ब्रिटिश शासन के दौरान गैर-ब्राह्मण जातियों और अछूतों द्वारा विरोध | Protests by Non-Brahmin Castes and Untouchables during British Rule

राष्ट्रवाद की कांग्रेसी धारणा के प्रति जिन दूसरे महत्त्वपूर्ण सामाजिक समूहों ने विरोध व्यक्त किया, वे गैर-ब्राह्मण जातियों और अछूतों के समूह थे । 1930 के दशक के आसपास से इन अछूतों ने स्वयं को दलित कहना शुरू किया ।

यह शब्द उपनिवेशवाद के शब्द ”उत्पीड़ित वर्ग”, उसकी जगह 1936 में लाए गए शब्द ”अनुसूचित जातियों”  और गांधी के शब्द ”हरिजन” (हरि के जन) की अपेक्षा हिंदू भारत में उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को कहीं बेहतर ढंग से सामने रखता था ।

जैसा कि शब्द ‘दलित’ से संकेत मिलता है, उनके प्रतिरोध की कोई भी समझ (या व्याख्या) भारत में सामाजिक संस्तरण और उत्पीड़न की एक विधि के रूप में जातिप्रथा के विकास की विवेचना से आरंभ होनी चाहिए । मानवशास्त्रियों और सामाजिक इतिहासकारों ने इसे भारतीय सामाजिक संगठन की सबसे अनोखी विशेषता माना है, जो वर्ग और जाति की दो समानांतर धारणाओं में व्यक्त होती है।

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चतुर्वर्ण का विभाजन सबसे प्राचीन सामाजिक संरचना था और लगभग 1000 ईसा पूर्व जितना पुराना है, जब ”आर्य” समाज का ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा इन तीनों उच्चतर समूहों की सेवा करनेवाले शूद्रों में विभाजन हुआ ।

एक पूरी तरह विकसित संस्था के रूप में छुआछूत की प्रथा तीसरी से छठी सदी ईस्वी के बीच किसी समय सामने आई, जब अछूतों की एक पाँचवीं श्रेणी बन गई । ये लोग पंचम, अतिशूद्र या चांडाल आदि नामों से जाने जाते थे ।

यह वर्ण-विभाजन वस्तुत: बाद की सामाजिक वास्तविकताओं के लिए कुछ विशेष प्रासंगिक न था और केवल ऐसा ”एक बुनियादी साँचा (template)” ही सामने नहीं रखता था, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों की सामाजिक श्रेणियों की अवधारणा बनाई जा सके ।

वास्तविक सामाजिक संगठन के लिए इससे अधिक महत्त्वपूर्ण थीं वे अनेक जातियाँ, जिनको अस्पष्ट ढंग से अंग्रेजी में कास्ट (castes) कहते हैं; यह शब्द पुर्तगाली शब्द castas से व्यूत्पन्न है । व्यावसायिक समूहों  के रूप में जातियाँ, जिनकी संख्या आधुनिक भारत में 3000 से अधिक है, वर्णों के साथ-साथ सामने आ रही थीं और पेशेवर विशेषीकरण (professional specialization) के आधार पर अकसर वे आगे भी विभाजित होती  थीं । कुछ मानवशास्त्रियों ने इन छोटे समूहों को उपजातियाँ कहा है, जबकि इरावती कर्वे (1977) उनको जातियाँ तथा अधिक बड़े समूहों को ”जाति गुच्छ” (caste clusters) मानती हैं ।

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नामकरण की इस बहस में आगे पड़े बिना हम जातियों की पहचान ऐसे व्यावसायिक समूहों के रूप में कर सकते हैं, जिनकी सदस्यता जन्म से निर्धारित होती है तथा अंतर्विवाह के कठोर नियमों और खान-पान सबंधी प्रतिबंधों के द्वारा जिनकी विशिष्टता को बनाए रखा जाता है ।

हरेक जाति को एक कर्मकांडी श्रेणीपद (ritual ranking) दिया गया है, जो उसके सदस्यों को पूरे समाज को समेटने वाले एक विस्तृत सोपानक्रम (hierarchy) में स्थापित करता है । इस श्रेणीपद का निर्धारण किस बात से होता है, यह भी तीखे विवाद का विषय रहा है ।

लुई द्यूमों (1970) जैसे संरचनावादी मानवशास्त्री मानते हैं कि श्रेणीक्रम (ranking) की यह व्यवस्था मूलत: धार्मिक थी, क्योंकि भारतीय समाज में पारलौकिक लौकिक को समेट लेता था तथा ब्राह्मण पुरोहित को क्षत्रिय राजा से अधिक शक्तिशाली बनाता था ।

ऐसे सांस्कृतिक परिवेश में सामाजिक पदस्थिति का निर्धारण शुद्धता और अशुद्धता के पैमाने से होता था; शुद्धता का मूर्त रूप होने के नाते ब्राह्मण इस सोपान के शिखर पर होता था और अशुद्ध माने जाने के कारण अछूतों को सबसे नीचे रखा जाता था, जबकि मध्य क्रम में शुद्धता/अशुद्धता की भिन्न-भिन्न श्रेणियों वाले समूह होते थे ।

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लेकिन बाद के सामाजिक इतिहासकारों का यह तर्क रहा है कि कर्मकांडी श्रेणीपद शक्ति-संरचना से कभी असंबद्ध नहीं रहा; ताज (यानी क्षत्रिय राजा की स्थिति) कभी इतना खोखला नहीं रहा, जितना कुछ उपनिवेशवादी प्रजातिशास्त्रियों ने दिखाया है । इस स्थिति में पेशे की प्रकृति और शक्ति के केंद्र से दूरी जैसे तत्त्व कर्मकांडी श्रेणीपद का निर्धारण करते थे ।

दूसरे शब्दों में, शक्ति, संपदा और श्रेणीपद के बीच गहरा सकारात्मक सह-संबंध रहा है । यह एक ऐसा सामाजिक संगठन था जिसे गेल ओंवेट ने ”जाति-सामंती समाज” कहा है; ”जाति/वर्ग संभ्रम” (caste/class confusion) इसकी विशेषता रहा है । लेकिन यह ठीक-ठीक एक प्रच्छन्न वर्ग व्यवस्था भी नहीं थी ।

यह कोई द्विभाजी (dichotomous) व्यवस्था नहीं थी, बल्कि श्रेणीकरण की एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसके ”मध्य क्षेत्र में ( श्रेणीक्रम को लेकर) बहुत अस्पष्टता” थी और विभिन्न किसान जातियाँ यहाँ श्रेष्ठ स्थिति पाने के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा करती थीं ।

इस व्यवस्था के अंदर हर जाति के सदस्यों के लिए एक धर्म (नैतिक आचरण संहिता) निर्धारित किया गया था, जिसका पालन या उल्लंघन (कर्म) अगले जन्म में जाति-व्यवस्था के सोपानक्रम में उनकी स्थिति को निर्धारित करता था । हालांकि इसका अर्थ धर्मग्रंथों द्वारा अनुशंसित एक कठोर सामाजिक व्यवस्था है, पर जाति- आधारित समाज की वास्तविकता इस आदर्श से अर्थपूर्ण सीमा तक अलग थी ।

कारण कि धर्म का सदैव, हर जगह स्वीकार नहीं किया जाता था, और समय-समय पर उसके वर्चस्व का अंदर से ही चुनौती मिलती रही; ऐसी सबसे अहम चुनौती मध्यकाल के भक्ति आंदोलन से मिली, जिसने धार्मिक और सामाजिक जीवन की कर्मकांडी बुनियाद को चुनौती दी और उसकी जगह केवल भक्ति पर बल दिया ।

इसके अलावा सीमित सामाजिक गतिशीलता के अवसरों ने अकसर सामाजिक स्थितियों में परिवर्तन और नए सामंजस्य पैदा किए । इतिहास के विभिन्न चरणों में बंजर जमीन की आबादकारी (colonisation), योद्धा समूहों के उदय और नई प्रौद्योगिकी या व्यापार के नए अवसरों के उदय ने जनसमूहों को अपनी आर्थिक और राजनीतिक स्थिति सुधारने में तथा उसे जातिगत सोपानक्रम में उच्चतर कर्मकांडी पदस्थिति में बदलने में मदद दी ।

वास्तव में इतनी सदियों तक यह व्यवस्था इसीलिए बनी रह सकी कि वह इस तरह का एक ”गतिशील संतुलन” बनाए रखने और नीचे से लगनेवाले झटकों को झेलने में सफल रही थी । उपनिवेशी शासन ने जाति प्रथा को उसके उपनिवेश-पूर्व राजनीतिक संदर्भों से काट दिया, लेकिन अपने ज्ञान, अपनी संस्थाओं और नीतियों के नए ढाँचों में उसका नए सिरे से निरूपण करके और उसे नई शक्ति देकर उसे एक नया जीवन भी दिया ।

