महाकाव्य काल: परिचय तथा दशा | Read this article in Hindi to learn about the foundation and conditions during epic age.

महाकाव्य काल का परिचय (Foundation of Epic Age):

महाकाव्य काल से तात्पर्य रामायण और महाभारत के समय से है । भारतीय लोक-जीवन में इन दोनों ही ग्रन्थों का अत्यन्त आदरपूर्ण स्थान है । रामायण हमारा आदि-काव्य है जिसकी रचना महर्षि वाल्मीकि ने की थी । महाभारत की रचना वेदव्यास ने की थी ।

रामायण में दिये गये भौगोलिक विवरणों के आधार पर यह महाभारत से प्राचीनतर प्रतीत होता है । महाभारत में बाल्मीकि का में केवल उल्लेख है, अपितु रामायण की संक्षिप्त कथा भी मिलती है । हरिवंश में रामायण के नाटकीय प्रदर्शन का भी विवरण है । इन सबसे यही प्रतिपादित होता है कि महाभारत के वर्तमान स्वरूप में आने के पूर्व ही रामायण एक प्रसिद्ध ग्रन्थ बन चुका था ।

रामायण की रचना-काल के विषय में पर्याप्त मतभेद है । विररनित्स का विचार है कि मूलत इस ग्रन्थ की रचना ई॰ पू॰ चौथी शताब्दी में हुई तथा इसका अन्तिम स्वरूप दूसरी शताब्दी ईस्वी के लगभग निश्चित हुआ था । सम्प्रति इसमें चौबीस हजार श्लोक है जिससे इसे अंकन ‘साहत्री संहिता’ कहा जाता है । महाभारत की रचना का मूल समय भी ई॰ पू॰ चौथी शताब्दी माना गया है तथा इसकी वर्तमान स्वरूप की तिथि चौथी शताब्दी ईस्वी निधार्रित की जाती है ।

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सम्प्रति महाभारत में एक लाख श्लोकों का संग्रह है जिसके कारण इसे ‘शतसाहस्त्र संहिता’ कहा जाता है । इन दोनों ही महाकाव्यों में प्राचीन हिन्दू सभ्यता की झाँकी सुरक्षित है । कुछ पाश्चात्य विद्वानों की यह धारणा है कि ये पूर्णतया लाक्षणिक ग्रन्थ (Allegorical Works) है जिनमें कोई ऐतिहासिक सामग्री नहीं हैं परन्तु सहसा इस प्रकार के निष्कर्ष पर पहुँच जाना सत्य से परे होगा ।

इसमें संदेह नहीं कि इन दोनों ग्रन्थों में अनेक अतिश्योक्तिपूर्ण विवरण भरे पड़े हैं तथापि केवल इसी आधार पर इन्हें पूर्णतया अनैतिहासिक नहीं कहा जा सकता । आजकल अधिकांश विद्वान् महाभारत युद्ध को एक ऐतिहासिक घटना मानते हुए उसकी तिथि ई॰ पू॰ 1400 से 1800 के बीच निर्धारित करते हैं । इस तिथि के काफी बाद ग्रन्थ का प्रणयन हुआ होगा ।

महाकाव्य काल की दशा (Conditions during Epic Age):

यहां हम इन दोनों महाकाव्यों में वर्णित राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक दशाओं का उल्लेख करेंगे:

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i. राजनीतिक दशा:

महाकाव्य काल तक आते-आते आर्यों का प्रसार पूर्व की ओर अंग तक हो गया । देश में बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना हुई । कुरु, पंचाल, कौशाम्बी, कोशल, काशी, विदेह, मगध, अड्ग इस युग के विशाल राज्य थे । राजा महाराजाधिराज, सम्राट, चक्रवर्ती जैसी विशाल उपाधियाँ धारण करते थे ।

