जर्मनी के एकीकरण पर निबंध | Essay on Unification of Germany in Hindi.
बीसवीं सदी के तीसरे दशक में जर्मनी में एडोल्फ हिटलर के नेतृत्व में नात्सीवाद का उत्कर्ष तथा तृतीय राइख की स्थापना संपूर्ण जर्मन इतिहास और दर्शन की तार्किक परिणति ।
‘रक्त और लोहे’ की नीति के मसीहा बिस्मार्क ने 1866 और 1871 ई॰ के बीच शक्ति का प्रयोग कर सदियों से विभाजित जर्मनी का राजनीतिक एकीकरण किया । लेकिन, वास्तव में यह जर्मनी का एकीकरण नहीं, वरन् जर्मनी पर प्रशा के प्रभुत्व की स्थापना थी । बिस्मार्क संपूर्ण जर्मनी को अपनी पितृभूमि के रूप में नहीं देखता था ।
वह हमेशा एक प्रशियाई राष्ट्रवादी था, जो यह विश्वास करता था कि प्रशा जर्मनी पर अपना प्रभुत्व कायम कर ले । केवल प्रशा को शक्तिशाली बनाने के उद्देश्य से ही जर्मन संघ की स्थापना का विचार उसके मन में पनपा । जर्मन साम्राज्य की घोषणा में उसने अत्यन्त सावधानीपूर्वक प्रशा के प्रभुत्व की रक्षा की । जब जनवरी, 1871 में जर्मन साम्राज्य की घोषणा की गयी तब प्रशा के राजा को ही साम्राज्य का सम्राट् बनाया गया । अन्य जर्मन शासकों ने उसके प्रति राजकीय निष्ठा की शपथ ली ।
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इस प्रकार, राष्ट्रवादी आन्दोलन के फलस्वरूप जिस एकीकृत जर्मनी का उदय हुआ, वह प्रशा द्वारा विजित जर्मनी था । जर्मन साम्राज्य ने एक ऐसे संविधान को अपनाया, जिसमें प्रशा को प्रमुखता प्रदान की गयी थी । उदाहरणार्थ, प्रशा के राजा को ही साम्राज्य की सैनिक और विदेश नीतियों पर वैधानिक नियंत्रण प्राप्त था ।
प्रभाव की दृष्टि में जर्मन साम्राज्य प्रशा, प्रशियाई सेना, प्रशियाई नौकरशाही एवं प्रशियाई कुलीनों की भूमिका को विस्तृत करनेवाले एक यंत्र के रूप में काम कर रहा था । इस प्रकार, जर्मनी का एकीकरण बिस्मार्क द्वारा प्रशिया हितों को पूरा करने एवं उसकी सुरक्षा के परिणामस्वरूप था । इस प्रकार, राष्ट्रीय आन्दोलन के फलस्वरूप जिस एकीकृत जर्मनी का उदय हुआ वह वास्तव में प्रशा द्वारा एक विजित जर्मनी था ।
प्रशा स्वयं ही इतिहास का एक अजूबा था । ग्यारहवीं सदी में ब्रैण्डेनवर्ग राजघराने के रूप में इसका जन्म हुआ था । बाल्टिक तट पर बसे हुए स्लावों को हटाकर एक हो हेनजोलरिन वंशीय राजा ने इसकी स्थापना की थी । जिन्होंने विरोध किया, वे या तो समाप्त कर दिये गये या गुलाम बना लिये गये ।
समय के प्रवाह के साथ प्रशा ने अपने को यूरोप की महाशक्ति में परिणत कर लिया । लेकिन, यह एक साधनहीन राज्य था । आबादी छोटी थी, जमीन बंजर थी, कोई उद्योग नहीं था और संस्कृति नहीं के बराबर थी । यहाँ तक कि वहाँ का अभिजात्यवर्ग भी गरीब था तथा भूमिहीनों का जीवन पशुतुल्य था । फिर भी, एक महान इच्छा-शक्ति तथा संगठित करने की प्रतिभा के बदौलत हो हेनजोलरिन ने स्पार्टा के समान एक सैनिक राष्ट्र का निर्माण कर लिया ।
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इस प्रकार, विजयों के द्वारा एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण हुआ जिसका राजा च सप्रमुतायुक्त था तथा जो एक संकीर्ण विचारवाली नौकरशाही तथा कठोर अनुशासनवाली सेना की मदद से राज्य करता था । राज्य की कुल वार्षिक आय का दो-तिहाई सेना पर खर्च कर दिया जाता था । सेना राज्य के अंदर स्वयं एक राज्य थी ।
इस संबंध में मिराबो ने एक बार कहा था- ”प्रशा एक राज्य नहीं था जिसके पास सेना थी, वरन् एक ऐसी सेना थी जिसके पास एक राज्य था” । ऐसे राज्य को एक कारखाने की तरह चलाया जाता था । जनता पूरी मशीन में कुछ पार्ट-पुर्जों के अलावा कुछ न थी । व्यक्ति को न केवल शासकों और ड्रिल करनेवाले सार्जेणटों द्वारा ही, वरन् दार्शनिकों द्वारा भी यही शिक्षा दी जाती थी कि आज्ञापालन, त्याग और कर्त्तव्य-निर्वाह ही उनके जीवन के लक्ष्य होने चाहिए ।
