केन्द्रवाद व एकरूपता के लक्षण । “Union Suit and Uniformity Characteristics” in Hindi Language!
संघीय व्यवस्था में शक्तियों का विकेन्द्रीकरण और प्रशासन में विभिन्नता का होना आवश्यक माना जाता है । भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का अध्येता इस बात से चकित होता है कि केन्द्र की सर्वोपरि सत्ता में से एकात्मक शासन प्रणाली की गन्ध आती है ।
हमारे यहां विकेन्द्रीकरण देखा जा सकता है । राजनीतिक व आर्थिक प्रशासन के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में विभिन्नता के स्थान पर एकरूपता के अधिक लक्षण विदित होते हैं । परिणामस्वरूप भारतीय संघीय व्यवस्था को उसके आलोचक एकात्मक प्रणाली का स्वरूप मानते हैं जिसमें उसकी विपरीत व्यवस्था के कुछ लक्षण मौजूद हैं ।
केन्द्रीकरण (Centralisation) की प्रवृत्तियों के निम्न लक्षण हैं :
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1. संघीय सिद्धान्त के दृष्टिकोण से शक्तियों का विभाजन अत्यधिक अनुचित है, जबकि केन्द्र को संघ सूची के 97 विषयों पर अधिकार है । साथ ही समवर्ती सूची के 47 विषयों पर उसे अतिव्यापी अधिकार प्राप्त हैं । राज्य सरकारों को राज्य सूची के केवल 66 (वस्तुत: 61) विषयों पर अधिकार प्राप्त हैं ।
2. केन्द्र और राज्यों के बीच राजस्व का इस प्रकार विभाजन किया गया है कि राज्यों को समान्यत: केन्द्र की वित्तीय सहायता पर निर्भर कर दिया गया है ।
3. किसी राज्य की निरन्तरता की कोई प्रत्यभूति नहीं है । केन्द्र देश के मानचित्र को नये सिरे से बदल सकता है । केन्द्र को राज्यों के नामों व सीमाओं में परिवर्तन करने का अधिकार प्राप्त है ।
4. संविधान के संशोधन की प्रक्रिया में भी केन्द्र की अपेक्षा राज्यों को बहुत कम अधिकार प्राप्त हैं । केवल संघीय व्यवस्था की संरचना से सम्बन्धित प्रावधानों के संशोधन के लिए आधे राज्यों की पुष्टि अभीष्ट
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है ।
5. संघीय प्रणाली में संसद के द्वितीय सदन में राज्यों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है, चाहे उनका आकार या जनसंख्या कुछ भी हो लेकिन भारत की राज्यसभा में राज्यों की जनसंख्या के आधार पर स्थानों की संख्या निर्धारित की गयी है ।
6. केन्द्रीय सरकार राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश दे सकती है । राज्यों की सरकारों के लिए ऐसे निर्देशों का मानना अनिवार्य है ।
7. राज्यों का कोई कानून मान्य नहीं होगा यदि वह ससद द्वारा बनाये गये कानूनों का उल्लंघन करता है तथा कोई राज्य अपनी प्रशासकीय शक्तियों का इस प्रकार प्रयोग नहीं करेगा जिससे केन्द्रीय प्रशासन में अवरोध आये ।
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8. संविधान में अति-केन्द्रीकरण की यह भी व्यवस्था है कि कुछ विशेष प्रकार के विधेयक (जिनका उद्देश्य संसद द्वारा किसी वस्तु को आवश्यक घोषित किये जाने के बाद उस पर करारोपण हो, उच्च न्यायालय की शक्तियों को कम करना हो या केन्द्रीय सरकार के कानून या नीतियों के विरुद्ध हो) राज्य के विधानमण्डलों से पारित होने के बाद राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित किये जायेंगे ।
