Read this article in Hindi to learn about the causes of downfall of Napoleon.

नेपोलियन एक महान योद्धा और विजेता था । चन्द वर्षों के अन्दर उसने यूरोप में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर ली जिसको ‘ग्रैंड एम्पायर’ कहा जाता था । नेपोलियन के इस साम्राज्य की स्थापना अद्भुत विजयों की एक महान श्रृंखला के फलस्वरूप हुई थी ।

उसका विजय-अभियान डॉयरेक्टरी की शासनावधि से ही प्रारम्भ हो चुका था और 1808 ई. में तिलसित की सन्धि के साथ यह पराकाष्ठा पर पहुँच गया था । तिलसित की सन्धि पर हस्ताक्षर होने के समय तक यह न केवल-अपनी महानतम सीमाओं को पार कर चुका था, वरन् दृढ़ स्थिति भी प्राप्त कर चुका था ।

क्षेत्रफल के सन्दर्भ में 1810 से 1811 ई. के बीच नेपोलियन का प्रभाव अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुँच चुका था । इस समय यह बाल्कन प्रायद्वीप को छोड़कर यूरोप की सम्पूर्ण मुख्य भूमि पर फैल चुका था ।

ADVERTISEMENTS:

इसका केन्द्र फ्रांसीसी साम्राज्य था, जो चारों ओर से आश्रित और समर्थक राज्यों से घिरा हुआ था । लगभग सारा का सारा स्पेन, इटली, जर्मनी का राइन संघ, वारसा की ग्रैंड डची नेपोलियन के आश्रित राज्य थे जिनके शासकों की नियुक्ति वह स्वयं करता था । इसके साथ ही आस्ट्रिया, प्रशा और रूस उसके समर्थक राज्य थे ।

यह स्थिति 1812 ई. तक कायम रही । लेकिन, इसके बाद ही घटनाओं का चक्र दूसरी दिशा में घूमने लगा जो नेपोलियन को पतन की ओर ले गया । 1811 ई. से वे शक्तियाँ एकत्र होने लगीं जिन्होंने नेपोलियनी साम्राज्य के इस विशाल भवन को अन्तत: धराशायी कर दिया ।

यह कहा जाता है कि नेपोलियन के पराभव में तीन बड़ी गलतियों का हाथ था । ये थे महाद्वीपीय व्यवस्था (कॉण्टिनेण्टल सिस्टम), स्पेन की उलझन व रूस पर आक्रमण ।

और, पहली वाली गलती ने उसके द्वारा की जाने वाली दूसरी गलतियों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । उन्नीसवीं सदी के शुरू से ही कॉन्स्युलेट तथा सम्राट यूरोप में व्यापक पैमाने पर युद्ध शुरू करने की तैयारियों में लगे थे । विजय की इन योजनाओं का सबसे जबर्दस्त विरोध ब्रिटेन द्वारा होने वाला था ।

ADVERTISEMENTS:

मई, 1803 से लेकर 1814 ई. तक कोई देखा नहीं होना था । 1804-05 में ब्रिटेन पर नेपोलियन की आक्रमण-योजनाओं की असफलताओं तथा ट्राफलगर में फ्रांसीसी नौ-सेना की पूर्ण पराजय से बिल्कुल ही स्पष्ट हो गया था कि सामुद्रिक शक्ति में ब्रिटेन फ्रांस से तगड़ा पड़ता था; लेकिन नेपोलियन इस वास्तविकता को मानने के लिए तैयार नहीं था ।

वह तुरंत ही ब्रिटेन की व्यापारिक गुरुता को नष्ट करने के लिए महाद्वीपीय व्यवस्था को लागू करने के प्रयास में जुट गया । इस व्यवस्था को प्रभावकारी बनाने के लिए उसे और प्रादेशिक विजय के लिए बाध्य होना पड़ा ।