यहाँ तक कि जर्मन दार्शनिक काण्ट ने भी यह शिक्षा दी कि कर्तव्य की यह माँग थी कि मानव-अनुभूतियों को दबा दिया जाय और प्रशियाई कवि विलीवाल्ड अलेक्सिस ने होहेनजोलरिन के मातहत लोगों के दास बनाये जाने की बात का गुणगान किया । लेकिन, लेसिंग नामक लेखक को यह सब पसन्द नहीं था ।
इसी कारण उसने प्रशा को यूरोप का सर्वाधिक दासवादी राष्ट्र कहा था । “प्रत्येक नेता का अधिकार नीचे की ओर और उत्तरदायित्व ऊपर की ओर”- यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण नात्सी दर्शन था और नात्सीवाद ने इसे जर्मनी की ऐतिहासिक परम्परा से प्राप्त किया था ।
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जंकर, जो आधुनिक जर्मनी में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनेवाले थे, भी प्रशा की ही एक अनोखी देन थे । वे, जैसा कि वे दावा किया करते थे, एक शासन करनेवाली जाति थे । स्तावों से विजित की गयी भूमि पर उन्होंने अपना अधिकार जमाया था और इसे एक ऐसे बड़े फार्म के रूप में विकसित किया था, जिस पर भूमिहीन स्ताव-दासों द्वारा काम किया जाता था । फिर भी, प्रशियाई जंकर जाहिल या आरामपसन्द नहीं होता था ।
अपने बड़े फार्मों का प्रबन्ध करने के लिए वह काफी कड़ा परिश्रम करता था । देश में कोई बड़ा नगर नहीं था और न कोई ‘प्रभावी बुर्जुआवर्ग’ ही, जो उसे चुनौती दे सकता था । पश्चिमी यूरोपीय कुलीनो की तुलना में जंकर उद्दण्ड तथा उच्छूंखल होता था जो अपने को बहुत महत्वशील मानता था । उसका रवैया आक्रामक होता था और संस्कृति का उसे कुछ भी ज्ञान नहीं था ।
जर्मन एकीकरण का शिल्पकार बिस्मार्क जर्मन साम्राज्य का चांसलर इसकी स्थापना के समय से ही बना रहा । 1888 ई॰ में 29 वर्ष की आयु में विलियम द्वितीय जर्मनी का सम्राट् बना । अभी वह अपरिपक्व था और विरोध को पसन्द नहीं करता था । बिस्मार्क से उसका मतभेद बढ़ता गया और 1890 ई॰ में चांसलर को त्यागपत्र देना पड़ा ।
इसके बाद नीति-निर्धारण के काम की जिम्मेवारी स्वयं सम्राट् ने संभाल ली । बाद में 1914 ई॰ के यूरोपीय युद्ध में जर्मनी को भी अपने मित्रराज्य आस्ट्रिया-हंगरी के साथ फँसना पड़ा । दूसरी ओर थे ब्रिटेन, फ्रांस और रूस यही युद्ध आगे चलकर प्रथम विश्वयुद्ध में परिणत हो गया । बिस्मार्क ने हमेशा ही दो मोर्चों पर युद्ध को टालना चाहा था लेकिन, अब जर्मनी एक ही साथ दो मोर्चों पर लड़ रहा था-पूर्व में रूस के साथ और पश्चिम में फ्रांस तथा ब्रिटेन के साथ ।
जब युद्ध प्रारम्भ हुआ तब जर्मन सैनिक अधिकारियों ने फ्रांस को छह सप्ताह के अंदर ही पराजित करने और तब रूस की ओर मुड़ने की योजना बनायी । लेकिन, यह योजना असफल हो गयी । मार्न के युद्ध में जर्मन बढ़ाव को रोक दिया गया । साढ़े तीन वर्षों तक दोनों पक्षों में से कोई भी पक्ष मार्ग-रेखा से लगे कुछेक मील से ज्यादा नहीं बढ़ पाये ।
उधर पूर्वी मोर्चे पर जर्मनी ने कई युद्धों में रूस को पराजित किया, जिसके परिणामस्वरूप रूस का पतन हो गया । वहाँ क्रांतियों का दौर शुरू हुआ जिसमें बेल्शेविकों ने सता हथिया ली । शीघ्र ही जर्मनी और रूस के बीच युद्ध बंद हो गया । मार्च, 1918 में बोल्शेविक सरकार ब्रेस्टलिटोब्स्क की संधि कर युद्ध से अलग हो गयी ।
यद्यपि जर्मनी पूर्वी मोर्चे पर निश्चिन्त हो गया, पर यह नहीं भूला जा सकता था कि उसके सर्वाधिक शक्तिशाली दुश्मन पश्चिम में थे और उनको पराजित किये बिना विजय असंभव थी । परिचमी-दुश्मनों में सर्वाधिक शक्तिशाली ब्रिटेन था जिसकी सामुद्रिक शक्ति को शिकस्त देना आवश्यक था । इस कारण जर्मनी ने अनियन्त्रित पनडुब्बी-युद्ध प्रारम्भ करने का निश्चय किया जिससे संयुक्त राज्य अमेरिका की जहाजरानी प्रभावित हुई इन दोनों देशों का आपसी सम्बन्ध तनावपूर्ण हो गया और अप्रैल, 1917 में संयुक्त राज्य ने जर्मनी पर युद्ध की घोषणा कर दी ।
