सूफी समुदाय: महत्व और फॉर्म (निबंध) | Sufi Samudaay: Mahatv Aur Phorm (Nibandh) | Essay on Sufi Community in Hind!
1. प्रस्तावना ।
2. सूफी मत का अर्थ ।
3. सूफी मत का प्रचार ।
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4. सूफी मत के सिद्धान्त एवं महत्त्व ।
5. विभिन्न सूफी सम्प्रदाय ।
6. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
मध्यकाल में भारत में भक्ति आन्दोलन के साथ-साथ सूफी आन्दोलन भी लोकप्रिय हुआ तथा जनता के हृदय पर अपनी अमिट छाप छोड़ी । सूफी आन्दोलन हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक था । सूफी मत मानव सृष्टि को चरमोत्कर्ष तथा ईश्वर के रूप की पूर्ण अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार करता है ।
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सूफी मत में मानव की पूर्ण मान्यता है । प्रत्येक मानव में परिपूर्णता का बीज सुप्तावस्था में पड़ा है, अत: इसमें ईश्वरीय गुणों के प्रस्फुटन की सम्भावना बनी रहती है । सूफी मानव-जीवन की परिमिति ‘फना’ और ‘बका’ में मानते हैं ।
फना को ईश्वर में विलीन होना, बका में ईश्वर का अवस्थान होना । इस तरह ईश्वरीय तथा मानव गुणों की प्राप्ति के बाद अहं भाव समाप्त होता है, वहीं प्रेम की पीर का उदय होता है । आत्मसमर्पण के बाद मनुष्य अपनी इच्छा का लोप कर अल्लाह में विलीन हो जाता है ।
2. सूफी का अर्थ:
सूफी शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों की धारणा है कि मदीना में मस्जिद के सामने एक सुक्पन (चबूतरा) था । उस पर जो फकीर आसन लगाते थे, वे ही सूफी कहलाये । कुछ विद्वान् इसे ग्रीक शब्द सोफिया ज्ञान का रूपान्तर मानते हैं ।
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कुछ सूफी को ‘सूपा’ से निकला मानते हैं, जिसका अर्थ होता है: ”अग्रिम पंक्ति” । कयामत के दिन सदाचार और पवित्रता में जो श्रेष्ठतम होते हैं, वे ही अग्रिम पंक्ति में खड़े होंगे । वे ही सूफी होंगे । सूफी शब्द की खुत्पति सफा शब्द से मानकर कुछ इसे पवित्रता और विशुद्धता को ग्रहण करने वालों को सूफी कहते हैं ।
विद्वानों का बहुमत इस पक्ष की ओर है कि सूफी शब्द की खुत्पति ‘सूफ’ ऊन से हुई है । मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद जो संन्यासी ऊनी कम्बल ओढ़कर घूमा करते थे और लोगों के बीच अपने मत का प्रचार करते थे, वे ही सूफी कहलाते थे ।
3. सूफी मत का प्रचार:
सूफी मत मूलत: इस्लाम से जन्मा है, जो भारत में फलता-फूलता रहा । कुछ विद्वानों का मत है कि मुस्लिम आक्रमण से पूर्व वह भारत में प्रवेश कर चुका था । अरब यात्रियों के साथ सूफी फकीर भारत आया करते थे ।
उन्होंने दक्षिण भारत तथा सिन्ध में इसका प्रचार किया । अलहल्लाज के बारे में कहा जाता है कि वह योग सीखने के लिए भारत आया था, जिसे अनहलक लै अल्लाह दूए कहने के अपराध में फांसी पर चढ़ा दिया गया था ।
सूफी मत का वास्तविक प्रचार अबुलहसन ने किया । उन्होंने अपनी पुस्तक ”कश्फुऊ महक” में इस मत की सुन्दर व्याख्या की । उदारवादी विचारधारा के कारण प्रसिद्ध हुए । सूफी मत के प्रसिद्ध प्रचारक भारत में सन्त ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती थे ।
