भारतीय कलाएं विकास एवं उनका स्वरूप । Indian Arts Development in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. भारतीय कलाओं की विरासत एवं विकास ।

वास्तुकला ।

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चित्रकला ।

संगीतकला ।

नृत्यकला ।

नाट्‌यकला ।

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साहित्यकला ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

कला मानव जीवन की अभिव्यक्ति है । यह मानव अभिवृतियों की रागात्मक वृत्ति है । भर्तृहरि ने नीति दशक में लिखा है:  साहित्य, संगीतकला, विहीन: साक्षाल्पशु: पुच्छविशाहीन: । तृणन्न खादान्नपि जीवमानस्तद् भागधेयं परमशूनाम: ।। अर्थात ”जो मनुष्य साहित्य, संगीत व कला से विहीन हैं, वे पूंछ और सींग से विहीन पशु ही हैं । परन्तु वे घास न खाकर जीवित रहते हैं । यह उन पशुओं का परम सौभाग्य है ।”

कला किसी भी संस्कृति एवं विचारधारा  का प्रतीक है, उसकी पहचान है । भारतीय संस्कृति में कला की समृद्ध विरासत रही है । वह सत्यम, शिवम, सुन्दरम के आदर्श पर आधारित है । भारतीय कला की अत्यन्त विपुल एवं व्यापक विरासत रही है, जो विश्व में बेजोड़ है ।

2. भारतीय कलाओं की विरासत एवं बिकास: 

भारतीय कलाओं की विरासत संस्कृत की तरह प्राचीन है तथा विविधताओं से भरी है । उनमें गतिशीलता है, लयबद्धता है । वह अनुपम है । भारतीय कलाओं के स्वरूप में वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला, नृत्यकला एवं साहित्यकला प्रमुख हैं ।

वास्तुकला:

किसी भी महान् संस्कृति की पहली कला स्थापत्य कला, अर्थात वास्तुकला है । वास्तुकला चाहे कोई झोपड़ी हो या राजप्रासाद, वह तो रभूल यथार्थ से सम्बन्धित है । भारत में वास्तुकला का इतिहास 700-800 ईसा पूर्व तक से सम्बन्धित है । मोहनजोदड़ो और हड़प्पा एक नगरीय विकसित सभ्यता थी । उसकी वास्तुकला सुस्पष्ट एवं उच्चस्तरीय थी । बड़े नगरों के दो मुख्य भाग में दुर्ग थे, जिसमें नगराधिकारी रहते थे ।

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शहर के निवासियों के लिए जो भवन थे, उनमें पक्की ईटों का इस्तेमाल होता था । इसके साथ ही लकड़ी के भवनों का प्रचलन भी पाया जाता था । मौर्यकाल {324-187} में लकड़ी की इमारतों के स्थान पर पत्थर की इमारतों की शुराआत होती है । व्यवस्थित वास्तुकला का इतिहास मौर्यकाल का है ।

इसमें चट्टानों को काटकर कन्दराओं का निर्माण होता था । बौद्धकालीन वास्तुकला में स्तूप प्रमुख थे । स्तुपों में वैशाली, सांची, सारनाथ, नालन्दा आदर्श नमूने थे । इसमें बहुत की सुन्दर तराशे हुए चार द्वार व सुन्दर मन्दिर सांची के थे, जिसका मंच अर्द्धवृत्ताकर संरचना का है ।

जंगल का प्रयोग प्रकाश और वायु के लिए था । द्रविड शैली के मन्दिर आयताकार होते थे, जिनके शिखर पिरामिड के रूप में होते थे । यह क्रमश: बीच की ओर छोटा होता जाता है । शीर्ष भाग में एक गुम्बदाकार स्तूपिका होती थी, जिसमें बने गवाक्ष व गलियारे अदूभुत थे । कांचीपुरम एवं महाबलीपुरम के मन्दिर प्रसिद्ध थे । तंजौर का वृहदीश्वर मन्दिर द्रविड शिल्पकला की सर्वोत्तम कृति थे ।

बेसर शैली भारतीय वास्तुकला का सुन्दर मापदण्ड है । यह नागर और द्रविड शैली का मिश्रण है । दक्षिणापथ में मन्दिर इसी शैली में बने हैं । देवगढ़ का दशावतार मन्दिर, उदयगिरि का विष्णु मन्दिर इस शैली के प्रसिद्ध मन्दिर हैं ।