पहली बात यह कि अपने अहस्तक्षेपवादी चरण में उपनिवेशी शासन ने ऐसे अवसर पैदा किए, जो ”सिद्धांत में जाति-संबंधी नहीं” थे । जमीन एक बाजारी माल बन गई; कानून के सामने समानता न्याय-प्रशासन का एक सुस्थापित सिद्धांत बन गई; शिक्षा संस्थाओं और सार्वजनिक रोजगार को जाति या पंथ से हटकर प्रतिभा के लिए मुक्त कर दिया गया ।

फिर भी, अहस्तक्षेप के इस सिद्धांत ने पहले से उपस्थित समाज-व्यवस्था को जारी ही रहने में मदद दी और सुविधासंपन्न समूहों की स्थिति को और सुदृढ़ किया । पहले से शिक्षा की परंपरा और अतिरिक्त संसाधनों वाली ऊँची जातियाँ ही इस हाल में थीं कि अंग्रेजी शिक्षा और नए व्यवसायों को अपना सकें तथा नई न्याय-व्यवस्था से लाभ उठा सकें ।

इसके अलावा, गृह-विधानों के मामले में हिंदू धर्मशास्त्रों से संचालित होते थे, जो जाति-व्यवस्था के विशेषाधिकारों के समर्थक थे । इन शास्त्रीय ग्रंथों के अध्ययन में डूबे प्राच्यवादी विद्वानों ने जब जाति प्रथा को हिंदू सामाजिक संगठन का सबसे अनिवार्य तत्त्व पाया, तो इसके बारे में अधिकाधिक सूचनाएँ उन आधिकारिक नृजातीय सर्वेक्षणों के माध्यम से ग्रहण की जाने लगीं, जिन्होंने इस तरह जातिगत सोपानक्रम की अवधारणा को और भी प्रचलित किया ।

इसके अलावा, अल्फ्रेड लायल और फ्रांसीसी नस्लवादी सिद्धांतकार पॉल तोपिनेयर के बाद सबसे प्रमुख उपनिवेशवादी नृजातिशास्त्री हरबर्ट रिज्ली ने अब जाति की धारणा को एक नस्ली आयाम प्रदान किया और यह तर्क दिया कि गौर वर्ण वाली ऊँची जातियाँ आक्रामक आर्यो की संतानें थीं, जबकि साँवले रंग वाली निचली जातियाँ इसी देश की अनार्य मूल निवासी थीं ।

जाति की इस रूढ़ नस्लवादी छवि और ग्रंथों पर आधारित धारणा को धीरे-धीरे दसवर्षीय जनगणनाओं में जातियों के वर्गीकरण से संख्यात्मक आधार और सबसे बढ्‌कर सरकारी मान्यता मिली, जिसे सूजन बेइली ने पूरे उपनिवेश-अधीन समाज को ”तालिकाबद्ध करने का अकेला उत्कृष्ट कार्य” कहा है ।

जब 1901 में रिज़्ली जनगणना के कमिश्नर बने, तो उन्होंने न केवल सभी जातियों की गिनती करने का, बल्कि जातियों के सोपानक्रम में उनकी स्थिति का निर्धारण और उसे दर्ज करने का भी प्रस्ताव किया । यह बात भारतीय जनता को जातिगत सोपानक्रम को रूढ़ बनाने का सरकारी प्रयास लगी, जो अगोचर ढंग से ही, कालक्रम में लगातार बदलती आ रही थी । यह पुनर्निरूपित जाति अब वह चीज बन गई, जिसे निकोलस डर्क्स ने ”नागरिक समाज का भारतीय उपनिवेशी रूप” कहा है ।

भारतीय सार्वजनिक जीवन की एक नई संवृत्ति के रूप में स्वयंसेवी जाति संगठन पैदा हो गए, वे जनगणना पर केंद्रित (और उससे प्रेरित) जातिगत आंदोलनों में संलग्न होने लगे और वर्गीकरण की आधिकारिक योजना में और ऊँचे कर्मकांडी श्रेणीपद पाने के लिए दावे करके उनके समर्थन में जनगणनाओं के कमिश्नरों को ज्ञापन देने लगे ।

विंडबना यही है कि इस क्रम में एक अधिक संस्थाबद्ध और देखने में लौकिक सार्वजनिक क्षेत्र में जातियों की सामाजिक पहचानों के निरूपण के लिए जाति प्रथा एक वैध साधन बन गई । ये जातिगत संगठन, जिनकी सदस्यता प्रदत्त नहीं बल्कि स्वैच्छिक थी, उपनिवेशी भारत में धीरे-धीरे आधुनिकीकरण के साधनों के रूप में विकसित हुए ।

पारलौकिक के स्थान पर लौकिक लक्ष्य उनके लक्ष्य बनते गए और, जैसा कि लॉयड रूडोल्फ और सूजन रूडोल्फ ने कहा है, उन्होंने अपने ”सदस्यों को राजनीतिक लोकतंत्र की विधियों और मूल्यों की शिक्षा देने” के प्रयास किए ।

इस विकासक्रम में योगदान उपनिवेशी नीतियों के एक और समूह ने दिया, जिन्होने भारत पर राजनीतिक आधुनिकीकरण का एक विशेष पैटर्न आरोपित किया । आरंभ में मैसूर और कोल्हापुर जैसे केवल कुछ रजवाड़ों ने ही गैर-ब्राह्मण व्यक्तियों के लिए अतीत के नुकसान की क्षतिपूर्ति करने के लिए उन्नीसवीं सदी के अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में सार्वजनिक रोजगार के कुछ पदों को जाति के आधार पर आरक्षित करने की व्यवस्था आरंभ की ।

धीरे-धीरे उपनिवेशी प्रशासन को भी सवर्ण और अन्य हिंदुओं, खासकर अछूतों के बीच के अंतर का पता चला; इन अछूतों को अब दलित वर्ग (Depressed Classes) कहा जाने लगा । प्रशासन ने इन वर्गों को विशेष संरक्षित माना और उनके पक्ष में ”सुरक्षात्मक भेदभाव” की एक नीति आरंभ की ।

इसका अर्थ था उनकी शिक्षा के लिए विशेष स्कूलों का प्रावधान, ऐसे उम्मीदवारों के लिए सार्वजनिक रोजगार के एक भाग का आरक्षण, और अंत में विधायिकाओं में इन वर्गों के विशेष प्रतिनिधित्व का प्रावधान । यह प्रावधान पहले, 1919 के कानून में मनोनयन के रूप में और फिर 1932 के सांप्रदायिक पुरस्कार के अंतर्गत अलग निर्वाचकमंडल के रूप  में किया गया ।

इन सभी कदमों का परिणाम यह हुआ कि जातिगत आधार पर जातियों के बीच संपत्ति और शक्ति का अपेक्षाकृत अधिक फैलाव हुआ । अब जाति-निर्धारित स्थिति और जातियों से अप्रासंगिक भूमिकाओं के बीच और अधिक विसंगतियाँ पैदा हुई, और इस सीमित सामाजिक गतिशीलता के अनेक परस्परविरोधी प्रत्युत्तर सामने आए ।

सबसे पहले ”पश्चिमीकरण” के संकेत देखने को मिले । संचार में सुधार के कारण जाति-सदस्यों के बीच क्षैतिज एकजुटता बड़ी और उन्होंने क्षेत्रीय जाति-संगठन बनाए । सामाजिक स्थिति के नए आधारों, अर्थात् शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के महत्त्व की अनुभूति बड़ी और यह चेतना पैदा हुई कि शक्ति के इन स्रोतों पर ब्राह्मणों और ऊँची जातियों ने एकाधिकार बना रखा है ।

इसके कारण उपनिवेशी राजसत्ता से और अधिक विशेष सुविधाओं और आरक्षण की संगठित माँगे की जाने लगीं । इसका अर्थ था टकराव और विवाद, विशेषकर जहाँ प्रश्न दलित समूहों की शिक्षा का था, क्योंकि दलित शिक्षा के समर्थन की बहुप्रचारित नीति के बावजूद उपनिवेशी नौकरशाही सवर्णो के विरोध के सामने अकसर इसके क्रियान्वयन में अगर-मगर करने लगती थी ।

इसके कारण अपने शैक्षिक अधिकार सुनिश्चित करने के लिए उपनिवेशी अधिकारियों को कदम उठाने पर विवश करने के लिए दलित समूहों ने प्रतिरोध किए; जैसे दपोली (महाराष्ट्र) में महार छात्रों ने स्थानीय नगरपालिका के स्कूल के बरामदों में धरने दिए ।