राजा चतुरंगिणी सेना रखते थे जिसमें अश्व, गज, रथ तथा पैदल सैनिक होते थे । वे दिग्विजयी होते थे तथा दिग्विजय के पश्चात् राजसूय, अश्वमेध आदि यज्ञों के अनुष्ठान करते थे । श्रीराम एवं युधिष्ठिर ने ऐसे यंत्र किये ये । राजपद वंशानुगत होता है ।

परन्तु ज्येष्ठ पुत्र यदि शरीर से दोषपूर्ण होता था तो उसे राजपद नहीं किया जाता था, जैसे- महाभारत में धृतराष्ट्र को अन्धा होने के कारण राजा नहीं बनाया गया। राजा धर्मानुकूल शासन करते थे और वे निरंकुश नहीं होते थे । अभिषेक के अवसर पर राजा को प्रजा-पालन की शपथ लेनी पड़ती थी ।

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महाभारत स्पष्टतः अन्यायी एव दुराचारी शासकों के वध करने की अनुमति प्रदान करता है । इसमें हमें वेण, नहुष, निमि, सुदास जैसे राजाओं के नाम मिलते है जो अत्याचारी होने के कारण अपनी प्रजा द्वारा मार डाले गये थे ।

राजा मत्रिपरिषद् की सलाह पर शासन-कार्य करता था। रामायण में मन्त्रियों के अतिरिक्त विद्वान् व्यक्तियों तथा प्रमुख सैनिक पदाधिकारियों का उल्लेख है जो शासन में राजा को परामर्श देते थे । राम के उत्तराधिकारी निर्वाचित होने के समय प्रमुख पुरुषों की एक सभा हुई थी ।

‘अयोध्याकाण्ड’ में प्रशासन के 18 विभागों का उल्लेख हुआ है जो निम्नलिखित अधिकारियों के अधीन थे:

(1) मन्त्री (मुख्य सलाहकार)

(2) पुरोहित

(3) युवराज

(4) चमूपति (मुख्य सेनापति)

(5) द्वारपाल

(6) अन्तर्वेशक (अन्त:पुर का निरीक्षण)

(7) कारागार अधिकारी

(8) द्रव्य संचयकृत (राजभवन का मुख्य परिचारक)

(9) विनियोजक (मुख्य कायाधिकारी)

(10) प्रदेष्टा (मुख्य न्यायाधीश)

(11) नगराध्यक्ष

(12) कार्य-निर्माण कृत (मुख्य अभियन्ता)

(13) धर्माध्यक्ष

(14) सभाध्यक्ष

(15) दण्डपाल

(16) दुर्गपाल

(17) राष्ट्रान्तपालक (सीमारक्षक) तथा

(18) अटवीपाल (अरण्य संरक्षक) ।

महाभारत में भी मन्त्रियों का उल्लेख मिलता है । एक स्थान पर बताया गया है कि जिस प्रकार पशु मेघ पर, स्त्री अपने पति पर तथा ब्राह्मण वेद पर निर्भर करते हैं उसी प्रकार राजा अपने मन्त्रियों पर निर्भर करता है । इस ग्रन्थ में मन्त्रियों की संख्या 36 बताई गयी है जो चारों वणों से लिये जाते थे । प्रशासन में पुरोहितों का भी महत्वपूर्ण स्थान होता था । इन विभागों को तीर्थ कहा जाता था ।

महाकाव्य काल में मुख्य रूप से राजतन्त्र का बोल-बाला था । महाभारत में पाँच गणतन्त्रात्मक राज्यों का भी उल्लेख मिलता है- अन्धक, वृष्णि, यादव, कुकुर तथा भोज । इन पाँचों का एक संघ था जिसके अध्यक्ष कृष्ण थे । इस संघ के अन्तर्गत प्रत्येक गण को स्वायत्त शासन प्राप्त था ।

ii. सामाजिक दशा:

महाकाव्य युगीन समाज भी वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था । ऋग्वेद के समान रामायण में भी बताया गया है कि विराट पुरुष के मुँह से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उरुभाग से वैश्य तथा पैरों से बद वर्णों की उत्पत्ति हुई । चारों वर्णों में ब्राह्मण अब भी सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे । रामायण तथा महाभारत में ब्राह्मणों की कई कोटियां बताई गयी । कुछ ब्राह्मण क्षत्रियों का काम करते तथा कुछ लोग कृषि तथा पशुपालन द्वारा भी अपनी जीविका चलाते थे ।

सामाजिक व्यवस्था में शूद्रों का स्थान सबसे नीचे था। उन्हें न तो तपस्या का अधिकार था और न वे विद्याध्ययन के लिये गुरुकुलों में ही जा सकते थे । रामायण ये शम्बूक नामक एक शूद्र का उल्लेख हुआ है जो अनाधिकार तप करने के कारण स्वयं राम के हाथों मारा गया ।

इसी प्रकार एकलव्य नामक निषाद बालक को द्रोणाचार्य ने शिक्षा देने से इंकार कर दिया तथा अपनी निष्ठा एवं लगन से जब उसने स्वयं ही धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त कर ली तो छल से उसके दायें हाथ का अंगूठा कटवा दिया था । किन्तु इस काल में हमें शूद्रों की स्थिति में सुधार के भी चिह्न मिलते है ।

शान्तिपर्व में जोर देकर कहा गया है कि शूद्र सेवकों का भरण-पोषण करना द्विज का कर्तव्य है । यह भी पता चलता है कि मंत्रिपरिषद में शूद्र प्रतिनिधि रखे जाते थे । युधिष्ठिर ने राजसूय यंत्र के अवसर पर शूद्र प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया था ।

सर्वप्रथम शान्तिपर्व में ही यह विधान मिलता है कि चारों वर्णों को वेद चाहिए तथा शूद्र से भी ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । महाभारत में विदुर, मातंग, कायव्य आदि व्यक्तियों के नाम ऐसे जो जन्मना शूद्र होते हुए भी समाज में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किये हुए थे । सेवावृत्ति के अतिरिक्त उन्हें ‘वार्ता’ अर्थात् कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि का भी अधिकार था ।

वर्ण क्रमश कठोर होकर जातियों का रूप लेने लगे थे । परम्परागत चारों वर्णों के अतिरिक्त समाज में अनेक जातियाँ उत्पन्न हो गई थी । रामायण में यवन, शक तथा महाभारत में यवन, शक, किरात, पह्लव, आदि विदेशी जातियों का भी उल्लेख मिलता है । समाज में चारों आश्रमों का विधान इस युग में भी देखने को मिलता है ।

शान्तिपर्व में चारों आश्रमों को ब्रह्मालोक में पहुँचने के मार्ग में चार सोपान बताया गया है । समाज में चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम का सर्वाधिक महत्व था । महाकाव्य काल में स्त्रियों की दशा वैदिक काल की अपेक्षा हीन थी । फिर भी समाज में उनके महत्व को समझा गया था ।

बाल विवाह नहीं होते थे । उच्च-वर्ग की महिलायें पर्याप्त शिक्षिता होती थीं । रामायण में कौशल्या और तारा को ‘मंत्रिविद्’ कहा गया है । अत्रेयी वेदान्त का अध्ययन करती हुई तथा सीता संध्या करती हुई दिखाई गई है । महाभारत में द्रौपदी को ‘पण्डिता’ कहा गया है ।

वह युधिष्ठिर तथा भीष्म में धर्म एवं नैतिकता के ऊपर वार्तालाप करती है । महाभारत स्त्री को धर्म, अर्ध तथा काम का मूल बताता है । अनुशासन पर्व में कहा गया है कि स्त्रियाँ समृद्धि की देवी है । अतः समृद्धि चाहने वाले व्यक्ति को उनका सम्मान करना चाहिये ।

