पल्लव राजवंश: पल्लव राजवंश के दौरान प्रशासन, धर्म और कला | Pallava Dynasty: Administration, Religion and Art During Pallava Dynasty in Hindi.

पल्लव राजवंश का प्रशासन (Administration of Pallava Dynasty):

कान्ची के पल्लव नरेश ब्राह्मण धर्मानुयायी थे । अतः उन्होंने ‘धर्ममहाराजाधिराज’ अथवा ‘धर्ममहाराज’ की उपाधि धारण की । उनकी शासन पद्धति के अनेक तत्व मौर्यों तथा गुप्तों की शासन पद्धतियों से लिये गये प्रतीत होते हैं । शासन का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था । उसकी उत्पत्ति दैवी मानी जाती थी ।

पल्लव नरेश अपनी उत्पत्ति ब्रह्मा से मानते थे । पल्लव नरेश कुशल योद्धा, विद्वान् एवं कला-प्रेमी थे । युवराज का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण पल्लव राजवंश का प्रशासनहोता था और वह अपने अधिकार से भूमि दान में दे सकता था । पल्लव सम्राट के पास अपनी मंत्रिपरिषद थी जिसकी सलाह से वह शासन करता था । पल्लव लेखों में ‘अमात्य’ शब्द का उल्लेख मिलता है ।

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बैकुण्ठपेरुमाल लेख में नन्दिवर्मन् की मंत्रिपरिषद् का उल्लेख मिलता है । किन्तु मन्त्रियों के विभागों अथवा कार्यों के विषय में कोई सूचना नहीं मिलती है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रमुख विषयों पर मन्त्रणा करने के लिये राजा के पास कुछ खास मन्त्री होते थे जिन्हें ‘रहस्यादिकद’ कहा जाता था ।

पल्लव लेखों में शासन के कुछ प्रमुख अधिकारियों के नाम इस प्रकार मिलते हैं-सेनापति, राष्ट्रिक (जिले का प्रधान अधिकारी), देशाधिकृत (स्थानीयसंरक्षक), ग्रामभोजक (गाँव का मुखिया), अमात्य, आरक्षाधिकृत गौल्मिक (सैनिक-चौकियों के प्रधान), तैर्थिक (तीर्थों अथवा घाटों का सर्वेक्षक), नैयोजिक, भट्टमनुष्य, संचरन्तक (गुप्तचर) आदि ।

विशाल पल्लव साम्राज्य विभिन्न प्रान्तों में विभाजित किया गया था । प्रान्त की संज्ञा थी राष्ट्र या मण्डल । राष्ट्रिक नामक पदाधिकारी इसका प्रधान होता था । यह पद युवराज, वरिष्ठ अधिकारियों अथवा कभी-कभी पराजित राजाओं को भी प्रदान किया जाता था ।

राष्ट्रिक, अधीन सामन्तों के ऊपर भी नियन्त्रण रखता था । मण्डल के शासक अपने पास सेना रखते थे तथा उनकी अपनी अदालतें भी होती थीं । कालान्तर में उनका पद आनुवंशिक हो गया । ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकारियों को वेतन के बदले में भूमि का अनुदान ही दिया जाता था ।

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दक्षिण भारतीय प्रशासन की प्रमुख तत्व ग्रामसभा या समिति होती थी और यह पल्लव काल में भी रही होगी । प्राचीन पल्लव लेखों से पता चलता है कि ग्रामों का संगठन ‘ग्रामकेय’ अथवा मुटक के नेतृत्व में किया गया था । राजकीय आदेश उसी को सम्बोधित करके भेजे जाते थे ।

ग्रामसभा की बैठक एक विशाल वृक्ष के नीचे होती थी । इस स्थान को ‘मन्रम्’ कहा जाता था । ग्राम प्रायः दो प्रकार के होते थे- ब्रह्मदेय तथा सामान्य । ग्रामों में ब्राह्मणों की आवादी अधिक होती थी तथा इनसे कोई कर नहीं लिया जाता था ।

सामान्य ग्रामों में विभिन्न जातियों के लोग रहते थे तथा भूराजस्व के रूप में उन्हें राजा को कर देना पड़ता था । यह छठें से दसवें भाग तक होता था । इसके अतिरिक्त कुछ स्थानीय कर भी लगते थे तथा इनकी वसूली भी ग्राम सभा द्वारा ही की जाती थी । लेखों में अठारह पारम्परिक करों (अष्टादश परिहार) का उल्लेख मिलता है ।

पल्लवों के पास एक शक्तिशाली सेना भी थी । इसमें पैदल अश्वारोही तथा हाथी होते थे । उनके पास नौ सेना भी थी । महाबलिपुरम् तथा नेगपत्तन् नौ सेना के केन्द्र थे । नौ सैनिक युद्ध के अतिरिक्त अन्य कार्य भी करते थे तथा दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार में इनसे सहायता ली जाती थी ।

पल्लव राजवंश के दौरान धर्म और धार्मिक आंदोलन (Religion and Religious Movement during Pallava Dynasty):

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हिन्दू धर्म में मोक्ष अथवा ईश्वर प्राप्ति के तीन साधन बताये गये हैं- कर्म, ज्ञान तथा भक्ति । वेद कर्मकाण्डी हैं, उपनिषदों में ज्ञान मार्ग का प्रतिपादन है तथा गीता में इन तीनों के समन्वय की चर्चा है । कालान्तर में इन तीनों साधनों के आधार पर विभिन्न सम्प्रदायों का अविर्भाव हुआ ।

