ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था | Indian Economy during British Rule.

अठारहवीं सदी के अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों के बीच उपनिवेशी सत्ता किस तरह भारत की खेतिहर अर्थव्यवस्था से अधिशेष निचोड़ने की व्यवस्था को पूर्णता देने की कोशिश करती रही ।

एक और सवाल की विवेचना बाकी रहती है जिसपर इतिहासकारों ने बहुत ही तीखी बहसें की हैं क्या ब्रिटिश राज में भारत में कोई आर्थिक विकास हुआ भी ? इस बहस की शुरुआत करने के लिए हम पहले साम्राज्य के प्रति भारत के आर्थिक दायित्वों पर और उनको पूरा करने के ढंग पर विचार करेंगे ।

तर्क दिया गया है कि ब्रिटेन और भारत के बीच ”शास्त्रीय उपनिवेशी आर्थिक संबंध” 1857 के विद्रोह के कुचले जाने के बाद ही धीरे-धीरे उभरे । माना जाता था कि भारतीय साम्राज्य अपना खर्च आप उठाएगा और साथ ही देश के संसाधन साम्राज्य के उद्देश्यों के लिए उपलब्ध रहेंगे ।

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भारत को ब्रिटेन के तैयार मालों के लिए बाज़ार का और खेतिहर कच्चे मालों के स्रोत का काम करना था । उन्नीसवीं सदी के अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो तक भारत ने साम्राज्य के प्रति अपने अनेक दायित्व सफलतापूर्वक पूरे किए ।

वह ब्रिटेन के कपास, लोहा और इस्पात, मशीनरी आदि उद्योगों के एक बड़े बाज़ार का काम करता रहा । पहले विश्वयुद्ध के समय भारतवासी लंकाशायर के 85 प्रतिशत सूती कपड़ों का उपयोग कर रह थे और ब्रिटेन के लोहा और इस्पात उत्पादन का 17 प्रतिशत भाग भारतीय रेलवे में खपता रहा ।

पहले विश्वयुद्ध तक कोई आयात शुल्क नहीं लगाया जाता था जो भारतीय उद्योगों में किसी को भी किसी तरह का संरक्षण देता और यह बात जैसा कि अमिय कुमार बागची ने लिखा है, ”ब्रिटिश डोमिनियनों समेत बाकी दुनिया में जारी प्रवृत्ति के एकदम खिलाफ” थी ।

1919 के बाद भी जब ”वित्तीय स्वतत्रता संविदा” (Fiscal Autonomy Convention) के अंतर्गत नीतियों को बदलने की बात आई, तब भी सूती कपड़ो पर शुल्क बढ़ाने के बारे में भारतीय सीमा शुल्क बोर्डों की उत्तरोत्तर सिफ़ारिशों को लंकाशायर लाबी ने सफलता के साथ विफल कर दिया, जो भारत में ब्रिटिश उद्योगों के अधिकारों के लिए लड़ रहा था और भारत को एक ”महत्त्वपूर्ण साम्राज्यिक परिसंपत्ति” मानता था ।

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इसके अलावा भारत रेलों और एजेंसी हाउसों में ब्रिटेन के पूंजी-निवेश का गढ़ भी था; भारत सरकार ज़मानती रेल शेयरों और ऋणपत्रों पर ब्रिटेन को ब्याज की अदायगी सुनिश्चित करती थी और ब्रिटेन में सालाना वसूलियों की अदायगी करती थी । इसके कारण भारत का सार्वजनिक ऋण हमेशा बढ़ता रहा ।

दूसरी ओर, दूसरे देशों के साथ भारत के निर्यात व्यापार ने ब्रिटेन को उनके साथ अपने भुगतान संतुलन के घाटे की समस्या हल करने में मदद दी, खासकर यूरोप और उत्तर अमेरिका के साथ । अंत में, ब्रिटेन ने दुनिया भर में दूरदराज स्थित अपने साम्राज्यों की रक्षा के लिए भारतीय सेना का उपयोग किया और इसका पूरा खर्च भारतीय करदाता उठाते रहे । सैनिक व्यय भारत के राजस्व पर अकेला सबसे बड़ा बोझ होता था और बजट का लगभग एक-तिहाई भाग खा जाता था ।

आश्चर्य नहीं कि भारत को ब्रिटिश सम्राट के ताज का सबसे कीमती ”मोती” माना जाता था । जैसी कि आरंभिक राष्ट्रवादियों की शिकायत थी इन साम्राज्यिक दायित्वों को पूरा करने की प्रक्रिया में भारत की संपदा बाहर खिंचती जा रही थी । इस तथाकथित दोहन (drainage) के अनेक रास्ते थे ।

ये थे ईस्ट इंडिया कंपनी के विदेशी ऋणों पर ब्याज, सैनिक व्यय, रेलों, सिंचाई, सड़क यातायात और बुनियादी ढाँचे की दूसरी विभिन्न सुविधाओं में विदेशी निवेशों पर ज़मानतशुदा बाज सरकार की खरीद-नीति जिसके कारण वह अपनी सारी स्टेशनरी इंग्लैंड से खरीदती रही और अंत में ”घरेलू अदायगियाँ” (होम चार्जेज) अर्थात् लंदन के इंडिया आफिस में भारत सचिव और उसके पूरे प्रतिष्ठान का खर्च और साथ ही सैनिक और असैनिक कार्मिकों अर्थात् भारत पर शासन करनेवाले व्यक्तियों के वेतन पेंशन और प्रशिक्षण के खर्चों का भुगतान ।

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धन का वास्तविक हस्तांतरण ”काउंसिल बिलों” की बिक्री के माध्यम से होता था । ये बिल (बीजक) लंदन में भारतीय मालों के खरीदारों को बेचे जाते थे और उनको बदले में भारतीय रुपए दिए जाते थे । साम्राज्य के समर्थकों ने अकसर यह बात कही है कि दोहन की परिघटना (phenomenon) के बारे में अतिशयोक्ति की गई है; एक आधुनिक इतिहासकार उन्नीसवीं सदी के अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में दोहन का परिमाण प्रति वर्ष 1 करोड़ 70 लाख पाउंड बतलाएगा और कहेगा कि यह ”उस काल में भारत के माल-निर्यात के मूल्य के 2 प्रतिशत से भी कम का सूचक” है ।

लेकिन जैसा कि भारतीय राष्ट्रवादी दादाभाई नौरोजी का तर्क था एक छोटी रकम होते हुए भी दोहन हो रहा था जो ”संभावित अधिशेष” का हो रहा था, जिसका अगर भारत में निवेश किया जाता तो और अधिक आर्थिक विकास होता ।