इस्लामी वास्तुकला:  अरबी, ईरानी शैली मिश्रित यह वास्तुकला 1191 से 1707 तक चरमोत्कर्ष पर थी । इसमें मस्जिद, मकबरों, मदरसों, मीनारों का निर्माण हुआ । फतेहपुर सीकरी का भवन, बुलन्द दरवाजा, सलीम चिश्ती की दरगाह, आगरे का लालकिला, आगरे का ताजमहल अद्‌भुत नमूने हैं ।

इस्लामी वास्तुकला:  17वीं शताब्दी की इस वास्तुकला में यूरोपीय शैल । के गिरजाघर मिलते हैं । सिक्स वास्तुकला-सिक्स गुरुद्वारे इसका अद्‌भुत नमूना हैं । 1588-1601 में बना हरमन्दर साहब का प्रसिद्ध अमृतसर रचर्ण मन्दिर है ।

यह 150 वर्गफुट के पवित्र सरोवर की बीच बना तिमंजिला भवन है । प्रथम मंजिल में गुरुग्रंथ साहब हैं । द्वितीय मंजिल में शीशमहल है । तृतीय मंजिल में गुम्बद की छतरियां हैं । इसमें समकालीन वास्तुकला सम्मिलित है ।

भारतीय मूर्तिकला:  भारतीय मूर्तिकला पत्थर, धातु और लकड़ी की है, जिस पर मुद्रा एवं भाव मूर्तियों को सजीव बनाते हैं । इसमें कुछ प्रस्तर मूर्तियां हैं । ये मूर्तियां गांधार शैली की हैं । इसमें अधिकांश मूर्तियां विष्णु, शिव, गणेश, सूर्य, शक्ति, जैन एवं बौद्ध धर्म से सम्बन्धित हैं ।

चित्रकला:  मानवीय सौन्दर्य बोध की चरम अभिव्यक्ति चित्रकला में भी मिलती है । भारतीय संस्कृति में चित्रकला की इस समृद्ध परम्परा में महर्षि वात्सायन के प्रसिद्ध कामसूत्र में 64 कलाओं का वर्णन मिलता है । चित्रकला में रेखाओं और रंगों के प्रयोग द्वारा वस्त्र, लकड़ी, दीवार व कागज पर चित्र बनाये जाते थे ।

प्रागैतिहासिक काल में कई गुहा चित्र भी मिलते हैं, जिनमें भीमबेटका के मानव व पशु-पक्षी के लाल रंगों के चित्र हैं । द्वितीय चरण में गुप्तकाल के अजंता, एलोरा और बाघ गुफाओं के भित्तिचित्र मिलते हैं । यह विश्वकला की अनुपम चित्रशाला है ।

यहा प्राकृतिक सौन्दर्य पर आधारित वृक्ष, पुष्प, नदी एव झरनों के चित्र हैं । वहीं अप्सराओं, गन्धवों एव यक्षों के चित्र हैं । बुद्ध और उनके विभिन्न रूपों के जातक कथाओं के चित्र भी मिलते हैं जिसमें नीले, सफेद, हरे, लाल, भूरे रंगों का काल्पनिक रग संयोजन अदभुत सौन्दर्य को प्रकट करते हैं ।

इन चित्रों में करुणा, प्रेम, लज्जा, भय, मैत्री, हर्ष, उल्लास, घृणा, चिन्ता आदि सूक्ष्म भावनाओं का चित्रण है । गुप्तोत्तर काल की चित्रकला में लघु चित्रकला शैली का विकास हुआ ।  यह पूर्वी और पश्चिमी सम्प्रदायों से मिश्रित राष्ट्रीय शैली थी । इस शैली के चित्रों में अनन्त विविधता है । बंगाल, बिहार, नेपाल गे 11 वीं एवं 21वीं शताब्दी में विकसित हुए इन चित्रों में वस्त्र एवं अलंकारों से प्रादेशिकता का प्रभाव झलकता है ।

मुगलकालीन चित्रकला में परशियन तथा भारतीय दोनों प्रभाव परिलक्षित होते है । अकबर, जहांगीर तथा शाहजहाँ ने चित्रों के प्रति गहरा लगाव प्रस्तुत करते हुए पशु-पक्षियों आदि के चित्र बनवाये । इन चित्रों में भावहीन चेहरे और निश्चल पशु-पक्षियों के चेहरे देखने को मिलते हैं ।

