Read this article in Hindi to learn about:- 1. पुनर्जागरण का अर्थ (Meaning of Renaissance) 2. पुनर्जागरण के कारण (Causes of Renaissance) 3. स्वरूप (Nature) and Other Details.

Contents:

  1. पुनर्जागरण का अर्थ (Meaning of Renaissance)
  2. पुनर्जागरण के कारण (Causes of Renaissance)
  3. पुनर्जागरण का स्वरूप (Nature of Renaissance)
  4. पुनर्जागरण और साहित्य (Renaissance and Literature)
  5. पुनर्जागरण और कला (Renaissance and Arts)
  6. पुनर्जागरण और विज्ञान (Renaissance and Science)
  7. इतिहास में पुनर्जागरण का महत्व (Importance of Renaissance in History)


1. पुनर्जागरण का अर्थ (Meaning of Renaissance):

पुनर्जागरण का अर्थ होता है पुनर्जन्म, और पश्चिमी सभ्यता के विकास में इसका संबंध चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच हुए उस सांस्कृतिक प्रगति से है जो प्राचीन लौकिक यूनानी और रोमन सभ्यता व संस्कृति से प्रभावित थी ।

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रोमन साम्राज्य का अंत होने पर सरकारी स्कूल बंद हो गए थे और उसके साथ ही यूनानी और लैटिन भाषा का ज्ञान लुप्त होता जा रहा था । जब मध्ययुग के अंत में यूनानी और लैटिन भाषाओं में अर्जित ज्ञान को पुनर्प्रतिष्ठित किया जाने लगा तो उसे पुनर्जागरण कहना ही उचित है ।

परशु पुनर्जन्म शब्द अधिक तीक्ष्ण है । मध्यकाल और ईसाई धर्म की चरम प्रकाष्ठा के समय भी लौकिक प्रवृत्तियाँ समाज नहीं हुई थीं । लौकिक प्रवृत्तियों का पुनरुत्थान एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम था ।

इसके अतिरिक्त पुनर्जागरण मात्र प्राक-ईसाई संस्कृति की वापसी ही नहीं था, इसने कई नई प्रवृत्तियों को भी जन्म दिया । यह केवल पुराने ज्ञान के उद्धार तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उस मार्ग पर अवलंबन करके पश्चिम के विद्वानों ने कला, साहित्य और विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की ।

यह कहना अधिक उचित होगा कि पुनर्जागरण चौदहवीं, पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दियों में पश्चिमी यूरोपीय विचार, साहित्य और कला की लौकिक प्रवृत्तियों का तीव्रीकरण था । पुनर्जागरण का मूल मंत्र था सांसारिकता या लौकिकता जिसका संबंध इस दुनिया से है, न कि पारलौकिक दुनिया से ।


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2. पुनर्जागरण के कारण (Causes of Renaissance):

पुनर्जागरण का प्रारंभ इटली में हुआ । इटालियन व्यापारियों के वाणिज्य-व्यापार के कारण पश्चिमी यूरोप का सबसे अधिक धन इटली के नगरों में ही केंद्रित था । उनके प्रश्रय से वहाँ विद्या एवं ज्ञान का उत्थान हुआ और फिर उसकी चिनगारी जर्मनी, फ्रांस एवं इंगलैण्ड में फैली ।

पुनर्जागरण का सबसे बड़ा कारण व्यापार का उदय था । इसके कारण शहरों का उदय हुआ और उनका महत्व बढ़ने लगा । शहर का वातावरण स्वतंत्र होता है, व्यापारियों का उद्देश्य सामंत-प्रथा और उसके आदर्शवादी समर्थक चर्च से लड़ना था ।

इसलिए वे उसकी कटु आलोचना करने लगे । अभी तक विश्वास के आधार पर सब प्रकार की प्राचीन परिपाटियों को लोग मानते चले आ रहे थे । अब प्रत्येक वस्तु एवं संस्था को लोग संदेह की दृष्टि से देखने लगे ।

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उसकी अच्छाई और बुराई के बारे में बाद-विवाद करने लगे । इससे विचार-स्वातंत्र्य बढ़ा और ज्ञान की प्रगति हुई । धन-दौलत रहने के कारण व्यापारियों के पास अवसर था । उसे वे विद्याध्ययन में लगा सकते थे ।

मध्ययुग के आरंभ में इस प्रकार का अवकाश केवल पादरियों को मिलता था, परंतु अब वह चर्च के बाहर दूसरों लोगों को भी मिलने लगा । धनवान होने के कारण शहर के बड़े-बड़े व्यापारी कला और संस्कृति के उत्साही प्रश्रयदाता बन गए ।

उदाहरण के लिए फ्लॉरिंस, जो इटली में पुनर्जागरण का सबसे बड़ा केंद्र था, बड़े-बड़े महाजनों और मालदारों का अड्डा था । वहाँ के स्ट्रेजो और मेडिसी नामक दो बड़े-बड़े बेक कंपनियों के प्रधान यूरोप में कलाकारों एवं विद्वानों के सबसे बड़े उदार प्रश्रयदाता थे ।

फिर यह बात भी थी कि व्यापारिक नगर बराबर ही अन्य स्थानों के यात्रियों से भरे रहते थे । यात्रा तथा व्यापार करते समय लोगों में पारस्परिक वार्त्ता और विचारों का आदान-प्रदान हुआ, इससे भी ज्ञान का विकास हुआ ।

पूर्व की दुनिया से संपर्क होने के कारण यूरोप में पुनर्जागरण को बल मिला । बर्बर आक्रमणों के पश्चात जब पश्चिम यूरोप अंधकार में था तो पूर्व में अरबवासी भारत और यूनान की प्राचीन विद्या को सीखकर एक नवीन सभ्यता का विकास कर रहे थे ।

स्वयं पश्चिम में स्पेन की राजधानी कोरडोवा, 13वीं शताब्दी तक इस सभ्यता का प्रधान केंद्र बना रहा । अरबों से संपर्क होने के कारण स्पेनियों ने अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त भारतीय गणित और यूनानी दर्शन का ज्ञान भी प्राप्त किया ।

फिर धर्मयुद्ध के समय भी पूर्व और पश्चिम के बीच जबरदस्त संपर्क का मौका आया । इससे पश्चिम के लोगों का मानसिक क्षितिज विस्तृत हुआ, उनकी कूपमंडूकता दूर हुई और वे बाहरी देशों के ज्ञान-विज्ञान के बारे में सोचने लगे ।

अरबों से प्राप्त ज्ञान को आधार मानकर यूरोप के विद्वानों ने अरस्तु के दर्शन के अध्ययन पर सर्वाधिक जोर दिया । अरबी ज्ञान से प्रभावित होकर उन्होंने एक नई विचार-पद्धति चलाई, जिसे पंडित-पंथ कहते हैं ।

इसके अनुसार चर्च के धार्मिक सिद्धांतों को क्रमबद्ध किया गया ओर यूनानी दर्शन के कुछ सिद्धांतों के आधार पर एक विराट, संगठित तथा वैज्ञानिक विचार-पद्धति का निर्माण हुआ ।

13वीं शताब्दी में इस विचार-पद्धति की खूब उन्नति हुई; यद्यपि इसमें आधुनिक युग की नवीन भावना का प्रायः अभाव था । इसमें प्राचीन परंपरा ओर प्रामाणिकतावाद की प्रधानता थी ।

इसने विद्याध्ययन का जो सिलसिला शुरू किया, उसे समर्थक अथवा विरोधी के रूप में आगे के लोगों ने बढ़ाया । पंडितपंथी विचार-पद्धति में अरस्तु के दर्शन की प्रधानता थी, किंतु 13वीं शताब्दी के प्रसिद्ध विचारक ऑक्साफोर्ड निवासी रोजर बेकन ने इसका विरोध किया ।

बेकन अपने समय को अज्ञान का युग बताता था । उसने अरस्तु की इस बात पर तो जोर दिया कि प्रयोग करो, प्रयोग करो, किंतु वह अरस्तु का विरोध इसलिए करता था कि यूरोप के विद्वान अरस्तु के भद्दे लैटिन अनुवादों के मनन एवं अध्ययन में ही व्यस्त रहते थे, उससे आगे कुछ नहीं देखते थे ।