अनेक विचारकों तथा सुधारकों ने भक्ति को साधन बनाकर सामाजिक-धार्मिक जीवन में सुधार लाने के लिये एक आन्दोलन का सूत्रपात किया । भारतीय जन-जीवन में इस आन्दोलन ने एक नवीन शक्ति तथा गतिशीलता का संचार किया ।

सर्वप्रथम भक्ति आन्दोलन का अविर्भाव द्रविड़ देश में हुआ । भागवत पुराण में स्पष्टतः कहा गया है कि भक्ति द्रविड़ देश में जन्मी, कर्नाटक में विकसित हुई तथा कुछ काल तक महाराष्ट्र में रहने के वाद गुजरात में पहुँचकर जीर्ण हो गयी । द्रविड़ देश में भक्ति आन्दोलन पल्लव तथा चोल राजाओं के संरक्षण में चलाया गया । इसके सूत्रधार नायनार, आलवर एवं आचार्य थे ।

शिव तथा विष्णु इस आन्दोलन के आराध्य देव थे । पल्लव राजाओं का शासन-काल दक्षिण भारत के इतिहास में ब्राह्मण धर्म की उन्नति का काल रहा । इस काल के प्रारम्भ में ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ बौद्ध तथा जैन धर्म भी तमिल प्रदेश में लोकप्रिय थे । स्वयं ब्राह्मण धर्मावलम्बी होते हुए भी पल्लव शासकों में सहिष्णुता दिखाई देती है ।

उन्होंने अपने राज्य में जैनियों अथवा बौद्धों के ऊपर किसी भी प्रकार के अत्याचार नहीं किये । पल्लव नरेश परसिंहवर्मा प्रथम के समय में चीनी यात्री हुएनसांग कान्ची में कुछ समय ठहरा था । उसके अनुसार यहाँ सौ से अधिक बौद्ध विहार थे जिनमें दस हजार बौद्ध भिक्षु निवास करते थे ।

उन्हें राज्य की ओर से सारी सुविधायें प्रदान की गयी थीं । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि धीरे-धीरे तमिल समाज में शैव तथा वैष्णव धर्मों का प्रचलन हो गया और दोनों धर्मों के आचार्यों-शैव नायनार तथा वैष्णव आलवर-ने जैन एवं बौद्ध आचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित कर इन धर्मों की जड़ों को तमिल देश से उखाड़ फेंका ।

नायनारों तथा आलवरों ने दक्षिण गे भक्ति-आन्दोलन का सूत्रपात किया । उनके प्रयासों का फल अच्छा निकला तथा दक्षिण के शासकों तथा सामान्य जनता ने धीर-धीरे जैन एवं बौद्ध धर्मों का परित्याग कर भक्तिपरक शैव एवं वैष्णव धर्मों को ग्रहण कर लिया । इस प्रकार तमिल देश से जैन एवं बौद्ध धर्मों का विलोप हो गया ।

पल्लव राजाओं का शासन काल नायनारों तथा आलवरों के भक्ति-आन्दोलन के लिये विशेष रूप से उल्लेखनीय है । यह आन्दोलन ईसा की छठीं शताब्दी से प्रारम्भ होकर नवीं शताब्दी तक चलता रहा । इस काल में दोनों सम्प्रदायों के अनेक सन्तों का अविर्भाव हुआ जिन्होंने अपने-अपने प्रवचनों द्वारा जनता के हृदय में भक्ति की लहर दौडा दी ।

इनके प्रभाव में आकर पल्लव शासकों ने शैव तथा वैष्णव धर्मों को ग्रहण किया तथा शिव और विष्णु के सम्मान में मन्दिर एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया । भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप सुदूर दक्षिण में मूर्तिपूजा, अवतारवाद, यज्ञ, कर्मकाण्ड आदि का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार हुआ ।

पल्लव काल में शैव धर्म का प्रचार नायनारों द्वारा ही किया गया । नायनार सन्तों की संख्या 63 बताई गयी है जिनमें अप्पार, तिरुज्ञान, सम्बन्दर, सून्दरमूर्ति, मणिक्कवाचगर आदि के नाम उल्लेखनीय है । इनके भक्तिगीतों को एक साथ ‘देवारम’ में संकलित किया गया है ।

इनमें अप्पार जिसका दूसरा नाम तिरूनाबुक्करशु भी मिलता है, पल्लवनरेश महेन्द्रवर्मन् प्रथम का समकालीन था । उसका जन्म तिरुगमूर के बेल्लाल परिवार में हुआ था । बताया जाता है कि पहले वह एक जैन मठ में रहते हुए भिक्षु जीवन व्यतीत करता था । बाद में शिव की कृपा से उसका एक असाध्य रोग ठीक हो गया जिसके फलस्वरूप जैन मत का परित्यागकर वह निप्टावान शैव वन गया ।

अप्पर ने दास भाव से शिव की भक्ति की तथा उसका प्रचार जनसाधारण में किया । तिरुगान सम्बन्दर, शियाली (तन्जोर जिला) के एक ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ था । उसके विषय में एक कथा में बताया गया है कि तीन वर्ष की आयु में ही पार्वती की कृपा से उसे दैवीज्ञान प्राप्त हो गया था । उसके पिता ने उसे सभी तीर्थों का भ्रमण कराया ।

