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द्वितीय विश्वयुद्ध ने प्रथम विश्वयुद्ध की अपेक्षा अधिक संपूर्णता तथा प्रगतिशीलता के साथ मानव-जीवन को प्रभावित किया । धन-जन, घर-द्वार, उद्योग और संचार की अपार बरबादी यूरोप और एशिया में हुई । कम-से-कम तीन करोड़ लोग मारे गए, जिनमें आधे रूसी थे । 2 करोड़ 10 लाख लोग बेघरबार हो गए । उनमें से बहुतों को जर्मनी ले जाया गया जहाँ उनको मजदूरी करनी पड़ी या उन्हें यातना-शिविरों में रखा गया ।
विजयी सरकारों के सामने उन बेघरबार और राज्यविहीन लोगों के देश-प्रत्यावर्तन की समस्या खड़ी हुई । फिर भी, यह तर्क दिया जा सकता है कि इतनी बरबादी काफी हद तक जायज थी, क्योंकि इस युद्ध ने उस नाजीवाद से दुनिया को बचाया जिसने लगभग 60 लाख यहूदियों की हत्या की और लाखों गैर-यहूदियों को यातना-शिविरों में दम घुटने के लिए छोड़ दिया ।
जिस तरह प्रथम महायुद्ध के बाद पेरिस में सारी समस्याओं से संबंधित संधियाँ की गईं, वैसी व्यवस्था द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नहीं हुई । इसका मुख्य कारण यह था कि युद्ध के अंतिम महीनों में सोवियत संघ और पश्चिमी देशों के बीच उत्पन्न संदेह और अविश्वास ने एक व्यापक व्यवस्था को असंभव बना दिया ।
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अनेक अलग-अलग संधियों के परिणाम को संक्षेप में बताया जा सकता है:
(i) इटली को अपना सारा अफ्रीकी उपनिवेश खोना पड़ा और उसने अल्वानिया और अबीसीनिया पर से अपना दावा छोड़ दिया,
(ii) सोवियत संघ को चेकोस्लोवाकिया का पूर्वी छोर, पेटसामों जिला और फिनलैंड से लदोगा झील के चारों तरफ का इलाका मिला । उसने इस्तोनिया, लैटविया, लिथुआनिया और पूर्वी पौलैंड पर भी अपना अधिकार बनाये रखा, जो उसने 1939 ई॰ में जीता था । सोवियत संघ ने रोमानिया से बेसारैबिया और उत्तरी बुकीभिना भी प्राप्त किया । रोमानिया को हंगरी द्वारा जीता हुआ उत्तरी ट्रांससिल्वेनिया का प्रदेश फिर से प्राप्त हुआ । ट्रिस्ट को संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा में एक स्वतंत्र क्षेत्र घोषित किया गया जिसपर इटली और युगोस्लाविया दोनों दावा कर रहे थे । 1951 ई॰ के सानफ्रांसिस्को सम्मेलन में जापान ने पिछले 90 साल से जीते हुए सारे क्षेत्रों के समर्पण की घोषणा की । सोवियत संघ ने जर्मनी और आस्ट्रिया के बीच किसी समझौते को मानने से इनकार कर दिया । वह इस बात पर जोर दे रहा था कि जर्मनी और आस्ट्रिया पर मित्रराष्ट्रों के सैनिकों का कब्जा रहना चाहिए और पूर्वी प्रशा को सोवियत संघ और पोलैंड के बीच बाँट देना चाहिए ।
द्वितीय विश्वयुद्ध ने तीव्र वैज्ञानिक प्रगति को प्रोत्साहित किया । समुद्र और धरती दोनों पर दम बरसाने के लिए या युद्ध लड़ रहे सैनिकों को समर्थन देने के लिए आदमी और सामान को ठिकाने पहुँचाने के लिए वायुयान द्वितीय विश्वयुद्ध में निर्णायक थे । युद्ध के समय की आपातकालीन माँगों को पूरा करने के ख्याल से जिन विशाल बमवर्षकों का निर्माण किया गया, उन्होंने युद्ध के बाद विकसित होनेवाली समुद्रपार की यात्री-उड़ान सेवाओं का मार्ग खोल दिया ।