उसने बिगड़ कर कहा- ”यदि मेरा वश चलता तो मैं अरस्तु के सारे ग्रंथों को आग में फेंक देता, क्योंकि इसके अध्ययन से एक तो वृथा समय नष्ट होता है और दूसरे मिथ्या विचारों के उदय होने के कारण अज्ञान बढ़ता है ।” वैज्ञानिक प्रयोगों में बेकन की बड़ी दिलचस्पी थी और विज्ञान के क्षेत्र में उसने जिन-जिन आविष्कारों की कल्पना की, वे सभी बाद में कार्यान्वित हुई ।

इस संबंध में उसके ये शब्द चिरस्मरणीय रहेंगे- ”ऐसी गाड़ी बन सकती है जो बिना किसी पशु के चलाये हुए भी युद्ध-रथों के समान बेहिसाब तेज चाल से चल सकती है । ऐसे उड़ान मशीन का भी बनाना संभव है जो अपने बीच में बैठे मनुष्य के किसी कल के घुमाते ही उड़ती हुई पक्षी के समान कृत्रिम परों को फड़फड़ाती हुई वायुमंडल में घात-प्रतिघात करती विचरने लगे ।”

बाद में बेकन के सपने साकार हुए, सड़कों पर गाड़ियाँ भी चलीं और हवाई जहाज भी उड़ने लगे । यद्यपि रोजर बेकन जैसे साहसी और तर्कप्रेमी विचारक कम हुए, तथापि इस पंडितपंथी आंदोलन से पुनर्जागरण को बड़ा बल मिला ।

हर प्रकार से अनुकूल परिस्थिति रहने पर भी दो चीजों के अभाव में यूरोपीय पुनर्जागरण का आगे बढ़ना असंभव था । ये चीजें थीं-कागज और मुद्रण-कला । कागज का आविष्कार चीन में हुआ था । वहाँ से कागज बनाने का तरीका अरबों ने सीखा और फिर उससे स्पेन के रास्ते पश्चिमी यूरोप ने ।

आरंभ में सबसे अच्छा कागज बनाने में इटली संसार का अगुआ था । 14वीं शताब्दी में जर्मनी ने कागज बनाना सीखा और फिर मुद्रण-कला का आविष्कार होने से इसका व्यवहार हर जगह होने लगा ।

कागज के ही समान चीन ने यूरोप से सदियों पहले मुद्रण का आविष्कार किया था । छठी शताब्दी में वहाँ लकड़ी के ठप्पे से छपाई आरंभ हुई । आधुनिक ढंग के छापेखाने का आविष्कार यूरोप में 1436-1450 के बीच हुआ । सोलह सौ इस्वी तक यूरोप के अठारह देशों में 236 स्थानों में छापेखाने स्थापित थे ।

केवल वेनिस में 200 छापेखाने थे । ज्ञान-विज्ञान की प्रगति पर इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा । एक लेखक ने लेखन कला के आविष्कार के पश्चात इसे इतिहास का सबसे बड़ा आविष्कार बताया ।

जैसे लोहे के आविष्कार से दस्तकारी के साधन सस्ते हो गए और जनसाधारण की पहुँच में आ गए, उसी तरह मुद्रण-कला के आविष्कार से विचार के साधन सस्ते और सुगम हो गए और जनसाधारण के हाथ में आने लगे ।

अब तक पुस्तकों पर थोड़े से साधन-संपन्न लोगों का एकाधिकार था और उसे वे लैटिन भाषा में पढ़ते थे । अब जनसाधारण के पढ़ने और समझने योग्य पुस्तकें बोलचाल की भाषा में लिखी जाने लगीं ।

विशाल मंगोल साम्राज्य के आँगन में एशिया और यूरोप के बीच संपर्क स्थापित होने से भी पुनर्जागरण को बड़ी प्रेरणा मिली । प्रसिद्ध कुबलई खाँ का दरबार विद्वानों, धर्मप्रचारकों एवं व्यापारियों का केंद्र था ।

मंगोल राजसभा में पोप के दूतों, भारत के बौद्ध भिक्षुओं, पेरिस, इटली तथा चीन के दस्तकारों, कुस्तुनतुनिया और आर्मीनिया के व्यापारियों सबका संपर्क फारस तथा भारत के गणित और ज्योतिषशास्त्रियों के साथ होता था ।

परस्पर विचार-विनिमय होने से विद्वानों को बड़ा लाभ हुआ । मंगोल दरबार में जानेवाले इन व्यक्तियों में वेनिस निवासी मार्कोपोलो का नाम प्रसिद्ध है । उसने कुबलई खाँ के दरबार से लौटकर अपना यात्रा-वृतांत लिखा ।

उसकी यात्रा-विवरण के प्रकाशन से यूरोप के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा । उसी के यात्रा-विवरण को पढ़कर क्रिस्टोफर कोलोम्बस को समुद्र-यात्रा द्वारा चीन पहुँचने की प्रेरणा मिली । 15वीं शताब्दी के यूरोपीय साहित्य में चीनी शहरों का नाम भरा पड़ा है । 15वीं शताब्दी के मध्य में एक ऐसी घटना घटी, जिससे यूरोप के बौद्धिक पुनर्जागरण को बड़ा बल मिला ।

1453 ई. में उस्मानी तुर्कों ने बाइजेंटाइन साम्राज्य की राजधानी कुस्तुनतुनिया पर कब्जा कर लिया और पूर्वी रोमन साम्राज्य का सूर्य सदा के लिए अस्त हो गया । अब तक इस राजधानी ने यूनानी ज्ञान-विज्ञान की रक्षा की थी । अब यहाँ से विद्वान भागकर यूरोप के देशों में गए और वहाँ विभिन्न शहरों में शरण ली ।

उनके आने से यूरोप में एक उथल-पुथल मच गई और लोगों का ध्यान प्राचीन साहित्य और ज्ञान की ओर आकृष्ट हुआ । कुछ लोग 1453 ई. की इस घटना को इतना महत्वपूर्ण समझते हैं कि पुनर्जागरण का प्रारंभ इसी समय से मानते हैं । इस घटना का एक परिणाम और निकला ।

अभी तक कुस्तुनतुनिया होकर यूरोप के नगरों विशेषकर जेनोआ का व्यापार खूब होता था । तुर्कों के इस पर अधिकार कर लेने से इस व्यापार को बड़ा धक्का लगा, अत: वे जमीन का रास्ता छोड़ कर दूसरे रास्ते से पूर्व पहुँचने की चेष्टा करने लगे । नए देशों का पता लगाने का भी प्रयत्न किया गया । इससे कई भौगोलिक आविष्कार हुए ।


3. पुनर्जागरण का स्वरूप (Nature of Renaissance):

पुनर्जागरण के लौकिक दृष्टिकोण का संभवत: सबसे महत्वपूर्ण आधार था मानवतावाद । मानवतावाद शब्द से ही स्पष्ट होता है कि इसमें ईश्वर को नहीं, बल्कि मनुष्य को सामान्य दिलचस्पी का मुख्य केंद्रबिंदु माना जाता है ।

मानवतावाद से प्रभावित युग में कला, विज्ञान और हर तरह की बौद्धिक एवं व्यावहारिक गतिविधियाँ मनुष्य की जाँच-परख की ओर उन्मुख हुईं । ईश्वर से संबंध रखनेवाले धर्मशास्त्र के स्थान पर ऐसे दर्शन का विकास हुआ जिसकी दिलचस्पी मानव के स्वभाव और उसकी परिस्थिति में थी । पुनर्जागरणकाल में ईश्वर नहीं, बल्कि मनुष्य दुनिया के स्वामी के रूप में प्रतिष्ठित हुआ ।

मध्यकालीन ईसाई धर्मशास्त्री मानव-शरीर को अध्यात्म का दुश्मन मानते थे और मानव-बुद्धि को इतना कमजोर मानते थे कि ईसाई प्रेरणा के बिना मानव नैसर्गिक सत्य का दर्शन नहीं कर सकता, लेकिन पुनर्जागरणकालीन लोगों ने अपने यूनानी और रोमन पूर्वजों की तरह मानव-रूप का एक सुंदरतम वस्तु के रूप में गुणगान किया और यह बताया कि मानव-बुद्धि जानने लायक हर शक्ति की खोज करने में सक्षम है ।

मानवतावाद ने न सिर्फ सामान्य मानव का, बल्कि एक व्यक्ति का भी गुणगान किया । अत: व्यक्तिवाद पुनर्जागरण की सांसारिक भावना का दूसरा महत्वपूर्ण स्वरूप है । इस दृष्टिकोण से मध्यकालीन और पुनर्जागरणकालीन भावना में सिर्फ मात्रा का अंतर है ।