विश्वयुद्ध में अमेरिका के मित्रराष्ट्रों के पक्ष में प्रवेश करने के साथ घटनाएँ विपरीत रूप में घटने लगीं और जर्मनी का पराजित होना निश्चित हो गया । मार्न के युद्ध के बाद पश्चिमी मोर्चे पर हुए जिच ने यह स्पष्ट कर दिया कि युद्ध लम्बे अरसे तक खिंचेगा । इसका परिणाम यह हुआ कि जर्मनी में शीर्षस्थ सैनिक कमांडरो का प्रभुत्व बढ़ गया और नागरिक अधिकारियों को पृष्ठभूमि में जाना पड़ा ।
जर्मन-सेना के सर्वाधिक प्रभावशाली और महत्वपूर्ण प्रतिनिधि थे पाल फॉन हिंडेनबर्ग तथा एरिख लुडेनड्रोफ । इन्होंने जर्मनी में अथाह लोकप्रियता अर्जित की थी, क्योंकि 1914 ई॰ में रूस के बढ़ते हुए दो सैनिक दस्तों को पराजित कर विनष्ट कर दिया था । हिंडेनबर्ग और लुडेनड्रोफ अब सर्वोच्च कमांड में थे और इन दोनों की जोड़ी ने वस्तुत: जर्मनी पर तानाशाही कायम कर ली थी ।
उनकी स्पष्ट इच्छा के बिना जर्मनी में कुछ भी नहीं हो सकता था । वे संपूर्ण युद्ध लात कक्ष की वकालत करते थे सारे देश का सैनिकीकरण कर दिया गया । सैनिक तथा गैर-सैनिक मनुष्य-शक्ति, आर्थिक साधन तथा जनमत को राज्य के नियन्त्रण में रख दिया गया था । हर आवश्यक अथवा कमीवाले वस्तु को नियन्त्रित कर दिया गया । किंतु इन व्यवस्थाओं को जर्मन लोगों ने सहजतापूर्वक ग्रहण नहीं किया ।
जन-विरोध की भुनभुनाहट स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ने लगी, लेकिन एक गरिमामय विजय के साथ युद्ध को समाप्त करने के अतिइच्छुक जेनरल जनता की भावनाओं की कद्र करने में असफल रहे ।
जुलाई, 1918 में जर्मन सेना लड़खड़ाने लगी । लगभग ढाई लाख अमेरिकी सैनिक अब प्रति माह फ्रांस पहुँच रहे थे । जर्मनी पर सैनिक दबाव बढ़ता ही जा रहा था । जर्मनी के सैनिक हाई कमांड ने अपनी सरकार को सूचित किया कि अब वे युद्ध नहीं जीत सकते और पूर्ण पराजय निश्चित है । लेकिन, जर्मन सैनिक जाति यानी जंकरवर्ग सकट के इस क्षण में राष्ट्र की प्रतिष्ठा बचाने से ज्यादा जर्मन सेना की प्रतिष्ठा बचाने के लिए आतुर था जो कुछ घट रहा था, वह बिल्कुल स्पष्ट और सहज था । सेना को कभी पराजय और आत्मसमर्पण स्वीकार नहीं करना है ।
ऐसा होने से सेना का मनोबल और उसकी प्रतिष्ठा सदा के लिए गिर जायेगी । अतएव, पराजय स्वीकार करने का उत्तरदायित्व नागरिक अधिकारियों को लेना ही होगा । 29 सितम्बर, 1918 को हिंडेनबर्ग ने माँग की कि जर्मनी के लिए एक नागरिक सरकार का गठन हो, जो अमेरिकी रास्ट्रपति विल्सन से तत्काल युद्ध-स्थगन कराने की अपील कर सके । उधर विल्सन चाहता था, कि जिस निरंकुश और अनुतरदायी शक्ति द्वारा जर्मनी अब तक शासित होता आ रहा था उसका अंत हो जाय और जर्मनी में एक ऐसा शासन कायम हो जो पूर्णत: जनता के प्रति उत्तरदायी हो ।
उसने इस बात पर जोर दिया कि जर्मन सरकार को प्रजातांत्रिक होना ही होगा । वह केवल जर्मन जनता के प्रतिनिधियों के साथ बातें करना चाहता था न कि प्रतिष्ठा खोये हुए पुराने शासकवर्ग से परिस्थिति के इस दबाव से बाध्य होकर कैजर ने बैडेन के प्रिंस मैक्स को साम्राज्य का चान्सलर नियुक्त किया ।
मैक्स को एक उदारवादी राजनेता के रूप में ख्याति प्राप्त थी । उसने अपने मंत्रिमंडल में सोशल डेमोक्रेटों को भी शामिल किया, जो राइखस्टैग की सबसे बड़ी पार्टी थी मैक्स के नेतृत्व में राइखस्टैग ने देश में एक उतरदायी और लोकप्रिय संविधान को निर्मित करने के उद्देश्य से कई विधेयकों को जल्दी-जल्दी पारित किया । सरकार को संसद् के निम्न सदन यानी राइखस्टैग के विश्वास के मतदान पर निर्भर करा दिया गया । वयस्क व्यापक मताधिकार को लागू किया गया । इसके चलते साम्राज्य की नीतियों पर जंकरवर्ग के प्रभाव का अंत होने की संभावना बढ़ गयी ।