दूसरा साम्राज्यिक तर्क यह था कि व्यय का उद्देश्य पश्चिम की ही तर्ज पर भारत में आर्थिक विकास को बढ़ावा देना था । भारत को वृहत्तर पूँजीवादी विश्व बाजार में खींचा गया और यह अपने आपमें आधुनिकीकरण की दिशा में एक कदम था ।

विदेशी ऋणों और निवेशों का बहुत बड़ा हिस्सा बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए, अंदरूनी बाज़ारों के एकीकरण के लिए, और इस तरह स्वयं भारतीय अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण के लिए था । हाल की कुछ ऐतिहासिक रचनाएँ बतलाती हैं कि यह सच्चाई अपनी जगह कायम रहती है कि भारत का एक भरी-पूरी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में रूपांतरण नहीं हुआ ।

खेतिहर अर्थव्यवस्था की ही तरह दूसरे क्षेत्रों में भी ब्रिटिश नीतियाँ संवृद्धि को बढ़ावा देने में असफल रहीं । और इसका कारण इन नीतियों का साम्राज्यिक चरित्र था अर्थात् उपनिवेश की अर्थव्यवस्था को शासक (उपनिवेशक) देश की अपनी अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुसार ढालने की नीति थी ।

फिर भी, भारत में समष्टिगत आर्थिक (macro-economic) परिवर्तनों के लिए ब्रिटिश नीतियों को कहाँ तक ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है, यह एक विवादास्पद विषय है, क्योंकि एक संशोधनवादी दृष्टिकोण का दावा है कि कुल मिलाकर ”उपनिवेशी भारत में आर्थिक संवृद्धि सकारात्मक रही ।”

फिर भी यह बात मानी जाती है कि इस संवृद्धि में देश और काल दोनों में व्यापक बदलाव आते रहे । दूसरे शब्दों में कुछ काल (जैसे 1860-1920) संवृद्धि के थे और कुछ क्षेत्र (जैसे पंजाब, तटीय मद्रास और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) समृद्धि के थे, और उपनिवेशी नीतियों के प्रति एक सामान्य दृष्टिकोण इन क्षेत्रीय और कालगत परिवर्तनों की व्याख्या नहीं कर सकता ।

लेकिन जहाँ भी जड़ता रही, उसका कारण एक बड़ी सीमा तक यह था कि सिंचाई, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि में संसाधन पैदा करने के लिए निवेश करके सरकार को जितना काम करना चाहिए था उतना उसने नहीं किया । यह संशोधनवादी विचार मानता है कि क्षेत्रीय विकास या उसके अभाव का निर्धारण इन्हीं अत्यधिक महत्त्व के संसाधनों की उपस्थिति या अनुपस्थिति था ।

सवाल है कि भारत में संसाधनों को पैदा करने में उपनिवेशी राज्य का कीर्तिमान क्या रहा ? सर्वप्रथम खेतिहर उत्पादन के विकास के लिए उपनिवेशी सत्ता की पहल सीमित रही; केवल उत्तर, पश्चिमोत्तर और दक्षिण-पश्चिम भारत के कुछ भागों में अर्थात् स्थायी बंदोबस्त के बाहर के क्षेत्रों में जहाँ मालगुज़ारी की दरें बढ़ाने की संभावना थी, सिंचाई की कुछ नहरें बनाई गईं ।

यह तर्क दिया जा सकता है कि 1900 और 1939 के बीच सिंचित क्षेत्र लगभग दोगुना हो गया, पर यह केवल निरपेक्ष दृष्टि से हुआ । सापेक्ष दृष्टि से देखें तो 1947 में जब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का लंबा जीवनकाल समाप्त हुआ, कुल कृषि क्षेत्र का लगभग एक-चौथाई भाग ही सार्वजनिक सिंचाई व्यवस्था के अंतर्गत था ।

हो सकता है सिंचाई की सुविधाओं के प्रसार में प्रगति के इस अभाव का दोषी हम प्रौद्योगिक बाधाओं को, सामाजिक मुद्दों को और शक्ति के लिए स्थानीय प्रतिओगिताओं को ठहराएं, पर वास्तविक कारण यह था कि इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश केवल मुनाफ़े के विचार से और अकाल की रोकथाम जैसी घोर आपात स्थितियों से संचालित होता था ।

इसलिए सार्वजनिक सिंचाई की सुविधाएँ निराशाजनक सीमा तक अपर्याप्त रहीं, सापेक्ष समृद्धि के कुछ इलाके ही पैदा हुए, और उन क्षेत्रों में भी सिंचाई से किसानों में अधिक समृद्ध लोगों को ही लाभ हुआ, क्योंकि नहर के पानी की दर बहुत अधिक होती थी ।

जैसा कि पंजाब के बारे में इमरान अली ने दिखाया है, नहरी बस्तियाँ एशिया में व्यावसायिक कृषि का आदर्श बन गईं, लेकिन पानी की भारी दरें देने के बाद भी जो नई समृद्धि पैदा हुई वह केवल सीमित सामाजिक समूहों के हिस्से आई, जैसे कुछेक खेतिहर जातियों और कुछेक बड़े और मझोले भूस्वामियों के, जबकि गरीब बेदखली काश्तकरों (tenants-at-will) के रूप में मेहनत करते रहे ।

इस तरह, हालांकि सिंचाई के विकास से उत्पादकता में कुछ वृद्धि हुई और कुछ दूसरे प्रौद्योगिक प्रवर्तन (innovation) हुए, पर इन्होंने केवल सुविधा-संपन्न किसानों को लाभ पहुँचाए और इनसे कुछ इलाकों में नकदी फसलों के उत्पादन में सहायता मिली ।

इस सच्चाई पर शायद ही उँगली उठाई जा सके कि ”खेती की उपज उपनिवेशी भारत में कुल मिलाकर अधिकांशत जड़ बनी रही” तथा 1920 और 1947 के बीच अनाजों के उत्पादन की दर जनसंख्या-वृद्धि की दर से बहुत कम रही । इसलिए ब्रिटिश दौर में भारत में लगभग अकाल जैसी स्थितियाँ कोई दुर्लभ नहीं रहीं और 1943 में बंगाल के एक भीषण अकाल में बीस से तीस लाख लोग चल बसे ।

कृषि का व्यवसायीकरण, जो किसान वर्ग के विभेदीकरण, पूँजी के संचय और बाज़ार के लिए उत्पादन को बढ़ावा देता है, पूँजीवादी कृषि की ओर प्रगति का सूचक माना जाता है । लेकिन भारतीय दृष्टांत में इसके लिए पहल अकसर खेतिहर समाज के अंदर से नहीं हुई और न इसके लाभ उसे मिले ।