जब तक अधिक से अधिक तटवर्ती प्रदेश उसके नियन्त्रण में नहीं आ जाते, तब तक महाद्वीपीय व्यवस्था की सफलता संदिग्ध थी । इसे सफल बनाने के लिए आवश्यक था कि पुर्तगाल को महाद्वीपीय व्यवस्था का समर्थन करने पर बाध्य किया जाये ।

इस इच्छा ने उसे सम्पूर्ण इबेरियन प्रायद्वीप की राजनीति में उलझा दिया जिसकी परिणति स्पेन तथा पुर्तगाल पर कब्जा कर लिए जाने की क्रिया में हुई । पुर्तगाल पर नेपोलियन के आधिपत्य ने ब्रिटिश प्रतिरोध को और भी तगड़ा कर दिया और तथाकथित प्रायद्वीपीय युद्ध ने नेपोलियन को बहुत क्षति पहुँचायी ।

ADVERTISEMENTS:

स्पेन पर फ्रांस का आधिपत्य बड़ा महँगा पड़ा । स्पेनवासी कभी फ्रांसीसी शासन से समझौता नहीं कर सके तथा उन्होंने बहुत तगड़ा मुकाबला प्रस्तुत किया । इसके कारण फ्रांस के साधनों पर काफी दबाव पड़ा तथा यूरोप में उसके पराभव में इसका बड़ा हाथ रहा ।

इसमें आश्चर्य नहीं कि नेपोलियन ने बाद में कहा- ”यह (स्पेन) एक ऐसा सैनिक घाव था जिसने मुझे बर्बाद कर दिया ।” एक बार फिर यह महाद्वीपीय व्यवस्था ही थी जिसने नेपोलियन को 1812 ई. में रूस के साथ युद्ध में उलझा दिया ।

जार के विरुद्ध नेपोलियन की प्रमुख शिकायत यह थी कि अलेक्जेंडर अपने बन्दरगाहों पर महाद्वीपीय व्यवस्था लागू नही कर सका था । 1810 ई. में फ्रांस ने रूस से अपने बन्दरगाहों पर मौजूद सभी तटस्थ जहाजों का इस आधार पर कि ब्रिटिश माल ले जा रहे हैं, जब्त कर लेने को कहा तो अलेक्जेंडर ने ऐसा करने से इनकार कर दिया ।

इसके बदले उस वर्ष बाद में उसने एक घोषणा जारी की जिसके अनुसार उसने रूसी बन्दरगाहों में तटस्थ जहाजों के आने को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया । नेपोलियन के समक्ष यह स्पष्ट था कि फ्रांसीसी-रूसी सन्धि का अब अन्त होने वाला है ।

बाद में 1810 ई. में रूस महाद्वीपीय व्यवस्था से अलग हो गया । इसने नेपोलियन को क्रुद्ध कर दिया और उसने जार को पाठ पड़ाने का निश्चय किया । नेपोलियन ने रूस के विरुद्ध 1812 ई. के वसन्त में अपना सैनिक अभियान शुरू किया जो बाद में उसके लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हुआ ।

रूस के जाड़े में नेपोलियन की सम्पूर्ण सेना विनष्ट हो गयी । नेपोलियन को निश्चयात्मक रूप से पराजित होना पड़ा । यह महाद्वीपीय व्यवस्था ही थी जिसने उसे ऐसी मुसीबतों में डाल दिया था जिससे निकलने का कोई रास्ता उसके सामने न था ।

पुर्तगाल के प्रायद्वीपीय युद्ध, स्पेन का छापामार युद्ध और रूस के छल-प्रपंच वाले युद्ध ने उसकी सैनिक शक्ति को खोखला बना दिया । इन सभी घटनाओं ने उस परिस्थिति का सृजन किया जिसमें नेपोलियन के विरोधी संगठित होकर उसका अन्त कर सके ।

उसकी सैनिक शक्ति को कमजोर होते देख उसके शत्रुओं में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए बहुत जोश पैदा हो गया । लेकिन, नेपोलियन भी हिम्मत हारने वाला नहीं था । मास्को से पेरिस लौटते ही उसने फिर एक विशाल सेना का संगठन किया और शत्रुओं से जूझने की तैयारी में लग गया ।