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जेट इंजिन का निर्माण युद्ध के दौरान ही हुआ और युद्ध का अंत होने तक इसे लगभग बिल्कुल विकसित कर लिया गया । युद्ध के अंतिम वर्ष में जर्मनों द्वारा प्रयुत्त रॉकेट अब सभी आधुनिक सेनाओं के महत्वपूर्ण अंग बन गए । मानव के नेत्रों की पहुँच से परे वस्तुओं का ठीक-ठीक स्थान निर्धारित करने तथा पता लगाने से संबंध खोज द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व हो चुकी थी । किंतु, द्वितीय विश्वयुद्ध के दरम्यिान ही राडार का पूर्ण विकास किया जा चुका था ।
कृत्रिम वस्तुओं के निर्माण-संबंधी खोज प्रथम विश्वयुद्ध की अपेक्षा द्वितीय विश्वयुद्ध में अधिक कारगर हुई । पूर्व और दक्षिण-पूर्व एशिया में युद्ध फैल जाने के कारण कच्चे माल की भारी कमी हो गयी । उदाहरणार्थ, दक्षिण-पूर्व एशिया के जापानी अधिकार में चले जाने के फलस्वरूप इंग्लैण्ड तथा अमेरिका का संबंध प्राकृतिक रबर के एक बड़े आपूर्ति स्रोत से टूट गया ।
फलत: उनका स्थान लेने के लिए काफी समय तक टिकनेवाले कृत्रिम रबर का विकास किया गया । उष्ण तथा नम जलवायु के तथा खतरनाक और संक्रामक बीमारियोंवाले क्षेत्रों में युद्ध फैल जाने के फलस्वरूप स्वास्थ्य तथा सफाई की समस्याओं पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता महसूस की गयी ।
युद्धजन्य आवश्यकताओं ने संक्रामक बीमारियों से प्रतिरक्षण के नये तरीकों के खोज की प्रेरणा दी तथा ऐसे कई तरीके खोज निकाले गए पेनीसीलिन का पता 1928 ई॰ में लग चुका था, किन्तु द्वितीय विश्वयुद्धकाल में ही रोग-संक्रमण के विरुद्ध इसके प्रभावी होने की क्षमता लक्षित हुई तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ । रक्त से प्लाज्मा निकाल सकने की विधि की खोज ने घाव से होनेवाली मृत्यु की संख्या में भारी कमी करने में सहायता पहुँचायी ।
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मानव-चिन्तन और परिवेश पर द्वितीय विश्वयुद्ध का सबसे बड़ा प्रभाव हिरोशिमा और नागासाकी पर आणविक बमों के गिराये जाने का पड़ा । यह आणविक युग की शुरूआत थी । अणुबम इस बात का प्रमाण था कि आधुनिक भौतिकी ने शक्ति के ऐसे नये अस्त्रों का द्वार खोल दिया है, जिसमें बरबाद करने की संभावित शक्ति असीमित है । आणविक विस्फोट से महादृश्य उपस्थित हुआ । उसे देखनेवाले आणविक ऊर्जा के उपयोग करने की क्षमता में अंतर्निहित संभावनाओं तथा खतरों का अनुमान करके विस्मित तथा आनन्दित होने के साथ-साथ आतंकित भी हुए ।
भौतिक तथा जैविक विज्ञानों के क्षेत्र में इतनी तेजी से विकास होने के परिणामस्वरूप दो सर्वोधिक व्यावहारिक विज्ञानों-अभियंत्रण तथा चिकित्सा-विज्ञान-का भी उतनी ही तेजी से विकास हुआ । आवागमन और बीमारी की समस्याओं पर नियंत्रण पाया गया । समाज से विज्ञान द्वारा की जानेवाली माँगों और विज्ञान से समाज द्वारा की जानेवाली माँगो के बीच आन्तरिक पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया निरंतर चलने लगी ।
वैज्ञानिक आविष्कारों की गत्यात्मकता यूरोपीय सभ्यता के अंतर्गत भौतिक जीवन में ही नहीं, उसकी संस्कृति तथा कला-कौशल में भी आ गई । चित्रकार तथा कवि, स्थापत्यकार तथा मूर्तिकार, दार्शनिक तथा इतिहासकार अपने चारों ओर के बदलते सामाजिक माहौल के प्रति संवेदनशील हो गए । संक्षेप में, मानव-जीवन का कोई भी पक्ष विज्ञान और तकनीक के प्रभाव से अक्षुण्ण नहीं रहा ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान विभिन्न सरकारों को सैनिक और असैनिक समस्याओं के समाधान के लिए अनेक उपाय करने पड़े थे । सरकार और जनता के बीच सीधा संपर्क स्थापित हुआ । सरकार ने चिकित्सा, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में जनता के हित में अधिकाधिक हस्तक्षेप करना शुरू किया । इस प्रकार, कल्याणकारी राज्य की भावना का उदय हुआ । 1942 ई॰ में ब्रिटेन का बेवरिज रिपोर्ट राज्य की कल्याणकारी भावना की द्योतक थी ।