कहा जाता है कि पाण्ड्य देश की यात्राकर उसने वहाँ के राजा तथा प्रजा को जैन धर्म से शैवधर्म में दीक्षित किया था । सम्बस्तरर का बौद्ध आचार्यों के साथ भी वाद-विवाद हुआ तथा सभी को उसने शास्त्रार्थ में पराजित किया । उसने कई भक्ति गीत गाये तथा इस प्रकार उसकी मान्यता सबसे पवित्र सन्त के रूप में हो गयी ।

आज भी तमिल देश के अधिकांश शैव मन्दिरों में उसकी पूजा की जाती है । सुन्दरमूर्ति का जन्म नावलूर के एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उसका पालन-पोषण नरसिंह मुवैयदरेयन नामक सेनापति ने किया । यद्यपि उसका जीवन-काल मात्र अठारह वर्षों का रहा फिर भी वह अपने समय का अनन्य शैवभक्त बन गया ।

उसने लगभग एक सहस्त्र भक्तिगीत लिखे । सुन्दरमूर्ति को ‘ईश्वरमिश्र’ की उपाधि से सम्बोधित किया गया । इसी प्रकार मणिक्कवाचगर, मदुरा के समीप एक गांव के व्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ था । चिदम्बरम् में उसने लंका के बौद्धों को वाद-विवाद में परास्त कर ख्याति प्राप्त किया । उसने भी, अनेक भक्तिगीत लिखे जिन्हें ‘तिरुवाशगम्’ में संग्रहीत किया गया है । उसके गीतों में प्रेम तत्व की प्रधानता है ।

उसके द्वारा विरचित एक भक्तिगीत का हिन्दी रूपान्तर इस प्रकार है:

इंद्र या विष्णु अथवा ब्रह्मा

उनके दिव्य सुख की कामना मुझे नहीं है

में तेरे संतों का प्रेम चाहता हूँ

भले ही मेरा घर इससे नष्ट हो जाए ।

मैं रौरव नरक में जाने को तैयार हूँ

बस तेरी कृपा मेरे साथ रहे

जो सर्वश्रेष्ठ है मेरा मन,

तेरे अतिरिक्त और देव की कल्पना कर ही कैसे सकता है ?…

मेरे पास कोई गुण, तपस्या, गान, आत्मसंयम नहीं था

कठपुतली मात्र था मैं

दूसरों की इच्छा पर नाचता था, प्रसन्न होता था और गिरता था । किन्तु मेरे

अंग-प्रत्यंग में उसने

भर दी है प्रेम की मदमत्त अभिलाषा जिससे मैं पहुँच सकूँ

वहाँ तक जहाँ से लौटा नहीं जा सकता ।

उसने अपना सौंदर्य दिखाकर मुझे अपना बना लिया । हाय मैं,

कब उसके पास जाऊँगा में ?

इन सभी शैव सन्तों ने भजन, कीर्तन, शास्त्रार्थ एवं उपदेशों आदि के माध्यम से तमिल समाज में शैवभक्ति का जोरदार प्रचार किया तथा भक्ति को ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन बताया । वे जाति-पाँति के विरोधी थे तथा उन्होंने समाज के सभी वर्णों के बीच जाकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया ।

नायनार सन्तों ने पल्लव शासकों तथा अन्य राजकुल के सदस्यों को भी प्रभावित किया । परिणामस्वरूप वे न केवल शैव बने अपितु उन्होंने इस धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान भी दिया । महेन्द्रवर्मन् प्रथम ने जैनधर्म का परित्याग कर सन्त अप्पार के प्रभाव से शैव धर्म ग्रहण किया ।

उसके उत्तराधिकारी नरसिंहवर्मन् प्रथम ने शिव की उपासना में कई मन्दिर बनवाये थे । परमेश्वरवर्मन् प्रथम शिव का अनन्य उपासक था जिसकी उपाधि ‘परममाहेश्वर’ की थी । नरसिंहवर्मन् द्वितीय ने भी शैवधर्म ग्रहण किया तथा उसने शिव का एक विशाल मन्दिर बनवाया था ।

इन शासकों के अनुकरण पर सामान्य जनता भी शैव धर्म की ओर आकर्षित हो गयी । इस धर्म के सामान्य सिद्धान्तों के साथ-साथ कालान्तर में शैव दर्शन का भी तमिल समाज में प्रचार हो गया ।

शैवधर्म के साथ-साथ पल्लवकालीन समाज में वैष्णव धर्म का भी प्रचार हुआ । तमिल देश में इस धर्म का प्रचार मुख्यतः ‘आलवर’ सन्तों द्वारा किया गया । आलवर शब्द का अर्थ है ‘अन्तर्ज्ञान रखने वाला वह व्यक्ति जो ईश्वरीय चिन्तन मैं पूर्णतया विलीन हो गया हो’ ।

इनकी संख्या बारह बताई गयी है:

1. भूतयोगी (भूतत्तार),

2. सरोयोगी (पोयगई),

3. महायोगी (पेय),

4. भक्तिसार (तिरुमलिशई),

5. परांकुश मुनि या शठकोप (नम्मालवार),

6. मधुरकवि,

7. कुलशेखर (पेरूमाल),

8. विष्णुचित् (पेरिय),

9. गोदा (अण्डाल),

10. भक्तांघ्रिरेणु (तोण्डर-अडि-पीडिय),

11. योगिवाह (तिरुप्पान) तथा

12. परकाल (तिरुमंगै आलवर) ।

इनका आविर्भाव सातवीं से नवीं शताब्दी के मध्य हुआ । प्रारम्भिक आलवर सन्तों में पोयगई, पोडिय तथा पेय के नाम मिलते हैं जो क्रमशः कांची, मल्लई तथा मयलापुरम् के निवासी थे । इन्होंने सीधे तथा सरल दग से भक्ति का उपदेश दिया ।

