक बुद्धों के लिए किया जा रहा था । इन्होने और 1890 के दशक के भारतीय सीमावर्ती युद्धो ने भारतीय राजस्व पर बहुत भारी बोझ डाला ।
नरमपंथिया की माँग थी कि ब्रिटिश सरकार भी इस खर्च का बराबर-बराबर बोझ उठाए भारतीयों को सेना में वॉलंटेयरो के रूप में लिया जाए और अधिक से अधिक भारतीयो को ऊँचे पदों पर नियुक्त किया जाए । पर ये सभी मांग रद्द कर, दी गई ।
कमांडर-इन-चाफ़ रॉबर्ट्स वॉलंटियर सर्विस के विचार से ही चिढ़ता था क्योंकि उसे डर था कि मराठा और बंगाली वॉलंटियर जो राष्ट्रवाद से अपने जुडाव के कारण असतुष्ट और अविश्वसनीय थे निश्चित ही रोना में घुसपैठ करेंगे और उसकी एकता को भग करेंगे ।
इसी तरह कमीशनयाफ़्ता श्रेणियों में भारतीयों की नियुक्ति को माँग रह कर दी गई क्योंकि कोई भी यूरोपीय अफ़सर एक भारतीय कमानदार से आदेश पाने के विचार को पसत नहीं करता । ब्रिटिश सरकार ने सैन्य व्यय का एक बहुत छोटा-सा भाग देने का वादा किया कुल मिलाकर 1 लाख पाउंड से भी कम ।
विनिमय की बड़ी दरो ने इस राशि को और: कम कर दिया और इसलिए भारतीय राजस्व पर बोझ वैसे ही बना रहा । ज्यूरी द्वारा सुनवाई का विस्तार हथियार कानून का अंत मालगुज़ारी के अति-आकलन को शिकायत और स्थायी बंदोबस्त के विस्तार की माँग, नमक कर के उन्मूलन की माँग और असम के बागानो के करारबद्ध मज़दूरो (indentured labour) के शोषण वो विरुद्ध एक अभियान, नरमपंथियों की दसरी माँगो मे शामिल थे ।
ये सभी माँगें नस्ली समानता की समर्थक तथा नागरिक अधिकारो के प्रति चिंता की सूचक थीं, और संभवत: हालांकि इनकी प्रकृति बहुत सीमित ही थी,फिर भी ये कहने की आवश्यकता नहीं कि उपनिवेशी प्रशासन ने इनमें से किसी माँग पर विचार तक नहीं किया ।
फिर भी इन सभी झटकों के बावजूद नरमपंथियों का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक योगदान यह था कि उन्होंने उपनिवेशवाद की एक आर्थिक समालोचना पेश की । यह आर्थिक राष्ट्रवाद, जिसे अकसर इसी नाम से पेश किया जाता है, एक प्रमुख विषय बन गया जिसे राष्ट्रवादी आंदोलन के बाद के काल में और आगे विकरित किया गया और एक बड़ी हट तक इसने स्वतंत्र भारत की कांग्रेस सरकार की नीतियों को भी प्रभावित किया ।
इस बारे में तीन नाम स्मरणीय हैं: सफल व्यापारी दादाभाइ नौरोज़ी, न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे और सेवानिवृत आई. सी. एस. अधिकारी रोमेशचन्द्र दत्त, जिन्होंने दो खंडों (1901-03) में इकोनोमिक हिस्ट्री ऑफ्र इंडिया का प्रकाशन कराया था ।
इस आर्थिक राष्ट्रवाद का विशेष बल भारत को गरीबी पर था और इसे मुका व्यापार के शास्त्रीय आर्थिक सिद्धांत के व्यवहार ने पैदा किया था । इन राष्ट्रवादियों का मुख्य तर्क यह था कि लूट खिराज और वणिकवाद (mercantilism) के माध्यम से अधिशेष की वसूली के पुराने और प्रत्यक्ष तरीकों को नष्ट करके और उनकी जगह मुक्त व्यापार और विदेशी पूँजी के निवेश के रूप में शोषण के अधिक परिष्कृत और अल्पगोचर तरीकों को प्रचलित करके ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने उन्नीसवीं सदी में अपने आपको परिवर्तित कर लिया था ।
