ब्रिटिश शासन के दौरान व्यापार और राजनीति | Business and Politics during British Rule

उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो से ही भारतीय पूँजीपति वर्ग और विशिष्ट ढंग से कहें तो औद्योगिक पूँजीपति वर्ग धीरे-धीरे परिपक्व और राजनीति में प्रभावशाली बनता आ रहा था ।

पहले विश्वयुद्ध के अंत तक विभिन्न कारणों से, पंजीकृत औद्योगिक उद्यमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी, तथा विश्वयुद्धों के बीच के काल में उनकी स्थिति और मजबूत हुई । भारत में एक साधारण से औद्योगिक विकास को उपनिवेशवादियों की बाधाओं के बावजूद, अनेक कारणों ने बढ़ावा दिया, जैसे उपभोक्ता वस्तुओं में आयात प्रतिस्थापन की बढ़ती प्रवृत्ति, घरेलू बाजारों की ओर ध्यान, आंतरिक व्यापार में वृद्धि, व्यापार, सूदखोरी और भूस्वामित्व के माध्यम से अतीत में जमा पूँजी का उद्योगों में निवेश और विदेशी पूँजी का बाहर की ओर प्रवाह जिसने देशी उद्यमियों के लिए मैदान तैयार किया ।

1944 तक एक हजार से अधिक मजदूरों वाली बड़ी औद्योगिक ईकाइयों में लगभग 62 प्रतिशत पर और उनके श्रम-बल के 58 प्रतिशत पर भारतीय पूँजी का नियंत्रण था । छोटे कारखानों में भी, जिनका औद्योगिक क्षेत्र में भाग 95.3 प्रतिशत था जैसा कि आदित्य मुखर्जी ने बल देकर कहा है, भारतीय पूँजी का ”निरपेक्ष” नियंत्रण था ।”

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यह विकासक्रम तब सामने आया जब भारतीय पूँजी ने अभी तक विदेशी पूँजी द्वारा अविकसित क्षेत्रों में प्रवेश किया, जैसे शक्कर, कागज, सीमेंट, लोहा और इस्पात आदि में । भारतीय पूँजी उन क्षेत्रों में भी जा पहुँची, जिनपर अभी तक विदेशी पूँजी का कब्जा था जैसे वित्त, बीमा, जूट, खदानों और बागान में ।

लेकिन उसने अपनी शक्ति के परंपरागत क्षेत्रों में भी अपनी स्थिति और मजबूत की, जैसे सूती कपड़ों के उद्योग में । वास्तव में सबसे शानदार वृद्धि तो सूती कपड़ा उद्योग की ही रही, जो अब घरेलू उपभोक्ताओं की माँगे पूरी करने लगा था और जिसने बाजार में मैनचेस्टर के शेयर को 1919 तक घटाकर 40 प्रतिशत से भी नीचे पहुंचा दिया ।

जैसा कि, भारतीय उद्योगीकरण में यह साधारण-सी वृद्धि उपनिवेशी शासन के कारण नहीं बल्कि उसके बावजूद आई । भारतीय उद्योगपतियों की पिछली पीढ़ी विदेशी पूँजी पर बहुत अधिक निर्भर थी और वह उसका प्रभुत्व मानने को तैयार थी और उसके साथ एक भेदभाव करने वाली उपनिवेशी राजसत्ता की वास्तविकताओं को भी ।

लेकिन एक विस्तारित सामाजिक आधार से आए उद्योगपतियों की नई पीढ़ी अधिक परिपक्व तथा अपने अधिकारों के परित्याग के लिए कम तैयार थी । अपनी स्थिति को मजबूत बनाने के लिए वे स्वयं को संगठित करने लगे तथा फलत: 1887 में बंगाल नेशनल चैंबर ऑफ्र कॉमर्स और 1907 में बंबई में इंडियन मर्चेट्‌स चैंबर का जन्म हुआ ।

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पर सवाल यह है: इस चरण में साम्राज्यवाद के सापेक्ष राष्ट्रवाद के प्रति भारतीय औद्योगिक समुदाय का राजनीतिक रुख वास्तव में क्या था ? लगता है इतिहासकार इस सवाल पर बँटे हुए हैं । एक ओर तो विपिनचंद्र मानते हैं कि ”साम्राज्यवाद के साथ एक अल्पकालिक निर्भरता और तालमेल का संबंध बनाए रखकर भी उसके साथ भारतीय पूँजीपति वर्ग का एक दीर्घकालिक अंतर्विरोध विकसित हुआ” ।

कालांतर में पूँजीपति साम्राज्यिक शोषण के अंत और एक राष्ट्र-राज्य के जन्म की कामना करने लगे, पर उनकी ढाँचागत कमजोरियों और उपनिवेशी सरकार पर उनकी निर्भरता ने उनसे समझौते के साथ दबाव के समन्वय की विवेकपूर्ण रणनीति मनवाई ।

वे एक राष्ट्रवादी आंदोलन के पक्ष में थे, पर सुरक्षित और स्वीकार्य सीमाओं के अंदर, अतिवादी वामपंथियों के मार्गदर्शन में नहीं बल्कि दक्षिणपंथी, नरमपंथियों के भरोसेमंद हाथों में । इस विचार को और आगे विकसित किया है आदित्य मुखर्जी ने, जो साम्राज्यवाद के विनाश और पूँजीवाद की सुरक्षा के लिए एक ”बहुआयामी” पूँजीवादी रणनीति की बातें करते हैं ।