पूर्वी भारत में नील की खेती में इसे सीधे-सीधे कंपनी की सरकार ने बढ़ावा दिया जब 1788 में उसने दस ऐसे अग्रगामी बागान मालिकों को पेशगी रकमें दीं, जो पश्चिम भारतीय तरीकों से दक्षिणी बंगाल में नील की खेती करने के प्रयास कर रहे थे ।

तब से नील उद्योग ने कभी एक समुचित बागानी अर्थव्यवस्था की तरह काम नहीं किया, क्योंकि 1829 तक ज़मीन खरीदने का अधिकार न होने के कारण ये बागान मालिक स्थानीय किसानों को अपनी ज़मीनों पर नील उगाने के लिए पेशगी लेने पर सहमत होने और आगे चलकर मज़बूर किया करते थे ।

इससे टकराव की पर्याप्त संभावना पैदा हुई, क्योंकि माँग तो अनिश्चित रही और उत्पादन की मात्रा पर निगरानी अंग्रेज़ कपड़ा मिल-मालिकों की आवश्यकताओं की अपेक्षा जवाबी व्यापार को ध्यान में रखकर की जाती रही ।

यह व्यवस्था दिनों-दिन अधिक शोषक और दमनकारी बनती गई और इस तरह 1859- 60 का नील विद्रोह सामने आया । एक पुराना दृष्टिकोण यह है कि दूसरी फ़सलों की ही तरह मालगुज़ारी की भारी माँग, मालगुज़ारी और लगान के नकद भुगतान की आवश्यकता और सबसे बढ़कर ऋण सेवा की आवश्यकता के कारण किसान नगदी फ़सलें उगाने के लिए ”मज़बूर” हो जाते थे ।

इस दृष्टिकोण का खंडन इस तथ्य से होता है कि एक फ़सल की कीमत और फ़सली क्षेत्र के बीच एक सकारात्मक सह-संबंध हमेशा रहा, जो संकेत देता है कि फ़सलों के एक खास ढर्रे को प्राथमिकता देने के बारे में किसानों का निर्णय मुनाफे की इच्छा से प्रेरित रहा ।

मगर साथ ही नकदी फ़सलें केवल धनी किसान उगा सकते थे और वे भी बाज़ार के उतार-चढ़ाव के सामने बेहद असहाय रहते थे । उदाहरण के लिए, पश्चिम भारत में कपास की खेती अमेरिकी गृहयुद्ध के कारण 1860 के दशक की कपास की माँग में उछाल से बढ़ी ।

उसने दकन की कपास पट्टी में कुछ समय के लिए एक समृद्धि का अंचल पैदा किया जो युद्ध के बाद बहुत जल्द ही गायब हो गया और फिर 1870 के दशक में एक अकाल आया और खेतिहर दंगे हुए । पूर्वी भारत में पटसन (जूट) की खेती इसलिए विकसित हुई क्योंकि किसान अपने निर्वाह की ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाते थे और ”सुनहरी फ़सल” उगाकर कुछ और कमाना चाहते थे ।

इस तरह किसानों के जूट की खेती अपनाने के निर्णय के पीछे एक आर्थिक प्रेरणा अवश्य थी । लेकिन जैसा कि सुगत बोस ने दिखाया है, 1906 और 1913 के बीच जूट के बाजार में आए उछाल से प्राथमिक उत्पादक शायद ही लाभान्वित हुए, क्योंकि ”कच्चे जूट के खरीदारों के रूप में जूट की वस्तुओं के निर्माता और निर्यातक ( जिनमें अधिकांश अंग्रेज थे) अपना एकक्रेताधिकार (monopsony power) चलाने में सफल रहे” और इस तरह जूट के उत्पादकों के पास कीमत की सौदेबाज़ी की कोई संभावना नहीं रहती थी ।

प्रश्न है कि भारत के कृषक समाज पर कृषि के व्यवसायीकरण के प्रभाव का मूल्यांकन कैसे किया जाए ? इस प्रश्न पर टीका करते हुए तीर्थकर राय ने तर्क दिया है कि ”संभव है कि अधिकांश या पूरे योजित मूल्य (value-added) पर पूँजीपतियों ने नियंत्रण कर लिया हो । हो सकता है अमीर और भी अमीर हुए हों ।

पर इसका यह अर्थ नहीं कि गरीब और भी गरीब हुए । कारण कि कुल आय बढ़ी ।” परंतु कोई यह तर्क भी दे सकता है कि अगर अमीर और भी अमीर हुए और गरीब गरीब ही रहे (हालांकि और अधिक गरीब नहीं हुए) या उनकी हालत बस थोड़ी-सी बेहतर हुई, तो यह विकास की कोई बहुत सुखद अवस्था भी नहीं थी ।

दूसरे शब्दों में, कृषि के व्यवसायीकरण से अधिकांश किसानों का भला नहीं हुआ हालांकि यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगा कि यह एक पूँजीवाद-पूर्व से एक पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की ओर ”संक्रमण” का सुचक था जिसके विशेष तत्त्व थे एक शक्तिशाली ग्रामीण पूंजीपति वर्ग का उदय और किसान वर्ग का सर्वहाराकरण ।

जूट वाली अर्थव्यवस्था 1930 के दशक में चरमरा कर बैठे गई और फिर 1943 में बंगाल का विनाशकारी अकाल सामने आया । व्यवसायीकरण और अकालों के बीच एक सीधा संबंध स्थापित कर सकना कठिन है, भले ही कुछ क्षेत्रों में नकदी फ़सलों ने बेहतर ज़मीनों से खाद्यान्नों को बाहर कर दिया हो और इसलिए उनकी पैदावार पर प्रभाव पड़ा हो ।

लेकिन अगर ऐसा हुआ होगा तो भी कुल मिलाकर खाने की फसलों और नकदी फ़सलों का साथ-साथ उत्पादन चलता रहा । जब उपनिवेशी शासन का अंत हुआ, तब भी 80 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में खाद्यान्न ही पैदा किए जा रहे लेकिन कुल मिलाकर जैसा कि कहा गया खाद्यान्नों का कुल उत्पादन जनसंख्या-वृद्धि से पीछे रहा ।

इसे देखते हुए कुछ इतिहासकारों का यह दावा अधिक से अधिक एक विवादास्पद दावा ही रहता है, खासकर 1943 के बंगाल के अकाल के संदर्भ में, कि व्यापार के प्रसार और बुनियादी ढाँचे के विकास के कारण बाजारों के एकीकरण ने वास्तव में खाद्य-सुरक्षा को बढ़ाया और उपनिवेशी भारत में अकालों की संभावना और तीव्रता पर अंकुश लगाया ।