इनके विचार संकीर्णता अथवा साम्प्रदायिक तनाव से रहित थे । इनके पश्चात् तिरुमलिशई का नाम मिलता है जो संभवतः पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन् प्रथम के समय में हुआ । तिरुमंगई अत्यन्त प्रसिद्ध आलवर सन्त हुआ । अपनी भक्तिगीतों के माध्यम से जैन तथा बौद्ध धर्मों पर आक्रमण करते हुए उसने वैष्णव धर्म का जोरदार प्रचार किया ।

कहा जाता है कि श्रीरंगम के मठ की मरम्मत के लिये उसने नेगपट्‌टम् के बौद्ध वाँन्द्व विहार से एक स्वर्ण मूर्ति, चुरायी थी । शैवों के प्रति उसका दृष्टिकौण अपेक्षाकृत उदार था । आलवरों में एकमात्र महिला साध्वी आण्डाल का नाम मिलता है जिसके भक्तिगीतों में कृष्ण-कथायें अधिक मिलती है । मध्ययुगीन कवयित्री मीराबाई की कृष्ण भक्ति के समान आण्डाल भी कृष्ण की प्रेम दीवानी थी ।

आलवर सन्तों की अन्तिम कड़ी के रूप ग्रे नाम्मालवार तथा उसके प्रिय शिष्य मधुर कवि के नाम उल्लेखनीय हैं । नाम्मालवार का जन्म तिनेवेली जिले के एक वेल्लाल कुल में हुआ था । उसने बड़ी संख्या में भक्तिगीत लिखे । उसके गीतों में गम्भीर दार्शनिक चिन्तन देखने को मिलता है । विष्णु को अनन्त एवं सर्वव्यापी मानते हुए उसने बताया कि उसकी प्राप्ति एक मात्र भक्ति से ही संभव है ।

विष्णु की स्तुति में लिखा गया उसका एक पद उल्लेखनीय है:

तू अभी इतना दयालू नहीं हुआ कि तू अपनी

करुणा अपनी प्रेयसी (गार्चिका) को दे सके ।

तेरी उपेक्षा से निराश वह अपना शरीर त्याग दे

उससे पूर्व ही तू इतनी दया तो कर

कि अपने संदेशवाहक तथा वाहन गरुड़ के द्वारा

उस प्रेमिका को संदेश भेज दे, है दया के सागर,

कि वह बलात न हो और कुछ हिम्मत से काम ले, जब तक

तू मेरे स्वामी, लौटकर आए प्रत्याशित

निश्चय ही शीघ्र आएगा तू ।

नाम्मालवार के शिष्य मधुर कवि ने अपने गीतों के माध्यम से गुरु महिमा का बखान किया । आलवर सन्तों ने ईश्वर के प्रति अपनी उत्कट भक्ति-भावना के कारण अपने को पूर्णरूपेण उसमें समर्पित कर दिया । उनकी मान्यता थी कि समस्त संसार ईश्वर का शरीर है तथा वास्तविक आनन्द उसकी सेवा करने में ही है ।

आलवर की तुलना उस विरहिणी युवती के साथ की गयी है जो अपने प्रियतम के विरह वेदना में अपने प्राण खो देती है । आलवरों ने भजन, कीर्तन, नामोच्चारण, मूर्तिदर्शन आदि के माध्यम से वैष्णव धर्म का प्रचार किया । वे गोपीभाव को सर्वोत्तम मानते है तथा भगवान के प्रति विरह में तन्मय हो जाते हैं (स्त्रीभावनां समधिगम्य मुनिर्मोह) ।

भगवान के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है । अज्ञानी व्यक्तियों की जिस प्रकार विषयभोगों में उत्कट प्रीति होती है, उसी प्रकार की उत्कट प्रीति जब नित्य भगवान् में होती है तब भक्ति का उदय होता है । जैसे कोई प्रेमिका अपने प्रियतम के विरह में निरन्तर उसका चिन्तन किया करती है था उत्कट प्रेम में लीन होकर प्रियतम से मिलने को आतुर रहती है, वैसे ही भक्त की मनोदशा अपने प्रियतम परमात्मा के मिलन के लिये होती है ।

आलवर सन्त भक्ति को ‘काम’ कहते है किन्तु यह लौकिक काम से भिज्ञ सच्चिदानन्द भगवान के प्रति दिव्य प्रेम है । जिस प्रकार कालिदास के यक्ष ने मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रियतमा के पास भेजा था, उसी प्रकार आलवर सन्त भी उड़ते हुए हंसों तथा पक्षियों को दूत बनाकर उनसे निवेदन करते हैं कि यदि उन्हें कहीं उनके प्रियतम कृष्ण दिखाई पड़े तो उनसे कहे कि वे क्यों उन्हें भूल गये और उनके पास नहीं आते ।

आलवर सन्त नश्वर संसार के विषयों से उसी प्रकार संयुक्त नहीं होते जैसे कीचड से कमल । इस प्रकार आलवर सच्चे विष्णु भक्त थे । श्रीमद्‌भागवत् में आत्मनिवेदन अर्थात् ईश्वर में पूर्ण समर्पण को सर्वोत्तम भक्ति माना गया है ।

