ब्रिटिश शासन के दौरान सरकारी प्रणाली, न्यायिक प्रणाली और पुलिस | Government System, Judicial System and Police During British Rule!
जब साम्राज्य का आकार बढ़ा और उसके संसाधनों का नियंत्रण आवश्यक हो गया, तौ एक समर्थ और प्रामाणिक प्रशासन व्यवस्था की आवश्यकता भी बढ़ी । आरंभ में भारतीय परंपराओं का आदर किया गया और यूरोपीय आदर्शो को लादने का कोई प्रयास नहीं किया गया ।

लेकिन एक ”बुद्धिवादी” एशिया की यह अठारहवीं सदी के मध्य वाली धारणा शीघ्र ही तिरोहित होने लगी, क्योंकि विजेता प्रभुसत्ता जताने और राजस्व का एक सुस्थिर प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए नियंत्रण लागू करने की आवश्यकता महसूस करने लगे ।

इंजीलवादी हमलों और सुधार के उपयोगितावादी उत्साह के सामने सांस्कृतिक विशिष्टता का विचार धीरे-धीरे महत्त्वहीन समझा जाने लगा । सुधार के विचार के कारण और अंग्रेजों द्वारा संचालित एक सिविल सत्ता के अंतर्गत न्याय और एकरूपता के ब्रिटिश सिद्धांतों को लागू किया जाने लगा ।

आशा थी कि अच्छे कानूनों और अच्छे प्रशासन के कारण वैयक्तिक पहल निरंकुशता, बुद्धिहीन रीति-रिवाजों और परंपराओं से मुक्त हो सकेगी । इससे पूँजी और श्रम को खुलकर काम करने का पूरा-पूरा अवसर मिलेगा और व्यक्ति के अधिकारों और स्वामित्व को महत्त्व प्राप्त होगा ।

भारत के लिए उपयोगितावादी ‘कानून के शासन’ का समर्थन करते थे जबकि सभी विजित क्षेत्रों में प्रशासन की एकसमान व्यवस्था ब्रिटेन वेन हितों से भी मेल खाती थी । 1813 तक कंपनी अधिकतर एक परंपरागत भारतीय शासक की तरह काम करती रही और प्रवर्तन (innovation) या हस्तक्षेप करने से बचती रही हालांकि फिर भी वह खेती से अधिशेष की वसूली पर नज़रें जमाए रहती थी ।

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लेकिन उपरोक्त बौद्धिक आंदोलनों के वैचारिक दबाव के अंतर्गत यह स्थिति धीरे-धीरे बदलने लगी और इसलिए भी कि ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति के कारण भारत भर के बाज़ारों का एकीकरण और खेतिहर कच्चे मालों के स्रोत के रूप में उसका विकास आवश्यक हो गए ।

इन सबके लिए प्रभुसत्ता के दोटूक दावे की, भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज में पहले से बहुत अधिक घुसपैठ तथा ब्रिटेन ही नहीं, दूसरे देशों के साथ भी, भारत के व्यापार पर नियंत्रण की आवश्यकता पड़ी ।

न्यायिक व्यवस्था | Judicial System during British Rule

1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी को दीवानी मिलने पर उसे बंगाल बिहार और उड़ीसा की मालगुज़ारी वसूल करने का अधिकार मिल गया पर नवाबी प्रशासन और मुगल व्यवस्था अपनी जगह बने रहे । लेकिन इस दोहरे प्रशासन के व्यावहारिक निहितार्थ बहुत ही साध परण थे क्योंकि कुछ समय तक मुगलों की प्रभुसत्ता को स्वीकार करने का दिखावा करते हुए भी कंपनी खुलकर और व्यवस्थित ढंग से नवाब की सत्ता को कमजोर करती रही ।

सूबे का न्यायिक प्रशासन आरंभ में, 1765 और 1772 के बीच, भारतीय अधिकारियों के हाथों में रहा और दीवानी व फ़ौजदारी न्याय दोनों में मुगल व्यवस्था अपनाई जाती रही । क्लाइव ने मुहम्मद रजा खाँ को कंपनी के दीवानी प्रशासन का प्रतिनिधि नियुक्त किया; नायब नाज़िम के रूप में वह नवाब का फ़ौजदारी प्रशासन भी चलाता रहा । लेकिन इस देसी व्यवस्था को स्वीकार करना काफी हद तक उसके बारे में उपनिवेशकों की समझ और व्याख्या पर आधारित था ।

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मुगल व्यवस्था का कभी कोई केंद्रीय संगठन नहीं रहा और वह एक सीमा तक स्थानीय फ़ौजदारों और उनके कार्यकारी विवेक पर निर्भर होती थी । वैधता पाने के लिए शरीअत (इस्लामी विधान) का उल्लेख किया जाता था पर मामलों की गंभीरता तथा मुफ्तियों और काज़ियों की व्याख्या के अनुसार उसके व्यवहार में भारी अंतर देखे जाते थे ।

विद्रोह के मामलों को छोड़ दें, तो इस व्यवस्था में टकराव के आपसी समाधान पर ध्यान अधिक रहता था और दंड कभी दिया भी जाता था तो अकसर वह मुलज़िम (अभियुक्त) की स्थिति पर निर्भर होता था । कंपनी के अनेक अधिकारी इस व्यवस्था को असाधारण नरमी पर आधारित समझते थे और उसे अठारहवीं सदी के पतन का परिणाम समझते थे जब ज़मींदारों और मालगुज़ारों ने कथित रूप से न्यायिक सत्ता पर नियंत्रण कर लिया था ।

इन लोगों को न्याय-भावना से अधिक अर्थलाभ की भावना से प्रेरित समझा गया और इसके कारण उस न्याय व्यवस्था की ”लोलुपता” की शिकायतें की जाने लगीं । इसलिए 1769 तक यह कहा जाने लगा कि ज़मीदारो और मालगुज़ारों के चंगुल से मुक्त कराने के बाद ”न्यायिक सत्ता का केंद्रीकरण” सुनिश्चित करने के लिए और इस तरह कपनी की प्रभुसत्ता का दावा करने के लिए एक तरह की प्रत्यक्ष और खुली यूरोपीय निगरानी की आवश्यकता थी ।

इसलिए वॉरेन हेस्टिंग्ज़ ने 1772 में जब गवर्नर का पद सँभाला, तो न्याय व्यवस्था पर पूरा नियंत्रण करने का निर्णय किया और उसे ऐसा क्यों करना चाहिए इस बारे में उसे कोई शंका थी भी नहीं उसने तर्क दिया कि ऐसे एक कदम से ”इस देश की जनता कंपनी की प्रभुसत्ता की अभ्यस्त होगी ।”

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1772 में रज़ा खाँ को गिरफ्तार करने और किसी मुकदमे के बिना उसे दो साल कैद रखने का एक प्रमुख उद्देश्य न्यायप्रशासन से भारतीय कार्मिकों को वाहर निकालने की परियोजना में एक अत्यत भारी अड़चन को दूर करना था ।

रज़ा खाँ मुगलो की प्रभुसत्ता पर और इस्लामी कानूनो की सर्वोच्चता पर सदैव जौर दता रहता था उसकी रिहाई के बाद भी कंपनी के डायरेक्टरों सै हेस्टिंग्ज़ ने यही कहा की कि उसे उसके पिछले पद पर बहाल न किया जाए ।

1772 की नई व्यवस्था में हर ज़िले में दीवानी और फ़ौजदारी दो अदालते बनाई गई । इस तरह मुगल नामकरण को बचाकर रखा गया । फ़ौजदारी प्रशासन मे मुस्लिम कानूनो को तथा उत्तराधिकार विवाह आदि निजी विषयों में मुस्लिम या हिंदू कानूनो को लागू किया जाता रहा ।

कानून के विषयों का यह विभाजन स्पष्ट है कि अंग्रेज व्यवस्था के अनुरूप था, जिसमे शादी, तलाक, संपत्ति, धार्मिक उपासना या बहिष्करण जैसे विषय बिशपों की अदालतों के लिए छोड़ दिए गए थे, जहाँ इंजील का कानून (ecclesiastical law) लागू होता था ।

भारत में दीवानी अदालतों के प्रमुख यूरोपीय ज़िला कलेक्टर थे और उनकी सहायता मौलवी और पंडित करते थे, जो उनको समझाने के लिए देसी कानूनी की व्याख्या किया करते थे । कलकत्ता में एक अपील अदालत बनाई गई और वह भी काउंसिल के प्रेसिडेंट और दो सदस्यों के अंतर्गत थी ।

फ़ौजदारी अदालतों को एक काज़ी और एक मुफ्ती के अधीन रखा गया, पर उन पर भी यूरोपीय कलेक्टरों की निगरानी रहती थी । अपील की अदालत अर्थात् सदर निजामत अदालत को मुर्शिदाबाद से हटाकर कलकत्ता लाया गया; रजा खाँ को पहले ही बर्खास्त किया जा चुका था और अब इस अदालत को काउंसिल के प्रेसिडेंट और सदस्यो के नियंत्रण में दे दिया गया ।

लेकिन नवाब की प्रभुसत्ता का कानूनी दिखावा अभी भी जारी रहा, क्योंकि उनके सभी आदेश अंतिम स्वीकृति के लिए नवाब के पास ही भेजे जाते थै । वास्तव में 1774 तक हेस्टिंग्ज़ स्वयं फ़ौजदारी न्याय व्यवस्था पर निगरानी रख रहा था जब उसने आखिरकार कानून-व्यवस्था के सुधार में अपनी असफलता स्वीकार कर ली और हिचक के साथ कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के ड्‌स फैसले को स्वीकार किया कि रजा खाँ को फिर से निज़ामत अदालत का प्रमुख नियुक्त किया जाए । अब यह अदालत भी वापस मुर्शिदाबाद पहुँच गई ।”

दीवानी न्याय व्यवस्था में 1773 और 1781 के बीच और भी परिवर्तन अंशत: मालगुज़ारी की वसूली की माँगों के कारण और अंशत: न्याय प्रशासन से कार्यपालिका को अलग करने के व्हिग सिद्धांतों के प्रभाव के कारण आए । हेस्टिंग्ज़ और कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सर एलिज़ा इंपी द्वारा तैयार योजनाओं के अनुसार ज़िला कलेक्टरों को न्यायिक कार्यो से मुक्त कर दिया गया ।

दीवानी न्याय के क्षेत्र में ज़िला अदालतों की जगह छह प्रांतीय अदालतें बनाई गई जिनकी जगह बाद में अठारह मुफ़स्सिल अदालतें बनाई गई; इनको कंपनी के कमीशनयाफ़्ता यूरोपीय अधिकारियों के अंतर्गत रखा गया जिन्हें इस काम के लिए ‘जज’ का नाम दिया गया ।

1773 के रेगुलेटिंग द्वारा बनाया गया सर्वोच्च न्यायालय कुछ समय तक अपील की अदालत का काम करता रहा लेकिन कार्यक्षेत्र के निर्धारण के सवाल पर सर्वोच्च न्यायालय के साथ उसके टकराव के कारण उसका कार्यक्षेत्र सिमटकर कलकत्ता नगर तक और फोर्ट विलियम पर निर्भर फ़ैक्टरियों से संबंधित विषयों तक सीमित हो गया ।

उसकी जगह अब अपील की अदालत का कार्य करने के लिए सदर दीवानी अदालत का पुनर्गठन किया गया और 1780 में सर एलिज़ा ने स्वयं उसकी निगरानी सँभाल ली । इस यूरोपीकरण के साथ जो उस काल के न्यायिक सुधारों की सबसे प्रमुख और गोचर विशेषता था । 1781 की संहिता ने सबसे नीचे के स्तर तक की सभी दीवानी अदालतों के लिए विशिष्ट नियम-कानून बनाए और सभी न्यायिक आदेश उसके बाद लिखित रूप से दिए जाने लगे ।

इस व्यवस्था में निश्चितता और एकरूपता लाने में बाधक सबसे बड़ी समस्या देसी कानूनों की भिन्न-भिन्न और परस्परविरोधी व्याख्याओं की थी । उदाहरण के लिए, ब्राह्मण पंडित धर्मशास्त्र के विभिन्न संप्रदायों की अलग-अलग व्याख्याएँ करते थे और कभी-कभी एक ही कानून पर उनकी राय अलग-अलग मामलों में काफी अलग-अलग होती थीं ।