प्रथम विश्वयुद्ध की तरह द्वितीय विश्वयुद्ध ने भी क्रांतिकारी घटनाओं की एक लहर पैदा की । जारतंत्र के स्थान पर रूस में साम्यवाद की स्थापना एक महान युगांतकारी घटना थी । परंतु यूरोप और एशिया में साम्यवाद का प्रचार कहीं अधिक आश्चर्यजनक थी ।
1918 ई॰ में साम्यवाद अस्त-व्यस्त था, किंतु 1945 ई॰ में यह संघटित महान देश की जीवन-पद्धति बन चुका था । 1919 ई॰ में पूर्वी और मध्य यूरोप में साम्यवादी भय छाया हुआ था । किंतु, 1945 ई॰ में सोवियत संघ द्वारा समर्थित साम्यवाद अपनी जड़े जमा चुका था ।
युद्ध के अंतिम दिनों में पूर्वी और मध्य यूरोप के एक के बाद दूसरे देश में रूसी सैनिकों द्वारा समर्थित कम्युनिस्टों ने अन्य पार्टियों को समाप्त कर सोवियत संघ पर निर्भर पिपुल्स रिपब्लिक की स्थापना की । इस्तोनिया, लैटविया और लिथुआनिया के बाल्टिक राज्यों का 1940 ई॰ में ही सोवियतीकरण हो चुका था । 1944 ई॰ के बाद रोमानिया, बुल्गारिया, हंगरी, पोलैंड, अल्बानिया, युगोस्लाविया और अंत में 1948 ई॰ में चेकोस्लोवाकिया का नंबर आया ।
1939 ई॰ में वह सारा इलाका जो संरक्षित बफर जोन माना जाता था, रूसी आधिपत्य में बोल्शेविकवाद के अधीन आ गया । पुराने एल्य-ट्रीस्ट लाइन पर एक लौह आवरण आच्छादित हो गया । लगभग हर जगह एक ही जैसी घटनाएँ दुहरायी गयीं । रूसी सैनिक शक्ति की सहायता से देशी क्रांतिकारियों ने नई सरकारें बनायीं ।
यद्यपि इन कामचलाऊ सरकारों में कम्युनिस्ट अल्पमत में थे, लेकिन प्रमुख विभागों पर नियंत्रण इन्हीं का था । तानाशाही तरीकों से इन नयी जन-गणतांत्रिक सरकारों नेसोवियत संविधान के आधार पर संविधानों की रचना की । विरोधी दलों और नेताओं, यहाँ तक कि कृषक दलों का भी दमन किया गया ।
समाचारपत्रों पर सेंसरशिप लगायी गयी; उधोग-धंधों का राष्ट्रीयकरण हुआ । आर्थिक नियोजन और नियंत्रण लागू किया गया तथा इन सरकारों के बीच कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के द्वारा समन्वय स्थापित किया गया । 1947 ई॰ में स्थापित कम्युनिस्ट इंटरनेशनल साम्यवाद के प्रचार का मुख्य माध्यम बन गया । सैनिक संधियों और व्यापारिक समझौतों द्वारा इन जन-गणतांत्रिक सरकारों और सोवियत संघ के संबंध को औपचारिक रूप दिया गया ।
इन कम्युनिस्ट सरकारों में से सिर्फ युगोस्लाविया ने सोवियत नियंत्रण का विरोध किया । राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता के नाम पर मार्शल टीटो ने मास्को का उल्लंघन किया ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण सोवियत संघ की विकास-नीति में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया । युद्ध के बाद फिर से पंचवर्षीय योजना लागू की गई । पंचवर्षीय योजना का उद्देश्य बरबादी की क्षतिपूर्ति करना और देश के औद्योगिक अत: शक्ति को बढ़ाना था ।