ईसाई धर्म ने व्यक्ति की गरिमा और व्यक्तित्व को जितना ऊपर उठाया उतना शायद ही किसी और शक्ति ने उठाया था । ईसाई धर्म यह सिखाता है कि एक छोटी चिड़िया के जीवन की चिंता भी ईश्वर करता है । फिर ईश्वर मनुष्य की कितनी चिंता करता होगा जो उसी का प्रतिबिंब है ।

मध्यकालीन पादरी घमंड को सबसे बड़ा पाप मानते थे, अत: उन्होंने अहंभाव को दबाए रखने का उपदेश दिया । मध्यकालीन कलाकार व साहित्यकार अपनी कृतियों पर अपने नाम का उल्लेख नहीं करते थे और अपनी उपलब्धियों को ईश्वर की देन मानते थे ।

व्यवहार में मध्यकालीन ईसाई धर्म तत्कालीन अर्थव्यवस्था की तरह सामूहिक था, लेकिन पुनर्जागरणकालीन व्यक्तिवाद में प्राचीन यूनान और रोम की तरह विविधता पाई जाती है ।

इस समय कोई यह कल्पना नहीं कर सकता था कि माइकेलएंजेलो और बोकैसियो अपनी कृतियों पर अपने हस्ताक्षर न करें । इस व्यक्तिवाद ने मानव के स्वाभिमान एवं अहंभाव को मजबूत किया ।

इतिहास में तो बेनवेनुतो सेलिनी जैसा शायद ही कोई अहंकारी व्यक्ति पाया जाएगा, जो झूठा, चोर, खूनी और बलात्कारी होने के बावजूद पुनर्जागरणकाल का सबसे प्रतिभाशाली कलाकार था ।

सेलिनी जैसे व्यक्ति को न केवल बर्दाश्त किया गया, बल्कि सम्मानित भी किया गया, यह पुनर्जागरणकाल के तीसरे स्वरूप को दर्शाता है । यह स्वरूप है बहुमुखी प्रतिभा का विकास ।

पाँचवीं शताब्दी इस्वी पूर्व में पेरिक्लीज जैसे बहुमुखी प्रतिभावाले व्यक्ति का उदाहरण दिया जा सकता है, लेकिन मध्यकालीन युग का शिक्षित व्यक्ति मात्र एक विशेषज्ञ होता था ।

पुनर्जागरणकालीन शिक्षकों ने परंपरागत विषयों के साथ-साथ नृत्य, संगीत, कविता और स्थानीय भाषा जैसे विषयों को भी पढ़ाया । अब विश्वविद्यालयों में कला और साहित्य को अधिक लौकिक और व्यापक बनाया गया और लौकिक साहित्य एवं संस्कृति को पाठ्यक्रम में स्थान दिया गया ।

16वीं शताब्दी के यूरोप की सबसे लोकप्रिय पुस्तक कैस्टिग लियोन द्वारा रचित ‘बुक ऑफ द कोर्टियर्स’ है जिसमें एक आदर्श दरबारी मात्र एक भद्रपुरुष ही नहीं बल्कि एक विद्वान, एक सैनिक और एक कसरती भी था । संभवत: बहुमुखी प्रतिभा का सबसे सटीक उदाहरण लियोनार्डो द विंची था ।

पुनर्जागरणकाल का यह प्रसिद्ध व्यक्ति महान चित्रकार होने के साथ-साथ एक मूर्तिकार एवं स्थापत्यकार, गणितज्ञ, दार्शनिक, वनस्पति विज्ञान का ज्ञाता, मानवशरीर का विशेषज्ञ, भूगर्भशास्त्री, अभियंता तथा आविष्कारक भी था । सांसारिक पुनर्जागरणकालीन सभ्यता शहरी थी । यह मध्यकालीन देहाती सभ्यता से भिन्न प्राचीन यूनानी और रोमन सभ्यता से मिलती-जुलती थी ।

पुनर्जागरणकाल में इटालवी शहरों के धनी सौदागरों एवं बैंकरों ने साहित्यकारों और कलाकारों को प्रश्रय एवं समर्थन प्रदान किया । इस बात को हम दूसरे शब्द में भी कह सकते हैं कि इसका स्वरूप मध्यमवर्गीय था । यह जनसाधारण का आंदोलन नहीं था, बल्कि मध्यमवर्गीय धनी लोगों के संरक्षण में चलनेवाला आंदोलन था ।

धनी मध्यमवर्ग ने समाज में अपने प्रभुत्व की स्थापना के लिए चर्च, पोप और सामंतों की तरह साहित्य और कला को संरक्षण प्रदान किया । इसके अतिरिक्त पुनर्जागरण का स्वरूप तर्क प्रधान, ईसाई विरोधी तथा सामंत विरोधी भी था ।

यूरोप के अन्य देशों में पुनर्जागरण आंदोलन का स्वरूप थोड़ा भिन्न था । इटली की तुलना में यूरोप के उत्तरी देशों में चित्रकारी, मूर्तिकला और स्थापत्य ने कम महत्वपूर्ण भूमिका निभायी ।

इसके विपरीत उत्तरी यूरोपीय देशों में मानवतावादी दर्शन और साहित्य ने अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । यद्यपि उत्तरी देशों का मानवतावाद इटली से ही ग्रहण किया गया था, परंतु उसका स्वरूप भिन्न था ।

जहाँ इटालवी मानवतावाद ईसाई आदर्शों के विरुद्ध लौकिकता के खुले विद्रोह का प्रतीक था, वहाँ उतरी मानवतावाद ने ईसाई धर्म को मानवीय बनाने का प्रयास किया और इस प्रकार उसे अधिक पवित्र एवं लौकिक बनाया ।


4. पुनर्जागरण और साहित्य (Renaissance and Literature):

पुनर्जागरणकालीन लौकिक भावना की सबसे अच्छी अभिव्यक्ति साहित्य में होती है । इटली में साहित्य के क्षेत्र में फ्लॉरिंस निवासी दाँते, पेट्राक और बोकैसियो का नाम अग्रणी है । दाँते (1265-1321) को पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा जाता है और पुनर्जागरणकाल का प्रथम व्यक्ति कहा गया है ।

दाँते की विश्वविख्यात रचना का नाम ‘डिवाइन कॉमेडी’ है । इस काव्य में ईसाई कहानियों एवं धर्मशास्त्रों की काफी चर्चा है । फिर भी इसमें सांसारिक भावना का काफी समावेश है ।

जैसाकि इस काव्य में, वर्णन है, वह एक दिन नरक में उस स्थान पर पहुँचा जहाँ स्वयं शैतान रहता था, परंतु नरक पहुँचने के रास्ते में उसकी पोप, सम्राट, सरदार, धनी, व्यापारी और राजनीतिज्ञ सबसे भेंट हुई ।

शैतान के आसपास पापी, विश्वासघाती और झूठे लोग मौजूद थे जो धोखेबाजी या झूठ से ख्याति प्राप्त कर इटली के नेता और शासक बन बैठे थे । उन्हें उसने नरक में दुख भोगते देखा । यद्यपि उसके नरक की कल्पना में मध्यकालीन भावनाएँ पाई जाती हैं, परंतु उसके पात्र सांसारिक हैं ।

उसने तत्कालीन सामाजिक-व्यवस्था की आलोचना कर विचार-स्वातंत्र्य का उदाहरण प्रस्तुत किया । दाँते साहित्यकार के साथ-साथ सक्रिय राजनीतिज्ञ भी था और अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण उसे फ्लॉरिंस से निकाला भी गया था ।

अपनी राजनीतिक पुस्तक ‘डि मोनार्किया’ में वह पवित्र रोमन साम्राज्य के नेतृत्व में इटली के एकीकरण के लिए तर्क देता है । बियट्रीस की प्रशंसा में उसके द्वारा लिखे गए प्रेमगीत दुनिया की किसी भी भाषा के सुंदर गीतों में एक हैं ।

फ्लॉरिंस की लोकभाषा में लिखे गए इन गीतों ने फ्लारेंटाइन लोकभाषा को अंतत: इटली की राष्ट्रभाषा का स्थान प्रदान किया । पेट्राक ने भी टस्कन स्थानीय भाषा में दाँते की तरह प्रेमगीत लिखा ।

लौरो नामक एक भद्र महिला की सुंदरता का वर्णन उसने अति सुंदर संबोधगीत एवं चतुर्दशपदी में किया है । वह मध्यकालीन परंपरा से हटकर लौरा की बाँह, चेहरे, पाँव और वक्षस्थल का आकर्षक वर्णन करता है । चतुर्दशपदी गीत पेट्राक की अपनी खोज थी ।