अनिश्चय के इस तत्त्व को कम करने के लिए हेस्टिंग्ज़ के आग्रह पर ग्यारह पंडितों की एक समिति ने 1775 में एक हिंदू विधि संहिता तैयार की तथा ऐसे टीकाकारों पर यूरोपीय जजों की निर्भरता कम करने के लिए एन. बी. हॉलहेड ने 1776 में उस संहिता का अंग्रेजी में अनुवाद किया ।

1778 में मुस्लिम कानूनों की भी एक संहिता तैयार की गई । कानूनों के इस मानकीकरण के साथ कानून की वकालत के लिए अब पेशेवर विशेषज्ञता आवश्यक हो गई जिसकी आश्त्र विशेष प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्तियों अर्थात् वकीलो’ से ही की जा सकती थी ।

इस तरह प्रभाव की दृष्टि से हेस्टिंग्ज़-काल के सुधारों की प्रवृत्ति ”न्यायिक सत्ता के केंद्रीकरण और प्रशासन को एक व्यवस्था बनाने की ओर” थी । 1787 में यह व्यवस्था एक हद तक उलट गई जब कलेक्टर को एक बार फिर दीवानी न्याय के प्रशासन का काम सौंपा गया ।

दीवानी न्याय के प्रशासन से मालगुज़ारी की वसूली को अलग करने का नियम अंतत: लॉर्ड कॉर्नवॉलिस और उसकी 1793 की संहिता ने सामने रखा; यह मालगुज़ारी के अधिकारियों और उनके कारिंदों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग से संपत्ति के अधिकारों की सुरक्षा का एक उपाय था ।

इस नई व्यवस्था में ज़िला और शहर अदालतों से लेकर चार प्रांतीय अदालतों और अपील की सुनवाई के अधिकार वाली सदर दीवानी अदालत तक अदालतों के एक सोपानक्रम की व्यवस्था थी । सभी अदालतों के प्रमुख यूरोपीय जज होते थे, पर ‘देशी (नेटिव) कमिश्नरों’ की नियुक्ति का प्रावधान था ।

फ़ौजदारी न्याय व्यवस्था में भी आमूल चूल परिवर्तन किया गया, क्योंकि ज़िला मजिस्ट्रेटो ने कॉर्नवॉलिस से इस्लामी कानूनों की विसंगतियों की और फ़ौजदारी अदालतों में भ्रष्ट तौर-तरीकों के बारे में शिकायत की थी ।

लेकिन इससे भी अहम बात यह अनुभूति थी कि प्रशासन की इतनी महत्त्वपूर्ण शाखा को किसी भारतीय के हाथों नहीं छोड़ा जा सकता था । इसलिए फ़ौजदारी अदालतों कों जो तब तक नायब नाज़िम रज़ा खाँ के अधीन थीं, समाप्त करके यूरोपीय जजों के अंतर्गत सर्किट अदालतों से विस्थापित कर दिया गया ।

स्वयं नायब नाज़िम का पद समाप्त कर दिया गया और सदर निज़ामत अदालत को वापस कलकत्ता लाकर सीधे गवर्नर-जनरल-इन-काउंसिल की निगरानी में दे दिया गया । फ़ौजदारी अदालतों को ब्रिटेन में जन्मे व्यक्तियों पर कोई अधिकार प्राप्त नहीं था और वे कलकत्ता स्थित सर्वोच्च न्यायालय के कार्यक्षेत्र में रहे ।

इस तरह कॉर्नवॉलिस का सारा न्यायिक सुधार बस एक भाषा बोलता था- भारतीयों का पूरी व्यवस्था से पूरा अलगाव, जिसकी कठोरता और जातीय श्रेष्ठता के दावे की अस्पष्टता और भी कम हो गई । कॉर्नवॉलिस के नियम-कानून 1795 में बनारस प्रांत में तथा क्रमश: 1803 और 1805 में समर्पित (ceded) और विजित प्रांतों में लागू किए गए । लेकिन बंगाल की व्यवस्था जो जमींदारी के साथ स्थायी बंदोबस्त की मान्यताओं पर आधारित थी, मद्रास में गंभीर रूप से लड़खड़ा गई, जहाँ उसे लॉर्ड वेलेज़ली की इच्छानुसार लागू किया गया था ।

1806 तक यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि एक रैयतवारी क्षेत्र में, जहाँ कलेक्टर को बंदोबस्त अधिकारी का काम करना और मालगुज़ारी का निश्चय करना पड़ता था, और जहाँ बंगाल के ज़मींदारों जैसा कोई शक्तिशाली वर्ग नहीं था, मालगुज़ारी की वसूली नथा मजिस्ट्रेटी और न्यायिक शक्तियों के पृथक्करण में गंभीर समस्याएँ आएँगी ।

इसलिए टॉमस मुनरो के आग्रह पर कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स ने मद्रास के लिए 1814 में एक अलग व्यवस्था का प्रस्ताव रखा, जिसमें निचले (ग्राम पंचायत, ज़िला और शहरी अदालतों के) स्तरों पर व्यवस्था के और अधिक भारतीयकरण का तथा कलेक्टर के पद में मजिस्ट्रेट की शक्तियों की मालगुज़ारी की वसूली की और कुछ न्यायिक शक्तियों को एकजुट करने का प्रावधान था ।

मद्रास में 1816 में पूरी तरह लागू की गई इस व्यवस्था को आगे चलकर, 1819 में एलफ़िन्स्टन ने बंबई में लागू किया । न्याय-प्रशासन के क्षेत्र में कुछ मुद्दे फिर भी अनसुलझे रहे । भारतीयकरण के सवाल के अलावा कानूनों को संहिताबद्ध करने का भी सवाल था, जिससे पूरे ब्रिटिश भारत में न्याय प्रशासन और असैनिक (सिविल) सत्ता में एकरूपता आए ।

ये मुद्दे गवर्नर-जनरल के रूप में लॉर्ड बेंटिंक के काल तक और 1833 के चार्टर ऐक्ट तक उठाए नहीं गए । सबसे पहले इसी कानून ने भारतीयों के लिए न्यायिक पद खोले और कानूनों को संहिताबद्ध करने के लिए एक विधि आयोग के गठन का प्रावधान किया ।

लॉर्ड मैकॉले की अध्यक्षता में गठित इस विधि आयोग ने कानूनों को संहिताबद्ध करने का काम 1837 तक पूरा कर लिया लेकिन 1857 के विद्रोह के बाद ही उसे पूरी तरह लागू किया जा सका । 1859 में नागरिक कानून संहिता (कोड ऑफ़ सिविल प्रोसीजियर को, 1860 में भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) को और 1862 में आपराधिक संहिता (क्रिमिनल प्रोसीजियर कोड) को लागू किया गया ।

जैसा कि राधिका सिंह का तर्क है, इन नई संहिताओं ने ”अविभाज्य प्रभुसत्ता की एक धारणा और एकसमान अमूर्त और सार्वभौम विधिक प्रजा पर दावों” के आधार पर ”न्यायविधान के सार्वभौम सिंद्धांतों” की स्थापना के प्रयास किए ।

लेकिन यह बात यहाँ कहने की आवश्यकता है कि यह संस्थाबद्ध न्याय व्यवस्था केवल ब्रिटिश भारत पर लागू होनी थी । जो बड़े-बड़े क्षेत्र रजवाड़ों के अंतर्गत रहे और जिनके आकार और जिनकी सक्षमता में भारी अंतर था, उनमें न्याय का प्रशासन ब्रिटिश भारत के कानूनों और राजाओं के निजी आदेशों के एक अस्पष्ट मिश्रण के सहारे चलाया जाता रहा; ये राजे-महाराजे अपील के सर्वोच्च न्यायालय का काम भी करते रहे ।

लेकिन उन पर भी उनके दरबारों में तैनात ब्रिटिश रेज़िडेंटों और राजनीतिक एजेंटों की निगरानी बराबर बनी रही (और भी विस्तार के लिए रेज़िडेंटों और सर्वोच्चता वाला अनुभाग देखें) । अब ब्रिटिश भारत में न्याय प्रशासन जो वह मुगलों के काल में था उससे महत्त्वपूर्ण सीमा तक भिन्न दिखाई देने लगा, और आम भारतीयों को इन परिवर्तनों को समझना कठिन लगता था । पहले उनके लिए अनेक प्रकार की न्यायिक कार्यपद्धतियाँ मौजूद थीं पर अब वे सब एक समरूप व्यवस्था के अंतर्गत आ गए ।

‘व्यक्तिगत’ विषयों में पहले उनपर हिंदू और मुस्लिम कानून लागू किए जाते रहे तो अब न्यायिक व्याख्याओं के कारण अक्सर ये कानून भारतीयों को बहुत भिन्न और अबूझ लगते थे । न्याय अब पहुँच से बहुत दूर हो गया-ज़िला अदालतों से दूरी के कारण भौगोलिक स्तर पर ही नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी क्योंकि भारतीय जनता उन जटिल न्यायिक तौर-तरीकों को समझ नहीं पा रही थी जिन पर वकीलों के एक नए वर्ग का अधिकार था । इसके फलस्वरूप न्याय महँगा भी हो गया ।

फिर जब अदालतों में मुकदमे भारी संख्या में जमा होने लगे तो, अधिकांश जनता को न्याय असाधारण कभी-कभी तो पचास वर्ष की देरी से मिलने लगा । पर कुछ तत्त्व ”निरंतरता” के भी थे, खासकर ब्रिटिश राज की पहली सदी में । अधिकांश मामलों में हिंदू विधानों को पंडितों ने इस तरह व्याख्यायित किया कि उससे भारतीय समाज के केवल रूढ़िवादी और सामंती तत्त्वों को लाभ पहुँचा ।

व्यक्ति को उसके सामाजिक स्थिति की बेड़ियों से मुक्त कराने के विचार को कानन के केवल सार्वजनिक पक्ष ने मान्यता दी । लेकिन समस्याएँ यहाँ भी रहीं, क्योंकि उपनिवेशी व्यवस्था में सांस्कृतिक विशिष्टता मूल जनता की सभ्यता की हीनता संबंधी तर्को के आधार पर न्यायिक विवेक की अच्छी-खासी संभावना रखी गई ।

कानून के सामने समानता के विचार को यूरोपवालों पर अकसर लागू नहीं किया जाता था । दीवानी न्याय की व्यवस्था में अगर समानता की दिशा में अधिक प्रगति हुई तो भी फ़ौजदारी अदालतों में शासकों के जातीय विशेषाधिकार विभिन्न रूपों में बने रहे । साथ ही, कार्यकलाप के ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र थे, जैसे पुलिस और सेना जो ‘कानून के शासन’ की इस उपनिवेशी परिभाषा से अछूते रहे ।

पुलिस | Police during British Empire

ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1765 में जब दीवानी संभाली, तब मुगलों की पुलिस व्यवस्था फ़ौजदारों के नियंत्रण थी, जो सरकारों (जनपदों) के अधिकारी होते थे; नगरों के अधिकारी कोतवाल होते थे, जबकि ज़मींदार गाँवों के चौकीदारों को तनख्वाह देत और उनपर नियंत्रण रखते थे ।

मुर्शिदाबाद को मुख्यालय बनाकर नायब नाज़िम मुहम्मद रज़ा खाँ के अंतर्गत यह व्यवस्था कुछ समय तक जारी रही । मगर पुरानी व्यवस्था अब कारगर ढंग से शायद ही काम कर सकती थी क्योंकि कंपनी की बढ़ती ताकत ने नवाब की सत्ता को बुरी तरह कमज़ोर कर दिया था ।

1770 के अकाल के बाद अपराध की दर बढ़ने लगी तथा संपत्ति विरोधी अपराधों की दर में चिंताजनक वृद्धि के साथ ‘कानून और व्यवस्था’ की सामान्य स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती गई । कंपनी के अधिकारियों को दूसरे विभागों की तरह पुलिस प्रशासन पर भी यूरोपवालों की निगरानी आवश्यक लगती थी, क्योंकि हर अपराध उनकी सत्ता के लिए सीधे एक चुनौती होता था । थोड़े से फेरबदल के साथ फ़ौजदारी व्यवस्था 1781 तक जारी रही जब फ़ौजदारों की जगह अंतत अंग्रेज मजिस्टेरटों को बिठा दिया गया ।

ज़मींदारों ने अपने पुलिस के काम जारी रखे मगर उन्हें मजिस्ट्रेटो के अधीन कर दिया । वॉरेन हेस्टिंग्ज़ का यह सुधार समस्या को हल न कर सका क्योंकि मजिस्टेरटों के प्रतिष्ठान इस काम के लिए एकदम अपर्याप्त साबित हुए, जबकि ज़मींदारों ने व्यवस्था का दुरुपयोग किया और खुलकर उसकी कमज़ोरी का लाभ उठाया ।