उधर नेपोलियन के विरुद्ध यूरोपीय राज्यों (प्रशा, आस्ट्रिया, रूस ओर इंगलैण्ड) का चौथा गुट 1813 ई. में कायम हो गया । फ्रांस के विरुद्ध ये सब राष्ट्र मिलकर युद्ध के मैदान में आ डटे । चारों ओर से मित्रराष्ट्रीय सेनाएँ फ्रांस की ओर आगे बढ़ने लगीं ।

लाइपजिग के निकट ‘तीन दिन के राष्ट्रों के युद्ध’ में नेपोलियन की बड़ी भारी पराजय हुई और 31 मार्च, 1814 को मित्रराष्ट्रों की सेना पेरिस में प्रवेश कर गयी और पराजित नेपोलियन को एल्बा के द्वीप में भेज दिया गया ।

लेकिन, नेपोलियन बहुत दिनों तक एल्बा में नहीं रहा । 1 मार्च, 1815 को वह चुपके से फ्रांस वापस आ गया । नेपोलियन के फ्रांस पहुँचते ही सारे देश में एक नयी उमंग आ गयी । सेना ने उसका साथ दिया और देखते ही देखते उसके पास एक बहुत बड़ी सेना इकट्ठी हो गयी । अठारहवाँ लुई, फ्रांस की गद्दी छोड़कर भाग गया और नेपोलियन फिर फ्रांस का सम्राट बन गया ।

वियना में एकत्र विजयी राष्टों के प्रतिनिधियों ने काँग्रेस का अधिवेशन स्थगित करके पुन: नेपोलियन का सैनिक मुकाबला करने को चल पड़े । इस बार 18 जून, 1815 को मित्रराष्ट्रों और नेपोलियन के बीच ‘वाटरलू का प्रसिद्ध युद्ध’ हुआ जिसमें नेपोलियन अन्तिम रूप से हार गया और वह सेण्ट हेलेना के द्वीप में निर्वासित कर दिया गया ।

पतन के मौलिक कारण:

इस प्रकार नेपोलियन का पतन हुआ । इस पतन के कई मौलिक कारण थे । उसके साम्राज्य में निहित परस्परविरोधी तत्व इस पतन का एक मुख्य कारण था । फ्रांसीसी सेना के एक विजयी सेनापति के रूप में नेपोलियन ने सत्ता प्राप्त की थी और वह भली-भाँति जानता था कि मात्र सैनिक विजय ही उस स्थान को बरकरार रख सकती है जो उसने देशों को जीतकर प्राप्त किया था ।

उसने एक बार कहा भी था- ”मैं सिर्फ अपने देशवासियों की कल्पना को ध्यान में रखकर ही काम करता हूँ । जब यह साधन (युद्ध) मेरा साथ न देगा तब मैं कुछ भी नहीं रह जाऊँगा और तब कोई दूसरा मेरी जगह ले लेगा ।”

यह वाक्य उसके पतन का एकमात्र सूत्र था । यदि फ्रांसीसियों को निरन्तर विजय और यश के प्रकाश की चकाचौंध में नहीं रखा जाता तो क्रांति के पुराने आदर्शों-स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के पुन: प्रतिष्ठित होने का भय था ।

नेपोलियन यह भी जानता था कि उसकी सत्ता सेना के समर्थन पर आधारित थी । अत: उसे सेना को निरन्तर विजय तथा यश प्रदान करते रहना था, अन्यथा उसका पतन निश्चित था ।

निरन्तर सफलताएँ-सफलता और सफलता के सिवा कुछ नहीं, उसके अस्तित्व की कीमत थी । लेकिन, यह एक ऐसी कीमत थी जिसे नेपोलियन की प्रतिभा भी अदा नहीं कर सकती थी । स्वयं नेपोलियन में ही उसके विनाश के बीज निहित थे ।