उसने कई प्राचीन परंपराओं तथा विश्वासों पर आलोचना एवं तुलना के नए अस्त्रों द्वारा आघात किया । जो काम दाँते और पेट्राक ने इटालियन कविता के लिए किया वही काम बोकैसियों ने इटालियन गद्य के लिए किया ।

‘डेकामेरों’ नामक कहानियों के संग्रह में बोकैसियों ने चतुराई से गंदे रोमांस का वर्णन किया है जिसमें मानव-स्वभाव के वीभत्स रूप का वर्णन मिलता है । यहाँ हम मध्यकालीन आदर्श के विरुद्ध विद्रोह पाते हैं ।

14वीं शताब्दी के अंतिम दिनों में मानवतावादी दर्शन के उदय के कारण मौलिक साहित्य का सृजन अवरुद्ध होने लगा । शास्त्रीय साहित्यिक पांडुलिपियों की खोज और नकल ने क्रियात्मक साहित्य के सृजन का गला घोट दिया ।

इटालियन मानवतावादी प्राचीन यूनानी एवं लैटिन साहित्य की पांडुलिपियों की खोज के पीछे पागल थे । स्वयं पेट्राक जैसे मौलिक कवियों ने अपने ही द्वारा लिखे गए कविताओं को रद्दी कहा और शास्त्रीय साहित्य की खोज में लग गये ।

निश्चित रूप से उसे कई बहुमूल्य शास्त्रीय कृतियों की खोज निकालने में सहायता मिली । पेट्राक ने ही बोकैसियों में भी प्राचीन यूनानी और लैटिन पांडुलिपियों में दिलचस्पी जगायी । अब पोप, राजा, सौदागर, बैंकर सबने प्राचीन पांडुलिपियों की खोज करनेवालों को आर्थिक सहायता देना शुरू किया, क्योंकि यूनानी और लैटिन साहित्य ईश्वरीय नहीं, बल्कि मानवीय तत्वों का वर्णन करते थे ।

15वीं शताब्दी में पेशेवर मानवतावादी प्राचीन पांडुलिपियों की खोज, नकल करके अनुवाद करने और संपादन करने में व्यस्त थे । इन्होंने विषयवस्तु और भावना दोनों ही क्षेत्रों में मौलिक, स्वत:स्कूर्त रचनात्मक साहित्य की अवहेलना की ।

इस बीच शास्त्रीय साहित्य की विषयवस्तु की खोज के कारण लौकिक दर्शन का विकास अवश्य हो रहा था । इस मानवतावादी स्वरूप के कई रूप थे जैसे नैतिकता से परे राज्य की विचारधारा का उदय, आलोचनात्मक एवं वैज्ञानिक प्रवृत्तियों का विकास और ईसाई नैतिक प्रतिबंधों के विरुद्ध विद्रोह की भावना का उदय ।

मैकियावेली की प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्रिंस’ से उस युग के राजाओं और राजनीतिज्ञों की मानसिक दशा की झलक मिलती है । उसने बताया कि राजनीति में नैतिकता का कोई स्थान नहीं । अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए ऐसे धर्म का समर्थन करना चाहिए जिसे वह झूठ समझता हो ।

राजा को जानना चाहिए कि एक ही साथ शेर और लोमड़ी का अभिनय कैसे किया जा सकता है । उसे न तो अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए और न वह कर ही सकता है, क्योंकि वैसा करने से उसकी हानि होती है ।

उसने राजाओं को यह सबक दिया कि सत्ता हथियाने और सत्ता में बने रहने के उपाय क्या हैं । उसने उन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जिन्हें 15वीं और 16वीं शताब्दी के यूरोप के राष्ट्रीय राज्यों के राजा एवं राजनीतिज्ञ विस्तृत रूप से व्यवहार में लाये ।

मैकियावेली की रचना की प्रशंसा करते हुए फ्रांसिस बेकन ने कहा कि हम लोग मैकियावेली के ऋणी हैं जिसने यह लिखा कि मनुष्य क्या करते हैं, न यह कि उन्हें क्या करना चाहिए ।

मानवतावादी और लौकिक विचारधारा का दूसरा रूप है विश्लेषणात्मक और वैज्ञानिक प्रगति का विकास । लौरेंजो भल्ला ने भाषा विज्ञान के द्वारा यह सिद्ध किया कि ‘डोनेसन ऑफ कान्सटेंटाइन’ एक जालसाजी है । इस खोज ने भल्ला को आधुनिक रचनात्मक ऐतिहासिक लेखन का जन्मदाता बना दिया ।

फ्रांसिस बेकन ने बताया कि विश्वास मजबूत करने के तीन साधन हैं- अनुभव, तर्क और प्रमाण । तीनों में सबसे अधिक शक्तिशाली प्रमाण है । इन क्रांतिकारी विचारों का प्रस्फुटन 17वीं शताब्दी के वैज्ञानिक खोजी में हुआ ।

देकार्त ने प्रत्येक विषय पर संदेह प्रकट करने की आवश्यकता पर जोर दिया । मानवतावाद की तीसरी अभिव्यक्ति है ईसाई नैतिक मान्यताओं के विरुद्ध विद्रोह । इसका स्पष्टीकरण सेलिनी के व्यक्तित्व और जीवन से होता है ।

यह प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति अपनी आत्मकथा में अपने झूठेपन, अपने अपवित्र संबंधों, बलात्कारों एवं हत्याओं की चर्चा करता है । यहीं मानवतावाद की जड़ पाई जाती है । सेलिनी जैसे व्यक्ति को भी समाज में सम्मान मिला, यह तथ्य यह संकेत देता है कि इटालियन समाज मध्यकालीन ईसाई आदर्शों से कितना दूर हट चुका था ।

यद्यपि साहित्यिक पुनर्जागरण का प्रारंभ इटली में हुआ, तथापि इसकी अधिक उन्नति इंगलैण्ड और फ्रांस में हुई । लेखकों ने अपनी रचनाओं को केवल लैटिन तथा ग्रीक भाषा तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि बोलचाल की भाषाओं में भी रचनाएँ होने लगीं ।

ये भाषाएँ वर्नाक्यूलर कहलाती थीं । इस युग की नवीन भावना तथा कागज के प्रयोग और छपाई के आविष्कार के कारण लोकभाषाओं को बड़ा प्रोत्साहन मिला । धर्मसुधारकों ने लोकभाषा को अपने प्रचार का माध्यम बनाया ।

बाइबिल का अनुवाद अंग्रेजी, फ्रेंच, इटालवी, स्पेनिश और जर्मन भाषाओं में हुआ । प्रत्येक देश ने अपने-अपने राष्ट्रीय साहित्य का निर्माण करना शुरू किया । विशेषकर फ्रांस और इंगलैण्ड में पुनर्जागरण का प्रभाव प्रधानत: राष्ट्रीय साहित्य के विकास में पाया जाता है ।

16वीं शताब्दी के प्रारंभिक साहित्यकारों और मानवतावादी दार्शनिकों में सर टॉमस मूर का नाम सबसे पहले आता है । उसने प्लेटों की रिपब्लिक की तरह ‘युटोपिया’ की रचना की ।

अपने समय की बुराइयों से बचने के लिए उसने ‘युटोपिया’ में एक आदर्शवादी समाज की कल्पना की जिसमें व्यक्तिगत संपत्ति और मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति नहीं थी, सबके स्वास्थ्य और शिक्षा का ध्यान रखा जाता था, अर्थव्यवस्था नियोजित और सहकारी थी, आत्मरक्षा के सिवाय युद्ध करना वर्जित था और सबको धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी ।

इस क्षेत्र में इरॉसमस के लेखन को प्रतिनिधि लेखन माना जा सकता है । ‘मानवतावादियों का राजकुमार’ कहा जानेवाला इरॉसमस उस युग का सर्वोत्तम आलोचक माना जाता है ।

वह प्राचीन रोम और युनान से प्रभावित तो था, परंतु इससे ज्यादा वह एक सीधा आस्थावान ईसाई था । व्यंगात्मक शैली में लिखी उसकी पुस्तक ‘प्रेज ऑफ फॉली’ शायद दुनिया की अधिकतम बिकनेवाली पुस्तकों में एक थी ।