लेकिन इस विशेष दृष्टांत में अंतत: उनको कक्षा में बैठने की अनुमति तो दी गई, पर सवर्ण छात्रों से कुछ दूरी पर । इसलिए ”पश्चिमीकरण” के ये प्रयास अपनी कल्पना अपने उपनिवेशवादी मालिकों के रंग में करने के ही प्रयास मात्र नहीं थे, बल्कि राज्य की अनिच्छुक नौकरशाही से शिक्षा के वैध अधिकार और अन्य अवसर पाने के प्रयास भी थे । दूसरी ओर ये ऊर्ध्वमुखी गतिशील समूह एक सांस्कृतिक आंदोलन में भी संलग्न थे, जिसे प्रमुख समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास (1966) ने ”संस्कृतीकरण” की प्रक्रिया कहा है ।

चूँकि स्थिति को अभी भी जाति के आधार पर निरूपित और व्यक्त किया जा रहा था, जिसे आधिकारिक वैधता और सामाजिक मान्यता, दोनों प्राप्त थीं, इसलिए इन ऊर्ध्वमुखी गतिशील समूहों ने ऊँची जातियों के सांस्कृतिक और कर्मकांडी तौर-तरीकों को अपनाकर अपनी नई स्थिति को वैध बनाने के प्रयास किए ।

अगर सती, विधवा विवाह पर प्रतिबंध, बाल-विवाह जैसी प्रथाओं को, जिनका पालन ऊँची जातिगत स्थिति की पहचान समझा जाता था, उनको ऊर्ध्वमुखी गतिशील निचले किसान समूह उन्नीसवीं सदी में भी और व्यापक पैमाने पर अपना रहे थे, तो उसका एक कारण यह भी था ।

विरोधाभास यह है कि यही व्यवहार जातिप्रथा के अनुमोदन का और पहले से मौजूद कर्मकांडी सोपानक्रम में नए सिरे से स्थितियों के समायोजन का सूचक था । लेकिन सभी जातियों ने हर समय व्यवहार का एक ही रास्ता नहीं अपनाया ।

कुछ आंदोलन ऐसे भी थे जिन्होंने जातिप्रथा के अंदर स्थितियों में फेरबदल न चाहकर इस सामाजिक संगठन के आधार को ही चुनौती दी; पश्चिमी और दक्षिणी भारत के गैर-ब्राह्मण आंदोलन और दलित समूहों के कुछ अधिक अतिवादी आंदोलन इनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय हैं ।

महाराष्ट्र में गैर-ब्राह्मण आंदोलन का आरंभ माली जाति के एक यशस्वी नेता जोतिराव फूले के नेतृत्व में हुआ, जिन्होंने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की । फूले का तर्क यह था कि शूद्र और अति-शूद्र जातियों की बदहाली का कारण ब्राह्मणों का प्रभुत्व और शक्ति एवं अवसरों पर उनका एकाधिकार था ।

इसलिए उन्होंने भारत के आर्यकरण के प्राच्यवादी सिद्धांत को सर के बल खड़ा कर दिया । उनका तर्क था कि ब्राह्मण उन विदेशी आर्यो की संतान हैं, जिन्होंने इस देश के मूल निवासियों को गुलाम बनाया, इस कारण आज आवश्यकता इस बात की है कि इस संतुलन में परिवर्तन लाया जाए और ऐसी सामाजिक क्रांति लाने के लिए उन्होंने गैर-ब्राह्मण किसान जातियों और दलित समूहों को एक साझे आंदोलन में एकजुट करने के प्रयास किए ।

लेकिन 1880  और 1890 के दशकों के दौरान गैर-ब्राह्मण विचारधारा में कुछ सूक्ष्म परिवर्तन आए और फूले ने कुनबी किसानों की लामबंदी पर अधिक ध्यान दिया । अब जमीन पर मेहनत करनेवालों की एकता पर तथा ब्राह्मणों के प्रभुत्व वाली पूना सार्वजनिक सभा के इस दावे की काट करने पर अधिक बल दिया जाने लगा, कि वह किसानों का प्रतिनिधित्व करती है ।

कुनबी किसानों पर ध्यान देने के कारण उस मराठा पहचान को विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ जो उनको प्रिय थी और वे अपने क्षत्रियत्व के दावे करने लगे जो, जैसा कि रोजालिंड ओ’ हैनलन का तर्क है, “कभी-कभी संस्कृतीकरण के आसान से दावे खतरनाक प्रतीत होते थे ।”

फूले ने यह दावा करके इस समस्या को हल करने की कोशिश की कि ये क्षत्रिय, जो मराठों के पूर्वज थे, शूद्रों के साथ मिल-जुलकर रहते थे और आर्या के हमले का सामना करने में उनके सहायक थे । लेकिन क्षत्रियत्व पर इस जोर के कारण दलितों की लामबंदी में रुचि भी कम हो गई ।

दूसरे शब्दों में, जहाँ यह क्षत्रिय पहचान उनको एक हीन जातिगत स्थिति सौंपने वाले ब्राह्मणवादी संवाद (discourse) का मुकाबला करने के लिए गढ़ी गई, वहीं उसने एक अलगाववादी लोकाचार भी पैदा किया, जिसने उनको दलित समूहों से अलग कर दिया; फूले के अपने समन्वयवादी संदेश से प्रेरित एक पिछली परंपरा में कभी इन्हीं समूहों को युद्धबंधु (brothers-in-arms) माना गया था ।

विरोधाभास यह है कि पहचान के ऐसे देसी निरूपणों ने उपनिवेशी रूढ़ छवियों को भी प्रभावित किया; अब दलित महारों और माँगों (Mango) को ”सैन्य नस्लें” अर्थात् क्षत्रियवंशी माना जाना बंद हो गया और इसलिए 1892 के बाद उनको सैन्य सेवा से बाहर रखा जाने लगा ।

जैसा कि गेल ओंवेट (1976) ने दिखाया है, महाराष्ट्र में गैर-ब्राह्मण आंदोलन ने सदी के मोड़ पर दो समानांतर प्रवृत्तियों का विकास किया । एक अधिक धनी गैर-ब्राह्मणों के नेतृत्ववाली रूढ़िवादी प्रवृत्ति थी; ये लोग अपनी मुक्ति के लिए ब्रिटिश सरकार में आस्था रखते थे और 1919 के मांटेग्यू-चेम्सफ्रोर्ड सुधारों के बाद उन्होंने गैर-ब्राह्मण एसोसिएशन नाम से एक अलग और निष्ठावान राजनीतिक दल का गठन किया; उनको अंग्रेजों के कृपाकारी माई-बाप शासन में फलने-फूलने की आशा थी ।

लेकिन इस आंदोलन ने एक अतिवादी प्रवृत्ति का विकास भी किया, जिसका प्रतिनिधित्व सत्यशोधक समाज करता था; उसने ”बहुजन समाज” और ”सेठजी-भटजी” (बनिया और ब्राह्मण) के बीच सामाजिक विभाजन को वाणी देकर एक ”वर्गीय अंत तत्त्व” का विकास भी किया । हालांकि महाराष्ट्र का गैर-ब्राह्मण आंदोलन आरंभ में ब्राह्मण प्रभुत्व वाले कांग्रेसी राष्ट्रवाद का विरोधी था, पर 1930 के दशक तक वह धीरे-धीरे खिंचकर गांधीवादी कांग्रेस में समा चुका था ।

यह महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया राष्ट्रवाद की शक्ति के कारण, गैर-ब्राह्मणों की आकांक्षाओं को स्थान देने के प्रति कांग्रेस की तत्परता के कारण और पूना-निवासी नौजवान गैर-ब्राह्मण नेता केशवराव जेढ़े के नेतृत्व के कारण और एन. वी. गाडगिल के साथ उनके गठबंधन के कारण, जो महाराष्ट्र  में युवा ब्राह्मण कांग्रेसी नेतृत्व की एक नई किस्म का प्रतिनिधित्व करते थे ।

बंबई प्रेसिडेंसी के गैर-ब्राह्मण आंदोलन ने विदर्भ में 1938 में औपचारिक रूप से कांग्रेस में विलय का निर्णय किया और इस तरह कांग्रेस को एक व्यापक जनाधार प्रदान किया । पश्चिमी भारत में गैर-ब्राह्मण आंदोलन का संबंध अगर कुनबी और मराठा पहचान से था, तो मद्रास प्रेसिडेंसी में उसका संबंध वेल्लालों और द्रविड़ पहचान से था । इसका जन्म उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में हुआ, जब ब्राह्मणों का, जो आबादी में 3 प्रतिशत से भी कम थे, 42 प्रतिशत सरकारी नौकरियों पर एकाधिकार था ।