विजित प्रदेशों में राष्ट्रवाद की भावना का विकास नेपोलियन के पतन का एक दूसरा कारण था और यह भावना सीधे फ्रांसीसी आधिपत्य की उपज थी । दूसरे देशों में नेपोलियन का शासन विदेशी था ।

राष्ट्रवाद की भावना से प्रभावित होकर यूरोपीय देशों के लिए विदेशी शासन का विरोध करना उचित था । नेपोलियन ने केवल दूसरे राज्यों को जीता ही नहीं था; वह अपना एक वंश-निर्माण भी कर रहा था ।

हालैण्ड, स्पेन, इटली आदि देशों में उसके सगे-सम्बन्धी शासन कर रहे थे । नेपोलियन द्वारा की गयी यह एक गम्भीर गलती थी । पुराना पारिवारिक वंशवाद तथा आधुनिक राष्ट्रवाद एक साथ नहीं चल सकते थे ।

क्रांतिकारी विचारधारा ने आत्मनिर्णय के अधिकार-सिद्धान्त को जन्म दिया था, परन्तु नेपोलियन इसी आकांक्षा का गला घोंटना चाहता था । नेपोलियन का यह विचार कि सारे यूरोप में एक समान शासन-व्यवस्था तथा एक-सी विदेश नीति हो, अधीनस्थ राज्यों को मान्य नहीं थी ।

नेपोलियन की इस अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का प्रतिरोध होना ही था । नेपोलियन के साम्राज्य की स्थापना जिन तरीकों से की गयी थी, वह भी उसके विघटन का एक कारण था ।

प्रथम कॉन्सल के रूप में उसने अपने समय को सुधार और निर्माण-कार्यों में लगाया था, लेकिन साम्राज्य कायम होने पर एक ही सिलसिला रहा, सैनिक विजयों के उपरान्त यूरोपीय सम्राटों से लगातार उनके प्रदेश छीनना तथा वंशानुगत हितों की उपेक्षा करना ।

आखिर कब तक यूरोप के राज्य इस प्रक्रिया को स्वीकार करते रहते ? नेपोलियन की इस नीति ने यूरोप की बड़ी शक्तियों को एकजुट होकर उसे विनष्ट करने का प्रयास करने पर बाध्य किया । यह नेपोलियन का भय ही था, जिसने यूरोप की विभिन्न सरकारों को इतने तगड़े गठबन्धन में बँधने पर विवश कर दिया था ।

एक ओर पराजय, क्षेत्रीय क्षति तथा राजनीतिक अपमान ने यूरोप की सरकारों को एक संगठन कायम करने पर बाध्य किया, तो दूसरी ओर फ्रांसीसियों द्वारा महादेश के आर्थिक शोषण की नीति ने नेपोलियन के शासन के विरुद्ध जनसाधारण में अपार आक्रोश को जन्म दिया ।

इससे भी अधिक चकित करने वाली बात यह थी कि फ्रांसीसियों ने लोक-प्रभुसत्ता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था और अत्याचारों से मुक्ति दिलाना उनका घोषित लक्ष्य था, लेकिन नेपोलियन द्वारा जिस तरह चारों ओर तानाशाही कायम की जा रही थी, वह इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थी कि सिद्धान्त और व्यवहार में जमीन-आसमान का अन्तर है ।

फ्रांस की रक्षा करने तथा सम्पूर्ण यूरोप के व्यापार को नष्ट-भ्रष्ट कर इंगलैण्ड से लड़ाई लड़ने की नीयत से उठायी गयी उसकी आर्थिक नीति के फलस्वरूप यूरोप में चीजों की कीमतें बढ़ गयीं, घोर अभाव के दिन आ गये और भुखमरी की नौबत आ गयी ।

इन सबने मिलकर विजित क्षेत्रों में एक तीव्र जन-आक्रोश को जन्म दिया और फ्रांस के विरुद्ध एक शक्तिशाली मोर्चा खड़ा कर दिया । यह मोर्चा नेपोलियन को परास्त कर देने के लिए काफी था ।

Home››History››Napoleon››