1950 ई॰ तक स्पष्ट हो चुका था कि सोवियत संघ फिर से अपनी आर्थिक शक्ति अर्जित कर चुका है । 1940 ई॰ की तुलना में वह दुगुना अधिक लोहा और कोयला उत्पन्न कर रहा था और अगर सांख्यिकी पर विश्वास किया जाए तो उसके औद्योगिक उत्पादन की गति संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी यूरोप से कहीं अधिक थी । सोवियत अर्थव्यवस्था का सबसे कमजोर क्षेत्र कृषि था । युद्धोतर पंचवर्षीय योजनाओं में मुख्य जोर भारी उद्योगों पर था ।
सामान्य लोगों का जीवन-स्तर पश्चिमी देशों से अब भी नीचे था । बौद्धिक जीवन पर कठोर नियंत्रण था, परंतु तकनीकी क्षेत्रों में सोवियत संघ विश्व का नेता बन चुका था । पीटर महान की तरह स्टालिन का बोलबाला कायम था । 1945 ई॰ के तुरंत बाद औपनिवेशिक साम्राज्य के विरुद्ध एशिया का विद्रोह एक पक्की बाढ़ का रूप ले चुका था । प्रथम महायुद्ध के द्वारा ध्वस्त पुरानी अर्थव्यवस्था का द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नितांत पतन हो गया ।
युद्ध के दौरान जापानियों ने श्वेत व्यक्ति के शासन के विरुद्ध एशियाई आक्रोश को और भड़काया । पश्चिमी आधिपत्य से स्वतंत्र होने की आशाएँ बढ़ गईं । युद्ध के बाद यूरोपीय देश भारी सैनिक कीमत पर ही एशिया पर शासन कर सकते थे । साथ ही, एशिया पर शासन बनाये रखना उनके अपने ही द्वारा मान्य स्वशासन के आदर्शों का उल्लंघन होता ।
एशियाई देशों में मास्को- प्रेरित साम्यवाद का प्रचार हो रहा था साम्राज्यवाद-विरोधी लहर की प्रतिध्वनि दुनिया के और इलाकों में भी सुनाई पड़ने लगी । नीग्रो अफ्रीका में ब्रिटेन के खिलाफ और मुस्लिम अफ्रीका में फ्रांस और ब्रिटेन के विरुद्ध आवाजें उठने लगीं ।
भारत में 1947 ई॰ में ब्रिटिश शासन का अंत नाटकीय, किंतु शांतिपूर्ण तरीके से हुआ । द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान के ‘एशिया एशियावासियों के लिए’ के नारे के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को युद्ध-सहायता के बदले डोमिनियन राज्य का दर्जा देने का आश्वासन दिया । 1947 ई॰ में भारत को स्वतंत्र घोषित कर दिया गया और भारतीय साम्राज्य को भंग कर दिया गया । चूँकि भारत में रहनेवाले बहुत सारे मुसलमान ‘बहुसंख्यक हिंदू भारत’ में नहीं रहना चाहते थे, भारत को भारत और पाकिस्तान के रूप में दो हिस्सों में बाँट दिया गया ।
युद्ध के दौरान जापान ने मलाया और सिंगापुर, फ्रांसीसी इंडोचाइना और डच ईस्ट इंडीज पर अधिकार करके यूरोपीय अजेयता की परंपरा को समाप्त कर दिया था । दूसरे शब्दों में मलाया और सिंगापुर से ब्रिटिश शासन, इंडो-चाइना से फ्रांसीसी शासन और इण्डोनेशिया से डच शासन समाप्त हो गया ।
यूरोपीय आधिपत्य से मुक्ति पाने के बाद दक्षिण-पूर्व एशिया के लोगों ने जापानी आधिपत्य के विरुद्ध भी संघर्ष किया । जापान के आत्मसमर्पण के बाद पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने फिर से अपने उपनिवेशों को अधिकार में लाने का प्रयास किया, लेकिन अब यह तय था कि एक बार विदेशी शासन से मुक्त हो जाने के बाद वे पुन: विदेशी शासन की स्थापना का विरोध करेंगे और यही हुआ भी । दक्षिण-पूर्व एशिया के इन देशों में राष्ट्रीय आंदोलन तेज हो गया और भारी संघर्ष द्वारा इन्होंने अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली ।
युद्धोत्तरकाल में सबसे क्रांतिकारी घटना चीन में घटी । द्वितीय विश्वयुद्ध ने चीन में राष्ट्रवादियों और कम्युनिस्टों के संघर्ष को तेज कर दिया था । जैसे ही जापान ने आत्मसमर्पण किया, कमुनिस्टों ने सोवियत संघ के समर्थन से उत्तरी और पूर्वी प्रांतों पर कब्जा कर लिया ।