अंग्रेजी शिक्षा में वे आगे थे, संस्कृत को एक प्राचीन अतीत की भाषा के रूप में महिमामंडित करते थे और आम जनता की भाषा तमिल के प्रति अपमान-भाव का सार्वजनिक प्रदर्शन करते थे । इसके कारण वेल्लाल कुलीनों को अपनी द्रविड़ पहचान को पेश करने की प्रेरणा मिली ।

रेवरेंड रॉबर्ट कॉल्डवेल और जी. ई. पोप जैसे ईसाई मिशनरी कुछ समय से द्रविड़ संस्कृति की प्राचीनता की बातें करते आ रहे थे । उनका तर्क था कि द्रविड़ भाषा संस्कृत से पैदा नहीं हुई, जो दक्षिण में उपनिवेशकारी आर्य ब्राह्मणों के साथ पहुँची, जबकि वेल्लाल और अन्य गैर-ब्राह्मणों को शूद्र नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह स्थिति उन पर ब्राह्मण उपनिवेशवादियों ने थोपी है, जो उनपर अपना मूर्तिपूजक धर्म आरोपित करना चाहते थे ।

गैर-ब्राह्मण कुलीनों ने इनमें से कुछ विचारों को ग्रहण कर लिया; वे अपनी तमिल भाषा, साहित्य और संस्कृति की बात एक ”शक्तिदायी संवाद” के रूप में करने लगे और यह दावा करने लगे कि जाति प्रथा तमिल संस्कृति की अपनी चीज नहीं है ।

एक गैर-ब्राह्मण पहचान खड़ी करने के इस आंदोलन ने, जो पश्चिमी भारत वाले आंदोलन की ही तरह भारतीय संस्कृति के आर्य सिद्धांत को पलट कर आरंभ हुई, हमेशा अपने केंद्रीय तत्त्व तमिल भाषा से एक भावनात्मक लगाव को बनाए रखा, जो जनता के विविध प्रकार के समूहों को एक ”भक्तिमूलक समुदाय” में ला सके ।

राजनीतिक मोर्चे पर इस आंदोलन का रास्ता जाना-पहचाना रहा; इसका आरंभ 1916 में एक गैर-ब्राह्मण घोषणापत्र’ के प्रकाशन और गैर-ब्राह्मणों की एक औपचारिक राजनीतिक पार्टी के रूप में जस्टिस पार्टी के गठन से हुआ ।

उसने कांग्रेस का विरोध उसे एक ब्राह्मण प्रभुत्व वाला संगठन कहकर किया और गैर-ब्राह्मणों के लिए वैसे ही सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का दावा किया, जैसा मॉर्ले-मिंटो सुधार ने मुसलमानों को दिया था । उपनिवेशी नौकरशाही से समर्थन पानेवाली इस माँग को 1919 के मांटेग्यू-चेम्सफ्रोर्ड सुधार ने स्वीकार किया, जिसने मद्रास की विधायिका में गैर-ब्राह्मणों के लिए अठाइस सीटें आरक्षित कीं ।

कांग्रेस और उसके असहयोग आंदोलन का विरोध करने वाली जस्टिस पार्टी ने बेझिझक 1920 का चुनाव लड़ा, जिसके बहिष्कार का कांग्रेस ने आह्वान किया था । फलस्वरूप काउंसिल बहिष्कार आंदोलन की मद्रास में सफलता की कोई संभावना नहीं थी । जस्टिस पार्टी ने 98 निर्वाचित सीटों में से 63 सीटें जीतीं और अंतत: नए सुधारों के अंतर्गत एक सरकार बनाई ।

1920  में मंत्रिमंडल का गठन जस्टिस पार्टी के जीवन का चरम बिंदु और साथ ही उसके अंत का आरंभ था । यह मुख्यत: धनी भूस्वामियों और शहरी मध्यवर्गीय गैर-ब्राह्मणों से, जैसे तमिल जिलों के वेल्लालों से, तेलुगू जिलों के रेडियों या कापुओं और कम्माओं से, मलाबार के नायरों से और पूरे दक्षिण भारत में फैले बेरी चेट्टियों और बलीजा नायडुओं जैसे व्यापारियों से, संरक्षण पानेवाला आंदोलन था ।

सत्ता पाने के कुछ ही समय के अंदर जस्टिस पार्टी के ये कुलीन सदस्य अपनी नई-नई मिली सत्ता के उपयोग और दुरुपयोग में डूब गए, अपना सुधारवादी एजेंडा छोड़ दिया और अछूतों की हालत में उनकी रुचि कम हो गई, फलस्वरूप ये अछूत खिन्न होकर एम. सी. राजा के नेतृत्व में पार्टी से अलग हो गए ।

इस तरह जनाधार की जो हानि शुरू हुई, वह अंतत: 1926 में स्वराजवादियों के हाथों मिली चुनावी हार में अपने चरम पर पहुँची । उसके बाद तो अनेक गैर-ब्राह्मणों ने पार्टी छोड़ी और कांग्रेस में चले गए, जो फिर से प्रभावशाली हो गई ।

यह बात 1929-30 के सविनय अवज्ञा आंदोलन की सफलता में बहुत अच्छी तरह प्रतिबिंबित हुई । 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने रही-सही कमी भी पूरी कर दी; 1946 के चुनाव में जस्टिस पार्टी ने अपना कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया ।

दक्षिण भारत में जस्टिस पार्टी अगर धीरे-धीरे राजनीतिक महत्त्वहीनता के गर्भ में समा गई, तो लगभग उसी समय गैर-ब्राह्मण आंदोलन के अंदर ही एक अधिक अतिवादी और लोकप्रिय (populist) प्रवृत्ति ई. वी. रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’ के नेतृत्व में ”आत्मसम्मान” आंदोलन के रूप में पैदा हुई ।

नायकर कभी असहयोग कार्यक्रम के उत्साही प्रचारक थे, पर इस विश्वास के कारण उन्होंने 1925 में कांग्रेस छोड़ दी कि वह गैर-ब्राह्मणों को ”वास्तविक” नागरिकता प्रदान करने में न समर्थ थी, न इसकी इच्छुक

थी । वे 1927 में गांधी की मद्रास-यात्रा के दौरान उनके ब्राह्मण समर्थक और वर्णाश्रम धर्म समर्थक उद्‌गारों से चिढ़ गए और उन्होंने आर्यवाद, ब्राह्मणवाद और हिंदू धर्म की प्रचंड आलोचना की जिन्होंने उनकी राय में शूद्रों, आदि-द्रविड़ों (अछूतों) और स्त्रियों की अधीनता के अनेक ढाँचे तैयार किए थे ।

इसलिए स्वशासन से पहले आवश्यकता थी आत्मसम्मान की, और उसकी विचारधारा द्रविड़ प्राचीनता और तमिल भाषा व संस्कृति पर गर्व की भावना पर केंद्रित थी, हालांकि इनका अनालोचनात्मक महिमामंडन नहीं किया गया ।

वास्तव में रामास्वामी को तमिल को महत्त्व देने से भी झिझक थी, क्योंकि इससे दक्षिण भारत के दूसरे गैर-तमिलभाषी द्रविडों के विमुख होने का डर था । तो भी तमिल भाषा आंदोलन के केंद्र में बनी रही और ‘तमिल’ और ‘द्रविड़’ पहचानों के बीच कभी-कभी तनाव पैदा करती रही ।

लेकिन यह आंदोलन अपने विरोधी की पहचान में अधिक स्पष्ट था तथा संस्कृत भाषा और साहित्य को दक्षिण के आर्य उपनिवेशीकरण के सांस्कृतिक प्रतीक मानकर उसने इन पर कड़े प्रहार किए । रामायण की कथा को पलटकर रावण को आदर्श द्रविड़ और राम को दुष्ट आर्य बना दिया गया ।

जस्टिस पार्टी की विचारधारा के विपरीत इस विचारधारा की अपील अधिक समावेशी थी । इससे भी अहम बात यह है कि आत्मसम्मान आंदोलन ने ज्योति तास और एम. मसिलमणि जैसे आदि-द्रविड़ बुद्धिजीवियों की पहले की रचनाओं से भी प्रेरणा ली और उनको अधिक प्रचलित किया ।

