ऋग्वैदिक कालीन सभ्यता: निवास स्थान तथा तत्व | Read this article in Hindi to learn about:- 1. ऋग्वैदिक कालीन सभ्यता का परिचय (Introduction to Rig Vedic Civilization) 2. ऋग्वैदिक कालीन सभ्यता का मूल निवास-स्थान (Original Habitat of Rig Vedic Civilization) 3.  संस्कृति (Culture) 4. तत्व (Principles).

ऋग्वैदिक कालीन सभ्यता का परिचय (Introduction to Rig Vedic Civilization):

सैंधव संस्कृति के पश्चात् भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास आ उसे वैदिक अथवा आर्य सभ्यता के नाम से जाना जाता है । भारत का इतिहास एक प्रकार से आर्य जाति का इतिहास है । आर्यों का इतिहास हमें मुख्यतः वेदों से ज्ञात होता है जिसमें ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक है ।

सामान्यतः ऐसा माना गया है कि जिन विदेशी आक्रान्ताओं ने नगरों को ध्वस्त किया था, वे आर्य ही थे । स्वयं ऋग्वेद में इस संघर्ष का अप्रत्यक्ष रूप से उल्लेख मिलता है । ऋग्वेद में इन्द्र को दास-दस्युओं का विनाश करने वाला (दस्युहन्) कहा गया है । इस ग्रन्थ में दास-दस्युओं के पुरी का भी वर्णन आया है जिनको विनष्ट करने के कारण इन्द को ‘पुरन्दर’ कहा गया है ।

ये पुर चौड़े (उर्वी), पाषाण-निर्मित (अश्ममयी), धातुनिर्मित (आयसी), कच्ची ईटी के बने हुए (आमा) और सो दीवारों वाले (शतभुजी) आदि कहे गये हैं । ये पुर सैंधव नगरों से भिन्न नहीं थे । दास-दस्युओं की जो विशेषतायें ऋग्वेद में वर्णित है वे सब सैन्धव निवासियों में देखी जा सकती है । संभवतः हड़प्पा में दास-दस्यु अधिक संख्या में थे ।

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ऋग्वेद में दास-दस्युओं को ‘अकर्मन्’ (वैदिक क्रियाओं को न करने वाले) ‘अदेवयु’ (वैदिक देवताओं को न मानने वाले), ‘अपर्चर’ (यज्ञ न करने वाले) ‘अयज्वन्’ (वैदिकेतर व्रतों का अनुसरण करने वाले), मृद्धवाक्’ (अपरिचित भाषा बोलने वाले), ‘अब्रह्मन्’ (श्रद्धा और धार्मिक विश्वास से रहित) एवं ‘अव्रत’ (व्रतों से रहित) कहा गया है ।

दास-दस्युओं को लिड्गपूजक (शिश्न देवा:) कहा गया है । दास-दस्युओं की संस्कृति के इन वैदिक उल्लेखों में कोई भी बात ऐसी नहीं है जो सैंधव सभ्यता के लोगों पर लागू न होती हो । यह एक महत्वपूर्ण बात है कि सैंधव निवासियों के धार्मिक आचार में लिंग-पूजा को विशेष स्थान प्राप्त था और उनकी भाषा, जो अभी तक पड़ी नहीं जा सकी है, वैदिक संस्कृत से भिन्न थी ।

इस आधार पर कुछ विद्वान यह निष्कर्ष निकालते है कि सैंधव नगरों का विनाश अन्ततोगत्वा आर्यों के आक्रमण से ही संभव हुआ था। किन्तु अब आर्य-आक्रमण का सिद्धान्त खोखला सिद्ध हो चुका है । ‘शिश्न देवा:’ का अर्थ भाष्यकार सायण भिन्न प्रकार से करते हुए कामाशक्त अथवा विलासी (शिश्नेन दिव्यन्ति कीडन्ति वा) के अर्थ में प्रयुक्त कहते है ।

के. सी. चट्टोपाध्याय का विचार है कि ऋग्वेद में वर्णित दास-दस्यु संघर्ष पौराणिक देवासुर संग्राम का ही रूपान्तर है न कि मानव जातियों के संघर्ष का । इस प्रकार वैदिक-सैन्धव सभ्यता में विभेद सूचक बातें अधिकांशतः कल्पना पर ही आधारित है, वास्तविकता पर नहीं ।

2. ऋग्वैदिक कालीन सभ्यता का मूल निवास-स्थान (Original Habitat of Rig Vedic Civilization):

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परन्तु सैंधव सभ्यता के विनाशक आर्य किस प्रदेश के निवासी थे, यह एक अत्यन्त विवादग्रस्त प्रश्न है । यहाँ कुछ प्रमुख मतों का संक्षेप में उल्लेख किया जावेगा ।

I. भारत:

अनेक विद्वानों की धारणा है कि आर्य मूलत भारत के ही निवासी थे तथा यहीं से वे विश्व के विभिन्न भागों में गये । पं॰ गंगानाथ झा ब्रह्मर्षि देश, डी॰ एस॰ त्रिवेद मुल्तान स्थित देविका, एल॰ डी॰ कल्ल कश्मीर तथा हिमालय क्षेत्र में आर्यों का मूल निवास-स्थान बताते है । किन्तु हमें अब यह तो मान ही लेना चाहिए कि भारत आर्यों का मूल निवास-स्थान नहीं था और वे यहाँ आक्रान्ता के रूप में ही आये थे । सैन्धव सभ्यता आर्य सभ्यता से भिन्न एवं इससे अधिक प्राचीन थी ।

यदि आर्य भारत के निवासी होते तो वे सर्वप्रथम अपने देश का ही आर्यीकरण करते । समस्त दक्षिणी भारत आज तक आर्यभाषा-भाषी नहीं है । उत्तर-पश्चिम में बलूचिस्तान से ‘ब्राहुई’ की भाषा थी । यह इस बात का सूचक है कि सम्पूर्ण भारत अथवा कम से न से अनार्य था । यह आर्यों के भारतीय मूल के सिद्धान्त के विरुद्ध सबसे प्रबल प्रमाण है । भिन्न भिन्न विद्वानों ने आर्यों का मूल स्थान विश्व के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में निर्धारित करने का प्रयास किया है ।

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II. उत्तरी-ध्रुव:

आर्यों का आदि स्थान उत्तरी ध्रुव में मानने वाले सर्वप्रथम विद्वान पं॰ बाल गंगाधर तिलक हैं । तिलक महोदय का विचार है कि आर्यों नें ऋग्वेद की रचना सप्त सैन्धव प्रदेश में किया था । इसमें एक सूक्त के अन्तर्गत दीर्घकालीन उषा की स्तुति मिलती है । दीर्घकालीन उषा उत्तरी ध्रुव में ही दिखाई देती है ।

महाभारत में सुमेरुपर्वत का वर्णन मिलता है जहाँ छ: महीने का दिन तथा छ: महीने की रात होती है । यहाँ भी उत्तरी ध्रुव की ओर ही सकेत है । अतः हम कह सकते है कि आर्य उत्तरी ध्रुव के ही निवासी थे और इसी कारण उनके मस्तिष्क में अपनी मूल भूमि की स्मृति बनी हुई थी ।

किन्तु तिलक का उपर्युक्त मत कोरे साहित्य पर आधारित होने के कारण मान्य नहीं है । स्वयं आर्यों ने ही सप्त सैन्धव प्रदेश को ‘देवताओं द्वारा निर्मित’ (देवकृत योनि) कहा है । यदि उत्तरी ध्रुव उनका आदि देश होता तो कहीं न कहीं स्पष्ट रुप से उसका उल्लेख वे करते ।

III. एशिया:

अनेक विद्वानों ने एशिया के विभिन्न क्षेत्रों में आर्यों का मूल निवास-स्थान स्वीकार किया है । मैक्समूलर महोदय आर्यों का आदि देश मध्य एशिया, गेड्‌स बैक्ट्रिया तथा एडवर्ड मेयर पामीर के पठार को मानते है । मेयर महोदय का विचार है कि पामीर के पठार से ही इण्डो-ईरानी जाति पूर्व में पंजाब तथा पश्चिम में मेंसोपोटामिया की ओर गयी ।

इस मत का समर्थन ओल्डेनवर्ग तथा कीथ आदि विद्वानों ये भी किया है । ब्रैन्डेस्टीन महोदय ने बताया है कि भारतीय भाषाकोश से प्रकट होता है कि आर्य मूलतः एक पर्वत के नीचे घास के मैदान में निवास करते थे । यह मैदान यूराल पर्वत के दक्षिण में स्थिर किर्जिंग का मैदान था ।

जो विद्वान् एशिया को आर्यों का इन स्थान स्वीकार नहीं करते, उनका कहना है कि भारोपीय भाषा-भाषी परिवार के मुहावरों का प्रसार यह सिद्ध करता है कि आर्यों का मूल निवास-स्थान एशिया की अपेक्षा यूरोप में खोजना अधिक तर्कसंगत होगा ।

IV. यूरोप:

यूरोप महाद्वीप के विभिन्न स्थानों-जर्मनी, हंगरी तथा दक्षिणी रूस में विद्वानों ने आर्यों का मूल स्थान निर्धारित करने के पक्ष में अपने-अपने तर्क प्रस्तुत किये है ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

a. जर्मनी:

जर्मनी को आर्यों का आदि-देश मानने वाले विद्वानों में पेनका, हर्ट आदि प्रमुख है ।

उनके तर्क इस प्रकार है:

(1) मध्य जर्मनी में स्थित स्कैन्डेनीविया नामक स्थान कभी भी विदेशी आधिपत्य में नहीं रहा तो भी यहाँ के निवासी भोरोपीय भाषा बोलते थे । इससे सिद्ध होती है कि भारोपीय भाषा का मूल स्थान यही था ।