इतना सब-कुछ होने के बावजूद मित्रराष्ट्रों को जर्मनी पर भरोसा नहीं हुआ । पराजय के अवसर पर अचानक प्रजातंत्र में इतना विश्वास बढ़ जाने को उन्होंने शंका की दृष्टि से देखा । अत: राष्ट्रपति विल्सन ने जर्मनी में परिवर्तन के स्पष्ट प्रमाण माँगे । इस बीच जर्मन सरकार द्वारा विल्सन से की गयी अपील का जर्मन जनता पर गहरा प्रभाव पड़ रहा था वे सहसा इस बात की ओर जागरूक हो उठे कि युद्ध के संबंध में उन्हें जो जानकारी दी जा रही थी, वे सब-की-सब गलत थी यानी, जर्मनी युद्ध हार चुका है, इसे छुपाया जा रहा था ।
पूरे जर्मनी में यह भावना व्यापक हो रही थी कि पुराने नेताओं को सत्ता छोड़ देनी चाहिए, ताकि विल्सन और उसके सहयोगियों को यह विश्वास हो जाय कि जर्मनी में सचमुच ही एक क्रांतिकारी परिवर्तन हो गया है, यानी जर्मन लोग प्रजातांत्रिक विचारधारा के हो गये हैं जब विलियम द्वितीय गद्दी छोड़ने से हिचकिचाने लगा तब देश में दंगे प्रारम्भ हो गये और सर्वत्र अशान्ति फैल गयी ।
समाजवादी और साम्यवादी नेताओं के नेतृत्व में जगह-जगह प्रदर्शन और हड़तालें होने लगीं । बाध्य होकर 9 नवम्बर, 1918 को कैजर ने गद्दी छोड़ दी और जर्मनी को एक गणराज्य घोषित कर दिया मया । प्रिंस मैक्स ने स्वयं ही अपना पद छोड़ दिया और सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी के नेता फ्रेडरिख एबर्ट ने चांसलर का पदभार ग्रहण किया ।
11 नवम्बर को विराम-संधि पर हस्ताक्षर हुए और युद्ध बंद हो गया । विराम-संधि पर वार्ता करने के लिए जो जर्मन शिष्टमंडल बना था उसके अधिकांश सदस्य असैनिक या नागरिक सेवा के थे, क्योंकि मित्रराष्ट्रों को सैनिक नेताओं पर भरोसा नहीं था । इसका कारण यह भी था कि जर्मन सैनिक हाइकमांड आत्मसमर्पण का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना नहीं चाहता था ।
उस समय किसी ने यह नहीं सोचा कि शीघ्र ही लुडेनड्रौफ यह कहने लगेगा कि जर्मनी युद्ध नहीं हारा था, वरन् सोशल डेमोक्रैटस तथा यहूदी लोगों द्वारा सेना की पीठ में छुरा भोंका गया था । हिटलर ने भी उन्हें ‘नवम्बर अपराधी’ कहना शुरू किया । लेकिन, सत्य तो यह है कि जर्मनी के पुराने नेताओं और सैनिक हाइकमांड ने- हिंडेनवर्ग और लुडेनड्रौफ-पहले प्रिंस मैक्स के और बाद में हिचकिचाहट से भरे हुए सोशल डेमोक्रैट्सो के हाथ में राजनीतिक सता जबरन डाल दी थी ।
ऐसा कर उन्होंने प्रजातांत्रिक श्रमिकवर्गीय नेताओं के कंधे पर आत्मसमर्पण करने और अंतत: एक अपमानजनक शांति-संधि पर हस्ताक्षर करने का उत्तरदायित्व डाल दिया । इस प्रकार, इस आरोपित संधि से जर्मन जनता को जो कष्ट झेलना पड़ा, उसका सारा उत्तरदायित्व उनके सर पर थोपा गया और सेना की प्रतिष्ठा कम-से-कम दिखावे के लिए ही बच गयी । यह एक थोथी धूर्तता थी जिसे एक बच्चा भी समझ सकता था । लेकिन, जर्मनी में यह चाल काम कर गयी । इस कारण, प्रारंभ से ही गणतंत्र का भविष्य अंधकारमय हो गया और नात्सीवाद के उदय का रास्ता खुल गया ।
दूसरा यह कि जर्मनी में गणतंत्र का जन्म जर्मन जनता की आत्मप्रसूत अभिलाषा के फलस्वरूप नहीं हुआ था, वरन् एक हारे हुए युद्ध के दबावों के कारण उत्पन्न आवश्यकताओं द्वारा उन पर जबरन थोपा गया था । जर्मनी में साम्राज्य का पतन और परिणामस्वरूप गणतन्त्र की स्थापना किसी मूल गहरी क्रांतिकारी क्रिया या जर्मन जनता की भावनाओं में परिवर्तन के फलस्वरूप नहीं हुई थी । वह युद्ध का एक परिणाम था । जर्मनी में गणतंत्र की स्थापना इसलिए हुई कि विजयी सेना ने इसकी माँग की और जर्मन जनता अब शान्ति चाहती थी ।
इससे भी बड़ी बात यह थी कि जर्मन सैनिकवर्ग अपनी छवि और अपनी भावी शक्ति बचाने के उद्देश्य से पराजय का उतरदायित्व स्वीकार करने से बचना चाहती थी । किसी भी हालत में जर्मन धरती प्रजातंत्र के लिए अनुपयुक्त थी । क्या आश्चर्य कि इस परिस्थिति का फायदा प्रजातंत्र को नष्ट करने के लिए हिटलर ने उठाया ।