वे लोग संगठित मजदूरों अतिवादी वामपंथ और जन-आंदोलन से डरते थे, पर इनसे सुरक्षा पाने के लिए उन्होंने साम्राज्यवाद के समक्ष समर्पण नहीं किया । उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन को संविधानवाद की राह पर लाने के लिए, दक्षिणपंथियों को संरक्षण दने और इस तरह कांग्रेस को इस तरह ढालने के लिए एक वर्गीय रणनीति का विकास किया, ताकि वह ”पूँजीवादी वैचारिक वर्चस्व”  में  रहे । पूँजीपतियों को एक सुस्पष्ट साम्राज्यवाद विरोधी विचारधारा से युक्त एक परिपक्व वर्ग माननेवाले इस मार्क्सवादी दृष्टिकोण के विपरीत दूसरे इतिहासकार इस विषय में कम आश्वस्त हैं ।

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उदाहरण के लिए, बसुदेव चटर्जी अधिक दोटूक हैं: वे समझते हैं कि ”राजनीतिक दृष्टि से भारत के व्यापारी समूह बहुत बड़ी सीमा तक निष्ठावान थे ।” बंबई के व्यापारी समूहों पर विचार करने के बाद ए. डी. डी. गॉर्डन सौदागरों (merchants) और उद्योगपतियों के बीच एक अंतर करते हैं; उनके विचार से सौदागर जहाँ अधिक राष्ट्रवादी थे, वहीं उद्योगपति ”सरकार के परंपरागत सहयोगी” थे ।

ऐसे अंतर क्लाउद मार्कोवित्ज़ (1985) ने भी पाए हैं, लेकिन राष्ट्रवाद ओर कांग्रेस के प्रति भारतीय व्यापारियों के विभिन्न समूहों के राजनीतिक रवैयों में एक अधिक लंबी अवधि में तालमेल और परिवर्तन भी वे देखते हैं ।

जहाँ तक उपनिवेशी अधिकारियों का प्रश्न था, जैसा कि रजत रे कहते हैं, भारतीय व्यापारी ”एक ही समय में सहयोग और विरोध” दोनों कर रहे थे और इस तरह उनके रवैयों के बारे में कोई ”सुस्पष्ट सामान्यीकरण” करना संभव नहीं है ।

द्विजेंद्र त्रिपाठी का तर्क है कि उद्योगपतियों की राजनीति, मुद्दों के जन्म लेने के समय उनके प्रति एक ”व्यवहारवादी दृष्टिकोण” से संचालित होती थी तथा वे कांग्रेस और सरकार से ”समान दूरी” बनाए रखकर, इनमें से दोनों को दुश्मन बनाए या विमुख करने के डर से किसी की ओर भी झुकने से बचते रहते थे ।

वे (द्विजेंद्र त्रिपाठी) समझते हैं कि एक पूंजीवादी ”महारणनीति” की बात करना ”अतिशयोक्ति” होगा । दूसरे शब्दों में, इन लेखनों से जो बात सामने आती है, वह यह है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारतीय व्यापारी शायद ही एक ”निज-हेतु-वर्ग” (class for itself) रहे होंगे ।

वे एक साथ नहीं चलते थे, उनके हित अलग-अलग थे, उनके विचारों में टकराव और रणनीतियों में अंतर्विरोध थे: इस काल की सामान्य शब्दावली में उनकी राजनीति की बात कर सकना असंभव है । इसलिए हम किसी सुसंगठित पूँजीवादी विचारधारा की या राष्ट्रवाद या साम्राज्यवाद के प्रति किसी राजनीतिक रणनीति की पहचान की कोशिश करने की बजाय इन्हीं पेचीदगियों की पहचान करने की कोशिश करेंगे । पहले विश्वयुद्ध और उसके तुरंत बाद के काल में भारतीय व्यापारी समूहों के भाग्य अलग-अलग रहे ।

युद्धकालीन विकासक्रमों के कारण जहाँ उद्योगपति फले-फूले, वहीं विनिमय दरों के उतार-चढ़ाव और भारी करों के कारण सौदागरों को हानि पहुँची । दिसंबर 1920 में रुपया लुढ़क गया, जिसके कारण भारतीय आयातकों के लिए पिछले अनुबंधों पर लगभग 30 प्रतिशत के घाटे का खतरा पैदा हो गया, पर यही बात भारतीय निर्यातकों और मिल-मालिकों के पक्ष में गई ।

युद्धकालीन भारी करों ने सभी को प्रभावित किया, पर आयकर कानून में किए गए विशेष परिवर्तनों ने देशी संयुक्त परिवारों के व्यवसायों को चोट पहुँचाई, क्योंकि उनकी लेखा-प्रणाली नए कानून के अंतर्गत आयकर के ब्यौरों को जमा करने की जरूरतों से मेल नहीं खाती थी ।

हालांकि सरकार की कर और मुद्रा संबंधी नीतियों से मारवाड़ी और गुजराती व्यापारी दुखी थे, पर उद्योगपति और बड़े व्यापारी इस बारे में कम चिंतित थे क्योंकि सरकार भी उनका समर्थन पाने की जी-तोड़ कोशिशें कर रही थी ।

1919 के मांटेग्यू-चेम्सफ्रोर्ड सुधार ने ”हितों के प्रतिनिधित्व” की व्यवस्था लागू की और इस प्रकार मजदूरों के साथ भारतीय उद्योग को भी केंद्रीय और प्रांतीय विधायिकाओं में प्रतिनिधित्व दिया । इसके अलावा, 1919 की वित्तीय स्वतत्रता संविदा (fiscal autonomy convention) और 1922 के बाद ”संरक्षणमूलक भेदभाव” की एक नीति के वादे ने संरक्षणवादी शुल्कों (tariffs) के लागू किए जाने की आशा जगाई ।

इसलिए गांधी के उदय के बाद जब लोक-राष्ट्रवाद का आरंभ हुआ, तो उसके प्रति भारत के व्यापार जगत की मिली-जुली प्रतिक्रिया रही । कुछ मारवाड़ी और गुजराती सौदागर और नए उद्यमी, जो बहुत अधिक धार्मिक थे, गांधी की ओर बहुत झुक गए क्योंकि उनमें  उन्हें जैन और वैष्णव दर्शन का साझा आधार मिला ।