(2) पश्चिम बाल्टिक सागर के तट से सर्वप्राचीन एवं अति साधारण वस्तुऐं पाई गयी है । यहाँ से प्राप्त पाषाणोपकरण अत्यन्त कलापूर्ण एवं तकनीकी दृष्टि से उत्तम कोटि के है । ये सब भारोपीयों की कृतियाँ हैं । मध्य जर्मनी से भी प्रागैतिहासिक काल के कुछ मृद्‌भाण्ड पाये गये है । इन्हें भी प्राचीन आर्यों से ही सम्बन्धित किया गया है।

(3) आर्यों की शारीरिक विशेषतायें भी उन्हें जर्मनी का आदिवासी बताती हैं। जैसे उनकी एक प्रमुख विशेषता भूरे बालों का होना है । आज भी जर्मनी के लोग भूरे बालों वाले पाये जाते है ।

परंतु यदि उपर्युक्त तर्कों की आलोचनात्मक समीक्षा की जाय तो बड़ी आसानी से उनका खण्डन हो जायेगा । एकमात्र भाषाई आधार पर स्कैन्डेनीविया को आर्यों का मूल स्थान नहीं माना जा सकता । किसी स्थान की भाषा का परिवर्तित न होना उसके वोलने वालों की प्रगतिहीनता तथा संकीर्णता को भी सूचित करता है न कि उसकी प्राचीनता को । बाल्टिक सागर तथा मध्य जर्मनी से मिलते-जुलते उपकरण तथा मृदभाण्ड कुछ अन्य स्थानों जैसे दक्षिणी रूस, पोलैण्ड, त्रिपोल्जे आदि से भी मिलते हैं । कुछ उपकरण जर्मनी के उपकरणों से भी अधिक प्राचीन हैं ।

जहाँ तक भूरे बालों का प्रश्न है यह एक मात्र जर्मनी के निवासियों की ही विशेषता नहीं है । पतंजलि ने भारतीय ब्राह्मणों को भी भूरे बालों वाला बताया है, तो क्या हम केवल इसी आधार पर भारत को आर्यों का आदि देश स्वीकार कर सकते है ।

b. हंगरी:

आर्यों का मूल निवास-स्थान हंगरी अथवा डेन्यूब नदी-घाटी के मानने वाले विद्वानों में गाइल्स सर्वप्रमुख हैं । विभिन्न भारोपीय भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद उन्होने यह बताया है कि आर्य मूलत एक ऐसे स्थान में रहते थे जहाँ पर्वत, नदियाँ, झील आदि थे तथा गेहू, जौ की प्रमुख रूप से खेती की जाती थी और गाय, बैल, भेड़, घोड़ा, कुत्ता आदि पशु पाले जाते थे । ये सभी विशेषतायें हंगरी प्रदेश अथवा डेन्यूब नदी-घाटी में प्राप्त होती हैं ।

अतः यहीं आर्यों का मूल निवास-स्थान रहा होगा । किन्तु यह मत भी असंगत है । इस प्रकार की विशेषतायें कुछ अन्य स्थानों में भी पाई जाती है । मात्र भाषाविज्ञान के आधार पर इस समस्या का हल निकालना उचित नहीं लगता ।

c. दक्षिणी रूस:

कतिपय पुरातत्वीय एवं भाषाशास्त्रीय सामग्रियों के आधार पर मेयर, पीक तथा गार्डन चाइल्ड्स ने दक्षिणी रूस को आर्यों का मूल निवास-स्थान स्वीकार किया है । दक्षिणी रूस में किये गये उत्खनन से लगभग उसी प्रकार की संस्कृति के अवशेष मिले हैं जो आर्यों के समय में थे ।

यहाँ की खुदाई से अश्व का अवशेष भी मिला है जो आर्यों का प्रिय पशु था । पिगट महोदय के अनुसार आर्य दक्षिणी रूस के एक विस्तृत प्रदेश पर निवास करते थे । दक्षिणी रूस के त्रिपोल्जे से लगभग तीस हजार ईसा पूर्व के मृद्‌भाण्ड प्राप्त हुए हैं । इस आधार पर नेहरिंग ने दक्षिणी रूस को आर्यों का आदि-देश बताया है ।

भारोपीय तथा मध्य रुस की फिनो-उग्रीयन (Finno-Ugrian) भाषाओं में आश्चर्यजनक समता दिखाई देती है जो इस बात की सूचक है कि भारोपीय तथा मध्य रूस की जाति में प्राचीन काल से ही ऐतिहासिक सम्पर्क था । अतः उक्त विद्वानों के अनुसार दक्षिणी रूस को आर्यों का मूल निवास-स्थान स्वीकार किया जा सकता है ।

इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि आर्यों को विदेशी मूल का मानने का मत प्रधानतया भाषा विज्ञान पर आधारित होने के कारण बहुत अधिक सबल नहीं है । वेद में कोई उद्धरण ऐसा नहीं है जो यह सिद्ध कर सके कि आर्य यहाँ आक्रान्ता के रूप में आये थे । ‘आर्य’ शब्द को जातिवाची मानना ठीक नहीं है । ऋग्वेद के मंत्रों में प्रयुक्त शब्दों की संख्या 153972 है जिसमें ‘आर्य’ शब्द मात्र 33 बार ही आता है ।

भाषाविदों ने तुलनात्मक भाषा विज्ञान को एक प्रामाणिक शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित किया है किन्तु भाषा एक सांस्कृतिक इकाई है जिसका किसी जाति विशेष से संबंध स्थापित करना उचित नहीं है । एक ही प्रजाति के लोग विभिन्न भाषा-भाषी हो सकते है । ऋग्वेद में आर्य तथा दास-दस्यु के बीच जो विभेद किया गया है वह प्रजातीय न होकर धार्मिक लगता है ।

आर्य तथा दास-दस्यु किसी जन समुदाय, प्रजाति अथवा जनजाति के नाम नहीं लगते। इनका विरोध धार्मिक व अधार्मिक का विरोध है । दांस-दत्यु का प्रयोग परिचारक के रूप में भी मिलता है । ‘दस्यु’ शब्द ईरानी भाषा में भी मिलता है जो ग्रामीण जन का सूचक है । जहाँ तक ‘ब्राहुई’ भाषा का प्रश्न है इसका दक्षिण की द्रविड़ भाषा से दूर का संबंध ही हो सकता है ।

उत्तर-पश्चिम में इसके व्यापक प्रचलन का प्रमाण नहीं मिलता । कुछ विद्वानों का कहना है कि बलूचिस्तान में ब्राहुई भाषा-भाषी लोग बाहर से आये थे जबकि कुछ विद्वान् इस भाषा को बोलचाल की आधुनिक पूर्वी एलमी (Modern Eastern Colloquial Elamite) भाषा बताते है । यह भी दृष्टव्य है कि गोदावरी के दक्षिण में सैन्धव सभ्यता का कोई साक्ष्य नहीं मिलता ।

जहां तक इन्द्र को ‘पुरन्दर’ अर्थात् पूरी को ध्वस्त करने वाला कहे जाने का प्रश्न है इस संबंध में उल्लेखनीय हैं कि कोटदीजी तथा कालीवगन के प्राक्-सैन्धव स्थलों से भी दुर्गीकरण के साक्ष्य मिल चुके है । स्वयं सिन्धु सभ्यता के लोगों द्वारा पूर्ववर्ती संस्कृति के दुर्गों का भेदन किया जाना भी संभव है ।

ऐसी स्थिति में अब केवल आर्यों के ही देवता को ‘पुन्दर’ नहीं कहा जा सकता । पुनश्च इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि इन्द्र शत्रु नगरों का विजेता था । पुरातत्व से भी आर्यों के आक्रान्ता होने की बात पुष्ट नहीं होती । अब प्रायः सभी विद्वान् इसे स्वीकार करने लगे है कि इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि आर्य विदेशी आक्रान्ता थे ।

जो विद्वान् आर्यों को विदेशी मूल का मानते है उनका आधार मैक्समूलर द्वारा निर्धारित ऋग्वेद की तिथि है । सूत्र साहित्य को ई. पु. 600-200 में रखते हुए वे इसके पूर्ववर्ती साहित्य जिसका विभाजन वे ब्राह्मण काल, मन्त्रकाल, तथा छन्दकाल में करते हैं, के लिये दो-दो सौ वर्षों की अवधि निर्धारित करते हुए प्रस्तावित करते हैं कि वैदिक मन्त्रों की रचना लगभग 1200 ई. पू. में हुई ।

यह निष्कर्ष उस समय तक ठीक था जब तक पश्चिम के लोगों को वैदिक साहित्य के विषय में बहुत कम ज्ञात था । परन्तु अब यह मत अमान्य हो गया है । स्वयं मैक्समूलर ने भी अपने जीवन के अन्तिम दिनों में इसे त्याग दिया था । पुनश्च मैक्समूलर द्वारा निर्धारित तिथिक्रम की विधि संदिग्ध है और इसे सत्य नहीं माना जा सकता ।

3. वैदिककालीन संस्कृति (Vedic Culture):

वैदिक काल को दो भागों में विभाजित किया जाता है:

(अ) ऋग्वैदिक अथवा पूर्ववैदिक काल,

(आ) उतर वैदिक काल ।

यहाँ प्रत्येक काल का कुछ विस्तार में वर्णन किया जायेगा:  

ऋग्वैदिक काल:

इस काल का इतिहास हमें पूर्णतया ऋगवेद से ही ज्ञात होता है । ऋगवेद एक संहिता है जिसमें 10 मण्डल हैं । इसमें 2 से 7 तक प्राचीन माने जाते है ।

इसमें तीन पाठ मिलते है:

(a) साकल- इसमें 1017 मन्त्र हैं ।

(b) बालखिल्य- इसमें 11 मन्त्र हैं ।

(c) वाष्कल- इसमें कुल 56 मन्त्र हैं ।

ऋग्वेद की तिथि के विषय में भी पर्याप्त मतभेद है । मैक्समूलर ई॰ पू॰ 1200 से 1000 इसकी तिथि मानते है । जैकोबी ने इसका रचना-काल तृतीय सहस्त्राब्दी ई॰ पू॰ बताया है । पं॰ बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद के प्राचीनतम अंश को 6000 ई॰ पू॰ के आस-पास लिखा हुआ बताया है । विन्टरनित्स ने वैदिक साहित्य का आरम्भिक काल ई॰ पू॰ 2500-2000 तक निर्धारित किया है । समस्त मतों पर विचार करने के उपरान्त हम सामान्यतः ऋग्वेद को ई॰ पू॰ 1500 से 1000 ई॰ पू॰ के बीच रचित मान सकते है ।

भौगोलिक पृष्ठभूमि:

ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि आर्यों का प्रसार अफगानिस्तान से गंगा-घाटी तक था । ऋग्वेद में यत्र-तत्र अनेक नदियों और पर्वतों के नाम मिलते हैं । हिमालय पर्वत का स्पष्ट उल्लेख हुआ है । हिमालय की एक चोटी को ‘मूजवन्त’ कहा गया है जो सोम के लिये प्रसिद्ध थी । पश्चिम की ओर कुभा (काबुल), क्रुमु (कुर्रम) गोमती, सुवास्तु नदियों के उल्लेख से यह पता चलता है कि अफगानिस्तान भी उस समय भारत का ही अंग था ।

इसके पश्चात् पंजाब की पाँच नदियों- सिन्धु, वितस्ता (झेलम) चेनाब, रावी, विपासा (व्यास) का उल्लेख हुआ है । साथ ही शतुद्री (सतलज), सरस्वती, यमुना तथा गंगा के नाम भी मिलते हैं । (तरेय ब्राह्मण गान्धार क्षेत्र का उल्लेख करता है । इस प्रकार वैदिक भूगोल के अन्तर्गत वर्तमान समय का अफगानिस्तान, पाकिस्तान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर पूर्व राजस्थान, पश्चिमोत्तर उत्तर प्रदेश आदि सभी सम्मिलित थे । यही भूभाग सैन्धव मध्यता के अधिकार क्षेत्र में भी था ।

4. ऋग्वैदिक सभ्यता के प्रमुख तत्व (Principles of Rig Vedic Civilization):

i. राजनीतिक संगठन:

आर्य कई जनों में विभक्त थे । इनमें पाँच जनों के नाम अक्सर मिलते हैं- अनु, द्रुह्मा, यदु, पुरु, तुर्वस । इन्हें ‘पञ्चजन’ कहा गया है । जन के अधिपति को राजा कहा जाता था । राजनीतिक संगठन की सबसे छोटी इकाई कुल अथवा परिवार होता था । परिवार का स्वामी पिता अथवा बड़ा भाई होता था जिसे ‘कुलप’ कहा जाता था । कई कुलों को मिलाकर ग्राम बनता था ।

ग्राम वस्तुत आत्म-निर्भर होते थे । ग्राम की सुरक्षा के लिये ऊँचे टीले पर एक पुर (दुर्ग) बना होता था । ग्राम का मुखिया ‘ग्रामणी’ कहा जाता था । ‘ग्रामणी’ सम्भवत: नागरिक तथा सैनिक दोनों ही प्रकार के कार्य करता था । ग्राम से बड़ी संस्था ‘विश’ होती थी जिसका स्वामी ‘विशपति’ कहलाता था ।

अनेक विशों का समूह ‘जन’ होता था । जन के अधिपति को जनपति या राजा कहा जाता था । देश या राज्य के लिये राष्ट्र शब्द आया है । किन्तु यह प्रभुतासम्पन्न राज्य का सूचक नहीं है । एक स्थान पर कई राष्ट्रों के राजा का उल्लेख है । आर्यों के ये विभिन्न जन परस्पर लड़ा करते थे ।

ऋग्वेद में एक स्थान पर दस राजाओं के युद्ध (दाश-राज्ञ) का उल्लेख हुआ है जो भरतों के राजा सुदास के साथ हुआ था । सुदास के पुरोहित वशिष्ठ थे । इनके विरुद्ध दस राजाओं का एक संघ था जिसमें उपर्युक्त पाँच जनों के अतिरिक्त पाँच लघु जनजातियों- अनिल, पक्थ, भलानस, शिव तथा विषाणिन- के राजा सम्मिलित थे । ऋषि विश्वामित्र इस संघ के पुरोहित थे ।

यह युद्ध पश्चिमोत्तर प्रदेश में बसे हुए पूर्वकालीन जन तथा ब्रह्मावर्त के उत्तरकालीन आर्यों के बीच उत्तराधिकार के प्रश्न पर लड़ा गया था । इसमें भारत जन के स्वामी सुदास ने रावी नदी के तट पर एक भीषण युद्ध में दस राजाओं के इस संघ को परास्त किया और इस प्रकार वह ऋग्वैदिककालीन भारत का सर्वोपरि सम्राट बन गया । भरत जन के नाम पर ही हमारे देश का नाम ‘भारत’ पड़ा । यह ऋग्वैदिक काल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण जन था जो सरस्वती तथा यमुना नदियों के बीच के प्रदेश में निवास करता था ।

ऋग्वेद काल में सामान्यतः राजतंत्र का ही प्रचलन था । ‘राजन’ शब्द का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है । राजा को ‘जन का रक्षक’ (गोप्ता जनस्य) तथा दुर्गों का भेदन करने वाला (पुरांभेत्ता) कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि युद्ध के वातावरण में सेना और जाति का नेतृत्व करने के लिये राज-संस्था का उदय हुआ ।

इस समय राज्य छोटे होते थे तथा एक राज्य में सामान्य तौर से एक ही जन के लोग निवास करते थे । राजा युद्धों में स्वयं जन का नेतृत्व करना था । राजा का पद इस समय दैवी नहीं समझा जाता था । प्रारम्भ में उसकी स्थिति कबायली मुखिया जैसी ही थी । कालान्तर में सम्राट शब्द का उल्लेख तथा ‘विश्वस्य भुवनस्य राजा’ (सम्पूर्ण संसार का राजा) की अवधारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि राजपद अत्यन्त गौरवशाली एवं प्रतिष्ठित समझा जाने लगा था ।

शतपथ ब्राह्मण में राज्य तथा साम्राज्य में भेद करते हुए साम्राज्य को राज्य से बड़ा बताया गया है (अवरं हि राज्य परम् साम्राज्यम्) । राजा विशाल एवं भव्य राजमहल में निवास करता था । एक स्थान पर ‘सहस्त्र द्वारों वाले गृह’ (सहस्त्रद्वार गृह) तथा दूसरे स्थान पर राजप्रासाद को सहस्त्र स्तम्भों वाला सभा स्थान कहा गया है ।

प्रारम्भ में राष्ट्र की सारी प्रजा मिलकर राजा का चुनाव करती थी परन्तु बाद में यह पद आनुवंशिक हो गया । जे. पी शर्मा का विचार है कि इस काल के कुछ जनों में गणराज्यात्मक व्यवस्था भी प्रचलित थी । दसवें मण्डल में ‘गणतन्त्रात्मक समिति’ का उल्लेख है । राजा क प्रमुख कर्त्तव्य प्रजा की रक्षा करना था । रक्षा के बदले प्रजा उसे उपहारादि देती थी ।

ऋग्वेद में ‘बलि’ शब्द का उल्लेख कई स्थानों पर मिलता है । इसका प्रयोग भेंट तथा देवताओं को चढ़ावा के अर्थ में किया गया है । यह स्पष्ट नहीं है कि प्रजा स्वेच्छया इसे राजा को देती थी अथवा यह अनिवार्य कर था । लगता है कि जन के लोग स्वेच्छा से इसे राजा को प्रदान करते थे किन्तु विजित जातियों से यह अनिवार्य रूप से लिया जाता था ।

‘बलि’ मुख्यतः अन्न के रूप में दिया जाता था । ऋग्वैदिक युग में राजा भूमि का स्वामी नहीं था । वह प्रधानत युद्ध का नेता होता था । वह व्यक्तिगत रूप से युद्धों में भाग लेता था। राजा के वैधानिक तथा न्यायिक कार्यों के विषय में ऋग्वेद से कोई सूचना नहीं मिलती है ।

सभा और समिति नामक दो संस्थायें राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं । ऋगवेद में अनेक स्थानों पर सभा का उल्लेख हुआ है किन्तु उनसे उसके कार्यों पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता । ऐसा प्रतीत होता है कि सभा कुलीन अथवा वृद्ध मनुष्यों की संस्था थी जिसमें उच्चकुल में उत्पन्न व्यक्ति ही भाग ले सकते थे । इसके विपरीत समिति सर्वसाधारण की सभा होती थी जिसमें जनों के सभी व्यक्ति अथवा परिवारों के प्रमुख भाग ले सकते थे ।

इन दानों हो संस्थाओं का शासन पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता था । राजा के अभिषेक के लिये भी इनकी सम्मति आवश्यक समझी जाती थी । ऋग्वेद ये न केवल राजा तथा समिति के बीच पूर्ण सहमति अपितु समिति के सदस्यों के बीच परस्पर मतैक्य पर भी बल दिया गया है ।