9. राज्यसभा द्वारा इस आशय का प्रस्ताव पारित किये जाने के बाद कि राज्य सूची के किसी विषय को केन्द्रीय सूची या समवर्ती सूची में स्थानान्तरित करना राष्ट्रीय हित में होगा, अमुक विषय को विधायन कार्यों के लिए केन्द्र अपने हाथ में ले सकता है । केन्द्र किसी अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि या समझौते को क्रियान्वित करने के लिए भी राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकता है ।
10. सबसे बढ्कर, राष्ट्रपति को आपातकालीन शक्तियां दी गयी हैं, जिनका प्रयोग वह युद्ध, बाहरी आक्रमण देश में सशस्त्र विद्रोह, राज्य की संवैधानिक व्यवस्था के भंग होने व भारत या उसके किसी भाग की वित्तीय स्थिति या साख के गम्भीर खतरे में पड़ जाने पर कर सकता है ।
राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियां इतनी व्यापक हैं कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का संघीय रूप एकात्मक रूप में बदला जा सकता है । इसके अतिरिक्त, उन तत्त्वों का भी उल्लेख किया जाना चाहिए, जिससे विविधता (Diversity) के स्थान पर एकरूपता (uniformity) के लक्षण विदित होते हैं, जो क्रमश: संघात्मक तथा एकात्मक प्रणालियों के आधारभूत लक्षण माने जाते हैं ।
ये निम्नलिखित हैं:
1. भारतीय संघ के किसी राज्य को अपना संविधान बनाने का अधिकार नहीं है । (जम्मू व कशमीर राज्य के विषय को अनुच्छेद 370 के कारण अपवाद कहा जा सकता है ।) एक संविधान है, जिसमें केन्द्र व राज्यों की शासन व्यवस्थाओं का वर्णन है ।
2. भारत में एकल नागरिकता की व्यवस्था है । संघीय व्यवस्था के बावजूद इकहरी नागरिकता (भारतीय नागरिकता) की व्यवस्था की गयी है, ताकि हम ‘एक लोग एक देश’ के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें ।
3. देश की वैधानिक संस्थाओं के ढांचे में भी एकरूपता देखी जा सकती है । देश में दीवानी और फौजदारी कानून व प्रक्रिया की समान संहिताएं हैं ।
4. उच्च सार्वजनिक सेवाओं के क्षेत्र में तथाकथित एकरूपता देखी जा सकती है । राष्ट्रपति राज्यपालों को नियुक्त करता है, जो ‘केन्द्र के अभिकर्ता’ और राज्य सरकार के ‘संवैधानिक अध्यक्ष’ की भूमिका निभाते हैं । राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है ।
5. अन्तिम एकीकृत न्यायपालिका है, जिसके शिखर पर सर्वोच्च न्यायालय है । राज्यों के उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन हैं । सर्वोच्च न्यायालय का निदेश सभी न्यायालयों पर लागू होता है । इन तथ्यों की लम्बी सूची से यह विदित होता है कि भारत की संघात्मक प्रणाली में एकात्मक प्रणाली के लक्षण विद्यमान हैं ।
इसी कारण कुछ आलोचक भारत को अर्द्ध-संघात्मक या एकात्मक राज्य कहने का साहस करते हैं । के॰सी॰ हेयर के शब्दों में: ”भारत एक एकात्मक राज्य है, जिसमें संघात्मक राज्य के कुछ सहायक लक्षण हैं, न कि एक संघीय राज्य है, जिसमें एकात्मक राज्य के कुछ सहायक लक्षण हों ।”
उपर्युक्त विवेचन के बाद यह कहा जा सकता है कि भारत में केन्द्रीय सरकार को अत्यधिक शक्तिशाली बनाया गया है, परन्तु इससे संविधान के संघात्मक स्वरूप पर कोई आच नहीं आती है । भारत में इस तत्त्व ने एक शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया है । भारतीय संघ का संविधान अन्य संविधानों की तरह परिस्थितियों की उपज है और संघवाद के कठोर सिद्धान्त से दूर हटना इसे विश्व के संघीय संविधानों में अनोखा लक्षण प्रदान करता है ।