अहिंसा पर उनका बल किसी भी तरह के राजनीतिक गरमपंथ के मुकाबले आश्वस्त करता था तथा उनका ”ट्रस्टीशिप” का सिद्धांत संपत्ति को वैध ठहराता था । इस तरह गांधीवादी विचारधारा भले ही पूँजीवादी हितों पर आधारित न हो उसकी कुछेक धारणाएं इन सौदागरों और उद्यमियों के लिए आकर्षक थीं ।

इस कारण गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम में उन्होंने सहर्ष योगदान किया तथा घनश्यामदास बिड़ला और जमनालाल बजाज जैसे कुछ बड़े उद्योगपति उनके घनिष्ठ सहयोगी बन गए । लेकिन सबंधों में उलझन के भी कुछ कारण थे: विशेषकर अहमदाबाद के अंबालाल साराभाई जैसे मिल-मालिक 1918 की मजदूर हड़ताल के दौरान उनकी नेतृत्व की शैली से पूरी तरह खुश नहीं थे ।

पर गांधी ने किसी तरह इस बाधा को पार किया और भारतीय व्यापारियों ने अनुभव किया कि कांग्रेस को पूँजीवाद विरोधी बनने से केवल वे ही रोक सकते हैं । फिर भी, 1919 में जब रौलट सत्याग्रह शुरू हुआ तो उद्योगपति शंकित रहे, हालांकि बंबई के व्यापारियों ने उनका जमकर समर्थन किया ।

अप्रैल में गांधी जब गिरफ्तार किए गए, तो बंबई में उद्योगों की संपूर्ण हड़ताल रही । असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो कपास के सौदागरों ने बहिष्कार आंदोलन का फिर समर्थन किया और तिलक स्वराज कोष में जमकर दान दिया । लेकिन दूसरी ओर अनेक उद्योगपति शांत रहे या जन-आंदोलन का सीधे-सीधे विरोध करते रहे ।

बंबई में पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास के आशीर्वाद और आर. डी. टाटा के धन से एक असहयोग विरोधी समिति का गठन किया गया । व्यापारी समुदाय में विभाजन कहीं उतना स्पष्ट न था, जितना बंबई में था, जहाँ इंडियन मर्चेंट्‌स चैंबर पर उद्योगपतियों का वर्चस्व दो बार (1920 में और 1921 में) खतरे में पड़ा: पहली बार तो काउंसिलों के बहिष्कार के प्रश्न पर और फिर भारत आनेवाले प्रिंस ऑफ वेल्स को मानपत्र पेश करने के प्रश्न पर, जबकि कांग्रेस उसका बहिष्कार करना चाहती थी ।

स्पष्ट है कि सौदागर कांग्रेस के साथ थे और कांग्रेस को भी उनके समर्थन की आवश्यकता थी, क्योंकि उनके बिना बहिष्कार आंदोलन के सफल होने की संभावना कम ही थी । लेकिन 1922 के बाद बिगड़ती आर्थिक दशाओं के कारण भारतीय व्यापारी समुदाय के सभी हिस्से, सभी उद्योगपति, राष्ट्रवाद की ओर कुछ और आकर्षित हुए । युद्धकालीन तेजी 1921-22 में समाप्त हो गई और 1920 के पूरे दशक के दौरान मंदी जारी

रही ।

माल नहीं बिक रहे थे और उनके बड़े-बड़े भंडार जमा थे तो उधर मजदूरियाँ भी बढ़ रही थीं । आयातित धागों पर निर्भरता के कारण और लगभग उन्हीं दिनों भारतीय बाजारों को पाटना शुरू करनेवाले सस्ते जापानी मालों की बढ़ती प्रतियोगिता के कारण जिसके कारण दाम और नीचे गिरने लगे बंबई के सूती कपड़ा मिल-मालिकों की स्थिति बदतर हो गई । 1920 और 1923 के बीच सूती मिलों के शेयरों के दाम तेजी से लुढ्‌के और अनेक उद्योगपतियों को घबराहट होने लगी ।

इस चरण में उनकी शिकायत कपास पर 3.5 प्रतिशत आबकारी (excise duty) के विरुद्ध थी और उसके उन्मूलन के लिए उन्होंने अब विधायिका में स्वराजवादियों से हाथ मिला लिए । दिसंबर 1925 में यह आबकारी समाप्त कर दी गई, पर सूती मिल-मालिकों की समस्या इससे दूर नहीं हुई; 1926 में 11 मिलें बंद हुई और 13 प्रतिशत मजदूर बेरोजगार हो गए ।

जनवरी 1927 में भारतीय शुल्क बोर्ड की एक बहुमत की रिपोर्ट ने धागे छोड़ सभी सूती मालों पर आयात शुल्क को 11 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 प्रतिशत करने की अनुशंसा की । पर लंकाशायर लॉबी के उग्र विरोध के कारण भारत सरकार ने इस निर्णय को स्थगित रखा ।

1920 के दशक के दौरान भारतीय उद्योगपतियों को न केवल भारत सरकार से करारे जवाब मिल रहे थे, जो लंदन के दबाव के कारण उनकी आर्थिक समस्याओं के प्रति संवेदनहीन थी, बल्कि कलकत्ता और बंबई दोनों जगह विदेशी पूँजी के साथ भी उनके संबंध धीरे-धीरे बिगड़ रहे थे ।

जैसा कि मारिया मिश्र (1999) ने दिखाया है, 1919 के सुधारों के बाद से ही अपने नस्ली अलगाव और अपनी स्वतंत्रता पर अड़े हुए ब्रिटिश पूँजीपतियों के रवैये अपने भारतीय बंधुओं के प्रति कड़े होने लगे थे, क्योंकि वे भारतीय राजनीतिज्ञों को या उद्योगपतियों को कोई भी छूट देने के पक्ष में नहीं थे ।