प्रिंस मैक्स के पदत्याग के बाद जर्मनी की सरकार पर सामाजिक प्रजातंत्रवादियों का प्रभुत्व रहा । फ्रेडरिक एबर्ट उनका नेता था । सामाजिक प्रजातंत्रवादी मार्क्सवादी थे, लेकिन उनका मार्क्सवाद पालतू, धीमे स्वरवाला संशोधनवादी था । वे ट्रेड यूनियनों के नेता थे और राइखस्टैग में उनका बहुमत था । 1917 ई॰ के पहले वे अपने को वामपंथी समझते थे । 1918 ई॰ के पतझड़ में इतिहास ने उन्हें जर्मनी में सामाजिक प्रजातंत्र स्थापित करने का अवसर प्रदान किया था ।
लेकिन, ऐसा करने के लिए उन्हें जमींदाराना जंकर भूमिपतियों तथा दूसरे उच्चवर्ग, विशाल औद्योगिक प्रतिष्ठानों के स्वामी, राजकीय प्रशासनिक सेवाओं के उच्च पदाधिकारी और सबसे ऊपर सैनिकवर्ग और इसके उच्चस्थ पदाधिकारीवर्ग के सदस्यों को स्थायी रूप से कुचल देना होता ।
उन्हें बड़ी-बड़ी जमींदारियों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों में से बहुत को तोड़ देना होता और समूचे प्रतिक्रियावादी तत्त्वों से अफसरशाही, न्यायपालिका, पुलिस, विश्वविद्यालय और सेना को मुक्त करना होता । ये सभी बातें एक संपूर्ण सामाजिक क्रांति के माध्यम से ही संभव हो पातीं, लेकिन सामाजिक प्रजातंत्रवादी सामाजिक क्रांति से घृणा करते थे । ”मैं इससे (सामाजिक क्रांति) पाप के समान घृणा करता हूँ” -एक बार एबर्ट ने कहा था ।
सामाजिक प्रजातंत्रवादियों के इस रवैये ने पार्टी के अति उग्रवादी तत्त्वों (अर्थात् कम्युनिस्ट या बोल्शेविक समर्थक) को असन्तुष्ट कर दिया बोल्शेविकवादी नरम समाजवादियों को प्रतिक्रियावादी और गद्दार मानते थे और उन्होंने समस्या को गलियों में सुलझाने का निर्णय किया ।
एक गुट पार्टी से अलग हो गया और उसने अपने को स्पार्टकस कहना शुरू किया । इसी स्पार्टकस गुट से जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी विकसित हुई । इसके नेता थे कार्ल लिब्नेख्त और रोजा लुक्जेमबर्ग । प्रथम विश्वयुद्ध के पहले ये दोनों ही सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में थे । लेकिन, अब उन्होंने बगावत का झंडा खड़ा किया ।
बर्लिन में एक भयानक गली-युद्ध हुआ । रूर क्षेत्र तथा हैमबर्ग में विप्लव फैल गया और अप्रैल बैवेरिया में एक सोवियत गणतंत्र की स्थापना कर दी गयी जर्मनी में सब जगह सैनिकों और श्रमिकों की सोवियतें बनने लगीं और वे सत्ता अख्तियार करने लगीं जैसा कि रूस में हुआ था । स्पष्ट था कि जर्मनी में भी बोल्शेविक सता हथिया लेंगे ।
निश्चय ही उस क्षण रूस में जो कुछ हो चुका था, उसका दृश्य एबर्ट तथा उसके साथियों की आँखों के सामने घूमने लगा । पर, वे एक जर्मन केरेन्सकी बनना नहीं चाहते थे और बोलशेविकवाद से जर्मनी को बचाने के लिए कटिबद्ध थे सामाजिक प्रजातंत्रवादी अंतत: स्पार्टकस आन्दोलन को दबा देने में सफल हो गये, लेकिन जिस तरीके से इसे दबाया गया उस तरीके ने जर्मन प्रजातंत्र के भविष्य को उसके जन्म की ही घड़ी में अंधकार के गर्त में डाल दिया और हिटलरवाद के उत्कर्ष का रास्ता खोल दिया ।
सामाजिक प्रजातंत्रवादियों ने स्पार्टकस आन्दोलन को दबाने के लिए उन प्रतिक्रियावादी तत्त्वों से समझौता करना शुरू कर दिया, जो गणतंत्र को किसी भी कीमत पर स्वीकार करने को तैयार नहीं थे । इसमें सर्वप्रमुख थी सेना जिस पर अब भी जंकरों का ही प्रभुत्व था । एर्बट और उसके सहयोगियों ने सेना के समक्ष घुटने टेकना प्रारम्भ कर दिया । एर्बट ने तत्काल हिंडेनबर्ग तथा जेनरल ग्रोएनर (जिसने हाल ही में लुडेनड्रॉफ का स्थान ग्रहण किया था) से संपर्क स्थापित किया और उनसे वचन लिया कि बोल्शेविकों को दबाने में सेना सक्रिय रूप से सरकार की सहायता करेगी ।
सामाजिक प्रजातंत्रवादियों तथा सैनिक हाईकमांड के बीच की मित्रता के महत्वपूर्ण परिणाम हुए । हिंडेनबर्ग के उदाहरण का अनुसरण करते हुए जर्मन प्रशासनिक सेवा ने नयी सरका की वैधता को स्वीकार कर लिया और अपनी सेवाएँ उसे अर्पित कर दीं । सामाजिक प्रजातंत्रवादियों ने इस कदम का स्वागत किया, क्योंकि अब उन्हें विपत्तियों का सामना करने के लिए प्रशासनिक सेवा की सहायता भी प्राप्त हो गयी ।