कुछ महत्त्वपूर्ण वक्तव्य :
(i) डा॰बी॰आर॰ अम्बेडकर:
मैं नहीं जानता कि कनाडा के संविधान में यूनियन शब्द का प्रयोग क्यों किया गया लेकिन मैं आपको यह बता सकता हूँ कि प्रारूप समिति ने इसका प्रयोग क्यों किया है । भारत एक संघ है, जिसकी कोई इकाई उसे छोड़ नहीं सकती । संघ अनाशवान् है ।
(ii) एम॰सी॰ सीतलवाड:
वास्तव में, संघीय व्यवस्था के अनिवार्य सिद्धान्त पर बल देकर उसका सच्चा रूप बताना कठिन कार्य है । मात्र यह कहा जा सकता है कि इसमें केन्द्रीय व क्षेत्रीय सरकारों के बीच शक्तियों का वितरण होता है, जो अनेक देशों में बड़ी मात्रा में भिन्न हो सकता है ।
(iii) के॰पी॰ मुखर्जी:
संविधान के प्रावधान यह स्पष्ट करते हैं कि यह एकात्मक है । आप केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों के वितरण का कोई वर्गीकरण करें वे प्रशासनिक सुविधा के हेतु किये गये हैं, यदि कहीं पर प्रशासनिक असुविधा पैदा होती है, तो उन प्रावधानों को संवैधानिक तरीके से समाप्त किया या बदल जाता है ।
(iv) अशोक चन्द्रा:
भारत संघात्मक राज्य नहीं है । अन्तिम विश्लेषण में अवधारणा व संचालन को देखते हुए यह एकात्मक राज्य है ।
क्षेत्रीय परिषदें :
संघीय व्यवस्था में केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण किया जाता है, लेकिन यह भी आवश्यक हो जाता है कि इकाईयों को एक-दूसरे से जोड़ा जाये ताकि केन्द्र व राज्यों के बीच टूट-फूट की प्रक्रिया शुरू न हो सके ।
अत: 1956 के राज्य पुनर्गठित अधिनियम या संविधान के सातवें संशोधन अधिनियम के अन्तर्गत क्षेत्रीय परिषदों की व्यवस्था की । उत्तर-पूर्व के राज्यों ने पूर्वी परिषद् में शामिल होने से इनकार किया अत; उनके लिए अलग परिषद् की स्थापना की गयी । राज्यों के पुनर्गठन की प्रक्रिया चलती रही, अत: नये राज्यों का निर्माण हुआ या कुछ संघ-शासित क्षेत्रों को राज्य का दर्जा दिया गया । अत: वर्तमान स्थिति इस प्रकार है :
पूर्वी क्षेत्र :
1. पश्चिमी बंगाल, 2. उड़ीसा, 3. बिहार और, 4. झारखण्ड ।
पश्चिमी क्षेत्र :
1. महाराष्ट्र, 2. गुजरात, 3. गोवा, 4. दमन व दीव और दादरा व नगर हवेली ।
उत्तरी क्षेत्र :
1. जम्मू-कशमीर, 2. हिमाचल प्रदेश, 3. पंजाब, 4. राजस्थान, 5. हरियाणा, 6. चण्डीगढ़, और 7. दिल्ली ।
दक्षिणी क्षेत्र :
1. केरल, 2. कर्नाटक, 3. तमिलनाडु, 4. आन्ध्र प्रदेश, 5. पाण्डेचेरी, 6. लक्षद्वीप और 7. अण्डमान व निकोबार द्वीप समूह ।
मध्य क्षेत्र :
1. उत्तर प्रदेश, 2. उत्तराखण्ड, 3. मध्य प्रदेश, 4. छत्तीसगढ़ ।
उत्तर-पूर्वी क्षेत्र :
1. असम, 2. मेघालय, 3. नागालैण्ड, 4. मणिपुर, 5. मिजोरम, 6.त्रिपुरा, 7.अरूणाचल प्रदेश और 8. सिक्किम ।
भारत का गृहमन्त्री सभी क्षेत्रीय परिषदों का अध्यक्ष है, किन्तु उपाध्यक्ष का पद हर वर्ष सदस्य-राज्यों के मुख्यमन्त्रियों के बीच घूमता रहता है । हर परिषद् की वार्षिक बैठक होती है, जिसमें साझे महत्त्व या सरोकार के विषयों पर चर्चा की जाती है तथा निर्णय लिये जाते हैं, जो सभी पक्षों को बाध्यकारी होते हैं । यह व्यवस्था भारत सहयोगी संघवाद (Co-operative federalism) का उदाहरण है ।
कुछ राज्यों व क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधान :
हम देख चुके हैं कि भारत में संघात्मक व्यवस्था स्थापित की गयी है । अत: केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण किया गया है । राज्यों की सरकारों को अपने आवण्टित क्षेत्र में स्वायत्तता दी गयी है, लेकिन कुछ संघ-शासित क्षेत्र भी हैं, जो प्रत्यक्षत: केन्द्र के अधीन हैं ।
केन्द्र किसी संघ-शासित क्षेत्र को राज्य का दर्जा दे सकता है, जैसे-हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, गोवा, मिजोरम व अरूणाचल प्रदेश के साथ हुआ । केन्द्र किसी राज्य का क्षेत्रफल काटकर नया राज्य बना सकता है, जैसें 2000 में उत्तर प्रदेश बिहार व मध्य प्रदेश को काटकर क्रमश: उत्तराखण्ड, झारखण्ड व छत्तीसगढ़ राज्य बने ।
किन्तु इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ राज्यों व क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधान किये गये हैं, जैसे :
1. जम्मू-कशमीर को विशेष स्तर दिया गया है । उसका अपना संविधान है, जिसके अनुसार वहां की सरकार का गठन होता है तथा वह अपना कार्य करती है, लेकिन इस संविधान में कोई ऐसा प्रावधान नहीं हो सकता जो भारतीय संविधान के प्रावधानों से टकराये ।
2. महाराष्ट्र में विदर्भ मराठावाड़ व अन्य क्षेत्रों तथा गुजरात में सौराष्ट्र कच्छ व अन्य भागों के लिए अलग-अलग विकास मण्डल बनाये जा सकते हैं ।
3. नागालैण्ड के बारे में संसद नागाओं की धार्मिक व सामाजिक परिपाटियों भूमि के स्वामित्व व उसके प्रयोग तथा नागाओं के प्रथाजनित नियमों के बारे में कानून बना सकती है ।
4. असम के बारे में राष्ट्रपति अपने आदेश से वहां की विधानसभा के सदस्यों की कमेटियां तथा उनकी कार्रवाई के नियम बना सकते हैं, जो जन-जातीय क्षेत्रों के सुचारू प्रशासन के लिए अनिवार्य हो । ऐसी व्यवस्था मणिपुर राज्य में भी हो सकती है ।
5. आन्ध्र प्रदेश के बारे में राष्ट्रपति ऐसे आदेश जारी कर सकते हैं, जिससे वहां के विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों को रोजगार के पर्याप्त व उचित अवसर मिल सकें ।
6. सिक्किम राज्य के बारे में कहा गया है कि वहां की विधानसभा में कम-से-कम 30 सदस्य होंगे, उसे लोकसभा में एक स्थान दिया जायेगा तथा राज्यपाल को शान्ति स्थापना तथा सामाजिक व आर्थिक विकास हेतु विशेष शक्तियां प्राप्त होंगी ।
7. मिजोरम के बारे में कहा गया है कि वहां की विधानसभा में कम-से-कम 40 सदस्य होंगे तथा वहां की विधानसभा की सहमति के बिना संसद मिजो लोगों की धार्मिक व सामाजिक परिपाटियों के बारे में कानून नहीं बना सकेगी ।
8. अरूणाचल प्रदेश में राज्यपाल को विशेष शक्तियां प्राप्त हैं, ताकि वह शान्ति बनाये रखे तथा इस नाते अपने स्वविवेक से कार्य कर सके ।
9. गोवा के बारे में प्रावधान है कि वहां की विधानसभा में कम-से-कम 40 सदस्य होंगे ।
ऐसे उपबन्ध संविधान के भाग XXI में दिये गये हैं, जिसका शीर्षक अस्थायी प्रावैधिक व विशेष प्रावधान (Temporary Transitional and Special Provision) है । इससे यह विदित हो जाता है कि ये संविधान के स्थायी भागों में नहीं आते । कुछ विशेष कारणों से ऐसी व्यवस्थाएँ की गयी हैं । इसके पीछे प्रेरक तत्त्वों या कारणों को निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है :