इसके कारण भारत खेतिहर कच्चे मालों और खाद्य पदार्थो की आपूर्ति का स्रोत और स्वामी (उपनिवेशक) देश ब्रिटेन के तैयार मालों का उपभोक्ता बन गया था । इस तरह भारत का स्तर गिराकर उसे एक निर्भर खेतिहर देश और ब्रिटिश पूँजी निवेश का गंतव्य बना दिया गया ।
भारतीय पूँजी से उद्योगीकरण भारत के विकास की कुंजी था जबकि विदेशी पूँजी के निवेश का अर्थ मुनाफों के रूप में संपत्ति का देश से बाहर जाना था । यह ”दोहन सिद्धांत” (drain theory) वास्तव में इस आर्थिक राष्ट्रवाद का बुनियादी विषय था । यह तर्क दिया गया कि घरेलू खर्चा सैन्य खर्चा और रेलों में हुए निवेश पर जमानतशुदा ब्याज का ब्रिटेन को भुगतान धन का सीधे-सीधे दोहन कर रहा था ।
1890 के दशक में रुपए की गिरती विनिमय दर के कारण यह बोझ और भी बढ़ गया तथा बजट घाटों बढे करों और सैन्य खर्चो ने इस और बोझल बना दिया I नौरोजी की गणना थी कि यह भारी दोहन सालाना 1.2 करोड़ पाउंड के बराबर था जबकि विलियम डिग्वी की गणना इसे 3 करोड़ के बराबर बताती थी ।
औसतन यह ब्रिटिश भारत की सरकार के कुल राजस्व का कम से कम आधा था । इससे भारत में सीधे-सीधे निर्धनता आती थी और पूंजी-निर्माण की प्रक्रिया बाधित होती थी । मालगुज़ारी की भारी दरों के कारण किसान भूमिहीन और गरीब होते चले गए जबकि ब्रिटिश उद्योगपतियों के हित-साधन के लिए सुरक्षात्मक तटकर न लगाए जाने के कारण भारत के उद्योगीकरण में बाधा आई और हस्तशिल्प उद्योग नष्ट हो गए । इसके कारण कृषि पर बोझ पड़ा और गरीबी में और भी वृद्धि हुई यह चक्र इसी तरह से पूरा हुआ ।
नौरोजी की गणना के अनुसार भारतवासियों की प्रति व्यक्ति आय 20 रुपए थी जबकि डिग्वी के अनुसार यह 1899 में 18 रुपए थी । सरकार ने इस गणना को स्वीकार नहीं किया रिपन के वित्त सचिव ने इसे 27 बतलाया, जबकि 1901 में लॉर्ड कर्ज़न के हिसाब से यह 30 रुपए थी ।
परंतु इस काल के अकालों और महामारियों से एक और ही कहानी सामने आती थी । दादाभाई नौरोजी के ही शब्दों में ”भौतिक दृष्टि से” ब्रिटिश राज ने केवल ”गरीबी” पैदा की यह मानो ”चीनी का बना चाकू हो । अर्थात् यह कि कोई अत्याचार नहीं हो रहा था; सब कुछ चिकना और मीठा था पर फिर भी वह चाकू ही था ।”
इसलिए इस स्थिति में सुधार के लिए नरमपंथी आर्थिक नीतियों में बदलाव चाहते थे । व्यय और करों में कमी सैन्य व्यय का पुनर्निर्धारण भारतीय उद्योगों की सुरक्षा के लिए एक संरक्षणवादी नीति मालगुज़ारी की दरों में कमी रैयतवारी और महलवारी क्षेत्रों में स्थायी बंदोबस्त का विस्तार तथा कुटीर उद्योगों और दस्तकारियों (हस्तशिल्प उद्योगों) को बढ़ावा उनकी सिफारिशों में शामिल थे ।
पर इनमें से कोई भी माँग पूरी नहीं हुई । 1870 के दशक में समाप्त किया जा चुका आयकर 1886 में दोबारा लगाया गया; नमक कर 2 रुपए से बढ़ाकर 2.5 रुपए कर दिया गया एक सीमाशुल्क लगाया गया पर फिर 1894 में एक जवाबी आबकारी (excise duty) लगाकर उसका उपाय निकाला गया, पर उसे 1896 में घटाकर 3.5 प्रतिशत कर दिया गया ।
