मध्य आयु भारत के दौरान महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन (आठवीं से बारहवीं शताब्दी) | Important Social and Economic Changes During Middle Age India (Eighth to Twelfth Century).
प्राचीन भारत के इतिहास में आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी का काल सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है । इस काल के सामाजिक परिवर्तनों के पीछे कुछ आर्थिक घटनाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा जिन्होंने प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बदल दिया ।
भारत के इतिहास में हर्ष की मृत्यु के बाद से लेकर राजपूत वंशों के शासन तक (650-1200 ई॰) का काल सामान्य तौर से पूर्व मध्य युग कहा जाता है । इसके प्रथम चरण (650-1000 ई॰) को आर्थिक दृष्टि से पतन का काल निरूपित किया गया है । इस काल में व्यापार तथा वाणिज्य का हास हुआ । रोम साम्राज्य के पतन हो जाने के कारण पश्चिमी देशों के साथ भारत का व्यापार बन्द हो गया ।
इस्लाम के उदय के कारण भी भारत का स्थल मार्ग से होने वाला व्यापार प्रभावित हुआ । नगर तथा नगरीय जीवन में भी हास हुआ यही कारण है कि इस काल में स्वर्ण मुद्राओं का अभाव दृष्टिगोचर होता है । स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन बन्द हो गया तथा चाँदी एवं ताँबे की मुद्रायें बहुत कम दलवायी गयीं । नगरों के पतन के कारण व्यापारी ग्रामों की ओर उन्मुख हुए ।
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देश में अनेक आर्थिक तथा प्रशासनिक ईकाइयाँ संगठित हो गयीं जो अपने आप में पूर्णतया स्वतंत्र थीं । व्यापार-वाणिज्य के पतन के कारण व्यापारी तथा कारीगर एक ही स्थान पर रहने के लिये मजबूर हुए तथा उनका एक स्थान से दूसरे स्थान में आना-जाना बन्द हो गया ।
इस प्रकार इस काल की अर्थ-व्यवस्था अवरुद्ध हो गयी तथा एक ऐसे समाज का उदय हुआ जिसमें ग्रामीण क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से अधिकाधिक आत्म-निर्भर होते गये । उन्हें अपनी जरूरत की वस्तुऐं स्वयं उत्पन्न करनी पड़ती थीं । ग्रामों में रहने वाले व्यापारी तथा कारीगर स्थानीय ग्राहकों के उपयोग के लिये ही वस्तुओं का निर्माण करते थे ।
सामाजिक गतिशीलता के अभाव के फलस्वरूप एक सुदृढ़ स्थानीयता की भावना का विकास हुआ । पूर्व मध्यकाल के द्वितीय चरण (1000-1200 ई॰) से हम व्यापार-वाणिज्य की स्थिति में सुधार के लक्षण देखते है । दसवीं शती के बाद भारत का व्यापार पश्चिमी देशों के साथ पुन तेज हो गया जिससे देश की आर्थिक प्रगति को प्रोत्साहन मिला । इस काल में सिक्कों का प्रचलन पुन प्रारम्भ हो गया ।
भारत में मुस्लिम सत्ता स्थापित हो जाने के बाद से मुसलमान व्यापारियों तथा सौदागरों की गतिविधियाँ तेज हुई जिसके फलस्वरूप उत्तरी भारत में व्यापार-वाणिज्य की प्रगति हुई । बारहवीं शती तक आते-आते देश आर्थिक दृष्टि से पुन समृद्ध हो गया । पूर्व मध्यकाल की आर्थिक परिस्थितियों ने सामाजिक जीवन को प्रभावित किया ।
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इस काल के सामाजिक परिवर्तनों का अध्ययन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते हैं:
1. सामन्तवाद का विकास (Development of Feudalism):
पूर्व मध्यकालीन समाज में एक विशिष्ट वर्ग का उदय हुआ जिसे ‘सामन्त’ कहा जाता है । यह समाज का सबसे शक्तिशाली वर्ग था । यद्यपि भारत में हमें सामन्तवाद का अंकुरण शक-कुषाण काल में ही दिखाई देने लगता है तथापि इसका पूर्ण विकास पूर्व मध्य काल में ही हुआ ।
इस काल की राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक परिस्थितियों ने सामन्तवाद के विकास के लिये उपयुक्त आधार प्रदान किया । वाह्य आक्रमणों के कारण केन्द्रीय सत्ता निर्बल पड़ गयी तथा चारों ओर राजनीतिक अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गयी । केन्द्रीय शक्ति की निर्वलता ने समाज में प्रभावशाली व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग तैयार किया जिनके ऊपर स्थानीय सुरक्षा का भार आ पड़ा ।
अरबों तथा तुर्की के आक्रमणों ने शक्तिशाली राजवंशों को धराशायी कर दिया । फलस्वरूप उत्तर भारत में कई छोटे-छोटे राज्यों का उदय हो गया । इससे सामन्ती प्रवृत्ति को वढ़ावा मिला । सामन्तवाद के विकास में प्राचीन भारतीय धर्मविजय की अवधारणा का भी योगदान रहा । कालान्तर में शासकों की विजय का उद्देश्य अधिक से अधिक अधीन शासक तैयार कर उनसे करादि बटोरना हो गया ।