उसने ईसाई धर्म को अधिक मानवीय और बौद्धिक बनाने का प्रयास किया । उसने चर्च में आंतरिक सुधार का भी प्रयत्न किया । वह पहला विचारक था जिसने ईसा मसीह को एक ऐतिहासिक व्यक्ति बताया ।

राष्ट्रीय साहित्य में हम लौकिक विषय वस्तुओं, मध्यमवर्ग के उदय और राष्ट्रीय हितों की चर्चा पाते हैं । अंग्रेजी पुनर्जागरण साहित्य की शुरूआत चौसर से होती है । चौसर ने जब कैंटरबरी टेल्स को साहित्य का आवरण पहनाया तो अंग्रेजी भाषा पनपने लगी ।

उसने पहली बार ‘सैक्सन बोली’ का कलात्मक प्रयोग किया जिससे विकसित होकर अंग्रेजी राष्ट्रीय भाषा का उदय हुआ । उसकी रचनाओं में सांसारिक चीजों, मनुष्य की कमजोरियों और उसके स्वभाव का वर्णन है ।

चौसर के बाद लगभग एक शताब्दी तक अंग्रेजी साहित्य लगभग बीरान रहा । एलिजाबेथ का शासनकाल (1558-1603) इंगलैण्ड में एक महान शक्ति और आशावादिता का युग था ।

उसी के शासनकाल में ब्रिटिश नाविकों ने नई दुनिया और सुदूर-पूर्व से संपर्क स्थापित किया और स्पेनिश जहाजी बेड़ा को परास्त किया । साहित्य के क्षेत्र में एलिजाबेथ का शासनकाल गानेवाली चिड़ियों का घोसला बन गया ।

एडमंड स्पेंसर का ‘फेयरी क्वीन’ और क्रिस्टोफर मार्ली का ‘तैमूरलंग द ग्रेट’, ‘एडवर्ड II’, ‘द ज्यु ऑफ माल्टा’ और ‘डा. फॉस्टस’ जैसी कृतियों में राष्ट्रवाद, व्यापार के विस्तार और भौतिकवाद की छवि दिखाई देती है । शेक्सपियर के साहित्य में अंग्रेजी भाषा का चरमोत्कर्ष परिलक्षित होता है ।

उसकी कविताएँ और नाटक न केवल भाषा और साहित्य के अलंकार हैं, बल्कि उस द्वन्द्व को भी प्रस्तुत करती हैं जो सामंती और मध्यमवर्गीय समाज के बीच पैदा हो गया था । अपने प्रसिद्ध नाटकों में शेक्सपियर ने नाटकीय कला और तकनीक में अपनी निपुणता का परिचय दिया ।

जहाँ उसके नाटकों में यूनानी दुखांत नाटकों की छवि दिखाई पड़ती है वहीं राष्ट्रवाद, पूँजीवाद और मध्यमवर्ग के उदय की झलक भी मिलती है । धार्मिक पूर्वाग्रहों से मुक्त उसके नाटक में शायद ही किसी मानवीय, आकांक्षा, मनोवैज्ञानिक संघर्ष, संवेदना और भावुकता का परिचय नहीं मिलता ।

फ्रांस में रिनेशाँ साहित्य का प्रसिद्ध नमूना हम रॉवलै और मान्तेय की रचनाओं में पाते हैं । रॉवलै की पुस्तके ‘पांताग्रुवेल’ और गॉरगैन्तुआ वैचारिक और साहित्यिक धरातल पर एक ताजी हवा की तरह सिद्ध हुईं, जिसमें सांस लेकर फ्रांस को नई स्फूर्ति मिली ।

इसलिए उसकी पहली पुस्तक को ‘नया संदेश’ कहा जाता है । एडिथ सेल के शब्दों में रॉवलै के साहित्य का मूलमंत्र है- प्यास, बौद्धिक और नैतिक प्यास, अनुभव की प्यास और यथार्थ की प्यास । मान्तेय के निबंध साहित्य ने एक नई विधा का सूत्रपात किया ।

उसके अनुसार जीवन सुखमय और दिलचस्प है, इसलिए मौज से जीना और सम्मानपूर्वक मरना चाहिए । उसका कहना था- ”मैं अपना चित्र बनाता हूँ, मेरी पुस्तक और मैं एक साथ चलते हैं और एक ही कदम रखते हैं ।”

उसने प्राचीनकाल के प्रामाणिकतावाद और अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाई और प्रथम आधुनिक पुरुष की उपाधि अर्जित की । उसमें सच्चे व्यक्तिवादी के सारे लक्षण वर्तमान थे ।

शेक्सपियरकालीन सर्वेण्टिस ने ‘डोन क्विकसॉट’ नामक प्रख्यात पुस्तक की रचना की । इस अत्यंत सुंदर और आश्चर्यजनक पुस्तक में पतनोन्मुख सामंतवाद और स्पेनी किसान समाज का बड़ा ही सुंदर और सजीव चित्र है ।

लोव डि भेगा ने अनेक पुस्तकों की रचना की, जिनमें पूँजीवाद और राष्ट्रवाद के उदय की झलक मिलती है । संक्षेप में पुनर्जागरणकालीन साहित्य में कुछ बातें सामान्य हैं ।

उनकी मुख्य विषय वस्तु तत्कालीन मनुष्य और उसके चारों तरफ उत्तेजक और तेजी से फैलती हुई भौतिकवादी दुनिया है । उनका मुख्य प्रेरणास्रोत लौकिक शास्त्रीय यूनानी और रोमन साहित्य था ।

वे मुख्यत: राष्ट्रवादी थे और राष्ट्रीय लोकभाषाओं में लिखे गए थे । यद्यपि उसी समय प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक धर्मसुधार आंदोलन हो रहा था, परंतु पुनर्जागरणकालीन साहित्य में धर्म और धर्मशास्त्रों की चर्चा नहीं थी ।


5. पुनर्जागरण और कला (Renaissance and Arts):

इटली का पुनर्जागरण प्रधानत: कला के क्षेत्र में हुआ । वहाँ चित्रकारी, शिल्प और स्थापत्य की बड़ी उन्नति हुई । कला के हर क्षेत्र में पुरानी परंपरा को त्यागकर एक नई और स्वतंत्र शैली का विकास हुआ । मध्यकालीन यूरोपीय चित्रकारी ईसाई धर्म और चर्च से जुड़ी हुई थी ।

उस काल के चित्रों में एक अजीब सी उदासी और एकरसता दिखाई पड़ती थी । पुनर्जागरण काल के चित्रकारों ने धार्मिक विषय-वस्तु को नहीं छोड़ा और मुख्यतः ईसा और मरियम से संबद्ध विषयवस्तु को ही चित्रित किया, लेकिन उन चित्रों का प्रस्तुतीकरण मानवीय और लौकिक था ।

दाँते के समकालीन जियोतो ने मानवरूप और प्राकृतिक पृष्ठभूमि को चित्रित किया । मोसैसियो ने प्राकृतिक पृष्ठभूमि और प्रकाश का प्रयोग करके चित्रों को अधिक जीवंत और यथार्थ बनाया ।

मनुष्य के नंगे रूप का चित्रण करके उसने मध्यकालीन परंपरा को तोड़ा । पुनर्जागरणकाल के चित्रकारों ने विषयों का चुनाव सीधे जीवन से किया । प्लास्टर और लकड़ी के पैनल के स्थान पर कैनवस का इस्तेमाल शुरू हुआ ।

चटख रंगों का प्रयोग हुआ । तैल चित्रों की परंपरा शुरू हुई । रिनेशां युग के चित्रकारों में लियोनार्डो द विंची, माइकेलएंजेलो, रॉफेल और टिसियन के नाम प्रसिद्ध हैं ।

लियोनार्डो द विंची की प्रतिभा बहुमुखी थी । चित्रकारी और प्रतिमाकार के अतिरिक्त वह वैज्ञानिक, गणितज्ञ, इंजीनियर, संगीतकार और दार्शनिक भी था । चित्रों के लिए वह मानव-शरीर एवं उसकी विभिन्न भंगिमाओं और मुद्राओं का विशद अध्ययन करता था ।

उसके चित्रों में ‘लास्ट सपर’ और ‘मोनालिसा’ अनुपम हैं । ‘लास्ट सपर’ में ईसा मसीह और उनके अनुयायी केवल व्यक्ति नहीं, बल्कि विभिन्न जीवन-मूल्यों के प्रतिनिधि लगते हैं ।