1921 में यूरोपीय व्यापारी संगठनों ने एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ्र कॉमर्स नाम से एक शीर्ष संगठन का गठन किया । इसके जवाब में भारतीय उद्योगपतियों ने 1927 में, अपने मतभेदों और हितों के टकराव के बावजूद अपना संगठन फिक्की (FICCI) बनाया, जिसके अध्यक्ष पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास थे ।

1929 की भयंकर मंदी ने जब भारत का दरवाजा खटखटाया, तो दोनों पालों की मोर्चाबंदी और स्पष्ट हो गई । इस बार इसकी व्याख्या सरकारी नीतियों की असफलता के रूप में की गई; खेती की उपज के दाम गिरे तथा रूढ़िवादी वित्तीय और मौद्रिक नीतियों के कारण स्थिति और बिगड़ी ।

अब एक हताश वित्तीय स्थिति में फंसी सरकार को राजस्व के अतिरिक्त स्रोतों की आवश्यकता थी और कपास संबंधी करों की ओर फिर उसकी नजरें उठीं । मार्च 1930 के कपास संरक्षण कानून (कॉटन प्रोटेक्शन ऐक्ट) में ये कर 11 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 प्रतिशत कर दिए गए, पर केवल गैर-ब्रिटिश मालों के लिए ही, और इस तरह लंकाशायर को लाभ पहुँचाया गया ।

साम्राज्यिक प्राथमिकता की व्यवस्था के इस आरंभ ने भारतीय उद्योगपतियों को नाराज कर दिया और राष्ट्रवादियों ने उसका व्यापक विरोध किया उनमें से बिड़ला और ठाकुरदास समेत कई ने तो विधायिका से ही त्यागपत्र दे दिए ।

दूसरी उलझन सरकार की मुद्रा नीति को लेकर थी और सरकार ने मनमाने ढंग से रुपए और स्टर्लिग की विनिमय दर को 1 शिलिंग 6 पेंस पर तय कर दिया था, जिसकी सिफ़ारिश 1926 के हिल्टन-यंग आयोग ने की थी ।

सरकार ने रुपए के इस भारी विनिमय मूल्य को बनाए रखने की कोशिश भारत से धन-प्रेषण का प्रवाह और भारत की ऋण/ निवेश संबंधी साख बनाए रखने के लिए की थी । यह ऊँची दर भारतीय आयातकों के विरुद्ध और भारत को निर्यात करने वाले अंग्रेजों के हित में थी; कहा गया कि इसने खेतिहर उत्पादकों और औद्योगिक मजदूरों पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाले ।

सितंबर 1931 में ब्रिटेन स्वर्ण मान (gold standard) से अलग हो गया, जबकि रुपया 1 शिलिंग 6 पेंस की दर से ही स्टर्लिंग से बँधा हुआ था । इसके कारण भारत में मुक्त होनेवाले और बाहर जानेवाले सोने से ब्रिटेन को मदद मिली पर भारतीय हितों को कोई लाभ नहीं पहुँचा । व्यापारी समूह 1 शिलिंग 4 पेंस की कम दर की माँग उसे भारत की आर्थिक बहाली के लिए बेहतरीन कहकर कर रहे थे तथा 1926 में गांधी और पटेल के आशीर्वाद से बंबई में एक मुद्रा लीग का गठन हुआ था ।

दूसरे शब्दों में, मुद्रा संबंधी बहस सरकार के विरुद्ध व्यापारियों और कांग्रेस को एक  मंच पर और भी निकट ला रही थी । अतीत में व्यापारी समूह संविधानवाद के और ”दबाव समूह की राजनीति” के पक्ष में थे और यही कारण है कि 1920-21 के असहयोग आंदोलन से उन्होंने दूरी बनाए रखी थी ।

लेकिन कांग्रेस जब संविधानवाद की ओर पलटी, तो भारतीय उद्योग के प्रतिनिधि भी स्वराजवादियों के और निकट आए और विधायिका में विभिन्न राष्ट्रीय आर्थिक प्रश्नों पर उनसे सहयोग करने लगे । उदाहरण के लिए सरकार की खरीद नीति में संशोधन, कपास पर आबकारी की समाप्ति, जापानी प्रतियोगिता से निबटने के लिए सूती मालों पर आयात शुल्क में वृद्धि, साम्राज्यिक प्राथमिकता और मुद्रा नीति के विरोध जैसे सवालों पर ।

व्यापारियों ने गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों और स्वराजवादियों के अभियान कोषों में भी जमकर दान दिए । फिर भी, गांधीवादी कांग्रेस के नेतृत्व में आंदोलनों की राजनीति से अपनी किस्मत जोड़ने के बारे में बहुतों के दिल शंका से भरे रहे ।

हालांकि मंदी ने उनकी हालत खराब कर रखी थी और सुमित सरकार के शब्दों में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भागीदारी के पक्ष में एक तरह की ”जनमत की लहर” पैदा कर दी थी, फिर भी, जैसा कि मार्कोवित्ज़ (1985) का कथन है, यह बहाव किसी भी तरह सीधा-सादा या जटिलताओं से मुक्त नहीं था ।

उनमें से अनेक तो आंदोलनों की राजनीति को अभी भी भारी जोखिम का काम-नागरिक असंतोष और बोल्शेविकवाद के लिए एक उपजाऊ जमीन-समझते थे; कुछ दूसरे लोग समझते थे कि एक संवेदनहीन सरकार से रियायतें निकलवाने का यह अंतिम अवसर है ।

