चंदेला वंश: चंदेला राजवंश का इतिहास, युद्ध और गिरावट | Chandela Dynasty: History, Wars and Decline of Chandela Dynasty.

चन्देल वंश के इतिहास के साधन (Tools of History of Chandela Dynasty):

प्रतिहार साम्राज्य के पतन के पश्चात् बुन्देलखण्ड के भूभाग पर चन्देल वंश के स्वतंत्र राजनीतिक इतिहास का प्रारम्भ हुआ । बुन्देलखण्ड का प्राचीन नाम जेजाकभुक्ति है ।

महोबा से प्राप्त एक लेख से पता चलता है कि इस वंश के तीसरे शासक जयशक्ति (जिसका प्राकृत रूप ‘जेजा’ या ‘जेज्जा’ मिलता है) ने अपने द्वारा शासित प्रदेश का नामकरण अपने नाम पर ‘जेजाभुक्ति’ अथवा जेजाकभुक्ति ठीक उसी प्रकार किया जिस प्रकार राजा पृथु के नाम पर पृथ्वी का नामकरण हुआ । कालान्तर में इसी का नाम जुझौती तथा बुन्देलों के नाम पर बुन्देलखण्ड भी पड़ गया । चन्देल शासन में यह भूभाग राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से उत्कर्ष की चोटी पर पहुंच गया ।

चन्देलवंश के इतिहास के सर्वाधिक प्रामाणिक साधन उसके शासकों द्वारा उत्कीर्ण करवाये गये बहुसंख्यक अभिलेख हैं ।

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इनका विवरण इस प्रकार है:

(i) खजुराहो (छतरपुर, म. प्र.) के विक्रम संवत् 1011 (954 ईस्वी) तथा विक्रम संवत् 1059 अर्थात् 1002 ईस्वी के लेख ।

(ii) नन्यौरा (हमीरपुर, उ.प्र.) से प्राप्त विक्रम संवत् 1055 अर्थात् 998

(iii) मऊप्रस्तर अभिलेखा ।

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(iv) महोबा के किले की दीवार पर अंकित विक्रम संवत 1240 अर्थात् 1183 ईस्वी का लेख ।

उपर्युक्त लेखों में खजुराहो से प्राप्त हुए लेखों का सका-लेक महत्व है । ये दोनों चन्देल शासक धंग के समय के है । इनमें चन्देल शासकों की वंशावली तथा यशोवर्मा और धंग की उपलब्धियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । इस प्रकार ये लेख चन्देलवंश के इतिहास का अध्ययन करने के लिये हमारे प्रमुख साधन है । चन्देल राजाओं ने ही सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग अपने लेखों में करवाया था ।

चन्देलवंश के इतिहास पर प्रकाश डालने वाले ग्रन्थों में कृष्णमिश्र के प्रबोध- चन्द्रोदय, राजशेखर का प्रबन्धकोश, चन्दबरदाई कृत पृथ्वीराजरासो तथा परमालरासो, जगनिक कृत आल्हाखण्ड आदि महत्वपूर्ण हैं । प्रबोधचन्द्रोदय से चन्देल तथा चेदि-राजाओं के संघर्ष का ज्ञान होता है ।

प्रबन्धकोश के मदनवर्म-प्रबन्ध से चन्देल नरेश मदनवर्मा के विषय मैं सूचना मिलती है । चन्दबरदाई तथा जगनिक के ग्रंथ चाहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय तथा चन्देल शासक परमर्दि के बीच संघर्ष आदि का रोचक विवरण प्रस्तुत करते हैं । ये ग्रंथ तत्कालीन संस्कृति पर भी प्रकाश डालते है ।

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मुस्लिम लेखकों के विवरण भी चन्देल इतिहास के ज्ञान में सहायता देते हैं । इनमें इब्ज-उल-अतहर, निजाममुद्दीन हसन निजामी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । अतहर तथा निजामुउदीन, महमूद गजनवी तथा चन्देल शासक विद्याधर के बीच होने वाले संघर्ष का विवरण देते है तथा विद्याधर की शक्ति की प्रशंसा करते है ।

हसन निजामी के विवरण से कुतुबुद्दीन द्वारा चन्देल राज्य पर आक्रमण तथा उसे जीते जाने का वृत्तान्त ज्ञात होता है । चन्देल शासकों द्वारा बनवाये गये अनेक मन्दिर तथा मूर्तियों खजुराहो से मिलती हैं । इनसे जहाँ एक ओर उनके धार्मिक विचारों तथा विश्वासों का पता लगता है वहीं दूसरी ओर कला एवं स्थापत्य का गान करने में भी सहायता मिलती है ।

चन्देल वंश के राजनैतिक इतिहास (Political History of Chandela Dynasty):

चन्देलों की उत्पत्ति अन्धकारपूर्ण है । लेखों में उन्हें चन्द्रात्रेय ऋषि का वंशज कहा गया है जो अत्रि के पुत्र थे । चन्देल अपना सम्बन्ध चन्द्रमा से जोड़ते हैं जो इस बात का सूचक है कि वे चन्द्रवंशी क्षत्रिय रहे होंगे । चन्देल वंश की स्थापना 831 ईस्वी के लगभग नन्नुक नामक व्यक्ति ने की थी । उसकी उपाधि ‘नृप’ तथा ‘महीपति’ की मिलती है ।

इससे सूचित होता है कि वह स्वतंत्र शासक न होकर कोई सामन्त सरदार रहा होगा । इस समय की सार्वभौम सत्ता प्रतिहारों की थी । अत: नन्नुक ने उन्हीं के अधीन अपना शासन प्रारम्भ किया । नन्नुक के बाद क्रमशः वाक्पपति, जयशक्ति, विजयशक्ति तथा राहिल के नाम मिलते है ।

इनमें से प्रत्येक ने एक दूसरे के बाद सामन्त रूप में ही शासन किया तथा यथासंभव अपनी शक्ति का विस्तार करते रहे । प्रारम्भिक राजाओं में राहिल कुछ शक्तिशाली था । खजुराहों लेख में उसकी शक्ति एवं वीरता की प्रशंसा की गयी है । वह एक निर्माता भी था जिसने मन्दिर एवं तालाब बनवाये थे । इनमें अजयगढ का मन्दिर तथा महोबा के समीप राहिल सागर तालाब विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

i. हर्ष:

लगभग 900 ई. तक चन्देलों ने प्रतिहारों की अधीनता में शासन किया तथा धीरे-धीरे अपनी शक्ति का विस्तार करते रहे । राहिल का पुत्र तथा उत्तराधिकारी हर्ष (900-925 ईस्वी) एक शक्तिशाली शासक था जिसके समय में चन्देलों ने प्रतिहारों की दासता का जुआ उतार फेका । खजुराहो लेख में उसे ‘परमभट्टारक’ कहा गया है जो उसकी स्वतन्त्र स्थिति का द्योतक है ।