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इस प्रवृत्ति ने भी सामन्तवाद को प्रोत्साहित किया । सामन्तवाद को विकसित करने में आर्थिक कारक भी सहायक सिद्ध हुए । प्रो॰ यादव के शब्दों में शक-कुषाण युग में प्रथम बार हमें सामन्तवाद के न केवल राजनीतिक अपितु सामाजिक तथा आर्थिक कारक भी स्पष्टत: देखने को मिलते हैं । राजनीतिक अव्यवस्था में व्यापार-वाणिज्य का पतन हुआ जिससे अर्थव्यवस्था मुख्यत: भूमि और कृषि पर निर्भर हो गयी ।
बड़े-बड़े भूस्वामी आर्थिक स्रोतों के केन्द्र बन गये । समाज में भूसम्पन कुलीन वर्ग का आविर्भाव हुआ । समाज के बहुसंख्यक शूद्र तथा श्रमिक जीविका के लिये उनकी ओर उन्मुख हुए । भूमिपतियों को अपने खेतों पर काम करने के लिये बड़ी संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता थी ।
आर्थिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया ने सामन्तवाद के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया । ग्यारहवीं-बारहवीं शती में आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ । हमें सिक्कों के अधिकाधिक प्रचलन तथा व्यापार-वाणिज्य के पुनरुत्थान के प्रमाण मिलते है । किन्तु यादव ने स्पष्ट किया है कि- ‘यह आर्थिक विकास भारत में सामन्तवाद की गति को नहीं रोक सका अपितु सामन्तवाद ने ही अपने आपको तत्कालीन आर्थिक परिवेश के अनुकूल बना लिया ।’
सामन्तवाद के विकास में तत्कालीन शासकों द्वारा प्रदत्त भूमि तथा ग्राम अनुदानों का भी प्रमुख योगदान रहा है । राजाओं द्वारा अपने कुल के व्यक्तियों तथा संवन्धियों को विभिन्न प्रान्तों में उपराजा अथवा राज्यपाल नियुक्त करने की प्रथा से भी सामन्तवाद की जड़ें मजबूत हुई । पूर्व-मध्ययुग में इन शासकों को उनकी सेवा के बदले जागीरें दी जाने लगीं ।
राजकुमारों के साथ-साथ प्रशासन के मंत्रियों तथा अन्य उच्च पदाधिकारियों को भी जागीरें दी गयी । ये पदाधिकारी आनुवंशिक रूप से अपने पदों का उपभोग करते थे । इन्होंने पीढ़ियों तक अनुदान प्राप्त कर अपनी शक्ति को बढ़ा लिया तथा इनमें से कई के वंशज वाद में शक्तिशाली सामन्त बन बैठे ।
आर॰एस॰ शर्मा, जिन्होंने सामन्तवाद के उदय तथा विकास का गहन अध्ययन किया है, की मान्यता है कि भारत में सामन्तवाद का उदय राजाओं द्वारा ब्राह्मणों तथा प्रशासनिक और सैनिक अधिकारियों को भूमि तथा ग्राम दान में दिये जाने के कारण हुआ ।
पहले ये अनुदान केवल ब्राह्मणों को ही धार्मिक कार्यों के लिये दिये गये किन्तु हर्षकाल तथा उसके बाद से इन्हें प्रशासनिक तथा सैनिक अधिकारियों को उनकी सेवाओं के बदले में दिया खाने लगा । पूर्व-मध्यकाल में यह एक सर्वमान्य प्रथा हो गयी । राजपूत राज्यों की विभिन्न जागीरों के स्वामी सामन्त होते थे । उन्हें विशेष अधिकार और सुविधायें प्राप्त थीं ।
सामन्तों की विभिन्न श्रेणियाँ थीं । कुछ बड़े सामन्त अपने अधीन कई छोटे सामन्त रखते थे । वे अपने-अपने अधिकार-क्षेत्रों में राजाओं जैसी सुख-सुविधाओं का ही उपभोग करते थे । जिन लोगों को भूमि अनुदान में मिली उससे सम्बन्धित समस्त अधिकार भी उन्हें प्राप्त हो गये ।
वे इसे अपनी पैतृक सम्पत्ति मान बैठे तथा राजा की अनुमति के बिना ही उन्होंने उसे अपने समर्थकों के बीच बाँट देने का अधिकार स्वयं अपने हाथों में ले लिया । वे भूमि पर बिना काम किये ही काफी आमदनी प्राप्त करने लगे । उत्तर भारत में भूमि के साथ ही साथ कृषकों तथा बटाईदारों को भी हस्तान्तरित कर दिया जाता था ।
उन्हें स्पष्ट निर्देश था कि वे भूमि छोड़कर किसी अन्य स्थान में न जाये । इस प्रकार समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती गयी जिन्हें भूमि से दूसरे के श्रम पर पर्याप्त आय प्राप्त होने लगी । राजपूत-काल में सामन्तों के छोट-छोटे राज्य स्थापित हो गये जो अपनी शक्ति और प्रभाव बढ़ाने के लिये परस्पर संघर्ष में उलझ गये ।
इन्होंने व्यापार-वाणिज्य को हतोत्साहित किया तथा आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को प्रोत्साहन दिया । सामन्त तथा उसके अधीनस्थों के अपने-अपने क्षेत्रों में ही व्यस्त और मस्त रहने के कारण प्रबल स्थानीयकरण की भावना का विकास हुआ तथा सामाजिक गतिशीलता अवरुद्ध हो गयी ।