इसी कारण लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने 1793 में ज़मींदारों को पुलिस के कामों से वंचित करने का निर्णय किया । और इसकी जगह उसने ज़िलों को थानों अर्थात् बीस से तीस वर्गमील की इकाइयों में बाँटा, हर थाने को दारोगा नामक एक नए अधिकारी के अंतर्गत रखा और दारोगाओं की नियुक्ति एवं निगरानी का काम मजिस्टेरटों के हाथों में दिया ।

इस तरह दारोगा दीवानी वाले प्रांतों में कंपनी सरकार के नियंत्रण का नया साधन बन गया या किसानों की नजरों में ”कंपनी बहादुर की शानो-शौकत” का स्थानीय प्रतिनिधि बन गया ।”  देहात में एक नया और विजातीय तत्त्व होने के नाते दारोगा स्थानीय शक्तिवाले भूस्वामियों को शायद ही अनदेखा कर सकते थे जिनकी कानून से इतर बलप्रयोग की शक्ति बहुत हद तक कायम रही और दारोगाओं ने अधिकांश मामलों में इन भूस्वामियों से गठजोड़ स्थापित कर लिए ।

इस तरह उन्नीसवीं सदी तक दारोगाओं और ज़मींदारों का गठजोड़ बंगाल के ग्रामीण जीवन में बलप्रयोग और दमन का एक नया अस्त्र बनकर सामने आया । लेकिन दूसरी ओर जब गाँवों में शक्ति के साधनसपन्न दावेदार अर्थात् ज़मींदार और बगान के मालिक इलाकों के लिए भयानक लड़ाइयाँ लड़ने लगे, और इन दोनों के ही पास लठैतों के गिरोह थे, तब साधनों से वंचित दारोगा निरुपाय दर्शक बन कर रह गए ।

इसलिए जब 1795 में रेगुलेशन को बनारस में लागू किया गया तो बनारस के रेज़िडेंट जोनाथन डंकन ने उसमें कुछ और फेरबदल किया जिसमें तहसीलदारों को जिनको पुलिस के कामों का प्रभारी बना दिया गया था, मजिस्ट्रेटों के और अधिक अधीन बना दिया गया और ज़मींदारों पर भी अपनी जागीरों में अपराध रोकने की और भी अधिक ज़िम्मेदारी डाल दी गई ।

दारोगा व्यवस्था को 1802 में मद्रास में लागू किया गया तथा तहसीलदार व्यवस्था को क्रमश: 1803 और 1804 में समर्पित और विजित उत्तरी प्रांतों में लागू किया गया । लेकिन हर जगह इस व्यवस्था से विनाशकारी परिणाम सामने आए क्योंकि जैसा कि टॉमस मुनरो का निदान था यह ”देश के रीति-रिवाजों पर आधारित नहीं” था ।

जब भी व्यवस्था असफल रही तथा कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी, उपनिवेशी अधिकारी कारणों की खोज में लग जाते थे और बलि का बकरा आसानी से निचले दर्जे के किसी देशी अधिकारी को बनाया जाता था, जो नैतिकता और ईमानदारी के तथाकथित अभाव के कारण बदनाम थे ।

इसलिए कॉर्नवॉलिस की व्यवस्था कुछ ही वर्षो में समाप्त कर दी गई । तहसीलदारों से पुलिस के काम 1807 में ले लिए गए, 1812 में दरोगा व्यवस्था का औपचारिक उन्मूलन कर दिया गया और ग्रामीण पुलिस की निगरानी कलेक्टर को सौंप दी गई जो अब एक ही साथ राजस्व पुलिस और मजिस्ट्रेट के कार्यो के लिए उत्तरदायी था ।

शक्ति के इस अत्यधिक संकेंद्रण ने कुछ और समस्याएँ खड़ी कीं । राजस्व विभाग के निचले अधिकारी जिन पर अब मालगुज़ारी की वसूली की तथा ग्रामीण पुलिस की निगरानी की जिम्मेदारी भी थी दमन और बलप्रयोग के नए साधन बन गए । यह बात 1854 में गठित मद्रास यातना आयोग की रिपोर्ट से सामने आई ।

दूसरी और बंगाल में जहाँ स्थायी बंदोबस्त के कारण कलेक्टरेट कार्यालयों में अधीनस्थ कर्मचारियों का कोई प्रतिष्ठान नहीं था दारोगाओं को यथावत रखा गया और पुलिस के काम करने का अधिकार दे दिया गया, हालांकि 1817 के बाद उनको एक और भी अधिक नियंत्रण की व्यवस्था में लाया गया जिसपर जिला मजिस्ट्रेटो की कड़ी निगरानी रहती थी ।

लेकिन ऐसे पैबंद समान सुधार संतोषजनक कम ही होते थे और उपनिवेशी राजसत्ता को स्पष्ट तौर पर एक ऐसी उपयुक्त और एकरस पुलिस व्यवस्था की आवश्यकता थी, जो अपनी सत्ता मनवा सके, संपत्ति की सुरक्षा कर सके तथा पूरे साम्राज्य में ‘कानून के शासन’ की उपनिवेशी धारणा का क्रियान्वयन सुनिश्चित कर सके ।

इस नए मॉडल का पहला प्रयोग सिंध में किया गया, जब उसे 1843 में सर चार्ल्स नेपियर ने जीता । देसी व्यवस्थाओं को उपनिवेशी राजसत्ता की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने की कोशिश करने के पिछले ढर्रे के विपरीत उसने यहाँ एक अलग पुलिस विभाग स्थापित किया, जिसके अपने अधिकारी थे ।

यह व्यवस्था रॉयल आयरिश कौंस्टेबुलरी पर आधारित थी जिसे उसने उपनिवेशों की दशाओं के लिए उपयुक्त पाया । यहाँ यह बात बताना आवश्यक है कि जहाँ अंग्रेजों का राजनीतिक जनमत वैचारिक स्तर पर एक पेशेवर पुलिस बल के विचार के विरुद्ध था, वहीं आयरलैंड में बढ़ते कट्टरता (sectarian) और किसान आंदोलनों को देखते हुए एक नियमित पुलिस बल 1787 में स्थापित किया गया, जो उपनिवेशी हस्तक्षेप का साधन था ।

सिंध मे लागू किए गए इस मॉडल में पूरे क्षेत्र को एक ही इंस्पेक्टर जनरल की निगरानी में दे दिया गया जवकि जिलों में अपने-अपने पुलिस अधीक्षक होते थे जो इंस्पेक्टर जनरल तथा असैनिक (सिविल) सत्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले ज़िला कलेक्टर दोनों के प्रति जवाबदेह होते थे ।

जहाँ मामूली पुलिस वाले भारतीय थे, वहीं अधिकारी हमेशा यूरोपीय होते थे । सिंध का मॉडल जो किसी राजनीतिक आंदोलन से निबटने के लिए एकदम उपयुक्त था बाद में पंजाब-विजय के बाद 1849 में लागू किया गया और फिर विभिन्न संशोधनों के साथ बंबई में 1853 में तथा मद्रास में 1859 में लागू किया गया ।

मद्रास की व्यवस्था में एक सैन्य पुलिस और एक शस्त्रहीन असैन्य बल का प्रावधान था और ये दोनों ही जिलों के कलेक्टर-मजिस्ट्रेट की असैन्य सत्ता के अधीन थे । मगर इस बीच 1857 के विद्रोह ने ब्रिटिश राज को हिलाकर रख दिया और उसे सूचनाएँ पाने और साम्राज्य पर नजर रखने के लिए एक कारगर व्यवस्था की आवश्यकता के प्रति सचेत किया ।

1860 में गठित पुलिस आयोग ने भारतीय साम्राज्य के लिए एक पुलिस प्रतिष्ठान का बुनियादी ढाँचा पेश किया और इसे 1861 के पुलिस ऐक्ट में मूर्त रूप दिया गया । उसके बाद केवल मामूली फेरबदल के साथ वही ढाँचा ब्रिटिश राज की अगली सदी में जारी रहा ।

नए संगठन में सैन्य पुलिस को समाप्त कर दिया गया और असैन्य पुलिस बल का गठन प्रांतों के आधार पर किया गया जिसमें इंस्पेक्टर जनरल प्रात की सरकार के प्रति जवाबदेह होता था और ज़िला सुपरिंटेंडेंट कलेक्टर के प्रति ।

इस तरह पुलिस का पूरा संगठन असैन्य अधिकारियों के अंतर्गत कर दिया गया और इंस्पेक्टर जनरल का पद एक लंबे समय तक असैन्य अधिकारियों से भरा जाता रहा । ज़िलों के सुपरिंटेंडेंट ग्रामीण पुलिस के अधिकारी होते थे दारोगा सब-इंस्पेक्टर बन गया और इस तरह ग्रामीण पुलिस को साम्राज्यिक ढाँचे में समन्वित करने की पुरानी समस्या हल हो गई ।

इस तरह पुलिस संगठन में कमान का एक सुस्पष्ट सोपानक्रम तैयार हुआ, जिससे भारतवासियों को व्यवस्थित ढग से बाहर रखा जाता रहा । 1902 के पुलिस आयोग ने पुलिस बल में अफ़सरों के पदों पर शिक्षित भारतवासियों की नियुक्ति का प्रावधान किया लेकिन ”पदक्रम में वे वहीं रोक दिए जाते थे जहाँ से यूरोपीय अधिकारी का जीवनवृत्त आरंभ होता था ।”

इस तरह निचले दर्जे के भारतीय अधिकारियों के प्रति अविश्वास से भरी और असैन्य अधिकारियों के नीचे काम कर रही भारतीय पुलिस व्यवस्था अपनी उपनिवेशी प्रकृति की मुखर साक्षी थी । डेविड आर्नल्ड की राय में यह परंपरागत अर्थ में एक पुलिस राज्य तो नहीं था, पर 1857 के विद्रोह और 1947 में सत्ता के हस्तांतरण के बीच एक ”पुलिस राज” धीरे-धीरे सामने आता गया ।

बार-बार के किसान विद्रोहों और बढ़ते राजनीतिक प्रतिरोध से पुलिस भारत में दमन का सबसे प्रमुख अस्त्र बन गई और उपनिवेशी राज्य ने उसकी बलप्रयोग की शक्ति पर अपना एकाधिकार बनाए रखा । फिर स्थिति यदि कभी नियंत्रण से बाहर हो भी जाती थी, तो नियंत्रण पाने के लिए सेना तो होती ही थी ।

सेना | Military during British Empire

कंपनी की सेना के विकास का उसके भारतीय साम्राज्य के विकास के साथ गहरा संबंध था । अठारहवीं सदी में जब कभी कंपनी परेशानी में होती थी उसे किराये पर सम्राट की सेना और विशेषकर नौसेना अकसर भेजी जाती थी ।

पर इससे समस्याएँ भी पैदा होती थीं मुख्य रूप से सम्राट की सेना के अधिकारियों और कंपनी के असैनिक अधिकारियों के संबंधों में । इसलिए बहुत आरंभ से ही भारत में कंपनी की एक स्थायी सेना खड़ी करने की कोशिशें की जाती रहीं ।

उत्तर भारत में सोलहवीं सदी से ही किसान सेनाओं की भर्ती करने की परंपरा चली आ रही थी और जिसे डर्क कोल्फ़ (1990) ने एक ”सैनिक श्रम बाज़ार” कहा है । मुगलकाल में इस किसान सेना और असैनिक जनता के बीच का अंतर कभी भी बहुत स्पष्ट नहीं रहा ।

अवध के नवाब और बनारस के राजा जैसे कुछ उत्तराधिकारी उत्तर भारतीय राज्यों के शासकों ने अठारहवीं सदी में ही जाकर भरती की इस व्यवस्था में परिष्कार के प्रयास किए, तथा नागरिक समुदायों से असंबद्ध, परिष्कृत और प्रशिक्षित सफल किसान सेनाएँ खड़ी कीं ।

ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब अपनी सेना की भरती शुरू की, तो उसने इसी परंपरा का आश्रय लिया जिसे सिपाही सेना (Sepoy Army) कहा जाने लगा । एक भारतीय सेना की भरती की यह परंपरा फ्रांसीसियों ने सर्वप्रथम 1721-29 में शुरू की थी ।