नन्यौरा पत्र से पता चलता है कि हर्ष की भयानक सेना ने चारों ओर आतंक फैला दिया तथा अनेक राजाओं को करद बना लिया । यह भी कहा गया है कि अपने शत्रुओं को पराजित करने के उपरान्त हर्ष ने सम्पूर्ण पृथ्वी की रक्षा की । इन विवरणों में स्पष्ट होता है कि हर्ष अपने पूर्वगामियों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली था ।

खजुराहो लेख के अनुसार उसने प्रतिहार शासक क्षितिपाल (महीपाल) को पुन कन्नौज की गद्दी पर बैठाया । ऐसा प्रतीत होता है कि महीपाल को राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय ने परास्त कर कन्नौज की गद्दी से उतार दिया था परन्तु चन्देल हर्ष की सहायता पाकर वह पुन: कन्नौज जीतने में सफल हुआ ।

इससे यह सूचित होता है कि प्रतिहार साम्राज्य उत्तरोत्तर निर्बल हो रहा था तथा उसके स्थान पर चन्देल शक्ति उभर रही थी । यद्यपि हर्ष के कुछ समय बाद तक भी चन्देल प्रतिहारों के सामन्त बने रहे तथापि उनकी अधीनता नाममात्र की ही थी ।

हर्ष ने अपने समकालीन दो राजवंशों-चौहान तथा कलचुरि-के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली । उसने अपने वंश की कन्या नट्‌टादेवी का विवाह कलचुरि नरेश कोक्कल के साथ तथा स्वयं अपना विवाह चाहमान वंश की कन्या कंचुका के साथ किया था ।

कलचुरि राष्ट्रकूटों के भी सम्बन्धी थे और कोक्कल ने अपनी कन्या का विवाह राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय के साथ किया था इस प्रकार हर्ष को कलचुरियों के साथ-साथ राष्ट्रकूटों का भी समर्थन प्राप्त हो गया । अपने प्रतिहार अधिपति को खुली चुनौती दिये बगैर ही हर्ष ने धीरे-धीरे अपनी आन्तरिक एवं बाह्य शक्ति काफी मजबूत बना लिया । वह वैष्णव धर्मावलम्बी था ।

ii. यशोवर्मन्:

हर्ष के बाद उसका पुत्र यशोवर्मन् (लक्ष्मणवर्मन्) 930 ईस्वी में गद्दी पर बैठा । वह एक साम्राज्यवादी शासक था । सौभाग्यवश तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितिया उसकी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये सर्वथा अनुकूल थीं । राष्ट्रकूटों के आक्रमण ने प्रतिहार साम्राज्य को जर्जर बना दिया था । गोविन्द चतुर्थ के समय में आन्तरिक कलह के कारण राष्ट्रकूटों की स्थिति भी दयनीय हो गयी तथा वे उत्तर की राजनीति में सबल भूमिका नहीं निभा सकते थे ।

ये स्थितियाँ यशोवर्मन् के लिये लाभकारी सिद्ध हुई तथा वह अपनी शक्ति एवं साम्राज्य को बढ़ाने में तत्पर हुआ । सर्वप्रथम उसने कन्नौज पर आक्रमण कर प्रतिहार-साम्राज्य को समाप्तप्राय कर दिया । इसके बाद उसने राष्ट्रकूटों से कालंजर का प्रसिद्ध दुर्ग जीत लिया ।

खजुराहो के लेख में यशोवर्मन् को गौड़, खस, कोसल, कश्मीर, मालव, चेदि, कुरु, गुर्जर आदि का विजेता बताया गया है । उसके अनुसार वह गौडरूपी क्रीडालता के लिये तलवार था, खसों की सेनाओं का सामना किया, कोशलों को लुटा, कश्मीर के शासक का नाश किया, मिथिला नरेश को शिथिल किया, मालवों के लिये काल के समान था, उसके सामने चेदि का शासक काँपने लगा, वह कुरुरूपी वृक्ष के लिये आंधी के समान था तथा गुर्जरों को जलाने वाला था ।

आगे कहा गया है कि ‘भय से रहित होकर उसने उस चेदि नरेश को युद्ध में बुरी तरह पराजित कर दिया जिसके पास अगणित सेना थी । क्षेत्रों की विजय के समय उसके सैनिक धीरे-धीरे उन बर्फीली चोटियों पर चढ़ने में सफल हुए जहां उमा ने स्वर्ग के प्रत्येक वृक्ष से लाकर फूल एकत्र कर रखा था तथा जहाँ गंगा की तेज धाराओं की ध्वनि से उसकी अश्व सेना भय के कारण अव्यवस्थित हो गयी थी ।

उसने शिव के निवास स्थल कालंजर पर्वत को आसानी से जीत लिया जो इतना ऊंचा है कि दोपहर में सूर्य की गति को बाधित कर देता है । उसने कलिन्द तथा जह्नु की पुत्रियों-यमुना तथा गंगा, को बारी-बारी से अपना क्रीड़ा-सरोवर बनाया तथा उनके तटों पर शिविर स्थापित किया, किसी भी शत्रु द्वारा अनादृत, उसके भयंकर हाथियों के स्थान द्वारा उनका जल मैला कर दिया गया ।’

स्पष्टतः यशोवर्मा ने अपना प्रभाव हिमालय से लेकर मालवा तक तथा कश्मीर से लेकर बंगाल तक बड़ा लिया । यद्यपि यह विवरण अतिरंजित लगता है तथापि इसमें सदेह नहीं कि उसने उत्तर भारत के एक बड़े क्षेत्र को रौद डाला था । चेदि पर उसकी विजय एक वास्तविकता है ।

उसका समकालीन चेदि नरेश संभवतः लक्ष्मणराज अथवा उसका पूर्वगामी युवराज प्रथम था जिसकी अगणित सेनाओं को यशोवर्मन् ने भीषण युद्ध में पराजित किया होगा । गौड़नरेश पालवंशी राज्यपाल अथवा उसका पुत्र गोपाल द्वितीय रहा होगा । कश्मीर तथा खस के शासक की पहचान असंदिग्ध रूप से नहीं की जा सकती । मालवा, कोशल तथा कुरु अब भी कन्नौज के गुर्जर शासकों के अधिकार में थे जबकि मिथिला पर बंगाल और बिहार के पालों का अधिकार रहा होगा ।