1. अक्टूबर, 1947 में पाकिस्तान ने कशमीर पर आक्रमण करके उसके काफी बड़े भाग पर कब्जा कर लिया । यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में गया जिसके निर्णयानुसार युद्ध-विराम हो गया ।
उस समय संविधान सभा अपना कार्य कर रही थी । अत: उस असाधारण स्थिति को देखते हुए जम्यू-कशमीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया ।
2. असम, नागालैण्ड, मणिपुर व अरूणाचल प्रदेश में शान्ति व्यवस्था का गम्भीर संकट बना रहता है । इसलिए राज्यपालों को विशेष शक्तियां दी गयी हैं तथा वहां के लोगों की धार्मिक व सामाजिक परिपाटियों को बनाये रखने का आश्वासन दिया गया है ।
3. 1974-75 में, सिक्किम का भारतीय संघ में विलय हुआ । अत: उसके एकीकरण की आवश्यकता को देखते हुए विशेष प्रावधान बनाना आवश्यक था ।
4. किसी राज्य की विधानसभा में 60 से कम सदस्य नहीं हो सकते लेकिन सिक्किम मिजोरम व गोवा की जनसंख्या को देखते हुए विधानसभाओं की सदस्य सख्या उससे कम है । संसद अपने कानून से न्यूनतम सदस्य सख्या निश्चित कर सकती है ।
5. आन्ध्र प्रदेश में मुल्की नियमों का विवाद चल रहा था । हैदराबाद रियासत में ऐसे नियम बनाये गये थे ताकि स्थानीय लोगों को ही लोकसेवाओं में स्थान मिल सके । न्यायालय ने ऐसे नियमों को अवैध कर दिया जिससे कुछ क्षेत्रों में आन्दोलन भड़क उठा । उसी की खातिर गैर-राजपत्रिक लोकसेवाओं में स्थायी रूप से वहां निवास की शर्त को उचित ठहराया गया ।
6. महाराष्ट्र व गुजरात के कुछ क्षेत्र बहुत पिछड़े है, इसलिए वहां पृथक् क्षेत्रीय विकास मण्डलों की व्यवस्था की गयी है ।
7. दार्जिलिंग पश्चिमी बंगाल का क्षेत्र है, लेकिन वहां के विकास के लिए विकास परिषद् (Development Council) बनायी गयी है । यही व्यवस्था असम में बोडोलैण्ड क्षेत्र के लोगों के लिए सुनिश्चित की गयी है । संक्षेप में भारत कल्याणकारी राज्य है ।
राज्य की समुचित सुरक्षा के अलावा उसके सभी क्षेत्रों का आर्थिक व सामाजिक विकास भी आवश्यक है । सुरक्षा व शान्ति व्यवस्था की स्थापना सामाजिक व आर्थिक विकास तथा उस राज्य या क्षेत्र की सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए ऐसी व्यवस्थाएं की गयी है ।
केन्द्र व राज्य के सम्बन्ध :
संविधान के अनुच्छेद 1 में, कहा गया है : ”भारत राज्यों का संघ होगा ।” इसलिए यहां राज्यों का अस्तित्व समाप्त नहीं किया जा सकता । संविधान की पहली अनुसूची में राज्यों की तालिका दी गयी है ।
संविधान की सातवीं अनुसूची में केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण दिखाया गया है । संघ सूची के विषय केन्द्र के पास हैं, राज्य सूची के विषय राज्यों को दिये गये हैं, समावर्ती सूची (Concurrent List) के विषय दोनों को दिये गये अपितु यह व्यवस्था भी की गयी है कि संघर्ष की स्थिति में केन्द्र का पलड़ा भारी होगा ।
सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गयी है, जो यथा आवश्यकता संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करेगा तथा केन्द्र व राज्यों के बीच विवादों को निपटाने में एक निर्णायक के रूप में काम करेगा । केन्द्र व राज्यों के बीच तीन प्रकार के सम्बन्धों का उल्लेख किया गया है : विधायी, प्रशासकीय तथा वित्तीय । उसके भाग XI में विधायी व प्रशासनिक सम्बन्धों तथा भाग XII में वित्तीय सम्बन्धों का वर्णन किया गया है ।