वे तब अत्यंत खुश हुए जब नवंबर 1929 में लॉर्ड इर्विन ने एक गोलमेज सम्मेलन के प्रस्ताव की घोषणा की, जिससे भारत की समस्याओं का एक संवैधानिक समाधान निकलने की आशा थी । लेकिन उनकी आशाएँ कांग्रेस की हठधर्मिता के कारण चूर-चूर हो गई, जिसके लाहौर अधिवेशन ने दिसंबर में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित कर दिया ।

यह प्रस्ताव व्यापारी समूहों को कुछ अधिक ही अतिवादी लगा । प्रस्ताव में एक प्रावधान कर्जों के  रद्द किए जाने के बारे में था जिसका बंबई के शेयर बाजार पर और लंदन के भारतीय प्रतिभूति (securities) बाजार पर गहरा प्रभाव पड़ा, और इसलिए यह प्रावधान व्यापारिक समूहों को पसंद तो नहीं ही था ।

फिर भी, अनेक इतिहासकारों के अनुसार वे लोग साम्यवाद के डर से और मजदूरों में जारी असंतोष के खतरों के कारण कांग्रेस के साथ बने रहे । इस दौर में गिरनी कामगार यूनियन जैसी ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व में जो कम्युनिस्ट प्रभाव में अधिकाधिक आती जा रही थीं 1928 और 1929 में अनेक हड़तालें हुई ।

लाल  खौफ़ (red scare) से हताश होकर दोराबजी टाटा ने तो साम्यवाद को रोकने के लिए पूँजीपतियों का एक हिंद-यूरोपीय राजनीतिक संगठन बनाने तक का प्रस्ताव कर डाला । इसे बिड़ला और ठाकुरदास के हस्तक्षेप ने रोका और इस तरह राष्ट्रवादियों से खुला संबंध-विच्छेद टल गया ।

हालांकि सरकार ने 1929 में मेरठ षड्‌यंत्र मुकदमा चलाकर कम्यूनिस्टों पर एक जोरदार हमला किया, पर गांधी के धीर-गंभीर प्रभाव वाली एक अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (जिसकी 1920 में स्थापना हुई) कम्युनिस्ट विरोधी लड़ाई में भारतीय पूँजीपतियों की अकेली आशा थी ।

इस तरह 1930 के आरंभ तक विभिन्न कारणों से, भारतीय व्यापार जगत के सभी हिस्से कांग्रेस के साथ आ चुके थे । उधर कांग्रेस भी उनकी स्थिति और हितों के प्रति संवेदनशील थी । इसलिए गांधी ने जब इर्विन के नाम 11-सूत्री चेतावनी की घोषणा की, तो उसमें खास पूँजीपतियों की तीन माँगे थी- 1शिलिंग 4 पेंस की रुपया-स्टर्लिग विनिमय दर का अनुमोदन, सूती उद्योग के लिए संरक्षण और भारतीय कंपनियों के लिए तटीय जहाजरानी का आरक्षण, लेकिन जब सविनय अवज्ञा आंदोलन का आरंभ हुआ तो व्यापार जगत की प्रतिक्रिया एकबार फिर मिली-जुली रही ।

व्यापारी और सौदागर अधिक उत्साही रहे: उन्होंने धन दिए और बहिष्कार आंदोलन में भाग लिए । वास्तव में विशेष अवधि तक विदेशी माल रखने से इनकार करके कपड़ों के सौदागरों और खासकर आयातकों ने बहिष्कार आंदोलन की सफलता में सबसे अधिक योगदान किया ।

दूसरी ओर, मिल-मालिक घबराए-घबराए रहे और उनका ठोस समर्थन कम ही रहा, जबकि बंबई के टाटा जैसे उद्योगपति, जो सरकारी आदेशों पर निर्भर थे, शंकाग्रस्त रहे । लेकिन पूर्ण तटस्थता आत्मघाती हो सकती थी: इसलिए फिक्की ने आंदोलन के सिद्धांतों का समर्थन किया और पुलिस की बर्बरताओं की निंदा की ।

बहिष्कार आंदोलन कीं व्यावहारिकताओं के कारण कांग्रेस और मिल-मालिकों के बीच हितों के टकराव भी हुए । बहिष्कार से गांधी का तात्पर्य विदेशी कपड़ों की जगह खादी के प्रयोग से था: वे भारतीय मिल-मालिकों की कुछ मुनाफाखोरी को स्वीकार करने को तैयार थे, पर चाहते थे कि यह सीमा में रहे ।

इसलिए कांग्रेस ने 1928 में कुछ नियम तैयार किए और जिन मिलों ने उनके पालन की स्वीकृति दी उनको स्वदेशी मिल कहा गया जिनका बहिष्कार नहीं किया जाता । पर मिल-मालिकों की नजरों में ये नियम बहुत कठोर थे और इस कारण 1930 में उनमें ढील देनी पड़ी कांग्रेस तथा बंबई-अहमदाबाद के मिल-मालिकों के बीच लंबी-लंबी वार्ताएँ हुई ।

अंतत: मार्च 1931 तक केवल आठ मिलें ही स्वदेशी की शपथ लेने से इनकार करती रहीं; दूसरों ने तो शपथपत्र पर हस्ताक्षर कर दिए, पर शायद ही कभी नियमों का पालन किया । सविनय अवज्ञा के प्रति मिल-मालिकों में जो भी उत्साह-भाव रहा हो, वह सितंबर 1930 तक स्पष्ट तौर पर समाप्त हो चुका था, जब उन्होंने अपने आपको भारी अनबिके भंडारों से लदा हुआ पाया ।

बढ़ते नागरिक असंतोष ने न केवल रोजमर्रा के व्यापार में बाधा डाली बल्कि उसने सत्ता के प्रति सम्मान के  खात्मे के बारे में बड़े व्यापारियों के मन में आतंक पैदा कर दिया और एक सामाजिक क्रांति का भय खड़ा कर दिया ।