राजस्थानी चित्रकला मुगल एवं पश्चिमी परम्परा से मिश्रित एक स्वतन्त्र कला है । हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में पहाड़ी आकृति, पृष्ठभूमि रेखा और रंग की दृष्टि से काफी विविधताएं हैं । इसमें कृष्ण लीलाओं तथा राग-रागनियों का मिश्रण है ।

कागड़ा शैली के बाद विकसित मराठा शैली की भी अपनी विशिष्ट पहचान है । चित्रकला में पटना एवं मधुबनी शैली भी उल्लेखनीय है । आधुनिक युग में यूरोपीय प्रभाव के कारण नयी शैली विकसित हुई । रवीन्द्रनाथ टैगोर, नन्दलाल बोस, जामिनी राय, अमृता शेरगिल, जतिन दास, मकबल फिदा हुसैन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।

संगीतकला:  भारतीय संगीतकला का जन्म वेदों से हुआ है । नाद, अर्थात् संगीत को ब्रह्म कहा गया है । इसीलिए उसकी तरंगें हृदय को छूती हैं । भारतीय संगीत सामवेद से जन्मा है । लोकगीतों तथा शास्त्रीय संगीत में विकसित एवं परिष्कृत भारतीय संगीत का आधार राग है ।

राग, स्वर, माधुर्य की एक ऐसी योजना को कहते हैं, जिसमें स्वरों को परम्परागत नियमों में बांधा गया है । सात सुरों से प्रारम्भ हुए संगीत में उषाकाल, प्रभात, दोपहर, सच्चा, रात्रि और अर्द्धरात्रि के अनुसार रागों का विभाजन है ।

भारतीय संगीत में ताल का विधान अत्यन्त जटिल एवं विस्तृत है । इसमें विलम्बित, भव्य एवं दुत ताल प्रसिद्ध हैं । वर्गीकरण की दृष्टि से शास्त्रीय संगीत एवं सुगम संगीत दो पद्धतियां हैं । शास्त्रीय संगीत की मुख्य दो पद्धतियां हैं: हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटकी संगीत । हिन्दुस्तानी संगीत में ध्रुपद, ठुमरी, ख्याल, टप्पा प्रसिद्ध हैं । इससे सम्बन्धित घराना में ग्वालियर, आगरा, जयपुर, किराना घराना है ।

ग्वालियर घराने के प्रसिद्ध संगीतज्ञ बालकृष्ण दुआ, रहमत खां हैं । आगरा घराने से नत्थन खां, फैयाज खां, जयपुर खां, किराना घराना से अछल करीम खां, अकुल वालिद खां हैं । कर्नाटक संगीत शैली में तिल्लाना, थेवारम, पादम, जावली प्रमुख हैं ।

कर्नाटक संगीत कुण्डली पर आधारित है । इसमें लहर की भांति उच्चावचन नियमित हैं । इसके अतिरिक्त विभिन्न गायन शैलियों में धमार, तराना, गजल, दादरा, होरी भजन गीत, लोकगीत इत्यादि हैं । संगीत की प्रमुख राग-रागनियों में भैरवी, भूपाली, बागश्री, भैरव, देस, बिलावल, यमन, दीपक, विहाग, हिण्डोली, मेघ आदि हैं ।

इसमें प्रयुक्त होने वाले वाद्य हैं: सारंगी, वायलिन, मृदंगम, नादस्वरम, गिटार, सरोद, संतूर, सितार, शहनाई, बांसुरी, तबला, वीणा, पखावज, हारमोनियम, जलतरंग आदि । प्रमुख वादकों में बाल मुरलीधरन, अमजद अली खां, शिवकुमार शर्मा, पण्डित रविशंकर, उस्ताद बिस्मिल्लाह खां, जाकिर हुसैन, अल्लारखा खा, हरिप्रसाद चौरसिया, रघुनाथ सेठ हैं ।

प्रमुख गायकों में चण्डीदास, बैजू बावरा, तानसेन, विष्णु दिगम्बर पलुरकर, विष्णुप्रसाद भातखण्डे, एम॰एम॰ सुबुलक्ष्मी हैं । इस प्रकार भारतीय संगीत वेदों से प्रारम्भ होकर बौद्धकाल मौर्य तथा शुंग काल में काफी विकसित हुआ ।