केन्द्र व राज्यों की सरकारों को विधायन की शक्तियां प्राप्त हैं । केन्द्र संघ सूची के विषयों पर कानून बना सकता है, राज्य सूची के विषयों पर राज्य कानून बना सकते हैं । समवर्ती सूची के विषय पर दोनों कानून बना सकते हैं, लेकिन टकराव नहीं होना चाहिए । यदि टकराव होता है, तो केन्द्र का कानून लागू होगा, लेकिन राज्य या राज्यों का कानून उस सीमा तक लागू नहीं होगा जहां तक वह केन्द्र के कानून से टकरायेगा ।
यदि केन्द्र ने किसी ऐसे विषय पर कानून बनाया हुआ है तो राज्यों को उस पर कानून नहीं बनाना चाहिए । इसका यह अर्थ नहीं है कि राज्य उस विषय पर कानून नहीं बना सकते । यदि कोई राज्य ऐसा प्रयास करता है, तो वहां का राज्यपाल उसे अपनी अनुमति न देकर राष्ट्रपति के विचाराधीन सुरक्षित रखेगा ।
राष्ट्रपति का मत अन्तिम होगा । यदि कोई अवशिष्ट त्रिपय है, अर्थात् ऐसा विषय है, जिसका किसी अनुसूची में उल्लेख नहीं है, तो केन्द्र ही उस पर कानून बना सकता है । यहां उल्लेखनीय बिन्दु यह है कि चार परिस्थितियों में केन्द्र राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकता है :
1. राज्यसभा अपने दो-तिहाई बहुमत से एक विशेष प्रस्ताव पारित करके राज्य सूची के किसी विषय को संघ सूची या समवर्ती सूची में इस आधार पर स्थानान्तरित कर सकती है कि उसने राष्ट्रीय महत्त्व धारण कर लिया है ।
ऐसा प्रस्ताव एक वर्ष तक चल सकता है, लेकिन राज्यसभा बार-बार उसकी अवधि बढ़ा सकती है । यदि अवधि नहीं बढ़ती तो संसद का कानून उस अवधि के बीतने के 6 मास से आगे नहीं चल सकता । (अनुच्छेद 249)
2. यदि देश में आपातकाल चल रहा है, तो संसद राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है, लेकिन ऐसा कानून आपातकाल हटने के 6 महीने के आगे नहीं चल सकता । (अनुच्छेद 252)
3. यदि दो या दो से अधिक राज्य केन्द्र से निवेदन करें कि वह उनके लिए राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना दे तो केन्द्र ऐसा कर सकता है, लेकिन ऐसा कानून उन्हीं राज्यों में लागू होगा जिन्होंने ऐसा निवेदन किया था या जो बाद में ऐसा निवेदन करके उस कानून को अपनायेगा । इसे आमन्त्रण द्वारा विधायन भी कहते हैं । ऐसे कानून को केन्द्र ही संशोधित या निरस्त कर सकता है । (अनुच्छेद 252)
4. यदि केन्द्र कोई अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि या समझौता लागू करना चाहे, तो वह राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकता है । (अनुच्छेद 253) यदि केन्द्र ने उपर्युक्त पहली या दूसरी परिस्थिति में राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाया तो वह तुरन्त लागू होगा ।
यदि ऐसा कानून राज्य या राज्यों के किसी कानून से टकरायेगा तो केन्द्र का कानून चलेगा लेकिन राज्य या राज्यों का कानून उस सीमा तक स्थगित रहेगा जहां तक टकराव है । केन्द्र का कानून हटने के बाद राज्य या राज्योंकेकानून का स्थगित अंश पुन: लागू हो जायेगा ।
अत: यह स्पष्ट है कि केन्द्र संघ सूची व समवर्ती सूची के किसी विषय पर तथा किसी अविशिष्ट विषय पर सामान्य स्थिति में कानून बना सकता है, लेकिन चार विशेष परिस्थितियों में वह राज्य सूची के किसी विषय पर भी कानून बना सकता है ।
प्रशासनिक सम्बन्ध :