वे लोग स्पष्ट तौर पर संविधानवाद की ओर लौटना चाहते थे, तथा बिड़ला और ठाकुरदास जैसे नेता कांग्रेस और सरकार के बीच ईमानदार दलालों की भूमिका निभाना चाहते थे । और गांधी ने ”अनेक दूसरे कारणों से” इर्विन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए तो, जैसा कि आदित्य मुखर्जी का दावा है, उद्योगपतियों का दबाव निश्चित ही इन कारणों में से एक था, और वह भी एक महत्त्वपूर्ण कारण था ।

फरवरी 1931 में, यानी मार्च में गांधी-इर्विन समझौते पर हस्ताक्षर होने से ठीक पहले, भारत सरकार ने तैयार सूती कपड़ों पर शुल्क और 5 प्रतिशत बढ़ाकर सूती मिल-मालिकों को एक अहम रियायत दी और वह भी इस बार लंकाशायर को प्राथमिकता दिए बिना ।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि व्यापार जगत के नेता खरीद लिए गए । दूसरे गोलमेज सम्मेलन में जहाँ कांग्रेस का प्रतिनिधित्व गांधी ने किया और फिक्की के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व बिड़ला और ठाकुरदास कर रहे थे, आर्थिक विषयों पर सभी वार्ताओं के दौरान फिक्की ने पक्के तौर पर गांधी के विचारों का पालन किया ।

लेकिन लंदन में संवैधानिक वार्ताओं के भंग होने के बाद भी वह (फिक्की) निश्चित ही आंदोलनों की ओर वापस लौटना नहीं चाहती थी । कांग्रेस ने जनवरी 1932 में जब दूसरे सविनय अवज्ञा आंदोलन का आरंभ किया तो उसे उद्योग जगत का समर्थन स्पष्ट रूप से नहीं मिला, हालांकि इस बारे में कोई सहमति थी भी नहीं । इस बार राजनीतिक दबाव ने व्यापारी समुदाय को अनेक युद्धरत गुटों में बाँट दिया ।

बंबई के व्यापारी चार खेमों में बँट गए और टाटा तथा सर होमी मोदी जैसे व्यापारियों ने सविनय अवज्ञा की खुलकर निंदा की । अखिल भारतीय स्तर पर बडे व्यापारी तीन खेमों में बँट गए: अहमदाबाद के मिल-मालिक इस आंदोलन का समर्थन कर रहे थे, जबकि बंबई के मिल-मालिक कलकत्ता तथा दक्षिण भारत की कुछ लॉबियों के साथ इसका विरोध कर रहे थे; बिड़ला और ठाकुरदास की तरह फिक्की के कुछ प्रमुख नेता लगातार ढुलमुल बने रहे ।

व्यापार जगत की राजनीति की खंडित प्रकृति तब और भी स्पष्ट हो गई, जब सरकार ने 1932 में ओटावा में एक साम्राज्यिक आर्थिक सम्मेलन के प्रस्ताव की घोषणा की । इसका उद्देश्य ”साम्राज्य में विभिन्न उद्योगों के बीच और उनके अंदर उत्पादन में एक नए विशेषीकरण” की व्यवस्था करके साम्राज्यिक आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना था ।

फ़िक्की के नेताओं ने इस प्रश्न पर सरकार से सहयोग करने के बारे में आरंभ में उत्साह दिखाया, पर अविश्वासी वायसरॉय विलिंगडन ने दोस्ती के हाथों को झटक दिया और उसकी बजाय भारत से उद्योगपतियों का ऐसा प्रतिनिधिमंडल भेजा, जिसमें पक्के वफादार और दूसरे दर्जे के औद्योगिक नेता भरे हुए थे ।

फलस्वरूप अगस्त 1932 के ओटावा समझौते ने भले ही भारतीय उद्योग को कुछ वास्तविक लाभ देने के वादे किए, पर फिक्की ने और राष्ट्रवादियों ने शत्रुतापूर्ण प्रतिक्रिया के साथ उसका स्वागत किया । लेकिन इस निंदा के बारे में भी एक राय नहीं थी, क्योंकि बंबई के बड़े व्यापारी ब्रिटिश पूँजी के प्रति कुछ ज्यादा ही समझौते का रवैया अपनाने लगे और गैर-ब्रिटिश मालों के मुकाबले के लिए ब्रिटिश कंपनियों से सहयोग को प्राथमिकता देते थे । श्रम नीति के प्रश्न पर टाटा और मोदी जैसे नेता तो विदेशी पूँजी से भी सहयोग करना पसंद करते थे और उन्होंने 1933 में इंप्लॉयर्स फेडरेशन ऑफ्र इंडिया का गठन किया ।

लेकिन यह प्रयोग बहुत आगे नहीं बढ़ा, क्योंकि भारत में रह रहे अंग्रेज व्यापारी अपने भारतीय समकक्षों से सहयोग करने के प्रति कम उत्साहित थे । इस मोड़ पर भारत के बडे व्यापारियों का राजनीतिक मत साम्राज्य की इच्छा और राष्ट्रवाद के सवाल पर स्पष्ट रूप से बँटा हुआ था और यह बात अक्टूबर 1933 के लीस-मोदी पैक्ट के सवाल पर एक बार फिर स्पष्ट हो गई ।

मोदी के नेतृत्व में बंबई के सूती मिल-मालिक, जो खुरदुरा सूती कपड़ा तैयार करते थे, लंकाशायर को प्राथमिकता दिए जाने की बात स्वीकार करने के लिए तैयार थे, पर अहमदाबाद के मिल-मालिक नहीं थे, क्योंकि अच्छे सूती कपड़ों के बाजार में उनको लंकाशायर के साथ अधिक प्रत्यक्ष प्रतियोगिता करनी पड़ रही थी । फिर भी, उनके विरोध के बावजूद समझौते पर हस्ताक्षर किए गए ।