ये दोनों बीसवीं सदी के पहले दशक से ही जातिप्रथा, ब्राह्मण वर्चस्व और भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध अनेक लेख प्रकाशित कराते आ रहे थे । 1930 के दशक के दौरान, जब कांग्रेस धीरे-धीरे अधिक शक्तिशाली बनती गई, गैर-ब्राह्मण आंदोलन भी अपनी अपील में अधिक अतिवादी और लोकप्रिय बनता गया, ब्राह्मण पुजारियों के बहिष्कार पर जोर देने लगा, मनुस्मृति की सार्वजनिक होली की अधिकाधिक घटनाएँ होने लगीं, और हीन जातियों के लोगों को प्रवेश से मना करने वाले मंदिरों में जबरन घुसने के प्रयास किए गए ।

यूजीन इर्श्चिक (1969) ने दिखाया है कि मद्रास में गैर-ब्राह्मण आंदोलन ने किस तरह धीरे-धीरे एक मुखर तमिल क्षेत्रीय अलगाववाद का रूप ग्रहण किया, विशेषकर तब जब 1937 में सी. राजगोपालाचारी के नेतृत्व में कांग्रेस ने  प्रांत के स्कूलों में हिंदी को एक अनिवार्य विषय बनाने का प्रस्ताव रखा ।

हिंदी को तमिल भाषा और उसे बोलने वालों को नष्ट करने के प्रयास कर रही एक अशुभ शक्ति के रूप में पेश करते हुए मद्रास नगर में बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए और इसी के साथ तमिल भाषा का आंदोलन कुलीन समूहों से निकलकर जनता तक फैला ।

धीरे-धीरे इस राजनीतिक अभियान ने एक अलग ”द्रविड़नाडु” की माँग का रूप ले लिया । अगस्त 1944 में जस्टिस पार्टी ने, जिसके अध्यक्ष अब रामास्वामी थे, अपना नाम बदलकर द्रविड़ कज़गम कर लिया, जिसका प्रमुख उद्देश्य एक अलग गैर-ब्राह्मण (राज्य) या द्रविड़नाडु की माँग को पूरा कराना था ।

लेकिन जैसा कि एम. एस. एस. पांडियन ने अभी हाल में दावा किया है, ई. वी. रामास्वामी की राष्ट्र की धारणा ”राष्ट्र-क्षेत्र” (nation-space) के किसी सुनिश्चित भू-भाग से बँधी हुई नहीं” थी । वे कल्पना करते थे ”उत्पीड़ित जनता के लिए एक मुक्तिदायी ढंग से” अर्थात् एक अनथक संघर्ष में, ”बराबरी की और स्वतंत्र नागरिकता की,” और उनकी राय में ”द्रविड़” से अभिप्राय क्षेत्रीय और भाषायी सीमाओं के आरपार रह रही सभी उत्पीड़ित जनता के लिए ”एक समावेशी रूपक” से था ।

दूसरे शब्दों में, सामाजिक समानता के इस आंदोलन ने ऐसे समाज की एक सहस्राब्दिक आशा जगाई, जो जाति के प्रभुत्व से, छुआछूत और लैंगिक भेदभाव से मुक्त हो । उन्नीसवीं सदी के अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में भारत में दलितों के प्रतिरोध आंदोलनों ने थोड़े भिन्न रास्ते अपनाए, हालाँकि वे पूरी तरह असमान नहीं थे ।

जब ईसाई मिशनरी दलितों के बीच काम करने लगे और उपनिवेशी सरकार ने उनमें शिक्षा के प्रसार के लिए विशेष संस्थाएँ खड़ी कीं तो न केवल इन वर्गों में एक छोटा-सा शिक्षित, कुलीन समूह पैदा हुआ, बल्कि आम तौर पर इन जन समूहों में भी एक नई चेतना नजर आने लगी ।

फिर भी यहाँ इस बात पर बल देने की आवश्यकता है कि, जैसा कि हमने पहले कहा, उपनिवेशी नौकरशाही दलित शिक्षा की घोषित सार्वजनिक नीतियों के क्रियान्वयन में अकसर लड़खड़ाती रही और दलित समूहों को अपने शिक्षा के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिरोधों का सहारा लेना पड़ा और अपनी हस्ती का एहसास दिलाना पड़ा ।

इसी तरह ईसाई मिशनरी हमेशा दलितों की बेहतरी के उग्र निमित्त नहीं रहे, क्योंकि वे भी अकसर एक असहिष्णु परंपरावादी समाज और एक दोमुँही नौकरशाही के दबावों के आगे झुक जाते थे । अकसर ऐसा माना जाता है कि ईसाईयत स्वीकार करना जातिप्रथा के प्रतिरोध का एक ढंग था, तथा दक्षिण भारत के कुछ भागों में दलितों ने बड़ी संख्या में इस तरीके का सहारा लिया ।

लेकिन स्वयं में धर्मांतरण मुक्ति का सूचक नहीं था, क्योंकि धर्म बदलनेवाले दलित अकसर स्थानीय समाज के मौजूदा ढाँचों में ही फिर से खपा लिए जाते थे । सचमुच अगर अहम कुछ था तो आत्मसम्मान का वह संदेश था, जो मिशनरियों ने और नई शिक्षा ने इन समूहों में पैदा किया ।

उनके कुछ मुखर तत्त्वों ने अपनी भक्ति की स्थानीय परंपरा के साथ इस संदेश का सफलता से एकीकरण किया और जातिप्रथा की पतित विशेषताओं के विरुद्ध प्रतिरोध की एक विचारधारा तैयार की । इसके साथ पूरे भारत में विभिन्न दलित समूहों के बीच संगठित जातिगत आंदोलनों का जन्म हुआ, जैसे कुछेक नाम भी लें तो केरल में एझवों या इरवों और पुलायों के, तमिलनाडु में नाडारों के, महाराष्ट्र में महारों के, पंजाब, संयुक्त प्रांत और छत्तीसगढ़ (मध्य भारत) में चमारों के, दिल्ली में बाल्मीकियों के और बंगाल में नामशूद्रों के आंदोलन ।

ऐसे हर आंदोलन की विशिष्टता को अस्वीकार किए बिना यहाँ हम इन दलित प्रतिरोधों की कुछ साझी विशेषताओं की चर्चा कर सकते हैं । इन संगठित समूहों में (सबने तो नहीं), कुछ ने सबसे पहला काम तो यह किया कि उच्च कर्मकांडी स्थिति के कुछ गोचर प्रतीकों को सामूहिक रूप से ग्रहण कर लिया, जैसे जनेऊ धारण करना, सामुदायिक पूजा जैसे अनुष्ठानों में भाग लेना और उन मंदिरों में प्रवेश करना जिनसे उन्हें अतीत में हिंदू पुजारियों ने बाहर रखा था ।

बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में मंदिर प्रवेश के अनेक संगठित आंदोलन हुए, जिनमें मलाबार में 1924-25 का वैक्कम सत्याग्रह और 1931-33 का गुरुवायूर सत्याग्रह, बंगाल में 1929 का मुंशीगंज काली मंदिर सत्याग्रह और नासिक (पश्चिमी भारत) में 1930-35 का कालाराम मंदिर सत्याग्रह सबसे महत्त्वपूर्ण थे ।

ऐसे धार्मिक अधिकारों के अलावा संगठित दलित समूहों ने सवर्ण हिंदुओं से सामाजिक अधिकार भी माँगे और मना किए जाने पर विभिन्न प्रकार की सीधी कार्रवाइयों का सहारा लिया । जैसे जब सवर्णो ने सवर्ण स्त्रियों की तरह वक्षस्थल ढँकने के बारे  में नाडार स्त्रियों के प्रयासों का विरोध किया, तो त्रावणकोर में इसके कारण 1859 में दंगा हो गया । एझवों और नायरों के संबंधों में यह एक काँटा बना रहा और 1905 में कोइलों में फिर हंगामे हुए ।

बंगाल में जब सवर्ण कायस्थों ने 1872 में एक नामशूद्र के दाह संस्कार में भाग लेने से मना कर दिया, तो चार पूर्वी जिलों को समेटने वाले एक विशाल क्षेत्र में नामशूद्रों ने छह माह तक कायस्थों की जमीनों पर काम नहीं किया ।

महाराष्ट्र में विख्यात महार नेता डॉ भीमराव अंबेडकर ने 1927 में 10-15 हजार दलितों को लेकर महाड़ में स्थानीय नगरपालिका के नियंत्रण वाले एक सार्वजनिक तालाब से पानी लेने के अधिकार का दावा करते हुए एक विशाल सत्याग्रह किया ।

सामाजिक एकजुटता और प्रतिरोध की यह भावना एक बड़ी सीमा तक इस काल में अछूतों के बीच भक्ति आंदोलन के पुनरोदय की उपज थी । एझवों में श्रीनारायण धर्म परिपालन योगम ने और नामशूद्रों में मातुआ पंथ जैसे अनेक प्रतिरोधक धार्मिक पंथों ने शुद्ध भक्ति और सामाजिक समता के संदेश का प्रचार किया और इस तरह हिन्दू  सामाजिक सोपानक्रम की बुनियादी बातों को ललकारा ।