ऋग्वेद में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी, इन तीनों अधिकारियों का उल्लेख मिलता है । युद्ध के समय पुरोहित राजा के साथ जाता था तथा उसकी विजय के लिये देवताओं से प्रार्थना करता था । शिक्षक, पथ-प्रदर्शक तथा मित्र के रूप में पुरोहित राजा का मुख्य साथी होता था । राजा पुरोहितों का बड़ा सम्मान करते थे ।

उनका प्रभाव शासन पर भी था । ऋग्वेद में वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि पुरोहितों के नाम मिलते है जिनकी बहुत अधिक प्रतिष्ठा थी । सेनानी, राजा के आदेशानुसार युद्ध में कार्य करता था । शान्तिकाल में सम्भवत उसे नागरिक कार्यों को भी करना पड़ता था ।

ग्रामणी, प्रशासनिक और सैनिक कार्यों के लिये ग्राम का नेता होता था । वह ग्रामीण जनता के हितों का प्रतिनिधित्व करता था । स्पश (गुप्तचर) तथा दूत नामक कर्मचारियों का भी उल्लेख मिलता है जिनका उपयोग राजा करता था। इसके अतिरिक्त और भी राजकर्मचारी रहें होंगे परन्तु उनका उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता ।

ऋग्वेदिक काल की विधि तथा न्याय व्यवस्था के विषय में हमें निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं है । न्याय विनरण का कार्य सम्भवत: पुरोहित की सहायता से राजा ही करता था । चोरी, बेईमानी, धोखाधड़ी आदि अपराधों के उदाहरण मिलते हैं । रात में पशुओं की चोरी एक आम अपराध था ।

मृत्यु-दण्ड की प्रथा नहीं थी । शारीरिक दण्ड तथा जुर्माने किये जाते थे । हत्या करने के अपराध में धनदान द्वारा मुक्त होने की प्रथा थी । एक व्यक्ति को ‘शतदाय’ कहा गया है क्योंकि उसके जान की कीमत सौं गायें थी । अपराधी को खूँटे से बाँधे जाने का भी उल्लेख मिलता है ।

उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद में सम्राट के अतिरिक्त राजर तथा राजक शब्दों का प्रयोग मिलता है तथा उनकी स्थिति में विभेद भी किया गया है । छोटे राजाओं को राजक उससे बड़े को राजन् तथा सबसे बड़े को सम्राट कहा जाता था । कवच तथा दुर्ग का उल्लेख उच्चस्तरीय सैनिक निपुणता का सूचक है ।

ii. सामाजिक जीवन:

a. परिवार:

ऋग्वैदिक समाज का आधार परिवार था । परिवार पितृ-सत्तात्मक होता था जिसमें पिता अथवा बड़ा भाई परिवार का स्वामी होता था । ऋग्वेद में कुछ ऐसे उल्लेख मिलते है जिनसे स्पष्ट होता है कि पिता के अधिकार असीमित होते थे । वह परिवार के सदस्यों को कठोर से कठोर दण्ड दे सकता था ।

एक स्थान पर ऋज्रास्व का उल्लेख है जिसके पिता ने उसे अन्धा बना दिया था । वरुण सूक्त के शुन:शेप के आख्यान से ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पिता अपनी सन्तान को बेच सकता था । परस इसका अर्थ यह नहीं है कि पिता और पारिवारिक सदस्यों के सम्बन्ध कटुतापूर्ण होते थे । ऐसे उद्धरणों को अपवादस्वरूप ही समझना चाहिए । पिता परिवार के सदस्यों के सुख-दुख का पूरा ख्याल रखता था । ही, इतना अवश्य था कि राज्य पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था । संयुक्त परिवार की प्रथा थी ।

विवाह सूक्त (10.35) से ज्ञात होता है कि नवविवाहिता वधू अपने पति के घर में सास, ससुर, देवर, ननद के ऊपर अधिकार रखने वाली साम्राज्ञी बन जाती थी । ब्राह्मण अपने के किसी न किसी आदि ऋषि की सन्तान मानते थे । इनमें कल्पित वंश की ‘गोत्र’ कहा जाता था जिनकी संख्या मूलत: सात मिलती है- भार्गव, आंगिरस, अत्रिय, काश्यप, वशिष्ठ, आगस्त्य तथा कौशिक ।

b. वर्ण व्यवस्था:

ऋग्वैदिककालीन समाज प्रारम्भ में वर्ग-विभेद से रहित था । सभी व्यक्ति ‘जन’ के सदस्य समझे जाते थे तथा सदकी समान सामाजिक प्रतिष्ठा थी । जन के निर्माण के पूर्व के लोगों को ‘अर्य’ तथा ‘कृष्टि’ अथवा ‘चर्षणि’ कहा गया है । ‘अर्य’ का शाब्दिक अर्थ उत्पादन सामर्थ्य होता है किन्तु भारतीय संदर्भ में इससे तात्पर्य सामान्य जन से है । चर्षणि शब्द प्रारम्भ में यायावर या घुमक्कड़ प्रजा का द्योतक था किन्तु जब स्थायी निकास प्रारम्भ हो गया तब प्रजा को सृष्टि कहा गया ।

इस प्रकार जब आर्य संचरणशील थे तो उन्हें चर्षणि तथा जब वे कर्षणशील बने तो उनके लिये ‘कृष्टि’ शब्द का प्रयोग किया गया । इसमें सभी प्रकार के लोग शामिल थे । ऋग्वेद में ‘वर्ण’ शब्द रड्ग के अर्थ में तथा कहीं-कहीं व्यवसाय-चयन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।

आर्यों को गौर वर्ण तथा दासों को कृष्ण वर्ण का कहा गया है । प्रारम्भ में हम तीन वर्णों का उल्लेख पाते है-ब्रह्म, क्षत्र तथा विश । जब आर्य भारत में आये तब उन्हें अनार्यो से संघर्ष करना पड़ा । इसके लिये कुछ ऐसे योद्धाओं की आवश्यकता हुई जो असुरों से उनकी रक्षा कर सके । इस कार्य के लिये उन्होंने अपने में से कुछ उत्साही वीरों को चुना और उन्हें ‘क्षत्र’ नाम दिया ।

क्षत्र का अर्थ है ‘क्षत् अर्थात् हानि से रक्षा करने वाला ।’ ऋग्वेद में क्षत्र शब्द का प्रयोग सैन्य बल तथा राज्य क्षेत्र तथा ‘क्षत्रिय’ का प्रयोग उसमें निवास करने वाली के लिये हुआ है । नायक तथा योद्धाओं को भी क्षत्रिय कहा गया है । इसी प्रकार यज्ञों को कराने के लिये जो व्यक्ति चुने गये उन्हें ‘ब्रह्मा’ कहा गया । यह विद्वान् तथा गुणवान् लोगों का वर्ग था ।

कहीं-कहीं ब्राह्मण शब्द का प्रयोग ‘पुरोहित’ के लिये भी मिलता है । शेष जनता को ‘विश’ नाम से सम्बोधित किया जाता था । ऋग्वेद में ‘विश’ शब्द का उल्लेख विविध अर्थों जैसे जनजातीय समुदाय, सन्निवेश, मनुष्यों के समूह, सामान्य प्रजा आदि, में किया गया है । आर. एस. शर्मा का विचार है कि इससे तात्पर्य संचरणशील जनजाति से है जो चारागाहों की खोज में सदा भ्रमण करती रहती थी । कालान्तर में यह उत्पादन की प्रक्रिया से संबद्ध हो गयी ।

परन्तु इन तीनों वर्णों में कोई कठोरता नहीं थी । एक ही परिवार के लोग कालान्तर में एक चौथा वर्ण ‘शूद्र’ नाम से समाज में उत्पन्न हो गया । प्रारम्भ में ऐसा माना जाता था कि शूद्र वर्ण के अन्तर्गत केवल अनार्य वर्ण के लोग ही सम्मिलित थे । किन्तु इस प्रकार की मान्यता ठीक नहीं है । आर॰ एस॰ शर्मा ने शूद्र वर्ण की उत्पत्ति के ऊपर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालते हुए यह प्रतिपादित किया है कि वस्तुतः इस वर्ग में आर्य तथा अनार्य दोनों ही वर्गों के लोग शामिल थे ।

आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के फलस्वरूप दोनों ही वर्णों में श्रमिक वर्ग का उदय हुआ । बाद में सभी श्रमिकों की सामान्य संज्ञा ‘शूद्र’ हो गयी । आर्य शिल्पियों के वंशज भी, जो अपने प्राचीन व्यवसाय में लगे रहे, शूद्र समझे गये । ऋग्वेद में उल्लिखित दास-दस्युओं की स्थिति भी इसी प्रकार की रही होगी । ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुषसूक्त में हमें सर्वप्रथम ‘शूद्र’ शब्द मिलता है ।

यहाँ चारों वर्षा की उत्पत्ति एक ‘विराट’ पुरुष’ के विभिन्न अड़ने से बताई गयी है । यह कहा गया है कि जब देवताओं ने विराट पुरुष की बलि दी तो ”उसके मुख भाग से ब्राह्मण, भुजाओं से राजन्य (क्षत्रिय) उरु भाग से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुये ।” यह वर्ण व्यवस्था का प्राचीनतम उल्लेख है । परन्तु इस समय भी वर्णों में जटिलता नहीं आई थी और वर्ण जन्मजात न होकर व्यवसाय पर आधारित होते थे । व्यवसाय-परिवर्तन सम्भव था ।

ऋग्वेद के एक स्थान पर एक ऋषि कहता है “मैं कवि हूँ । मेरा पिता वैद्य है तथा मेरी माता अन्न पीसने वाली है । साधन भिन्न है परन्तु सभी धन की कामना करते है ।” इससे स्पष्ट है कि व्यवसाय आनुवंशिक नहीं थे तथा जाति-व्यवस्था का जो संकीर्ण रूप हमें कालान्तर में देखने को मिलता है उससे ऋग्वैदिक समाज निश्चय ही अछूता था ।

c. विवाह तथा स्त्रियों की दशा:

ऋग्वैदिक समाज में विवाह एक पवित्र बन्धन माना जाता था । शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को पति की अर्धाड्गिनी कहा गया है । वह पति के साथ यज्ञीय कार्यों में भाग ले सकती थी । पत्नी से रहित व्यक्ति यज्ञ करने का अधिकारी नहीं था । ऋग्वेद में ‘जायेदस्तम्’ अर्थात् पत्नी ही गृह है, कहकर उसके महत्व को स्पष्टतः स्वीकार किया गया है ।

परिवार में एकपत्नीत्व विवाह ही सामान्यतः प्रचलित थे यद्यपि कुलीन वर्ग के कुछ लोग कई पत्नियाँ रखते थे । बाल विवाह एवं विधवा विवाह नहीं होते थे । विवाह में कन्यायें अपना मत दे सकती थीं तथा कभी-कभी अपने पतियों का चुनाव स्वयं करती थीं । भाई-बहन एवं पिता-पुत्री का विवाह वर्जित था ।

अन्तर्जातीय विवाह होते थे, परन्तु आर्यवर्ण का दासवर्ण के साथ विवाह निषिद्ध था । कन्या की विदाई के समय उपहार एवं द्रव्य दिये जाते थे जिसे ‘वहतु’ कहते थे । विधिवत् सम्पन्न हुए विवाह को स्त्री-पुरुष किसी भी प्रकार से समाप्त नहीं कर सकते थे । पुनर्विवाह एवं नियोग प्रथा प्रचलित थी ।

विवाह का मुख्य उद्देश्य पुत्र की प्राप्ति करना था । पुत्रों की बहुलता के लिये निरंतर प्रार्थना की जाती थी । एक मन्त्र में कहा गया है- हे इन्द्रदेव । इस स्त्री को दश पुत्र प्रदान करो ताकि इसका पति ग्यारहवाँ होवे (दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि) । कन्याओं का जन्म अभीष्ट नहीं था ।

पितृसत्तात्मक समाज में पुत्रों की चाह अधिक होना स्वाभाविक ही था । पुत्र ही पिता की अन्त्येष्टि संस्कार सम्पन्न कर सकता था तथा उसी से वंश-परम्परा चलती थी । नि:सन्तान व्यक्ति समाज में घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे । एक स्थान पर सन्तानहीनता को दरिद्रता के समान निन्दनीय बताया गया है ।

पिता, पुत्र के अभाव में किसी अन्य को गोद ले सकता था । समाज में सती-प्रथा के प्रचलित होने का उदाहरण नहीं मिलता । दशम मण्डल के एक सूक्त से पता चलता है कि इस प्रागैतिहासिक प्रथा की औपचारिकताओं को पूरा करने के लिये स्त्री अपने मृत पति के साथ चिता पर लेटती थी तथा फिर उसके सम्बन्धी उससे उठने के लिये आग्रह करते थे । नियोग प्रथा के प्रचलन का संकेत मिलता है जिसके अन्तर्गत पुत्र विहीन विधवा पुत्र-प्राप्ति के निमित्त अपने देवर के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करती थी ।

समाज में स्त्रियों की दशा काफी अच्छी थी । उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता थी । पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था । उनकी शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था थी । ऋग्वेद में घोषा, लोपा, मुद्रा, विश्ववारा आदि स्त्रियों के नाम आते हैं जो पर्याप्त शिक्षिता थीं तथा जिन्होंने कुछ मन्त्रों की रचना भी की थी । स्त्रियों के सामाजिक और धार्मिक अधिकार पुरुषों जैसे ही थे ।

परन्तु दो दृष्टियों से ऋग्वैदिक समाज उन्हें अयोग्य समझता था:

(1) उन्हें राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं था ।

(2) उन्हें सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार नहीं प्राप्त थे ।

(3) शेष दृष्टियों से वे पुरुषों के ही समान होती थी ।

d. भोजन तथा वक्त:

आर्य मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे । भोजन में दूध, घी, दही आदि का विशेष महत्व था । ऋग्वेद में एक स्थान पर दूध में पकी हुई खीर (क्षीर पाकौंदन) का उल्लेख हुआ है । एक अन्य स्थान पर दही में बनने वाले पनीर का उल्लेख मिलता है । घी में पके हुए मालपूवे (अपूंप घृतवंतम्) का भी वर्णन हुआ है ।

जौ की सत्तू को दही में मिलाकर ‘करंभ’ नामक खाद्य पदार्थ बनाया जाता था । ‘यवागू’ का उल्लेख मिलता है जो जौ की दलिया लगता है । भोजन को मीठा बनाने के लिये मधु का भी प्रयोग किया जाता था । मधु देवताओं को भी चढाया जाता था । मांसाहार का प्रचलन था । ऋग्वेद में नमक का उल्लेख नहीं मिलता है । प्रायः भेड़, बकरी आदि पशुओं का मांस खाया जाता था ।

गाय के लिये ‘अध्न्या’ (न मारने योग्य) शब्द मिलता है । ए॰ एल॰ बाशम के अनुसार इस शब्द से गाय की आर्थिक महत्ता सूचित होती है क्योंकि गायें ही विनिमय का माध्यम बनती थी । ऐसा लगता है कि विवाह एवं सम्मानित अतिथि के आगमन आदि के अवसरों पर ही गाय का वध होता था । शतप्रथ ब्राह्मण अतिथि के सम्मान में विशाल वृषभ अथवा बकरी को मांसाहार के लिये मारे जाने का विधान करता है ।

परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि मास के लिये गाय का वध धीरे-धीरे बन्द होने लगा था तथा उसकी पवित्रता बढ़ने लगी । कुछ विद्वानों का विचार है कि पशु बलि के निषेध के पीछे कृषि कार्यों के लिये उनकी उपयोगिता थी किन्तु यह उचित नहीं है । यह दया के कारण था न कि कृषि-व्यापार में उनकी उपयोगिता के कारण ।

यूरोप, चीन आदि में भी कृषि का प्रचार था किन्तु वहां गाय-बैल मारकर खाये जाते थे । सोम तथा सुरा आयों के मुख्य पेय थे । सोम अपनी मादकता के लिये प्रख्यात था जिसे मूजवन्त पर्वत पर प्राप्त किया था । यज्ञों के अवसर पर सोमरस पान करने तथा देवताओं को पीने के लिये उसे समर्पित करने की प्रथा थी ।

इसका पान करने से शरीर में उत्साह भर जाता था और मन में मोहक मस्ती छा जाती थी । ऋग्वेद के नवें मण्डल में सोम की स्तुति में कई सूक्त मिलते है । एक स्थान पर कण्व ऋषि दावा करते है कि सोंम रस पीने के वाद उन्होंने अमरत्व प्राप्त कर लिया है तथा देवताओं को जान लिया है ।

ऋग्वेद में सुरा के दुष्परिणामों का उल्लेख हुआ है तथा वताया गया है कि लोग इसे पीकर दुर्मद हो जाते थे और सभा-समितियों में लड़ने-झगड़ने लगते थो । सुरा की गणना क्रोध, छूत, अज्ञान आदि अनिष्टकारी वस्तुओं के साथ की गयी है ।

इसे निन्दनीय तथा त्याज्य बताया गया है । महादेवन् का विचार है कि ‘सोम’ वस्तुतः सैधव निवासियों का पेय था और आर्यों ने उन्हीं से इसे ग्रहण कर लिया था । आर्यों के वस्त्र सूत, ऊन तथा मृगचर्म से बनाये जाते थे । भेड़ की ऊन का ही वस्त्र प्रायः प्रयुक्त होता था । गन्धार प्रदेश की भेड़ें प्रसिद्ध थीं ।

वस्त्र तीन प्रकार के होते थे:

(1) नीवी जो कमर के नीचे पहना जाता था ।

(2) बासस जो कमर के ऊपर पहना जाने वाला प्रमुख वस्त्र था ।

(3) अधिवासस् जो ऊपर से धारण किया जाने वाला चादर या ओढ़नी होती थी ।

लोग वस्त्रों को काटने तथा सीने की कला से परिचित थे । कभी-कभी वस्त्रों पर सोने की तारों से कढ़ाई की जाती थी । स्त्री-पुरुष दोनों पगड़ी धारण करते थे । दोनों आभूषण पहनते थे । कानों में कर्णफूल, गले में निष्क, हाथों में कड़े, पैरों में खडुए, छाती पर सुनहले पदक तथा गले में मणियों का हार (मणि-ग्रीवा) आदि आभूषण पहने जाते थे । लोग केश प्रसाधन की कला से भी परिचित थे । स्त्रियों वालों का आ बनाती तथा पुरुष दाढी एवं जटा रखते थे । कुछ लोग के से दाढ़ी मूँछ भी बनवाते थे । ऋग्वेद में नाई को ‘वप्ता’ कहा गया है ।

e. आमोद-प्रमोद:

ऋग्वैदिक आर्य आमोद-प्रमोद का जीवन व्यतीत करते थे । जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण पूर्णतया उपयोगितावादी था । वे नृत्य एवं सड्गित में आनन्द लेते थे । रथ-दौड़, घुड़-दौड़ तथा पासा खेलना भी उनके आमोद-प्रमोद के साधन थे । जुआ (द्यूत) भी खेला जाता था । द्युतक्रीड़ा के समय लोग हार-जीत के दाँव लगाते थे ।