जापानियों द्वारा छोड़े हुए सैनिक साज-सामान की सहायता से कम्युनिस्टों ने राष्ट्रवादियों का सामना किया और उन्हें एक के बाद एक प्रांत छोड़ने के लिए बाध्य किया । अंत में, 1949 ई॰ में च्यांग-काई शेक को फारमोसा में शरण लेनी पड़ी और पूरे चीन में साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के फलस्वरूप पश्चिमी एशिया के राज्यों में राष्ट्रवाद की भावना का चरम विकास हुआ । संपूर्ण क्षेत्र राष्ट्रीयता की लहर से ओत-प्रोत हो गया । राष्ट्रवाद की भावना से उत्प्रेरित होकर पश्चिमी एशिया के देशों ने पाश्चात्य देशों द्वारा नियंत्रित अपने राष्ट्रिय साधनों का राष्ट्रीयकरण शुरू किया । ईरान, मिल इत्यादि देशों में विदेशी कंपनियों का राष्ट्रीयकरण हुआ । राष्ट्रीयकरण के अतिरिक्त राष्ट्रवाद का दूसरा रूप पश्चिम के सैनिक नियंत्रण से मुक्ति पाना था ।
राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के उपरांत, पश्चिमी एशियाई देशों का लक्ष्य अपने भूभागों में स्थित विदेशी फौजों को हटाना तथा विदेशी सैनिक अठुाएं को समाप्त करना था । ये फौजें विदेशी दासता का प्रतीक थीं और इनका बना रहना राष्ट्रीय गौरव तथा मर्यादा के लिए कलंक था ।
अत: मिस्र और ईरान ने अपने देशों से इन फौजों को हटाने के लिए प्रबल आंदोलन किया । पश्चिम एशिया में इजरायल का निर्माण द्वितीय विश्वयुद्ध का अगला महत्वपूर्ण परिणाम था । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यहूदियों ने फिलिस्तीन में बहुत बड़ी संख्या में बसना शुरू किया । इसे लेकर अरबों और यहूदियों के बीच निरंतर दंगे-फसाद होते रहे ।
ब्रिटेन और अमेरिका के प्रोत्साहन से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1948 ई॰ में इजरायल नाम से फिलिस्तीन में यहूदियों का राज्य कायम हो गया । उसी समय से इजरायल और अरबों के बीच तनाव और युद्धों का सिलसिला शुरू हुआ, जो अभी तक कायम है ।
पश्चिमी देशों के आंतरिक मामले में प्रथम विश्वयुद्ध की तरह ही द्वितीय विश्वयुद्ध भी जनतंत्र की निर्णायक जीत थी । दो प्रमुख फासिस्ट तानाशाहों से दुनिया को मुक्ति दिलाना प्रजातंत्र के लिए असंदिग्ध विजय थी । हिटलर और मुसोलिनी के संपर्क में आकर पश्चिमी देशों ने जनतांत्रिक मूल्यों को और भी मजबूत किया ।
जनतंत्र के विकास के साथ-साथ कल्याणकारी राज्य की विकास-गति को तेज किया गया । आर्थिक मंदी की याद, युद्ध के बलिदान और लोगों को आर्थिक सुरक्षा देने की परपरा ने विभिन्न सरकारों को दबे हुए लोगों के हित में कानून बनाने के लिए प्रेरित किया । अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, फ्रांस जैसे अनेक देशों में जनतंत्र की प्रगति हुई ।
प्रथम विश्वयुद्ध के समय से आरंभ हुई यूरोपीय शक्तियों के पतन की प्रक्रिया द्वितीय विश्वयुद्ध में और भी तेज हो गयी । यूरोपीय देशों को युद्ध में भारी क्षति उठानी पड़ी । उनके उपनिवेश हाथों से निकल गए । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुत्क राज्य अमेरिका और सोवियत संघ (रूस जितना यूरोपीय देश है उतना ही एशियाई भी) विश्व के भाग्यविधाता बन गए ।
यूरोपीय देशों में से कुछ ने अमेरिका की शरण ली और कुछ ने सोवियत संघ की । युद्धोतरकाल में चीन और जापान जैसे एशियाई देशों ने भी विश्व-राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाना आरंभ किया । विश्व पर यूरोपीय आधिपत्य का जमाना लद गया ।