इस प्रकार अनेक कारणों से सामन्तवाद का उत्कर्ष हुआ । सामन्तों को उच्च राजकीय पदों पर नियुक्त किया गया । अधिकाधिक सामन्त रखना सम्राटों के लिये गौरव की बात हो गयी । चाहमान शासक पृथ्वीराज के अधीन 150, कलचूरिकर्ण के अधीन 136 तथा चौलुक्य कुमारपाल के अधीन 72 सामन्तों के अस्तित्व का पता चलता है ।
इस प्रकार राजपूत शासक वस्तुत: अपने सामन्तों पर ही शासन करते थे तथा उनके प्रभाव में आकर कभी-कभी अपने मंत्रियों की सलाह की उपेक्षा कर देते थे । सामन्तों की नियुक्ति भी आनुवंशिक रूप से होने लगी । प्रशासन स्थापित हो गया ।
सामन्तवाद के उदय ने परम्परागत चातुर्वर्ण व्यवस्था को भी प्रभावित किया । कालबार्न का विचार है कि सामन्तवाद के विकास से जाति व्यवस्था के बन्धन शिथिल पड़ गये तथा समाज के उच्च तथा निम्न वर्गों का अन्तर क्रमश: समाप्त हो गया क्योंकि सामन्त किसी भी जाति के हो सकते थे ।
किन्तु यह मत आंशिक रूप से ही सत्य है । वस्तुत: सामन्तवाद का भारतीय जाति-व्यवस्था पर प्रभाव इतना सहज नहीं था जितना कि कालवार्न ने माना है । यहाँ सामन्तवाद का विकास चातुर्वर्ण की अव्यवस्थित स्थिति में ही हुआ । प्रो॰ यादव के अनुसार इस काल में हम सामाजिक स्तरीयकरण की दो प्रवृत्तियों को साथ-साथ चलते हुए पाते है ।
जहाँ एक ओर समाज के उच्च तथा कुलीन वर्ग द्वारा वर्ण नियमों को कठोरतापूर्वक लागू करने का प्रयास किया गया वहीं दूसरी ओर इस युग के व्यवस्थाकारों ने विभिन्न जातियों एवं वर्गों के मिश्रण से बने हुए शासक एवं सामन्त वर्ग को वर्णव्यवस्था में समाहित कर आदर्श एवं यथार्थ के बीच समन्वय स्थापित करने का कार्य भी किया ।
सामन्तवादी प्रवृत्तियों के विकास के साथ-साथ भूसम्पत्ति, सामरिक गुण, राजाधिकार आदि सामाजिक स्थिति एवं प्रतिष्ठा के प्रमुख आधार वन गये । यहाँ तक कि ब्राह्मण वर्ण भी इनकी ओर आकर्षित हुआ । समाज के प्रथम दो वर्ण (ब्राह्मण तथा क्षत्रिय) एक दूसरे के निकट आ गये ।
इसी प्रकार अन्तिम दो वर्षों (वैश्य तथा शूद्र) में भी सन्निकटता आई । इस प्रकार पूर्वमध्यकालीन समाज दो भागों में विभाजित हो गया । प्रथम भाग में ब्राह्मण रख क्षत्रिय तथा द्वितीय में वैश्य एवं शूद्र समाहित हो गये । दोनों का अन्तर काफी बढ़ गया । समाज का यह इस काल में पहले की अपेक्षा कहीं अधिक सुस्पष्ट हो गया ।
सामन्तों के रहन-सहन का समाज के कुलीन वर्ग पर प्रभाव पड़ा ! सामन्त वैभव एवं विलास का जीवन व्यतीत करते थे । समाज के कुलीन वर्ग ने इसका अनुकरण किया । परिणामस्वरूप श्रम को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा । सामन्तों के ही समान ब्राह्मण भूस्वामी भी बहुसंख्यक दास-दासियों को अपनी सेवा में रखने लगे । इस प्रकार कुलीन वर्ग दूसरे के श्रम पर निर्भर हो गया ।
2. वर्ण-व्यवस्था की कठोरता तथा नवीन वर्गों का उदय (Rigidity of Class Room and Rise of New Classes):
आठवीं शती से समाज पर इस्लाम धर्म का प्रभाव परिलक्षित होने लगा । इसके सामाजिक समानता के सिद्धान्त ने परम्परागत चातुर्वर्ण व्यवस्था को गम्भीर चुनौती दी जिसके परिणामस्वरूप हिन्दू समाज में रूढ़िवादिता की वृद्धि हुई । इस काल के लेखकों तथा विचारकों ने इस स्थिति की तुलना कलियुग से की ।
समाज में शुद्धता बनाये रखने के उद्देश्य से विवाह, खान-पान तथा सूक्ष्मता के नियम अत्यन्त कड़े कर दिये गये । अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन बन्द हो गया तथा सामाजिक सम्बन्ध पूर्णतया संकुचित हो गये । अन्तर्जातीय खान-पान पर भी प्रतिबन्ध लग गया । ब्राह्मणों के लिये अन्य वर्षा के यहाँ भोजन करना (आपात्-काल को छोड़कर) निषिद्ध कर दिया गया । इस प्रकार समाज में शौचाचार की भावना प्रबल हो गयी ।
क्षेमेन्द्र के विवरण से पता चलता है कि यह भावना प्राच्य, दक्षिणात्य तथा गौड़ लोगों में अधिक थी । ये लोग अपने सम्बन्धियों के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति का स्पर्श तक नहीं करते थे । अल्वरुनी लिखता है कि दो ब्राह्मण जब भोजन करने बैठते थे तो वे अपने बीच एक कपड़े का टुकड़ा रखते अथवा, लकीर खींच लेते थे ।