एक स्थान पर जुआरी पुत्र को पिता द्वारा डटे जाने का उल्लेख है । स्त्री तथा पुरुष दोनों झांझ-मंजीरे के बाजों के साथ नृत्य में भाग वाद्यों में दुन्दुभि, कर्करि, वीणा, बाँसुरी आदि का उल्लेख मिलता है । कीथ का विचार है कि ऋग्वैदिक काल में धार्मिक नाटकों का प्रदर्शन भी होता था ।

iii. आर्थिक जीवन:

a. कृषि एक पशुपालन:

आर्यों की संस्कृति मूलतः ग्रामीण थी । अतः उनके आर्थिक जीवन के मूलभूत आधार कृषि और पशुपालन थे । कृषि योग्य भूमि को ‘उर्वरा’ अथवा ‘क्षेत्र’ कहा जाता था । ऋग्वेद में लांगल तथा सीर (हल के लिये) फाल, सीता (हल के फाल से जुती हुई भूमि (कुंड) आदि का उल्लेख है । फाल सम्भवत: लकड़ी का बना होता था । हल में 6,8 या 12 तक बैल जोड़े जाते थे ।

‘अर’ शब्द का भी उल्लेख मिलता है । उल्लेखनीय है कि आज भी ग्रामीण भाषा में हल को झर कहा जाता है । इसके तात्पर्य ‘हर’ से हो सकता है । बुआई, कटाई, मड़ाई आदि क्रियाओं से लोग परिचित थे । खेत को हल-बैल की सहायता से जोतकर उसमें बीज बोया जाता था ।

पकी हुई फसलों को काटने के लिये हंसिये (दात्र, सृणि) का प्रयोग किया जाता था । सिंचाई प्रायः नहरों द्वारा होती थी । कूप तथा अवट (खोदकर बने हुए गड्डे), कुल्या (नहर) अश्मचक्र (रहट की चर्खी) आदि का उल्लेख भी ऋगवेद में मिलता है ।

चक्र (रहट) की सहायता से कूप से पानी निकाला जाता था तथा नालियों द्वारा उसे खेतों तक पहुँचाया जाता था । लोग खाद के प्रयोग से परिचित थे । खेती से उत्पन्न होने वाले अन्नों में यव एवं धान्य का उल्लेख हुआ है । परन्तु इन दोंनों शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं है । बाद में इनका अर्थ क्रमशः जौ तथा चावल हो गया । परन्तु ऋग्वैदिक आर्य चावल से परिचित नहीं थे । विविध उल्लेख सुविकसित कृषि कर्म को प्रमाणित करते हैं ।

कृषि के साथ-साथ पशु-पालन पर विशेष ध्यान दिया जाता था । पशु आर्यों की सम्पत्ति समझे जाते थे । कृषक पशुओं की वृद्धि के लिये प्रार्थना करते थे । सैनिक पशुओं को लूट के धन में पाने की आशा रखते थे तथा पुरोहित पशुओं से ही पुरष्कृत किये जाते थे । मुख्यतः गायें विनिमय का माध्यम होती थीं । ऋगवेद के कुछ सूक्तों में गाय को देवता के रूप में कल्पित किया गया है ।

अन्य पशुओं में बैल, घोड़ा, भेंड़, बकरी, गधा, कुत्ता आदि प्रमुख थे । बैलों से हल जोतने तथा गाड़ी खींचने का काम लिया जाता था । घोड़ा भी आयों का प्रिय पशु था जिसकी सहायता से वे युद्धों में विजय प्राप्त करते थे । कुछ सूक्तों में ‘दधिक्रा’ नामक एक दैवी अश्व की प्रशंसा की गयी है । आर्य हाथी से परिचित नहीं थे । पशुओं के कानों पर स्वामित्व-सूचक चिह्न बना दिये जाते थे ।

गाय को ‘अष्टकर्णी’ (छेदी हुई कानों वाली अथवा कानों पर 8 के चिह्न से अंकित) कहा गया है । आर. एस. शर्मा का मत है कि ऋग्वैदिक आर्य मुख्यतः पशुचारी थे तथा कृषि का उनके जीवन में गौण स्थान था । यही कारण है कि ऋगवेद में पशुपालन की तुलना में कृषि का उल्लेख बहुत कम मिलता है । इसके 10462 मंत्रों में केवल 24 में ही कृषि का उल्लेख प्राप्त होता है ।

किन्तु हम देख चुके है कि ऋग्वेद में राष्ट्र, राज्य, राजा जैसे शब्द, संसद, सभा, समिति जैसी संस्थायें तथा अध्यक्ष, सेनानी, दूत, राष्ट्रपति जैसे पदाधिकारियों के नाम मिलते है । इनसे सूचित होता है कि समाज पूर्णतया ग्रामीण नहीं था अपितु इसमें ग्रामीण तथा शहरी, दोनों ही तत्व साथ-साथ विद्यमान थे ।

ग्रामों का विवरण सूचित करता है कि उनमें काफी बड़ी बस्तियों भी थीं जिनमें अनेक घोड़ों के रथ पर बैठकर लोग अपने घर से उत्सव आदि में जा सकते थे । अतः ऋग्वैदिक समाज को पूर्णतया पशुचारी अथवा घुमक्कड़ कहना समीचीन नहीं होगा । सिन्धु तथा वैदिक समाज के सांस्कृतिक स्तर में बहुत अधिक विभिन्नता नहीं है ।

वैदिक काल में भी संगठित प्रशासन, दुर्गीकृत भवन तथा थल और जल व्यापार के उदाहरण मिलते है । न तो सिन्धु सभ्यता मात्र नागरिक थी और न ही वैदिक सभ्यता मात्र पशुपालक अथवा घुमक्कड़ । दोनों में ही नागर तथा ग्राम्य तत्व विद्यमान थे ।

b. व्यापार और वाणिज्य:

मूलत कृषक एवं पशुपालक होते हुए भी आर्य व्यापार और वाणिज्य के प्रति उदासीन नहीं थे । व्यापार-वाणिज्य प्रधानतः ‘पाणि’ वर्ग के लोग करते थे । ‘पणि’ शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में कई स्थानों पर हुआ है । इसके समीकरण के विषय में विद्वानों में मतभेद है ।

जिमर तथा लुडविग इस शब्द का अर्थ व्यापारी बताते है । ऋग्वेद में एक स्थान पर देवताओं तथा पणियों के बीच संघर्ष तथा देवताओं द्वारा उनके संहार का वर्णन मिलता है । इस आधार पर लुडविग का विचार है कि वे आदिम व्यापारी थे जो अरब तथा उत्तरी अफ्रीका के व्यापारियों की भाँति काफिलो में चलते थे । अपने जान-माल की सुरक्षा के लिए निमित्त उनके पास सेना होती थी । वे आवश्यकता पड़ने पर अपनी वस्तुओं की रक्षा के लिये आर्य आक्रमणकारियों से युद्ध करने को तैयार रहते थे ।

ए॰ सी॰ दास की मान्यता है कि पणि आर्य व्यापारी ही थे जो सप्तसिन्धु से निष्कासित होने के उपरान्त फोनेशिया में जाकर बस गये थे । कुछ अन्य विद्वान् ‘पणि’ का समीकरण बेवीलोनियनों, पाण्डवों आदि से करते हैं । लगता है कि वे आर्य व्यापारी ही थे जो अपने कार्य के कारण वैदिक ऋषियों की निन्दा के पात्र बन गये । कालान्तर में वे वैश्य वर्ण के साथ संयुक्त हो गये ।

पणि अपनी कृपणता के लिये प्रसिद्ध थे । वे ऋण देते थे तथा ब्याज बहुत अधिक लेते थे । उन्हें ‘वेकनाट’ (सूदखोर) कहा गया है । व्यापार अदल-बदल (Barter) प्रणाली पर आधारित था । अनेक स्थानों पर वस्तुओं को खरीदते समय मोल-भाव किये जाने का उल्लेख मिलता है । विनिमय के माध्यम के रूप में ‘निष्क’ का उल्लेख हुआ है परन्तु इसका समीकरण विवादग्रस्त है ।

संभवतः प्रारम्भ में यह हार जैसा कोई स्वर्णाभूषण था परन्तु बाद में सिक्के के रूप में प्रयोग किया जाने लगा । कपड़ा, चादर तथा चमड़े का व्यापार होता था । स्थल का व्यापार मुख्यतः रथों एवं बैलगाड़ियों द्वारा होता था । ऋग्वेद में समुद्र शब्द आया है ।

कुछ विद्वान् ‘समुद्र’ का अर्थ विशाल ‘जल-समूह’ लगाते है । राधा कुमुद मुकर्जी के मतानुसार ऋग्वेद में समुद्र का प्रयोग निश्चित रूप से सागर के लिये हुआ है समुद्र की विशालता, गर्जन तथा तरंगों का उल्लेख मिलता है जहाँ नदियां समाहित होती थीं ।

एक स्थान पर भुज्यु की समुद्र यात्रा का वर्णन है जिसने मार्ग में जलयान के नष्ट हो जाने पर आत्मरक्षा के लिये अश्विनि कुमारों से प्रार्थना की । अश्विनि कुमारों ने उसकी रक्षा के लिये सौ पतवारों वाला जहाज (शतारित्रा) भेजा । यह उल्लेख समुद्री यात्रा की ओर संकेत करता है ।

एक अन्य स्थल पर समुद्र से प्राप्त होने वाले धन (वसूनि समुद्रात) का उल्लेख मिलता है तथा उसे प्रदान करने के निमित्त सोम का आवाह किया गया है । पतवार को ‘अरित्र’ तथा नाविक को अरितृ कहा गया है । इन उल्लेखों से विकसित सामुद्रिक व्यापार का परिचय मिलता है ।

c. व्यवसाय एवं उद्योग-धन्धे:

ऋग्वैदिक समाज में व्यवसाय (Hereditary) आनुवंशिक नहीं थे । तथापि ब्राह्मण मुख्यतः याज्ञिक क्रियाओं को सम्पन्न कराते थे, क्षत्रिय युद्ध सम्बन्धी कार्यों में व्यस्त रहते थे, वैश्य कृषि, पशुपालन तथा धन उधार देने का काम करते तथा शूद्र मुख्यतः तीनों वर्णों की सेवा करते थे । परन्तु शूद्रों के अतिरिक्त अन्य तीनों वर्णों के लोग किसी भी पेशे को अपना सकते थे । ऋग्वैदिक कवियों में अनेक राजन्य (क्षत्रिय) वर्ग के हैं। ब्राह्मण भी यदा-कदा धन उधार देने का कार्य करते थे ।

इन चार वर्णों के अतिरिक्त ऋग्वेद में कुछ अन्य व्यवसायियों के भी नाम मिलते है । इनमें ‘तक्षा’ (बढई), कर्मा (धातु कर्म करने वाले), स्वर्णकार, चर्मकार, वाय (जुलाहे) कुम्भकार आदि प्रमुख है । बढ़ई तथा संभवतः शिल्पियों का मुखिया होता था । वह सभी प्रकार की लकड़ी की वस्तुओं, विशेषकर रथ तथा गाड़ियों का निर्माण करता था ।

आर्यों के सामरिक जीवन में रथों का अधिक महत्व होने के कारण ‘तक्षा’ की सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक बढी हुई थी । कुछ लोग धातुओं को गलाने तथा उन्हें पीटकर विविध वस्तुऐं बनाने के कार्य में भी कुशल थे । ‘अयस’ नामक धातु का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता है जिसकी सहायता से घरेलू उपयोग के वर्तनादि बनाये जाते थे। ‘अयस्’ की पहचान असंदिग्ध रूप से नहीं की जा सकती । कुछ विद्वान् इसे ताँबा, कांसा या लोहा बताते हैं । किन्तु ऋग्वैदिक आर्य लोहे से परिचित नहीं थे । कताई-बुनाई का कार्य स्त्री-पुरुष दोनों ही करते थे ।

सूत, रेशम तथा ऊन से वस्त्र बनाये जाते थे । ऋग्वेद से पता चलता है कि सिन्ध तथा गन्धार प्रदेश सुन्दर ऊनी वस्त्रों के लिये विख्यात था । परूष्णी (रावी) नदी के तट पर बाढिया किस्म के रंगीन ऊनी वस्त्र बनाये जाते थे ।

गन्धार प्रदेश की भेड़ें अपने चिकने ऊन के लिये सर्वत्र विख्यात थीं । चर्म उद्योग भी ज्ञात था। बैल आदि पशुओं के चमड़े से कोड़े, लगाम, डोरी, थैले आदि बनाये जाते थे। भट्ठी में धातु गलाने वाले को ‘ध्याता’ तथा ‘द्रविता’ एवं मिट्टी के बर्तन बनाने वाले को कुलाल’ कहा गया है ।

इसके अतिरिक्त वैद्य (भिषक) नर्तक-नर्तकी, नाई (वाप्तृ) गायक, वादक, नर्तक तथा सुरा बेचने वालों का भी अलग वर्ग था । ऋग्वैदिक काल में इनके कोई भी व्यवसायी तुच्छ नहीं समझा जाता था, बल्कि सभी की अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा थी ।

d. धर्म तथा धार्मिक विश्वास:

ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक तथा आर्थिक जीवन जितना ही सरल था, धार्मिक जीवन उतना ही अधिक विशद तथा जटिल । यहाँ हमें प्रारम्भ में ‘बहुदेववाद’ के दर्शन मिलते हैं । यास्क के निरुक्त में देवताओं की संख्या मात्र तीन बताई गयी है- पृथ्वी में अग्नि, अन्तरिक्ष में इन्द्र या वायु तथा आकाश में सूर्य ।

ये तीन देवता तीन लोकों के स्वामी थे । ऋग्वेद में एक अन्य स्थल पर प्रत्येक लोक में ग्यारह देवताओं का निवास मानकर उनकी संख्या तैंतीस कही गयी है । आर्यों के प्रधान देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतिनिधि है जिनका मानवीकरण किया गया है ।

ऋग्वैदिक देवताओं का वर्गीकरण तीन भागों में किया है:

(1) पृथ्वी के देवता- पृथ्वी, अग्नि, सोम, वृहस्पति, अपानपात, मातरिश्वन् तथा नदियों के देवता आदि ।

(2) अतंरिक्ष के देवता- इन्द्र, रुद्र, वायु-वात, पर्जन्य, आप:, यम, प्रजापति, अदिति आदि।

(3) हुस्थान (आकाश) के देवता- द्योस, वरुण, मित्र, सूर्य, सवितृ, पूषन, विष्णु, आदित्य, उषा, अश्विन् आदि ।

इसके अतिरिक्त कुछ अमूर्त भावनाओं के द्योतक देवता भी है जैसे- श्रद्धा, मन्यु, धातृ, विधातृ आदि । ऋग्वैदिक मण्डल में पुरुष देवताओं की संख्या ही अधिक है । कुछ देवियों के भी नाम मिलते हैं । सिन्धु नदी को देवी के रूप में मान्यता दी गयी है । जंगल की देवी को ‘अरण्यानी’ कहा गया है । वाग्देवी सरस्वती की भी स्तुति की गयी है । समस्त देव समूह में इन्द्र, वरुण तथा अग्नि का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान था ।

इन्द्र को विश्व का स्वामी कहा गया है । वह प्रधानत युद्ध का देवता है । आर्यों का विचार था कि उसी ने असुरों पर विजय दिलायी । इन्द्र की प्रमुख संज्ञा ‘पुरन्दर’ थी । यह मेघों को रोककर जल की वर्षा करता था । वरुण जगत का नियन्ता, देवताओं का पोषक तथा ऋत का नियामक था ।

वह आकाश, पृथ्वी तथा सूर्य का भी निर्माता था । ‘वायु’ उसका श्वास था तथा वह ऋतुओं को नियमित करता था । वह सभी मनुष्यों के कार्यों का निरीक्षण सूर्यरूपी नेत्र से करता है तथा पापियों को अपने पाश में आबद्ध कर लेता है । उसे जल का भी स्वामी कहा गया है । ऋग्वैद में लगभग एक चौथाई सूक्त इन्द्र को समर्पित हैं । वैदिक काल के बाद वरुण का महत्व घट गया तथा वह एकमात्र जल का देवता रह गया ।

पृथ्वी के देवताओं में अग्नि का महत्व सबसे अधिक था । कुछ स्थानों पर उसे द्यौस् तथा पृथ्वी का पुत्र कह गया है । इसी के द्वारा यज्ञ सम्पन्न होते थे तथा यही आहुतियों को देवताओं तक पहुँचाता था । दैनिक कार्यों में अग्नि का उपयोग था । इसी के द्वारा दाहकर्म किया जाता था । अग्नि का संबंध विभिन्न देवताओं से जोड़ा गया है । अग्नि को सूर्य का ही रूप कहा गया है ।

वह चर-अचर का ज्ञाता है, इसीलिए इसे ‘जाति वेदस्’ कहा गया । सूर्य के समान सर्वद्रष्टा होने के कारण उसका नाम ‘भुवनचक्षु’ है । वह राक्षसों, पिशाचों, आदि का विनाशक तथा मनुष्यों का मित्र एवं रक्षक था जिसके कारण उसे पिता, बन्धु, मित्र भी कहा गया है। शीत, रोग, अंधकार, हिंसक पशु सभी उसके भय से दूर भागते थे । इस प्रकार अग्नि का महत्व विविध प्रकार का था ।

अग्नि के बाद पृथ्वीवासी देवताओं में सोम, महत्वपूर्ण था । यह देवताओं का प्रमुख पेय भी था जिसमें देवत्व का आरोपण किया गया । वह आनन्द तथा प्रफुल्लता का देवता बन गया। आकाश के देवताओं में सूर्य सर्वप्रमुख थे जिनकी स्तुति पूरे दस सूक्तों में की गयी है । उन्हें सर्वदर्शी एवं स्पश् कहा गया है । सविता उन्हीं का एक रूप है । अश्विन् नाम दो युग्म देवता देवों के कुशल चिकित्सक है । उन्हें ‘नासत्य’ कहा जाता है । इन्द्र, अग्नि और सोम के पश्चात् सर्वाधिक सूक्त इन्हीं को समर्पित है ।

ऋग्वैदिक आर्यों ने अपने देवताओं की कल्पना मनुष्य रूप में ही किया तथा उनमें समस्त मानवोचित गुणों को आरोपित कर दिया । देवता तथा मनुष्य में मुख्य अन्तर यह था कि देवता अमर माने गये जबकि मनुष्य मर्ज था । देवता मनुष्यों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होते थे तथा उनमें मनुष्यों जैसी दुर्बलताऐं भी नहीं थीं ।

‘सोमरस’ देवताओं का मुख्य पेय कहा गया है । रुद्र के सिवाय अन्य देवताओं का स्वरूप मंगलकारी बताया गया है । वे आसुरी शक्तियों का दमन करते है तथा प्रकृति की व्यवस्था के नियामक हैं । सज्जनों को पुरस्कृत एवं दुर्जनों को दण्डिएत करना उनका कार्य है ।

उनका निवास-स्थान स्वर्ग या विष्णु का तृतीय पद बताया गया है जहाँ सोमरस पान करते हुए वे सुखपूर्वक निवास करते हैं । इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन हैं, यह निर्धारित करना कठिन है । ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की प्रार्थना की है उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का आरोप कर दिया है ।