ऐसा लगता है कि यशोवर्मन् का अपने समकालीन प्रतिहार अधिपति के साथ भीषण संघर्ष हुआ होगा । किन्तु धंग के खजुराहों लेख (वि. सं. 1011) से पता चलता है कि यद्यपि चन्देल स्वतंत्र हो गये थे तथापि वे नाममात्र के लिये ही गुर्जर-प्रतिहारों की अधिसत्ता स्वीकार करते थे ।

इस प्रकार यशोवर्मन् एक पराक्रमी राजा था । एक सामन्त स्थिति से ऊपर उठकर अपनी उपलब्धियों के द्वारा उसने सार्वभौम पद को प्राप्त किया । विजेता होने के साथ-साथ वह एक महान् निर्माता भी था जिसने खजुराहो के प्रसिद्ध विष्णु-मन्दिर का निर्माण करवाया ।

इस मन्दिर में उसने बैकुण्ठ की मूर्ति स्थापित करायी थी जिसे उसने प्रतिहार शासक देवपाल से प्राप्त किया था । कनिंघम ने इसकी पहचान खुजराहों स्थित ‘चतुर्भुज’ नाम से विख्यात मन्दिर से की है । इसके अतिरिक्त यशोवर्मन् ने एक विशाल जलाशय (तडागार्णव) का भी निर्माण करवाया था ।

इस प्रकार उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी । प्रजा उसके शासन से अत्यन्त संतुष्ट एवं प्रसन्न थी । अपने राज्य में उसने निर्धनों, निर्बलों एवं दीन दुखियों की भरपूर सहायता की तथा शास्त्रों के आदेशानुसार शासन किया ।

iii. धंग:

यशोवर्मन् ने 950 ईस्वी तक शासन किया । उसके बाद उसका पुत्र और उत्तराधिकारी धंग (950-1102 ईस्वी) चन्देलवंश का राजा बना । वह पुप्पादेवी (पुष्पादेवी) से उत्पन्न हुआ था । दुधई पाषाण लेख से पता चलता है कि कृष्ण नामक धंग का कोई छोटा भाई भी था । चन्देलों की वास्तविक स्वाधीनता का जन्मदाता यही था ।

उसके शासन-काल की घटनाओं के विषय में हमें उसके खजुराहो के लेख से विस्तृत जानकारी मिलती है । वही स्थित लक्ष्मणनाथ मन्दिर से प्राप्त लेख धंग की उपलब्धियों का विवरण देता है जिसके अनुसार ‘उसने अपनी शक्ति एवं बाहुबल से खेल-खेल में कालंजर तक, मालव नदी के किनारे भारत तक, वहीं से कालिन्दी नदी के किनारे तक, वहाँ से चेदि राज्य की सीमा तक तथा वहाँ से गोपगिरि तक का क्षेत्र जीत लिया था ।’

इसमें से अधिकांश भाग की विजय धंग के पिता यशोवर्मा के समय में ही सम्पन्न की जा चुकी थी । धंग ने पुन उन क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत की होगी । धंग के पूर्व चन्देल नरेश नाममात्र की प्रतिहारों की अधीनता स्वीकार करते थे ।

उसने कालिंजर पर अपना अधिकार सुदृढ किया तथा उसे अपनी राजधानी बनाई । तत्पश्चात् उसने ग्वालियर, बनारस तथा प्रयाग तक के क्षेत्र को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया । ग्वालियर की विजय धंग की सबसे महत्वपूर्ण सफलता थी । ऐसा लगता है कि इसी की विजय के बाद चन्देलों ने प्रतिहारों की अधीनता से अपने को मुक्त कर दिया था ।

खजुराहो लेख के अन्त में अंकित है कि ‘यशस्वी विनायक पालदेव के पृथ्वी का पालन करते समय कोई भी शत्रु उस पर अधिकार नहीं कर पाया तथा सभी का उन्मूलन कर दिया गया था । इससे स्पष्ट है कि 954-55 ई. तक चन्देल, कन्नौज की संप्रभुता को नाममात्र के लिये ही स्वीकार कर रहे थे । किन्तु इस तिथि के बाद के किसी चन्देल लेख में प्रतिहारों का उल्लेख नहीं किया गया है । इससे सूचित होता है कि इसके (954-55 ई.) बाद धंग कन्नौज का वास्तविक एवं वैधानिक सम्राट बन गया था ।

1036 ईस्वी के सासु-बहु लेख में वज्रदमन नामक एक कछवाहा शासक का उल्लेख मिलता है जिसके विषय में यह कहा गया है कि उसने कन्नौज (गाधिनगर) को जीता था । वह धंग का समकालीन था । कच्छपघात अथवा कछवाहा वंश के लोग पहले प्रतिहारों की अधीनता में ग्वालियर में शासन करते थे ।

वज्रदमन् ने पहले तो प्रतिहारों से ग्वालियर को जीता किन्तु बाद में उसे चन्देलों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी । इसके बाद कई वर्षों तक कछवाहे चन्देलों के सामन्त बने रहे । विद्याधर के समय में उनका शासक अर्जुन चन्देलों का सामन्त था । विद्याधर के पश्चात् उन्होंने मालवा के परमारवंश की अधीनता स्वीकार कर ली ।

आर. एस. त्रिपाठी का विचार है कि यह वज्रदमन ढंग का सामन्त था तथा उसी रूप में उसने कन्नौज की विजय प्राप्त की थी । यही कारण है कि लेखों में कन्नौज जीतने का श्रेय धंग को प्रदान किया गया है । मऊलेख से उसकी कन्नौज विजय की पुष्टि होती है जिसके अनुसार ‘उसने कान्यकुब्ज के राजा को परास्त कर सम्राट पद प्राप्त किया था’ ।

ऐसा प्रतीत होता है कि धंग ने अपनी राजधानी कालिंजर से बदलकर खजुराहो में स्थानान्तरित कर दिया । इसके बाद चन्देलों की राजधानी खजुराहो में ही रही । उल्लेखनीय है कि धंग तथा चन्देल वंश के अन्य राजाओं के प्राचीनतम अभिलेख कालिंजर से न मिलकर खजुराहो से ही मिलते है ।

कालंजर का दुर्ग तत्कालीन भारत में सबसे अभेद्य एवं शक्तिशाली समझा जाता था तथा उस पर अधिकार करने के लिये प्रतिहार, कलंचुरि, राष्ट्रकूट आदि सभी ने प्रयास किया था । धंग ने उसे अपने बाहुबल से अधिगृहीत किया ।

कालंजर तथा ग्वालियर पर अधिकार हो जाने से धंग की स्थिति मध्य भारत में काफी मजबूत हो गयी । खजुराहो शिलालेख में धंग को कोशल, क्रथ (बरार), सिंहल तथा कुन्तल का भी विजेता कहा गया है जिसने कान्ची, राड़ा और अंग के राजाओं की पत्नियों को कारागार में डाल दिया था ।