‘लास्ट सपर’ में चित्रित प्रसिद्ध भित्ति-चित्र कलाकार की तकनीक और कलाकारी के पांडित्य को दर्शाते हैं । मोनालिसा किसी सुंदरी का चित्र नहीं है, लेकिन उस साधारण-सी दिखाई पड़नेवाली महिला की रहस्यमय मुस्कान का अर्थ दर्शक आजतक अपने-अपने ढंग से लगाते रहे हैं ।

लियोनार्डो द विंची जिस संसार को चित्रित करता था, उसमें मानवीय भावनाएँ अपने सहज एवं नैसर्गिक रूप में अभिव्यक्त होकर एक सार्वभौम सौंदर्य की सृष्टि करती हैं । ‘वर्जिन आफ रॉक्स’ में लियोनार्डो ने वर्जिन मेरी और शिशु ईसा की सुंदरता एवं लावण्य का चित्रण किया है, लेकिन ये सारे चित्र मानवीय हैं ।

माइकेलएंजेलो अद्भुत मूर्तिकार एवं चित्रकार था । वह बहुत बड़ा व्यक्तिवादी था । चित्रों को बनाने में वह पुरानी परंपराओं को नहीं मानता था । सुंदरता का वह पुजारी था तथा अपने चित्रों में शक्ति का संचार करने की चेष्टा करता था । माइकेल-एंजेलो के बनाए कई सौ चित्र मिले हैं ।

अपने विचारों को प्रकट करने के लिए वह पुरुष का सबल, नग्न चित्र बनाया करता था । मनुष्य को वह ईश्वर की दैवी शक्ति और प्रभुता की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति समझता था । व्यक्तिगत जीवन में दुखी और सहानुभूतिहीनता का शिकार गाइकेल जीवन भर चित्रों में सुख और शांति ढूंढ़ता रहा ।

पोप के महल वैटिकन में स्थित सिंसटाइन चैपल की छत को उसने बाइबिल की कथाओं को सृष्टि से प्रलय तक अमर बना दिया । उसके सबसे महान चित्र ‘लास्ट जजमेंट’ की देखने से पता चलता है कि मनुष्य भय और आतंक से ग्रस्त है तथा ईश्वर के प्रेम और दया की कोई आशा नहीं है ।

कुछ आलोचक रॉफेल को पूरी मानव-सभ्यता का सबसे बड़ा चित्रकार मानते हैं । रॉफेल के चित्र सौष्ठव और समरूपता में सबसे आगे हैं । रोम में पोप के महल की सज्जा में रत रॉफेल द्वारा निर्मित मेडोना का दिव्य नारीत्व आज भी दर्शक का मन मोह लेता है ।

सिंसटाइन मेडोना अपनी सजीवता और सुंदरता के कारण संसार के अत्यंत प्रसिद्ध चित्रों में गिना जाता है । इटालियन पुनर्जागरण का एक और महान चित्रकार टिसियन था । उसके चित्रों में वेनिस की संपत्ति और शान-शौकत, बेशकीमती कपड़ों ओर मोतियों से भरे जहाजों का चित्रण किया गया ।

रंग के प्रस्तुतीकरण में तो टिसियन बेजोड़ है । उसके सम्राट चार्ल्स पंचम, फिलिप द्वितीय और फ्रांसिस प्रथम के चित्र अब भी जीवंत दिखाई पड़ते हैं और इतिहास की अमूल्य निधि हैं । उसके द्वारा प्रयुक्त सुनहले लाल रंग को आज भी टिसियन रंग कहा जाता है ।

इटली के बाहर महन् चित्रों का उदाहरण कम मिलता है । फिर भी बेल्जियमवासी हृयुबर्ट और जैन नामक दो भाइयों ने अपने प्रसिद्ध चित्र ‘एडोरेसन ऑफ लैम्ब’ में चित्र के माध्यम के रूप में तेल का प्रयोग किया । यहीं से तैल चित्रों का प्रारंभ होता है ।

जर्मन चित्रकार एलबर्ट डयुरर और हॉन्स हॉल्विन भी महान चित्रकार थे । डयुरर चित्रकारी से अधिक काष्ठ-शिल्प और नक्काशी में प्रवीण था । हॉल्विन ने रूप-चित्र बनाने में महारथ हासिल की । हेनरी सप्तम, हेनरी अष्टम, एडवर्ड षष्ठम्, मेरी ट्‌युडर और टॉमस मूर के चित्र आज भी उसकी याद दिलाते हैं ।

मूर्तिकला:

पुनर्जागरण काल में मूर्तिकला के क्षेत्र में भी खूब विकास हुआ । इस काल का मूर्तिकार जितना शौर्य को मूर्त करने में सक्षम था उतना ही करुणा को । इस प्रकार मूर्तिकला भी धर्म के बन्धन से मुक्त होकर बृहत्तर संदर्भों से जुड़ी ।

इस काल में गिबर्टी, दोनातेल्लो और माइकेलएंजेलो जैसे महान मूर्तिकार थे । इन्होंने केवल ईसा या मरियम की नहीं, बल्कि समकालीन प्रमुख व्यक्तियों की भी मूर्तियाँ बनाईं ।

मूर्तिकार के रूप में माइकेलएंजेलो का कोई जोड़ नही है । उसके द्वारा निर्मित मूसा की मूर्ति मात्र मूसा की मूर्ति नहीं रह गयी । ईसाइयों के लिए यह कला का उत्कृष्ट नमूना है और यहूदियों के लिए पैगम्बर मूसा की साक्षात मूर्ति ।

संत पीटर के गिरजाघर के गुम्बद की छाँव में आज भी खड़ी ईसा और मरियम की मूर्ति देखने में माँ भी लगती है ओर ईसा की माँ भी । फांसी से उतारे घायल ईसा आदमी भी लगते हैं और पैगम्बर भी ।

‘पाइटा’ नामक मूर्ति बिल्कुल अपने नाम के अनुकूल है, क्योंकि उसको देखकर स्वत: ही करुणा जाग उठती है । गिबर्टी नामक शिल्पकार ने फ्लॉरेंस के गिरजाघर के लिए मूर्तियों से सुसज्जित जो सुंदर दरवाजे तैयार किए, वह माइकेलएंजेलो के अनुसार स्वर्ग के द्वार पर रखने योग्य हैं ।

दोना-तेल्लो ने जब प्रकृति से प्रेरणा लेकर समकालीन व्यक्तियों-विशेषकर बच्चों- की सहज मूर्तियाँ बनायी थीं तो मूर्ति मनुष्य के निकट आने लगी थी । पुनर्जागरणकालीन मूर्तिकला की चर्चा सेलिनी के बिना अधूरी रह जाएगी ।

उसने मूर्तियों में सोने और चाँदी का ऐसा प्रयोग किया है, जिसका उदाहरण हमें और कहीं नहीं मिलता । उसकी सबसे प्रसिद्ध मूर्ति है गॉर्गन का सिर पकड़े हुए पर्सियस की मूर्ति । यह मूर्ति पारंपरिक मान्यताओं से दूर पुनर्जागरणकालीन आत्मविश्वास और लौकिक धर्म का विशिष्ट उदाहरण है ।

स्थापत्यकला:

मूर्तिकला की तरह पुनर्जागरणकालीन स्थापत्य कला भी प्राचीन यूनान और रोम से प्रेरित है । इस स्थापत्य को यूनान से स्तंभ और क्षैतिज रेखायें, रोम से गुबंद, मेहराब और विशालता प्राप्त हुई । ये विशेषताएँ गोथिक शैली के विपरीत हैं ।

पुनर्जागरण स्थापत्य का प्रतिनिधि फ्लॉरेंस का कैथेड्रल और संत पीटर का गिरजाघर है । अपने विशाल अष्टभुजाकर गुंबद, अलंकृत आयताकार अग्रभाग और घंटाघरों से सुसज्जित फ्लॉरेंस कैथेड्रल न केवल प्राचीन रोम, बल्कि बाइजेंटाइन और इस्लामी कला के प्रभाव को भी दर्शाता है ।

पुनर्जागरणकालीन स्थापत्य कला की सबसे भव्य उपलब्धि संत पीटर का गिरजाघर है । पुनर्जागरण काल में उसका वही स्थान है जो पिरामिड, पार्थेनन, क्लोसियम और गोथिक कैथेड्रल का अपने युगों में था ।

इसका भव्य और विशाल स्तंभ, महान चित्रकारी और मूर्तियाँ, सोने, संगमरमर और मोजैक की सजावटें भौतिक उपलब्धियों का सजीव उदाहरण प्रस्तुत करती हैं । पश्चिमी चर्च के पोपों द्वारा बनाया गया संत पीटर का गिरजाघर ऐंद्रिय सौदंर्य, लौकिक गौरव और मनुष्य के स्वाभिमान के प्रति समर्पित सचमुच में एक मंदिर है जो पुनर्जागरणकालीन सांसारिकता को दर्शाता है ।