फिर दक्षिण भारत के आंग्ल-फ्रांसीसी युद्धों की उसी पृष्ठभूमि में 1748 में कप्तान (मेजर) स्ट्रिंजर लॉंरेंस ने पहले अंग्रेज सेना के लिए एक भारतीय सेना की भरती शुरू की; घिरी हुई अंग्रेज कंपनी की मदद के लिए शाही नौसेना की कुमुक (reintercement) लेकर यही व्यक्ति पहुँचा था ।

1757 में बंगाल के नवाब की हार के बाद क्लाइव ने इसे नए सिरे से आरंभ किया । इस सिपाही सेना को यूरोप के सैन्य मानदंडों के अनुसार प्रशिक्षित और अनुशासित किया जाता था और युद्धभूमि में उसकी कमान यूरोपीय अधिकारी सँभालते थे ।

कमांडर-इन-चीफ़ समेत ऐसे कुछ अधिकारी सम्राट के सेवक होते थे, जबकि सेना का बहुसंख्यक भाग संरक्षण के वितरण की तर्ज पर कंपनी के डायरेक्टरों द्वारा मनोनीत किया जाता था । उन्नीसवीं सदी के आरंभ में कानून बनाकर बीस हज़ार सैनिकों की भारत में तैनाती अनिवार्य बना दी गई, जिसका खर्च कंपनी उठाती थी; देखने मैं यह नेपोलियन के बाद के काल में ब्रिटेन की रक्षा-व्यय उठाने की एक रणनीति लगती थी ।

उसके अलावा कंपनी की भारतीय सेना का आकार भी लगातार बढ़ता रहा और जब बंगाल से बाहर भी उसका इलाका फैला, तो वह सैन्य श्रम का बाज़ार भी फैला, जहाँ से वह सैनिकों की भरती करती थी । सिपाहियों की संख्या 1794 में 82000 थी, जो 1824 में बढ़कर 1,54,000 और 1856 में 2,14,000 हो गई ।

सीमा अलवी का तर्क है: ”वास्तव में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना की भरती कंपनी की प्रभुसत्ता के विकास का केंद्रीय तत्त्व थी ”, जोकि शक्ति के एकाधिकार पर आधारित थी । इसलिए भारत में कंपनी का सबसे अधिक खर्च सेना पर होता रहा । इसके अलावा यह राजस्व की कारगर वसूली के लिए भी अनिवार्य थी ।

यह एक ऐसी स्थिति थी जिसे डगलस पियर्स ने ”सैन्य वित्तवाद” कहा है । सेना केवल भू-भाग ही नहीं जीतती थी; वह वास्तविक या काल्पनिक अंदरूनी खतरों से साम्राज्य की रक्षा भी करती थी मालगुज़ारी की भारी माँगों के विरुद्ध किसानों के विद्रोहों से निबटती थी, भारतीय कुलीनों से गठजोड़ करती थी तथा भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था के बारे में सूचनाएँ एकत्र करती थी ।

इस तरह इसे भारत में कंपनी के प्रशासन का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन माना जाता था । लेकिन महत्त्व की इस भावना को एक बड़ी सीमा तक स्वयं सेना ने पैदा किया । अनेक सैन्य विचारकों ने अंतहीन ढंग से यह तर्क किया कि भारतीय समाज की सैन्यीकृत अवस्था और राजनीतिक स्थिति की अंतर्निहित विस्फोटक प्रकृति को दखते हुए भारत एक स्थायी युद्ध की स्थिति में था ।

जैसा कि पियर्स का तर्क है, इस ”आंग्ल-भारतीय सैन्यवाद” ने आत्मगरिमा की एक भावना पैदा की कि वह साम्राज्य की सुरक्षा और स्थिरता की आखिरी गारंटी है और इस तरह सेना ने अपनी स्वतंत्रता और अबाध व्यय के दावों को बनाए रखा ।

अठारहवीं सदी में कंपनी की सेना की भरती केवल उत्तर भारत के सैन्य-श्रम बाज़ार की परंपराओं पर ही आधारित नहीं थी उन परंपराओं को ब्रिटेन की साम्राज्यिक प्राथमिकताओं के अनुसार भी ढाला जा रहा था । उदाहरण के लिए, भरती की व्यवस्था ने बेहतरीन संभावित रंगरूटों के रूप में किसानों के लिए अंग्रेजों की परंपरागत पसंद का अनुमोदन किया और इस उपनिवेशी रूढ़ मान्यता से भी चिपकी रही कि चावलभोजी समूहों की बजाय गेहूँभोजी भारतीय शारीरिक दृष्टि से इस काम के लिए अधिक उपयुक्त थे, हालांकि ऐसा जातीय रूढ़िवाद अठारहवीं की बजाय उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षा में सेना में भरती का कहीं बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण आधार बन गया ।

निर्माण के आरंभिक चरण में हेस्टिंग्ज़ सेना के मामलों में जातिप्रथा के नियमों को बदलना नहीं चाहता था । इसलिए कंपनी की सेना में मुख्यत: अवध के सवर्ण ब्राह्मण और राजपूत भूस्वामी किसान तथा उत्तरी और दक्षिणी बिहार के राजपूत और भूमिहार-ब्राह्मण किसान शामिल थे, और ये दोनों क्षेत्र गेहूँभोजी क्षेत्र थे ।

ये लोग कंपनी की सेना में इसलिए भरती हुए क्योंकि कंपनी जो वेतन भत्ते पेंशन और पुनर्वास की सुविधाएँ देती थी वे क्षेत्रीय रजवाड़ों से बहुत बेहतर थीं, और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि वेतन नियमित रूप से मिलता था ।

सिपाहियों की जाति खान-पान यात्रा संबंधी और अन्य धार्मिक तौर-तरीकों का सम्मान करने की सुविचारित नीति ने कंपनी की सेना को एक सवर्ण पहचान दी । में भरती होकर भूमिहार-ब्राह्मण जैसी अनेक उभर रही और सामाजिक महत्त्वाकांक्षी जातियों ने अपनी सामाजिक गतिशीलता की आकांक्षाओं को पूरा किया ।

आंग्लीकरण को प्राथमिकता देने के बावजूद कॉर्नवॉलिस ने सेना के इस विशेष गठन के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं की । परिणामस्वरूप कंपनी को एक सवर्ण सेना प्राप्त हुई, जो जब 1820 के दशक से उनके सामाजिक विशेषाधिकारों और मौद्रिक लाभों में कटौती की जाने लगी तो विद्रोह के लिए तैयार नजर आने लगी ।

कंपनी के इलाके जब बंगाल के पश्चिम में 1770 के दशक में पहाड़ों की जंगलों से भरी तराई तक और फिर 1802 में समर्पित और विजित जिलों तक फैले तो पहाड़ी कबीलों में से भरती की एक और कोशिश की

गई । जहाँ कंपनी मैदानों में भरती के स्थायी केंद्र खोले हुए थी वहीं पहाड़ों में भरती स्थानीय गण्यमान्य व्यक्तियों के माध्यम से की जाती थी और भुगतान घटवाली सेवा की मुगल व्यवस्था के जरिये किया जाता

था ।

भारतीय रजवाड़ों की, खासकर अठारहवीं सदी के अंतिम वर्षों में मैसूर की तथा उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में मराठों की, हार के बाद भरती के लिए अतिरिक्त सैनिक श्रमशक्ति का एक और विशाल स्त्रोत सामने आया लेकिन कंपनी की सेना भारतीय राजाओं की सेवा से निकाले गए सभी सैनिकों का खपान मे असमर्थ रही ।

उसके बाद 1815 से नेपाली, गढ़वाली और सिरमौरी पर्वतवासियो में से गोरखा सैनिक भरती करने का एक और प्रयोग किया जाने लगा । नेपाली युद्ध परंपरा और यूरोपीय प्रशिक्षण व अनुशासन के एक कुशल मिश्रण ने गोरखाओं को ब्रिटिश सेना के सबसे भरोसेमंद सैनिक बना दिया ।

इस तरह जैसे-जैसे साम्राज्य का आकार बढ़ता गया कंपनी की सेना में तरह-तरह के सामाजिक समूह शामिल होते गए; अनेक सैनिक परंपराएँ ऐसी थीं जिनको सावधानी के साथ संतुलन बिठाने के एक खेल में शामिल करना पड़ा और स्थानीय कुलीनों के साथ शक्ति का बँटवारा करना पड़ा ।

इन परिस्थितियों में जहाँ बंगाल की सेना का अधिकतर सवर्ण चरित्र रहा, वहीं बंबई और मद्रास की सेनाओं का चरित्र अधिक विविधतापूर्ण हो गया । जब 1820 के दशक में अधिकांश भारतीय शक्तियाँ कमज़ोर हो गईं साम्राज्य को स्थिरता प्राप्त हुई और कंपनी की वित्त-व्यवस्था मुश्किलों में उलझ गई तब संतुलन के इस खेल के अंतर्विरोध स्पष्ट हो गए ।

अगले दशक में सेना के प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त बनाया गया जिसका मुख्य उद्देश्य सिपाहियों और उनके परिवारों पर और भी कठोर नियंत्रण स्थापित करना था । 1830 के दशक के सुधारों ने जिनका उद्देश्य असमानताओं में कमी लाना और एक सार्वभौम सैन्य संस्कृति का विकास करना था सिपाहियों में असंतोष पैदा किया जैसा कि अलवी ने दिखाया है ।

यह असंतोष की भावना विशेष रूप से बंगाल की सेना में दिखाई पड़ी, क्योंकि इन सुधारों ने सिपाहियों की सवर्ण स्थिति का अतिक्रमण किया और शक्ति के इन संबंधों को डगमगा दिया, जिनसे उनकी यह स्थिति जुड़ी हुई थी ।

इसलिए 1840 के दशक में समय-समय पर भारतीय सैनिकों का असंतोष सामने आता रहा, और इन्हीं घटनाओं ने बंगाल की सेना में 1857 के उस विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार की I विद्रोह के बाद भारतीय सेना के गठन और भरती की रणनीतियों को लेकर काफ़ी पुनर्विचार हुआ । भारत के सैनिक मामलों पर विचार के लिए गठित पील आयोग ने सिफ़ारिश की कि ”देशी सेना में विभिन्न संप्रदाय और जातियाँ शामिल होनी चाहिए और एक सामान्य नियम के रूप में हर रेजिमेंट में उनमें एकरस मिश्रण होना चाहिए ।”

इसलिए अगले कुछ वर्षो में विद्रोह करनेवाली रेजिमेंटों को तोड़ दिया गया; रेजिमेंटों में जातियों का और अधिक एकरस मिश्रण किया गया; भरती पंजाब पर केंद्रित रही जो विद्रोह के दौरान वफादार बना रहा; और पंजाब हिंदुस्तान बंबई और मद्रास जैसे क्षेत्रीय तत्त्वों को सावधानी के साथ अलग-अलग रखा गया ।

भरती की रणनीतियों को 1880 के दशक में सुव्यवस्थित किया गया, जब भारतीय उपजातियों और जातीय रूढ़ियों के बारे में उपनिवेशी ज्ञान का उपयोग करके ”लड़ाकू कौमों” का सिद्धांत विकसित किया गया । पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत के पठानों, पंजाब के जाटों उत्तर भारत के राजपूतों और नेपाल के गोरखाओं को उनकी सैनिक पृष्ठभूमि या जातीय स्थिति के कारण अर्थात् आर्य- क्षत्रिय मूल का होने के कारण इस काम के लिए आदर्श माना गया ।

इन समूहों की उग्र और भरोसेमंद माना जाता था, पर साथ ही बुद्धि में हीन माना जाता था, यानी कि वे लड़ तो सकते थे मगर नेतृत्व नहीं कर सकते थे । इस बात ने यूरोपीय कमानदारों में एक सुरक्षा की भावना पैदा की ।

डेविड ओमिसी की गणना के अनुसार 1914 तक ”भारतीय पैदल मैना का लगभग तीन-चौथाई भाग पंजाब, नेपाल या पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत से आता था ।” इन सामाजिक समूहों के किसान मुख्यत: इसलिए सेना में भरती होते थे कि यह एक लाभदायी पेशा था ।

दूसरी ओर, सेना प्रशासन ने सोचे-समझे ढंग से इन समूहों की अपनी-अपनी धार्मिक परंपराओं और उनकी सम्मान की भावना को बढ़ावा देकर उनकी वफ़ादारी सुनिश्चित की । इस सम्मान की भावना ने उनको अपने स्वामियों के प्रति समर्पित बनाए रखा, जिनका उन्होंने ”नमक” खाया था ।