यह विवरण पर्याप्त अंश में अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि ये राज्य धंग की राजधानी से इतने दूर पड़ते थे कि वह। उसके जाने का प्रश्न ही नहीं उठता । सम्भव है इनमें से कुछ राज्यों के साथ उसने मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया हो, किन्तु इस विषय में निश्चित रूप से हम कुछ भी नहीं कह सकते ।

फिर भी यह स्पष्ट है कि गंगाघाटी में उसने सफल सैनिक अभियान कर प्रयाग तथा बनारस का क्षेत्र अपने अधिकार में बार लिया था । प्रयाग के संगम में उसने जलसमाधि द्वारा प्राणत्याग किया तथा नन्यौरा लेख (998 ई॰) से पता चलता है कि काशी में उसने भट्टयशोधर नामक ब्राह्मण को एक गाँव दान में दिया था ।

प्रयाग की विजय उसी के काल में की गयी लेकिन काशी का क्षेत्र निश्चयत: धंग द्वारा ही जीता गया था । इन क्षेत्रों पर पहले प्रतिहारों का अधिकार था और अपने समकालीन प्रतिहार शासक को हराकर ही धंग ने इन प्रदेशों पर अपना अधिकार किया होगा ।

इस प्रकार धंग तत्कालीन मध्य भारत का एक अत्यन्त शक्तिशाली सम्राट वन गया । उत्तर भारत का राजनीतिक अधिपत्य जो बहुत समय तक प्रतिहारों के पास था, अब धंग के काल में चन्देलों के हाथ में आ गया ।

महोबा से प्राप्त एक खण्डित शिलालेख धंग की उपलब्धियों का विवरण देते हुए कहता हैं- ‘शत्रुओं का विनाश करने वाले धंग ने अपने बाहुबल से पृथ्वी के लिये बहुत बड़े भार स्वरूप शक्तिशाली हम्मीर से तुलना की ।’

इस कथन के वास्तविक अर्थ के ऊपर विवाद है । ‘हम्मीर’ से तात्पर्य सुबुक्तगीन अथवा महमूद गजनवी से लगता है । इस बात का कोई पुष्ट आधार नहीं है कि धंग तथा सुबुक्तगीन अथवा महमूद गजनवी के बीच कभी कोई प्रत्यक्ष संघर्ष हुआ था । मात्र फरिश्ता ही इसका परोक्ष उल्लेख करता है ।

उसके अनुसार धंग ने भी भटिण्डा के शाही शासक जयपाल को सुबुक्तगीन के विरुद्ध सैनिक सहायता भेजी तथा उसके विरुद्ध बने हिन्दू राजाओं के संघ में सम्मिलित हुआ परन्तु सुबुक्तगीन ने इस संघ को पराजित कर दिया । लेकिन इस पराजय से धंग को विशेष क्षति नहीं हुई ।

यहाँ उल्लेखनीय है कि अनेक विद्वान् फरिश्ता द्वारा चर्चित इस संघ को बनाने की बात को पूर्ण काल्पनिक मानते है । फरिश्ता के अतिरिक्त अन्य कोई भी मुसलमान लेखक इस संघ का उल्लेख नहीं करता । वस्तुत सुबुक्तगीन के विरुद्ध समकालीन हिन्दू शासकों की कार्यवाही आक्रमणात्मक थी ।

‘भारतीय इतिहास की तत्कालीन प्रवृत्तियों को देखते हुये यह अत्यन्त असम्भव और काल्पनिक प्रतीत होता है कि आक्रमणात्मक रूप में हिन्दू राजे कभी एक हो सकते थे । वास्तव में यदि फरिश्ता की बात छोड़ दिया जाय तो यह किसी अवसर पर दिखाई नहीं देता कि बराबरी वाले दो राज्य भी रक्षात्मक युद्ध के लिये कभी समवेत हुये हों ।’

iv. विद्याधर:

गण्ड के पश्चात् उसका पुत्र विद्याधर (1019-1029 ईस्वी) शासक बना । वह चन्देल शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली था । उसके शासन-काल की घटनाओं के विषय में हम तत्कालीन लेखों तथा मुसलमान लेखकों के विवरण से जानकारी प्राप्त करते हैं । मुसलमान लेखक उसका उल्लेख ‘नंद’ तथा ‘विदा’ नाम से करते है तथा उसे तत्कालीन भारत का सबसे शक्तिशाली राजा मानते हैं ।

इब्न उल अतहर लिखता है कि उसके पास सबसे बड़ी सेना थी तथा उसके देश का नाम खजुराहों था । विद्याधर के राजा बनते ही महमूद गजनवी के नेतृत्व में तुर्कों के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण तेज हो गये । किन्तु योग्य ओर साहसी विद्याधर विचलित नहीं हुआ तथा तुर्कों से कड़ी मुठभेड के लिए प्रस्तुत हुआ । उसे अपने वंश की मर्यादा पर बड़ा गर्व था ।

1019 ईस्वी में महमूद ने कन्नौज के प्रतिहार शासक राज्यपाल के ऊपर आक्रमण किया । राज्यपाल ने डरकर बिना युद्ध के ही आत्मसमर्पण कर दिया । जब विद्याधर को इस घटना की सूचना मिली तो वह अत्यन्त युद्ध हुआ तथा उसने राज्यपाल को दण्डित करने का निश्चय किया ।

मुस्लिम लेखक इब्न-उल-अतहर हमें बताता है कि विद्याधर ने कन्नौज पर आक्रमण किया तथा एक दीर्घकालीन युद्ध के पश्चात् वहाँ के राजा राज्यपाल की इस कारण हत्या कर दी थी कि वह मुसलमानों के विरुद्ध भाग खड़ा हुआ तथा अपना, राज्य उन्हें समर्पित कर दिया था ।

इस विवरण की पुष्टि कुछ अभिलेखों से भी होती है । इस बात का पहले उल्लेख किया जा चुका है कि ग्वालियर के कछवाहानरेश चन्देलों के सामन्त थे । इस वंश के विक्रम सिंह के दूबकुण्ड लेख (1088 ईस्वी) से पता लगता है कि उसके एक पूर्वज अर्जुन ने विद्याधर की ओर से युद्ध करते हुए कन्नौज के राजा राज्यपाल को मार डाला था ।

चन्देल वंश का एक लेख महोबा से मिलता है । उससे भी विद्याधर द्वारा राज्यपाल के मारे जाने की बात पुष्ट होती है । कुछ विद्वानों का मत है कि विद्याधर ने अपने पिता गण्ड के काल में सेनापति के रूप में ही राज्यपाल का वध किया था, न कि राजा होने के बाद ।

