शीर्ष 3 क्रांति की सूची | List of Top 3 Revolutions in Hindi language!

रूस और चीन में सामाजिक क्रांति का व्यापक कारण पुराने शासन थे जिससे संबंधित राजनीतिक संकट में उत्पन्न हुआ । इन राज्यों में क्रांतिकारी संकट पैदा हुआ जब पुराना शासन अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के साथ आंतरिक समस्याओं से मिलने वाली चुनौतियों से निपट सकने में अक्षम था ।

जैसा स्कोक्पोल तर्क पेश करती हैं ‘घरेलू वर्ग संरचना और अनिवार्य आवश्यकता के विपरीत दबावों में फंसना । इससे निरकुंश शासन और संकेंद्रित प्रशासन और सेना हट जाती है सामाजिक क्रांतिकारी रूपांतरण के लिए रास्ता खुल जाता है और नीचे से क्रांति द्वारा जिसकी अगुवाई की जाती है ।’

ये तीन राज्य पूर्णत: साम्राज्यवादी थे जिनका मुख्य काम था आंतरिक शासन बनाए रखना और देश को बाहरी खतरों से सुरक्षा प्रदान करना । प्रशासकीय और सैनिक संगठन श्रेणीबद्ध थे और केंद्रीय रूप से समायोजित किए जाते थे । हालांकि ये राज्य पूर्णत: नौकरशाह और केंद्रीकृत नहीं थे जैसे आधुनिक राज्य हैं ।

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अत: ये समाज के भीतर शक्तिशाली नहीं थे । ऐसे फ्रांस, रूस और चीन के पुराने शासन के साम्राज्यवादी रध्य, प्रत्यक्ष नियंत्रण करने की स्थिति में नहीं थे अकेले ये मूलत: स्थानीय सामाजिक-आर्थिक संबंधों का पुनर्गठन करते थे ।

बर्बन फ्रांस रामानोव, रूस और माचू, चीन के साम्राज्यवादी शासन में कृषि अर्थव्यवस्था हावी थी । अत: कृषि हमेशा आर्थिक रूप से व्यवसाय और उद्योग से अधिक महत्त्वपूर्ण थी । परिणामस्वरूप सामाजिक संबंध किसानों, उच्च भूस्वामी और राज्य के बीच था । चलिए हम प्रत्येक क्रांति के बारे में विस्तार से विचार-विमर्श करते हैं ।

1. फ़्रांसीसी क्रांति (French Revolution):

फ़्रांसीसी क्रांति 1789 में घटित हुई और मुख्यत: अभिजात तंत्र और राजतंत्र के संघर्ष के कारण हुई बाद में यह हिंसक क्रांति में विकसित हुई, जो फ्रांस के प्रत्येक भाग में फैल गई ।

फ्रांसीसी क्रांति का सामान्य कारण मुख्यत: दो आधारभूत विषयवस्तु का संश्लेषण था:

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पहला फ्रांस में बुर्जुआ वर्ग का उदय और दूसरा अपारंपरिक सत्ता की ज्ञानोदयी आलोचना का उद्‌भव हालाँकि, फ्रांसीसी क्रांति का विस्तृत ऐतिहासिक विश्लेषण बहुत सारे अन्य कारक उत्पन्न करते हैं जैसे कि:

(i) अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ, फ्रांस, ऑगबर्ग (1688-97) और स्पेनिश राज्यरोहण (1701-14) के लीग युद्ध में एक गंभीर हार का नुकसान झेला । फ्रांस, यूरोप में अपनी महत्ता बनाए रखने में अक्षम था । ऑस्ट्रिया के राज्यारोहण (1740-48) और सात वर्षीय युद्ध (1756-63) ने पूर्णत: देश के संसाधनों पर अत्यधिक भार डाला और उत्तरी अमेरिका और भारत में इसके साम्राज्य के बड़े भाग की हानि हुई है । यहां तक कि लुईस 10वें के शासन के अंदर निरपेक्षतावादी व्यवस्था का निर्माण किया गया । जिससे आंतरिक कारकों जैसे आर्थिक पिछड़ेपन और वर्ग संरचना द्वारा चुनौती दी गई ।

(ii) आंतरिक परिस्थिति (Internal Situation):

क्रांति की संध्या में, फ्रांस की जनसंख्या का 85 प्रतिशत हिस्सा किसानों का था और कुल राष्ट्रीय उत्पादन का 60 प्रतिशत किसानों द्वारा उत्पादित किया जाता था । देश का विस्तृत आकार और आंतरिक संचार में दुरूहता ने परिस्थितियों को और बदतर बनाया । कृषि अर्थव्यवस्था की पारंपरिक संरचना संवृद्धि को लंबे समय तक नहीं थाम सकी । जनसंख्या वृद्धि, औसत आय, दाम में वृद्धि और राज्य के वित्तीय संसाधनों में अपर्याप्तता ने 1788-89 के कृषि सकट का मार्ग प्रशस्त किया ।