ब्राह्मणों के कुछ वर्ण इतने अधिक रुढ़िवादी थे कि जो ब्राह्मण, जैन आदि वैदिकेतर धर्मों को स्वीकार कर लेते थे उन्हें भी वे कुजात समझते थे । कलिवर्ज्य का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया जिसके अन्तर्गत विदेश यात्रा करने तथा विदेशियों से सम्पर्क स्थापित करने पर रोक लगा दी गयी । विभिन्न जातियों तथा उपजातियों की उत्पत्ति के कारण सामाजिक व्यवस्था अत्यन्त जटिल हो गयी ।
किन्तु इस समय भी समाज में ऐसे लोग थे जिन्होंने जाति-प्रथा की रूढियों को मान्यता देने से इन्कार कर दिया । ग्यारहवीं-वारहवीं शती के जेन आचार्यों, शाक्त-तान्त्रिक सम्प्रदायों तथा चार्वाकों ने जाति-प्रथा तथा उसके प्रतिवन्धों का विरोध करते हुए कर्म की महत्ता का प्रतिपादन किया ।
उन्होंने ब्राह्मणों की जातिगत श्रेष्ठता एवं अहमन्यता की भी खिल्ली उड़ाई । इस समय गुजरात तथा राजस्थान में जैन धर्म काफी लोकप्रिय था और यद्यपि इसमें भी कुछ रूढ़िवादिता आ गयी थी, तथापि जाति-सम्बन्धी इसके विचार हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक उदार थे ।
जैन आचार्य अमितगति (ग्यारहवीं शती) ने यह प्रतिपादित किया कि जाति का निर्धारण आचरण से होता है, जन्म या वश से नहीं । वौद्ध ग्रन्थ तटकमेलक में भी जाति-पाति एवं छुआछूत की निन्दा की गयी है । शाक्त-तान्त्रिक एवं सिद्ध सम्प्रदायों ने भी जाति-प्रथा का विरोध किया ।
इसी प्रकार का विरोध चार्वाकों द्वारा भी किया गया । दक्षिण में लिंगायत सम्प्रदाय के आचार्य बासव ने परम्परागत जाति-व्यवस्था का खण्डन करते हुए सभी मनुष्यों की समानता का उपदेश दिया । इस प्रकार पूर्व मध्यकालीन समाज में भी उदार विचारकों एवं सुधारकों का अभाव नहीं था ।
कृत्यकल्पतरु से पता चलता है कि इस समय भी सभी जातियों के लोग तीर्थयात्रा पर जाते थे तथा सम्मिलित रूप से एकत्रित होकर पुराण का श्रवण करते थे । बी॰एन॰एस॰ यादव का विचार है कि बारहवीं शताब्दी तक समाज में जाति प्रथा के विरोध की जो भावना प्रबल हुई उसके लिये निम्न वर्गों की आर्थिक स्थिति में सुधार होना भी एक प्रमुख कारण था ।
पूर्व मध्यकाल में कृषि, उद्योग-धन्धों, व्यापार तथा वाणिज्य आदि की उन्नति हुई जिसके फलस्वरूप निम्नवर्ग के लोग सामाजिक दृष्टि से हीन होने के बावजूद भी आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हो गये । उन्होंने जाति प्रथा के कड़े नियमों एवं प्रतिवन्धों को मानने से इन्दनर कर दिया तथा पौराणिक हिन्दू धर्म को त्याग कर अधिकतर लोग नास्तिक धर्मों के अनुयायी हो गये ।
इससे समाज के उच्चवणों को काफी निराशा हुई । सामाजिक परिवेश में हुए परिवर्तन के कारण पूर्व मध्ययुग में परम्परागत वर्णों के कर्तव्यों को भी नये सिरे से निर्धारित किया गया । प्रथम बार पराशर स्मृति ( ई॰) में कृषि को ब्राह्मण वर्ण की वृत्ति बताया गया है । अभी तक के शास्त्रकारों ने केवल आपत्तिग्रस्त ब्राह्मण के लिये कृषि का विधान किया था ।
इसके टीकाकार माधवाचार्य (1300-1380 ई॰) ने बताया है कि कलियुग में आपद्धर्म ही सामान्य धर्म वन जाता है । इससे पता चलता है कि पूर्व मध्यकाल में अधिकांश ब्राह्मणों ने कृषि करना या कराना प्रारम्भ कर दिया था । भूमिदानग्राही कुलीन ब्राह्मण शूद्रों के द्वारा कृषि करवाते थे । क्षत्रिय वर्ण इस समय दो भागों में बँट गया ।
पहला शासक वर्ग तथा जागीरदार वर्ग था जबकि दूसरे में सामान्य क्षत्रिय थे । पराशर ने कृषि को सामान्य क्षत्रिय की भी वृत्ति बताया है । वृहद्धर्म पराण में ब्राह्मणों की पूजा को क्षत्रिय के प्रमुख कर्त्तव्यों में रखा गया है । जहां तक वैश्य तथा शूद्र वर्णों का प्रश्न है, इस काल में हम दोनों के कार्यों में समानता पाते है ।
पराशर ने कृषि वाणिज्य तथा शिल्प को दोनों का व्यवसाय बताया है । यह उल्लेखनीय है कि कृषि को सभी वर्णों का सामान्य धर्म माना गया है । यह समाज के बढ़ते हुए कृषिमूलक स्वरूप का सूचक है जो सामन्तवाद के प्रतिष्ठित होने के कारण पूर्व मध्यकाल में अत्यधिक स्पष्ट हो गया था ।
भूमि अनुदानों की अधिकता के कारण हुए भूमि तथा शक्ति के असमान वितरण से समाज में नये वर्गों का उदय हुआ जिनके लिये परम्परागत वर्ण व्यवस्था में स्थान खोजने का प्रयास पूर्व मध्यकाल के व्यवस्थाकारों ने किया । सामन्त भी अपनी स्थिति के अनुसार कई वर्गों में विभक्त थे ।
‘अपराजितपूच्छा’ (12वीं शती) में ग्रामाधिकार के आधार पर सामन्तों की निम्नलिखित श्रेणियों का उल्लेख मिलता है:
(i) महामण्डलेश्वर (एक लाख ग्राम) ।
(ii) माण्डलिक (पचास हजार ग्राम) ।