संविधान के ग्यारहवें भाग के दूसरे अध्याय में केन्द्र व राज्यों के बीच प्रशासनिक सम्बन्धों का वर्णन किया गया है । यहां निम्न बिन्दुओं का उल्लेख किया जा सकता है :
1. राज्यों का यह दायित्व है कि वे संसद के कानूनों तथा राष्ट्रपति के आदेशों को सत्यनिष्ठापूर्वक लागू करें । केन्द्र इस बारे में अनिवार्य आदेश या निदेश भेज सकता है, जिनका राज्यों को पालन करना चाहिए ।
2. राज्यों को अपनी प्रशासनिक सत्ता का इस प्रकार प्रयोग करना चाहिए कि केन्द्र की प्रशासकीय सत्ता के प्रयोग में बाधा न पड़े । इस दिशा में भी केन्द्र राज्यों को अनिवार्य आदेश या निदेश भेज सकता है, जिनका पालन अनिवार्य है । केन्द्र संचार के साधनों, रेलवे, डाक-तार, जलमार्ग आदि की रक्षा हेतु भी अनिवार्य निदेश जारी कर सकता है, जिनका राज्यों द्वारा पालन आवश्यक है ।
3. यदि केन्द्र चाहे, तो अपने कुछ काम राज्यों को उनकी सहमति से सौंप सकता है, लेकिन इस बारे में केन्द्र राज्यों को खर्चा देगा । इसी प्रकार राज्य अपने कुछ कामों को केन्द्र की सहमति से सौंप सकते हैं, लेकिन राज्यों को इसका रब्रर्च देना पड़ेगा । यदि इस खर्चे की राशि या उसके भुगतान के बारे में कोई विप्तादन पैदा होता है, तो उसका निपटान एक पंच करेगा जिसे भारत का प्रधान न्यायाधीश नियुक्त करेगा तथा उसका निर्णय अन्तिम होगा ।
4. भारत सरकार किसी विदेशी शासन से समझौते के आधार पर देश के बाहर के क्षेत्र में विधायी प्रशासकीय व न्यायिक दायित्व ले सकती है, लेकिन उसका प्रशासन उस समय के विदेशी अधिकार क्षेत्र से सम्बन्धित कानून या राष्ट्रपति के अध्यादेश के अनुसार किया जायेगा ।
5. सारे देश में केन्द्र एवं राज्यों के सार्वजनिक कानूनों सरकारी प्रपत्रों तथा न्यायिक कार्रवाइयों का सम्मान किया जायेगा । इस बारे में तरीकों व दशाओं का निर्धारण संसद के कानून द्वारा निर्धारित किया जायेगा ।
6. राज्यों के बीच नदियों के पानी के प्रयोग वितरण व उसके नियन्त्रण के बारे में विवादों को संसद के कानून के अनुसार निपटाया जायेगा । संसद अपने कानून में ऐसी व्यवस्था कर सकती है कि ऐसे मामले को सर्वोच्च न्यायालय या किसी अन्य न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र से वंचित रखा जाये ।
7. राष्ट्रपति अन्तर्राज्य परिषद् का गठन करेंगे जो राज्यों के बीच विवादों के कारणों को ढूंढेगी तथा उनके समाधान के सुझाव देगी । यह परिषद् साझे महत्त्व के मामलों पर चर्चा करेगी तथा केन्द्र व राज्यों के बीच बेहतर समन्वय बनाये रखने हेतु कोई नीति बनाने या कार्य करने के सुझाव देगी । अत: राष्ट्रपति अपने आदेश से इस परिषद् की स्थापना करेंगे । उनके आदेशानुसार इस परिषद् की प्रकृति व उसके दायित्वों को निश्चित किया जायेगा ।
वित्तीय सम्बन्ध :
अन्त में इस संविधान के भाग में वर्णित केन्द्र व राज्यों के बीच वित्तीय सम्बन्धों को लेते हैं । यहां निम्न बिन्दुओं का उल्लेख किया जा सकता है :
1. संघ सूची में वर्णित विषय केन्द्र के राजस्व का निर्माण करते हैं, जैसे- रेलवे का किराया-भाड़ा डाक व टेलीफोन की दरें आयात शुल्क आदि । राज्य सूची में वर्णित विषय राज्यों का राजस्व बनाते है । जैसे- भूमि कर भवन कर भू-राजस्व बिक्री कर मनोरंजन कर आदि । समवर्ती सूची के विषय दोनों के राजस्व बनाते हैं ।