इस मत के पोषक लोग मुसलमानों के ‘नन्द’ की पहचान ‘गण्ड’ से करते है । किन्तु यह मत तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता । दूबकुन्ड के लेख से स्पष्ट है कि उस समय विद्याधर ही शासन कर रहा था । उसमें उसे ‘विद्याधरदेव’ कहा गया है तथा उसके पिता गण्ड का नामोल्लेख नहीं मिलता ।

राज्यपाल का बध करने से विद्याधर की ख्याति चतुर्दिक् फैल गयी तथा वह उत्तर भारत का सार्वभौम सम्राट् बन गया । कन्नौज में उसने अपनी ओर से राज्यपाल के पुत्र त्रिलोचनपाल को राजा बनाया तथा उसने विद्याधर की अधीनता स्वीकार कर ली । अन्य हिन्दू शासकों ने भी उसका लोहा मान लिया । यह महमूद गजनवी को खुली चुनौती थी जिसका सामना करने के लिये वह प्रस्तुत हुआ ।

चन्देलों पर महमूद का प्रथम आक्रमण 1019-20 ईस्वी में हुआ । मुस्लिम स्रोतों से पता चलता है कि दोनों के बीच किसी नदी के किनारे भीषण युद्ध हुआ किन्तु इसका कोई परिणाम न निकला । इस युद्ध में विद्याधर ने राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया तथा रात्रि के अन्धकार में युद्ध-स्थल उपयुक्त न होने के कारण अपनी सेना को हटा लिया । महमूद भी गजनी वापस लौट गया ।

मुस्लिम लेखक विद्याधर के मैदान से हटने को ही महमूद की विजय मानते हैं जो उचित नहीं लगता । यदि महमूद ने वास्तव में विद्याधर को पराजित किया होता तो वह उसका पीछा करते हुये उसके राज्य में लूट-पाट एवं कत्लेयाम करता, न कि युद्ध क्षेत्र से ही गजनी वापस लौटता । ऐसा लगता है कि वह स्वयं भी विद्याधर की शक्ति से काफी सशंकित था ।

अतः दुबारा शक्ति जुटाकर उसने 1022 ईस्वी में विद्याधर के राज्य पर आक्रमण किया । सबसे पहले उसने ग्वालियर के दुर्ग का घेरा डाला जो चार दिनों तक चलता रहा । अन्ततोगत्वा दुर्गपाल ने 35 हाथियों की भेंट कर उससे पीछा छुड़ाया । तत्पश्चात् उसने कालिंजर के दुर्ग का घेरा डाला । शक्ति तथा अभेद्यता में वह दुर्ग सम्पूर्ण हिन्दुस्तान में बेजोड़ था ।

ऐसा प्रतीत होता है कि महमूद दुर्ग को जीत नहीं सका तथा दोनों में संधि हो गयी । स्वयं महमूद भी विद्याधर की शक्ति से सशंकित था । मुसलमान लेखकों के विवरण से ऐसा आभास मिलता है कि दीर्घकालीन घेराबन्दी के बाद भी महमूद को कोई सफलता नहीं प्राप्त हुई ।

अत: मजबूर होकर उसे उससे संधि करनी पड़ी तथा महमूद वापस लौट गया । इसके बाद उसकी चन्देल राज्य पर आक्रमण करने की दुबारा हिम्मत नहीं पड़ी तथा विद्याधर और महमूद परस्पर मित्र बन गये ।

दोनों के बीच यह मित्रता कम से कम 1029 ई॰ तक बनी रही जबकि महमूद ने अपने शत्रु सेल्जुक के एक पुत्र को बन्दी बनाकर भारत में कालंजर के दुर्ग में भेज दिया था । इस प्रकार विद्याधर ही अकेला ऐसा भारतीय नरेश था जिसने महमूद गजनवी की महत्वाकांक्षाओं का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया । इस वीरतापूर्वक कार्य ने उसे तत्कालीन भारत के शासकों में सिरमौर बना दिया ।

इसके अतिरिक्त विद्याधर ने मालवा के परमार शासक भोज तथा कलचुरि शासक गांगेयदेव को भी पराजित कर अपनी अधीनता में किया । चन्देलवंश के एक अभिलेख से पता चलता है कि उपर्युक्त दोनों ही नरेश शिष्य के समान डरकर विद्याधर की पूजा किया करते थे ।

मदनवर्मा के समय के मऊ प्रस्तर लेख से पता चलता है कि शिवनाग उसका यशस्वी मंत्री था जो गण्ड एवं धंग के मुख्यमंत्री प्रभास का पुत्र था । बताया गया है कि सचिव पद प्राप्त करते ही उसने अपने उत्कृष्ट आचरण से पृथ्वी के समस्त राजाओं को विद्याधर का करद बना दिया तथा उसका शासन पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ हो गया था । इस प्रकार वह निश्चय ही अपने समय का एक महान् शासक था ।

उसके पितामह धंग ने जिस विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था, विद्याधर ने अपने वीरतापूर्वक कृत्यों द्वारा उसे गौरवान्वित कर दिया । मुस्लिम लेखकों ने भी उसकी शक्ति एवं उसके साम्राज्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है । उसका शासन-काल चन्देल साम्राज्य के चरम उत्कर्ष को व्यक्त करता है । इस प्रकार धंग तथा विद्याधर चन्देल शक्ति के आधार-स्तम्भ तथा साम्राज्य के मुख्य निर्माता थे ।

चन्देल वंश के सांस्कृतिक उपलब्धियां (Cultural Achievements of Chandela Dynasty):

धंग केवल महान् विजेता ही नहीं था, अपितु कुशल प्रशासक तथा कला एवं संस्कृति का उन्नायक भी था । उसके सुशासन में चन्देल साम्राज्य के गौरव में अद्‌भुत वृद्धि हुई । उसने ब्राह्मणों को भूमि दान में दिया तथा उन्हें प्रशासन में उच्च पदों पर नियुक्त किया । उसका मुख्य न्यायाधीश भट्टयशोधर तथा प्रधानमन्त्री प्रभास जैसे विद्वान् ब्राह्मण थे । मदनवर्मा के मऊप्रस्तर लेख में इनके नाम मिलते है ।

बताया गया है कि प्रभास, अंगिरस तथा न्याय दर्शन के प्रणेता गौतम अक्षपाद के वंश में उत्पन्न हुआ था तथा राजनीति के संचालन में अत्यन्त निपुण था (नयप्रयोगे गहने सुदक्ष:) धंग तथा गंड ने सभी प्रलोभनों से परीक्षण करने के उपरान्त (सर्वोपधाशुद्धान) उसे अपना मुख्यमंत्री नियुक्त किया था ।