द्वितीय विश्वयुद्ध ने संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ को विश्वशक्ति के रूप में पैदा किया, क्योंकि युद्ध के बाद इन्हीं दोनों के पास यथेष्ट शक्ति बच पायी थी । युद्ध के दौरान दोनों ने मिलकर जर्मनी, इटली और जापान का सामना किया था । किंतु युद्ध के अंतिम दिनों में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच स्थापित समन्वय लुप्त होने लगा और पुराने मतभेद उभरकर सामने आने लगे ।
1945 ई॰ के बाद सोवियत संघ और पश्चिमी देशों का संबंध तनावपूर्ण हो गया । इसी कारण 1945 ई॰ के बाद की अवधि को शीतयुद्ध का काल माना जाता है । यद्यपि इन्होंने आपस में युद्ध नहीं किया, परंतु प्रचार, आर्थिक और राजनीतिक असहयोग, आलोचना एवं प्रत्यालोचना द्वारा उन्होंने एक-दूसरे पर आक्रमण किया । दोनों ने एक-दूसरे के विरुद्ध सैनिक गुट बनाया ।
सोवियत संघ के नेतृत्व में वारसा पैक्ट और संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में नाटो और सीटो जैसे सैनिक गुट बने । सारा विश्व इन्हीं दो गुटों में बँटने लगा एक तरह से साम्यवाद और पूँजीवाद के परस्परविरोधी दो खेमे तैयार हुए । शीतयुद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामों में प्रमुख माना जाता हे । आधुनिक अंतरराष्ट्रीय संबंध के इतिहास की यह एक प्रमुख विशेषता है ।
कोरिया-युद्ध, वियतनाम-युद्ध तथा पश्चिमी एशिया में उत्पन्न कई समस्याएँ शीतयुद्ध का ही परिणाम थीं । इस संदर्भ में एक तथ्य की ओर इशारा करना आवश्यक है, वह यह कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्वतंत्र हुए कुछ एशियाई, अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों ने दोनों में से किसी खेमे को स्वीकार न करके, असंलग्न रहने का प्रयास किया और इस प्रकार विश्व-राजनीति में एक तीसरी शक्ति का उदय हुआ ।
मोटे तौर पर द्वितीय विश्वयुद्ध ने मनुष्य के लिए कोई नयी समस्या पैदा नहीं की । किंतु, इसने लगभग सौ साल से चली आ रही कुछ समस्याओं को अधिक कठिन, अधिक महत्वपूर्ण और अधिक खतरनाक अवश्य बना दिया । हम इस संदर्भ में तीन समस्याओं को चुन सकते हैं- विज्ञान की समस्या, उद्योगवाद की समस्या और राष्ट्रीय संप्रभुता की समस्या ।
ये तीनों ही समस्याएँ सिर्फ एक महासमस्या के तीन रूप हैं और यह समस्या हे कि कैसे मनुष्य खुश रहे, अर्थात् मनुष्य कैसे आनंद में रहकर जीवित रहे और अपनी मानवता को प्राप्त करें । एटम बम गिराये जाने के बाद विज्ञान की समस्या नाटकीय ढंग से उभर कर सामने आयी ।
अणुबम इस बात का प्रमाण है कि जहाँ विज्ञान मानव की अनेकानेक समस्याओं का समाधान कर सकता है, वहाँ वह मानव के अस्तित्व को भी समाप्त कर सकता है । अब विज्ञान से महत्त्वपूर्ण विज्ञान के प्रयोग की समस्या हो गयी । यह मानव पर निर्भर करता है कि वह कैसे विज्ञान का प्रयोग करता है । इसलिए, अब विज्ञान केवल वैज्ञानिकों की ही विषयवस्तु न होकर, समाजशास्त्रियों ओर राजनीतिज्ञों के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण बन गया है ।