रॉफेल और माइकेल एंजोलो ने अपना सारा जीवन इस गिरजाघर के निर्माण में लगा दिया । 15वीं और 16वीं शताब्दी के संपन्न परिवार मध्ययुग के किलेनुमा मकानों को छोड़कर महलों और सुंदर बँगलों में रहना चाहते थे ।

इस कारण मेडिसी जैसे समृद्ध परिवार ने नये ढंग का महल बनवाया । फ्रांस के लोआर प्रांत में बने ऐसे महल जिन्हें सातों कहते हैं, पुनर्जागरण स्थापत्य के पार्थीव पक्ष के मोहक नमूने हैं । विशेषकर आजेल रिदो और पेरिस के पास स्थित फोतेब्लो के महल उस समय के धनाढ़्यों के सौंदर्यबोध का परिचय कराते है ।

संगीत:

संगीत इटालियन कला का दूसरा क्षेत्र था जिसमें काफी मौलिकता दिखाई पड़ती है । संगीत का मुख्य विकास 16वीं शताब्दी में हुआ था । इस काल में वाद्य- संगीत लोकप्रिय हो गया एवं उसमें काफी सुधार आया । पियानो और वायलिन का प्रचलन बढ़ गया ।

संगीत के तकनीकों जैसे छोटे-बड़े धुनों विपरीत धुनों, और बहुस्वरता (पॉलीफोनी) का विकास हुआ । 16वीं शताब्दी का सबसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ पैलेस्ट्रीना था । उस समय के अधिकांश संगीत चर्च से जुड़े हुए थे, परंतु अब वे बहुमुखी और इंद्रिय-ग्राह्य हो गए ।

पुनर्जागरणकालीन संगीतकारों ने ही कॉन्सर्ट, सिंफोनी, सोनाता, ओरेटोरिया और ऑपेरा के रूप में आधुनिक शास्त्रीय संगीत की आधारशिला रखी । इस विकासक्रम की परिणति 18वीं शताब्दी के संगीतकारों बॉस, हैंडल, मोजार्ट और बिथोवन के संगीत में हुई ।


6. पुनर्जागरण और विज्ञान (Renaissance and Science):

लोगों में विकसित आशावादिता, आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का प्रभाव वैज्ञानिक अन्वेषण पर पड़ना ही था । यद्यपि विज्ञान का प्रस्फुटन 17वीं और 18वीं शताब्दी में हुआ, लेकिन इसका बीजारोपण पुनर्जागरण काल में ही हो चुका था ।

बहुमुखी प्रतिभासंपन्न लियोनार्डो द विंची के वैज्ञानिक विचारों और नए उत्साहों ने भूगर्भशास्त्र, मानव-शरीर शास्त्र, वनस्पति शास्त्र और यांत्रिकी जैसे विषयों पर लोगों को गंभीरतापूर्वक सोचने और टिप्पणी करने को बाध्य किया ।

लियोनार्डो की वैज्ञानिक भविष्यवाणियाँ आज भी हमें प्रभावित करती हैं । 1543 ई. में इतिहास की दो सर्वाधिक मौलिक और उत्तेजक वैज्ञानिक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, कोपरनिकस का ‘कनसर्निंग द रिवोल्युशन्स ऑफ हैवनली बॉडिज’ और भिसैलियस का ‘कनसर्निंग द स्ट्रकचर ऑफ ह्यूमन बॉडी’ ।

इन दोनों ने परंपरागत सिद्धांतों का खंडन किया । कोपरनिकस ने टोलेमी के भू-केंद्रित सिद्धांत का खंडन कर, सूर्य-केन्द्रित सिद्धांत का प्रतिपादन किया । अर्थात् उसने बताया कि पृथ्वी ब्रह्मांड के केंद्र में नहीं है बल्कि सूर्य सौर-मंडल के केंद्र में है और अन्य ग्रहों की तरह पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ घूमती है ।

भिसैलियस ने मानव-शरीर विशेषकर हृदय के गठन के बारे में गैलन के सिद्धांतों को चुनौती दी । बाद में दुनिया ने कोपरनिकस को आधुनिक खगोल विज्ञान का और भिसैलियस को आधुनिक मानव-शरीर शास्त्र का पिता स्वीकार किया ।

वैज्ञानिक जाँच-पड़ताल की भावना के विकास के कारण मध्यकालीन रूढ़िवाद का पतन अवश्यंभावी हो गया । पुनर्जागरणकालीन वैज्ञानिकों द्वारा की गई शुरुआत ने भौगोलिक एवं वैज्ञानिक खोजों का मार्ग प्रशस्त किया ।

वैज्ञानिक आविष्कारों की दिशा में छपाई मशीन का आविष्कार एक उल्लेखनीय कदम था । 15वीं शताब्दी के मध्य में जर्मनी में गुटेनबर्ग नामक व्यक्ति ने एक ऐसी टाइपमशीन का आविष्कार किया जिसने छपाई के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया ।

अब पुस्तकें सस्ती और सुलभ हो गईं, ज्ञान पर से विशिष्ट लोगों का एकाधिकार समाप्त हो गया । अब सामान्य लोग स्वयं जरूरत पड़ने पर यह पढ़ सकते थे कि सही तथ्य क्या है । पुस्तकों के प्रसार ने लोगों में आत्मविश्वास भरा और क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हुआ । अंधविश्वास और रूढ़ियाँ कमजोर पड़ने लगीं ।


7. इतिहास में पुनर्जागरण का महत्व (Importance of Renaissance in History):

पुनर्जागरण पुरानी पारम्परिक विचारधाराओं को झकझोर कर एक नए दृष्टिकोण, मूल्यवान नैतिकता तथा स्थापनाएँ स्थापित करने का लक्ष्य लेकर चला था । इस युग में अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादिता के विरुद्ध चारों ओर जोरदार आवाज उठाई गई और विश्वास का स्थान तर्क ने ले लिया ।

इस नव-चेतना का प्रभाव यूरोप पर बड़े ही गहरे रूप से पड़ा । इसने विचार-स्वातंत्र्य को पैदा किया । विचार-स्वातंत्र्य को पुनर्जागरण का आधारस्तम्भ माना जाता है । तर्क को विद्वान अपना सर्वस्व मानने लगे और जो चीज तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती थी, उसे वे मानने को तैयार नहीं थे ।

रिनाशां युग में ऐसे भी व्यक्ति हुए, जो अपने स्वतंत्र विचार और सिद्धान्त के लिए मर-मिटने को तैयार रहते थे । इस कारण लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हुआ । वैज्ञानिक पद्धति को प्रश्रय मिला तथा परम्परा के स्थान पर तर्क और प्रयोग सत्य तक पहुँचने के साधन स्वीकृत हुए ।

तर्क और प्रयोग के आधार पर अनेक वैज्ञानिक अविष्कारों के द्वारा प्राचीन तथा अन्ध-विश्वासी एवं रूढ़िवादी विचार खत्म होने लगे । नहीं समझ में आनेवाले रहस्य भी अब सरल हो गए । प्राकृतिक घटनाओं, शक्तियों तथा प्रक्रियाओं को ठीक-ठीक समझ लेने के कारण अनेक प्रकार की भ्रांतियां दूर हो गईं ।

अतएव लोगों में पारलौकिक मान्यताओं की कमी होती गई । भौगोलिक जगत का महत्व और इसकी महिमा लोग अधिकाधिक ढंग से समझने लगे । लोगों का ध्यान धर्म और मरणोपरान्त भविष्य के जीवन से हटने लगा और वे इस संसार के मनुष्य और उसकी आवश्यकताओं को जुटाने लग गए ।

जीवन तथा जगत का महत्व जनता को अधिक प्रतीत होने लगा । इसलिए कहा जाता है कि पुनर्जागरण की सबसे बड़ी देन ”मानव का आविष्कार” है । अब मनुष्य का भौतिक जीवन अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया । आत्मविश्वास तथा आशा के जीवन-स्वर सुनाई पड़ने लगे ।

प्रकृति पर विजय, वैज्ञानिक आविष्कार तथा भौगोलिक खोज मनुष्य के लक्ष्य बन गए । इस वातावरण में आधुनिक विज्ञान और कला की नींव पड़ी । शिक्षा और साहित्य पर पुनर्जागरण का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था । मानवतावादी दृष्टिकोण के कारण शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए ।