उल्लेखनीय है कि कौटिल्यीय अर्थशास्त्र में मन्त्रियों के इसी प्रकार के परीक्षण की बात कही गयी है तथा चंदेल शासकों ने प्राचीन राजनीति के प्रणेता के आदर्शानुसार ही शासन संचालन किया था । धंग वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था । शिव उसके विशिष्ट आराध्य देव थे । किन्तु उसके लेखों में प्राय: सभी हिन्दु देवी-देवताओं की उपासना की गयी है ।

स्वयं ब्राह्मण धर्मानुयायी होते हुये भी वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था । खजुराहो में उसने जैन मतानुयायियों को भी अपने धर्म के प्रचार तथा मन्दिर बनवाने की सुविधा प्रदान किया था खजुराहो से प्राप्त एक लेख से उसके काल की धार्मिक सहनशीलता सूचित होती है ।

धंग एक महान् निर्माता भी था जिसने खजुराहो में अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण करवाया । इनमें जिननाथ, विश्वनाथ, वैद्यनाथ आदि मन्दिर विशेष उल्लेखनीय है । जिननाथ मन्दिर से धंग के शासन काल का एक लेख मिला है जिसमें जैन उपासकों को उसके द्वारा दिये गये दान का विवरण सुरक्षित है ।

वैद्यनाथ मन्दिर में उत्कीर्ण लेख से पता चलता है कि इसका निर्माण गहपति कोक्कल द्वारा करवाया गया था । खजुराहो से प्राप्त एक अन्य लेख से पता चलता है कि उसके समय में भगवान शम्भु का एक भव्य मन्दिर बनवाया गया तथा उसमें मरकतमणि तथा प्रस्तर से बने हुए दो लिंग स्थापित किये गये थे ।

इस प्रकार धंग का सुदीर्घ शासनकाल प्रत्येक दृष्टि से सफलताओं का काल रहा । उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की तथा ‘जीवेम् शरद: शतम्’ की उक्ति-चरितार्थ करते हुए अन्तत प्रयाग स्थित गंगा-यमुना के संगम के पवित्र जल में निमीलित नेत्रों से रुद्र का ध्यान करते हुए तथा पवित्र मंत्रों का जाप करते हुए शरीर त्यागकर मोक्ष को प्राप्त हुआ ।

धंग के पश्चान् उसका पुत्र गण्ड चन्देलवंश का राजा बना । वह भी एक शक्तिशाली शासक था । उसके समय का कोई भी लेख हमें नहीं मिलता । लगता है कि वह अधिक आयु में शासक बना था और इसी कारण उसने न तो कोई विजय की और न कोई लेख ही लिखवाये ।

फिर भी इसमें सदेह नहीं कि गण्ड के काल में चन्देलों की शक्ति अक्षुण्ण रही । त्रिपुरी के कलचुरि-चेदि तथा ग्वालियर के कच्छपघात शासक उसकी अधीनता स्वीकार करते थे । गण्ड ने 1002 से 1019 ईस्वी तक राज्य किया ।

चन्देल सत्ता का  पतन (Decline of Chandela Power):

विद्याधर की मृत्यु के पश्चात् चन्देल वंश की शक्ति का क्रमिक ह्रास प्रारम्भ हुआ । उसके पुत्र विजयपाल तथा पौत्र देववर्मन् के काल में चन्देल, कलचुरिचेदि वंशी शासकी-गांगेयदेव तथा कर्ण-की अधीनता स्वीकार करते थे । एक लेख में विजयपाल को ‘नृपेन्द्र’ कहा गया है तथा दूसरे लेख से पता चलता है कि उसके सदाचरण एवं पराक्रम से कलियुग का अन्त हो गया था ।

मऊ लेख में उसके मंत्री का नाम महीपाल मिलता है जिसने प्रशासनिक कार्यों में राजा को पूरा सहयोग दिया । विजयपाल की पत्नी भुवनदेवी से उत्पन्न पुत्र देववर्मन उसके बाद राजा बना । नन्यौरा से उसका लेख मिला है । इसमें भूमिदान का उल्लेख मिलता है । किसी भी लेख से हम देववर्मन् की राजनीतिक उपलब्धि के विषय में नहीं जानते ।

I. कीर्तिवर्मन:

देववर्मेन् के उपरान्त उसका छोटा भाई कीर्त्तिवर्मन् राजा बना । वह कुछ शक्तिशाली शासक था । उसके राज्यारोहण के समय संभवत: चोदिनरेश कर्ण ने देववर्मन् को हराकर चन्देल राज्य पर अधिकार कर लिया था । प्रबोधचन्द्रोदय में स्पष्टतः कहा गया है कि ‘चेदिनरेश ने चन्द्रवंश को पदच्युत् कर दिया ।

बिल्हण भी इसका संकेत करते हुए लिखता है कि डाहल का राजा कर्ण कालंजरगिरि के स्वामी के लिये काल था । अत: कर्ण को पराजित कर अपने साम्राज्य का उद्धार करना उसकी पहली प्राथमिकता थी । उसने चेदि नरेश कर्ण को परास्त कर अपने वंश की पुन स्वतन्त्रता घोषित की ।

बोधचन्द्रोदय नाटक में कर्ण को पराजित करने का श्रेय गोपाल नामक उसके सामन्त को दिया गया है । अजयगढ़ तथा महोबा से प्राप्त चन्देल लेख भी इसकी पुष्टि करते है । ज्ञात होता है कि उसने चेदि की सेनाओं का सामना करने के लिये चन्देल सामन्तों का एक विशाल संघ तैयार किया (सकल राज मण्डल) ।

गोपाल की तुलना मधुमन्थन (विष्णु) से की गयी है जिन्होंने समुद्र का मन्थन कर लक्ष्मी को प्राप्त किया था । लेख नाटक के विपरीत चेदि नरेश को पराजित करने का श्रेय गोपाल के स्थान पर कीर्त्तिवर्मन् को देता है लेकिन अन्य बातें समान है ।

लेख के अनुसार कीर्त्तिवर्मन् ने अपनी शक्तिशाली सेना से गर्वीले लक्ष्मीकर्ण, जिसकी सेना ने अनेक राजाओं का विनाश कर दिया था, को कुचल कर हाथियों के साथ संसार में गौरव प्राप्त किया था । ज्ञात होता है कि कीर्तिवर्मन् ने चेदिराज के हराकर अपने साम्राज्य का नये सिरे से संगठन किया ।