कुछ धार्मिक पंथों ने इस बात पर बल दिया कि दलित ही आक्रांता आर्यो द्वारा अधीन बनाए गए इस देश के मूल निवासी हैं । इस कारण अब आवश्यकता इसकी है कि उनकी संस्कृति या जीवन शैली में परिवर्तन की माँग किए बिना वे जैसे हैं वैसे ही उन्हें स्वीकार किया जाए, उनको अतीत की हानियों की क्षतिपूर्ति की जाए और उनके सभी सामाजिक अधिकार उन्हें वापस दिए जाएँ ।

अपनी हस्ती जताने या खोई हुई सामाजिक प्रतिष्ठा को वापस पाने का यह प्रयास पंजाब के चमारों के आद धरम आंदोलन से या संयुक्त प्रांत में चमारों और दूसरे शहरी दलितों के आदि हिंदू आंदोलन से एकदम स्पष्ट था । दूसरी ओर कुछ धार्मिक आंदोलन और भी आगे निकल गए ।

छत्तीसगढ़ में चमारों के सतनाम पंथ ने ब्राह्मणों पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए कर्मकांडी प्रतीकों में बदलाव किया, जबकि बंगाल के अछूत हादियों के बलहारी पंथ ने एक विपर्यस्थ (inverted) कर्मकांडी सोपानक्रम तक की कल्पना कर डाली, जिसमें ब्राह्मण सबसे नीचे थे और हादी शीर्ष पर थे ।

हालाँकि इनमें से अनेक आंदोलन बहुत दिनों तक नहीं चल पाए पर उनके निहितार्थ हिंदू समाज के लिए काफ़ी विध्वंसक थे, क्योंकि न केवल उन्होंने एक आम भाईचारे के संदेश के आधार पर दलितों को एकजुट किया, बल्कि सोपानक्रम और छुआछूत की हिंदू धारणाओं के प्रति उनकी अवज्ञा का संकेत भी दिया ।

दलितों के लिए बलहीन और अधीन बनाने वाली एक विचारधारा के रूप में हिंदू धर्मशास्त्र के अस्वीकार की यह प्रवृत्ति दिसंबर 1927 में एक विस्फोटक बिंदु तक जा पहुँची, जब एक सार्वजनिक समारोह में डॉ. अंबेडकर ने छुआछूत का अनुमोदन करनेवाले सबसे प्रामाणिक धर्मग्रंथ मनुस्मृति की एक प्रति जलाई ।

1934 में उन्होंने नासिक के मंदिर सत्याग्रहियों को मंदिर-प्रवेश की या हिंदू धार्मिक ढाँचे के अंदर अपने कष्टों के हल की खोज की व्यर्थता के बारे में पत्र लिखा । इसकी बजाय उन्होंने ”हिंदू समाज और हिंदू धर्मशास्त्र को आमूल परिवर्तन” का सुझाव दिया और दलितों को राय दी कि वे ”अपनी शक्ति और अपने संसाधन राजनीति और शिक्षा पर केंद्रित करें ।”

अपनी सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यता की समस्याओं का एक धर्मनिरपेक्ष या राजनीतिक समाधान तलाश करने की यह प्रवृत्ति बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में पिछड़ी जातियों के आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता थी ।

इन दलित संगठनों में से अनेक के लिए सार्वजनिक संस्थाओं का एकीकरण ही नहीं, बल्कि अतीत के अन्यायों की क्षतिपूर्ति के रूप में शिक्षा, रोजगार और विधायिकाओं में जाति आधारित आरक्षण भी समझौतों से परे एक न्यूनतम माँग बन गया । इसमें उनको उपनिवेशी राजसत्ता से संरक्षण भी मिला, क्योंकि 1920 के दशक से ही ”संरक्षणमूलक भेदभाव” उपनिवेशवाद की लोकनीति का नियमित तत्त्व बन गया ।

सरकार के दृष्टिकोण से अंशत: इसका उद्देश्य सामाजिक असंतुलन को कम करना था, परंतु एक आंशिक उद्देश्य ‘बाँटो और राज करो’ भी था । यह बात सही है कि वास्तविक जमीनी स्तर पर उपनिवेशी नौकरशाही ने अकसर इस नीति को लागू नहीं किया और सामाजिक संतुलन बनाए रखने के नाम पर इसने सार्वजनिक स्कूलों में दलित छात्रों के प्रवेश पर स्थानीय रूढ़िवादी कुलीनों के विरोध का समर्थन भी किया ।

फिर भी यह पहला अवसर था कि उनकी शिक्षा को बढ़ावा देने की एक लोक नीति सामने आई और हमेशा कुछ नौकरशाह ऐसे भी रहे, जो सहानुभूति के साथ उनकी बात सुनने को तैयार थे । इस कारण दलित सरकार के निकट आए और कांग्रेस से विमुख हुए ।

अब अनेक दलित तो यह मानने लगे थे कि उनकी समस्या का अंतिम समाधान उनके लिए अलग निर्वाचकमंडल की व्यवस्था में था, जिसका कि कांग्रेस एड़ी-चोटी का जोर लगाकर विरोध कर रही थी । कांग्रेस की राजनीति से दलितों का यह अलगाव एक बडी हद तक जाति और छुआछूत के प्रश्न पर कांग्रेस के दृष्टिकोण का परिणाम भी था ।

सामाजिक दृष्टि से संवेदनशील मुद्दों से बचने की धुन में कांग्रेस ने 1917 तक इस सवाल को अनदेखा किया और इसे तभी उठाया जब स्वयं को संगठित कर चुके दलित नेता कांग्रेस से पहल छीनने की तैयारी कर रहे थे ।  इस निष्क्रियता का दोष बहुत हद तक आरंभिक कांग्रेस पर ब्राह्मणों के वर्चस्व और उसके सामाजिक रूढ़िवाद के सिर पर था ।

लेकिन इसे छोड़ दें तो भी अछूतों के साथ मानसिक अलगाव भी बढ़ा, क्योंकि पहले के सुधारकों के विपरीत अनेक हिंदू राष्ट्रवादी समूहों ने अब खुलकर जातिप्रथा को महिमामंडित करने और उसे बुद्धिसंगत ठहराने के प्रयास यह कहकर किए कि यह प्राचीन भारत की वह अद्वितीय सामाजिक संस्था है, जिसने भारतवासियों के अत्यंत बेमेल समूहों को सामंजस्य के साथ एकजुट बनाकर रखा था ।

लेकिन दलितों की दृष्टि में यह एकजुटता पराधीनता सुनिश्चित करने की एक चाल थी । भारत की राष्ट्रीय पहचान को हिंदू परंपरा के आधार पर निरूपित करने के इन प्रयासों ने उनको दूर कर दिया, क्योंकि अब तक वे भारतीय इतिहास के बारे में एक अलग समझ विकसित कर चुके थे ।

हिंदू राष्ट्रवादियों ने अगर एक स्वर्णिम अतीत की कल्पना की तो स्वर्णिम वर्तमान के विपरीत दलितों के लिए वही अतीत छुआछूत और जातिगत भेदभाव से संपन्न एक अंधकारमय युग था, जबकि अंग्रेज कोई भेदभाव नहीं कर रहे थे और उन्होंने जातिगत निर्योग्यताओं को मान्यता देनेवाली मनुस्मृति को परे फेंक दिया था ।

छुआछूत को सार्वजनिक चिंता का एक विषय सबसे पहले गांधी ने बनाया था और 1920 के असहयोग के प्रस्ताव में छुआछूत की समाप्ति को स्वराज की प्राप्ति की बुनियादी शर्त घोषित किया गया था । लेकिन असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद उनके हरिजन कल्याण के अभियान ने न तो सुधारवादी एजेंडा में सवर्ण हिंदुओं की कोई विशेष रुचि जगाई, न दलितों को संतुष्ट किया ।

उन्होंने छुआछूत को एक विकृति कहकर उसकी निंदा की, लेकिन वे 1940 के दशक तक पश्चिम की वर्ग-व्यवस्था के मुकाबले वर्णाश्रमधर्म को सामाजिक श्रम विभाजन की एक आदर्श प्रतियोगिताविहीन आर्थिक व्यवस्था कहकर उसका गुणगान भी करते रहे ।