स्पार्टकस आन्दोलन को कुचलने के लिए सैनिक आलाकमान का समर्थन प्राप्त करने से नयी सरकार को जो लाभ प्राप्त हुए वे उस समय जितना अधिक नजर आते थे उससे कम थे और भावी विकास पर इसका बड़ा ही बुरा असर पड़नेवाला था । इसने जर्मनी में जनतंत्र के विकास को कुंठित कर दिया । सोशलिस्ट नेताओं ने पुराने प्रशासकों (अधिकांश जंकरवर्ग के) पर विश्वास किया था ।
इस कारण, नयी गणतांत्रिक व्यवस्था में उनके सारे अधिकार बरकरार रहे, जो उन्हें पहले प्राप्त थे । इस कारण, प्रशासनयंत्र पूरा-का-पूरा कंजरवेटिव बना रहा और इसमें साम्राज्यवादियों का ही प्रभुत्व कायम रहा । प्रशासनिक सेवाओं में नयी नियुक्तियों पर उनका नियंत्रणकारी प्रभाव कायम रहा इसके अतिरिक्त, जब नयी एक लाख सैनिकोंवाली सेना का गठन हुआ तब इसके ऑफिसरवर्ग के सदस्यों का चयन करने का काम पुराने जेनरल स्टाफ के हाथों में रह गया ।
घोर प्रतिक्रियावादी तत्त्वों पर निर्भर करने का नतीजा हुआ कि नयी व्यवस्था के अन्तर्गत भी जंकर भूपतियों और उद्योगपतियों की स्थिति पहले जैसी ही सुदृढ़ बनी रही और इन्हें नष्ट करना या कमजोर करना असंभव हो गया । प्रजातंत्र को कमजोर करने तथा जर्मनी में नात्सीवाद के उदय में ये तत्त्व सबसे आगे थे ।
इसी बीच गणतंत्र के लिए एक नया संविधान बनाने के लिए वाइमर नामक प्राचीन नगर में एक संविधान-सभा बुलायी गयी छह महीने की बहस के बाद संविधान का जो प्रारूप उभरा, वह कागज पर सर्वाधिक उदारवादी और प्रजातांत्रिक था ।
इसमें संसदीय प्रजातंत्र, एक लोकप्रिय शक्तिशाली राष्ट्रपति, जनादेश का विचार आदि सबके प्रावधान थे । मतों को बरबाद होने से रोकने के लिए तथा छोटे अल्पसंख्यक समूहों को संसद् में प्रतिनिधित्व प्राप्त कराने के उद्देश्य से समानुपातिक प्रतिनिधित्व एवं सूचियों के माध्यम से मतदान करने की एक विस्तृत और जटिल व्यवस्था की गयी ।
संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की एक विस्तृत सूची थी । तत्कालीन किसी भी संविधान की तुलना में वाइमर संविधान सर्वाधिक प्रजातांत्रिक दीख पड़ता था लेकिन, कागज पर अति प्रजातांत्रिक नजर आनेवाले इस संविधान की नियति अत्यन्त ही बुरी थी । प्रशासनिक सेवाओं के सदस्य सेना के अधिकारी, अभिजातवर्ग तथा व्यापारीवर्ग ने कभी दिल से इसका समर्थन नहीं किया और वास्तव में वे एक तानाशाही के पक्षधर बने रहे संविधान की दो खामियों ने इन प्रजातंत्र-विरोधियों की सहायता की और अंतत: वे घातक प्रमाणित हुए ।
समानुपातिक प्रतिनिधित्व एवं सूचियों के माध्यम से मतदान की व्यवस्था के फलस्वरूप देश में राजनीतिक पार्टियों की बाढ़ आ गयी । इसके कारण राइखस्टैग में किसी एक पार्टी का बहुमत में आना असंभव हो गया । स्पष्ट बहुमत के अभाव में आये दिन सरकार का बदलाव एक मामूली बात हो गयी 1930 ई॰ के राष्ट्रीय चुनाव में लगभग अट्ठाइस पार्टियो ने भाग लिया था ।
द्वितीयत: संविधान की धारा 48 द्वारा राष्ट्रपति को आपातकालीन अधिकार दिये गये थे । यदि छोटे-छोटे दलों के कारण बहुमत प्राप्त कर पाना असंभव हो और कोई सरकार राइखस्टैग में अपना प्रस्ताव पारित न करा पाये तो वह राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का परामर्श दे सकती थी और अपने प्रस्तावों को राष्ट्रपतीय घोषणाओं के तहत लागू करा सकती थी इस प्रकार, विधेयक के सन्दर्भ में संसद् की उपेक्षा की जा सकती थी ।
एक के बाद एक कई चान्सलर राष्ट्रपतीय अध्यादेशों का सहारा लेकर ही शासन चलाते रहे । राइखस्टैग की स्वीकृति प्राप्त किये बिना ही शासन चलाने की इस क्रिया ने हिटलर के आने के पूर्व ही जर्मनी में प्रजातांत्रिक संसदीय शासन को हास्यास्पद बना दिया ।