आलवर सन्तों ने प्रेमाभक्ति द्वारा आत्म-समर्पण को ही सर्वाधिक महत्व प्रदान किया । लगता है कि वैष्णव आन्दोलन का प्रारम्भ सर्वप्रथम पल्लवों के राज्य से ही हुआ तथा उसके बाद यह दक्षिण के अन्य भागों में पहुंचा ।

आलवर सन्तों के प्रभाव में आकर कई पल्लव राजाओं ने वैष्णव धर्म को ग्रहण कर उसे राजधर्म बनाया तथा विष्णु के सम्मान में मन्दिरों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया । सिंहविष्णु ने मामल्लपुरम् में आदिवाराह मन्दिर का निर्माण करवाया था । नरसिंहवर्मन् द्वितीय के समय में कान्ची में बैकुण्ठपेरुमाल मन्दिर का निर्माण करवाया गया ।

दन्तिवर्मा भी विष्णु का महान् उपासक था । लेखों में उसे विष्णु का अवतार बताया गया है । इस प्रकार पल्लवकालीन समाज में नायनार तथा आलवर सन्तों द्वारा प्रवर्तित भक्ति आन्दोलन बड़े वेग से प्रचलित हुआ । सन्तों ने अनेक भक्तिगीत लिखे जिन्हें मन्दिरों में गाया जाता था । वस्तुतः मन्दिर इस काल की धार्मिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र थे ।

पल्लव राजवंश के दौरान साहित्य (Literature during Pallava Dynasty):

पल्लव नरेशों का शासन संस्कृत तथा तमिल दोनों ही भाषाओं के साहित्य की उप्रति का काल रहा । कुछ पल्लव नरेश उच्चकोटि के विद्वान् थे तथा उनकी राजसभा में प्रसिद्ध विद्वान् एवं लेखक निवास करते थे । महेन्द्रवर्मा प्रथम ने ‘मत्तविलासप्रहसन’ नामक हास्य-ग्रन्थ की रचना की थी ।

इसमें कापालिकों एवं वौद्ध भिक्षुओं की हँसी उड़ाई गयी है । कुछ विद्वानों के मतानुसार किरातार्जुनीय महाकाव्य के रचयिता भारवि उसी की राजसभा में निवास करते थे । महेन्द्रवर्मा का उत्तराधिकारी नरसिंहवर्मा भी महान् विद्या-प्रेमी था । उसकी राजसभा में दशकुमारचरित एवं काव्यादर्श के लेखक दण्डी निवास करते थे ।

पल्लव शासकों के अधिकांश लेख विशुद्ध संस्कृत में लिखे गये है । संस्कृत के साथ-साथ इस समय तमिल भाषा की भी उन्नति हुई । शैव तथा वैष्णव सन्तों द्वारा तमिल भाषा एवं साहित्य का प्रचार-प्रसार हुआ । पल्लवों की राजधानी कान्ची विद्या का प्रमुख केन्द्र थी जहाँ एक संस्कृत महाविद्यालय (घटिका) था । इसी के समीप एक मण्डप में महाभारत का नियमित पाठ होता था तथा ब्राह्मण परिवार वेदाध्ययन किया करते थे । कदम्बनरेश मयूरशर्मा विद्याध्यन के लिये कांची के विद्यालय (घटिका) में ही गया था ।

पल्लव राजवंश के दौरान कला और वास्तुकला (Art and Architecture during Pallava Dynasty):

पल्लव नरेशों का शासन-काल कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिये प्रसिद्ध है । वस्तुतः उनकी वास्तु एवं तक्षण कला दक्षिण भारतीय कला के इतिहास में सर्वाधिक गौरवशाली अध्याय है । पल्लव वास्तु कला ही दक्षिण की द्रविड़ कला शैली का आधार बनी ।

उसी से दक्षिण भारतीय स्थापत्य की तीन प्रमुख अंगों का जन्म हुआ:

(i) मण्डप,

(ii) रथ तथा

(iii) विशाल मन्दिर ।

प्रसिद्ध कलाविद् पर्सी ब्राउन ने पल्लव वास्तुकला के विकास की शैलियों को चार भागों में विभक्त किया है । इनका विवरण इस प्रकार है:

1. महेन्द्र शैली:

पल्लव वास्तु का प्रारम्भ महेन्द्रवर्मन् प्रथम के समय से हुआ जिसकी उपाधि ‘विचित्र चित्र’ की थी । मण्डगपट्टु लेख में वह दावा करता कि उसने ईट, लकड़ी, लोहा, चूना आदि के प्रयोग के बिना एक नयी वास्तु शैली को जन्म दिया । यह नयी शैली ‘मण्डप’ वास्तु की थी जिसके अन्तर्गत गुहा मन्दिरों के निर्माण की परम्परा प्रारम्भ हुई ।

तोण्डमण्डलम् की प्रकृत शिलाओं को उत्कीर्ण कर मन्दिर बनाये गये जिन्हें ‘मण्डप’ कहा जाता है । ये मण्डपसाधारण स्तम्भयुक्त बरामदे है जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये है । इनके पार्श्व भाग में गर्भगृह रहता है । शेव मण्डप के गर्भगृह में लिंग तथा वैष्णव मण्डप के गर्भगृह में विष्णु प्रतिमा स्थापित रहती थी ।