फ़ाउलर आयोग ने मनमाने ढंग से रुपए के विनिमय मूल्य को 1 शिलिंग 4 पेंस की भारी दर पर निर्धारित किया । कृषि क्षेत्र में भी कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया क्योंकि अल्केड लायल जैसे उपनिवेशी विशेषज्ञों का विश्वास था कि भारतीय कृषि ठहराव के चरण से पहले ही आगे बढ्कर संवृद्धि के आधुनिक चरण में पहुँच चुकी है और इसलिए मंदी (recession) से अधिक प्रगति के चिह्न दिखाई दे रहे हैं ।
इस तरह नरमपंथियों के संवैधानिक या प्रशासनिक एजेंडे की तरह उनका आर्थिक एजेंडा भी बड़ी सीमा तक अधूरा रहा । यह राष्ट्रवादी आर्थिक सिद्धांत हो सकता है आर्थिक इतिहासकारों को विवादास्पद लगे । लेकिन उस ऐतिहासिक मोड़ पर उपनिवेशवाद की इस आर्थिक समालोचना के निरूपण का अपना ही राजनीतिक और नैतिक महत्त्व था ।
भारत की निर्धनता को उपनिवेशवाद से जोड़कर यह आर्थिक सिद्धांत उपनिवेशी शासन की नैतिक सत्ता को नष्ट करने के लिए प्रयासरत था, और संभवत: निहितार्थ रूप में संरक्षक साम्राज्यवाद या अंग्रेजों की परोपकारिता की पूरी धारणा को चुनौती भी दे रहा था ।
इस तरह नरमपंथी राजनीतिज्ञों ने ब्रिटिश राज के विरुद्ध आक्रोश जगाया, हालांकि अपनी कमजोरियों के कारण वे स्वयं इस गुस्से को तख्तापलट के लिए एक प्रभावी आंदोलन में बदलने में असफल रहे । नरमपंथी राजनीतिज्ञों ने ब्रिटिश राज के विरुद्ध एक आंदोलन खड़ा नहीं किया न ही कर सकते थे क्योंकि उनमें से अधिकांश अंग्रेजों की लोकतांत्रिक उदारवादी राजनीतिक परंपरा में अभी भी हार्दिक आस्था पाले हुए थे ।
इसलिए उन्होंने इंग्लैंड के उदार राजनीतिक जनमत को पुकारा; उनका तरीका प्रार्थनापत्र और ज्ञापन भेजने भाषण देने और लेख छपवाने का था । उन्होंने उपनिवेशी आधुनिक सार्वजनिक जीवन के इन साधनों का उपयोग करके एक विश्वासोत्पादक ”तार्किकवाद” तैयार करने के प्रयास किए ताकि इंग्लैंड के उदारवादी राजनीतिक जनमत को भारत को स्वशासन दिए जाने के पक्ष में मोडा जा सके ।
लेकिन अपने लक्ष्यों की पाने में यह राजनीतिक रणनीति असफल रही जिसे कांग्रेस के अधिक गरमपंथी तत्त्वों ने आगे चलकर भिक्षाटन की रणनीति कहा था । उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में नरमपंथी राजनीति की असफलता एकदम स्पष्ट हो चुकी थी और जब सदी के परिवर्तन के बाद कम हमदर्द टोरी (Tory) सत्ता में लौटे, तो उनका (नरमपंथियों का) भविष्य तो अंधकारमय होना ही था ।
फिर भी, नरमपंथियों ने वह राजनीतिक संदर्भ तैयार कर ही दिया जिसमें ऐसे आंदोलन का विकास आगे चलकर हुआ । नरमपंथी राजनीति के कुछ और अंतर्विरोध भी थे जिन्होंने उसे और भी संकुचित किया तथा भारतीय जनता के व्यापकतर समूहों से दूर किया ।
इनका संबंध नरमपंथी नेताओं की सामाजिक पृष्ठभूमि से था, जो अधिकतर संपत्तिशाली वर्गो के लोग थे । 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अधिवेशन में 72 गैर-सरकारी भारतीय प्रतिनिधि आए और दावा किया गया कि उनमें ”अधिकांश वर्गो” के लोग शामिल थे जैसे वकील, सौदागर और बैंकर, भूस्वामी, चिकित्सक, पत्रकार, शिक्षाशास्त्री, धर्मगुरु और सुधारक ।