किन्तु कुषाणकाल में कनिष्क तथा समुद्रगुप्त के शासनकाल में अत्यधिक विकसित हुआ । अश्वघोष नामक महान संगीतज्ञ इसी काल में हुए । मध्यकाल में संगीत का स्वरूप स्पष्ट दिखाई पड़ता है । इसमें गजल, ख्याल, ठुमरी, कब्बाली आदि है । आधुनिक युग में भारतीय संगीत में कुछ पश्चिमी प्रभाव भी दिखता है ।

आधुनिक चलचित्रों के विकास ने इसे अधिक लोकप्रिय बना दिया है । शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत, लोकसंगीत के साथ-साथ पार्श्वगायन में नूरजहां, सुरैया, खुर्शीद, सहगल, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, किशोर, मुकेश, मन्नाडे, आशा भोंसले विश्व प्रसिद्ध हैं । वहीं गजल के क्षेत्र में जगजीत सिंह, चित्रा सिंह, पंकज उधास, राजेन्द्र मेहता, नीना मेहता प्रसिद्ध हैं । भजन में पुरुषोत्तम दास जलोटा, अनूप जलोटा व शर्मा बसु प्रसिद्ध हैं ।

नृत्यकला:  नृत्यकला भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग है । हरिवंश पुराण में उर्वशी, हेमा, रम्भा, तिलोत्तमा आदि देव नर्तकियों के नाम आते हैं । भारतीय नृत्यकला अति प्राचीन है । इसका समय ईसा की प्रथम शताब्दी के आसपास ही निर्धारित हो गया था ।

भारतीय नृत्यों में धर्म अभिव्यक्ति का प्रमुख आधार रहा है । इसमें सामाजिक जन-जीवन से जुड़े नृत्यों की परम्परा भी रही है । शास्त्रीय नृत्य में ताण्डव, भरतनाट्‌यम, कथक, कथकलि सम्मिलित हैं । भरतमुनि के नाट्‌यशास्त्र में संगीत, नृत्य एवं कविता का अद्‌भुत समन्वय मिलता है ।

इसका उद्देश्य मनुष्य में पवित्रता, सदाचार, मानव मूल्यों का संचार करना है । ये नृत्य कठिन साधना पर आधारित रहे हैं । इसके अतिरिक्त लोकनृत्यों में बिहू, नागा नृत्य, दोहाई, महारास, बसन्त रास, कुंज रास, उखल रास, सुआ ढाल, पंडवानी, डण्डा, करमा, कमा, लावणी, तमाशा, झाऊ, जात्रा, नौटंकी, यक्षगान, डांडिया, भांगड़ा, गिद्धा प्रमुख हैं ।

वैदिककाल में मेले में युवक-युवतियां नृत्य करते थे । नगरवधुएं अपने आमोद-प्रमोद के लिए नृत्य किया करती थीं । देवदासी के साथ-साथ सार्वजनिक नृत्यशालाएं प्रचलित थीं । मौर्य तथा कनिष्क के समय में नृत्यों का पुनर्जागरण हुआ ।

गुप्तकाल नृत्यकला का स्वर्ण युग था । मुगलकालीन नृत्यकला दरबारों तक सीमित शी । आधुनिक युग में पश्चिम के प्रभाव में डिस्को, कैबरे, ब्रेक डांस, बैले आदि का प्रभाव भारतीय नृत्यों में आ गया है । साथ ही फिल्मीकरण के कारण अश्लीलता और कामुकता आ गयी है । अर्द्धनग्न शैली में भोंडापन नृत्यों में दिखाई देता है ।

नृत्य की शास्त्रीय परम्परा को उदयशंकर, गोपीकृष्ण,बिरजू महाराज, उमा शर्मा, सितारा देवी, सोनल मानसिंह, वैजयन्ती माला जैसे नृत्य प्रेमी जीवित रखने का प्रयास करते रहे हैं । वहीं भारत सरकार एवं राज्य सरकारें भी इस प्रयास में शामिल हैं ।

नाट्‌यकला:  नाट्‌यकला को ललित कला भी माना जाता है, जिसमें मनोरंजन तथा अभिनय व रस की सृष्टि की जाती है । भरत के नाट्‌यशास्त्र में 11 प्रकार के नष्टको का वर्णन है । पाणिनी और पतंजलि की व्याकरण सम्बन्धी रचनाओं में नाट्‌य सम्बन्धी सूत्र हैं ।