वे 1143 में सिरतान में जन्मे थे । अपने मत का प्रचार करने वे वहां से भारत आये थे । अन्य सूफी प्रचारकों में बाबा फखरूद्दीन, मोहम्मद दराज थे, जिन्होंने अपने शुद्ध साहित्यिक, धार्मिक, सरल आचरण से जनता के हृदय में अपना स्थान बना लिया था ।
4. सूफी मत के सिद्धान्त एवं महत्त्व:
वेदाना का वह सिद्धान्त ‘अहं ब्रह्मास्मि’ सूफी मत के अनहलक हक्क से समानता रखता है । (सूफी ब्रह्म अल्लाह) जीव (इंसान में अन्तर नहीं करते) वे ईश्वर को निर्गुण, निराकार, सर्वातर्यामी एवं अमर सौन्दर्य से युक्त मानते हैं, जिसकी प्राप्ति प्रेम तथा संगीत के माध्यम से की जा सकती है ।
वे ईश्वर को प्रियतमा और आत्मा को ‘प्रियतम’ मानते हैं । जब व्यक्ति अहं तथा भ्रम का त्याग कर सृष्टि के सौन्दर्य को अल्लाह के सौन्दर्य का दर्पण समझने लगता है, तब उसका अपने शरीर से मोह छूट जाता है । यही मोक्ष की स्थिति है ।
सृष्टि के सम्बन्ध में सूफी सन्तों की मान्यता है कि ब्रह्म एक अलौकिक शक्ति है, जिसे रूह कहते हैं । इसी रूह (आत्मा) के लिए सृष्टि व्याकुल रहती है । सृष्टि अल्लाह के दर्शन का दर्पण है इस दर्पण में अल्लाह की परछाई मानव है । अल्लाह मानव में आत्म दर्शन करता है । अत: सूफियों ने इंसानी प्रेम को महत्च दिया है । सूफी साधना के चार अंग हैं: 1. शरीयत, तरीकत, मारिफत और हकीकत ।
अपने प्रथम अंग में साधक अपनी भूलों के लिए पश्चाताप करता है और आगे सावधानी से ईश्वरीय गुणों के पालन की प्रतिज्ञा लेता है । तरीकत में वह सांसारिक कार्यों का त्याग कर मन, कर्म, वचन से शुद्धाचरण का संकल्प लेता है ।
ईश्वर का चिन्तन करते हुए वह अपने तथा उसके बीच के अन्तर को दूर करने का प्रयत्न करता है । यही उच्चतम अवस्था है, इसी को एकीकरण या वक्ल कहते हैं । इस आलम प्रेम मग्नावरथा में मुरीद साधक अपने होश खो बैठता है । यही दशा ईश्वर व साधक के अभेदोपलव्यि की है ।
सूफी साधना की क्रियाओं में नमाज, कुरान शरीफ का पाठ, चुने हुए भजनों का पाठ, आत्मनिग्रह, चिन्तन, मौन जप, गुरा का स्मरण तथा संयम को विशेष महत्त्व देते हैं । पीर औलिया मजारों की पूजा करते हैं । इसमें दीक्षित होने वाले व्यक्ति को गुरा या पीर के समक्ष प्रतिज्ञाएं लेनी पड़ती हैं ।
शैतान विप्न पैदा कर शिष्य की परीक्षा लेता है । गुरा शिष्य की रक्षा करता है । सूफी माशूक और आशिक के रतिभाव से अलौकिक ईश्वर को प्राप्त करते हैं । ईश्वर अति सुन्दर है । इसमें शारीरिक, मानसिक, आत्मिक तीनों प्रकार का सौर्न्दय पाया जाता है, जिसकी प्राप्ति के लिए हृदय की पवित्रता जरूरी है ।
हृदय रूपी दर्पण के स्वच्छ होते ही उसमें ईश्वर का प्रतिबिम्ब दिखाई देने लगता है । सूफी मानते हैं कि ईश्वर {खुदा} हर जगह है । जिधर देखता हूं, उधर तू ही तू है । कि हर में जलवा तेरा हूबहू है । सूफी मानव योनि को सर्वाधिक श्रेष्ठ मानते हैं ।