योद्धा की आत्मछवि का यह महिमामंडन वर्दी और दूसरी पहचानों के जरिये सामने आता था, तथा असम्मानजनक कार्यो या कायरता के कारण स्वयं और अपने समुदाय के शर्मिदा होने का विचार मावधानी से विकसित की गई एक सैन्य संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग बना रहा ।

इस सेना की निष्ठा राज के स्थायित्व के लिए महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि बाहरी दुश्मनों की बजाय मुरक्षा के लिए पेश अंदरूनी खतरों का मुकाबला करने के लिए उसका उपयोग अधिक किया गया । 1880 के दशक में अफ़गानिस्तान के रास्ते प्रकट हुए एक अल्पकालिक रूसी खतरे को छोड़ दें, तो भारत में ब्रिटिश राज को किसी बाहरी खतरे का सामना नहीं करना पड़ा । फिर भी, एक बड़ी सेना, शांतिकाल में ढाई लाख तक की, बनाकर रखी गई, जो केंद्रीय राजस्व का 40 प्रतिशत भाग खा जाती थी । डेविड आमिसी लिखते हैं: “ब्रिटिश राज एक छावनियों वाला राज्य था ।”

इस छावनीदार राज्य के प्रशासन में कंपनी की सेना के आरंभ से ही असैनिक और सैनिक सत्ताओं का संबंध हमेशा एक जटिल विषय बना रहा । सेना पर असैनिक सत्ता स्थापित करने के लिए 1793 के चार्टर ऐक्ट ने युद्ध और शांति संबधी सभी बातों पर अंतिम नियंत्रण बहुत स्पष्ट शब्दों में बोर्ड ऑफ कंट्रोल को सौंप दिया ।

कमर्डर-इन-चीफ़ को गवर्नर जनरल के अधीन रखा गया लेकिन विभिन्न सुरक्षा-उपायों के बावजूद के कार्यात्मक संबंध तभी सही रूप से काम करते थे जब दोनों के बीच अच्छे नि संबंध होते थे । सेना का दबाव अकसर इतना अधिक होता था कि नागरिक सत्ता के लिए उसे झेलना कठिन होता था ।

सेना ने लॉर्ड एम्हर्स्ट पर दबाव डालकर एक आक्रामक विदेश नीति पर अमल कराया जबकि कमांडर-इन-चीफ़ के साथ संबंधों में विलियम बेंटिंक को गंभीर समस्याएँ झेलनी पड़ी । क्राउन के शासन के दिनों में भी यह संबंध अप्रीतिकर बना रहा और 1904-05 में कर्जन और किचनर के विवाद में उसने भयानक रूप धारण कर लिया ।

कमांडर-इन-चीफ़ लॉर्ड किचनर वायसरॉय की काउंसिल में सैन्य सदस्य पद को समाप्त कराना और अपने हाथों में सेना के नियंत्रण और कमान का केंद्रीकरण करना चाहता था । वायसरॉय लॉर्ड कर्ज़न ने इस पर आपत्ति व्यक्त की जब इंग्लैंड की सरकार ने एक समझौते का रास्ता निकाला कि सैन्य सदस्य का पद समाप्त किए बिना उसके अधिकार कम कर दिए जाएँ तब उसने अपना त्यागपत्र दे दिया । उसे यह देखकर हैरानी हुई कि उसका त्यागपत्र तुरंत स्वीकार कर लिया गया, जो सैन्य-प्रतिष्ठान की शक्ति का सूचक था । पर किचनर की भी पूरी नहीं चली ।

1905 में सैन्य सदस्य का पद समाप्त कर दिया गया और कमांडर-इन-चीफ़ सीधे वायसरॉय की काउंसिल के समक्ष जवाबदेह हो गया । लेकिन सेना का बुनियादी वित्तीय नियंत्रण उसके हाथ में नहीं था । इसके लिए अलग से एक सैन्य वित्त विभाग बनाया गया, जिसके कमान की असैनिक श्रुंखला सीधे काउंसिल के वित्त सदस्य तक जाती थी । यह व्यवस्था उपनिवेशी काल के अंत तक जारी रही । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में सेना पहले की ही तरह बलप्रयोग का सबसे प्रभावी साधन बनी रही ।

वह हर तरह की नागरिक उथल-पुथल के विरुद्ध जैसे राष्ट्रवादी आंदोलनों मजदूर हड़तालों किसान दोलनों या सांप्रदायिक दंगों के विरुद्ध राज के स्थायित्व की गारंटी होती थी । पुलिस हमेशा इन स्थितियों से निबटने में सफल नहीं रहती थी, क्योंकि पुलिस वाले समुदायों के बीच में रहते थे और इसलिए सामाजिक दबावों और वैचारिक प्रभावों से प्रभावित हो सकते थे ।

दूसरी ओर, सेना पूरे भारत में फैली छावनियों में रखी जाती थी, जानबूझकर उसकी साक्षरता का स्तर बहुत कम रखा जाता था और उसे हर तरह के राजनीतिक प्रभावों से दूर रखा जाता था । देश में निगरानी करने के लिए सेना का बार-बार प्रयोग नहीं किया जाता था, क्योंकि बार-बार प्रयोग से उसकी प्रभाविता कम होती और उसका प्रदर्शन-प्रभाव कमजोर पड़ता । लेकिन नागरिक प्रशासकों को पता था कि गंभीर आपात-स्थितियों में वह हमेशा आसपास ही मिलेगी ।

ऐसी स्थितियों में, और 1920 और 1930 के दशकों में ऐसी स्थितियाँ बहुत अधिक पैदा हुई, आमतौर पर ब्रिटिश दस्तों को प्राथमिकता दी जाती थी, क्योंकि 1857 के बाद से लेकर उपनिवेशी काल के अंत तक हर दो या तीन भारतीय सैनिकों पर एक ब्रिटिश सैनिक रखा जाता था ।

लेकिन भारत जैसे एक विशाल देश में भारतीय सिपाहियों के सहयोग के बिना, जो सम्राट के पक्के वफ़ादार बने रहे, उपनिवेशी व्यवस्था को बनाए नहीं रखा जा सकता था । ये सिपाही राजनीतिक आंदोलनों से भी प्रभावित नहीं हुए सिवाय दो अवसरों के, 1907 में पंजाब में नहरी आबादी के आंदोलनों के समय और 1920 के सिख गुरुद्वारा आंदोलन के समय ।

यही कारण है कि सेना में कमान की इस श्रुंखला के भारतीयकरण का इतना अधिक नौकरशाही विरोध होता रहा । भारतीय अधिकारियों के प्रशिक्षण और नियुक्ति का सिलसिला हिचकते हुए और चयनित ढंग से, 1931 के पहले गोलमेज़ सम्मेलन के बाद आरंभ हुआ ।

इस मुद्दे पर विस्तुत विचार 1940 के दशक में ही, दूसरे विश्वयुद्ध की सैन्य आवश्यकताओं के दबाव के तहत देर से राष्ट्रवादियों को दी गई छूट के रूप में किया गया । लेकिन भारतीयों की सहानुभूति पाने के बारे में पहले ही बहुत देर हो चुकी थी ।

बाद के वर्षो में सेना के अधिकारी कोर की संरचना पूरी तरह बदल गई और अनेक भारतीय अधिकारी भारतीय राष्ट्रवाद के ध्येय की ओर आकर्षित हुए । भारतीय सेना की वफ़ादारी में नज़र आने वाली दरार,  उन मुख्य कारणों में एक थी, जिनके कारण राज को 1947 में अपना जीवन समाप्त करना पड़ा ।

भारतीय सिविल सेवा | Indian Civil Service during British Empire

सिविल नौकरशाही, जो और कुछ नहीं तो वित्त-व्यवस्था की डोरी खींचकर सेना पर लगाम लगाए रखती थी और उसकी सहायता से भारतीय साम्राज्य को चलाती थी, वह केवल ग्रट ब्रिटेन में बनी नीतियों को लागू करने के लिए थी ।

लेकिन लंदन और भारत के बीच की दूरी, संचार की कठिनाइयों तथा मौके से प्राप्त सूचनाओं पर नियंत्रण ने इन नौकरशाहों को काफ़ी विशेषाधिकार और पहल का अधिकार दे दिया । फलस्वरूप, जैसा कि क्लाइव ड्‌यूवी का कहना है, ”अपने चरम-काल में वे दुनिया के न सही, साम्राज्य के सबसे शक्तिशाली नौकरशाह थे ।

आरंभ में यह ”एक संरक्षण-दायी नौकरशाही” थी, क्योंकि 1784 के इंडिया ऐक्ट और 1793 के चार्टर ऐक्ट ने भरती की जो विधि तय की थी, उसके अनुसार ये अधिकारी कंपनी के डायरेक्टरों द्वारा मनोनीत किए जाते थे और वे एक घोषणा पर हस्ताक्षर करते थे कि इस कृपा के बदले उन्होंने कोई पैसा नहीं लिया है ।

अनेक कारण ऐसे थे जो उन्हें अपने परिवारजन से बाहर के व्यक्तियों को मनोनीत करने पर मजबूर करते थे । फिर भी धीरे-धीरे भ्रष्टाचार और आयोग्यता का सिलसिला बढ़ता गया तथा भरती होनेवालों की शैक्षिक पृष्ठभूमियों और योग्यताओं में भारी अंतर पाए गए ।

बरनार्ड कोहन की गणना के अनुसार 1840 और 1860 के बीच ”भारत पर शासन करनेवाले सिविल कर्मचारियों का विशाल बहुमत 50 या 60 विस्तारित परिवारों से आया । इस सेवा से भारतीयों को सावधानी के साथ दूर रखा गया, क्योंकि 500 पाउंड या इससे अधिक सालाना वेतन वाले किसी भी पद पर उनको नहीं रखा जाता था ।

साम्राज्य के प्रसार से शासन की जिम्मेदारियाँ बढ़ीं तथा भारतीय भाषाओं और कानूनों का ज्ञान रखने वाली एक कारगर नौकरशाही आवश्यक हो गई । एक सुंदर साम्राज्यिक सपना लेकर 1798 में भारत आनेवाल लॉर्ड वेलेज़ली ने 1800 में अपने कार्यविवरण (minute) में लिखा कि भारतीय साम्राज्य का “प्रशासन एक अस्थायी और डाँवाडोल इलाके के रूप में नहीं किया जाना चाहिए ।” वह यूरोपीय सिविल कर्मचारियों के लिए पर्याप्त प्रशिक्षण चाहता था ।

कलकत्ता के फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में नियुक्ति से पहले सभी प्रेसिडेंसियों के सिविल कर्मचारियों को तीन साल का प्रशिक्षण लेना पड़ता था । लेकिन यह कॉलेज बहुत समय तक नहीं चला क्योंकि वेलेज़ली पर जल्द ही कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स की कृपादृष्टि नहीं रही और उन्हें डर था कि ऐसे किसी प्रशिक्षण कार्यक्रम से सिविल कर्मचारियों की वफ़ादारी लंदन की जगह कलकत्ता के पक्ष में हो सकती है ।

इसलिए 1802 में फ़ोर्ट विलियम कॉलेज बंद कर दिया गया; अब वह केवल एक भाषा विद्यालय की तरह काम करने लगा । उसकी जगह 1805 में लदन के पास हटफ़र्ड में ईस्ट इंडिया कॉलेज बनाया गया 1809 में उसे हैलीबरी ले जाया गया ।

कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स द्वारा मनोनीत प्रत्येक उम्मीदवार को वहाँ दो साल का प्रशिक्षण लेना पड़ता था, और अंतिम परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही उनको भारत की सिविल सेवा में नियुक्त किया जाता थ’ ‘ यह अनुमान लगा सकना कठिन है कि भारत में सिविल कर्मचारियों के व्यवहार पर इस प्रशिक्षण का कितना प्रभाव पड़ता था, क्योंकि लॉर्ड मैकॉले की सिफ़ारिश के अधार पर यह प्रशिक्षण मूलत: एक सामान्य पाठ्‌यक्रम पर आधारित होता था, और एक भाषा के घटक को छोड़ दें तो इस पाठ्‌यक्रम की भारत के लिए लगभग कोई प्रासंगिकता नहीं थी ।