इस प्रकार कीर्तिवर्मन एक शक्तिशाली राजा था । उसकी राजसभा में प्रसिद्ध विद्वान कृष्ण मिश्र निवास करते थे जिन्होंने प्रबन्धचन्द्रोदय की रचना की । लेखों से उसके कुछ अन्य पदाधिकारियों के नाम भी मिलते है । गोपाल के अतिरिक्त दूसरे सामन्त वत्स ने बेतवा घाटी को जीता था । उसका सचिव अनन्त वीरता तथा निपुणता में प्रसिद्ध था ।

वह महीपाल का पुत्र था जो विजलपाल के समय मंत्री रह चुका था । कीर्तिवर्मन ने उसे विभिन्न महत्वपूर्ण पदों जैसे मन्त्राधिकारी, हस्ति अश्वनेता, पुस्बलाध्यक्ष, अभिमत सचिव आदि पदों पर नियुक्त किया था । एक लेख में वास्तव्य कायस्थ महेश्वर नामक अधिकारी का उल्लेख मिलता है जो कालंजर का विशिष्ट प्रशासनिक अधिकारी था ।

किन्तु ऐसा लगता है कि अपनी इस सफलता के बावजूद चेदिनरेश कर्ण ने चन्देल साम्राज्य को जो भीषण आघात पहुंचाया उससे वह उबर नहीं सका तथा उसके पतन का मार्ग प्रशस्त हो गया । चन्देल अब पुन उत्तर भारत की राजनीति में प्रमुखता नहीं प्राप्त कर सके ।

कीर्तिवर्मन् ने 1100 ईस्वी तक शासन किया । कीर्तिवर्मन का पुत्र सल्लक्षणवर्मा अथवा हल्लक्षणवर्मा उसके बाद राजा बना । उसका अपना को, लेख तो नहीं मिलता लेकिन उसके उत्तराधिकारियों के लेखों से उसके विषय में कुछ सूचनायें प्राप्त होती है । मदनवर्मा का मऊ प्रस्तर लेख उसकी प्रशंसा करते हुए कहता है कि उसने गंगा-यमुना के दोआब (अन्तर्वेदी विषय) में अपने शत्रुओं को पराजित किया था ।

उसके एक अधिकारी ने अतुल पराक्रम प्रदर्शित करते हुए उसके शत्रुओं को हराया तथा कण्टकों का विनाश कर प्रजा के मन से भय को दूर कर दिया । भोजवर्मन् के अजयगढ़ शिलालेख से पता चलता है कि ‘संल्लक्षणवर्मा की तलवार ने मालव तथा चेदियों की लक्ष्मी को छीन लिया ।’ संभव है उसने मालवा के परमारों तथा त्रिपुरी के कलचुरियों के विरुद्ध सफल अभियान किया हो ।

उसके मालव तथा चेदि प्रतिद्वन्दी क्रमश: नरवर्मन् तथा यश:कर्ण प्रतीत होते है । यह निश्चित नहीं है कि अन्तर्वेदी प्रदेश में उसका प्रतिद्वन्दी कौन था । यह क्षेत्र राष्ट्रकूटों तथा गहड़वालों के संघर्ष का केन्द्र था । यदि सल्लक्षणवर्मा ने कन्नौज पर अधिकार करने का प्रयास किया होगा तो उसे कोई सफलता नहीं मिली होगी ।

मऊ लेख से पता चलता है कि अनन्त, वत्स, गदाधर, वामन तथा प्रद्युम्न उसके प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी थे । सल्लक्षणवर्मन् का पुत्र जयवर्मन् उसके बाद राजा बना । खजुराहो से उसका लेख मिलता है । यह धंग के लेख का नवीनीकरण है । इसका लेखन गौड़ जयपाल कायस्थ द्वारा किया गया जो एक विद्वान था ।

किन्तु लेख से जयवर्मन् की राजनीतिक उपलब्धियों की कोई जानकारी नहीं मिलती । उसका उत्तराधिकारी पृथ्वीवर्मन हुआ । गदाधर उसके समय में भी प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी बना रहा । राजनीतिक दृष्टि से उक्त दोनों राजाओं की कहो, भी उपलब्धि नहीं है ।

II. मदनवर्मा:

पृथ्वीवर्मन् का पुत्र मदनवर्मा चन्देल वंश का एक शक्तिशाली राजा हुआ । कालंजर, अगासी, खजुराहों, अजयगढ, महोबा, मऊ आदि से उसके पन्द्रह लेख तथा कई स्थानों से स्वर्ण एवं रजत सिक्के मिलते हैं । लेखों की प्राप्ति स्थानों से प्रकट होता है कि बुन्देलखण्ड के चारों प्रमुख स्थान- कालिंजर, खजुराहो अजयगढ़ तथा महोबा में चन्देल सत्ता पुन स्थापित हो गयी थी ।

अगासी तथा मऊ लेख बांदा एवं झांसी तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों पर चन्देलों का अधिकार प्रमाणित करते है । कुछ विद्वान् विद्याधर के पश्चात् मदनवर्मा को ही चन्देल वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा मानते है । मऊलेख से ज्ञात होता है कि उसने चेदि तथा परमार राजाओं को परास्त किया तथा काशी के राजा को भयभीत किया ।

उसके द्वारा पराजित चेदिनरेश यश:कर्ण का पुत्र गयाकर्ण (1051 ई॰) था । बताया गया है कि ‘कठोर युद्ध में पराजित चेदिराज मदनवर्मा के नाम मात्र सुनकर ही भाग खड़ा होता है ।’ उसके द्वारा पराजित मालवा के परमार नरेश की पहचान निश्चित नहीं है ।

वह जयवर्मा, यशोवर्मा तथा लक्ष्मीवर्मा में से ही कोई रहा होगा जिसके बारे में कहा गया है कि गर्वीले मालवराज को उसने शीघ्र ही उखाड़ फेंका था । काशी के विषय में बताया गया है कि मदनवर्मा के भय से वहाँ का राजा सदा अपना समय मैत्रीपूर्ण व्यवहार में व्यतीत करता है । इसकी पहचान गाहड़वाल नरेश गोविन्दचन्द्र से की गयी है ।

मदनवर्मा ने झांस तथा वादा स्थित परमार साम्राज्य के कई स्थानों को अपने नियंत्रण में ले लिया । इसके फलस्वरूप गुजरात के चालुक्यों के साथ उसका संघर्ष अनिवार्य हो गया । इस समय गुजरात का शासक जयसिंह सिद्धराज था ।

कीर्तिकौमुदी से पता चलता है कि वह परमारों की राजधानी धारा को जीतता हुआ कालंजर तक चढ़ गया जहां उसे मदनवर्मा से संधि करके वापस लौटना पड़ा । कालंजर लेख में कहा गया है कि मदनवर्मा ने गुर्जर नरेश को क्षण भर में उसी प्रकार पराजित कर दिया जिस प्रकार कृष्ण ने कंस को ।