राष्ट्रवादियों ने और बंबई के बडे घरानों को छोड सभी व्यापारी संगठनों ने इसकी निंदा की । लेकिन व्यापारी समुदाय में दरार और बढ़ने के साथ यह बात और भी स्पष्ट हो गई कि किसी सरकारी नीति को बदलवाने के बारे में व्यापारी समूहों के पास शक्ति कम ही थी ।

यह बात तब स्पष्ट हो गई जब रिजर्व बैंक विधेयक पारित हुआ और व्यापार जगत के प्रतिरोध के बावजूद 1934 में चीनी पर आबकारी लगा दी गई । इसके कारण, कांग्रेस के टकराव के रवैये और उसकी आंदोलनों की राजनीति के बावजूद, उसके साथ संबंध बनाए रखने की विवशता पैदा हुई ।

इसलिए गांधी ने अप्रैल 1934 में जब सविनय अवज्ञा आंदोलन को औपचारिक रूप से स्थगित किया तो भारतीय व्यापार जगत ने इस निर्णय का स्वागत किया; भारतीय राजनीति में संविधानवाद की वापसी उसके लिए राहत का कारण थी ।

सरकार ने वफ़ादारी का समुचित पुरस्कार दिया; टिस्को (टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी) के हित में असेंबली में इस्पात संरक्षण विधेयक (स्टील प्रोटेक्शन बिल) पारित हो गया और बंबई के कपड़ा उद्योग को हिंद-जापान समझौते से लाभ प्राप्त हुआ जिसमें भारत में जापानी मालों की बिक्री के बारे में एक कोटे की व्यवस्था थी ।

लेकिन उन लोगों के लिए बड़ी दुविधा थी, जिन्होंने कांग्रेस का साथ दिया था: वे लोग जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में समाजवाद के उदय को लेकर बौखलाए हुए थे । इन नेताओं ने अक्टूबर 1934 में कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना कर ली थी ।

लेकिन, जैसा कि आदित्य मुखर्जी (1986) का जोरदार तर्क है, इस लाल खतरे ने उनको साम्राज्यिक अधिकारियों की बाँहों में नहीं धकेला । समाजवाद पर अंकुश लगाने के बारे में उनकी रणनीति यह थी कि कांग्रेस के दक्षिणपंथियों को संरक्षण दिया जाए, अर्थात् ”वल्लभभाई, राजाजी और राजेंद्र बाबू” जैसे व्यक्तियों को जो बिड़ला के शब्दों में, ”साम्यवाद और समाजवाद से लड़ रहे” थे, और यह भी कि गांधी के पीछे पूरी शक्ति लगा दी जाए ।

कांग्रेस पर फिर से नियंत्रण प्राप्त करने के लिए गांधीवादी भी पूँजीपतियों का समर्थन और वित्तीय सहायता पाने के लिए बेचैन थे । 1934 के चुनाव में बड़े घरानों का पैसा कांग्रेस की जीत का एक अहम कारण    था । इस मोड़ पर पूंजीपतियों का प्रमुख स्वार्थ यह था कि कांग्रेस को संवैधानिक राजनीति के दायरे में रखा जाए और उसके समाजवादी पंख कतर दिए जाएँ ।

इसके लिए वे कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में दखल देने तक के लिए तैयार थे । 1936 के ”बंबई घोषणापत्र” ने जिस पर बंबई के इक्कीस पूँजीपतियों ने हस्ताक्षर किए थे, नेहरू के समाजवादी आदर्शो के प्रचार की खुली भर्त्सना की; इस प्रचार को निजी संपत्ति के लिए तथा देश की शांति और समृद्धि के लिए घातक करार दिया गया था ।

हालांकि उसे व्यापार जगत के किसी और भाग का समर्थन नहीं मिला, पर उसने कांग्रेस के अंदर भूलाभाई देसाई और गोविंद वल्लभ पंत जैसे नरमपंथियों को अवश्य मजबूत किया जिन्होंने नेहरू पर दबाव डाला कि वे अपने समाजवादी उद्‌गारों को थोड़ा नरम बनाएँ । 1937 के चुनावों में भाग लेने और उसके बाद पद स्वीकार करने के कांग्रेस के निर्णय ने पूँजीपतियों को उसके और करीब खींचा ।

बराबर बिगड़ती आर्थिक दशाओं के संदर्भ में अब मोदी जैसे शंकालु भी राष्ट्रवादियों के और पास आए । लेकिन व्यापारिक पूँजी एक बार फिर भले ही 1937 के चुनावों में कांग्रेस की शानदार जीत का एक अहम कारण रही, पार्टी पूँजीपतियों के वर्चस्व से अभी भी बहुत दूर थी ।

वास्तव में कांग्रेस ने आठ प्रांतों में मंत्रिमंडल बनाए, तो श्रम (मजदूर) और पूंजी (व्यापारी) दोनों ने खुशियाँ मनाईं और आशाएँ जगीं, और पार्टी को इन दो परस्परविरोधी हितों के बीच बराबर संतुलन बनाकर रखना पड़ा ।

कांग्रेसी शासन वाले प्रांतों में उसके कार्यकाल के पहले दो वर्षों में ट्रेड यूनियन गतिविधियों और श्रमिक असंतोष में अभूतपूर्व वृद्धि हुई खासकर मद्रास और संयुक्त प्रति में और कांग्रेस मंत्रिमंडलों को श्रमिक कल्याण कार्यक्रम लागू करने के लिए अनेक प्रस्ताव पारित करने पड़े जिनका उसने चुनाव के दौरान वादा किया था ।

इससे पूँजीपति निश्चित रूप से भड़के, लेकिन प्रांतीय सरकारों की रूढ़िवादी आर्थिक और वित्तीय नीतियों ने उसमें और बढ़ोतरी की । वित्तीय कठिनाइयों से ग्रस्त इन सरकारों के पास संपत्ति कर या विक्रय कर जैसे कर बढ़ाने के अलावा कुछ खास रास्ता भी नहीं था, और व्यापारिक घराने इनको पसंद नहीं करते थे ।