2. केन्द्र आयकर लगाता है, उसे घटा या बढ़ा सकता है तथा उसकी उगाही करता है, लेकिन उसमें से राज्यों को उसका अश दिया जाता है, जैसा वित्त आयोग सुझाये । सेवाकर केन्द्र लगा सकता है, लेकिन केन्द्र व राज्य उसकी उगाही कर सकते हैं तथा इस धन को खर्च कर सकते हैं । राज्य व्यवस्था कर लगा सकते हैं, जो एक व्यक्ति पर एक वर्ष में 2500 रुपये से अधिक नहीं हो सकता ।
3. असम, पश्चिम बँगाल, बिहार व उड़ीसा राज्यों को केन्द्र जूट उत्पादों के निर्यात शुल्क से होने वाली आय के उपलक्ष में विशेष अनुदान दे सकता है ।
4. राज्यों की सरकारें अनुसूचित जातियों अनुसूचित जन-जातियों अल्प-संख्यकों तथा समाज के दुर्बल वर्गों के कल्याण के लिए विशेष योजनाएं बनाती हैं । यदि ऐसी योजनाएं भारत सरकार द्वारा स्वीकृत हो जायें तो केन्द्र उसका खर्च देता है ।
5. यदि कोई राज्य बाढ़, सूखा, भूचाल, महामारी आदि से पीड़ित हो तो केन्द्र उसे विशेष अनुदान दे सकता है ।
6. देवास्वोम कोष के लिए केरल की सरकार 46,50,000 रुपये तथा तमिलनाडु की सरकार 13,50,000 रुपये वार्षिक देगी । यह व्यय उनकी संचित निधि पर भार होगा ।
7. अनुच्छेद 280 के तहत राष्ट्रपति हर पांच वर्ष बाद या जब उपयुक्त समझें वित्त आयोग का गठन करेंगे जिसमें एक अध्यक्ष व चार सदस्य होंगे । यह आयोग केन्द्र व राज्यों के बीच राजस्व के वितरण के सूत्र निर्धारित करेगा; ऐसे बिन्दु निर्धारित करेगा जिनसे राज्यों को विशेष अनुदान दिये जायेंगे; ऐसे सुझाव देगा, ताकि केन्द्र व राज्य अपने आय के साधनों को सुधारे ।
यह आयोग राज्य के बजट में से नगरपालिका के अश का भी निर्धारण कर सकता है, यदि राज्य के वित्त आयोग ने ऐसी सिफारिश की हो । यह आयोग किसी अन्य मामले को ले सकता है, जैसा राष्ट्रपति उसे प्रेषित करे ।
आयोग राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट पेश करता है, जिस पर भारत सरकार व संसद विचार करती है और फिर केन्द्र अनिवार्य संशोधनों के साथ उसकी सिफारिशों को लागू करता है । केन्द्र व राज्यों के बीच विधायी प्रशासकीय तथा वित्तीय सम्बन्धों के विवरण से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि राज्यों की अपेक्षा केन्द्र की स्थिति बहुत सबल है ।
राज्यों की स्वायत्तता बहुत सीमित है तथा अप्रत्यक्ष तरीकों से उसे और अधिक अंकुशित किया जा सकता है । इसलिए एक आलोचक के॰सी॰ हेयर ने भारत को अर्द्धसंघ (quasi-federation) कहा । एक भारतीय लेखक के॰पी॰ मुखर्जी ने भी यही टिप्पणी की कि भारतीय संविधान निश्चित रूप से गैर-संघीय है, लेकिन ऐसे वक्तव्यों को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए ।
संघीय व्यवस्था का मूल लक्षण है- केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण । यह भारत में है और इसीलिए भारत संघात्मक है । हर देश की अपनी विचित्र परिस्थितियां होती हैं, जिनके अनुसार संघीय व्यवस्था का रूप निर्धारित किया जाता है ।
केशवानन्द भारती केस (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने संघीय व्यवस्था को भारतीय संविधान के अमूल ढांचे का अनिवार्य तत्त्व माना है । संविधान सभा में आलोचकों के तर्कों का खण्डन करते हुए डॉ॰ अम्बेडकर ने कहा: ”हमने कनाडा के संविधान के शब्द ‘यूनियन’ को लिया है । हमारा संघ यूनियन है; क्योंकि यह अनाशवान है ।”