इस प्रकार मदनवर्मा ने अपनी विजयी द्वारा प्राचीन चन्देल साम्राज्य के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर पुन अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया । पवांर (रीवां क्षेत्र) से प्राप्त उसके सिक्कों के ढेर से सूचित होता है कि बघेलखण्ड का एक बड़ा भाग भी उसके अधिकार में आ गया था ।

एच. सी. राय के शब्दों में उसका साम्राज्य एक ऐसे त्रिभुजाकार रूप में बढ़ गया जिसके आधार का निर्माण विष्णु, भाण्डीर तथा कैमूर की पर्वत श्रेणियां करती थी तथा यमुना और वेतवा नदिया उसकी दो पुजाये थी । चौतीस वर्षों के दीर्घकालीन शासन के उपरान्त मदनवर्मा का 1163 ई॰ के लगभग निधन हुआ ।

III. परमर्दिदेववर्मन् (परमल):

चन्देल लेखों में सामान्यत मदनवर्मा के बाद परमर्दि का नाम मिलता है । उसे ‘तत्पादानुध्यात’ कहा गया है । इससे सूचित होता है कि मदनवर्मा का तत्कालिक उत्तराधिकारी परमर्दि ही हुआ । लेकिन परमर्दि के बघरी प्रस्तर लेख में दोनों के बीच यशोवर्मन के नाम का उल्लेख मिलता है । यशोवर्मन् का शासन काल अत्यल्प रहा । उसके बाद उसका पुत्र परमर्दि गद्दी पर बैठा ।

परमर्दि चन्देल वंश का अन्तिम महान् शासक था जिसने 1165 ईस्वी से 1203 ईस्वी तक राज्य किया । उसके कई लेख तथा सिक्के मिलते है । इनसे सूचित होता है कि वह एक विस्तृत प्रदेश का स्वामी था । चन्देल वंश के लेखों से उसके समय की किसी राजनीतिक घटना की जानकारी नहीं मिलती । समकालीन साहित्यिक कृतियों से विदित होता है कि परमर्दि तथा चाहमान वंश के प्रसिद्ध शासक पृथ्वीराज तृतीय के बीच शत्रुता थी ।

ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज ने परमर्दि को कई युद्धों में बुरी तरह पराजित कर दिया । पृथ्वीराजरासो, परमालरासी, आल्हाखण्ड आदि ग्रन्थों से परमार के राज्य पर पृथ्वीराज के आक्रमण तथा उसके पराजित किये जाने की सूचना प्राप्त होती है ।

ज्ञात होता है कि आल्हा तथा ऊदल नामक चन्देल सेना के दो वीर सेनानायक थे जिन्होंने पृथ्वीराज के विरुद्ध लड़ते हुये अपनी जान गँवायी थी । पृथ्वीराज ने परमर्दिन् को पराजित कर महोबा पर अधिकार कर लिया । महोबा पर उसका अधिकार मदनपुरलेख (1182 ईस्वी) से भी पुष्ट होता है ।

संभव है गहडवाल नरेश जयचन्द्र ने भी परमर्दि की सहायता की हो लेकिन वह भी पृथ्वीराज की बाढ़ को रोक नहीं पाया तथा उसने चन्देल राज्य के पश्चिमी भागों पर अधिकार कर लिया । किन्तु ऐसा लगता है कि पृथ्वीराज के वापस जाने के बाद परमर्दिन् ने पुन महोबा अपने अधिकार में ले लिया ।

यहाँ से 1183 ईस्वी का उसका लेख मिलता है जिसमें उसे ‘दशार्णधिपति’ कहा गया है । परन्तु वह अधिक समय तक चेन से शासन नहीं कर पाया तथा उसे तुर्कों के भीषण प्रहार का सामना करना पड़ा जिससे वह बच न सका ।

1203 ईस्वी में कुतुबुद्दीन ने परमर्दिदेव को पराजित कर कालंजर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया । कालंजर के दुर्ग में ही परमर्दिन् की मृत्यु हो गयी । फिरिश्ता के विवरण से पता चलता है कि उसके स्वयं के मंत्री अजयदेव ने उसकी कायरता से चिढ कर उसकी हत्या कर दी ।

परमर्दि के पश्चात् उसके पुत्र त्रैलोक्यवर्मन् ने (1203-1247 ई॰) कुछ समय तक कालिंजर पर अधिकार बनाये रखा । अजयगढ़ के एक प्रस्तर लेख में उसकी तुलना विष्णु से की गयी है तथा कहा गया है कि उसने तुरुष्कों द्वारा समुद्र के डुबोई गयी पृथ्वी का उद्धार किया था । इससे सूचित होता है कि त्रैलोक्यवर्मन् एक शक्तिशाली राजा था ।

किन्तु उसके राज्य पर 1232 ई. में तुर्कों ने आक्रमण कर भारी लूटपाट किया । त्रैलोक्यवर्मन् के बाद क्रमश: वीरवर्मन् तथा भोजवर्मन् राजा हुए जिनकी उपलब्धियाँ नगण्य है । तेरहवीं शती सक चन्देल राज्य का अस्तित्व बना रहा । अन्तत: 1305 ईस्वी में इसे दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया ।

चन्देल राजाओं का शासन-काल कला की उन्नति के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध है । इस युग की कला के इतिहास-प्रसिद्ध उदाहरण आज भी खजुराहो (छतरपुर, म. प्र.) में विद्यमान है । यहाँ लगभग 30 मन्दिर खड़े हैं जो विष्णु, शिव तथा जैन तीर्थक्करों की उपासना में निर्मित कराये गये है ।

मन्दिरों में ‘कन्डारिया महादेव’ का मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है । मन्दिर के गर्भगृह में शिव, गणेश तथा प्रमुख हिंदू देवियों की मूर्तियाँ बनी है । यहाँ के अनेक प्रमुख मन्दिरों में जगदम्बिका मन्दिर, चित्रगुप्त मन्दिर, विश्वनाथ मन्दिर तथा पार्श्वनाथ का मन्दिर विशेषरूप से उल्लेखनीय है ।

सभी मन्दिरों के भीतरी तथा बाहरी दीवारों पर अनेक भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं । देवी-देवताओं के अतिरिक्त अनेक अप्सराओ, नायिकाओं तथा सामान्य नारियों की मूर्तियाँ भी खजुराहो से प्राप्त होती है । कुछ मूर्तियाँ अत्यन्त अश्लील हो गयी है जो धर्म पर तांत्रिक विचारधारा के प्रभाव को व्यक्त करती है । समग्ररूप से खजुराहो की कला अत्यन्त प्रशंसनीय है । यह चन्देल नरेशों की अमर कीर्ति का प्रतीक है ।

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