मण्डप के बाहर बने मुख्य द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियाँ मिलती है जो कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की है । मण्डप के सामने स्तम्भों की एक पंक्ति मिलती हैं । प्रत्येक स्तम्भ सात फीट ऊँचा है । स्तम्भ संतुलित ढंग से नियोजित किये गये है तथा दो स्तम्भों के बीच समान दूरी घड़ी कुशलतापूर्वक रखी गयी है । स्तम्भों के तीन भाग दिखाई देते है । आधार तथा शीर्ष भाग पर दो फीट का आयत है जबकि मध्यवर्ती भाग अठकोणीय बना है ।

स्तम्भ प्रायः चौकोर है जिनके ऊपर के शीर्ष सिंहाकार बनाये गये है । महेन्द्र शैली के मण्डपों में मण्डगपट्‌टु का त्रिमूर्ति मण्डप, पल्लवरम् का पन्चपाण्डव मण्डप, महेन्द्रवाड़ी का महेन्द्रविष्णु गृहमण्डप, ग्रामन्डूर का विष्णुमण्डप, त्रिचनापल्ली का ललितांकुर पल्लवेश्वर गृहमण्डप आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।

इस शैली के प्रारम्भिक मण्डप सादे तथा अलंकरणरहित है किन्तु बाद के मण्डपों को अलंकृत करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है । पन्चपाण्डव मण्डप में छ अलंकृत स्तम्भ लगाये गये है । इन पर कमल फुल्लक, मकर तोरण, तरंग मंजरी आदि के अभिप्राय अंकित है । महेन्द्रवर्मा प्रथम के बाद भी कुछ समय तक इस शैली का विकास होता रहा ।

2. मामल्ल-शैली:

इस शैली का विकास नरसिंहवर्मा प्रथम महामल्ल के काल में हुआ । इसके अन्तर्गत दो प्रकार के स्मारक बने- मण्डप तथा एकाश्मक मन्दिर जिन्हें ‘रथ’ कहा गया है । इस शैली में निर्मित सभी स्मारक मामल्लपुरम् (महावलीपुरम्) में विद्यमान हैं । यहाँ मुख्य पर्वत पर दस मण्डप बनाये गये हैं ।

इनमें आदिवाराह मण्डप, महिषमर्दिनी मण्डप, पन्चपाण्डव मण्डप, मण्डप आदि विशेष प्रसिद्ध है । इन्हें विविध प्रकार से अलंकृत किया गया है । मण्डपों का आकार-प्रकार बड़ा नहीं । मण्डपों के स्तम्भ पहले की अपेक्षा पतले तथा लम्बे हैं । इनके ऊपर पद्य, कुम्भ, फलक आदि अलंकरण बने हैं ।

स्तम्भों को मण्डपों में अत्यन्त अलंकृत ढंग से नियोजित किया गया है । मण्डप अपनी मूर्तिकारी के लिये प्रसिद्ध । इनमें उत्कीर्ण महिषमर्दिनी, अनन्तशायी विष्णु, त्रिविक्रम, ब्रह्मा, गजलक्ष्मी, हरिहर आदि की मूर्तियाँ कलात्मक दृष्टि से अत्युत्कृष्ट है ।

पन्चपाण्डव मण्डप में कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण किये जाने का दृश्य अत्यन्त सुन्दर है । आदिवाराह मण्डप में राजपरिवार के दो दृश्यों का अंकन मिलता है । पहली मूर्ति में राजा सुखासन मुद्रा में बैठा है जिसके दोनों ओर उसकी दो रानियों खड़ी हैं ।

इसकी पहचान सिंहविष्णु से की गयी है । दूसरी मुद्रा में राजा महेन्द्र (महेन्दवर्मन् द्वितीय) अपनी दो पत्नियों के साथ खड़ा दिखाया गया है । मामल्लशैली के मण्डप महेन्द्र शैली के विकसित रूप को प्रकट करते है । इनकी कलात्मकता वराह, महिष तथा पन्चपाण्डव मण्डपों में स्पष्टत दर्शनीय है ।

रथ मन्दिर, महाबलीपुरम्:

मामल्लशैली की दूसरी रचना रथ अथवा एकाश्मक मन्दिर है । पल्लव वास्तुकारों ने विशाल प्रकृत चट्टानों को काटकर जिन एकाश्म पूजागृहों की रचना की उन्हीं को रथ कहा जाता है । इनके निर्माण की परम्परा नरसिंहवर्मन् के समय ही प्रारम्भ हुई ।

इसके लिये उस समय तक प्रचलित समस्त वास्तु नमूनों से प्रेरणा ली गयी । इन्हें देखने से पता चलता है कि शिला के अनावश्यक भाग को अलग कर अपेक्षित स्वरूप को ऊपर से नीचे की ओर उत्कीर्ण किया जाता था । रथ मन्दिरों का आकार-प्रकार अन्य कृतियों की अपेक्षा छोटा है ।

ये अधिक से अधिक 42 फूट लम्बे, 35 फुट चौडे तथा 40 फुट ऊँचे हैं तथा पूर्ववर्ती गुहा-विहारों अथवा चैत्यों की अनुकृति पर निर्मित प्रतीत होते हैं । प्रमुख रथ हैं- द्रौपदी रथ, नकुल-सहदेव रथ, अर्जन रथ, भीम रथ, धर्मराज रथ, गणेश रथ, पिंडारि (ग्राम्य-देवी) रथ तथा वलैयंकुट्टै रथ । प्रथम पाँच दक्षिण में तथा अन्तिम तीन उत्तर और उत्तर पश्चिम में स्थित है । ये सभी शैव मन्दिर प्रतीत होते । द्रौपदी रथ सबसे छोटा है ।