बंगाल के अकाल से पहले सूबे में चावल की प्रति व्यक्ति ता एक लंबे समय से लगातार गिरती आ रही थी आधुनिक आर्थिक ढाँचे के विकास में रेलों को ब्रिटिश राज का एक और यौगदान माना जाता है । एक आधुनिक इतिहासकार लिखता है, ”भारत एक-दूसरे से और दुनिया से रेलों के द्वारा जुड़े स्थानीय केंद्रों वाला एक राष्ट्र बना ।

लेकिन रेलें जिस तरह बनाई गईं उसी से स्पष्ट है कि उसका मुख्य उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं की बजाय साम्राज्य के हितों को पूरा करना था । 1853 में लॉर्ड डलहौज़ी ने मुख्यत: सेना की आवाजाही को सुचारू बनाने के लिए भारत में रेल निर्माण का निर्णय लिया ।

धीरे-धीरे ब्रिटिश आयातों के रास्ते सुलभ बनाने के लिए, अर्थात् अंदरूनी बाज़ारों से और कच्चे मालों के स्रोतों से बंदरगाह नगरों को जोड़ने के लिए भारतीय बाज़ार के एकीकरण की एक और आवश्यकता पैदा हुई । इसलिए ब्रिटेन से पूँजी-निवेश 5 प्रतिशत ब्याज की जमानत पर आमंत्रित किए गए, जिससे आवश्यकता हुई तो इसका भुगतान भारतीय राजस्व से किया जाएगा ।

कंपनियों को मुफ़्त ज़मीनें 99 साल के पट्टे पर दी गईं, कि इस अवधि के बाद रेल लाइनें सरकार की संपत्ति बन जाएँगी । लेकिन उससे पहले किसी भी समय पट्टे की समाप्ति के कुछ माह पहले तक भी, कंपनियों सरकार को रेल लाइनें लौटाकर लगाई गई सारी पूँजी पर पूरा मुआवजा माँग सकती थीं ।

दूसरे शब्दों में, वे 98 साल तक गारंटीयुक्त 5 प्रतिशत ब्याज वसूलकर फिर अपनी सारी पूँजी वापस पा सकती थीं । इस तरह रेल परियोजनाएँ सव्यसाची भट्टाचार्य के शब्दों में ”सार्वजनिक जोखिम के बल पर निजी उद्यम की मिसाल” बन गईं । इसलिए एकदम स्वाभाविक रूप से 1858 और 1869 के बीच भारतीय रेलवे ने 70,110,000 पाउंड की पूँजी खींची ।

इस रेल-निर्माण का मुख्य उद्देश्य भारत के अंदरूनी क्षेत्रों के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की बजाय विदेशी व्यापार के हितों से भारत के अंदरूनी क्षेत्रो को बाँधना था । निर्माण की योजना बंदी ने इस लक्ष्य में साथ दिया, क्योंकि उसने बंदरगाहों से अंदरूनी बाजारों को जोड़ा लेकिन अंदरूनी बाजार के नगरों के बीच कोई संबंध स्थापित नहीं किया ।

पक्षपाती माल-भाड़े भी इस मंशा का संकेत करते थे: बंदरगाहों से अंदरूनी क्षेत्रों तक जानेवाले थोक तैयार मालों पर और अंदरूनी क्षेत्रों से बंदरगाहों तक जाने वाले कच्चे मालों पर विपरीत दिशा की अपेक्षा कम भाड़े लगते थे ।

इसके अलावा, रेल-निर्माण की तीव्रगति के गुणक प्रभाव (multiplier effect) ने भी ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को लाभ पहुँचाया, क्योंकि मशीनों रेल लाइनों और एक समय तक कोयले तक का इंग्लैंड से आयात किया जाता था ।

प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण मामूली प्रौद्योगिकी वाले क्षेत्रों तक, जैसे प्लेट बिछाने, पुल बनाने या सुरंग खोदने तक, सीमित रहा, जबकि ‘उच्च प्रौद्योगिक’ क्षेत्रों में आयातित प्रौद्योगिकी का कभी भारतीयकरण नहीं किया गया, ताकि ”एक सच्ची राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी” का विकास हो ।

कुछ मामलों में तो निर्माण-कार्य ने पर्यावरण को भी प्रभावित किया, प्राकृतिक जल निकास व्यवस्था को नष्ट किया, और इसने बंगाल में उन्नीसवीं सदी में मलेरिया की महामारी को जन्म दिया । रेलों के विषय में राष्ट्रवादी अकसर ज़मानतशुदा ब्याजों की अदायगी के माध्यम से संपत्ति के निरंतर दोहन की शिकायतें करते रहे कि इससे काफी व्यर्थ निर्माण को बढ़ावा मिलता था ।

रेल-निर्माण में सरकार ने भी सीधे निवेश किए, खासकर सेना की आवाजाही की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए सीमा-क्षेत्रों में और ”अकाल लाइनों” के लिए दुर्लभता वाले क्षेत्रों में । राष्ट्रवादियों की मुख्य आपत्ति ऐसे सार्वजनिक निवेशों के लिए प्राथमिकता के क्षेत्रों के चयन के विरुद्ध थी, क्योंकि उनमें से बहुतों का विश्वास था कि ऐसे निवेश के लिए सिंचाई कहीं बेहतर क्षेत्र होती और अधिक सामाजिक लाभ देती । मुनाफों की इच्छुक उपनिवेशी सरकार के लिए स्पष्ट है कि सिंचाई में निवेश कम आकर्षक था ।

इस तरह लगता है कि रेलों ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास को उस तरह बढ़ावा नहीं दिया, जिस तरह यूरोप के उद्योगीकरण को दिया । हालांकि कृषि को सापेक्ष प्राथमिकता दी जाती रही पर वह संवृद्धिमुखी क्षेत्र (growth sector) बनी ही नहीं ।

फिर भी, अंग्रेजों के जाने से पहले 1946-47 में भारत में 65,217 किलोमीटर लंबी रेल लाइनें थीं जिसमें कुल क्षेत्रफल का 78 प्रतिशत भाग शामिल था । रेलों ने फीडर सड़कों के और भारत के विभिन्न भागों को जोड़नेवाले कुछ दूसरी राजनीतिक सड़कों के निर्माण को भी बढ़ावा दिया ।

इससे भारतीय बाज़ार का एक हद तक एकीकरण अवश्य हुआ तथा जनता और सामान, दोनों के लिए यातायात का एक सस्ता साधन उपलब्ध हुआ, जिसका लाभ आगे चलकर, आज़ादी के बाद भारतीय व्यापारो को मिला । और अंत में रेलों ने भारतीय समाज और राष्ट्र पर महत्वपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव डाला, पर याद रहे कि ये ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अनभिप्रेत परिणाम थे ।