लेकिन हेलीबरी कॉलेज ने भारतीय सिविल कर्मचारियो के बीच एक तरह का साथीपन या किसी विशिष्ट क्लब की सदस्यता की सहभागिता का भाव पैदा किया । 1830 के दशक तक भारत में नौकरशाही की प्रशासनिक ज़िम्मेदारियाँ काफ़ी बढ़ चुकी थीं, क्योंकि ज़िला कलेक्टर के पद में एक बार फिर मालगुज़ारी की वसूली के काम, मजिस्ट्रेट के अधिकारों और कुछ सीमा तक न्यायिक शक्तियों का समन्वय हो चुका

था ।

नवविजित क्षेत्रों-पंजाब और असम जैसे तथाकथित “गैर-विनियमित” प्रांतों में ज़िला अफ़सरों की शक्तियाँ और ज़िम्मेदारियाँ और भी अधिक थीं । साथ ही कार्यकलाप के नए-नए क्षेत्रों में राज्य का प्रवेश ही होता चला गया ।

इसके कारण अवैयक्तिकता का तत्त्व बढ़ा और नौकरशाही के ढाँचे में एक अधिक विस्तृत सोपानक्रम पैदा हुआ, जिसके कारण योग्यतर प्रशासकों की आवश्यकता पड़ने लगी । इसलिए इस समय यह महसूस किया जानै लगा कि संरक्षण की प्रचलित व्यवस्था से इतने कठिन प्रशासनिक दायित्वों के निर्वाह के लिए पर्याप्त संख्या में योग्य अधिकारी नहीं मिल रहे थे ।

इसके लिए आवश्यकता थी इंग्लैंड के उभरते मध्य वर्ग के बेहतरीन व्यक्तियों को खींचने के लिए स्क प्रतियोगिता की । 1830 के चार्टर ऐक्ट ने भरती की व्यवस्था में प्रतियागिता का तत्व जोड़ दिया पर यह डायरेक्टरों द्वारा मनोनीत व्यक्तियों के बीच ही एक सीमित प्रतियोगिता थी और इसलिए स्थिति को सुधार न सकी ।

अंतत: 1853 के चार्टर ऐक्ट ने खुली प्रतियोगिता का सिद्धांत लागू किया; उसके बाद भारत के लिए सिविल अधिकारी एक परीक्षा के द्वारा भरती किए जाने लगे, जो ”महारानी की सारी प्रकृतिजन्य प्रजा” के लिए समान रूप से अवसर प्रदान करती थी ।

हैलीबरी कॉलेज 1858 में बंद कर दिया गया और उसके बाद सिविल सेवा आयोग इंग्लैंड में होनेवाली एक वार्षिक परीक्षा के द्वारा सिविल अधिकारियों की नियुक्ति करने लगा । इस तरह अब तक अपने आपको ठोस जमीन पर खड़ा कर चुके एक साम्राज्य की आवश्यकताओं वो कारण भारत में एक केंद्रीकृत नौकरशाही के फौलादी ढाँचे को परिपक्वता प्राप्त हुई । इसलिए आश्चर्य नहीं है कि इस प्रशासनिक ढाँचे में भारतीयों को लिया भी गया तो निचले पदों पर ही लिया गया जिनको असंहिताबद्ध सिविल सेवा (Uncovenanted Civil Service) कहा जाता था ।

1813 के बाद निचली सेवाओं के भारतीयकरण की एक क्रमिक प्रक्रिया आरंभ हो चुकी थी खासकर न्यायपालिका में । बाद में प्रशासन को स्थानीय आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए लॉर्ड बेटिक ने भारतीयों को शामिल किए जाने का पक्ष लिया; इसका दूसरा कारण खर्च का सवाल भी हो सकता है ।

1831 के एक रेगुलेशन ने भारतीय न्यायिक अधिकारियों को और भी शक्तियाँ और जिम्मेदारियाँ दीं, लेकिन संहिताबद्ध सिविल सेवा (Covenanted Civil Service) के उच्च पद अभी भी भारतीयों के लिए दूर के सपने रहे । 1853 में प्रतियोगी परीक्षा क कारण तकनीकी रूप से तो दरवाजे भारतीयों के लिए खुले पर व्यवहार में ये अभी भी उससे बाहर रखे जा रहे थे क्योंकि भरती की परीक्षा केवल इंग्लैंड में होती थी ।

उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में भारतीय राष्ट्रवादियों की बार-बार की प्रार्थनाओं के बावजूद यूरोपीय नौकरशाही के विरोध ने एक साथ भारत में भी परीक्षा के आयोजन को रोके रखा । फिर भी, सरकार राष्ट्रवादी माँगों की उपेक्षा नहीं कर सकी और इस कारण समझौते के रास्ते के तौर पर 1870 में एक वैधानिक सिविल सेवा (Statutory Civil Service) का आरंभ किया गया । अर्थात योग्य और गुणी भारतीयों को ऐसे कुछ पदों पर मनोनीत किया जा सकता था जो अब तक केवल यूरोप के संहिताबद्ध सिविल अधिकारियों के लिए आरक्षित थे ।

लेकिन चूंकि लॉर्ड लिटन की पसंद स्पष्ट तौर पर कुलीन वर्ग के पक्ष में थी, ऐसे पदों के लिए चुने गए भारतीय आम तौर पर प्रतिष्ठित परिवारों के या देशी राजघरानों के होते थे । भारतीय मध्य वर्ग के राजनीतिक महत्त्व को लॉर्ड रिपन ने अनुभव किया और तर्क दिया कि अगर उन्हें लगातार प्रशासन से अलग रखा जाए, तो आखिरकार साम्राज्य के लिए खतरे पैदा हो सकते हैं । इसलिए वह भारत में भी साथ ही प्रतियोगी परीक्षा कराए जाने के पक्ष में थे, ताकि योग्य और गुणी पढ़े-लिखे भारतीय संहिताबद्ध सिविल सेवा में प्रवेश पा सकें ।

लेकिन यूरोपीय नौकरशाहों ने इस प्रस्ताव का जमकर विरोध किया भारतीयों के साथ सत्ता में भागीदारी की संभावना से स्पष्ट तौर पर डर का अनुभव कर रहे थे । सच तो यह है कि 1857 के विद्रोह के बाद उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में भारत में यूरोप के संहिताबद्ध सिविल कर्मचारी असुरक्षा की एक गहरी भावना से ग्रस्त थे; यह भावना अपने देश (ब्रिटेन) में कुलीनों की आलोचना से, संसद में उदारवादी लोकतांत्रिक धड़े के हमलों से और शिक्षित भारतीयों के बढ़ते राजनीतिक प्रतिरोध से पैदा हुई थी ।

इसलिए वे भारतीयों के साथ सत्ता में भागीदारी के किसी भी विचार से घृणा करते थे और उन्होंने 1882 में स्थानीय स्वशासन कानून (लोकल सेल्फ़-गवर्नमेंट ऐक्ट) को दबा देने की कोशिश की । उसके बाद उन्होंने आंग्ल- भारतीय व्यापारिक समुदाय के साथ जातीय गठजोड़ करके छिपे तौर पर और अकसर खुले तौर पर भी 1883-84 के इल्वर्ट बिल का विरोध किया ।

उन्होंने भारत में चुनाव का सिद्धांत लागू किए जाने के विचार पर ही आपत्ति की और (भारतीयों के) ”अयोग्यता” के एक ”मिथकीय तर्क” के आधार पर सिविल सेवा के प्रस्तावित भारतीयकरण में बाधाएँ पैदा कीं; इस तर्क का उपयोग उन्होंने अपनी शक्ति को वैधता प्रदान करने के लिए किया ।

सिविल सेवा के ढाँचे में सुधार अंतत: 1892 में, एक लोक सेवा आयोग (पब्लिक सर्विस कमीशन) द्वारा पाँच साल पहले पेश की गई सिफारिशों के आधार पर आया । इन नए नियमों ने संहिताबद्ध सिविल सेवा की विशिष्ट स्थिति को बनाए रखा और उसे अब इंडियन सिविल सर्विस (आई.सी.एस.) का नाम दिया ।

दूसरी ओर, असंहिताबद्ध सिविल सेवा का अपमानजनक नाम बदल दिया गया और उसे प्राविंशियल सिविल सर्विस नाम दिया गया । वैधानिक सिविल सेवा समाप्त कर दी गई और उसकी जगह कुछ ऊँचे पदों को जो पहले आई.सी.एस. के लिए आरक्षित थे, प्राविंशियल सिविल सर्विस वालों को प्रोन्नति देकर भरा जाने लगा ।

भारतीय अभी भी लंदन में होनेवाली खुली परीक्षाओं के द्वारा आई.सी.एस. में भरती हो सकते थे, पर इस सेवा में उनका प्रतिनिधित्व निराशाजनक सीमा तक कम, 1922 में केवल 15 प्रतिशत के आसपास था । लेकिन फिर यही साल था जब सिविल सेवा में उनका अनुपात बदलने लगा ।

राष्ट्रवादी माँगों के प्रत्युत्तर में 1919 के भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act) ने अंतत: आई.सी.एस. के लिए एक अलग, न कि सहकालिक, प्रतियोगी परीक्षा का प्रावधान किया जो भारत में होनी थी । इस प्रावधान के तहत पहली ऐसी परीक्षा फरवरी 1922 में इलाहाबाद में आयोजित की गई ।

फलस्वरूप भारतीय सिविल सेवा के इस आकर्षक क्षेत्र में 1941 तक भारतीय यूरोपवासियों को पीछे छोड़ चुके थे । अगर 1858 से 1919 तक का काल ”नौकरशाही निरंकुशता” का काल था, तो 1919 के बाद शासन-व्यवस्था के क्रमिक लोकतंत्रीकरण के कारण यह प्रवृत्ति थोड़ी-बहुत कमजोर पड़ी ।

लेकिन 1937 में भारतीय मंत्रियों ने राज्यों में जब पद सँभाले, उसके बाद भी प्रशासन को लगभग पूरी तरह सिविल कर्मचारी ही चलाते रहे क्योंकि आधारभूत स्तर के बारे में उनको अधिक जानकारी थी और स्थानीय शक्ति-संरचना के साथ उनके अनौपचारिक गठजोड़ भी थे ।

लेकिन सिविल सेवा के क्रमिक भारतीयकरण ने साम्राज्य के कठोर शासन के साधन के रूप में उसके महत्त्व को कम भी किया और सत्ता के हस्तांतरण का रास्ता तैयार किया । दूसरी ओर, इस भारतीयकरण के कारण ही स्वतंत्रता के बाद इस परंपरा का जारी रहना सभव हुआ, जब इस सेवा का केवल नाम बदला और इसे भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस.) कहा जाने लगा ।

रेज़िडेंट और सर्वोच्चता: Resident and Supremacy

जब फौलादी ढाँचे वाली भारतीय सिविल सेवा ब्रिटिश भारत पर राज कर रही थी तब भारतीय उपमहाद्वीप का लगभग 40 प्रतिशत भाग कंपनी और आगे चलकर महारानी के ‘अप्रत्यक्ष शासन’ के अधीन था । तब तक राज तो देशी राजा-महाराजा करते थे, पर शासन ब्रिटिश रेज़िडेंटों और राजनीतिक एजेंटों का था ।

जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यकलाप की प्रकृति व्यापारिक से बदलकर राजनीतिक हुई, तब विभिन्न भारतीय रजवाड़ों के दरबारों में नियुक्त व्यापारिक एजेंटों का काम कंपनी के व्यापारिक हितों की देखभाल करना था ।

फिर ये ही काम रेज़िडेंट करने लगे, जो कंपनी राज और देशी रजवाड़ों के राजनीतिक संबंधों का संचालन करने लगे । जैसा कि माइकेल फ़िशर का तर्क है, रेज़िडेंसी की व्यवस्था अद्‌भुत थी, जो यूरोप की साम्राज्यिक परंपरा में नहीं पाई जाती थी और मुगलों की वकीलों की व्यवस्था से भिन्न थी ।

इन वकीलों को अधीनस्थ राज्य और कुलीन लोग शाही दरबार में अपने प्रतिनिधित्व के लिए नियुक्त करते थे और उत्तराधिकारी राज्यों ने भी इस व्यवस्था को जारी रखा । रेज़िडेंसी व्यवस्था का अर्थ प्रभुसत्ता की पुनर्परिभाषा था, जो ‘सर्वोच्चता’ (Paramountcy) का नई शब्दावली में निहित थी ।