इसी प्रकार, उद्योगवाद की समस्या और औद्योगिक समाज में सुरक्षा की समस्या को भी युद्ध ने गंभीर बना दिया । उपनिवेशों के समाप्त हो जाने के बाद पश्चिम के कर्मशाला पूर्व के कच्चे माल के स्रोतों के बीच स्थापित संपर्क और समन्वय टूट गया । अब न तो पश्चिमी देश अबाध रूप से कच्चे माल का आयात ही कर सकते थे और न उनके पास इतनी पूँजी रह गयी थी कि वे दूसरे देशों से आवश्यक वस्तुएँ खरीद सकें ।
यूरोपीय उत्पादन और निर्यात की क्षमता काफी घट गयी ऐसे ही संकट की घड़ी में यूरोपीय अर्थव्यवस्था को सामाजिक सेवा और कल्याणकारी राज्य के दायित्वों को वहन करना पड़ा यूरोपीय सरकारें मूक-दृष्टा बनकर अपनी जनसंख्या को भूखों मरने के लिए तो नहीं छोड़ देतीं ।
इसीलिए, युद्ध के बाद यूरोप के उद्धार या बचाव का प्रश्न उठ खड़ा हुआ । परंतु व्यावहारिक प्रश्न यह था कि यूरोप का उद्धारक कौन होगा । सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका ही यूरोप के उद्धारक बन सकते थे । लेकिन, यूरोपीय लोग दोनों में से किसी एक से भी सहायता नहीं लेना चाहते थे अधिकांश यूरोपीय साम्यवाद को गुलामी मानते थे ।
संयुक्त राज्य अमेरिका पर निर्भर होना अंध-जुआबाजी होता, क्योंकि 1929 ई॰ की आर्थिक मंदी एक बार यूरोपीय अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर चुकी थी । अत:, अमेरिकी पूँजीवाद पर निर्भर होना खतरे से खाली नहीं था । लेकिन, दोनों में एक को तो चुनना ही था सभी देशों ने एक ही जैसा निर्णय नहीं लिया । कुछ ने साम्यवादी रूस की शरण ली और कुछ ने संयुक्त राज्य अमेरिका की ।
केवल यूरोप ही संकट का केन्द्र नहीं था । पूरे एशिया में, विशेषकर भारत और जावा में जनसंख्या में भारी वृद्धि हुई थी । भारत और पाकिस्तान की नयी सरकार को, इण्डोनेशिया के गणतंत्र को और कम्युनिस्ट चीनको अपनी विशाल जनसंख्या को खिलाना और संतुष्ट रखना था ।
उनका विश्वास था कि ओद्योगीकरण द्वारा ही वे अपने देशवासियों के जीवन-स्तर को उठा सकते हैं । उन्हें मशीन, कर्ज, सलाहकार की जरूरत थी, उन्होंने अंशत: यूरोप की ओर, अंशत: सोवियत संघ की ओर और अंशत: संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर देखा । एशिया में साम्राज्यवाद का अंत हो चुका था, परन्तु एशियाइयों को अब भी पश्चिमी सहायता की आश्यकता थी । सहायता देने में पश्चिमी देशों के बीच प्रतिस्पर्द्धा पैदा होनी ही थी ।
एक देश दूसरे देश से सहायता तो प्राप्त करना चाहता था, लेकिन किसी की मातहती को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था यहीं राष्ट्रीय स्वतंत्रता की समस्या पैदा हुई । द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति ने भविष्य के युद्ध को रोकने के लिए एक अंतरराष्टीय संगठन के निर्माण के लिए पहल की 1945 ई॰ में सानफ्रांसिस्को सम्मेलन में मित्रराष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना की ।
राष्ट्रसंघ के उतराधिकारी संयुक्त राष्ट्रसंघ के छ: अंग हैं, जिनमें जेनरल एसेम्बली और सिक्यूरिटी कौंसिल सबसे प्रमुख है । दुनिया के सभी स्वतंत्र देश जेनरल एसेम्बली के सदस्य बन सकते हैं । सिक्यूरिटी कौंसिल (सुरक्षा परिषद) में संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस स्थायी सदस्य हैं । दस अन्य सदस्यों का चुनाव जेनरल एसेम्बली एक निश्चित अवधि के लिए करती है ।
पाँचो स्थायी सदस्यों की सर्वसम्मति से ही सुरक्षा परिषद कोई निर्णय ले सकता है । संयुक्त राष्ट्रसंघ ने अंतरराष्ट्रीय सहयोग और शान्ति के लिए राष्ट्रसंघ की तुलना में अधिक सफलतापूर्वक कार्य किया है ।