यह सिद्धांत अछूतों के सामाजिक रूप से महत्त्वाकांक्षी समूहों को संतुष्ट न कर सका, क्योंकि यह उनको सामाजिक गतिशीलता पाने के अवसरों से वंचित करता था । छुआछूत की समाप्ति के लिए भी गांधी ने मूलत: एक धार्मिक दृष्टिकोण अपनाया; प्रायश्चित के कृत्य के रूप में सवर्ण हिंदुओं द्वारा मंदिर-प्रवेश कराने के आंदोलन का आरंभ और घरेलू नौकर ”भंगी” का महिमामंडन उनके पास इस समस्या के समाधान थे ।

इस अभियान ने अस्पृश्यता के नैतिक और धार्मिक आधार को काफ़ी सीमा तक कमजोर किया, लेकिन जैसा कि भिखु पारिख का तर्क है, यह उसके ”आर्थिक और राजनीतिक मूलों” को नष्ट करने में असफल

रहा । उसने अछूतों को महिमामंडित तो किया, पर उनको कोई शक्ति प्रदान न कर सका ।

दलित नेताओं का तर्क था कि उनको आर्थिक और राजनीतिक शक्ति में समुचित भागीदारी मिले, तो उनके लिए मंदिर के दरवाजे तो अपने आप खुल जाएँगे । दूसरे शब्दों में, गांधी का दृष्टिकोण अंबेडकर जैसे दलित नेताओं को संतुष्ट न कर सका, जो शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की सुलभता की गारंटी के माध्यम से एक राजनीतिक हल को प्राथमिकता देते थे ।

आगे चलकर अंबेडकर (1945) ने कांग्रेस और गांधी पर वास्तविक प्रश्न पर लीपापोती करने का आरोप लगाया और दलितों के लिए एक अलग राजनीतिक पहचान की उनकी माँग दलित राजनीतिक समूहों और कांग्रेस के आपसी संबंधों का एक टेढ़ा प्रश्न बन गई ।

हालांकि कोल्हापुर के महाराजा की अध्यक्षता में मई 1920 में नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय दलित वर्ग परिषद् (ऑल इंडिया डिप्रेस्ट क्लासेज कॉन्फ्रेंस) इस दिशा में एक विनम्र प्रयास था, पर सही अर्थो में सगंठित प्रकार का एक अखिल भारतीय दलित आंदोलन उसी नगर में 1926 में अखिल भारतीय दलित वर्ग नेता सम्मेलन के आयोजन के साथ शुरू हुआ ।

यहाँ ऑल इंडिया डिप्रेस्ट क्लासेज एसोसिएशन का गठन किया गया, जिसके पहले निर्वाचित अध्यक्ष मद्रास के एम. सी. राजा थे । डॉ अंबेडकर, जो इस सम्मेलन में शामिल नहीं हुए, इसके उपाध्यक्षों में एक उपाध्यक्ष चुने गए । अंबेडकर ने बाद में इस संगठन से त्यागपत्र दे दिया और 1930 में उन्होंने नागपुर में आयोजित एक सम्मेलन में अपना अलग संगठन खड़ा किया ।

रहा सवाल उसके राजनीतिक दर्शन का, तो अपने उद्‌घाटन भाषण में अंबेडकर ने एक बहुत स्पष्ट कांग्रेस-विरोधी और थोड़ा अंग्रेज-समर्थक रवैया अपनाया और इस तरह इतिहास के भावी विकासक्रम का रास्ता तैयार किया । दलितों के लिए, सार्वभौम वयस्क मताधिकार के अभाव में, पर्याप्त प्रतिनिधित्व पाने के अकेले साधन के रूप में डॉ अंबेडकर ने अलग निर्वाचकमंडल की माँग सबसे पहले 1928 में साइमन आयोग के सामने अपने वक्तव्य में की थी ।

गोलमेज सम्मेलन के पहले दौर में वे इस रुख की ओर और भी आगे बढ़े, क्योंकि उनके अनेक साथी उसके पक्ष में थे । इसके बाद 19 मई 1931 को बंबई में अखिल भारतीय दलित वर्ग नेता सम्मेलन ने औपचारिक प्रस्ताव पारित किया कि दलित वर्गो को ”एक अल्पमत के रूप में उनके अलग निर्वाचकमंडल के अधिकार की गारंटी दी जानी चाहिए ।”

1931 में गोलमेज सम्मेलन के दूसरे दौर में गांधी के साथ अंबेडकर का एक बड़ा टकराव इसी मुद्दे पर हुआ, क्योंकि हिंदू समाज के स्थायी विभाजन के डर से गांधी इस माँग का विरोध कर रहे थे । इस प्रश्न पर दलितों में भी कोई एक राय न थी ।

एम. सी. राजा का गुट संयुक्त निर्वाचकमंडल का पक्का समर्थक था तथा फरवरी 1932 में ऑल इंडिया डिप्रेस्ट क्लासेज कॉन्फ्रेंस की कार्यसमिति ने अंबेडकर की अलग निर्वाचकमंडल की माँग की भर्त्सना करके हिंदुओं के साथ ऐसे संयुक्त निर्वाचकमंडल का एकमत से समर्थन किया, जिसमें आबादी के आधार पर सीटों के आरक्षण का प्रावधान हो ।

राजा और अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष डॉ बी. एस. मुंजे के बीच इस आशय का एक समझौता भी हुआ, जिसे ”राजा-मुंजे समझौता” कहा गया । दूसरे शब्दों में, निर्वाचकमंडल के प्रश्न पर दलित नेतृत्व ”बीच से” बँटा हुआ था ।

ये मतभेद तब भी जारी रहे जब सांप्रदायिक निर्णय ने सितंबर 1932 में अछूतों के लिए, जिनको अब अनुसूचित जातियाँ नाम दिया गया, अलग निर्वाचकमंडल का अधिकार मान लिया और उसे समाप्त कराने के लिए गांधी ने अपना ऐतिहासिक आमरण अनशन आरंभ किया ।

अब अंबेडकर के पास महात्मा का जीवन बचाने के लिए इस नैतिक दबाव के आगे झुकने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहा और उन्होंने एक समझौता मान लिया, जिसे पूना पैक्ट कहा जाता है; इसमें संयुक्त प्रतिनिधिमंडल में अनुसूचित जातियों के लिए 151 आरक्षित सीटों की व्यवस्था थी ।

फिलहाल ऐसा लगा कि सारे टकराव हल हो गए हों । मंदिर-प्रवेश आंदोलन और गांधी के हरिजन अभियान में राष्ट्रव्यापी रुचि जागी । नवस्थापित हरिजन सेवक संघ के कार्यों में गांधी और अंबेडकर के बीच सहयोग भी रहा । बाद में इस समझौते के प्रावधान 1935 के भारत सरकार अधिनियम (गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट) में शामिल किए गए ।

हालांकि उन दिनों इस समझौते की काफ़ी लोगों ने आलोचना की, पर रवींदर कुमार का तर्क है कि यह गांधी की विजय थी, जिन्होंने भारत की शासन व्यवस्था में एक दरार पड़ने से बचा लिया और अस्पृश्यता की समस्या का एक राष्ट्रवादी हल पेश किया ।

फूट बहुत शीघ्र ही दोबारा सामने आई तथा कांग्रेस और अंबेडकर एक-दूसरे से दूर होने लगे । जहाँ गांधी का हरिजन सेवक संघ सामाजिक मुद्दों में संलग्न था, वहीं उनके ध्येय में दूसरे कांग्रेसी नेताओं की कुछ विशेष रुचि न थी । वे आगामी चुनाव में आरक्षित सीटें जीतने के लिए दलित मतदाताओं की लामबंदी का एक राजनीतिक मंच चाहते थे ।

इसके लिए उन्होंने बिहार के एक राष्ट्रवादी दलित नेता जगजीवन राम को अध्यक्ष बनाकर मार्च 1935 में ऑल इंडिया डिप्रेस्ट क्लासेज लीग खड़ी कर दी । लेकिन फिर भी 1937 के चुनाव में पूरे भारत में 151 आरक्षित सीटों में से कांग्रेस को केवल 73 ही मिल सकीं ।

बाद में विभिन्न क्षेत्रों में, स्थिति में अलग-अलग तरह से बदलाव आए, जो कि अस्पृश्यता उन्मूलन के गांधीवादी लक्ष्य के प्रति स्थानीय कांग्रेसी नेताओं की प्रतिबद्धता की प्रकृति पर आधारित था । बंगाल जैसे गैर-कांग्रेसी प्रांतों में ये नेतागण चुनावी गणित के प्रति अधिक संवेदनशील थे और उन्होंने दलित नेताओं की दोस्ती को बढावा दिया ।

लेकिन जिन आठ प्रांतों में कांग्रेस ने मंत्रिमंडल बनाए और लगभग दो साल तक सत्ता में रही, वहाँ उनकें काम ऐसे रहे कि न केवल अंबेडकर जैसे आलोचक इन मंत्रिमंडलों के काम मे अप्रभावित रहे, बल्कि मद्रास के एम. सी. राजा जैसे वे दलित नेता भी धीरे-धीरे कट गए जो कभी कांग्रेस से सहानुभूति रखते थे ।