भरत के नाट्‌यशास्त्र में नाटक से सम्बन्धित विविध पक्षों, रंग, वस्तु, अभिनय, संगीत आदि का विशद निरूपण है । इसी प्रकार अश्वघोष, कालिदास, शुद्रक प्रसिद्ध नाटककार थे । कालिदास के नाटकों-अभिज्ञान शाकुंतलम, विक्रमोर्वशीय तथा शूद्रक का मृच्छकटिकम, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस-प्रसिद्ध है ।

विशुद्ध नाटकों की परम्परा के साथ-साथ लोकनाट्‌य, नटों की कला, रामलीला, कृष्णलीला, कठपुतली, नौटंकी, स्वांग भारतीय जनजीवन को मनोरंजन के साथ-साथ संस्कृति का ज्ञान भी कराते हैं । 19वीं शताब्दी में नुक्कड़ नाटक, झफ्टा, {जनवादी नाट्‌य} प्रचलित हैं । आज नाट्‌यकला में अनेक नवाचारों का प्रयोग किया जा रहा है ।

भारतीय साहित्यकला:  भारतीय साहित्यकला की इतनी समृद्ध, गौरवशाली, विपुल तथा सशक्त विरासत है, जिस पर सभी को गर्व होगा । धार्मिक साहित्य में वेद, रामायण, महाभारत, पुराण, उपनिषद आते हैं ।

वैदिक साहित्य में शक्तिशाली देवताओं और दानवों के बीच संघर्ष का वर्णन है । वैदिककाल में 6 वेदांग हैं, इनमें शिक्षा, व्याकरण, कल्प, छन्द, ज्योतिष, निरुक्त हैं ।

प्राचीन भारतीय साहित्य में रामायण एवं महाभारत प्रसिद्ध पुस्तकें हैं । रामायण में जहां राम का आदर्श चरित्र है, वहीं महाभारत में कौरव और पाण्डव के बीच युद्ध की कथा है । जैनियों और बौद्धों के धार्मिक ग्रन्थों व्यक्तियों और घटनाओं पर आधारित हैं । जातक कथाएं पालि भाषा में हैं । जैन ग्रन्थों की भाषा प्राकृत है । कौटिल्य का अर्थशास्त्र भारतीय राजतन्त्र एवं अर्थव्यवस्था के समन्वय का उदाहरण है ।

गुप्तकालीन साहित्य संगम साहित्य, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक जीवन की जानकारी देता है । भारतीय विद्वानों में आर्यभट को गणितीय क्षेत्र में, कोसाइन साईन, पाई तथा शून्य निर्माण क्रिया की परिकल्पन पद्धति के लिए जाना जाता है ।

ब्रह्मगुप्त ने गुरुत्वाकर्षण, वराहमिहिर ने खगोल, भूगोल, नागार्जुन ने रसायनशास्त्र के क्षेत्र में, इस्पात बनाने, पक्के रंग तैयार करने, चरक और सुभूत की संहिताओं में कपाल छेदन, हाथ-पैर काटे जाने तथा मोतियाबिन्द जैसी जटिल शल्यक्रिया का वर्णन है ।

जयदेव, अलवार और नयनार सन्त कबीर, नानक, गुरु गोविन्द सिंह, कल्हण, सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, तुकाराम, नामदेव, ज्ञानेश्वर, बिहारी, घनानन्द, सेनापति, रसखान, प्रसिद्ध साहित्यकार रहे । आधुनिक युग में कविता, निबन्ध, नाटक, उपन्यास, एकाकी के साथ-साथ नयी विधाएं, रेखाचित्र, सस्मरण, आत्मकथा, जीवनी आदि प्रसिद्ध हुईं ।

प्रेमचन्द ने 300 कहानियां, 2 उपन्यास लिखकर कहानी व नाटक सम्राट का गौरव प्राप्त किया, वहीं प्रसाद ने ध्रुवरचामिनी, चन्द्रगुप्त, रकन्दगुप्त, अजातशत्रु आदि नाटक लिखकर नाटकसम्राट की उपाधि प्राप्त की । इस प्रकार साहित्य अपनी समृद्ध विरासत के साथ अपनी सृजन यात्रा में गतिशील है ।

उपसंहार: इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति कलाओं के माध्यम से भी व्यक्त होती है । कला का निर्माण, रूप, प्रक्रिया एवं उसके सौन्दर्य बोध में कला का आनन्द प्राप्त होता है । कला संस्कृति का अंग है । कलाओं के प्रोत्साहन से मानव दुष्प्रवृत्तियों का शमन होता है ।

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