लेकिन नए पेशेवर वर्गो की प्रमुखता के बावजूद भूस्वामियों के ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने कांग्रेस के साथ आरंभ में कुछ वर्ष तक हार्दिक संबंध बनाकर रखे और उसके लिए वह वित्त का प्रमुख स्रोत बना
रहा ।
कांग्रेस के अधिवेशनों में 1892 और 1909 के बीच शामिल प्रतिनिधियों में लगभग 18.99 प्रतिशत जमीदार थे; बाकी में वकील (39.32), व्यापारी (15.10), पत्रकार (3.18), डॉक्टर (2.94), अध्यापक (3.16) और दूसरे पेशों के लोग शामिल थे ।
वकीलों में भी अनेकों का संबंध ज़मींदार घरानों से था या ज़मीन से उनके हित जुड़े हुए थे । इसलिए कांग्रेस भूस्वामी कुलीनों से हाथ नहीं छुड़ा सकी और फलस्वरूप किसानों के प्रश्नों पर एक तार्किक रुख नहीं अपना सकी ।
उसने केवल ज़मींदारों के हित में स्थायी बंदोबस्त के विस्तार की माँग की और 1893-94 में भू-कर (cadastral) सर्वेक्षण का विरोध किया, हालांकि उसका उद्देश्य किसानों को ज़मींदारों और उनके चालबाज कर्मियों की हेराफेरियों से सुरक्षा प्रदान करना था ।
कांग्रेस के अंदर रोमेशचंद्र दत्त के नेतृत्व में छोटे-से काश्तकार-समर्थक (pro-tenant) समूह को जल्द ही धूल चटा दी गई, क्योंकि 1885 के बंगाल काश्तकारी कानून (बंगाल टेनेंसी ऐक्ट) में 1898 में जो ज़मींदार-समर्थक संशोधन किया गया, उसके विरोध ने इस समूह को एक मुश्किल स्थिति में डाल दिया ।
1899 में पंजाब में भूमि के हस्तांतरण संबंधी विधेयक के विरोध ने भी ज़मींदारों के साथ कांग्रेस की सहानुभूति को उजागर किया । उसके सदस्यों में व्यापारिक वर्गो के प्रतिनिधित्व ने कांग्रेस को मज़दूर समर्थक रुख भी अपनाने से रोका ।
उसने फ़ैक्टरी सुधारों का विरोध किया, जैसे खदान सुधारों का, जिसमें स्त्रियों और बच्चों के काम की दशाओं को सुधारने और एक विशेष आयु से कम के बच्चों के रोज़गार पर बंधन लगाने का प्रस्ताव किया गया था । उसने बंबई में भी ऐसे श्रम सुधारों का विरोध इस आधार पर किया कि ये लंकारायर के हितों की सुरक्षा के उदृश्य से प्रेरित थे ।
लेकिन उसने असम के चाय बागान में श्रम सुधारो का समर्थन किया, क्योंकि यहाँ के पूँजीपति विदेशी थे । वह बड़ी खुशी से इस बात को भूल गड त्रि: बत्रड के भारतीय मिल-मालिक भी अपने मज़दूरों का कुछ कम निर्मम तरीके से शोषण नहीं करते थे ।
आखिरी बात यह कि भारतीय निर्धनता की रामबाण दवा के रूप में देसी पूँजीवाद को पेश करके उसने अपना असली चेहरा दिखा ही दिया । आरंभिक कांग्रेसी राजनीतिज्ञों की इन्हीं ज़मींदार समर्थक और पूँजीपति समर्थक नीतियों ने उपनिवेशी सरकार को इसका अवसर दिया कि वह अपने को गरीबों के सच्चे संरक्षक के रूप में पेश कर सके ।
बंबई के राजनीतिज्ञ बदरुद्दीन तैयबजी के उल्लेखनीय अपवाद का छोड़ दें, तो ये आरंभिक नरमपंथी राजनीतिज्ञ मुख्यत: हिंदू थे । 1892 और 1909 के बीच के कांग्रेस के अधिवेशनों में आए प्रतिनिधियों में लगभग 90 प्रतिशत हिंदू थे, केवल 6.5 प्रतिशत मुसलमान थे, और हिंदुओं में भी लगभग 40 प्रतिशत ब्राह्मण और बाकी सवर्ण हिंदू थे ।