इसके अनुसार भारतीय राज्यों की ”घरेलू प्रभुसत्ता” बनी रहने दी गई, लेकिन उनकी सीमाओं से परे सर्वोच्च साम्राज्यिक शक्ति के रूप में कंपनी की प्रभुसत्ता थी । भारतीय रजवाड़ों की दोयम दर्जे की प्रभुसत्ता की वास्तविक शर्ते अलग-अलग मामलों में अलग-अलग थीं, जो राजाओं की स्थिति पर तथा उनके साथ की गई संधियों की परिस्थितियों पर निर्भर थीं ।

लेकिन व्यवहार में ”ब्रिटिश तौर-तरीकों ने इन्हीं ‘प्रभुओं’ में से कुछ को यथार्थत : कठपुतलियों में बदल दिया या उन्हें लगभग उनके महलों तक सीमित कर दिया । भारत में जब कंपनी का साम्राज्य कुछ और बढ़ा तो वित्तीय और मानवीय, दोनों प्रकार के संसाधनों की दृष्टि से उसने अनेक भारतीय राज्यों को अपने अप्रत्यक्ष शासन में रखना बेहतर समझा, बजाय इसके कि उनको सीधे-सीधे नियंत्रित और प्रशासित करे ।

यह चयन अनेक कारणों पर निर्भर होता था । जो राज्य अंग्रेजों की सैन्य शक्ति को चुनौती देने की हालत में न थे उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया; दूर कोनों में या प्रतिकूल क्षेत्रों में स्थित राज्यों को अछूता छोड़ दिया गया, जबकि उन राज्यों को जीतने का आकर्षण कम ही था जिनके पास खेती की ज़मीनें कम थीं और इसलिए उनमें मालगुज़ारी की वसूली की संभावना कम थी ।

इस नीति पर विभिन्न वैचारिक दबाव और जवाबी भी पड़ते रहे; इसमें असंबद्ध हो जाने के रूढ़िवादी दबाव का सीधे नियंत्रण के आक्रामक तर्को का और अप्रत्यक्ष नियंत्रण की व्यवहारवादी पैरवी का ध्यान रखना पड़ता था । इसलिए रेज़िडेंसी व्यवस्था के विकास में अनेक उतार और चढ़ाव आए ।

1875 के विद्रोह तक भारत में अप्रत्यक्ष शासन के विकास में माइकेल फ़िशर ने तीन सुस्पष्ट चरणों की पहचान की है । पहला चरण (1764-97) बक्सर के युद्ध (1764) के बाद मुर्शिदाबाद, अवध और हैदराबाद के दरबारों में कंपनी कै रेज़िडेंटों की आरंभिक नियुक्ति के साथ प्रारंभ होता है ।

कंपनी के अधिकारी भारत में उसकी अग्रगामी नीति को लेकर अभी भी आश्वस्त और स्पष्ट नहीं थे और इसलिए इस दौर में रेज़िडेंसी व्यवस्था का विकास झटकों के साथ हुआ, जबकि रेज़िडेंटों की भूमिका अपेक्षाकृत सीमित और सावधानी से भरी हुई थी ।

लेकिन दूसरे चरण ( 1798-1840) में यह आरंभिक झिझक निर्णायक रूप से समाप्त हो गई; इस चरण की विशेषता थी आक्रामक प्रसारवाद, जिसका समर्थन लॉर्ड वेलेजली (1798-1805) करता था और जिसने ‘सहायक संधि’ (Subsidiary Alliance) की नीति अपनाई ।

इस काल में रेज़िडेंटों की भूमिका भी कूटनीतिक संबंधों से बदलकर अप्रत्यक्ष नियंत्रण की हो गई और अनेक मामलों में स्वयं रेज़िडेंटों ने क्षेत्रीय प्रसार को बढ़ावा दिया । यह प्रवृत्ति तब अस्थायी तौर पर रुक गई, जब वेलेज़ली को वापस बुला लिया गया और अहस्तक्षेप की नीति पर चलने का स्पष्ट आदेश लेकर लॉर्ड कॉर्नवॉलिस आया ।

लेकिन उसकी मृत्यु के बाद भारत में ब्रिटिश अधिकारियों ने क्षेत्रीय प्रसार का सिलसिला फिर से आरंभ कर दिया और अनेक नवविजित क्षेत्रों को रेज़िडेंटों के अप्रत्यक्ष नियंत्रण में दे दिया गया । यह वृद्धि 1841 तक अबाध रूप से जारी रही, जबकि असफल अफ़गान अभियान (1838-42) पहली बार अफ़गानिस्तान में अप्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन स्थापित करने में विफल रहा ।

इसलिए तीसरे चरण (1841-57) में प्रसार की जगह ”सुदृढ़ता” के विचार को प्रमुखता दी गई क्योंकि प्रसार अब भारत में अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका था । इसलिए इस चरण में हमें प्रत्यक्ष अधिग्रहण की दिशा में नीतिगत परिवर्तन दिखाई देता है ।

यह सिलसिला अपने चरम पर लॉर्ड डलहौज़ी की अग्रगामी नीतियों (‘डाक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स या विलय का सिद्धांत’) के रूप में पहुँचा तथा अवध, झांसी, नागपुर, सतारा और पंजाब के अनेक रजवाड़े इस नीति के तहत हस्तगत कर लिए गए ।

इससे असंतोष में वृद्धि हुई जो 1857 के विद्रोह के रूप में फूटा । इस तरह 1857 का विद्रोह भारतीय रजवाड़ों के प्रति ब्रिटिश नीतियों के विकास में एक मोड़ का सूचक था । निदान सिर्फ यही नहीं था कि अधिग्रहण की नीतियों का विद्रोह में योगदान था बल्कि यह भी पाया गया कि प्रत्यक्ष शासन वाले क्षेत्रों की अपेक्षा अप्रत्यक्ष शासन वाले क्षेत्र उथल-पुथल से कम प्रभावित हुए ।

ग्वालियर और हैदराबाद जैसे रजवाड़ों ने विद्रोह की आग को बुझाने में महत्त्वपूर्ण सेवाएँ प्रदान की थीं । इसलिए भारत जब महारानी के शासन में आया तब 1 नवंबर 1858 को महारानी की घोषणा ने ”खुद की ही तरह देशी राजाओं के अधिकारों गरिमा और सम्मान का ध्यान रखने” की प्रतिबद्धता व्यक्त की ।

लॉर्ड कैनिंग ने उनको (देशी राजाओं को) उनके राजवंशों की समाप्ति के विरुद्ध आश्वासन दिए और इसके लिए ‘गोद-लिवाई’ की 150 सनदें जारी कीं, जिनमें उनके दत्तक उत्तराधिकारियों को मान्यता दी गई थी ।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि भारतीय रजवाड़ों को बिना सुधारों के छोड़ दिया जाता; अंग्रेजों ने अक्सर रजवाड़ों की जनता के कल्याण के लिए और भी अधिक दायित्व अपने सर पर लिए इसलिए, जैसा कि इयान कॉपलैंड का तर्क है, ब्रिटिश राज ने ”राजाओं को ‘स्वाभाविक सहयोगियों’ के रूप मे तैयार करने का बीड़ा उठाया ।” लॉर्ड मेयो (1869-72) जब वायसरॉय बन कर आया, तब यह सुधारवादी लक्ष्य एक प्रमुख आधिकारिक नीति वन गया ।

उसने दरबारी सत्ता में एक विघटन देखा, जिसके कारण अनेक रजवाड़ों में कानून और व्यवस्था का ह्रास हुआ था । लेकिन इन रजवाड़ों को ”सुशासन” के बदले ही राजनीतिक समर्थन दिया जाना था । इस ध्येय में उसका समर्थन राजनीनिक विभाग के नवयुवा तुर्को ने किया जो राजाओं पर अपने शासन में सुधार लाने के लिए सूक्ष्म दबाव डालते रहे जो अकसर बहुत सूक्ष्म भी नहीं होते थे ।

अधिकांश देशी राजा झुक गए और जिन्होंने प्रतिरोध का फैसला किया, उनको कठोरता के साथ ”सर्वोच्च सत्ता की सर्वव्यापकता” की याद दिला दी गई । बड़ौदा के मल्हार राव गायकवाड़ को जो उनमें मबसे महत्त्वपूर्ण था ”घोर कुशासन” के आरोप में 1875 में सत्ताच्युत कर दिया गया ।

इस सुधार और आधुनिकीकरण की कुछ राजनीतिक कीमतें भी चुकानी पड़ी, और यह बात 1870 के दशक के अंतिम दिनों में स्पष्ट हो गई, जब ब्रिटिश भारत की राजनीति में राष्ट्रवाद धीरे-धीरे सामने आने लगा । इसलिए लॉर्ड लिटन ने राजाओं को परंपरागत भारत के सच्चे प्रतिनिधि और भारतीय जनता के ‘स्वाभाविक नेता’ बताया ।

पर उनको ब्रिटिश राज की शान-शौकत की याद भी दिलाई गई और साम्राज्यिक व्यवस्था का अंग बना दिया गया जो अब जैसा कि हमने देखा, एक सुस्पष्ट सोपानक्रम के रूप में संस्थाबद्ध हो रही थी । राजाओं के साथ इस जुड़ाव ने राज न एक सीमा तक वैधता भी प्रदान की और यह भी एक कारण था कि इस संबंध को साम्राज्यिक अनुष्ठानों में विधिवत स्थान दिया गया जैसे जनवरी 1877 के शाही दरबार और तोपों की सलामी की सूची में ।

बीसवीं सदी तक सम्राट को 101, वायसरॉय को 31 और अधिक महत्त्वपूर्ण 113 भारतीय राजाओं को 21 से लेकर 9 तोपों तक की सलामी दी जाने लगी । प्रहार की व्यवस्था बनाए रखने के लिए छोटे राजाओं को इस शाही सम्मान से पूरी तरह वंचित कर दिया गया । दूसरी ओर, 1878-86 के बीच, रजवाड़ों को सुव्यवस्थित हस्तक्षेप और अपनी घरेलू प्रभुसत्ता का सिमटाव झेलना पड़ा ।

उनको अपने क्षेत्रों के अंदर रेल मार्गो और संचार की दूसरी व्यवस्थाओं पर इनके निर्माण का खर्च उठाने के बावजूद नियंत्रण छोड़ना पड़ा, ब्रिटिश भारत के दूसरे भागों को नमक के निर्यात से दूर रहना पड़ा और लीगल टेंडर (विधिमान्य चलार्थ) के रूप में ब्रिटिश भारत की मुद्राओं को स्वीकार करना पड़ा ।

लॉंर्ड कर्ज़न (1898-1905) के शासन काल में यह हस्तक्षेप अपने चरम तक पहुँच गया । एक ओर उसने राजाओं को साम्राज्य के संगठन का अभिन्न अंग स्वीकार किया और 1903 में शानदार सत्तारोहण कर दरबार में उनको पूरे सम्मान के साथ निमंत्रित किया, लेकिन दूसरी ओर उसने उन पर और भी सख्त नियंत्रण लगा दिए ।

1900 में उसने उनकी विदेश यात्रा पर रोक लगा दी; 1902 में उसने बरार के प्रशासन के विषय में निज़ाम हैदराबाद पर और भी अनुकूल संधि करने के लिए दबाव डाला; उसने राजाओं को शाही फ़ौजों के लिए और अधिक रकम देने पर मजबूर किया; अनेक राजाओं को सत्ता से हटाया और तिरसठ रजवाड़ों को अस्थायी रूप से ब्रिटिश प्रशासन में ले लिया ।

इसलिए हैरानी नहीं, कि जैसा कि ग्वालियर के सिंधिया ने स्वीकार किया, वे लॉर्ड कर्ज़न की पितृसत्तावादी ”निरंकुशता” से घृणा ही करते थे । इस स्थिति में, जिसे कॉपलैंड ने ”सर्वोच्चता की जंज़ीरें” (shackles of paramountcy) कहा है, थोड़ी ढील तब आई जब लॉर्ड मिंटो वायसरॉय बना और उसने राजाओं को राजनीतिक अतिवाद विरोधी लड़ाई में प्रभावी और इच्छित सहयोगी पाया ।

लेन-देन के तौर पर उसने उनकी आंतरिक प्रभुसत्ता के सम्मान का वादा किया और उदयपुर में 1 नवंबर 1909 के एक ऐतिहासिक भाषण में अपनी अहस्तक्षेप की नई नीति (laissez-faire) की घोषणा की । लेकिन राजनीतिक विभाग के अधिकारी अकसर वायसरॉय की इस बुद्धिमता को स्वीकार नहीं करते थे ।