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दो वर्गों के बीच सामाजिक प्रतिद्वंद्विता बढ़ी- कुलीनतंत्र और बुर्जुआ वर्ग । उसी समय पर राजतंत्र और अभिजन की कर व्यवस्था पर संघर्ष ने देश में क्रांतिकारी सकट का मार्गदर्शन किया । 1787 में राजतंत्र की वित्तीय परिस्थिति ने प्रधान वर्ग को व्यवस्था के विरुद्ध व्यवहार करने के लिए दबाव डाला ।

जो इसके विशेषाधिकारी के लिए भयकर था, प्रधान वर्ग राजा को सलाह देने के लिए एक प्रतिनिधि संस्था चाहता था । राजा ने इनकार किया तो बड़े स्तर पर प्रतिरोध किया गया जो बाद में म्यूनिसिपल क्रांति में पराकाष्ठा पर पहुंचा । राष्ट्रीय स्तर की किसी राजनीतिक क्रांति की तरह पूरे फ्रांस के शहर और कस्बे में फैल गई ।

2. रूसी क्रांति (Russian Revolution):

यह 1917 की बोल्शोविक क्रांति के रूप में भी जानी जाती है । अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति इस क्रांति का कारण जानने के लिए महत्त्वपूर्ण है ।

i. अंतर्राष्ट्रीय कारक (International Factors):

जब रूस ने 1904 में जापान के साथ मंचूरियन और कोरिया के लिए स्पर्धा की, जनता शक्तिशाली रूसी सेना के बारे में आशावादी थी । हालांकि, जापान ने अपनी उच्च सैन्य तकनीक के साथ रूसी श्रेष्ठता को खत्म किया । इसके परिणामस्वरूप जनता ने जार में अपना विश्वास खो दिया और रूसी सेना का भय समाप्त हो गया था ।

बाद में, प्रथम विश्वयुद्ध ने आगे रूसी राजतंत्र की वैधता को समाप्त किया । इसके अतिरिक्त युद्ध क्षेत्र से आने वाली बड़ी दुर्घटनाओं और निराशाजनक परिणाम के समाचार ने जनता को जार के विरुद्ध भड़काया । युद्ध ने देश की आर्थिक परिस्थितियों को बदतर किया । भोजन वस्त्र जैसी आधारभूत वस्तुओं के दाम बढ़ रहे थे । बहुत सारे किसानों को नौकरी की खोज में फैक्टरी जाना पड़ा था ।

ii. आंतरिक परिस्थितियां (Internal Conditions):

रूस में आंतरिक परिस्थितियां ऐसी थीं कि सामान्य जनता पर भारी कर का दबाव डाला गया और अभिजन और किसान के बीच का अतर प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था । जनता भी जार के निरंकुश शासन से असंतुष्ट थी और उससे पीछा छुड़ाना चाहती थी । 22 जनवरी, 1905 को 2,00,000 से अधिक मजदूरों ने फादर गैपॉन के नेतृत्व में बेहतर कार्यानुकूल परिस्थिति, अधिक स्वतंत्रता और ह्‌यूम को बनाने की मांग उठाई जो उनके दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करें ।

इन मांगो को लेकर सेंट पीटर्सबर्ग में शांतिपूर्ण प्रदर्शन में हिस्सा लिया । उनकी मांगों को नकार दिया गया और निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर सैनिकों द्वारा गोली चलाई गई । इसने किसान विद्रोह और हड़ताल को आगे बढ़ाया । सभी ने दरमा के निर्माण की मांग की । इसके बाद 1906 से 1917 की अवधि में चार ड्यूमाओं का निर्माण किया गया लेकिन सभी शक्तिहीन थी और जनता का प्रतिनिधित्व बिल्कुल नहीं करती थी ।

इसमें जोड़ते हुए जार की पत्नी और रासपूतिन (अप्राकृतिक शक्तियों का स्वघोषित स्वामी) पर अंधविश्वास ने परिस्थितियों को और भी बदतर बनाया । रासपूतिन ने अपनी सत्ता का दुरुपयोग किया और देश के राजनीतिक-व्यापार में बहुत सारे मंत्रियों की जगह अपने सगे-संबंधियों, मित्रों की प्रतिस्थापना द्वारा हस्तक्षेप किया । प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान जब जार निकोलस द्वितीय सीधे युद्ध लड़ने के लिए युद्ध भूमि में गया, सैरिना अलैक्जेंड्रा ने घरेलू व्यापार संभाला था ।