(iii) महासामन्त (बीस हजार ग्राम) ।
(iv) सामन्त (दस हजार ग्राम) ।
(v) लघु सामन्त (पांच हजार ग्राम) ।
(vi) चतुरांशका (एक हजार ग्राम) ।
इसके अतिरिक्त पचास, बीस, तीन, दो तथा एक ग्रामों के अधिकार वाले सामन्तों का भी उल्लेख मिलता है । चतुरांशका छोटे राजा थे तथा उनके नीचे राजपुत्रों की गणना की जाती थी जो ग्राम प्रमुख होते थे । ऐसा प्रतीत होता है कि सामन्त श्रेणियों में क्षत्रिय के अतिरिक्त अन्य वर्ण के भू-स्वामी भी शामिल थे ।
कारीगरों तथा व्यापारियों को भी इस समय सामन्ती उपाधियाँ जैसे- ठाकुर, राउत, नायक, रणक आदि प्रदान की गयी जिनसे उनकी सामाजिक प्रतिप्टा वह गयी । ये केवल क्षत्रिय वर्ण तक ही सीमित नहीं थीं अपितु अन्य जाति के भू-स्वामियों तथा प्रशासनिक एवं सैनिक अधिकारियों को भी प्रदान की जाती थीं ।
पूर्व मध्यकाल में बढ़ते हुए भूमि-अनुदानों से सम्बन्धित कागज पत्रों को सुरक्षित रखने के लिये लिपिकों के एक विशिष्ट वर्ग का अविर्भाव हुआ जिसे चायल्थ नाम दिया गया । पहले उच्चवर्णों के शिक्षित लोग जनता की राजस्व तथा प्रशासनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के निमित्त नियुक्त किये जाते थे । कायस्थ वर्ग परम्परागत लिपिकों अथवा लेखकों का था ।
साहित्यिक तथा अभिलेखीय प्रमाणों से पता चलता है कि आठवीं शती तक कायस्थ शब्द का प्रयोग राजकीय उपाधि अथवा पद के लिये किया जाता था । नवीं शती से हम लेखों में विभिन्न कायस्थ कुलों-गौड़, माथुर, श्रीवास्तव्य, निगम आदि का उल्लेख पाते है । क्रमश: इन कुलों ने जाति का रूप धारण कर लिया तथा उनकी अलग जाति बन गयी ।
सर्वप्रथम उशनस स्मृति में कायस्थों का एक जाति के रूप में उल्लेख मिलता है । याज्ञवल्कय ने उनका प्रथम विवरण दिया है । अपनी योग्यता के चल पर उन्होंने प्रशासन में ऊंचे-ऊंचे पद प्राप्त कर लिये तथा शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भी उन्होंने प्रमुखता प्राप्त कर लिया ।
कुछ क्षेत्रों में उन्होंने ‘ठाकुर’ की उपाधि प्राप्त की । कुछ लोग इतने समृद्ध हो गये कि उन्होंने ब्राह्मणों के लिये मन्दिरों तथा बौद्धों के लिये मठों का निर्माण करवाया । इस प्रकार प्राचीन कुलीन वर्ग के लिये उनकी स्थिति चिन्ता का कारण बनी तथा हिन्दू व्यवस्थाकारों के सामने उनकी सामाजिक स्थिति निर्धारित करने की समस्या उत्पन्न हो गयी ।
उन्होंने कायस्थों को द्विज तथा शूद्र दोनों ही वर्णों के साथ सम्बद्ध कर दिया । कायस्थों द्वारा के कारण ब्राह्मणों का एकाधिकार समाप्त हो गया तथा उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा अभिलेख कायस्थ पदाधिकारी ही सुरक्षित रखते थे और ये अधिकार ब्राह्मणों ब्राह्मणों को परेशान किया हो । इस प्रकार ब्राह्मण, कायस्थों के प्रतिद्वन्द्वी वन कर दिया । कुछ ब्राह्मण लेखकों ने उनका चित्रण ण्जापीड़क के रूप में किया है ।
राजतरगिणी में इस जाति की निन्दा की गयी है । उत्तर भारत में ग्राम शासन के पदाधिकारियों, महत्तर, का भी इस समय एक विशिष्ट वर्ग गठित हो गया । यह एक सम्पन्न वर्ग था । इसी की प्रतिनिधि जातियाँ आजकल के समाज की महतो, मेहता, महथा, मल्होत्रा आदि हैं । इसी प्रकार कुछ अन्य भागों में भी प्रशासनिक अधिकारियों का विशिष्ट वर्ग बन गया था ।
3. वैश्य वर्ण का पतन तथा शूद्र वर्ण का उत्थान (Fall of Vaishya Varna and Rise of Shudra Varna):
पूर्व मध्यकालीन समाज में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि वैश्य वर्ण की सामाजिक स्थिति पतनोन्मुख हुई तथा उन्हें शूद्रों के साथ समेट लिया गया । वैश्यों की स्थिति में गिरावट का मुख्य कारण पूर्व मध्यकाल के प्रथम चरण में व्यापार-वाणिज्य का हास है । इस काल में आंतरिक तथा वाह्य दोनों प्रकार के व्यापार का हास हुआ जिसके कारण वैश्य वर्ण अत्यन्त निर्धन दो गया ।
इस समय शूद्रों का सम्बन्ध कृषि के साथ हो जाने से उनकी आर्थिक दशा पहले से अधिक अच्छी हो गयी । शूद्रों ने के रूप में वैश्यों का स्थान ग्रहण कर लिया । इस प्रकार दोनों वर्णों की स्थिति एक समान हो गयी । पराशर स्मृति में तथा शूद्रों के लिये समान रूप से कृषि, वाणिज्य तथा शिल्प कार्य करने का विधान किया गया है ।