साम्राज्य के विरुद्ध राष्ट्रवादियों की दूसरी शिकायत भारतीय हस्तशिल्प उद्योगों पर उसके प्रतिकूल प्रभाव को लेकर थी जो अठारहवीं सदी के मध्य में ब्रिटिश राज के आरंभ के समय दुनिया के पूरे तैयार मालों के लगभग एक-चौथाई भाग की आपूर्ति किया करते थे ।

और ये यूरोप के व्यापार में निर्यात के प्रमुख घटक थे । औद्योगिक क्रांति के बाद निर्यात की यह माँग न केवल धीरे-धीरे कम हो गई बल्कि उपनिवेशी शासन ने ब्रिटेन के तैयार मालों के लिए भारतीय बाजारों को खोल दिया । इसका परिणाम ”वि-उद्योगीकरण” अर्थात् देसी हस्तशिल्प उद्योगों का विनाश था, जिससे द्वितीयक (secondary) उद्योगों पर निर्भर व्यक्तियों की संख्या घटी ।

आरंभ में ब्रिटेन से आयातित वस्तुओं और खासकर ऊनी कपड़ों के लिए भारत में बाज़ार सीमित था पर फिर औद्योगिक क्रांति ने परिदृश्य को ही बदल दिया । 1878 और 1895 के बीच प्राथमिकता प्राप्त सीमा शुल्क नीतियों का उद्देश्य ब्रिटेन की औद्योगिक अर्थव्यवस्था के एक संकट कमा हल करना था, जिसे भारत में एक बंधुवा बाज़ार बनाकर दूर किया गया और रेलों क कारण इस बाजार का एकीकरण करना था ।

इस तरह भारत से निर्यात की माँग की नमाप्ति और साथ ही भारतीय बाजार पर इंग्लैंड के सस्ते तैयार मालों के आक्रमण के कारण हस्तशिल्प उद्योगों का विनाश हुआ । भारत की दृष्टि से भूमि पर बढ़ता दबाव और दरिद्रता में वृद्धि इसके स्पष्ट परिणाम थे ।

कुछ आधुनिक आर्थिक इतिहासकारों ने इस राष्ट्रवादी प्रस्थापना पर प्रश्नचिह्न लगाए हैं । सबसे पहले तो उनका तर्क यह है कि अगर वि-उद्योगीकरण हुआ भी तो उसकी दर का परिमाणीकरण विश्वसनीय आंकड़ों की कमी के कारण कठिन है, और इसलिए भी कठिन है कि भारतीय दस्तकारों (शिल्पियों) के अनेक पेशे होते थे और उनमें से अनेक तो अकसर खेती में काम करते थे ।

इसके अलावा अगर सूती कपड़ों के बुनकरों को मैनचेस्टर के सस्ते सूती कपड़ों के इस हमले का मुख्य पीड़ित माना जाए, तो यह संकेत देनेवाले पर्याप्त साक्ष्य हैं कि भारतीय हथकरघे देश के गरीब उपभोक्ताओं के लिए खुरदुरे सूती कपड़े 1930 के दशक तक तैयार करते रहे, जब उनको भारतीय कारखानों के ही तैयार मालों ने पीछे धकेल दिया।

फिर भी, कुछ हाल के अनुसंधान दिखाते हैं कि राष्ट्रवादियों का रुख बहरहाल बहुत गलत नहीं रहा होगा, क्योंकि गैंजेटिक (Gangetic) बिहार से प्राप्त आँकडों से स्पष्ट होता है कि उस क्षेत्र के कुल उत्पादन में औद्योगिक उत्पादन का भाग 1809-13 के 18.6 प्रतिशत से घटकर 1901 में 8.5 प्रतिशत रह गया ।

इससे कहीं अधिक गिरावट बुनकरों और कताई करनेवालों के भाग में आई । कुल औद्योगिक जनसंख्या में उनका भाग इसी काल में 62.3 से बुरी तरह गिरकर 15.1 प्रतिशत रह गया । इस तरह ”वि-उद्योगीकरण” की बहस किसी सुविधाजनक निष्कर्ष तक नहीं पहुँचती, क्योंकि यह भी दिखाया गया है कि 1900 और 1947 के बीच जहाँ रोज़गार कम हुआ, वहीं प्रति मज़दूर वास्तविक आय बड़ी और यह बात कुल मिलाकर औद्योगिक स्थिति में किसी गिरावट का संकेत नहीं देती ।

यह बढ़ती औद्योगिक आय भारत में आधुनिक उद्योगों के हस्तक्षेप का परिणाम निश्चित रूप से नहीं थी, बल्कि जैसा कि तीर्थंकर राय का तर्क है, दस्तकारों में बढ़ती प्रति मज़दूर उत्पादकता के कारण थी । यह प्रौद्योगिक विशेषीकरण और औद्योगिक पुनर्गठन के कारण संभव हुआ, जैसे लघु उद्योग में वैतनिक मजदूरी से पारिवारिक मजदूरी के विस्थापन के कारण हथकरघा क्षेत्र में स्थिति अधिकतर ऐसी ही थी । जैसा कि राय ने आगे सुझाया है दूसरे लघु उद्योगों में भी ”श्रम की उत्पादकता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि” के साक्ष्य मिले हैं ।

यह वृद्धि एक ऐसी प्रक्रिया से पैदा हुई जिसे वे ”व्यवसायीकरण” (commercialization) कहते हैं । इसमें उन स्थानीय बाजारों के लिए उत्पादन, स्थानीय से लंबी दूरी के व्यापार की दिशा में बदलाव, इस परिवर्तन को सहारा देने के लिए बुनियादी ढाँचों और संस्थाओं का विकास और उसके फलस्वरूप उपभोक्ताओं और उत्पादकों के व्यवहार में परिवर्तन शामिल थे ।

इन कारणों से हस्तशिल्प उद्योगों को सहायता तो मिली, पर आवश्यक ढाँचागत परिवर्तनों और आर्थिक विकास से युक्त सफल उद्योगीकरण संभव नहीं हुआ । उपमहाद्वीप में व्यवसायों का बुनियादी ढाँचा 1881 और 1951 के बीच बहुत हद तक अपरिवर्तित रहा; उसमें कृषि का भाग 70 प्रतिशत विनिर्माण का भाग 10 प्रतिशत और सेवाओं का भाग 10-15 प्रतिशत रहा ।