संगीत के माध्यम से वस्त की स्थिति में पहुंचकर उसकी दशा पाना हो जाती है, अर्थात ईश्वर में लीन हो जाती है । सूफी काव्य धारा में तथा प्रेमानाख्याक काव्य धाराओं में अधिकांश हिन्दू घरानों की कहानियां
हैं । इन्हें ब्राह्मण वर्ग के काफी विरोध का सामना करना पड़ा था । हिन्दू और मुसलमान दोनों जातियों के असंख्य लोग इनके भक्त बन गये । कुछ भक्त ब्राह्मण हुसैनी ब्राह्मण के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के प्रमुख शिष्यों के ख्वाजा कुतुबुद्दीन, बाब फरीद, निजामुद्दीन औलिया इन सभी ने मनुष्य की सेवा करने पर प्रमुख रूप से बल दिया । ये सभी आध्यात्मिक पूजा-पाठ की तुलना में मानव सेवा को अधिक महत्त्व देते हैं ।
5. विभिन्न सूफी सम्प्रदाय:
सूफी सम्प्रदायों में चिश्ती सम्प्रदाय, सुहरावर्दिया सम्प्रदाय, कादरी सम्प्रदाय, नक्याबन्दिया सम्प्रदाय, सत्तारी संप्रदाय हैं । चिश्ती सम्प्रदाय के प्रवर्तक ख्वाजा आबू अछल्लाह चिश्ती थे । वे अपनी योग्यता और सादगी के कारण भारत में अत्यन्त सम्मानित हुए ।
उन्हें सुल्तान उल हिन्द (भारत के आध्यात्मिक बादशाह) की उपाधि प्रदान की गयी थी । कादरी सम्प्रदाय-सन् 1508 के लगभग बगदाद के शेख अचूल कादिर जिलानी ने इस सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया था ।
कादरी सम्प्रदाय: इस सम्प्रदाय के संस्थापक ख्वाजा वहांअलदीन थे । इस सम्प्रदाय के लोग धार्मिक आडम्बरों से घृणा करते थे ।
सत्तारी सम्प्रदाय: इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक अकुल सत्तार थे । उन्होंने इसका प्रवर्तन में किया । इस सम्प्रदाय के प्रमुख सिद्धान्तों में ध्यान करना समय नष्ट करना है, आत्मनिषेध करना ठीक नहीं । पाश्विक रूप भक्ति में बाधक है ।
6. उपसंहार:
इस तरह सूफी मत हिन्दू-मुस्लिम एकता के साथ-साथ अपने आध्यात्मिक उद्देश्यों के कारण महत्त्वपूर्ण रहा । सूफी मत की चिश्ती शाखा वेदान्त से प्रभावित थी । उनकी समाधि पर हर वर्ष वार्षिक उर्स पर असंख्य मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दू भी एकत्र होते हैं ।
हिन्दू-मुस्लिम की मिली-जुली संस्कृति की नींव तथा एकता रखने में इस आन्दोलन का काफी प्रभाव रहा । कालान्तर में कुछ परिस्थितियों एवं घटनाओं के कारण इसका अवसान होने लगा, तथापि सूफी मत हिन्दू-मुस्लिम एकता और धार्मिकता के सच्चे स्वरूप का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करता है ।
घरों में लोककथाओं में प्रचलित थीं, जिनमें अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना हैं । लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम को पाया जाता है । इन कथाओं में नायक मानव की आत्मा है, नायिका ईश्वर है । आत्मा-परमात्मा के मिलन में शैतान बाधक है ।
गुरा के मार्गदर्शन में साधक इन बाधाओं को पार कर ईश्वर तक पहुंचता है । सूफी प्रेमानाख्याकों में हिन्दू-मुसलमानों दोनों ही साहित्य धाराओं का प्रभाव है । यह अधिकांशत प्रबन्ध शैली में है । इसमें मुल्ला दाउद का चंदायन, शेख कुतुबन का मृगावती, जायसी रचित पद्यावत, मंझन की मधुमालती, उसमान कृत चित्रावली, न्यामत खां लिखित जान, कासिम शाह की हंसजवाहर प्रसिद्ध हैं ।