वे अब एक साथ हो गए और कांग्रेस हाईकमान इससे चिंतित हो उठा । इस कारण 1938 के वसंत तक कांग्रेस की नीतियों में एक उल्लेखनीय परिवर्तन आया, जब उसने पूँजीवादी हितों को तुष्ट करने के प्रयास

किए ।

इस परिवर्तन की सबसे प्रामाणिक अभिव्यक्ति उसकी श्रम नीति में देखी गई जिसके कारण नवंबर 1938 में बंबई का कुख्यात व्यापारिक विवाद कानून (बॉम्बे ट्रेड्स डिस्प्यूट्स ऐक्ट) पारित हुआ । उसका उंद्देश्य हड़ताल और तालाबंदी दोनों पर रोक लगाना था पर पूँजीपतियों की ओर उसका भारी झुकाव था ।

यह नई श्रमविरोधी मानसिकता दूसरे प्रांतों में भी देखी गई जहाँ 1939 के बाद औद्योगिक विवादों में क्रमिक रूप से कमी आने लगी । कांग्रेस की विचारधारा और औद्योगिक संबंधों के बारे में उसकी नीति ने पूँजीपतियों का डर दूर कर दिया और दोनों के बीच तालमेल पैदा किया ।

लेकिन व्यापार जगत के रवैयों के बारे में एक सामान्य निष्कर्ष निकालना यहाँ भी कठिन है क्योंकि संयुक्त प्रांत और मद्रास के कुछ उद्योगपति अभी भी कांग्रेस के प्रति शंकाग्रस्त थे जबकि मुस्लिम उद्योगपति कुल मिलाकर उससे विमुख ही रहे । इस पूरे काल में और उसके बाद भारतीय पूँजीपतियों ने कांग्रेस के साथ एक रणनीतिक संबंध बनाकर रखा ।

उनमें से अधिकांश राष्ट्रवाद के विरोधी नहीं थे, पर संविधानवाद को पसंद करते थे तथा विद्रोहों और क्रांतियों से डरते थे । भारत छोड़ो आंदोलन के आरंभ से ठीक चार दिन पहले बंबई के कुछ अग्रणी उद्योगपतियों जैसे ठाकुरदास, जे. आर. डी. टाटा और बिड़ला ने वायसरॉय को पत्र लिखा कि ”युद्ध के बीच में भी सही देश … को राजनीतिक स्वतंत्रता का दान” ही भारतीय संकट का त्वरित समाधान था ।

लेकिन इसी माँग के साथ भारत छोड़ो आंदोलन जब सचमुच आरंभ हुआ तो उसे समर्थन देने में वे काफ़ी झिइाकते रहे और उन्होंने वायसरॉय को उसका विरोध करने का आश्वासन दिया । मगर तूफान के गुजरने के बाद वे फिर कांग्रेस की ओर झुक गए और फिर जब सत्ता के हस्तांतरण की बातचीत शुरू हुई तो सहयोग के लिए और भी तत्पर दिखाई देने लगे ।

भारत छोड़ो आंदोलन की हार के बाद कांग्रेस एक रूढ़िवादी नेतृत्व के अधीन आ गई, जो पूँजीपतियों से सहयोग करना और पूरी तरह संविधानवाद के दायरे में ही रहना चाहता था । इससे भी अहम बात यह है कि जवाहरलाल नेहरू की समाजवादी सोच ने आर्थिक नियोजन की जिस प्रक्रिया का आरंभ किया था उद्योग जगत कै कुछ नेताओं ने उसमें सक्रिय रूप से भाग लिया ।

सुभाषचंद्र बोस की अध्यक्षता वाली कांग्रेस ने 1938 में जब अपनी पहली राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया तो उसमें पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास, ए. डी. श्रॉफ, अंबालाल साराभाई और बालचंद, हीराचंद जैसे प्रमुख उद्योगपति भी शामिल थे ।

रोचक बात यह है कि इनमें से दो ने-ठाकुरदास और हीराचंद ने-1936 के उस ‘बंबई घोषणापत्र’ पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें नेहरू के समाजवादी आदर्शो की गंभीर भर्त्सना की गई थी । पर बदले हुए हालात में नियोजन के विचार के प्रति भारतीय व्यापार जगत की प्रतिबद्धता तब फिर देखी गई, जब 1944 में उन्होंने स्वतंत्र रूप से वह दस्तावेज तैयार किया जिसे ‘बंबई योजना’ कहते हैं ।

इसके आठ हस्ताक्षरकर्त्ता ”भारत के व्यापार जगत के एक व्यापक भाग” का प्रतिनिधित्व करते थे, और इस योजना ने भावी कांग्रेस सरकारों की पंचवर्षीय योजनाओं और औद्योगिक नीतियों का सही अर्थो में पूर्वानुमान कराया ।

इस तरह इस पूरे समीक्षाधीन काल में भारतीय पूंजीपतियों और कांग्रेस का आपसी संबंध रणनीतिक, मुद्दों पर आधारित, बल्कि व्यवहारमुखी भी रहा । राष्ट्रवाद से पूँजीपतियों की प्रतिबद्धता निश्चित ही व्यापारिक हितों से ऊपर न थी और कांग्रेस को समर्थन तो पूरी तरह सशर्त था ।

पर वे लोग न तो अंग्रेजों के वफादार थे, न देशद्रोही, और शंकाओं के बावजूद वे कांग्रेस के कार्यक्रम के अनेक पक्षों से सहमत थे । इस जटिल, निरंतर विकासमान और बहुमुखी संबंध में किसी सुसंगत विचारधारा की पहचान करना कठिन है ।

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