इस प्रकार हम देखते है कि कृषि, वाणिज्य तथा शिल्प दोनों का सामान्य धर्म हो गया । अल्बरुनी के विवरण से पता चलता है कि वैश्यों तथा शूद्रों की स्थिति में कोई खास अन्तर नहीं था । इस काल के कुछ ग्रन्थ भी वैश्यों की दीन-हीन दशा का चित्रण करते हैं । विष्णुपुराण में कहा गया है कि कलियुग में वैश्य कृषि तथा व्यापार छोड़ देंगे तथा अपनी जीविका दासकर्म एवं कलाओं द्वारा कमायेंगे ।
स्कन्दपुराण में उल्लेख मिलता है कि कलियुग में व्यापारियों का पतन होगा । इनमें कुछ तेली तथा अनाज फटकने वाले होंगे तथा अन्य राजपुत्रों पर आश्रित होकर रहेंगे । विष्णु तथा वायु पुराण तो यहाँ तक बताते हैं कि कलियुग में वैश्य वर्ण वस्तुत: विलुप्त हो जायेगा ।
वैश्यों की यह स्थिति सामन्तों तथा जागीरदारों के अविर्भाव एवज व्यापार-वाणिज्य में हास के कारण हुई । पूर्व मध्यकाल के अरब लेखकों-इब्न खुर्दद्व तथा अल इदिसी ने भी अपने विवरणों में वैश्य जाति का उल्लेख नहीं किया है । आर्थिक स्थिति में गिरावट के साथ ही साथ वैश्य वर्ण की सामाजिक स्थिति में भी गिरावट आई ।
अल्वरुनी के विवरण को यदि प्रमाण माना जाय तो ग्यारहवीं शती तक आते-आते उन्हें वेदपाठ के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया । व्यापार-वाणिज्य के पतन के कारण व्यापारियों एवं व्यवसायियों की श्रेणियाँ भी महत्वहीन हो गयीं ।
जहाँ तक शूद्र वर्ण का प्रश्न है, हम देखते है कि पूर्व मध्यकाल के अनक विचारक उख कृषि-कार्य से सम्बन्धित करते हे । स्मृतिकार देवल ने कृषि को वैश्य तथा शूद्र दोनों का समान कार्य बताया है । शूद्रों की स्थिति में यह परिवर्तन सामन्ती प्रवृत्तियों के विकसित हो जाने के कारण हुआ । भूमि अनुदानों की अधिकता के कारण सामन्तों तथा भूस्वामियों की संख्या अधिक हो गयी ।
इन्हें अपने खेतों पर कार्य करने के लिये बड़ी संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता पड़ी । इसकी पूर्ति शूद्र वर्ण द्वारा ही सम्भव थी जो संख्या में अत्यधिक था । प्रभूत उत्पादन के कारण शूद्रों को भी कृषि की आय का अच्छा लाभ प्राप्त हुआ जिससे उनकी आर्थिक दशा काफी अच्छी हो गयी । इस प्रकार उन्होंने कृषि को वैश्यों के अधिकार से छीन लिया ।
यही कारण है कि पूर्व मध्यकाल के लेखक वैश्यों का उल्लेख केवल व्यापारी वर्ग के रूप में ही करते हैं । नवीं शती से जैन लेखक जिनसेन वैश्य वर्ण का तादात्म्य ‘वणिज’ (व्यापारी) वर्ग से करते हैं । तेरहवीं शती की रचना वृहद्धर्म तथा देवीभागवत में भी एकमात्र व्यापार-वाणिज्य को ही वैश्य की वृत्ति निरूपित किया गया है ।
इस प्रकार स्पष्ट कि अब वैश्य, कृषि के अधिकारी नहीं रहे । उनमें से कुछ निम्न श्रेणी के लोग शूद्र वर्ण के साथ संयुक्त हो गये । किन्तु ग्यारहवीं-बारहवीं शती में, जब व्यापार-वाणिज्य का पुनरुत्थान हुआ, तव वैश्य वर्ण की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ ।
इनमें से कुछ तो भूसम्पदा के स्वामी वन गये तथा गुजरात में इनकी गणना सामन्त वर्ग के अन्तर्गत की जाने लगी। बंगाल में भी अत्यन्त समृद्ध व्यापारियों का उदय हो गया । उन्होंने वारहवीं शती में सेन तथा गौड़ वंशी राजाओं से लोहा लिया ।
4. जातियों तथा उपजातियों की संख्या में वृद्धि (Increase in the Number of Castes and Sub-Castes):
पूर्व मध्यकालीन समाज की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इस समय जातियों तथा प्रजातियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो गयी । परम्परागत चार वर्ण भी अनेकानेक जातियों में बिखर गये तथा कई नई जातियों को इनके अन्तर्गत समाहित कर लिया गया ।
परम्परागत वर्णों के विघटित होने का सर्वाधिक प्रभाव ब्राह्मणों पर पड़ा । प्रारम्भ से ही ब्राह्मण गोत्र, प्रवर तथा शाखा के आधार पर विभाजित थे । वृत्ति, शिक्षा, धर्म, शुचिता, क्षेत्र, स्थान आदि के आधार पर भी उनमें भेद किया जाता था । भूमि अनुदानों की अधिकता के कारण ब्राह्मणों में दृढ़ स्थानीयता की भावना विकसित हो गयी जिसके परिणामस्वरूप पूर्व मध्यकाल में उनकी अनेक उपजातियाँ बन गयीं ।
स्थान-भेद के कारण उन्हें भिन्न-भिन्न नाम से जाना जाने लगा । राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय के एक लेख (926 ई॰) में उत्तर भारत के ब्राह्मणों के पाँच वर्गों का उल्लेख मिलता है- सारस्वत्, उत्कल, मेथिल तथा गौड़ । बंगाल के ब्राह्मणों की राष्ट्रीय तथा वारेन्द नामक दो शाखाओं का उल्लेख मिलता ।