आधुनिक विनिर्माण पहले विश्वयुद्ध के बाद ही तेजी से बड़े लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध से पहले तक द्वितीयक क्षेत्र में समग्र आय में संवृद्धि की दर केवल 3.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही, जो ”इतनी तीव्र न थी कि भारत को एक औद्योगिक क्रांति की राह पर डाल देती । समग्र आर्थिक विकास के इस अभाव के कारणों में एक कारण यह था कि, जैसा कि मारिस डी. मारिस (1968) ने माना है, उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशी राज्य केवल ”रात का पहरेदार” नहीं था ।

आधिकारिक रूप से ब्रिटिश सरकार अहस्तक्षेप की नीति के प्रति प्रतिबद्ध थी पर वास्तव में यह भेदभाव भरे हस्तक्षेप की नीति थी जो एक आर्थिक इतिहासकार के शब्दों में, ”सरकार द्वारा डाले जा रहे गैर-बाजारी दबावों” के समान थी ।

ऐसे दबावों ने सफलता के साथ जमशेदजी जीजीभाई या द्वारकानाथ ठाकुर जैसे भारतीय उद्यमियों को जबरन बाहर कर दिया, जो अभी भी गलती से भागीदारी के विचार में विश्वास रखते थे । 1813 में भारतीय व्यापार को जब ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार से मुक्त कर दिया गया, उसके बाद भारत को निजी ब्रिटिश पूँजी के निवेश के लिए लाभदायक क्षेत्र माना जाने लगा, खासकर रेलों, जूट उद्योग, चाय बागानों और खदानों में । भारत के मुद्रा बाजार पर यूरोप के बैकिंग घरानों का प्रभुत्व था ।

अगर भारतीय उद्यमी असफल रहे और यूरोपीय उद्यमी फले-फूले, तो इसका एक कारण यूरोपवालों के लिए पूँजी की अधिक सुलभता और उनका नियंत्रण था, जिसे बैंको और एजेंसी हाउसों के साथ उनके संबंधों ने बढ़ावा दिया जबकि भारतीयों को अपने रिश्तेदारों, परिवारों और दस्तकारों पर निर्भर रहना पड़ता था ।

दूसरी ओर, भारत में ब्रिटिश व्यापारिक हित उन व्यापार मंडलों (chambers of commerce) और मैनेजिंग एजेंसी हाउसों के माध्यम से काम करते थे, जो सरकार की नीतियों को प्रभावित करते और घरेलू प्रतियोगिता का उन्मूलन करते थे । ब्रिटिश ‘दुस्साहसी सौदागर’ द्वारा नियत्रित एजेंसी हाउस परदेसी पूँजी (expatriate capital) के आर्थिक प्रभुत्व की एक दिलचस्प कहानी पेश करते हैं ।

ये निजी भागीदारी की कंपनी थीं, जो कानूनी अनुबंधों के जरिये अनेक संयुक्त स्टॉक कंपनियों को नियंत्रित करती थीं, मगर उनके शेयरधारकों के प्रति किसी भी दायित्व से मुक्त थीं । जैसे 1917 में एंड्रच्यू यूल जैसी एक बड़ी कंपनी लगभग साठ कंपनियों को नियंत्रित कर रही थी ।

ये कंपनियाँ जातीय अलगाव और स्वायतत्ता को प्राथमिकता देती थीं, तथा एकीकरण के सभी प्रयासों का विरोध करती थीं । पहले पेश्वयुद्ध के पहले ऐसे लगभग साठ एजेंसी हाउस थे जो जूट उद्योग कोयला खदानों और चाय बागानों पर हावी थे तथा भारत में लगभग 75 प्रतिशत औद्योगिक पूँजी और कुछ औद्योगिक रोजगारों में लगभग आधे को नियंत्रित कर रहे थे ।

इसलिए जो भी उद्योगीकरण हुआ, पूरी तरह न सही, अधिकतर ब्रिटिश पूँजी के कारण हुआ, और मुनाफ़े नियमित रूप से बाहर भेजे जाते रहे । भेदभाव से भरी सरकारी नीतियों इस विकाशक्रम को बढ़ावा देनेवाले प्रमुख कारण थीं ।

रस आर्थिक पक्षपात का एक स्पष्ट उदाहरण असम का चाय बागान था, जो सीधे सरकार के संरक्षण में 1833 में विकसित हुआ; सरकार तब चीन की महँगी चाय – आयात घटाना चाहती थी । बाद में ये बागान निजी पूँजीवादी स्वामित्व में दे दिए गए और इसमें देशी निवेशकों की जानबूझकर उपेक्षा की गई ।

1859 के इनलैंड एमिग्रेशन ऐक्ट प्रवासी श्रमिकों के बागान छोड़ने पर रोक लगाकर मालिकों के लिए श्रम की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित की । चाय उद्योग पर 1950 के दशक तक ब्रिटिश पूँजी का वर्चस्व रहा और यही हाल पूर्वी भारत में कोयला खदानों का था । बंगाल में जूट उद्योग का विकास एक और रोचक कहानी है, जिसे यहाँ याद करने की आवश्यकता है ।

सन (सिंग) के एक सस्ते विकल्प के रूप में जूट का विकास उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में हुआ और बंगाल डंडी (Dundee) के उद्योगों के लिए कच्चे जूट (पटसन) का प्रमुख स्रोत रहा । बंगाल में पहली जूट मिल 1855 में शुरू हुई और फिर कच्चे मालों और सस्ते श्रम के स्रोतों की निकटता ने उसे प्रतियोगिता में स्कॉट उद्योगों पर एक श्रेष्ठता प्रदान की ।

उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में ही ऑस्ट्रेलिया के बाजारों की सुलभता प्रथम विश्वयुद्ध और युद्धकालीन माँग ने इस उद्योग को वास्तविक बढ़ावा दिया । जूट उद्योग में प्रदत्त(Paid up) पूँजी की मात्रा 1914-15 में 7 करोड़ 93 लाख थी, जो बढ्‌कर 1918-19 तक 10 करोड़ 64 लाख और 1922-23 तक 179.4 करोड़ हो गई ।

इस निवेश में बड़ा भाग ब्रिटिश पूँजी का था, जो इंडियन जूट मिल्स एसोसिएशन के रूप में संगठित थी और यही संगठन भारी कीमतें बनाए रखने के लिए उत्पादन को नियंत्रित करता था । इस उद्योग के मुनाफ़े भारी मंदी (Great Depression) तक जारी रहे, जब निर्यात और शुद्ध मुनाफ़े दोनों में गिरावट शुरू हुई ।