जर्मनी में प्रजातंत्र का अंत इतिहास के तर्क में निहित था । इसी बीच पेरिस के शान्ति-सम्मेलन में जर्मनी पर आरोपित की जानेवाली वर्साय की संधि का प्रारूप तैयार हो गया । संधि का सारा उद्देश्य यही था कि जर्मनी को हमेशा के लिए कुचलकर उसे एक तृतीय स्तर की शक्ति में बदल दिया जाय सभी जर्मन इस संधि को अत्याचारपूर्ण मानते थे ।
हिटलर ने इसे राजमार्ग की डकैती कहा था । संधि की प्रादेशिक व्यवस्था के अंतर्गत जर्मनी को एसेस-लरेन के उन दो प्रान्तों को फ्रांस को लौटाना पड़ा जिनको उसने 1870 ई॰ में हथिया लिया था । एक नये पोलैण्ड राज्य की स्थापना की गयी और डाल्किंग के जर्मन बंदरगाह का अंतरराष्ट्रीयकरण करके राष्ट्रसंघ के अंतर्गत कर दिया गया । बाल्टिक तट से पोलैण्ड का सीधा सम्पर्क कायम करने के लिए जर्मनी के बीचो-बीच एक वृहत् प्रदेश पोलैण्ड को दिया गया ।
यह तथाकथित ‘पोलिश गलियारा’ था । मेमेल के बन्दरगाह का भी अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया गया । श्लेसविग और ऊपरी साइलेशिया में जनमत संग्रह कराने की बात थी इसके परिणामस्वरूप जर्मनी को कुछ और अतिरिक्त क्षेत्र भी देना पड़ा । जर्मनी को अपने उपनिवेशों को भी छोड़ना पड़ा । कुल मिलाकर युद्धपूर्व जर्मनी के क्षेत्रों का तेरह प्रतिशत और 1910 ई॰ में इसकी आबादी का दस प्रतिशत जर्मनी को खोना पड़ा ।
सैनिक रूप से जर्मनी को बाध्य होकर अपनी सेना की संख्या एक लाख तक सीमित करनी थी । आक्रामक शस्त्रास्त्रों का उत्पादन प्रतिबंधित कर दिया गया, जनरल स्टाफ को समाप्त कर दिया गया और नौसेना जबा कर ली गयी । राइनलैण्ड का पंद्रह वर्षों के लिए विसैनिकीकरण कर दिया गया यह मित्रराष्ट्रों के सैनिक कब्जे में चला गया । संधि की यह सैनिक व्यवस्था जर्मनों के लिए विशेष रूप से घूर्णित थी ।
सैनिक सेवा में रहने पर जर्मन विशेष गर्व का अनुभव करते थे लेकिन, वर्साय की संधि ने उन्हें सैनिक सेवा करने से रोक दिया । बाद में जब हिटलर ने अपना अर्द्ध-सैनिक स्टीर्म-ट्रूपर्स संगठित किया, तब जर्मन युवक सैनिक जीवन जीने की अपनी हार्दिक अभिलाषा की पूर्ति करने के लिए बड़े उत्साहपूर्वक इसमें सम्मिलित हुए ।
वर्साय-व्यवस्था की आर्थिक व्यवस्था इससे भी अधिक कहर ढानेवाली थी । युद्ध की पूरी जिम्मेवारी जर्मनी पर डाली गयी और बरबादी के लिए उसे क्षतिपूर्ति देने को कहा गया । जर्मनी को कितना देना पड़ेगा, इसका ठीक-ठीक निर्णय अन्तिम रूप से नहीं किया गया । इस काम को बाद में एक क्षतिपूर्ति आयोग को करना था । लेकिन, संधि में इतना जरूर कहा गया था कि आनेवाले कुछ वर्षों में जर्मनी को पचास खरब डालर देना होगा । इसके अतिरिक्त, कोयले और लोहेवाले सारे प्रदेश पर फ्रांस ने आधिपत्य कर लिया ।
यह पूरा क्षेत्र राष्ट्रसंघ के अंतर्गत रख दिया गया पंद्रह वर्षों के बाद लोकमत के द्वारा भाग्य का निर्णय किया जाना था । वर्साय संधि की कठोरता की तीखी आलोचना की गयी है और प्राय: इसे जर्मनी में नात्सीवाद के उदय का एक कारण बताया गया है । यह सत्य हो या नहीं, एक विवादास्पद विषय है । लेकिन, अपनी जनसभाओं में हिटलर बारम्बार इसका उल्लेख करता रहा और जर्मन जनता की मुसीबतों का सारा दायित्व इसी संधि पर डाला ।
इस प्रश्न पर जो आत्मप्रसूत प्रशंसा उसे श्रोताओं से प्राप्त हुई, वह इस बात का समुचित प्रमाण है कि जर्मनी के लोग इस संधि से कितनी धृणा करते थे और वे हिटलर को अपना पूरा समर्थन देते थे क्योंकि वह वादा करता था कि जैसे ही उसकी नात्सी पार्टी सत्ता में आयेगी उसका पहला काम इस संधि को विनष्ट करना होगा ।
वर्साय संधि में क्षतिपूर्ति की व्यवस्था ने तुरंत ही कहर ढाना शुरू किया । इतनी बड़ी राशि की क्षतिपूर्ति अदा करना जर्मनी के बूते से बाहर की बात थी और 1922 ई॰ में वह क्षतिपूर्ति की किस्त अदा नहीं कर सका । फलत: क्रोधित फ्रांस ने उसके रूर प्रदेश में सेना भेजकर उस पर कब्जा कर लिया । रूर के उद्योग फ्रांस के नियंत्रण में आ गये ।