समाज में बहुविवाह तथा अन्तर्जातीय विवाह का प्रचलन था । उच्चकुल के लोग अनेक पत्नियाँ रखते थे । क्षत्रिय कुलों में विवाह स्वयंवर प्रथा द्वारा होते थे । नियोग की प्रथा भी प्रचलित थीं जिसमें पति के नपुंसक अथवा रुग्ण होने पर पत्नी पर पुरुष वो साथ सन्तानोत्पत्ति हेतु सम्पर्क कर सकती थीं ।

महाभारत में सती-प्रथा के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं, जैसे- माद्री अपने पति पाण्डु के साथ सती हो गई थी। किन्तु कई उदाहरण ऐसे भी है जहाँ स्त्रियों ने अपने पतियों की मृत्यु के बाद सतीत्व का अनुसरण नहीं किया । अभिमन्यु, घटोत्कच तथा द्रोण की पत्नियाँ सती नहीं हुई ।

हजारों यादव-विधवाओं का भी उल्लेख मिलता है जो अर्जुन के साथ हस्तिनापुर तक गयी थीं । ऐसा प्रतीत होता है कि शक-सीथियनों के आक्रमण के फलस्वरुप समाज में सती-प्रथा का प्रचार धीरे-धीरे बढ़ने लगा था । कहीं-कहीं पर्दा-प्रथा के उदाहरण भी मिलते है । इस पर भी विदेशी आक्रमण का ही प्रभाव था । महाभारत में वेश्याओं के भी उल्लेख मिलते है ।

iii. आर्थिक दशा:

महाकाव्यों के काल में भी कृषि तथा पशुपालन आर्थिक जीवन के मुख्य आधार थे । हलों द्वारा कृषि होती थी जिन्हें बैलों की सहायता से खींचा जाता था । रामायण में राजा जनक को तथा महाभारत में युधिष्ठिर को हल चलाते हुए दिखाया गया है । इससे कृषि की महत्ता प्रतिपादित होती है ।

सिंचाई के लिये लोगों को अधिकतर वर्षा पर ही निर्भर रहना पड़ता था । सिंचाई के लिये ‘कुल्याओं’ (छोटी नहरों) का भी उल्लेख मिलता है । राज्य कृषि की उन्नति की ओर विशेष ध्यान देता था । कृषि में उत्पन्न होने वाली प्रमुख फसलें गेहूँ जी, उड़द, चना, तिल आदि थी ।

भूमि उपजाऊ थी । पशुओं में गाय, बैल, हाथी, घोड़े अदि प्रमुख थे । पशुओं की देख-रेख के लिये ‘गोपाध्यक्ष’ नामक पदाधिकारी राज्य की ओर से नियुक्त किया गया था । कृषि एवं पशुपालन के साथ-साथ व्यवसाय एवं व्यापार भी उन्नति पर थे । महाभारत में अनेक व्यवसायियों का उल्लेख मिलता है जो विभिन्न स्थानों में श्रेणियाँ बनाकार निवास करते थे ।

प्रमुख व्यवसायियों में स्वर्णकार, लौहकार, बढ़ई, खनक, कुम्भकार, चर्मकार, रजक, शौण्डिक, तन्तुवाय, कम्बलकार, वैद्य, मालाकार, नापित आदि का उल्लेख किया जा सकता है । अनेक व्यवसायी अपने शिल्पों में निपुणता भी प्राप्त कर चुके थे । हाथीदांत, स्वर्ण, मणि तथा विविध रत्नों से सुन्दर आभूषण बनाये जाते थे । आन्तरिक तथा वाह्य दोनों ही व्यापार उन्नति पर थे । व्यापार मुख्यतः वैश्य जाति के लोग ही करते थे ।

रामायण में ‘यवद्वीप’ तथा ‘सुवर्ण द्वीप’ का उल्लेख हुआ है जहां व्यापार के प्रसंग में भारतीय जाया करते थे । महाभारत में भी समुद्री यात्राओं, द्वीपों, जलपोतों आदि का उल्लेख मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि उस समय समुद्री व्यापार उन्नति पर था । कम्बोज, गन्धार, सिन्ध, प्राग्ज्योतिष (असम), विन्ध्यपदेश, चीन तथा बाह्लीक आदि देशों से व्यापार होता था तथा अनेक वस्तुऐं मँगायी जाती थी । कम्बोज तथा बाह्लीक अपने उत्तम घोड़ों के लिये विख्यात थे ।

iv. धार्मिक दशा:

महाकाव्यों के समय तक आते-आते वैदिक धर्म का स्वरूप बिल्कुल परिवर्तित हो गया । पूर्व-वैदिक कालीन कर्मकाण्ड प्रधान तथा उत्तर-वैदिक कालीन ज्ञान प्रधान धर्मों का समन्वय करके इस समय एक लोक धर्म का विकास किया गया जो सर्व-साधारण के लिये सुलभ था ।

पुराने वैदिक देवताओं का महत्व कम हो गया तथा समाज में नये देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा हुई । इनमें सहा, विष्णु, शिव, गणेश, पार्वती, दुर्गा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) को त्रिमूर्ति कहा गया तथा उन्हें क्रमश. सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता एवं संहर्त्ता स्वीकार किया गया ।

शीघ्र ही ब्रह्मा का अस्तित्व समाप्त हो गया तथा शिव और विष्णु महाकाव्य कालीन धर्म के प्रमुख देवता रह गये । धर्म में अवतारवाद एवं पुनर्जन्म की अवधारणाओं का समावेश हुआ । राम और कृष्ण विष्णु के अवतार मान लिये गये। यह धारणा प्रचलित हुई कि अपने भक्तों की सहायता के लिये ईश्वर समय-समय पर पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतार लेता हैं । वह धर्म की स्थापना करता है, सज्जनों की रक्षा करता है तथा दुष्टों का विनाश करता है ।

महाकाव्यों ने सामान्य जनता के समक्ष मोक्ष-प्राप्ति का एक सरल उपाय प्रस्तुत किया । यह था भक्ति का साधन जो सभी के लिये समान रूप से सुलभ था । ईश्वर भक्ति से प्रसन्न होकर उपासक को सभी पापों से मुक्त कर अपनी शरण में ले लेता है । महाभारत में पञ्चरात्र वैष्णव धर्म का वर्णन मिलता है ।

महाभारत में जोर देकर कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मान्यता के अनुसार धर्मपालन की स्वतंत्रता होनी चाहिए । इसमें शैव तथा शाक्त धर्मों के प्रति सहिष्णुता तथा उदारता पर भी बल दिया गया है । भगवद्‌गीता महाभारत के ‘भीष्मपर्व’ का अंश है । इसमें कर्म, भक्ति तथा ज्ञान इन तीनों का सुन्दर समन्वय मिलता है । गीता में कर्म की महत्ता प्रतिपादित की गयी है ।

भक्ति का महत्व बताते हुए कृष्ण स्वयं यह कहते है कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी ही शरण में आओ । मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत करो । रामायण तथा महाभारत में अनेक वैदिक यज्ञों का भी उल्लेख मिलता है । परंतु यज्ञों में होने वाली हिंसा का विरोध किया गया । यह को इस समय मुख्यतः चित्त शुद्धि का एक साधन-मात्र स्वीकार किया गया । इसके अतिरिक्त महाकाव्यों में सत्य, अहिंसा, सदाचार, तप, त्याग आदि के पालन का भी उपदेश दिया गया है ।

महाकाव्यों का मुख्य उद्देश्य समाज में सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा करना था । विभिन्न कथाओं तथा चरित्रों के माध्यम से असत्य पर सत्य तथा अन्याय पर न्याय की विजय प्रदर्शित की गयी है । रामायण में सच्चरित्रता पर विशेष बल दिया गया है तथा कहा गया है कि यह चरित्र ही है जो मनुष्य को देवता की कोटि में पहुँचाता है । महाकाव्यों द्वारा प्रतिपादित आदर्श प्रत्येक युग के लिये अनुकरणीय है ।

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