परवर्ती मध्यकाल तक राढीय ब्राह्मणों की 56 उपजातियाँ वन गयी थीं । मुखोपाध्याय, वन्दोपाध्याय चट्टोपाध्याय जैसी बंगाली ब्राह्मण जातियों की उत्पत्ति ग्रामों के आधार पर हुई । सभाशृंगार में 34 प्रकार के ब्राह्मणों का उल्लेख मिलता है । हेमचन्द्र ने कलिंग, सुराष्ट्र, अवन्ति तथा काशी के ब्राह्मणों का उल्लेख किया है ।
कुछ विशेष स्थान के ब्राह्मण अपने को अन्य स्थानों के ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक पवित्र मानते थे । इनमें अन्तर्वेदी, श्रीमाल, आनन्द नगर (नागर) के ब्राह्मण थे । रूढिवादी लोग सौराष्ट्र, सिन्ध, दक्षिणापथ, कलिंग आदि के ब्राह्मणों को अपवित्र पाप-देशा मानते थे जिनके साथ खान-पान एवं विवाह का निषेध था ।
अल्वरुनी ने मग अथवा ‘शाकद्वीसपी’ ब्राह्मणों का उल्लेख किया है जो ईरान से भारत आये थे तथा सूर्य की पूजा करते थे । इसी प्रकार धार्मिक तथा दार्शनिक विचारधारा में मतभेद के आधार पर भी ब्राह्मण कई उपजातियों में विभाजित हो गये ।
ब्राह्मणों के ही समान क्षत्रिय वर्ण भी पूर्व मध्यकाल में कई उपजातियों में विभाजित हो गया । इस वर्ण के अन्तर्गत हम इस काल में ‘राजपूत’ नामक एक वीर एवं स्वाभिमानी जाति का आविर्भाव पाते हैं । वारहवीं शती तक आते-आते राजपूतों के 36 प्रसिद्ध राजवंश उत्तर भारत में स्थापित हो गये । इनकी उत्पत्ति विभिन्न कारणों से हुई ।
ऐसा प्रतीत होता है कि राजपूतों के विभिन्न कुलों की उत्पत्ति परम्परागत भारतीय वर्णो तथा विदेशी जातियों से हुई । ईसमें परम्परागत क्षत्रिय वर्ण के अतिरिक्त अन्य वर्ण भी शामिल थे । कुछ ब्राह्मण कुलों को भी राजसत्ता से संवद्ध होने के कारण ‘राजपूत’ कह दिया गया जैसा कि मक्यपुराण में उल्लिखित ‘ब्रह्मक्षत्र’ परम्परा से सूचित होता है ।
दसवीं शती के अरब यात्री ईब्ज खुर्दद्ब ने दो प्रकार के क्षत्रियों का उल्लेख किया है- सत्क्षत्रिय तथा क्षत्रिय । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम वर्ग में शासक तथा जमींदार थे जबकि दूसरे में सामान्य क्षत्रिय शामिल थे । सत्क्षत्रिय अपने को सामान्य क्षत्रियों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ मानते थे ।
इनमें वंशागत शुद्धता का भाव भी अधिक था । वारहवीं शती के अन्त तक हम क्षत्रिय कुलीनों तथा सामन्तों को विभिन्न श्रेणियों में संगठित पाते हैं- ‘राजपुत्र’ सामन्त, महासामन्त, माण्डलिक, महामाण्डलिक आदि । इस काल में ‘राजपुत्र’ शब्द भू-सम्पन्न कुलीनवर्ग का द्योतक हो गया ।
इस काल में स्थान तथा पेशे के आधार पर वैश्यों में भी कई उपजातियाँ बन गयी । गुजरात तथा राजस्थान में इनकी अनेक शाखायें थीं, जैसे- श्रीमाल, प्राग्वाट, उपकेश, धर्कट, पल्लिवाल, मोड़, गुर्जर, नागर, दिशावाल, दुम्बद आदि । कालान्तर में इनकी भी अनेकानेक जातियां गठित हो गयी ।
कुछ वैश्यों की शाखायें इनके द्वारा अपनाये गये पेशों के आधार पर भी गठित हुई, जैसे स्वर्ण का काम करने वाले चुवर्णवणिक तथा औषधियों का काम करने वाले ‘औषधिक’ कहे गये । वैश्यों में भी कुलीन तथा निर्धन वर्ग था । निर्धन वर्ग के लोग शूद्रों के साथ संयुक्त हो गये थे ।
पूर्व मध्यकालीन भारत की जातियों में सबसे बड़ी संख्या शूद्रों की ही थी । इस काल तक आते-आते हमें उनकी संख्या में भारी वृद्धि देखने को मिलती है । इससे स्पष्ट है कि इस काल के सामाजिक परिवर्तनों से शूद्र वर्ग के लोग ही सबसे अधिक प्रभावित हुए ।
परम्परागत पेशों के अतिरिक्त इस समय विविध शिल्पों के आधार पर भी बहुत सी जातियाँ संगठित हो गयीं जिनकी गणना इसी वर्ग के अन्तर्गत की जाती थी । हेमचन्द्र कृत अभिधानचिन्तामणि तथा देशीनाममाला यादवप्रकाश की वैजयन्ती नामक ग्रन्थों में शूद्रों की लम्बी सूची दी गयी है ।
इनके अनुसार शिल्पी, लुहार, वढृई, मोची, तेली, सोनार, बुनकर, धोवी, दर्जी, मालाकार, मदिरा-मांस विक्रेता, जादूगर, शिकारी, नर्तक आदि पेशेवर जातियां शूद्र थीं । अम्बप्ट एवं रथकार जैसी संकर जातियों तथा किरात, भील जैसी जनजातियों का उल्लेख भी अमरकोश और अभिधानचिन्तामणि में शूद्र वर्ग के अन्तर्गत हुआ है ।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अनुसार हजारों मिश्रित जातियों की उत्पत्ति वैश्य जाति की स्त्रियों तथा निम्न जाति के पुरुषों के सम्पर्क से हो गयी । स्कन्द पुराण में शूद्रों की अट्ठारह उपजातियों का उल्लेख मिलता है- शिल्पी, बढ़ई, कुम्हार, वार्धिक, चित्रक, सूत्रक, धोबी, गच्छक, जुलाहा, तेली, चमार, शिकारी, बाजा बजाने वाला, कौलिक, मछुआ, औनामिक तथा चाण्डाल ।