रासपूतिन के प्रभाव में उसने बहुत सारे प्रशासनिक और आर्थिक परिवर्तन किए और देश को आगे और गहरे सकट में फसाया । सब मिलाकर राजतंत्र से असंतुष्ट जनता को व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह की ओर ले गई । अंतत: ड्‌यूमा ने अस्थायी आधारों पर एक ‘अल्पकालीन सरकार’ का गठन किया और अंतत: रोमानोव राजतंत्र के शासन का अंत हुआ ।

3. चीनी क्रांति (Chinese Revolution):

उन्नीसवीं शताब्दी से पहले चीन के पास एक संपन्न सभ्यता थी जो अतीत से दो हजार सालों तक विस्तारित है । चीन में साम्राज्यवादी घुसपैठ से पहले शांति और व्यवस्था, आर्थिक विस्तार और संस्कृति और सांस्कृतिक उत्पादन हावी था ।

स्कोक्पाल ने साम्राज्यवादी चीन की सामाजिक-राजनैतिक संरचना का ऐसे वर्णन किया है:

(i) एक कृषि अर्थव्यवस्था और गाव का बाजार स्थानीय केंद्रित बाजार तंत्र में शामिल हुआ ।

(ii) एक साम्राज्यवादी राज्य प्रशासन परिष्कृत परीक्षा व्यवस्था द्वारा प्रमाणित शिक्षित व्यक्तियों की भर्ती की ओर बढ़ा । चीन की जनता का विशाल बहुमत कृषि आधारित ग्रामीण थे । क्रांति पूर्व चीन में ग्रामीणों का जीवन दयनीय था । यह क्रांति का स्रोत हो गया और कम्युनिस्ट पार्टी की वास्तविक शक्ति हो गई ।

गरीबी दुर्व्यवहार, कम उम्र में निधन और यातायात में असुविधा ने ग्रामीणों के जीवन को अधिक असुविधाजनक बना डाला । दूसरी ओर, समृद्ध परिवार जो कस्बे के बाजार में निवास करते थे वे हस्तशिल्प उद्योग में लिप्त थे या राज्य में नौकरी कर रहे थे । चीनी जीवन का ऐसा सार्वभौमिक और विश्वजनीन यथार्थ ग्रामीण जनता द्वारा महसूस नहीं किया गया था ।

साम्राज्यवादी चीन में प्रधान भ्रष्ट वर्ग, ऑफिस और अतिरिक्त भूमि के स्वामित्व और द्रव्य संपदा पर आधारित था । साम्राज्यवादी राज्य और कृषि अर्थव्यवस्था के प्रतिशोध पर आधारित यह वर्ग देश में फैला । साम्राज्यवादी चीनी राज्य प्रकृति से केंद्रीय निरंकुश और अर्ध नौकरशाही था ।

अंतरिम और बाहरी व्यवस्था दोनों ही चीनी साम्राज्य और भ्रष्ट वर्ग के क्रांतिकारी विनाश के लिए जिम्मेदार थे:

a. अंतर्राष्ट्रीय कारक (International Factors):

(i) चीन बाहरी साम्राज्यवादी औद्योगिक राष्ट्रों के अत्यधिक दबाव में आ गया । 1834-42 के अफीम युद्ध में ब्रिटेन ने चीनी सेना को परास्त किया और विस्तृत व्यापारिक अधिकार पाए । इसके बाद सभी दूसरे पश्चिमी राष्ट्र घुसपैठ में शामिल हुए और समझौतों द्वारा रियायत पाई । यूरोपियन शक्तियों की प्रतिस्पर्धा ने ”प्रभाव के वृहत्तर क्षेत्र” को चीन से काट डाला । परिणामस्वरूप चीन की संप्रभुता हिल उठी ।

(ii) 1895 में जापान के साथ युद्ध में हार और 1899-1901 के ध्वंस ने चीनी जनता को आघात पहुंचाया । अंतर्राष्ट्रीय अपमान और औपनिवेशिक प्रभुत्व ने जनता को यह विश्वास करने पर बाध्य किया कि केवल व्यापक संरचनात्मक सुधार ही चीन को बचा सकते हैं ।

b. घरेलू कारक (Domestic Factors):

(i) जबकि चीन में क्रांति साम्राज्यवाद की प्रतिक्रिया और पश्चिमी विचारों के प्रभाव द्वारा हुई । तब भी अंतरिम दबाव और कोमितांग शासन के द्वारा सुधारों का अभाव 1949 की क्रांति के सबसे जीवंत कारक थे । कोमितांग शासन ग्रामीणों की परिस्थिति और इसके शहरी वर्गों की परिस्थिति को संभाल नहीं पाया ।