पहले शिक्षा की पद्धति पर चर्च का प्रभाव था । अब शिक्षा को इस वातावरण से मुक्ति मिली । लैटिन भाषा लोकप्रिय हुई । यूनानी और रोमन साहित्य की अमूल्य निधियों को नया जीवन मिला उन्हें जन-सुलभ बनाया गया ।

इससे आधुनिकता के विकास में सहायता मिली । मानवतावादी आंदोलन विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भी पहुँचा और युवा-पीढ़ी उससे प्रभावित हुई । सभी प्राचीन तथा नवीन विश्वविद्यालयों में यूनानी और लैटिन भाषाओं का अध्ययन-अध्यापन शुरू हुआ ।

पंडितपंथ की शिक्षण-विधि का स्थान अब मानवतावादी शिक्षण-विधि ने ले लिया । यह नवीन शिक्षा-विधि आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षण-प्रणाली के आगमन तक प्रचलित रही । लोकभाषाओं के विकास में पुनर्जागरण से बड़ी सहायता मिली ।

यूनानी तथा रोमन साहित्य के अध्ययन से यूरोपीय बुद्धिजीवियों का सम्पर्क समृद्ध भाषाओं से हुआ । इससे प्रेरणा ग्रहण कर नवीन साहित्य रचना का मार्ग प्रशस्त हुआ । इंगलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी और स्पेन की जनभाषा पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा । कुछ ही समय में ये भाषाएँ विश्व की समृद्ध भाषाएँ बनकर उभरीं ।

नई जागृति के कारण जो नया उत्साह उत्पन्न हुआ, उससे यूरोप के लोग नई भौगोलिक खोजों के लिए प्रेरित हुए । इस तरह भौगोलिक अन्वेषण पुनर्जागरण का कारण तथा परिणाम दोनों ही सिद्ध हुआ ।

पुर्तगाली नाविकों ने उत्तरी अफ्रिका, भारत के पश्चिमी तट तथा अमेरिका के कुछ भागों की खोज की । कोलम्बस ने अमेरिका महादेश की खोज की अंग्रेजों ने उत्तरी अमेरिका, अफ्रिका के तटों और भारत में सम्पर्क बढ़ाया । इस क्रम में अनेक महत्वपूर्ण जल-मार्गों की खोज हुई । इस प्रकार, भौगोलिक ज्ञान का क्षितिज विस्तृत हुआ ।

पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप पुरातत्त्व तथा नवीन ऐतिहासिक दृष्टिकोण का जन्म हुआ । लोगों का ध्यान रोम के प्राचीन स्मारकों की ओर गया और इनका विधिवत अध्ययन आरंभ हुआ । ऐतिहासिक-अध्ययन के क्षेत्र में एक नई आलोचना विधि का जन्म हुआ ।

बौद्धिक आन्दोलन के कारण लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया था । इस स्थिति में प्रत्येक घटना की जाँच उसकी प्रामाणिकता के आधार पर होने लगी । इस प्रकार, गवेषाणात्मक ऐतिहासिक विधि पर आधारित आलोचनात्मक इतिहास लेखन की एक नई प्रक्रिया का सूत्रपात हुआ ।

पुनर्जागरण के फलस्वरूप यूरोप के निवासियों में राष्ट्रीयता की भावना का संचार हुआ । लोगों के हृदय में अपने-अपने राष्ट्र के प्रति अद्भुत प्रेम पैदा होने लगा । अंग्रेज इंगलैण्ड के विकास के लिए तथा फ्रांसीसी फ्रांस के विकास के लिए विशेष प्रयत्नशील हुए ।

देशी भाषाओं की उन्नति के कारण इस प्रक्रिया में बड़ी सहायता मिली । अब जनसाधारण के लिए उनकी अपनी मातृभाषा में पुस्तकें छपने लगीं और इसने प्रान्तीयता की भावना समाप्त करने में बड़ा सहयोग दिया । मध्य-युग में पोप की सत्ता सर्वोच्च थी और उसका स्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय था; लेकिन अब उसके विरुद्ध आवाज उठी । इस नई भावना का परिचय हमें मैकियावेली की पुस्तक ‘द प्रिंस’ में मिलता है ।

मैकियावेली ने कहा था कि राष्ट्र ही समाज का पथ-प्रदर्शक है तथा राष्ट्र के हित में बुरा या भला कोई भी मार्ग अपनाना उचित है । इस वातावरण में तथा सामन्ती समाज के ध्वंस के फलस्वरूप स्थानीय अंतर्देशीय भक्ति स्वत: समाप्त होती जा रही थी और उसके स्थान पर सार्वभौम सत्ता-सम्पन्न राष्ट्र का उदय हो रहा था ।

बौद्धिक पुनर्जागरण का तात्कालिक प्रभाव मनुष्य के धार्मिक जीवन पर पड़ा । नवीन तार्किक तथा बौद्धिक दृष्टिकोण के उदय से कैथोलिक धर्म में पनपी स्वेच्छाचारिता तथा कुरीतियों के प्रति जनता का ध्यान आकृष्ट होना अनिवार्य था ।

देशी भाषाओं में बाइबिल के अनूदित होने के कारण अब उसकी पहुँच सर्वसाधारण तक हो गई । इस कारण सामान्य लोग भी धर्म के सच्चे स्वरूप को समझने में समर्थ हो गए । फिर ज्ञान-विज्ञान के कारण ईसाई धर्म के विश्वासों और प्रचलनों की परीक्षा तर्क की कसौटी पर होने लगी ।

धर्म के प्रति लोगों का अन्धविश्वास दूर होने लगा और इससे धर्मसुधार आन्दोलन को बहुत बल मिला । यदि बौद्धिक पुनर्जागरण नहीं होता तो सम्भवत: यूरोप में धर्मसुधार आन्दोलन भी सम्भव नहीं होता । अतएव यह कहा जा सकता है कि धर्मसुधार रिनाशां का ही प्रतिफल था ।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर हम यह अवश्य कह सकते हैं कि पुनर्जागरण मूलत: मध्यकाल के ईश्वर-केंद्रित सभ्यता से आधुनिक युग के मानव-केंद्रित सभ्यता की ओर एक परिवर्तन था । कुछ हद तक यह गैर-ईसाई यूनान और रोम की प्राचीन सभ्यता का पुनर्जन्म था, किंतु यह मात्र इतना ही नहीं था । पुनर्जागरण में कुछ ऐसी बातें भी थीं, जो बिल्कुल मौलिक और नूतन थीं ।

प्राचीन इतिहास के प्रतिभासम्पन्न संस्कृति के पूर्णोदय और मनुष्य के आत्मविश्वास, सर्वोसुखी प्रतिभा, स्वाभिमान, भौतिकवाद और व्यक्तिवाद से जुड़ी हुई लौकिक भावना ने एक ऐसे सुंदर कला और साहित्य को जन्म दिया, जिसका दूसरा उदाहरण अन्यत्र शायद ही मिले ।

इसके अतिरिक्त इसने भविष्य में होनेवाले विज्ञान के क्षेत्र में हुई क्रांति की आधारशिला भी रखी । पुनर्जागरण प्रत्यक्ष रूप से इटली में और अप्रत्यक्ष रूप से यूरोप के अन्य देशों में काफी हद तक ईसाईवाद के विरुद्ध एक विद्रोह था ।

यह पश्चिमी यूरोप में गतिशील शक्ति के रूप में पक्षाघात से पीड़ित ईसाईवाद को बर्बाद इसलिए नहीं कर सका, क्योंकि प्रोटेस्टेंट और रोमन-कैथोलिक धर्मसुधार आंदोलनों ने ईसाई धर्म को एक नया जीवन प्रदान किया था ।

संक्षेप में हम इतना कह सकते हैं कि पुनर्जागरण ने यूरोप के लोगों में एक नई ज्ञानपिपासा पैदा की, तर्क को प्रतिष्ठित किया, विचार-स्वातंत्र्य को आगे बढ़ाया और भौतिकवाद का मार्ग प्रशस्त किया ।

पुनर्जागरणकालीन विचारधारा ने भविष्य में धर्मसुधार आंदोलन, वैज्ञानिक क्रांति, बौद्धिक क्रांति, राष्ट्रीय राज्यों के उदय तथा पूँजीवाद और मध्यमवर्ग के उदय का भी मार्ग प्रशस्त किया ।


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