इनका विभाजन उत्तम, अधम तथा अज्यज, तीन कोटियों में किया गया है । वर्णरत्नाकर नामक ग्रन्थ में आदिवासी जातियों की एक लम्बी सूची मिलती है । हेमचन्द्र ने शक, यवन, रोमक, मुरुण्ड, चीन, हूण आदि विदेशी तथा शबर, भील, पुलिन्द, किरात, खस, गोंड़, द्रविड़ आदि देशी आदिम जातियों को प्लेच्छ बताया है । ये सभी शूद्र वर्ण के अन्तर्गत थीं ।
पूर्व मध्यकालीन समाज में अछूतों की संख्या में भी बहुत अधिक वृद्धि हो गयी । इनमें अधिकांशत पिछड़ी जनजातियों के लोग शामिल थे । आर॰एस॰शर्मा के अनुसार ‘चूँकि पूर्व मध्यकाल में बहुत बड़े पैमाने पर ब्राह्मणीकरण हुआ, इसलिये अछूत जातियों की संख्या में काफी वृद्धि हुई ।’ अछूतों को ‘अन्त्यज’ कहा गया है जो तथा नगरों की सीमाओं के बाहर निवास करते थे ।
अल्वरुनी ने धोबी, मोची, मछुआ, माझी, शिकारी, बुनकर आदि को अन्त्यजों कहा है । विज्ञानेश्वर ने धर्मशास्त्रों में उल्लिखित परम्परागत सात अन्त्यजों के साथ-साथ सात अज्यावसायिनों का भी उल्लेख किया है जो अन्त्यजों की अपेक्षा हीन समझे जाते थे ।
तेरहवीं शती के विचारक हेमाद्रि ने सात अन्त्यजों की सूची में नौ अन्य जातियों-तक्षक, स्वर्णकार, शौचिक, तिलयन्त्री, सूत, चक्री, ध्वजी, नापित तथा लोहार-को भी जोड़ दिया है । पूर्व मध्यकाल में अनेक पेशेवर जातियाँ अछूतों की श्रेणी में सम्मिलित कर ली गयीं थी । अस्पृश्यता सम्बन्धी नियमों को इस युग में विस्तृत बना दिया गया था ।
अछूतों में चाण्डाल प्रमुख थे जिन्हें उनके आचरण के कारण अपवित्र माना जाता था । डोम तथा चर्मकार भी बारहवीं शती तक अछूत माने जाने लगे । हेमचन्द्र कृत देशीनाममाला से सूचित होता है कि वे बाहर निकलते समय छड़ी पीटते हुए चलते थे ताकि लोग उनके सम्पर्क से बच सकें ।
इस काल में छुआछूत की भावना की प्रबलता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अपरार्क तथा विज्ञानेश्वर जैसे व्यवस्थाकारों ने यह मत व्यक्त किया कि चाण्डाल की छायामात्र पड़ने से ही व्यक्ति अपवित्र हो जाता है । किन्तु मेधानिथि तथा कुल्लूकभट्ट जैसे टीकाकारों ने इस प्रकार का मत व्यक्त नहीं किया है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अब हिन्दू समाज का काफी बड़ा भाग अस्पृश्य समझा जाने लगा । इस काल के स्मृतिकारों ने ब्राह्मणेतर धर्मों-बौद्ध, जैन, वाममार्गी शाक्त आदि, के अनुयघयियों को भी अस्पृश्य धोषित कर दिया । वृद्धहारीत में शैवों को भी अस्पृश्य बताया गया है ।
पूर्व मध्यकाल में शिल्प को जाति का आधार मान लिया गया । इस काल के प्रथम चरण में व्यापार-वाणिज्य के पतन के कारण विभिन्न शिल्पी एक ही स्थान से बँध गये तथा उनका अपना अलग-अलग वर्ग बन गया । संकीर्णतास के कारण उनका स्वरूप जाति जैसा ही हो गया। चूंकि इन सभी को शूद्र वर्ग में ही समाहित किया गया, इस कारण भी शूद्रों की संख्या में अधिक वृद्धि हो गयी ।
समाज में जातियों की संख्या में जो अप्रत्याशित हुई उसका एक कारण इस समय के जैन, शैव, वैष्णव आदि धर्मों का अनेक सम्प्रदायों में विभाजित होना भी विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी अपने आप में ही सीमित हो गये । अपनी कट्टरता एवं संकीर्णता के कारण ये सम्प्रदाय पूर्व मध्यकाल में विभिन्न जातियों के रूप में परिणत हो गये तथा इनमें ऊँच-नीच की भावनायें घर कर गयीं ।
इस प्रकार पूर्व मध्यकाल में हिन्दू समाज के जातिगत विघटन की प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी थी । इस काल में स्पष्टत: हम सामाजिक संगठन में हास के लक्षण देखते हैं । विभिन्न वर्णों एवं जातियों के लोग अपने-अपने कर्त्तव्य कर्मों के प्रति उदासीन हो गये । कुलीन वर्गों में सुख एवं वैभव की चाह अधिक हो गयी ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि अपने परम्परागत कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों से विमुख हो भोग विलास में लिप्त हो गये । सामन्ती मनोवृत्ति बलवती हो गयी । अस्पृश्यता एवं शौचाचार की भावना पहले की अपेक्षा अधिक प्रबल हो गयी । समाज के उच्च तथा निम्न वर्गों का अन्तर बहुत अधिक बढ़ गया । इस्लाम के प्रहार ने हिंदू समाज को संकीर्ण एवं अन्तर्मुखी बना दिया । अब सामाजिक संगठन पूर्णतया प्रतिरक्षात्मक हो गया ।