लेकिन, जर्मन जनता ने शान्तिपूर्ण प्रतिरोध का रास्ता अपनाया । खनको ने फ्रांस के लिए काम करना अस्वीकार कर दिया । रूर यूरोपीय महादेश का उद्योग-प्रधान जिला था और फ्रांसीसी यह विश्वास करते थे कि इस क्षेत्र पर कब्जा कर वे या तो सर के श्रमिकों को फ्रांस के लाभ के लिए काम करने पर मजबूर कर देंगे अथवा जर्मन सरकार को क्षतिपूर्ति की अदायगी करने पर बाध्य कर देंगे ।
उधर जर्मन सरकार विश्वास करती थी कि यदि रूर के श्रमिक काम से इनकार कर देंगे तब अधिकार बनाये रखने का खर्च फ्रांस को आर्थिक रूप से तबाह कर देगा । पर, हड़ताली श्रमिकों को आर्थिक सहायता देना आवश्यक था, अन्यथा वे भूखों मर जाते । अत: श्रमिकों को पारिश्रमिक देने के लिए छापाखानों में धड़ल्ले से कागजी मुद्रा मुद्रित की जाने लगी ।
नतीजा हुआ कि जर्मन सिक्का मार्क की कीमत एकदम गिर गयी । 1925 ई॰ के अंत तक एक महाशंख कागजी मार्क का मूल्य एक डॉलर के मूल्य के बराबर था । कागजी मार्क शाब्दिक अर्थ में बेकार हो गया । जब लोग अपना पारिश्रमिक पाते तो वे तुरंत बाजार दौड़ते ताकि मार्क को वस्तुओं में बदला जा सके, नहीं तो मार्क का मूल्य और भी घट जाता ।
बढ़ोतरी के बावजूद वेतन जीवनयापन की बढ़ती हुई कीमतों के आगे कम पड़ता था । मुद्रास्फीति अत्यन्त ही घातक एवं बरबाद करनेवाली प्रमाणित हुई । मध्यमवर्ग भिखारी बन गया एवं उसका मनोबल टूट गया । जीवन का उसका पूरा दृष्टिकोण बदल गया । उन्होंने समाज में, भविष्य में, आल्पनिर्भरता की पुरानी मान्यताओं में और एक जानी-समझी जानेवाली दुनिया में अपने जीवन के लिए तार्किक योजना बनाने में विश्वास खो दिया ।
एक प्रकार का नैतिक सूनापन निर्मित हो गया और मध्यमवर्ग के लिए कुछ भी ऐसा नहीं रह गया जिसमें उनका विश्वास रम सके । बुर्जुआ समाज में मध्यमवर्ग प्राय: एक स्थायित्व लानेवाली शक्ति होती है । लेकिन, वह पूर्णत; निराश होकर अधिकाधिक उग्रवादी और अतिवादी होता गया । इस कारण, गणतंत्रीय शासन की नींव हिल गयी । एडोल्फ हिटलर ने जो उस समय एक नात्सी नेता के रूप में उभर रहा था-इस मनोदशा से अधिकतम लाभ उठाया ।
1923 ई॰ में मुद्रास्फीति के कारण जर्मनी में परिस्थितियाँ अशांतिमय हो उठीं और सभी प्रकार की अलगाववादी प्रवृत्तियाँ सर उठाने लगीं । यदि जर्मनी को राजनीतिक रूप से संगठित और उसके सामाजिक जीवन को व्यवस्थित बनाये रखना था तब अधिकतम मुद्रा छापने का काम बंद कर देना होता, रूर में शांतिपूर्ण प्रतिरोध की नीति का परित्याग करना होता और जर्मनी को क्षतिपूर्ति की अदायगी करना प्रारम्भ कर देना होता ।
गुस्ताव स्ट्रेसमन 1923 ई॰ में चान्सलर बना । उसने 1923 ई॰ में रूर में निष्क्रिय प्रतिरोध को समाप्त करने और जर्मन मुद्रा को स्थिर करने का निर्णय किया । साथ ही, मित्रराष्ट्रों ने भी अनुभव किया कि जर्मनी से क्षतिपूर्ति की अदायगी के सम्बन्ध में किसी प्रकार का समझौता करना ही होगा । फलत: पूरी समस्या पर पुनर्विचार करने के लिए डावस समिति की नियुक्ति की गयी ।
इसके साथ ही राजनीतिक स्थिरता लाने का भी प्रयास किया गया । इसके फलस्वरूप 1925 ई॰ में यूरोपीय शक्तियाँ लोकार्नो में मिलीं और कई संधियों पर हस्ताक्षर किये गये । पहली दफा जर्मनी के साथ समानता के स्तर पर व्यवहार किया गया । जर्मनी ने फ्रांस तथा बेल्जियम की सीमाओं को गारंटी दी और बदले में उसे राष्ट्रसंघ का सदस्य बनाने, उसको कौंसिल की स्थायी सदस्यता देने और निरस्त्रीकरण सम्मेलनों में भाग लेने का निमंत्रण देने का वादा किया गया ।
1920 ई॰ के दशक के मध्य में सबकुछ सामान्य होता हुआ नजर आया । जर्मनी राष्ट्रसंघ का सदस्य बन गया । वातावरण आशापूर्ण होने लगा । लेकिन, तभी आया 1929 ई॰ में एक भूचाल- 1929 ई॰ में विस्फोटित होनेवाला आर्थिक संकट । इसने एक बार फिर दुनिया को संत्रस्त कर दिया और जर्मनी में कट्टर राष्ट्रवाद को जन्म दिया जिसका परिणाम था हिटलर और दर्शनविहीन उसका दर्शन नात्सीवाद ।