मैक्समूलर ने इस प्रवृत्ति को हेनोथीज्म (Henotheism) कहा है । यहाँ उल्लेखनीय है कि ऋग्वैदिक देवता प्रधानत पुरुष देवता है । कभी-कभी देवताओं की कल्पना पशु-रूप में भी मिलती है, जैसे- इन्द्र या द्यौस को वृषभ एवं सूर्य को अश्व के रूप में कल्पित किया गया है ।

परन्तु इससे ऐसा समझ लेना कि ऋग्वैदिक आर्य पशुओं की भी पूजा करते थे, समीचीन नहीं होगा । किसी पशु को पूर्वज मानकर उसे पवित्र और देवता मानने का विश्वास भी ऋग्वेद में नहीं मिलता । कहीं-कहीं इन्द्र की मूर्ति को शत्रुओं से रक्षा करने वाली कहा गया है ।

इससे गंडे-ताबीज में विश्वास (Fetishism) की कुछ झलक मिलती देवताओं की उपासना यज्ञों द्वारा की जाती थी । यज्ञ में दूध, अन्न, घी, माँस तथा सोम की आहुतिया दी जाती थीं । यज्ञीय विधि-विधान अत्यन्त जटिल थे । ऋग्वेद में धर्म शब्द विधि (Laws) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसका सम्बन्ध नैतिकता से नहीं है ।

धर्म के अतिरिक्त हमें दूसरा शब्द कर मिलता है । जी. सी. पाण्डे ‘ऋत’ की व्युत्पति ‘ऋ’ धातु से मानते हुए इसका अर्थ गति और गति का मार्ग, हेतु और लक्ष्य करते है । सभी देवताओं का सम्बंध ‘ऋत्’ (विश्व की नैतिक एवं भौतिक व्यवस्था) से माना गया है । ‘ऋत्’ का अर्थ है सत्य तथा अविनाशी सत्ता । ऋग्वेद में इसकी बड़ी ही सुन्दर कल्पना मिलती है । बताया गया है कि सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ‘ऋत्’ की ही उत्पत्ति हुई थी ।

फिर रत्रि जन्मी, फिर तरंगित समुद्र । तरंगित समुद्र से संवत्सर का जन्म हुआ । जंगम विश्व के स्वामी ने दिन तथा रात्रि बनाई । विधाता ने सूर्य और चन्द्र को पूर्ववत् संकल्पित किया, आकाश और पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा सूर्य को । इस प्रकार ‘ऋत्’ के द्वारा विश्व में सुव्यवस्था तथा प्रतिष्ठा स्थापित होती है । यह विश्व की व्यवस्था का नियामक है ।

देवता ऋत् के स्वरूप हैं अथवा ऋत् से उत्पन्न होते है तथा वे अपनी दैवी शक्तियों के द्वारा ऋत् की रक्षा करते है । डॉ. राधाकृष्णन् ने ऋत् को सदाचार का मार्ग तथा बुराइयों से रहित यथार्थ पथ बताया है । धर्म तथा ऋत् का सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है । कालान्तर में दोनों परस्पर संयुक्त हो गये तथा धर्म का स्वरूप नैतिक हो गया ।

देवोपासना मुख्यतः भौतिक कल्याण, जैसे-युद्ध में विजय, अच्छी खेती, संतान-प्राप्ति आदि के लिये की जाती थी । उपासना का लक्ष्य पारमार्थिक सुख नहीं था । देवता आहुतियों द्वारा प्रसन्न होते तथा फल प्रदान करते थे । कुछ यज्ञ अत्यन्त विस्तृत एवं खर्चीले होते थे जिनका अनुष्ठान सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं थी ।

सोमयज्ञ ऋग्वैदिक आयी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रसिद्ध यह था जिसका विस्तृत विवरण मिलता है । यह एक दिन (एकाह), दो दिन से बारह दिन (अहीन) तथा तेरह दिनों से लेकर एक हजार वर्ष तक सम्पन्न होने वाला यज्ञ था । इसके लिये तीन-तीन वेदियों तथा अस्तियों, बहुसंख्यक पुजारियों (जिसमें चार प्रधान होते थे) की आवश्यकता पड़ती थी ।

चूंकि इसमें सोमलता के रस की आहुति दी जाती थी, अतः इसका नाम ‘सोमयज्ञ’ अथवा ‘सामयाग’ पड़ गया । इसकी व्यय साध्यता के कारण केवल राजन्य और सम्पन्न वर्ग के लोग ही इसे कर पाते थे । ऋग्वेद का दृष्टिकोण स्पष्टतः कुलीनतन्त्रीय था जिसमें जनता के लिये उपयुक्त लोकप्रिय धर्म बहुत कम मिलता हैं ।

परन्तु देवताओं की बहुलता एवं कर्मकाण्डों की जटिलता बहुत दिनों तक नहीं चल सकी । शीघ्र ही ऋग्वैदिक ऋषियों ने बहुदेववाद को चुनौती दी । देवताओं की संख्या कम करने के लिये कुछ को मिलाकर एक ही श्रेणी में कर दिया गया । पृथ्वी तथा आकाश को मिलाकर ‘द्यावापृथ्वी’ नाम दिया गया ।

मित्र-वरुण, ऊषा-रात्रि को संयुक्त किया गया । मरुतों, आदित्यों तथा अश्विनों की भी एक ही श्रेणी मानी गयी । किन्तु उन्हें इतने से ही संतोष नहीं हुआ । वे तो सर्वोच्च देवता की खोज करना चाहते थे । उनकी जिज्ञासा बढ़ती गयी तथा अपने चिंतन के अंतिम स्तर पर उन्होंने यह जान लिया कि ‘सत्’ एक है, ज्ञानी लोग उसे अनेक नामों से पुकारते हैं- अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि ।

प्रसिद्ध पुरुषसूक्त में वैदिक ऋषि सम्पूर्ण जगत् को एक रूप में देखते है । सृष्टि को ‘विराट पुरुष’ के आत्मयज्ञ का परिणाम बताया गया है । उसे विश्वकर्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, अदिति आदि नाम दिये गये है । मानव चिन्तन के इतिहास में यह अद्वैतवाद की प्रथम अनुभूति है ।

इसके अनुसार ‘विराट पुरुष सहस्त्र सिर, नेत्र तथा सहस्त्र पैरों से युक्त है । वह सम्पूर्ण पृथ्वी में व्याप्त है तथा उससे दश अंगुल भी परे नहीं है । जो कुछ भी है तथा होने वाला है वह सब पुरुष ही है । वही अमरत्व का स्वामी ।

अन्न से पोषित होने वाले समस्त प्राणियों में उसी की सत्ता है । उसकी इतनी बड़ी महिमा थी और उससे भी महान् वह पुरुष था । समस्त विश्व उसका एक पाद है तथा उसका तीन पाद बाहर अन्तरिक्ष में । उसके एक पाद से समस्त भूत व्याप्त है तथा तीन पाद द्युलोक स्थित अमृत है ।

यही चारों ओर चराचर जगत् में व्याप्त है । इसी प्रकार एक अन्य सूक्त में बताया गया है कि समस्त देवताओं के भीतर वर्तमान सामर्थ्य एक ही है (महत् देवामामसुरत्वमेकम्) । ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में निर्गुण ब्रह्म का वर्णन प्राप्त होता है ।

देवताओं को ‘असुर’ (असु अर्थात् प्राणशक्ति सम्पन्न) कहा गया है । कालान्तर में यह शब्द राक्षसों का सूचक हो गया । ऋग्वैदिक आर्यों के परलोक विषयक विचार अधिक स्पष्ट नहीं है । एक स्थान पर मृतात्मा को यम द्वारा शासित लोक में शांतिपूर्वक सुख के साथ निवास करने बाला कहा गया है ।

स्वर्ग की बड़ी सुन्दर एवं मनोरम कल्पना मिलती है । बताया गया है कि- ‘जहां दिन, रात तथा जल सभी सुन्दर तथा आनन्ददायक होते हैं । वहाँ मनुष्य बलिष्ठ तथा सुन्दर शरीर को प्राप्त करता है और उसका शरीर सभी प्रकार की दुर्बलताओं, आधि-व्याधि आदि से मुक्त हो जाता है ।

पुण्यकर्मी प्राणी अपने यज्ञादि कर्मों का फल वहां प्राप्त करते हैं । वहाँ अश्वत्थ वृक्ष है जिसके नीचे यम, देवताओं के साथ पान करते हैं ।’ नरक की कल्पना दुष्किर्मियों के लिये दण्ड स्थान के रूप में की गई है । ऐसा लगता है कि लोग पापकर्म के दुष्परिणामों से डरते थे । पाप, ऋत् के उल्लड्थन से पैदा होता था । ‘ऋत’ के मार्ग को श्रेष्ठ कहा गया है (सुगाऋतस्य पंथा) ।

देवताओं की उपासना, यज्ञीय विधि-विधानों का अनुष्ठान तथा ईश्वर की इच्छा के अनुकूल आचरण करना- ये ही नैतिक जीवन के आदर्श थे । ऋगवैदिक ऋषियों के विचार पूर्णतया आशावादी थे जिसमें निराशावाद की कोई झलक नहीं मिलती है । जीवन चाहे सत्य रहा हो या झूठ, वे उसका पूर्ण उपभोग करना चाहते थे ।

ऋग्वेद दीर्घ आयु, रोगों से मुक्ति, वीर-सन्तति, धन, शक्ति, खानपान की अधिकता, शत्रुओं पर विजय आदि की प्रार्थनाओं से भरा हुआ है । ऋग्वैदिक ऋषि ने जीवन को बन्धन मानकर उसके सुखों की उपेक्षा करने का कभी प्रयास नहीं किया और न ही कायाक्लेश आदि में ही विश्वास किया ।

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