यह सचल देवायतन की अनुकृति है जिसका प्रयोग उत्सव और शोभा यात्रा के समय किया जाता है, जैसे पुरी का रथ । इसका आकार झोपड़ी जैसा है । इसमें किसी प्रकार का अलंकरण नहीं मिलता तथा यह एक सामान्य कक्ष की भाँति खोदा गया है । यह सिंह तथा हाथी जैसे पशुओं के आधार पर टिका हुआ है ।

अन्य सभी रथ बौद्ध विहारों के समान समचतुस्र आयताकार है तथा इनके शिखर नागर अथवा द्रविड़ शैली में बनाये गये हैं । विमान के विविध तत्वों-अधिष्ठान, पाद भित्ति, प्रस्तर, ग्रीवा, शिखर तथा इनमें स्पष्टत दिखाई देते हैं । गणेश रथ का शिखर वेसर शैली में निर्मित है । धर्मराज रथ सबसे अधिक प्रसिद्ध है ।

इसके ऊपर पिरामिड के आकार का शिखर बनाया गया है । मध्य में वर्गाकार कक्ष तथा नीचे स्तम्भयुक्त बरामदा है । कुर्सी में गढ़े हुए सुदृढ़ टुकड़ों तथा सिंहस्तम्भयुक्त अपनी ड्योढ़ियों से यह और भी सुन्दर प्रतीत होता है । पर्सीब्राउन के शब्दों में ‘इस प्रकार की योजना न केवल अपने में एक प्रभावपूर्ण निर्माण है अपितु शक्तियों से परिपूर्ण होने के साथ-साथ सुखद रूपों तथा अभिप्रायों का भण्डार है ।’

इसे द्रविड़ मन्दिर शैली का अग्रदूत कहा जा सकता है । भीम, सहदेव तथा गणेश रथों का निर्माण चैत्यगृहों जैसा है । ये दीर्घाकार हैं तथा इनमें दो या अधिक मंजिलें है, और तिकोने किनारों वाली पीपे जैसी छतें हैं । सहदेव रथ अर्धवृत्त के आकार का है । पिडारि तथा वलेयंकुट्टै रथों का निर्माण अधूरा है ।

नीलकंठ शास्त्री के अनुसार ‘इन रथों की दीर्घाकार आयोजना, छोटी होती जाने वाली मंजिलों और कलशों तथा नुकीले किनारों के साथ पीपे के आकार वाली छतों के आधार पर ही बाद के गोपुरों अथवा मन्दिरों की प्रवेश बुर्जियों की डिजाइन तैयार की गयी होगी ।

मामल्लशैली के रथ अपनी मूर्तिकला के लिये भी प्रसिद्ध हैं । नकुल-सहदेव रथ के अतिरिक्त अन्य सभी रथों पर विभिन्न देवी-देवताओं जैसे-दुर्गा, इन्द्र, शिव, गंगा, पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा, स्कन्द आदि की मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं ।

द्रौपदी रथ की दीवारों में तक्षित दुर्गा तथा अर्जुन रथ की दीवारों में बनी शिव की मूर्तियां विशेष रूप से प्रसिद्ध है । धर्मराज रथ पर नरसिंहवर्मा की मूर्ति अंकित है । इन रथों को ‘सप्त पगोडा’ कहा जाता है । दुर्भाग्यवश इनकी रचना अपूर्ण रह गयी है ।

3. राजसिंह-शैली:

इस शैली का प्रारम्भ पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन् द्वितीय ‘राजसिंह’ ने किया । इसके अन्तर्गत गुहा-मन्दिरों के स्थान पर पाषाण, ईंट आदि की सहायता से इमारती मन्दिरों का निर्माण करवाया गया । इस शैली के मन्दिरों में से तीन महाबलीपुरम् से प्राप्त होते हैं-शोर-मन्दिर (तटीय शिव मन्दिर), ईश्वर मन्दिर तथा मुकुन्द मन्दिर ।

शोर मन्दिर इस शैली का प्रथम उदाहरण है । इनके अतिरिक्त पनमलाई (उत्तरी अर्काट) मन्दिर तथा कान्ची के कैलाशनाथ एवं वैकुण्ठपेरूमाल मन्दिर भी उल्लेखनीय हैं । महावलीपुरम् के समुद्र तट पर स्थित शोर-मन्दिर पल्लव कलाकारों की अद्‌भुत कारीगरी का नमूना है । मन्दिर का निर्माण एक विशाल प्रांगण में हुआ है जिसका प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है ।

इसका गर्भगृह धर्मराज रथ के समान वर्गाकार है जिसके ऊपर अष्टकोणिक शुंडाकार विमान कई तल्लों वाला है । ऊपरी तल्ले क्रमशः छोटे होते गये हैं । गर्भगृह समुद्र की ओर है तथा इसके चारों ओर प्रदक्षिणापथ है । मुख्य मन्दिर के पश्चिमी किनारे पर बाद में दो और मन्दिर जोड़ दिये गये ।