फिर भी, विदेशी पूँजी के इस वर्चस्व के बावजूद 1920 के दशक से कलकत्ता के कुछ मारवाड़ी, जो व्यापारियों और सर्राफों के रूप में पैसा बना चुके थे, इस बंद क्षेत्र में प्रवेश कर जूट उद्योग में निवेश करने लगे । पहली बात यह कि स्टॉक खरीदकर और कर्ज पर पैसे देकर अनेक मारवाड़ियों ने अपने आपको यूरोपीय प्रबंधन एजेंसियों के बोर्डो का सदस्य चुनवा लिया । उसके बाद घनश्याम दास बिड़ला और स्वरूपचंद हुकुमचंद जैसे व्यक्तियों ने 1922 में अपने कारखाने स्थापित किए ।

कलकत्ता के आसपास भारतीय जूट मिलों का आरंभ इसी तरह हुआ क्योंकि इस दशक में एक आर्मेनियाई और छह भारतीय कारखाने आरंभ हुए जिनमें 10 प्रतिशत से अधिक करघे लगे हुए थे । 1930 के दशक में यह स्थिति और भी मजबूत हुई, जब कुछ मिलों ने इंडियन जूट मिल्स एसोसिएशन की नियंत्रक व्यवस्था से बाहर काम करने की हिम्मत दिखाई और इस तरह इस उद्योग में विदेशी पूँजी के वर्चस्व को चुनौती दी ।

मारवाड़ियों की ऐसी पकड़ धीरे-धीरे कोयला खदानों चीनी के कारखानों और कागज उद्योग जैसे दूसरे क्षेत्रों पर भी स्थापित हुई । 1942 और 1945 के बीच वे कुछ यूरोपीय कंपनियों का भी अधिग्रहण करने लगे और इस तरह, ओंकार गोस्वामी के अनुसार वे 1950 तक ”क्षेत्र के लगभग सभी पुराने उद्योगों का अधिग्रहण करने के लिए तैयार” थे जो तब तक यूरोपीय पूँजी के वर्चस्व में थे ।

जहाँ टॉमलिंसन ने इस विकासक्रम का कारण उपनिवेश की समाप्ति के बाद विदेशी पूँजी के पलायन को ठहराया है, वहीं गोस्वामी मारवाड़ियों की उद्यम संबंधी कुशलताओं को अधिक श्रेय देते हैं । भारतीय उद्योगपतियों को वास्तविक सफलता पश्चिम भारत के सूती कपड़ा उद्योग में मिली ।

पहले विश्वयुद्ध के आरंभ तक भारतीय बाजारों पर आयातित कपड़ों का वर्चस्व था । युद्ध के दौरान यह आयात बहुत कम हो गया; 1913-14 और 1917-18 के बीच आधे से भी कम रह गया, जिसका कारण अंशत: युद्ध के कारण यातायात में पड़ने वाला विघ्न था और अंशत: सूती कपड़ों पर 7.5 प्रतिशत आयात शुल्क था, जो 1917 में लगाया गया ।

जापानी प्रतियोगिता अभी भी इतनी गंभीर नहीं थी, जबकि दूसरी ओर भारतीय सूती कपड़ों पर आबकारी (excise duty) 3.5 प्रतिशत पर ही स्थिर रही । इसके अलावा, सेना की माँग भी थी और ‘स्वदेशी’ का आह्वान भी था, जिसमें विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और उनके देसी विकल्पों के उपयोग की माँग की गई थी ।

भारत में सूती कपड़ा उद्योग प्रथम विश्वयुद्ध से पहले भी मौजूद था और यूरोपीय प्रबंधन एजेंसियों के अलावा गुजराती बनियों, पारसियों, वोहराओं और भाटियों जैसे कुछ परंपरागत व्यापारिक समुदायों ने जिन्होंने चीन के साथ निर्यात व्यापार से पैसा बनाया था, इस क्षेत्र मैं अपनी मौजूदगी बनाए रखी थी ।

लेकिन जब अवसर सीमित हो गए और कच्चे कपास के निर्यात में उनकी अधीनता वाली स्थिति और भी दमघोंटू हो गई तो उन्होंने अस्तित्व-रक्षा की एक रणनीति के रूप में विनिर्माण में विविधीकरण लाना आरंभ कर दिया । सूती कपड़ा उद्योग का विकास तीन सुस्पष्ट चरणों से गुजरा । 1870 और 1880 के दशकों कै दौरान बंबई में उसका आरंभ हुआ ।

1890 के दशक में बंबई से परे उसका प्रसार हुआ पहले अहमदाबाद की ओर और फिर शोलापुर और कानपुर जैसे दूसरे केंद्रों की और, और उसका भारी प्रसार पहले विश्वयुद्ध के बाद और 1920 के दशक के दौरान

हुआ । फिर 1930 के दशक के दौरान उसके विकास का तीसरा चरण आरंभ हुआ जब उसने मंदी के आरंभिक दबावों को झेला और फिर उसका प्रसार होने लगा ।

आयातित मशीनों, रसायनों और प्रौद्योगिक विशेषज्ञता के लिए यह उद्योग विदेशी सहयोग पर निर्भर रहा । लेकिन प्रौद्योगिकी उसकी संवृद्धि का सबसे नाजुक कारण नहीं थी । जैसा कि गजनारायण चंदावकर ने पहचान की है सूती कपड़ा उद्योग की यह संवृद्धि तीन बातों यर निर्भर थी, अर्थात् ”पुरानी मशीनों के उपयोग के लगातार कामचलाऊपन पर कच्चे नालों के फेरबदल और सस्ते श्रम के शोषण पर ।”

हालांकि 1930 के दशक के दौरान मस्त जापानी मालों के आयात ने अस्थायी रूप से उसकी संवृद्धि के लिए खतरे पैदा किए, मगर फिर भी दूसरे विश्वयुद्ध के समय तक भारतीय सूती उद्योग ने ”अपने विशाल घरेलू बाज़ार पर अपना चुनौतीहीन एकाधिकार” स्थापित कर लिया था और विदेशी बाज़ारों में लंकाशायर के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने लगा था ।”

टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी (Tisco) के नेतृत्व में लोहा और इस्पात उद्योग का प्रारभ सीधे सरकारी संरक्षण में सदी के बदलाव के साथ आरंभ हुआ । लेकिन सरकार ग्र रेलवे के ऑर्डरों का मामला छोड़ दें, तो यहाँ भी महाद्वीपीय इस्पात बरमिंघम के दृन्यान उद्योग के एकाधिकार को पहले ही तोड़ चुका था ।

पहले विश्वयुद्ध के दौरान भंडारण के लिए खरीद की नीति के संशोधन और युद्ध के बाद मिले संरक्षण ने टिस्को को वास्तविक बढ़ावा दिया । लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जब प्रसार का एक और स्त्रमर आया तब सरकार ने ”एक विचित्र उदासीनता” का परिचय दिया ।