चीनी क्रांति के उद्‌भव में 1915-1949, लुसियन बिआंको ने तर्क दिया- ‘ग्रामीण समाज के असंतोष और दिवालिएपन ने क्षमतावान क्रांतिकारियों की असीमित आपूर्ति का निर्माण किया लेकिन यह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी थी जिसने इस आधी शक्ति को उद्देश्य और दिशा दी ।’

न तो ग्रामीणों की आधारभूत आवश्यकता को संतुष्ट करने के लिए कुछ किया गया न ही उन्हें सैनिक हिंसा की ज्यादतियों से बचाने के लिए कोई कदम उठाया गया । कृषि की अर्थव्यवस्था को सुधार और विस्तार देने के लिए कुछ नहीं किया गया, न ही भूमि कर और भूमि लगान द्वारा उत्पन्न दयनीयता को समाप्त किया गया। ऐसे ग्रामीण सामाजिक संकटों को संभाल लेने की असफलता ने चीनी क्रांति में सबसे अधिक योगदान दिया ।

(ii) चीन का सामाजिक द्वंद्व शहरी और ग्रामीण दोनों था । ग्रामीण इलाके में दो विपरीत पक्ष थे, किसान जनता और उच्च भूस्वामी वर्ग । अत्यंत दरिद्रता और शोषण जिसके द्वारा बड़ी संख्या में ग्रामीण पीडित थे, उनके साथ अन्य सबकी समस्याएं छोटी प्रतीत होती थी । क्रांति के समय के दौरान तक शहरी समस्या उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थी ।

1936-1946 में वास्तविक मजदूरी की समस्या को उठाया गया । काम के दिन छोटे किए गए, बाल मजदूरी को अल्पतम बनाया गया और पुरुष और महिला की मजदूरी के बीच अतर को न्यूनतम किया गया । अत: क्रांति की समयावधि में मजदूर वर्ग की समस्या कम गंभीर हो गई और चीन की जनसंख्या का केवल 1 प्रतिशत इससे प्रभावित हुआ ।

चीन के श्रमिक वर्ग के छोटे आकार ने किसान वर्ग को महान क्रांतिकारी शक्ति बनने में बाधा नहीं पहुंचाई । ऐसी अंतरिम और बाहरी परिस्थितियों ने फ्रांस में जेकोमिंस, रूस में बोल्शेविक और चीन में कम्युनिस्ट पार्टी किसानों के सहयोग के आधार पर और ग्रामीण सपाद के आधार पर अपने-अपने देशों को क्रांतिकारी रूप में रूपांतरित किया ।

निष्कर्ष:

2011 में विश्व पश्चिमी एशिया के महा ध्वंस का साक्षी रहा । मिस्र के लौह पुरुष होली मुबारक को, जिनके विरुद्ध वृहत्तर पैमाने पर हुए जन प्रदर्शन के बाद उन्हें अपना कार्यालय छोड़ना पड़ा । इंडोनेशिया के वेन अली को सऊदी अरब भागना पड़ा । इसके विपरीत अबदूल सलेह की प्रेसीडेंसी विनाश के कगार पर खड़ी हो रही थी ।

सीरिया में माने गए सुधारक बसर-अल-असद एक अधिक खुली और व्यापक समाज की अनुमति देने के अत्यधिक दबाव में आ रहे थे । लीबिया में गद्दाफी शासन प्रतिरोध का सामना कर रहा था । अत: लोकप्रिय किस्सा यह था कि ”अरब स्प्रिंग” अरब क्षेत्र तक आया और अंतत: जनतांत्रिक रूपातंरण इस शासन में हुआ ।

इससे पहले एक माओवादी क्रांति दक्षिण एशिया के छोटे राष्ट्र में हुई, अर्थात् नेपाल में जनता आशावादी थी कि इस जगह में निरंकुश राजतंत्र का अंत पर्याप्त रूप से देश के चरित्र को बदलेगा । आंग-सान-सू-की म्यांमार (बर्मा) की जनतंत्र की घोर समर्थक- जिसने सैन्य शासन की तानाशाही के खिलाफ पांच दशक तक शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया- नई चुनी गई संसद की संभावित सदस्य हो सकती हैं ।

इन सभी क्षेत्रों का भविष्य अनिश्चित है, हालांकि, एक चीज फ्रांसीसी या अमेरिकी क्रांति में हमेशा रही- जनता ने उत्पीड़न, निरंकुश शासन और शोषण इत्यादि के खिलाफ और एक बेहतर भविष्य के लिए हमेशा क्रांति की । इसलिए क्रांति का मुद्दा और जनता के प्रेरणा के साथ इसका संबंध एक निरंतर घटने वाली परिघटना है ।

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