अगर नई नीति का उद्देश्य रजवाड़ों को ब्रिटिश भारत में फैल रही राजनीतिक धाराओं से राज्य को अलग रखना था, तो उसका मतलब ”अधीनस्थ अलगाव” (subordinate isolation) भी था । यही स्थिति फिर पहले विश्वयुद्ध के आरंभ तक बनी रही जिसके कारण रजवाड़ों के प्रति एक नीतिगत परिवर्तन फिर आया ।

यहाँ एक सवाल का जवाब देना बाकी रहता है और इसका संबंध सर्वोच्चता की व्यवस्था में राजाओं के अधिकारों और दायित्वों से है, और इससे भी है कि रोबीले रेज़िडेंट किस तरह उनपर निगरानी रखते थे । राजाओं के दायित्व और विशेषाधिकार सभी मामलों में उनके और कंपनी के बीच हुई संधियों द्वारा तय होते थे तथा कंपनी के दायित्वों को बाद में सम्राट ने अपने सर ले लिया ।

इन संधियों के प्रावधान उन परिस्थितियों से तय होते थे, जिनमें वे की जाती थीं और ये राज्यों के आकार से भी तय होते थे लेकिन कुछ सामान्य विशेषताएँ भी थीं और अनेक मामलों में और अधिक एकरूपता लाने के लिए संधियों में बाद में संशोधन भी किए गए ।

पहले तो कंपनी और फिर सम्राट द्वारा अधिराज के रूप में मान्यताप्राप्त सभी राजाओं ने किसी और राज्य के साथ कूटनीतिक संबंध बनाने या युद्ध करने के अधिकार का तथा किसी और यूरोपीय या अमेरिकी को सेवक रखने के अधिकार का त्याग किया; बाहरी दुनिया के साथ अपने सभी संपर्क ब्रिटिश एजेंटों के ज़रिये बनाने, शाही फ़ौजों के एक दस्ते का खर्च उठाने और साम्राज्य की रक्षा के लिए सैन्य सहायता की आवश्यकता पड़ने पर सेना भेजने की हामी भरी ।

उनको अपने क्षेत्रों से जानेवाले रेलमार्गो पर अपनी प्रभुसत्ता छोड़नी पड़ी, तथा डाक-तार और संचार की दूसरी व्यवस्थाओं पर ब्रिटिश राज के साथ नियंत्रण में साझेदारी करनी पड़ी । बदले में बाहरी आक्रमण और आंतरिक विद्रोह से उनको सुरक्षा दी जाती थी, और वे आंतिरिक स्वतंत्रता का उपभोग करते थे ।

कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए वे छोटा-सा एक पुलिस बल रखते थे तथा अपनी प्रजा के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सार्वजनिक सुविधाओं पर बहुत कम खर्च करते थे । अगर अपना ऊंचा स्तर दिखाने के लिए कुछ रजवाड़ों ने इन संस्थाओं के आधुनिकीकरण पर कुछ खर्च किया भी और अगर बड़ौदा, मैसूर त्रावणकोर या कोचीन जैसे कुछ दूसरे बड़े राज्यों ने कुछ संवैधानिक परिवर्तन किए भी तो ये नियम न होकर अपवाद थे ।

फिर भी, बड़े राज्यों के मामलों में रेज़िडेंटों की और छोटे राज्यों के मामले में गवर्नर-जनरल के राजनीतिक एजेंटों की दबंग उपस्थिति व्यवहार में राजाओं की अतिरिक स्वतंत्रता पर गंभीर सीमाएँ लगाती थी । रेज़िडेंट, जैसा कि माइकेल फ़िशर ने उसकी स्थिति बतलाई है, ”देशी राजाओं और अंग्रेजों के बीच की कड़ी” होता था । वह दोनों के बीच के संवाद को नियंत्रित करता था और समय-समय पर राजाओं पर अंग्रेजों की सर्वोच्चता को आरोपित करता था ।

अकसर वह राज्यों में सुशासन को बढ़ावा देने के प्रयास करता था, विभिन्न आंतरिक विषयों पर माँगने और अकसर बिना माँगे भी राजाओं को सलाह देता था । सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियों को नियंत्रित करने का प्रयास करता था, खासकर उन मंत्रियों की नियुक्तियों पर जिनके माध्यम से यह अनौपचारिक नियत्रण लागू किया जाता था, जो बहुत सूक्ष्म भी नहीं होता था ।

अकसर वह शासकों की अल्पमत वाली स्थिति का लाभ उठाकर काउंसिल ऑफ़ रीजेंसी के माध्यम से राज्य के मामलों पर अपना सीधा नियंत्रण लागू करता था । ये रेज़िडेंट और एजेंट या तो भारत सरकार के राजनीतिक विभाग या ब्रिटिश सरकार के विदेश विभाग के सदस्य होते थे ।

1914 में विदेश विभाग को दो भागों में विभाजित कर दिया गया: एक राजनीतिक विभाग-भारतीय रजवाड़ों को देखता था और एक विदेश विभाग-सीमावर्ती क्षेत्रों और फ़ारस की खाड़ी क्षेत्र के राज्यों पर ध्यान देता था । राजनीतिक विभाग विभिन्न ऐतिहासिक कारणों से ऊँची बौद्धिक योग्यता वाले व्यक्तियों को आकर्षित नहीं कर सका । फिर भी, अकसर उन्हीं के व्यक्तित्वों और दृष्टिकोणों पर हस्तक्षेपों की प्रकृति निर्भर होती थी ।

वे अकसर निगरानी की भूमिका पर अपनी समझ के अनुसार आधिकारिक नीतियों को लंबा खींच देते थे और कभी-कभी ना उनसे खुलकर विचलन करते थे । यह सही है कि राजा भी अपने लाभ के लिए राजनीतिक अधिकारियों को पटाने और जोड़-तोड़ करने के प्रयास करते रहते थे कभी-कभी तो उन्होंने अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए ब्रिटिश प्रशासन के अंदर के सांगठनिक विभाजनों का प्रयोग भी किया । कुछ ने हस्तक्षेप करने वाले रेज़िडेंटों ओर सर्वोच्च सत्ता के दिखावों का विरोध भी किया ऐसा एक उदाहरण बड़ौदा के मल्लार राव का था, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है ।

एक और सुस्पष्ट उदाहरण निज़ाम हैदराबाद के महत्वाकांक्षी अंग्रेजप्रेमी मंत्री सालार जंग का था जिसने न केवल यह घोषणा की कि हैदराबाद का दर्जा ब्रिटेन के सम्राट के एक अर्धस्वतंत्र सहयोगी का है और बरार पर अपने मालिक के अधिकार का दावा किया बल्कि एक अलाभदायक रेल परियोजना का विरोध भी किया जिसे अंग्रेज सैन्य कारणों से उस पर लाद रहे थे ।

लेकिन फरवरी 1883 में उसकी मृत्यु के बाद हैदराबाद पर पूरे जोश के साथ सर्वोच्च मत्ता की फिर से घोषणा की गई । अधिकांश दूसरे, छोटे-छोटे राजा, विरोध की जरा-सी ललक दिखाए बिना ही, सर्वोच्च सत्ता के प्रतिनिधियों के निरंतर दबाव के आगे घुटने ही टेक देते थे ।

जैसा कि भारती रे ने कहा है, इंडिया ऑफ़िस में लॉर्ड कैनिंग और सर चार्ल्स वुड ने जब भारतीय रजवाड़ों के प्रति राज की नीतियों को एक नई दिशा दी, उसके कुछ ही दशकों के अंदर उनकी स्थिति ”कंपनी के अर्धस्वतंत्र सहयोगियों से बदलकर….सम्राट के सामंतों वाली हो गई ।”

भारतीय रजवाड़ों में शासन के तौर-तरीकों में उपनिवेशी हस्तक्षेप ने वहाँ मौजूद सामाजिक संतुलन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन भी पैदा किए, क्योंकि नई व्यवस्थाओं में पहले के शक्ति-संतुलन का बराबर पुनर्निर्धारण होता रहा । लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में इस सामाजिक परिवर्तन की दिशाएँ अलग-अलग रहीं ।

डेनिस वाइडल (1997) ने दिखाया है कि राजस्थान के छोटे-से रजवाड़े सिरोही के दरबार में राजा और प्रभुत्वशाली वंश के विभिन्न खानदानों से संबंधित कुलीनों के बीच शक्ति के बँटवारे की गतिशील व्यवस्था राजा के पक्ष में उपनिवेशी हस्तक्षेप के कारण कैसे बिगड़ गई; इसी तरह राजा और उन विभिन्न व्यापारिक समूहों के संबंध बिगड़ गए, जिनको राज्य के प्रशासन में व्यवस्थित ढंग से हाशिये पर डाला जाता रहा ।

अंग्रेजों का संरक्षण पाकर राजा ने जब अपनी सत्ता जताने की कोशिश की, तो दूसरे समूहों ने विरोध किया । मालगुज़ारी बढ़ाने के लिए अपनी जागीरों का सर्वेक्षण कराया जाना कुलीनों को पसंद नहीं था और व्यापारी उन विभिन्न न्यायिक सुधारों से चिढ़ गए जो उनके हितों के विरुद्ध थे ।

पर उनके प्रतिरोध के विभिन्न साधनों की वैधता अब छिन चुकी थी बल्कि उनको ”आपराधिक” भी करार दिया गया और कुचल दिया गया कभी-कभी तो सैनिक हस्तक्षेप करके कुचला गया । ऐसे संकट इसलिए हल नहीं किए जा सके कि अतीत में वे सभी पक्षों के लिए संतोषजनक थे और इस प्रक्रिया में स्थानीय जनता के विभिन्न लोगों के आपसी संबंध प्रभावित हुए ।

लगभग ऐसी ही स्थिति राजस्थान में ही अलवर में देखी गई, जहाँ एक आधुनिक केंद्रीकृत राज्य के ढाँचे खड़े करने की प्रक्रिया में स्थानीय राजा ने राजपूत कुलीनों से अपने परंपरागत संबंध भंग कर लिए । इन राजपूतों को सत्ता में भागीदार के दर्जे से गिराकर अधीनस्थ प्रजा बना दिया गया ।

दूसरी ओर, सुदूर दक्षिण में स्थित त्रावणकोर में हमें सामाजिक शक्ति के संतुलन में एक अलग तरह का पुनर्निर्धारण दिखाई देता है । मद्रास सरकार के दबाव में आकर- और मद्रास सरकार भी बराबर ईसाई मिशनरियों द्वारा उकसाई जाती रही-त्रावणकोर 1860 के दशक से ही आधुनिकीकरण के एक लंबे-चौड़े कार्यक्रम से गुजरा, जिसे आम तौर पर जोश के साथ एक प्रतिभाशाली दीवान टी. माधवराव द्वारा लागू किया जाता रहा ।

इसमें अन्य बातों के अलावा पाश्चात्य शिक्षा का आरंभ किया गया, राज्य की सेवाओं को प्रतिभाओं के लिए मुक्त कर दिया गया, और आखिरी बात यह कि राजदरबार के गुटों के राजनीतिक प्रभाव पर अंकुश लगाने के लिए श्रीमुलम लोक विधायिका बनाई गई ।

इससे त्रावणकोर की शक्ति-संरचना प्रभावित हुई और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में दूरगामी सामाजिक परिणाम सामने आए जो रॉबिन जेफ्री के शब्दों में, ”प्रदत्त सामाजिक स्थिति से अर्जित सामाजिक स्थिति की दिशा में एक गति” के आरंभ के सूचक थे ।

दूसरे शब्दों में, मौजूदा जातिबद्ध समाज बुरी तरह झकझोर दिया गया, क्योंकि एझवा जैसे ऊपर की और गतिशील दलित समूहों और स्थानीय सीरियन ईसाइयों ने रजवाड़े की राजनीति में नायरों के प्रभुत्व को, प्रशासनिक पदों पर उनके लगभग पूरे एकाधिकार को ओर शक्ति के दूसरे संयोजनों को प्रभावी रूप से चुनौती दी ।

रजवाड़ों में स्थानीय समाजों को लगातार दो परस्परविरोधी मूल्य-प्रणालियों के टकराव का अनुभव करना पड़ा । जो मूल्य-प्रणाली उपनिवेशी सत्ता की शक्ति से बल पा रही थी वह स्थानीय जड़ों वाली परंपराओं को विस्थापित करने के खतरे पैदा करती रही और हम जितना समझते हैं उससे कहीं अधिक बुनियादी ढंग से सामाजिक ढाँचे को बदलती रही ।

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