इस सामाजिक संरचना ने स्वाभाविक तौर पर सामाजिक रूढ़िवाद को जन्म दिया और काँग्रेस के सत्रों में 1907 तक सामाजिक प्रश्न नहीं उठाए जा सके । परंतु इससे भी बुनियादी सवाल मुसलमानों को लामबंद करने का था, क्योंकि कांग्रेस की निर्वाचित काउंसिलों की माँग सर सैयद अहमद खाँ जैसे मुसलमान नेताओं को पसंद नहीं थी, जिनको डर था कि इसका अर्थ मुस्लिम अल्पसंख्यकों की कीमत पर बहुसंख्यक हिंदुओं का शासन यानी दुबले-पतले बंगालियों का वर्चस्व होगा ।
इसके प्रत्युत्तर में कांग्रेस ने 1888 में एक नियम यह बनाया कि अगर हिंदू या मुसलमान प्रतिनिधियों का भारी बहुमत आपत्ति करे तो कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं होगा । 1889 में विधायिकाओं के सुधार की माँग करनेवाले प्रस्ताव में अल्पसंख्यकों के समानुपाती प्रतिनिधित्व की सिफारिश करनेवाली एक धारा जोड़ी गई ।
लेकिन इन प्रतीकात्मक संकेतों से मुसलमानों की आशंका दूर नहीं हुई, जबकि 1893 के गोहत्या के दंगों के दौरान कांग्रेस की नाजुक चुप्पी ने उनकी शंकाओं को और भी बल पहुँचाया । गोरक्षा आंदोलन में कांग्रेस सीधे शामिल नहीँ थी, न ही इस ध्येय से उसे कोई सहानुभूति थी लेकिन कांग्रेसियों को लगता था कि इसके विरुद्ध बोलने पर वे हिंदुओं का समर्थन खो देंगे ।
उसकी चुप्पी को वैध कारणों से सहमति समझा गया और जैसा कि जॉन मैक्लेन ने दिखाया है, 1893 के बाद कांग्रेस के सत्रों में मुसलमानों की भागीदारी में नाटकीय ढंग से गिरावट आने लगी । लेकिन कांग्रेस की ओर से मुसलमानों को वापस अपनी कतार में लाने की कोई खास कोशिश फिर भी नहीं की गई । कांग्रेसी राजनीतिज्ञ आत्मतुष्टि के भाव से ग्रस्त थे, क्योंकि मुसलमानों का कोई प्रतियोगी राजनीतिक सगठन 1906 तक सामने नहीं आया था ।
इस तरह नरमपंथी राजनीति उद्देश्यों, कार्यक्रमों, उपलब्धियों और भागीदारी के विश्वास से बहुत सीमित रही । इसीलिए लॉर्ड डफ़रिन ने कलकत्ता में नवंबर 1888 में सेंट एंड्रच्युज़ के भोज में बडे आराम से यह टिप्पणी कर दी कि कांग्रेस तो भारतीय जनता के एक ”बहुत मामूली अल्पमत” का ही प्रतिनिधित्व करती थी ।
फिर भी, इस सीमित प्रतिनिधित्व के बावजूद, आरंभिक कांग्रेस का ऐतिहासिक महत्त्व इम तथ्य में निहित था कि उपनिवेशवाद की एक आर्थिक समालोचना पेश करके और भारत की निर्धनता को उससे जोड़कर नरमपंथी राजनीतिज्ञों ने वाद-विवाद का ऐसा मंच तैयार कर दिया, जिसमें उपनिवेशवाद पर बाद के राजनीतिक हमले एक रूप ले सकें ।
यह तो नरमपंथी राजनीति की असफलताएँ ही थीं जिनके कारण कांग्रेस की राजनीति मे जल्द ही एक गरमपंथी प्रतिक्रिया सामने आई और उसके चलते वह बात सामने आई, जिसे सूरत का बदनाम विभाजन (1907) कहा जाता है । कांग्रेस का पुनरेकीकरण (reunification) और राजनीतिक राष्ट्र का प्रसार गांधी के उदय और पहले विश्वयुद्ध के पश्चात ही संभव हुआ ।