इनमें से एक छोटा विमान है । बढे हुए भागों के कारण मुख्य मन्दिर की शोभा में कोई कमी नहीं आने पाई है । इसका शिखर सीढीदार है तथा उसके शीर्ष पर स्तृपिका बनी हुई है । यह अत्यन्त मनोहर है । दीवारों पर गणेश, स्कन्द, गज, शार्दूल आदि की मूर्तियां उत्कीर्ण मिलती हैं ।

इसमें सिंह की आकृति को विशेष रूप से खोद कर बनाया गया है । घेरे की भव्य दीवार के मुडैर पर उँकडू बैठे हुए बैलों की मूर्तियाँ बनी हैं तथा बाहरी भाग के चारों ओर थोड़ी-थोड़ी अन्तराल पर सिंह-भित्ति-स्तम्भ बने हैं । इस प्रकार यह द्रविड वास्तु की एक सुन्दर रचना है । शताब्दियों की प्राकृतिक आपदाओं की उपेक्षा करते हुए यह आज भी अपनी सुन्दरता को बनाये हुए है ।

कांची स्थित कैलाशनाथ मन्दिर राजसिंह शैली के चरम उत्कर्ष को व्यक्त करता है । इसका निर्माण नरसिंहवर्मन द्वितीय (राजसिंह) के समय से प्रारम्भ हुआ तथा उसके उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन् द्वितीय के समय में इसकी रचना पूर्ण हुई । द्रविड शैली की सभी विशेषतायें जैसे- परिवेष्ठित प्रांगण, गोपुरम्, स्तम्भयुक्त मण्डप, विमान आदि इस मन्दिर में एक साथ प्राप्त हो जाती हैं ।

इसके निर्माण में ग्रेनाइट तथा बलुआ पत्थरों का उपयोग किया गया है । इसका गर्भगृह आयताकार है जिसकी प्रत्येक पुजा 9 फीट है । इसमें पिरामिडनुमा विमान तथा स्तम्भयुक्त मण्डप है । मुख्य विमान के चारों ओर प्रदक्षिणापथ है । स्तम्भों पर आधारित मण्डप मुख्य विमान से कुछ दूरी पर बना है ।

पूर्वी दिशा में गोपुरम् दुतल्ला है । सम्पूर्ण मन्दिर ऊँचे परकोटों से घिरा हुआ है । मन्दिर में शैव सम्प्रदाय एवं शिव-लीलाओं से सम्बन्धित अनेक सुन्दर-सुन्दर मूर्तियाँ अंकित है जो उसकी शोभा को द्विगुणित करती हैं । कैलाशनाथ मन्दिर के कुछ बाद का बना बैकुण्ठपेरुमाल का मन्दिर है । उसका निर्माण परमेश्वरवर्मन् द्वितीय के समय में हुआ था ।

यह भगवान विष्णु का मन्दिर है जिसमें प्रदक्षिणापथयुक्त गर्भगृह एवं सोपानयुक्त मण्डप हैं । मन्दिर का विमान वर्गाकार एवं चारतल्ला है । प्रथम तल्ले में विष्णु की अनेक मुद्राओं में मूर्तियों बनी हुई है । साथ ही साथ मन्दिर की भीतरी दीवारों पर युद्ध, राज्याभिषेक, अश्वमेध, उत्तराधिकार-चयन, नगर-जीवन आदि के दृश्यों को भी अत्यन्त सजीवता एवं कलात्मकता के साथ उत्कीर्ण किया गया है ।

ये विविध चित्र रिलीफ स्थापत्य के सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । इन चित्रों के माध्यम से तत्कालीन जीवन एवं संस्कृति की जानकारी हो जाती है । मन्दिर में भव्य एवं आकर्षक स्तम्भ लगे है । पल्लव वास्तु-कला का विकसित स्वरूप इस मन्दिर में दिखाई देता है ।

4. नन्दिवर्मन्-शैली:

इस शैली के अन्तर्गत अपेक्षाकृत छोटे मन्दिरों का निर्माण हुआ । इसके उदाहरण कान्ची के मुक्तेश्वर एवं मातंगेश्वर मन्दिर, ओरगडम् का वड़मल्लिश्वर मन्दिर, तिरुत्तैन का वीरट्‌टानेश्वर मन्दिर, गुडिडमल्लम् का परशुरामेश्वर मन्दिर आदि हैं । कान्ची के मन्दिर इस शैली के प्राचीनतम नमूने हैं ।

इनमें प्रवेश-द्वार पर स्तम्भयुक्त मण्डप बने हैं । शिखर वृत्ताकार अर्थात् वेसर शैली का है । विमान तथा मण्डप एक ऊंची चौकी पर स्थित है । छत चिपटी है । शैली की दृष्टि से ये धर्मराज रथ की अनुकृति प्रतीत होते हैं । इसके बाद के मन्दिर चोल-शैली से प्रभावित एवं उसके निकट है ।इस प्रकार पल्लव राजाओं का शासन काल कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध रहा ।

पल्लव कला का प्रभाव कालान्तर में चोल तथा पाण्डय कला पर पड़ा तथा यह दक्षिण पूर्व एशिया में भी पहुँची । कलाकारों ने बौद्ध चैत्य एवं विहारों की कला को हिन्दू स्थापत्य में परिवर्तित कर दिया तथा शीघ्र नष्ट होने वाली काष्ठ कला को पाषाण में रूपान्तरित कर उसे समुन्नत बनाया । इस काल की कुछ कलात्मक कृतियां आज भी अपने निर्माताओं की महानता का संदेश दे रही है ।

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