185 लेकिन तब तक (1938-39 तक) टिस्को में औसतन 6,82,300 टन इस्पात का उत्पादन हो रहा था, अर्थात् भारत में इस्पात की खपत का 66 प्रतिशत । सूती कपड़ों और इस्पात के अलावा दोनों विश्वयुद्धों के बीच विकसित होने वाले दूसरे उद्योग थे: जहाजरानी, कोयला, कागज़, चीनी, काँच, माचिस और रसायन उद्योग ।

यह बात सही है कि पहले विश्वयुद्ध के बाद वित्तीय विवशताओं तथा सत्ता के एक स्थानीय आधार की आवश्यकता के कारण भारत में अनेक विनिर्माण उद्योगों की संवृद्धि को प्रोत्साहन मिला । लेकिन उनकी संवृद्धि की संभावना घरेलू बाज़ार तक ही सीमित रही जो भारतीय जनता की असीमित गरीबी के कारण सदैव दबा रहा । स्थिति में सुधार केवल प्रभावी सरकारी हस्तक्षेप से संभव था जो नहीं किया जा रहा था ।

यदि सरकारी नीतियों और ब्रिटिश पूंजी की जकड़ ने कुछ क्षेत्रों में भारतीय उद्यमों को बाधित किया तो हाल के अनुसंधान यह भी दिखाते हैं कि पश्चिमी रंग वाले छोटे-से समूह से नीचे और किसानों की निर्वाही अर्थव्यवस्था (subsistence economy) से ऊपर एक मझोला स्तर भी था-बाज़ार-जहाँ भारतीय व्यापारी और बैंकर अपने काम करते रहे ।

इस स्तर पर वे क्षेत्र थे जिनमें या तो प्रतिफल (returns) बहुत कम थे या फिर जोखिम इतने अधिक थे कि यूरोपीय निवेशक आकर्षित नहीं होते थे; ये निवेशक ”अपने आपको सुरक्षित बाज़ारों” तक या साम्राज्य द्वारा संरक्षित अलग-अलग क्षेत्रों तक सीमित रखते थे ।

यह संवृत्ति, जिसे रजत रे ने ”आर्थिक अंतराल (space) का साम्राज्यिक विभाजन” कहा है, गुजरात, राजस्थान या तमिलनाडु के उद्यमी समुदायों को एक कार्यक्षेत्र प्रदान करती थी, हालांकि वह कम लाभदायक और अधिक जोखिम भरा था ।

बिहार पर आनंद यांग का हाल का व्यष्टिस्तरीय अध्ययन (micro-study) दिखाता है कि अठारहवीं सदी के मध्य से लेकर बीसवीं सदी के गांधीवादी आंदोलनों के काल तक बाज़ार किस तरह देशी सौदागरों और बैंकरों को कामकाज का एक लाभकारी क्षेत्र प्रदान कर रहा था ।

इन देशी कंपनियों में से कुछ ने साम्राज्य के नए अवसरों का जैसे रेल और तार का पूरा लाभ उठाया और वे व्यापार का परिष्कृत और समन्वित तंत्र चलाते रहे जो पूरे भारत में फैले हुए थे । ये कंपनियाँ ही फिर फैलकर चीन, बर्मा, मलक्का की बस्तियों, मध्य-पूर्व और पूर्वी अफ्रीका में पहुँचीं ।

इन्हीं कार्यकलापों ने देशी पूँजी को जन्म दिया जो पहले विश्वयुद्ध के बाद उद्योगों में लगी जब वित्तीय और राजनीतिक, दोनों प्रकार के अनेक दबावों के कारण साम्राज्यिक आर्थिक नीतियाँ ढीली पड़ने लगी थीं । इस तरह भारत के अल्पविकास (underdevelopment) का कारण उद्यम की कुशलताओं का अभाव नहीं था ।

इस तरह हम वापस उसी बिंदु पर पहुँच जाते हैं जहाँ से हम चले थे, अर्थात् साम्राज्य के प्रति भारत के आर्थिक और वित्तीय दायित्वों पर और साम्राज्य से संबंध की समाप्ति तक उनके पूरा करने के तरीकों पर । 1880 और पहले विश्वयुद्ध कै बीच उत्तरोत्तर वित्तीय संकटों ने दिखाया कि भारत साम्राज्य का वित्तीय बोझ उठाने में असमर्थ था । इन वित्तीय संकटों के विभिन्न कारण थे जैसे संसाधनों में साझेदारी के बारे में भारत की बड़ी हुई माँगे । एक मुख्य राजनीतिक जनमत के विकास ने आंतरिक करों में किसी भी वृद्धि को एक जोखिम का काम बना दिया ।

कुछ समष्टिगत आर्थिक कारक भी थे जैसे विनिमय की घटती-बढ़ती दरें, व्यापार में मंदी आदि या फिर प्रकृति की मनमानियाँ । इनके कारण साम्राज्यिक लक्ष्य कमजोर हुआ और शक्ति का अवक्रमण (devolution) अधिक हुआ ।

धीरे-धीरे ब्रिटिश कपड़ों पर आयात शुल्क लगाए गए, जो भारतीय उद्योगों के लिए लगभग संरक्षण (protection) समान थे । ब्रिटेन की औद्योगिक अर्थव्यवस्था में भी एक परिवर्तन आया और ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के संवृद्धि वाले क्षेत्रों के लिए भारतीय बाजार का महत्त्व जाता रहा ।

भारतीय पूँजी बाज़ार में ब्रिटिश निवेश भी कम हुए और इसी तरह साम्राज्य की रक्षा के लिए भारतीय सेना का उपयोग भी कम किया जाने लगा । भारतीय सेना का उपयोग तो अभी भी किया जा सकता था, पर अब उसका खर्च लदन को या उस अधीनस्थ उपनिवेश को उठाना पड़ता जिसे उसकी ज़रूरत थी ।

इस तरह वृहत्तर साम्राज्यिक ढाँचे में भारत की भूमिका धीरे-धीरे उसकी अपनी घरेलू आवश्यकताओं से निर्धारित होने लगी । भारत में पैदा वित्तीय और राजनीतिक दोनों प्रकार के दवावो को खपाने के लिए साम्राज्य के लक्ष्य और उसकी विचारधारा दोनों को कुंद किया गया । भारत में साम्राज्यिक आर्थिक हितों के इस सिमटाव को कुछ इतिहासकारों ने सत्ता के हस्तांतरण संबंधी निर्णय का एक प्रमुख कारण माना

है ।

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