गरीबों और दलितो को केवल जाति से अधिक व्यापक आधार पर लामबंद करने के लिए अंबेडकर ने 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की नींव रखी, जिसका उद्देश्य ”मेहनतकश वर्गो के कल्याण को बढ़ावा देना” था । 1937 के चुनाव में उनकी पार्टी को बंबई में शानदार सफलता मिली; उसने 15 आरक्षित मीटों में से 11 सीटें जीत लीं ।

मध्य प्रांत और बरार में भी अंबेडकरवादियो का प्रदर्शन अच्छा रहा । लेकिन जाति-वर्ग समुच्चय की इस व्यापक आधार वाली राजनीति से अंबेडकर धीरे-धीरे अधिक अलग-थलग दलित समूहों की ओर मुड़ते चले गए ।

वे कांग्रेस के भी एक तीखे आलोचक बन बैठे, क्योंकि 1930 के दशक के दौरान नेहरू जैसे नेताओं के ”धर्मनिरपेक्ष” दृष्टिकोण ने और ”जाति को एक राजनीतिक समस्या” मानने से उनके लगातार इनकार ने दलित नेतृत्व को पक्के तौर पर विमुख कर दिया ।

इन दोनों समूहों का मतभेद अब राष्ट्रवाद के प्रति दो दृष्टिकोणों के अंतर्विरोध पर आ टिका, जिसमें कांग्रेस की चिंता तो सत्ता के हस्तांतरण और स्वतंत्रता से थी, जबकि दलितों की चिंता भावी राष्ट्र-राज्य में नागरिकता की शर्तों से अधिक थी ।

अंबेडकर ने कांग्रेस से कहा कि वे स्वराज के संघर्ष में भाग लेने को तैयार हैं, पर उन्होंने एक शर्त सामने रखी: ”मुझे बतलाइए कि उस स्वराज में मेरी भागीदारी कितनी होगी । चूँकि उनको कोई गारंटी नहीं दी गई, उन्होंने कांग्रेस के आंदोलन से दूर रहना ही बेहतर समझा । जुलाई 1942 में उनको वायसरॉय की परिषद का श्रम सदस्य नियुक्त किया गया ।

नागपुर में 18 से 20 जुलाई 1942 तक आयोजित एक सम्मेलन में उन्होंने अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ (ऑल इँडिया शेड्‌यूल्ड कास्ट फेडरेशन) का आरंभ किया, जिसके संविधान में दलितों को ”हिंदुओं से विशिष्ट और अलग” करार दिया गया था । राजा जैसे नेता इस नए और शुद्ध दलित संगठन में शामिल होकर खुश ही हुए ।

दलितों के विरोध का यह वक्तव्य और उनका एक अलग पहचान का यह दावा उस भारत छोड़ो आंदोलन (8-9 अगस्त) से कुछ ही दिनों पहले की बातें हैं, जिससे मुसलमानों ने भी अलग रहने का निर्णय किया था । लेकिन मुसलमानों की अलग-थलग राजनीति के विपरीत दलितों का यह आत्मघोष बहुत दूर तक नहीं गया और शीघ्र ही, 1940 के दशक के अंत में, उनकी राजनीति कांग्रेस में समाहित हो गई । ऐसा अनेक कारणों से हुआ ।

पहली बात यह कि इस (दलितों की) राजनीति में सभी दलितों का विश्वास नहीं था, खासकर ऐसे दौर में जब गांधीवादी लोक-राष्ट्रवाद एक अभूतपूर्व सार्वजनिक वैधता प्राप्त कर चुका था । अनुसूचित जाति महासंघ के पास ऐसा जन-संगठन खड़ा करने के लिए न तो अवसर था न समय था और न संसाधन थे, जो ऐसे समय में कांग्रेस का मुकाबला कर सकता जब गांधी का सुधारवादी एजेंडा और आगे चलकर कम्युनिस्टों का क्रांतिकारी कार्यक्रम लगातार उसके जनाधार को काटते जा रहे थे ।

आखिरी बात यह कि सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया की विवशताओं ने दलित नेतृत्व के पास जोड़तोड़ की बहुत कम संभावना छोड़ी और उसे कांग्रेस से हाथ मिलाने के लिए मजबूर कर दिया । 1946 के चुनाव में हिंदू महासभा और कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा दूसरी सभी छोटी राजनीतिक पार्टियों की तरह अनुसूचित जाति महासंघ का भी लगभग सफाया हो गया और उसने दलितों के लिए आरक्षित 151 सीटों में से मात्र 2 सीटें जीतीं ।

इन सीटों का प्रचंड बहुमत कांग्रेस को गया, जिसकी उस समय भारत छोड़ो आंदोलन के कारण और बाद में आजाद हिंद फ्रौज के लोगों पर मुकदमे के विरोध में आंदोलन के कारण लोकप्रियता की लहर चल रही थी । सत्ता के हस्तांतरण के तौर-तरीकों पर बातचीत के लिए 1946 में जो कैबिनेट मिशन भारत आया, वह चुनाव परिणामों के आधार पर इस परिणाम पर पहुँचा कि सही अर्थों में दलितों का प्रतिनिधित्व कांग्रेस कर रही थी ।

और सभी आधिकारिक मैचों पर आगे भी करती रहेगी । इस ”प्रतिनिधित्व के संकट” पर अंबेडकर की गुस्से भरी प्रतिक्रिया रही और उन्होंने अपना जन-समर्थन साबित करने के लिए एक लोक सत्याग्रह शुरू कर दिया । लेकिन संगठन के अभाव के कारण यह आंदोलन बहुत दिनों तक नहीं चला ।

इसलिए सरकारी संरक्षण वापस ले लिए जाने और सीधी कार्रवाई के असफल रहने पर उनके पास कोई ऐसा राजनीतिक क्षेत्र नहीं बचा, जिसमें वे दलितों की अलग पहचान सामने रख सकते या उनकी नागरिकता के लिए लड़ सकते ।

इस ऐतिहासिक मोड़ पर, स्वतंत्रता की पूर्व बेला में, संविधान सभा की एक सीट पर अंबेडकर का नाम पेश करके और फिर उनको संविधान प्रारूप समिति (कांस्टिट्‌यूशन ड्राफ्टिंग कमिटी) की अध्यक्षता के लिए चुनकर कांग्रेस ने दलित प्रतिरोध को समाहित कर लेने का प्रयास किया ।

उनके नेतृत्व में नए भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता को गैर-कानूनी घोषित किया और वे स्वतंत्रता के बाद नेहरू मंत्रिमंडल में नए विधि मंत्री बनाए गए । इस तरह जैसा कि एल्योनोर जेलियट ने स्थिति का वर्णन किया है, ”लगा कि गोधी-कांग्रेस-अस्पृश्य स्थिति की सभी विभिन्न धाराएँ साथ आ गई हों ।” लेकिन समन्वय के इस पल में दरार की संभावनाएँ भी निहित थीं ।

अंबेडकर को कांग्रेस से अपने जुड़ाव की व्यर्थता का शीघ्र ही एहसास हुआ, क्योंकि हिंदू संहिता विधेयक (हिंदू कोड बिल) पर उसके दिग्गजों ने उनका समर्थन करने से इनकार कर दिया । 1951 में उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया और फिर 15 अक्टूबर 1956 को, अपनी मृत्यु से लगभग डेढ़ माह पहले, उन्होंने अपने तीन लाख अस्सी हजार अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया ।

इस घटना को अकसर हिंदू धर्म के विरुद्ध, जो सुधारों से परे है, विरोध के एक चरम सार्वजनिक कृत्य के रूप में पेश किया जाता है । पर यहाँ याद रखने की बात यह है कि अंबेडकर ने वास्तव में बौद्ध धर्म को पुनर्निरूपित किया, उसके धार्मिक मताग्रहों की आलोचना की और उसके अतिवादी सामाजिक संदेश को उभारकर सामने ले आए, ताकि भारतीय समाज में धर्म की जिस नैतिक भूमिका की वे कल्पना करते थे उसे वह पूरा कर सकें ।

यही कारण है कि बौद्ध धर्म के बारे में उनकी विशेष समझ को दलितों ने एक नई विश्वदृष्टि और एक सामाजिक राजनीतिक विचारधारा का आधार समझा, जो समाज पर हावी धार्मिक मुहावरों का तथा उनको बराबर बल पहुँचाने और पुनरुत्पादित करने वाली शक्ति-संरचना का मुकाबला कर सकती थी ।

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